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________________ -२.२०) विदिओ उदेसी णउदिसदेहि विभतं दीवायाम विहीण समसुण्ण खेसादीण या कलसंखों इच्छसंगुणिदा।। इच्छागुण विण्णेया भरहादिविदेहवंसपरियंता। एकादिगुणदुगुणा सत्तेव य होति णिपिट्ठा ॥10 उणवीसगुणं किया पंचसया जायणा य छवीसा । छच्चेव कलासहिया कलसंखा होइभरहस्स ॥ चक्षुसुण्णएक्कतियससपण्णरसएक्कतीस तेसट्टी। भरहादिकला या उणवीसगदेहि छेदेहि .. नब्बैसे विभक्त करके दोनों राशियोंमें शून्यको अपवर्तित कर इच्छासे गुणित करनेपर क्षेत्रादिकी कलाओंका प्रमाण जानना चाहिये ॥ १७ ॥ भरत क्षेत्रको आदि लेकर विदेह क्षेत्र तक क्रमसे एकको आदि लेकर दूने दूने सात ही गुणकार बतलाये गये हैं, उन्हें इच्छागुणकार जामना चाहिये ॥ १८॥ विशेषार्थ- भरत क्षेत्रसे दूना विस्तार हिमवान् पर्वतका, उससे दूना हेमवत क्षेत्रका, उससे दूना महाहिमवान् पर्वतका, इस प्रकार विदेह क्षेत्र तक चूंकि उत्तरोत्तर दूना दूना विस्तार होता गया है। अत एष भरत, हिमवान् , हैमवत, महाहिमवान्, हरि, निषध और विदेह, इन सात स्थानोंके विस्तारप्रमाणको लानेके लिये क्रमशः १, २, ४, ८, १६, ३२ और ११, ये सात गुणकार बतलाये गये हैं । विदेह क्षेत्रसे आगे नील, रम्यक, रुक्मि, हेरण्यवत, शिखरी और ऐरावत, इन छह स्थानोंका विस्तार चूंकि उत्तरोत्तर भाधा आधा होता गया है, अतः इन सबके विस्तारको लानेके लिये क्रमसे ३२, १६, ८, ४, २ और १ ये छह गुणकार जानना चाहिये । उक्त १३ स्थानोंके अंकोंका योग चूंकि १९० होता है, अत एष अमीष्ट स्थानके विस्तारप्रमाणको लानेके लिये जम्बूद्वीपके विस्तार (१००००० योजन ) में १९० का भाग देकर लब्धको इच्छित गुणकारसे गुणित करना चाहिये । उदाहरण- हरिवर्ष क्षेत्रका विस्तार लानेके लिये १००.०४ १६ = १६.०० ( कलाओंमें ) = ८४२११ हरिवर्षका विस्तार । पांच सौ छब्बीस योजनोंको उन्नीससे गुणा करके उसमें छह कला और मिलानेपर भरतक्षेत्रकी कलाओंकी संख्या प्राप्त होती है ॥ १९ ॥ चार शून्योंक ऊपर एक, तीन, सोत, पन्द्रह, इकतीस और तिरेसठके रखनेपर उन्नीस भागोंसे क्रमश: मरतादिककी कलाओंका प्रमाण जानना चाहिये, अर्थात् चार शून्य और एक अंक प्रमाण ( १९९° ) भरत, चार शून्य और तीन अंक प्रमाण (३....) हिमवान्पर्वत, चार शून्य और सात अंक प्रमाण (५९) हैमवत, चार शून्य और पन्द्रह अंक प्रमाण (१५९९० ) महाहिमवान् पर्वत, चार शून्य और इकतीस अंक प्रमाण १९:०० हरिवर्ष, तथा चार शून्य और तिरेसठ (६३९:००) अंक प्रमाण निषध पर्वतकी कलाओका प्रमाण जानना चाहिये ॥ २०॥ १ समस्ण. १ प लासखा. ३ एयरस, श पणरस. पर दि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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