SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 68 /9 प निरूपण यह है : अथवा अथवा इसलिये, ४ & निष्पत्ति ( ratio ) को ग्रंथकार ने असंख्यात प्रमाण कहा है। यहां प्रतीक टाइप के अभाव में हम संख्यात के लिये द्वारा प्ररूपित कर रहे हैं। संदृष्टि के लिये ति प भाग २. ६१६-६१७ देखिये । इसके पश्चात्, ग्रंथकार ने तेजस्कायिक सूक्ष्म अपर्याप्त जीवराशि और बायुकाधिक बादर अपर्याप्त जीवराशि को असंख्यात कड़ा है। = } /{ ९.५ अथवा जंबूदीवपत्तिकी प्रस्तावना Y'a Q'q' Jain Education International ==& १०१०१० रिण ९·९*९*९ = ९*९*९*९ १९९.९९ '८' ९*९*९*९ [९·५·[ = a*१०*१०*१० रिण ९९९९ ] स्पष्ट है कि यह राशि असंख्यात है। यहां बिंदु का उपयोग गुणन के लिये हुआ है। इसके पश्चात्, ग्रंथकार ने साधारण बादर पर्याप्त और वायुकायिक सूक्ष्म पर्याप्त की निष्पत्ति को भी असंख्यात विभाग में रखा है। यथा: ११८. १०. १०. १०. ८.४ / ९. ९. ९. ९.५ (१३) ९·९*९*९*५ ९७ १०१०'१०८'४ १३ इससे ज्ञात होता है कि है की निष्पत्ति अवश्य ही असंख्यात होना चाहिये । अर्थात् १३ प्रतीक द्वारा प्ररूपित राशि ( a & ) के समान अथवा उससे बड़ी होना चाहिये । साधारण बादर अपर्याप्त और साधारण बादर पर्यास की निष्पत्ति असंख्यात प्रमाण कही गई । यथा : } 8 १२६/१११, जो वास्तव में केवल संख्यातगुणी प्रतीत होती है पर यह निष्पत्ति ह ६ के प्रमाण पर निर्भर है। यदि ६ को घनांगुळ मान लिया जाय, तो उसमें प्रदेशों की संख्या असंख्यात मानकर यह निष्पत्ति असंख्यात मानी जा सकती है। आगे ग्रंथकार ने सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण बादर अपर्याप्त की निष्पत्ति अनन्त मानी है । यथाः १२ ८ / १३·६ अथवा ८४७ ५४६ ९४५ ऐसा प्रतीत होता है कि इस निष्पत्ति को उपचार से अनन्त कहा गया है। इस समय कहा नहीं जा सकता कि ८, ६, ७ और ५ को यहां किन अर्थों में ग्रहण किया गया है। गा. ४, ३१८ - अवगाहनाओं के विकल्प का कथन, धवला टीका के गणित का अनुसंधान करते समय, सुगमता से सम्भव हो सकेगा । गा. ५, ३१९-२० यहां सम्भवतः ग्रंथकार ने निम्न लिखित सांद्र के घनफल का प्ररूपण किया है। यह एक ऐसा उदय रम्भ है, जिसका आधार, समद्विबाहु त्रिभुज सहित अर्धवृत है। आधार शंल आकृति कहा जा सकता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy