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२५० जंबूदीवपण्णत्ती
[१३. १२८तेण कहिय धम्म' अर्णतसोक्खस्स कारणं सोएं। तं धम्म घेत्तम्वं सिवमिच्छतेणे पुरिसेण ॥ १३८ भवि चलह मेरुसिहरं चालिज्जतं पि" सुरवरभदेहि । णो जिणवरेहि दि संचलइ पयासिघ सस्थं ॥१९ परमेटिभासिदस्थं उड्ढाधोतिरियलोयसंबई । जंबूदीवणिबद्धं पुवावरदोसपरिहाणं ॥ १४० गणधरदेवेण पुणो अस्थं लद्धण गंथिदं गंथं । अक्खरपदसंखेज मतमस्थेहि संजुत्तं ॥ १४॥ मिथ्यादर्शन, प्रमाद, पिशुनता, अज्ञान और अनिग्रह ( स्वेच्छाचरण ), इस प्रकार ये २१ सावधभेद होते हैं। इनको अतिक्रम (विषयाकांक्षा ), व्यतिक्रम ( विषयोपकरणोंका अर्जन ), अतिचार (व्रतशिथिलता ) और अनाचार (व्रतभंग ), इन ४ से गुणित करनेपर वे चौरासी (२१४४८४ ) होते हैं । पृथिवीकायिकादि रूप दश कायभेदों को एक दूसरेसे गुणित करनेपर वे सौ (१०x१० = १००) हो जाते हैं । इन सौ भेदोसे उपयुक्त चौरासी भेदोंको गुणित करनेसे वे चौरासी सौ (८१४१०० = ८४०० ) होते हैं। अब इनको क्रमसे १० शीलविराधनाओं, १० आलोचनाभेदों और १० शुद्धियोंसे गुणित करनेपर वे सब भेद चौरासी लाख हो जाते हैं । यथा-८४००४१०x१०x१०८४००००० । इनके उच्चारणका क्रम इस प्रकार है- (१) हिंसाविरत, अतिक्रमदोषरहित, पृथिवीकायिक जनित पृथिवीकायिकविराधनामें मसंयत, स्त्रीसंसर्गवियुक्त, आकम्पितआलोचनादोषसे रहित और आलोचनशुद्धिसे संयुक्त; यह प्रथम गुणभेद हुआ। आगे हिंसाविरतके स्थानमें क्रमशः असत्यविरतादिको ग्रहण कर शेषका ज्योंका त्यों उच्चारण करना चाहिये । इस प्रकारसे २१ स्थानों के वीतनेपर 'अतिक्रमदोषरहित' के स्थानमें 'न्यतिक्रमदोषरहित" बादिको ग्रहण कर पुनः शेषका पूर्वोक्त क्रमसे ही उच्चारण करना चाहिये ( विशेष जाननेके लिये मूलाचारका शीलगुणाधिकार देखिये )।
उस सर्वज्ञ देवने जिस धर्मका उपदेश दिया है। वह अनन्त मुख (मोक्षसुख ) का कारण है । अत एव मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषके द्वारा वह धर्म ग्रहण करने योग्य है ॥१३८॥ उत्तम देव सुमटोंके द्वारा चलाये जानेपर कदाचित् मेरुशिखर विचलित भी हो सकता है, परन्तु जिनेन्द्रकेि द्वारा उपदिष्ट व प्रकाशित शास्त्र चलायमान नहीं हो सकता । अर्थात् वह 'पदा के यथार्थ स्वरूपका निरूपक होनेसे प्रतिवादियोंके द्वारा अखण्डनीय है ॥ १३९ ॥ ऊर्य, अधः वतिर्यक् लोकसे सम्बद्ध जो जम्बूद्वीपनिबद्ध शास्त्र है उसका विषय चूंकि परमेष्ठी द्वारा भाषित है, अत एव वह पूर्वीपर ( विरोध रूप ] दोषसे रहित है ॥ १०॥ अरहन्तके द्वारा उपदिष्ट उपर्युक्त अर्थको ग्रहण कर फिर गणधर देवके द्वारा वह अन्धके रूपमें रचा गया। वह अक्षरों व पदोंकी अपेक्षा संख्येय होकर भी अनन्त अर्थोसे संयुक्त है॥१४१ ॥ आचार्य परम्परासे प्राप्त .........................................
पबधम्मा. कसोई, पबसे1.३उथ सिवमरण, पब सिषमित्रोण.क. ५हकपबश संबंध. ६ उश वर्णवसत्यहि.
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