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________________ १६ जेवण [ ४. ८४ मणिभवण चारणाय गंधग्वणिवासचित्तणामाणि । सोमजमवरुणघणवइदवाणं कीडणागेहा ॥ ८४ चिक्सभायामेण य जोयणतोसा हवंति जायन्त्रा । पण्णासा उत्तुंगा वरभवणा रयणपरिणामा ॥ ८५ दवणमि या ते भवणा विविहरयणपरिणामा । पुन्त्रादिदिसविमागे पदाहिणा' होंति मेहस्स ॥ ८६ भट्टा कोडीओ गिरिकण्णाभो हवंति भवणेषु । एक्क्रेक्केसु वियाणद णिद्दिट्ठा जिणवरिंदेहि ॥ ८७ हायपण वजे । ग्वणैभच्छेन यपेच्छणिज्ज सम्वा हुँ । सोमादीदेवाणं णायध्वा होति कण्णाओ ॥ ८८ सोमपास पंडुयाणं एसेव कमो हवइ णायध्वो" । देवीण परिसंखा भवणाणं चात्रि एमेवे ॥ ८९ जवरि विसेसो जाणे उच्छेद्दायाम वह र्य विक्खंभा । णामाणि य भवणाणं अण्णणं' होंति मिडिट्ठा : ९० वज्जमवणेो य णामो वज्जप्पह तह सुवण्णणामा य । अवरो सुवण्णतेमो सोमणसवणस्स णायध्वा ।। ९१ विक्सभायामेण य पण्णरसा जोयणा समुद्दिट्ठा | 'पणुवीसा उच्छेद्दा वरभवणा होंति रयणमया ॥ ९२ कोहिय अंजणणाम हारिद्दों" भवण सेदणामो य । पासादा पंडवणे णाणामणिरयणसंछण्णा ॥ ९३ विक्स भाषामैण य भट्ट" जोयणा समुद्दिट्ठा। भद्वत्तेरसतुंगा रयणमया पंडुवणगेहा ॥ ९४ देवोंके क्रमशः मणिभवन ( मान, मानी ), चारणालय, गन्धर्वनिवास और चित्र नामक क्रीडागृह है ॥ ८४ ॥ रत्नों के परिणाम रूप वे उत्तम भवन तीस योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयाम से सहित तथा पचास योजन ऊंचे जानना चाहिये ॥ ८५ ॥ विविध रत्नोंके परिणाम रूप मे भवन नंन्दन वनमें मेरुके प्रदक्षिणक्रमसे पूर्वादिक दिशामागमें स्थित हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ ८६ ॥ एक एक भवनमें साढ़े तीन करोड़ गिरिकन्यायें होती हैं, ऐसा जिनेन्द्र देवके द्वारा निर्दिष्ट किया गया जानो ॥ ८७ ॥ आश्चर्यजनक लावण्य, रूप और यौवन से दर्शनीय उक्त सब कन्यायें सोमादिक देवोंकी जाननी चाहिये ॥ ८८ ॥ यही क्रम सौमनस और पाण्डुक बनमें स्थित गृहोंका भी जानना चाहिये। वहां देवियों व भवनों की भी संख्या समान है ॥ ८९ ॥ विशेष केवल इतना जानना चाहिये कि भवनका उत्सेध, आयाम तथा विष्कम्भ और नाम भिन्न भिन्न कहे गये हैं ॥ ९० ॥ वज्र, वज्रप्रभ, सुवर्ण और सुवर्णतज, ये सौमनस वनके भवनोंके नाम जानना चाहिये ॥ ९१ ॥ उक्त रत्नमयं उत्तम भवन पन्द्रह योजन विष्कम्भ व आयामसे सहित तथा पच्चीस योजन ऊंचे कई गये ॥ ९२ ॥ लोहित, अंजन, हारिद्र और श्वेत ( पाण्डु ), ये पाण्डुक वनमें स्थित रत्नोंसे व्याप्त हैं ॥ ९३ ॥ उक्त उन प्रासादोंके नाम हैं । ये प्रासाद नाना मणियों एवं पाण्डुक धनके रत्नमय भवन साढ़े सात योजन प्रमाण तथा साढ़े बारह योजन ऊंचे हैं ॥ ९४ ॥ फहराती हुई १ उश पदाहिणे ( शप्रतौ ' पदाहिणे' इत्यत आरम्य हवंति मवणे' पर्यन्तः पाठस्त्रुटितः ). १ उश डोघण. ३ उ प ब श सव्वास. ४ उ श णायव्वा ५ श वात्रि एममेत्र. ६ लह य ७ प ब अण्णाना. ८ बपणारसा ९ प बप्रत्योः १२तमगाथाया उत्तरार्द्ध नोपलभ्यते. १० उ श हारियो ११ उ रा अष्ट्ठट्ठम Jain Education International विष्कम्भ व आयाम से सहित ध्वजापताकाओं से सहित, उत्तम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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