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________________ जंबूदीवपणतिकी प्रस्तावना गा. २, १९५ - धर्मा या खप्रभा के नारकियों की संख्या निकालने के लिये पुनः जगश्रेणी और घनांगुल का उपयोग हुआ है। प्रतीक रूप से, धनांगुल के लिये ६ लिखा गया है और उसका धनमूल सूच्यंगुल २ लिखा गया है' । ४६ आज कल के प्रतीकों में घर्मा पृथ्वी के नारकियों की संख्या = जगभेणी x ( कुछ कम ) NE गश्रेणी X [ कुछ कम (६) ] = = बगश्रेणी x [ कुछ कम (२)] = जगश्रेणी x [ कुछ कम मूल गाथा में इसका प्रतीक दिया गया है। आड़ी रेखा बगश्रेणी है। १२ ३३ का अर्थ स्पष्ट नहीं है । वास्तव में उन्हीं प्राचीन प्रतीकों में लिखा जाना था (१) । गा. २, १९६ - इसी प्रकार, वंशा पृथ्वी के नारकी बीवों की संख्या आजकल के प्रतीकों में (सं) जिसमें कि ( बगश्रेणी करता है । (२)* ] बगश्रेणी + ( बगश्रेणी ) = लगश्रेणी + ( जगश्रेणी ४०९६ इसे मैथकार ने प्रतीक रूप में १२| लिखा है। स्पष्ट है कि इसमें प्रथम पद जगश्रेणी नहीं है का भाग देना है। यह प्रतीक केवल अगश्रेणी के बारहवें मूल को निरूपित Jain Education International १ यहां गश्रेणी का अर्थ बगश्रेणी प्रमाण सरल रेखा में स्थित प्रदेशों की संख्या से है। बगश्रेणी असंख्यात संख्या के प्रदेशों की राशि है । असंख्यात संख्यावाले प्रदेश पंक्तिबद्ध संलग्न रखने पर गश्रेणी का प्रमाण प्राप्त होता है। प्रदेश, आकाश का वह अंश है जो मूर्त पुद्गल द्रव्य के अविभाज्य परमाणु द्वारा अवगाहित किया जाता है। इसी प्रकार सूच्यंगुल (२) उस संख्या का प्रतीक है बो सूच्यंगुल में स्थित पंक्तिबद्ध संलग्न प्रदेशों की संख्या है। सूच्यंगुल भी नगश्रेणी के समान, एक दिश, परिमित रेखा - माप है । २ करणी का चिह्न तथा उसके उपयोग के विषय में गणित के इतिहासकारों का मत है कि इटली और उत्तर यूरोप के गणितज्ञों ने पंद्रहवीं सदी के अन्त से उसे विकसित करना आरम्भ किया था । विरा सेन्फोर्ड ने अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है, "Radical signs seem to have been derived from either the Capital latter R or from its lower case form, the former being preferred by Italian writers and the latter by those of northern Europe. Before the addition of the horizontal bar which showed the terms affected by the radical sign, varions symbols of aggregation were developed "A Short History of Mathematics" p. 158. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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