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________________ ७८ जंबूदीयपण्णत्ती [४. २०५ इच्छगुणरासियाणं भादिधणं संगुणं पुणो किच्चा । लद्धं णायच्वं इच्छधण होइ सव्वाणं ॥ २०५ कच्छाए कच्छार पुरदो वज्जति तूररमणीया | पडुपडहसंखमद्दल काहलकोलाहलरवेहि ॥ २०६ उच्छंगदतमुसला पभिण्णकरदा मुहा गुलगुलंता । पगलंतदाणणिज्रधरणीधरसंणिभा चेव ॥ २०७ लंबंतरयणघंटा णिम्मलमणिकुसुमदामकयसोहा । णाणापडायचित्ता सिदादवत्तेहि छज्जंता ॥ २०८ लंबंत कणचामर मणिकिकिणिरणरणतरमणीया। मणिकणयर कच्छा कयलीहरछज्जिया' रम्मा ॥ २०९ बरदेविदेवपउरा भच्च दसोहसारसंपण्णा । हरिथहडाण सेण्णं विस्थरइ समंतदो गयण ॥ २१. एवं णागागीया गच्छंता सुरवरा महासत्ता । दाविता पुण्णफलं पच्चक्खं जीवलायस्स ॥२॥ गहाणीया मि सुरा पच्चंता बहुविहेहि स्वेहि । गच्छति' मेरुसिहरं जिणजम्मणमहिमअणुराया ॥२१२ विजाहरकुसुमाउहरायारायाहिवाण२ चरियाणं । णचंति णच्चणसुरा पढमे कच्छामि णिघिट्टा ॥ २१३ पुदवाईण चरियं सयलहमहंतमंडलीयाणं । बिदियाए कछाए णचंता सुरवरा जंति ॥ २१४ काहलके कोलाहल शब्दोंके साथ रमणीय बाजे बजते हैं ॥ २०६ ।। उन्नत दांतरूपी मूसलोंसे सहित, गण्डस्थलसे मदको बहानेवाले तथा मुखसे सहर्ष गरजनेवाले वे हायी बहते हुए मद जैसे झरनासे युक्त पर्वतके समान ही प्रतीत होते हैं ॥ २०७ ।। लटकते हुए रत्नमय घंटासे संयुक्त, निर्मल मगियों व कुसुमोको मालासे की गई शोभाको प्राप्त, नाना पताकाओंसे विचित्र, धवल छत्रसे सुशोमित, कानों में लटकते हुए चामरों और मणिमय क्षुद्र वंटिकाओंके रण-रण शब्दसे रमणीय, गणि एवं सुवर्णमय कक्षा (हाथीके पेटपर बांधनेकी रस्सी) से अलंकृत, कदलीमारसे सुशोभित, रमणीय, उत्तम देवदेवियोंसे प्रचुर तथा आश्चर्यजनक श्रेष्ठ शोमाने सम्पन्न उन हस्तिवटाओंकी सेना आकाशमें चारों ओर फैल जाती है ॥ २०८-२१० । इस प्रकार महा बलवान् उत्तम नागानीक देव जीवलोकको प्रत्यक्षमें पुण्यफलको प्रगट करते हुए गमन करते हैं ॥२११॥ नर्तकानीक देव भी बहुत प्रकारके वेषोंसे नाचते हुए जिनजन्ममहिमाके अनुरागसे मेरुशिखरपर जाते हैं ॥ २१२॥ नर्तकानीक देव प्रथम कक्षामें विद्याधर, कुसुमायुध ( कामदेव ) राजा और राजाधिपके चरित्रोंका अभिनय करते हैं ॥ २१३ ॥ द्वितीय कक्षाके नर्तक देव समस्त अर्ध मण्डलीक और महा मण्डलीक राजाओंके चरित्रका अभिनय करते हुए जाते हैं ॥ २१४ ॥ तृतीय कक्षाके नर्तक देवगण बलदेव, वासुदेव और ............. १५ व किच्च, शं कि. २ उ गुलुगुलिंता, प गुलुगुलंता, श गुलिता. ३ उ पटापचित्ता, य वडायचित्ता, श पडायविता.४श उज. ५ उ कयलीहरछज्जुया, श कयलीहरच्छज्जुपा. ६ उ अचुम्भद्, पब अच्चत्य, श अचुम्बद ७ पब गाणं. ८उणदाणीया, श णद्दाणीया. पब णाचति. १. पय बहुविहेहिगच्छति. 11 उश अणराय. १२ उपब रायाहियाण, श साहाहियाण, १३ उपहइवइण, पब पुवईण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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