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दसमो उद्देस
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बेगाउवमवगाहं णाणामणिरयणमंडियं दिव्वं । जोयणमट्टुत्तुंग' तदद्धु विक्खंभ वरदारं ॥ ४५ पल्ल|ड़गा महप्या दसधणुउत्तुंग दिग्ववरदेहा । दीवेसु होंति देवा आभरणविहूसियसरीरा ॥ ४६ वेदादो तूर्ण पंचसया जोयणाणि लवणम्मि । चदुसु वि दिसासु होंति हु जोयणस्यवित्थड़ा दीवा ॥ ४७ पुणरवि ततो गतुं पण्णासा जोयणाणि पंचसया । विदिसासु होंति दीवा पण्णासा वित्थडा णेया ॥ ३८ दिर्सेविदिसंतरदीवा पण्णासा वित्थडा जलणिहिस्मि । वेदीदो गंदणं पंचेव सयाणि पुण होंति ॥ ४९ गिरिसीसगया दीव पणुवीसा वित्थडा समुद्दिट्ठा | वेदादो गंतूणं छच्चैव य जोयणस्याणि ॥ ५० चदुसु विदिसासु चउरो विदिसासु वि तेत्तिया समुद्दिट्ठा | गिरिसीसगया अट्ठ य तावदिया अंतरे दीवा ॥ चवीस वि ते दीवा चउकोसा उट्टिया जळंतादो' । वरवेदिएहि जुत्ता वरतोरणमंडिया दिव्वा ॥ ५२ एगोरुगा य गोडिग य वेसाणिगाँ य ते कमसो । पुण्वादिसु णायध्वा अभास उ णरा होति ॥ ५३ सक्कुलिकणों या कण्णप्पावर लंबकण्णा य । ससकण्णा कुमणुस्सा" क्रमसो विदिसासु विण्णेया ॥ ५४ सोहमुद्दा भस्समुद्दा पाणमुद्दा अंतरेसु महिसमुद्दा | सूर्य मुद्दग्धमुहा घूमुद्दा कविमुद्दा चेव ॥ ५५
आठ योजन ऊंचे एवं इससे आधे विस्तारवाले उत्तम द्वारोंसे युक्त गोतम सुरका दिव्य भवन है ॥४४-४५॥ द्वीपोंमें पल्य प्रमाण आयुके धारक, महात्मा, दश धनुष ऊंचे उत्तम दिव्य शरीरसे युक्त और आभरणोंसे विभूषित देहवाले देव स्थित हैं || ४६ ॥ वेदीसे पांच सौ योजन लवण समुद्र में जाकर चारों ही दिशाओंमें एक सौ योजन विस्तारवाले द्वीप हैं ॥ ४७ ॥ फिर भी उक्त वेद से पांच सौ पचास योजन लवण समुद्र के भीतर जाकर विदिशाओं में पचास योजन विस्तारवाले द्वीप जानना चाहिये ॥ ४८ ॥ पुनः वेद से पांच सौ योजन समुद्र में जाकर दिशा-विदिशाओं के अन्तरालमें पचास योजन विस्तृत अन्तरद्वीप हैं ॥ ४९ ॥ वेद से छह सौ योजन जाकर [ हिमवान्, विजयार्ध व शिखरी] पर्वतों के शिखरपर ( प्रणिधि भागमें ) स्थित द्वीप पच्चीस योजन विस्तृत कहे गये हैं ॥ ५० ॥ चारों दिशाओं में चार, विदिशाओं में चार, गिरिशिखरगत आठ और इतने ही द्वीप दिशा-विदिशाओं के अन्तर में स्थित कहे गये हैं ॥ ५१ ॥ वे चौबीस ही दिव्य द्वीप जलसे चार कोश ऊंचे, उत्तम वेदियोंसे युक्त और उत्तम तोरणोंसे मण्डित हैं ॥ ५२ ॥ पूर्वादिक दिशाओं में स्थित उक्त द्वीपोंमें क्रमसे एक ऊरुवाले, पुच्छवाले, विषाणी और अमानक ( गूंगे ) मनुष्य होते हैं; जानना चाहिये ॥ ५३ ॥ विदिशाओं में क्रमसे शष्कुलिकर्ण, कर्णप्रावरण, लंबकर्ण और शशकर्ण कुमानुष जानना चाहिये ॥ ५४ ॥ अन्तरद्वीपोंमें सिंहमुख, अश्वमुख, वानमुख, महिप्रमुख, शूकरमुख, व्याघ्रमुख, घूकमुख और
ऐसा
१ उ क श अद्भुतुंगं, व असंतुंग २ उ क श दिसि. ३ क दिव्वा. ४ श पंचेव. ५ क जलादादो. ६ उ ब. श णंगोलिया. ७ ब वेसोणिगा. ८ उ क श अभासका उत्तरा, ब अमासगा उत्तरा ९ उ संकुलिवण्णा, क संकुलिकण्णा, व संकुलिकण्णा, श सक्कुलियाणा १० उ श कणप्पावरण, क कण्णायावरण, या कण्णयवरण. 11 क्रय कुमाशस, व य कुमारास. १२ क अंतेसु. १३ उब श धूव
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