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जंबुद्धीवपण्णतिकी प्रस्तावना
यह प्रमाण = अथवा ( असंख्यात घन लोक) के तुल्य निरूपित किया गया है। इसी प्रकार, जलकायिक राशि का प्रमाण प्रतीक रूपेण,२
(= ९) (३.५) होता है । अथवा, यह = [ 1] या है। इसी प्रकार वायुकायिक राशि का प्रमाण;
(= .. १) (= ... १६) होता है । अथवा, यह = १.१ [+३] या = .....है। यहां,
. असंख्यात लोक+१. १५ अख्यात लोक. असंख्यात लोक
होना चाहिये पर ग्रंथकार ने (असंख्यात लोक+१) को (९+१) न लिखकर १० लिख दिया है जो प्रतीक प्रतीत नहीं होता। आगे १० का वारंवार उपयोग हुआ है, इसलिये स्पष्ट हो जाता है कि वह ( असंख्यात लोक+१) का प्ररूपण करने के लिये प्रतीकरूप में ले लिया गया है।
२इस अध्याय में ग्रंथकार ने प्रतीकत्व के आधार पर परस्परागत शान का निर्देशन सरल विधि से स्पष्ट करने का अद्वितीय प्रयास किया है। गणितश इतिहासकार श्री बेल के ये शब्द यहां चरितार्थ होते प्रतीत होते हैं-"Extensive traota of mathematics contain almost no symbolism. while equally extensive tracts of symbolism contain almost no mathematics." यदि इस
व को सुधार करने का प्रयास सतत रहता तो जैन गणित की उपेक्षा इस तरह न होती और विश्व की गणित के आधुनिक इतिहास में इसका भी नाम होता। वह केवल इतिहास की ही वस्तु न होकर अध्ययन का विषय होकर उत्तरोत्तर नवीन खोजों से भरी होती। गणित में प्रतीकत्व के विकास के इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों ने कठिनता से अवधारणा में आनेवाली संख्याओं के निरूपण के लिये प्रतीकों का स्वतंत्र रूप से विकास किया। अन्य भारतीय गणितज भी उनके इस विकास से या तो अनभिज्ञ रहे या उन्होंने इसकी कोई कारणों वश उपेक्षा की। धन, ऋण, बराबर, मिन, भाग, गुणा आदि के चिह्नों का उपयोग इस ग्रंथ में नहीं मिलता है। परन्तु मस्तिष्क के परे की संख्याओं या वस्तुओं के लिए भिन्न-भिन्न प्रतीक देकर और उन्हीं पर आधारित नई संख्याओं को निरूपित करने का प्रयास स्पष्ट है। इस समय तक धन के लिये धन, ऋण के लिये ऋण लिखा जाता था। बराबर और गुणा के लिये कोई चिह नहीं मिलता है। भिन्न ३ को लिखा करते थे। भाग निरूपण के लिये भी कोई विशिष्ट चिह नहीं मिलता । वर्गमूल के लिये मी केवल 'धग्गमूल' लिखा जाता था । अर्द्धच्छेद के log: सरीखा सरल कोई भी प्रतीक नहीं मिलता। वर्ग या कृति, इत्यादि घातांकों को शब्दों से निर्देशित किया जाता था। यद्यपि, अभी तक अलौकिक गणित सम्बन्धी गणित अथ प्राप्त नहीं हो सका है बो क्रियात्मक प्रतीकत्व (Operational symbolism) के उपयोग का समर्थन कर सके, तथापि बीरसेनाचार्यकाल में अर्द्धच्छेद वथा वर्गशलाकाओं के आधार पर विभिन्न द्रव्य प्रमाणों के अल्पबहत्व का निदर्शन, बिना क्रियात्मक प्रतीकत्व के प्रायः असम्भव है।
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