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________________ -१०.२२] दसमो उदेसो [१७५ सत्तसदवाणउदा सत्तत्तीला य जोयणा भणिया। खुल्लगपादालाणं अंतरमधियं मुणेदव' ॥१. पुण्णिमदिवसे कवणो' सोलसजोयणसहस्सउत्तंगो। ममवासिदिणे' णेया एयारसजोयणसहस्सा ॥ १८ समहियतिभाग जोयण तिण्णेव सया हवंति तेत्तीसा । लवणोदयपरिवही दिवसे दिवसे समुदिहा ॥" किण्हेण होइ हाणी सुक्किलपक्खेण होइ परिवड्ढी । पण्णरसेणं विभत्ता पंचसहस्सा समुट्ठिा ॥२. मुहभूमिविसेसेण य उच्छर्यभजिदं तु सा हवे वड्ढी । इच्छागुणियं मुहपक्खित्ते य होइ इच्छफळं ॥२॥ वित्यार दससहस्सा मज्झम्मि दु होइ लवणउवहिस्स ! अवगाढो दु सहस्सं मक्खीपक्खोवमो मंते ॥ २१ क्षुद्र पातालोंका अन्तर सात सौ अट्ठानबै योजन और [ एक योजनके एक सौ छब्बीस भागोंमेंसे ] सैंतीस भागोंसे कुछ अधिक कहा गया जानना चाहिये १११३०८५४ -(१२५४ १००) + १२६ = ७९८,२.९.४ } ॥ १७॥ लवण समुद्र पूर्णिमाके दिन सोलह हजार योजन और अमावस्याके दिन ग्यारह हजार योजन ऊंचा जानना चाहिये ॥ १८ ॥ लवण समुद्रके जलमें प्रतिदिन एक त्रिभागसे अधिक तीन सौ तेतीस योजन प्रमाण वृद्धि कही गई है ॥ १९॥ कृष्ण पक्षमें लवण समुद्रके जलमें [प्रतिदिन ] पन्द्रहसे विभक्त पांच हजार (५९९° = ३३३३ ) योजन प्रमाण हानि और शुक्ल पक्षमें उतनी ही वृद्धि कही गई है ॥ २०॥ भूमिमेंसे मुखको कम करके उत्सेधका माग देनेपर वृद्धिका प्रमाण आता है। इच्छासे गुणित वृद्धिको मुखमें मिलानेपर इच्छित फल होता है ॥ २१ ॥ उदाहरण- अमावस्याके दिन लवण समुद्रके जलकी उंचाई ११००० यो. होती है। शुक्ल पक्षमें वह क्रमशः प्रतिदिन बढ़कर पूर्णिमाके दिन १६००० यो. प्रमाण हो जाती है। अब यदि हम अभीष्ट १२ ३ दिन ( द्वादशीको) लवण समुद्रके जलमें कितनी उंचाई होती है, यह जानना चाहते हैं तो वह इस करणसूत्र के अनुसार जानी जा सकती है। जैसे- भूमि १६०००, मुख ११०००, उत्सेध १५ दिन; अतः १६००० -११००० = ५०००; ५०००१५-३३३३ यो., यह प्रतिदिन होनेवाली वृद्धिका प्रमाण हुआ। अब चूंकि १२३ दिन होनेवाली जलकी उंचाई जानना अभीष्ट है, अतः इस वृद्धिके प्रमाणको १२ से गुणित करके मुखमें मिला देनेपर वह इस प्रकार प्राप्त हो जाती है- ३३३३४ १२ + ११००० = १५००० यो.। लवण समुद्रका विस्तार मध्यमें दश हजार योजन और अवगाह एक हजार योजन प्रमाण है । अन्तमें वह मक्खीके पंखके समान है ॥ २२॥ लवण समुद्रके अवगाह अर्थात् क सत्तसहाणउदा जोयण मायाण सत्तीसा य. २ उ अंतरमेगं मुणेदवा, ब अंतरमधियं सुणदव्या, श अंतरमेगंणेयव्वा. ३उ पुनिच्छदिवसे सवणे, ब पुण्णिमहिवसे लवणे, श पुनिव्वदिवसे लवणे. ४ कब अमवगिविणे. ५उ सुकिक्कपसेण, श मुकिपण. ६क उछ, ब उव्य, शक्छिय..उशकवणउदिस्स. शबंतो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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