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________________ ९६] जंबूदोषपण्णसी [५. ९२ देवा घडणिकाया भार्गवर्ण महाविभूदीए । पूर्ण करेंति महदा महासरभट्ठदिवसेतु ॥ ९२ गयवरखंधारूढो बहुविहमणिविष्फुरतमणिमउडो । उज्जलवरवज्जकरो सोहम्मदो समाइण्णो' ॥ ९३ बरवसभसमारूतो कंठाकडिसुत्तभूसियसरीरो । णिम्मतिसूलपाणी ईसागिंदो समाइण्णो' ॥ ९४ वरसीहसमारूडो उदयकसमाणकुंडलाहरणो । परमसिपहरणहस्थो सणकुमारो समोहणों' ॥ ९५ वरतुरयसमारूढो णाणामणिरपणभूलिपसरीरो । परसुवरमंडियकरो मादिसुरो समोइण्णो ॥ ९६ ससिधवल हंसेचडिभो गिम्मलमणिदंडपहरणकरत्थो । धवलादवत्तचिण्हो भसुरिंदो समारणों ॥९. मुत्तरो वि इंदो सिपचामरविन्जमाण बहुमाणो । वाणरपिट्ठम्मि ठिो पासरत्यो समोइण्णो ॥ ९८ सारसविमाणरूठो तुडियंगरकणयकुंडलाभरणो। कोयंब्हायो तवईदो समोइण्णो ॥ ९९ काविट्टो वि य इंदो मयरविमाणम्मि संठिमी धीरो। वरकमलकुसुमहत्थो महाबको सो समोइण्णी ॥ ... घरचवायरूडो फलिहामलरयणकुंटलाहरणो । पूयफलगुग्छहत्यो सुक्कसुरो सो समोइग्णो ॥१० नन्दीवर ( अष्टाहिक पी) के आठ दिनों मइती पूजन करते हैं ॥ ९२ ॥ बहुत प्रकारकी मणियों द्वारा प्रकाशमान मणिमुकुटसे संयुक व हाथमें उबल एवं श्रेष्ठ बत्रको लिये हुए सौधर्म इन्द्र उत्तम गजराजके कन्धेपर चदकर आता है ॥ ९३ ॥ कण्ठा व कटिसूत्रसे भूषित शरीरवाला ईशान इन्द्र उत्तम वृषमयर चदकर हायमें निर्मल त्रिशूलको लिये हुए यहां माता है ॥ ९५ ॥ उदयकालीन सूर्य के समान कुण्डल रूप आभरणोंसे भूषित सनत्कुमार इन्द्र हायमें तम्बार आयुधको लिये हुए श्रेष्ठ सिंहपर चढ़ कर यहां आता है ॥ ९५ ॥ नाना मणियों एवं रत्नोंसे भूषित शरीरवाला माहेद्र इन्द्र हायमें श्रेष्ठ परशुको लिये हुए उत्तम अश्वपर चढ़ कर आता है ॥ ९६ ॥ चन्द्रमाके समान धवल हंसपर भारूद और धवल आतपत्रसे चिहित ब्रह्मेन्द्र हायमें निर्मल मणिदण्ड आयुधको लिये हुए आता है ॥ ९७ ।। धवल चामरोंसे वोग्यमान, बहुत आदरसे संयुक्त और वानरकी पीठपर स्थित ब्रह्मोत्तर इन्द्र भी हाथमें पाशको लिये हुए आता हैं ।। ९८॥ त्रुटित (हायका आभरणविशेष ), अंगद एवं सुवर्णमय कुण्डल रूप आभरणोंसे भूषित लान्तव इन्द हायमें धनुर्दण्डको लिये हुए सारस विमानपर चदकर आता है ॥ ९९ ।। मकर विमानपर स्थित, धीर और महा बलवान् वह कापिष्ठ इन्द्र भी हायमें उत्तम कमल कुसुमको लिये हुर आता है ॥ १०॥ उसम चक्रवाकर आरूद और स्फटिकमणिमय निर्मल रत्नकुण्डल रूप आभरणसे विभूषित वह शुक्रइन्द्र हायमें सुपाडीके गुच्छेको लिये हुए आता है ।। १०१॥ श्रेष्ठ देवोस वेष्टित, उश पूयं. २ उ समाइण्णो, प..., शशमारणो. ३ उब समाइण्यो, श समाहणो. ४ उ समाइण्णो, प...,बसणाइण्णो, श सभारणो. ५ उश हंसि. ६ उशपहरणावरणो. ७श सभोइण्णो. ८ उपाणरपिडिम्मि लियो, प.... बानारपिट्टमिइमोशनागरपिटिभि बिमो. ९पनीक... पब सरो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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