SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तिलोयपण्णसिका गणित १० पुन : ( असंख्यात लोक + १) की निरूपणा करता है। इसके पश्चात्, तेजस्कायिक बादर राशि का प्रमाण = माना गया है तथा सूक्ष्म राशि का प्रमाण (a) रिण (1) अर्थात् (=a)[१ रिण 4.] अथवा असंख्यात लोक रिण १ 11 माना गया है, जिसे ग्रंथकार ने प्रतीकरूपेण, लिखा है। असख्यात लोक यहां (असंख्यात लोक रिण १) के लिये प्रतीक ८ दिया गया है। .. इसी प्रकार, वायुकायिक बादरराशि का प्रमाण ३.१०.१०.१ . है; तथा सूक्ष्म राशि का प्रमाण = १०.३० १०.६ अथवा = १.१०.१०.८ है। यहां १०, (असंख्यात लोक + १) तथा८, (असंख्यात लोक - १) का निरूपण करते हैं। . . अब, जलकायिक बादर पर्याप्तक राशि का प्रमाण ग्रंथकार ने प्रतीक द्वारा बतलाया है । यहां = जगप्रतर है, प पस्योपम है, ४ प्रतगंगुल है और 8 असंख्यात का प्रतीक है। अब इस राशि में आवलि के असंख्यात माग का भाग दिया जाता है, तो पृथ्वीकायिक बादर पर्याप्त बीवों की संख्या का प्रमाण मिलता है। वहां आवलि का असंख्यातवा भाग प्रतीक रूप से प्रथकार ने लिया है जिसका 20. ४० प्रमाण आवलि असंख्यात आवलि a अर्थ-होता है (या लिखना चाहिये असंख्यात लोक था, पर वास्तव में यहाँ असंख्यात प्रमाण का अर्थ असंख्यात लोक ही है ) जिसके लिये प्रतीक है। इस प्रकार, पृथ्वीकायिक पर्याप्त बादर जीवराशि का प्रमाण ग्रंथकार ने प्रतीकरूपेण = पर दिया है। स्पष्ट है कि प्रतीक रूपेण निरूपण, अत्यन्त सरल, संक्षिप्त, युक्त एवं सुग्राम है। 5. इसके पश्चात् , तेजस्कायिक बादर पर्याप्त राशि का प्रमाण प्रतीक रूप से ८ दिया गया है वहाँ ८ को आवलि का प्रतीक माना है। यह बतलाना आवश्यक है कि जब आवलि का प्रतीक ८ माना गया है तो आवलि के असंख्यातवें भाग को न लेकर । क्यों लिया गया है ? इसके दो कारण हो सकते हैं। एक यह, कि असंख्यात लोक प्रमाण राशि (९) की तुलना में आवलि (बघन्य युक्त असंख्यात समयों की गणात्मक संख्या की १ यदि संख्या है और इस संख्या को ९ द्वारा भाजित करने से जो लब्ध आवे वह इस संख्या में जोड़ना हो तो क्रिया इस प्रकार है:- +3= १०३ = 3.१० । इसका ९वां भाग और घोड़ने पर . १०x१० प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy