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________________ चउत्यो उद्देसो धुम्वतधयवाया वरतोरणमंडिया परमरम्मा । कालागरुगंधडा बहुँकुसुमकयच्चणसणाहा ॥ ९५ सिंहासणसंजुसा कोमलपलंकसयगतलपउरा । पयरच्छराहि भरिया मच्छरयरूवसाराहि ॥९६ सम्वे वि पंचवण्णा णाणामणिकणयरयणसंछण्णा । उदियमंडलणिभा संपुण्णमियंकटम्जोवा ॥ ९७ सोमजमवरुणवासवणामाणं होयवादेवाणं । ते हॉति हु पासादा पुष्वक्कयसुकयकम्महि ॥९८ जोयणसहस्स तुंगो विरियण्णायाम तेत्तिमो दिट्ठो। बलभद्दणामकूडो जाणामणिरयणपरिणामो ॥१५ - पुग्वुत्तरम्मि भागे ईसाणे होह गंदणषणस्स । बलभद्दणामदेवो सिहरम्ति महाबलो वसह ॥... गंदणवण रुभिता पंचसया जोयणा दु णिस्सरिदो । भायासं पंचसया क्षेधित्ता ठाई सो सेलो ॥... सिरम्मि तस्स या देवाण पुरा हवंति रमणीया। पापारगोउरजुदा वावीवणसंडसंजुत्ता ॥१०१ गंदणमंदरणिसधा हिमविजया रुजयसायरा वज्जो'। अहेव समुविठ्ठा मेरुस्स पदाहिणे कूग ॥. विक्खंभायामेण य पंचेव सयाणि होति मूलेसु । उच्छेहा पंचसया तदद्ध सिहरेसु विस्थिण्णा ॥ १०४. तोरणोंसे मण्डित, अतिशय रमणीय, कालागरुके गन्धसे व्याप्त, बहुत कुसुमासे की गई पूजासे सनाथ, सिंहासनसे संयुक, प्रचुर कोमल पर्यक ( पलंग) एवं शय्यातलोंसे सहित, आश्चर्यजनक श्रेष्ठ रूपवाली उत्तम अप्सराओंसे परिपूर्ण, सब ही पांच वर्णधाले, नाना मणि, सुवर्ण एवं रत्नोंसे व्याप्त, उदयको प्राप्त हुए सूर्यमण्डलके सदृश, और सम्पूर्ण चन्द्रमाके समान उद्योतवाले वे प्रासाद सोम, यम, वरुण और कुबेर नामक लोकपालोंके पूर्वकृत पुण्य कर्मसे होते हैं ॥९५-९८ ॥ नन्दन वनके पूर्वोत्तर माग रूप ईशान दिशामें एक हजार योजन ऊंचा, इतना ही विस्तीर्ण व भायत, नाना मणियों एवं रत्नोंके परिणाम रूप बलभद्र नामक कूट कहा गया है। उसके शिखरपर महा बलवान् बलभद्र नामक देव निवास करता है ।। ९९-१०० ॥ वह पर्वत पांच सौ योजन प्रमाण नन्दन वनको रोककर फिर यहांसे निकाल पांच सौ योजन प्रमाण आकाशको रोककर स्थित है ।। १०१ ॥ उसके शिखरपर प्राकार व गोपुरोंसे युक्त तथा वापी और वनखण्डोंसे संयुक्त देवोंके रमणीय नगर हैं ॥ १०२ ॥ [ जिनमवनों के दोनों पार्श्वभागों में ] मेरुके प्रदक्षिण रूपसे नन्दन, मन्दर, निषध, हिम (हिमवान् ), विजय ( रजत), रुचक, सागर और वज, ये आठ कूट कहे गये हैं ॥१३॥ ये कूट मूटमें पांच सौ योजन विष्कम्म व आयामसे सहित, पांच सौ योजन ऊंचे, गौर शिखरोंपर इससे आधे अर्थात् अढाई सौ योजन प्रमाण विस्तीर्ण हैं ॥ १.१ ॥ नन्दन १ संवद्या. य. उश पराय, पब राय, परय.५. अपक्षक, पब उत्यकश उदयक. श गंदणवमिता.. श निस्सरिद पवमा. मा. अरुजसायरावस्जो, श अपजसायरवाजे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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