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________________ १७.] जंबूदीवपण्णत्ती [९. ११७ कंधणपायारजुदा अगाहखाईहि परिउड़ा' रम्मा । पोक्खरणिवाविपउरा उजाणवणेहि रमणीया ॥ १७ धुम्चतधयेवढाया जिणभवणविहसिया परमरम्मा । णाणाजणसंकिण्णा सुरिंदणगरी व रमणीया ॥ १६८ तित्थयरपरमदेवा गणहरदेवा य चक्कवट्टीया। बलदेववासुदेवा गरपवरा जस्थ' जाति ॥ १६९ भरतपरमदेवेहि भासिनो धम्मदीवपज्जलिया। धम्माणुभासरहिया मिश्छत्तकुलिंगपरिहीणा ॥ १७. बम्हाविण्हुमहसरदुग्गामाइग्चचंदबुद्धाण । भवणाणि स्थि तरिम दु विदेहवस्सम्मि गायब्वा ॥७॥ गइयाइयवइसेंसियमीमासंखकपिलममेदा । सुखोदणादिवरिसणं कदाचिज वि होति विजएसु ॥ १७२ पुम्वेण तदी गंतु कणयमया वेदिया पुणौ होइ । जोयणभत्तुंगा पंचेव धणुस्सया विउला ॥ १७५ पुग्वेण तदी गर्नु पंचसया जोयणाणि वेदीदी । णीलसमीवे होइ यं कणयमो दिग्ववर सैलो ॥१७॥ बावीससहस्साई गंतूण य भइसालवणमझे । वरगंधमादणणगो मेरुसमीवे समुहिटी ॥ १७५ पत्तारिकूडसहिमो जिणभवणविहूसिमो परमरम्मो । वणवेदिएहि जुत्तो वरतोरणमंडिमो दिवो ॥ १७६ बहुभवणसंपरिउडो तण्णामादेवरायसाहीणो । अमरविलासिणिपउरो गयकुंभसमो समुत्तुंगो ॥ १७७ .................. अगाध खातिकासे वेष्टित, रम्य, प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे संयुक्त, उद्यान-वनोंसे रमणीय, फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे सहित, जिनभवनोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय और नाना जनौसे संकीर्ण वह नगरी सुरेन्द्रनगरीके समान रमणीय है, जहा तीर्थकर परमदेव, गणदेव, चक्रवती, बलदेव एवं वासुदेव रूप पुरुष-पुंगव जन्म लेते हैं। तथा वह नगरी अरहंत परमदेवोंसे उपदिष्ट धर्म-प्रदीपसे प्रकाशित, धर्माभासोंसे रहित और मिथ्यात्व व कुलिंगसे हीम है ॥ १६४-१७० ॥ उस विदेह वर्षमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, दुर्गा, सूर्य, चन्द्र और बुद्धदेवके भवन नहीं हैं। ऐसा जानना चाहिये ॥ १७१ ॥ उन विजयोंमें नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, सांख्य-कपिल, ये मतभेद तथा शुद्धोदन (बुद्ध) आदिके दर्शन कदाचित् भी नहीं होते ॥.१७२ ॥ उससे आगे पूर्वकी ओर जाकर सुवर्णमय वेदिका है, जो अर्ध योजन ऊंची और पांच सौ धनुष विस्तृत है ॥१७३॥ उस वेदीसे आगे पांच सौ योजन पूर्वकी ओर जाकर नील पर्वतके समीपमें सुवर्णमय दिव्य उत्तम पर्वत स्थित है ॥ १७४ ॥ भद्रशाल वनके मध्यमें बाईस हजार योजन जाकर मेरुके समीप स्थित उत्तम गन्धमादन पर्वत कहा गया है ॥१७५॥ -यह उनत पर्वत चार टोंसे सहित, जिनभवनसे विभूषित, अतिशय रमणीय, वन-वेदियोसे युक्त, उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, बहुत भवनोंसे वेष्टित, उसीके नामवाले देवराजके स्वाधीन, प्रचुर देवांगनाओंसे सहित और हापौके कुम्भके सदृश है ॥ १७६-१७७॥ उखाइपरिउडा, श खाईपरिउडा. २ब देवाण चक्कवट्टी य. ३उश जित्थ. ४ उ मीसंमा, श मीसंसा. ५उबश मह. ६ उ सुद्धोदणाहिदरिसण, श सुद्धोदणाहिदरिसयण, ७ कदावि उणीलसमीव रोदि य कमेणमठ दिष्ववरसेलो, श पीलसमीव होदि द य कमेणमउ दिव्यवसेलो. ९ उश सहस्सायं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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