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________________ २१२] अंबूदीवपण्णी । ११.२५५ नामिणिवाहियणाणी सुदणाणी पोधिणाणिया केई । सागारो उपजीगो' उवजोगो चेव मणगारो ॥२५५ मणजोगि' कायजोगी चिजोगी तरथ.होति.सम्वे । देवाइर दिविलोएँ दुसु वि ठामेसु गायम्वा ॥ २५६ उप्पज्जति चवंति य देवाणं तस्थ सदसहस्साई । गेहविमाणा दिग्या भकिहिमा सासदसभावा ॥ २५. पउमा सिवा य सुलसा सची य मंजू तहेव कालिंदी । सामा भा" य तहा सक्कस्स दुसम्ममहिसीमो ॥१५८ पउमा दु महादेवी सम्बंगसुजादसुंदरसुरूवा । कलमहुरसुस्सरसरा इंवियपहायणकरी य ॥ २५१ सम्वंगसुंदरी सा सवालंकारभूसियसरीरा । रूवे सो गंभे फासेण य णिच्च सा सुभगा ॥२९. पियदसणाभिरामा इट्टा ता पिया य सक्कस्स । सोलसदेविसहस्सा विउरुग्वदि उत्तमसिरीया ॥" बट्ठामो लामो जोम्बणगुणसालिणीभो' सम्वाो । पीदि जगंति तस्स दुभप्पविरूवैहि वेहि ॥ २१२ पीदिमणाणंदमणा विणएण कदंजली मंसति । विणएण विणयकलिदा सक्कं चित्तेण रामेति" ॥ १॥ विडम्वणा पभावो स्वं फासो तहेव गंधी य । भट्टण्ह वि वेवीण" एस सभाषो" समासेण ॥ ५. ................. श्रुतज्ञानी व कोई अवधिज्ञानी तथा साकार व निराकार उपयोगसे सहित है ॥ २५४-२५५ ॥ वहां वे सब देव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं। स्वर्गलोकमें देव चार ही गुणस्थानोंमें स्थित होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ २५६ ॥ वहाँ अकृत्रिम एवं शाश्वत स्वभाववाले जो लाखों दिव्य गृहविमान हैं उनमें देव उत्पन्न होते व मरते हैं ॥ २५७ ॥ पद्मा, शिवा, सुलसा, शची, अङ्ग्, कालिंदी, श्यामा तथा भानु, ये सौधर्म इन्द्रकी अनदेवियां हैं ॥२५८॥ सब अंगोंमें उत्पम सुन्दर रूपसे सहित, कल एवं मधुर सुन्दर स्वरसे संयुक्त, इन्द्रियों को भारहादित करनेवाली, सर्वांगसुन्दरी तथा सब अलंकारोंसे भूषित शरीरसे संयुक्त जो पद्मा महादेवी है वह रूप, शब्द, गन्ध व स्पर्शसे नित्य ही सुभग है ॥२५९-२६०॥ उक्त महादेवी इन्द्रकी प्रियदर्शना, अभिराम वल्लभा व इष्ट प्रिया है । उत्तम श्रीसे संयुक्त वह देवी सोलह हजार देवियोंके रूपोंकी विक्रिया करती है ॥२६१॥ यौवन गुणसे शोभायमान सब इष्ट वलमायें अपने अनुपम रूपोवाळे रूपोंसे इन्द्रको प्रीति उत्पन्न करती है ॥ २६२ ॥ मनमें प्रीति व आनन्दको धारण करनेवाली वे देवियां विनयसे हाथ जोड़कर नमस्कार करती हैं और विनयसे सहित होती हुई मन लगाकर नम्रतापूर्वक सौधर्म इन्द्रको रमाती है ।।२६३॥ विक्रिया, प्रभाव, रूप, स्पर्श तथा गन्ध यह संक्षेपसे आठों ही देवियों का स्वभाव है । अर्थात् ये उन आठों ही देवियों के समान होते हैं ॥२६॥ १ उब श सागारे उवजोगे, क सागरे उपजोगे. २ उश चेव जोयणागारे, कब अणगारे, ब व अनागारो. ३ उकब श मणजोग. ४ कब दिवलोए, ५ उ व अंह, कब य मंज, शब बंदू...उश मणू. ७ उश या. उश जोधण. ९ उबश सालिणीउ..उ विणयफनिदा. शबोतर्व फब्दिा. १. उश रामति ब रामंति. १२ क अढण्ई देवीणं.१३ क पमावो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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