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________________ १७६] जंबूदीवपण्णत्ती [१०.२३ मवगाढो पुण णेमो' हाणी वढी य होइ' लवणस्स । पविसंतो परिवड्डी' णीयंतो होइ परिहाणी ॥ १॥ पंचाणउदिसहस्सा जोयणसंखा य हाणिवढिस्स । बेत्तस्स दु णायम्वा णिहिट्ठा सम्वदरिसीहि ॥ २४ मजमम्मि दुणायब्वो अवहिदो तस्थ होइ भवगाढो । दोसु वि पासेसु वहा खेती मणवटिदो एवणे ॥ पंचाणउदा भागा हाणी वढी दु होह णायन्वा । इच्छगुणं काऊणं जं लद्धं दोहइच्छफलं ॥ २६ ................ विस्तारमें हानि और वृद्धि जानना चाहिये । इनमेंसे प्रवेश करते समय वृद्धि और आते समय हानि हुई है ॥ २३ ॥ सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट हानि-वृद्धिके क्षेत्रका प्रमाण पंचानबे हजार योजन जानना चाहिये ॥ २१॥ वहां लवण समुद्रका अवगाह (विस्तार) मध्यमें अवस्थित और दोनों ही पार्श्व भागोंमें विस्तारक्षेत्र अनवस्थित है, ऐसा जानना चाहिये ॥२५॥ जलशिखाके विस्तारमें [ सोलह हजार योजन प्रमाण उंचाई में से प्रत्येक योजनकी उंचाईपर आठसे माजित ] पंचानबै भाग (१५) प्रमाण हानि अथवा वृद्धि होती है, ऐसा जानना चाहिये । इस हानिवृद्धिको इच्छासे गुणित करके जो प्राप्त हो वह इच्छित फल होता है ॥ २६॥ विशेषार्थ- लवण समुद्रका आकार एक नावके ऊपर उलटी करके रखी हुई दूसरी नायके समान है। उसका विस्तार नीचे पृथ्वीतलमें १०००० यो. है। ऊपर क्रमशः वह वृद्धिंगत होकर सम भूमिमें २ लाख यो. प्रमाण हो गया है। सम भूमिसे ऊपर आकाशमें उसकी जलशिखा है। यह अमावस्याके दिन सम भूमिस ११००० यो. प्रमाण ऊंची रहती है। फिर वह शुक्ल पक्षमें प्रतिदिन क्रमशः वृद्धिको प्राप्त होकर पूर्णिमाके दिन १६००० यो. प्रमाण ऊंची हो जाती है। इसका विस्तार सम भूमिपर २ लाख यो. और फिर वह क्रमशः दोनों ओरसे हीन होकर अन्तमें १०००० यो. प्रमाण हो गया है। इस प्रकार जलशिखाके विस्तारमें १६ हजार यो. की उंचाई पर दोनों ओर समान रूपसे १९०००० (९५०००x२) यो. की हानि हो गई है। अब १६ हजार यो. ऊंची जलशिखाका यदि विवक्षित (जैसे ११ हजार यो.) उंचाई पर विस्तार जानना अभीष्ट है तो 'मुहभूमिविसेसण य' इस करणसूत्रके अनुसार भूमि (२ लाख यो.) मेंसे मुख (१०००० यो.) को कम करके शेषको उत्सेधसे भाजित करे। इस प्रकार जो प्राप्त हो उसे अभीष्ट उंचाईसे गुणित करनेपर प्राप्त राशिको भूमिमेंसे कम कर देने से इच्छित विस्तार प्राप्त हो जाता है। जैसे ११००० यो. की उंचाई पर उसके विस्तारका प्रमाण-२००९::.:.... ५= ११४ प्रति योजनकी उंचाईपर होनेवाली हानि-वृद्धिका प्रमाण;११०००४११४१३०६२५, ----.............. .उ.श णेया. २ क वड्डीए होड़, ब बड्दो दु होय. ३ उश पविसेतो परिवह. ४ उश मानिम्मि. ५ उवाचो अणबद्विदो वणो, बचो अणवाहिदो लवणो, श खितो वणवहिदो तत्य होइ लवणो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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