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________________ तिकीपपणतिका गणित इसे साधित करने पर पूर्ववत् समीकार प्राप्त होता है। गा.२,१०५-इन्द्रकों का विस्तार समान्तर दि (Arithmetical progression) में घटता है। प्रथम इन्द्रक का विस्तार ४५०,०००० योजन और अंतिम इंद्रक का १०,०००० योजन है। कछ इंद्रक बिल ४९ हैं। यह गच्छ की संख्या है जिसे प्रतीक रूप से हम n द्वारा निरूपित करेंगे । आदि ४५००००० (8) और अंतिम पद १०००००(1) तथा चय ( Common difference)d है तो d निकालने के लिये सूत्र ग्रंथकार ने यह दिया है: dam यहां n अंतिम पद के लिये उपयोग में आया है। प्रथम बिल से यदि n बिल का विस्तार प्राप्त करना हो तो उसे प्राप्त करने के लिये निम्न लिखित सूत्र का उपयोग किया गया है। B-.-(p-१)d. यदि अंतिम विल से n ३ बिल का विस्तार प्राप्त करना हो तो सूत्रको प्रतीक रूप से निम्न प्रकार निबद्ध किया जा सकता है: bab+(n-१)d. बह और b. उन nवे बिलों के विस्तारों के प्रतीक है। यहां विस्तार का अर्थ व्यास (diameter) किया जा सकता है। गा. २, १५७-इन बिलों की गहराई (बाहल्य) समान्तर दि में है। कुल पृथ्वियां ७ है। यदि nवीं पृथ्वी के इंद्रक का बाहल्य निकालना हो तो नियम यह है: _n वीं पृथ्वी के इंद्रक का बाहल्य = (n+१) ४३ इसी प्रकार, 7 वीं पृथ्वी के श्रेणिबद्ध बिलों का बाहस्य = (+1)४४ - (७-१) इसी प्रकार, n वीं पृथ्वी के प्रकीर्णक बिलों का बाहल्य = + १)" गा. २, १५८- दुसरी रीति से बिलों का बाहल्य निकालने के लिये ग्रंथकार ने उनके 'आदि के प्रमाण क्रमशः ६, ८ और १४ लिये हैं। पृथ्वियों की संख्या ७ है। यदि n वीं पृथ्वी के इंद्रक का बाहल्य निकालना हो तो सूत्र यह है: nवीं पृथ्वी के इंद्रक का बाहस्य = (६+n) यहां ६ को आदि लिखें तो दक्षिणपक्ष = (e+n) होता है। इसी प्रकार, nी पृथ्वी के श्रेणिवर बिलों का वाहत्य = ८+n) होता है। यदि ८ को आदि लिखें तो दक्षिण पक्षप्रकीर्णक बिलों के लिये भी यही नियम है। आगे गाथा १५९ से १९४ तक इन बिलों के अन्तराल (inter space) का विवरण दिया गया है जो सूत्रों की दृष्टि से अधिक महत्व का प्रतीत नहीं हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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