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जंबूदीवपण्णत्ती
[१३. १५१बावीससदा णेया पण्णासा तोरणा समुट्ठिा । कुंगण णायम्वा महाणदीर्ण विभंगाणं ॥ १५॥ मतादिज्जा दीवा वे उवही माणुसम्मि खेत्तम्मि । अण्णे वि बहुवियप्पा णायवा तस्य जे होति ॥ १५३ महतिरियउड्ढलोएसु तेसु जे हॉति बहुवियप्पा दु । सिरिविजयस्स महप्पो ते सम्ने वणिदो किंचि ॥ १५३ गपरायदोसमोही सुदसायरपारमो मइपगम्भो । तवसंजमसंपण्णो विक्खाओ माघणंदिगुरू ॥ १५४ तस्सेव य वरसिस्लो सिद्धृतमहोवहम्मि धुयकलुसो । णव [तव णियमसीलकलिदो गुणजुत्तो सयलचंदगुरू । तस्सेव य वरसिस्सो गिम्मलवरणाणचरणसंजुत्तो । सम्मइंसणसुद्धो सिरिणदिगुरु त्ति विक्लामो ॥ १५॥
स्स णिमित्तं लिहियं नंबूदीवस्स तह य पण्णत्ती । जो पढाइ सुणइ एवं सो गच्छह उत्तमं ठाणं ॥ १५७ पंचमहन्वयसुद्धो दसणसुद्धो य गाणसंजुसी । संजमतवगुणसहिदो रागादिविधज्जिदो' धीरो ॥ १५८ पंचाचारसमो छज्जीवदयावरी विगदमोहो । हरिसविसायविहूणो णामेण य वीरणंदि ति ॥ १५९ तस्सेव य वरसिस्सो सुत्तस्यवियक्खणो' मइपगम्भी। परपरिवादणियत्तो णिस्संगो सम्वसंगसु ॥.. सम्मतभिगदमणो गाणे तह दसणे चरित्ते य । परितत्तिणियत्तमणो बलगंदिगुरु त्ति विक्खामो ॥ १६॥
( २८+१२८ + २४ )} कुण्ड जानना चाहिये । महानदियों, विभंगानदियों और कुण्डों सम्बन्धी तोरण बाईस सौ पचास निर्दिष्ट किये गये जानना चाहिये । उक्त मानुष क्षेत्रमें अदाई द्वीप, दो समुद्र तथा अन्य भी जो वहां बहुतसे विकल्प ज्ञातव्य हैं। इनके अतिरिक्त अधोलोक, तियालोक और ऊर्ध्वलोकमें जो बहुत विकल्प हैं; श्री विजय गुरुके माहात्म्यसे यह। मैंने उन सबका किंचित वर्णन किया है ॥ १४६-१५३ ।। राग, द्वेष व मोहसे रहित; श्रुत-सागरके पारगामी, अतिशय बुद्धिमान् तथा तप व संयमसे सम्पन्न ऐसे माघनन्दि गुरु विख्यात हैं ॥ १५ ॥ जिन्होंने सिद्धान्तरूपी समुद्रमें अवगाहन करके कर्म-मलको धो डाला है तथा जो नवीन [तप], नियम व शीलसे सहित एवं गुणोंसे युक्त थे ऐसे सकलचन्द्र गुरु उनके ही उत्तम शिष्य हुए है ॥ १५५ ॥ इनके ही उत्तम शिष्य निर्मल व उत्तम ज्ञान-चारित्रसे संयुक्त और सम्यग्दर्शनसे शुद्ध ऐसे श्री नन्दिगुरु विख्यात हुए ॥ १५६ ॥ उनके निमित्त यह जम्बूद्वीपकी प्रज्ञप्ति लिखी गयी है। इसको जो पढ़ता व सुनता है वह उत्तम स्थान (मोक्ष) को प्राप्त होता है ॥१५७ ॥ पांच महावतोंसे शुद्ध, सम्यग्दर्शनसे शुद्ध, ज्ञानसे संयुक्त, संजम व तप गुणसे सहित, रागादि दोषोंसे रहित, धीर, पंचाचारोंस परिपूर्ण, छह कायके जीवोंकी दयाम तत्पर, मोहसे रहित और हर्षविषादसे विहीन ऐसे वीरनन्दि नामक आचार्य हुए हैं ॥ १५८-१५९ ॥ उनके ही उत्तम शिष्य बलनन्दि गुरु विख्यात हुए । ये सूत्रार्थके मर्मज्ञ, अतिशय बुद्धिमान्, परनिन्दासे रहित, समस्त परिग्रहोंमें निर्ममत्व, सम्यक्त्वसे अभिगत मनवाले और ज्ञान, दर्शन व चरित्रके विचारमें मन लगानेवाले थे ॥१६०-१६१॥ उनके शिष्य गुणगणसेि कलित त्रिदण्ड अर्थात् मन, वचन
क सिरिय. २ उश महप्पे. ३ उश विण्णिदा, पब वणिवा. ४ उश धुयकलसो, क-प-प्रतिषु तुगापैवेषाऽनुपलब्धास्ति. ५श रोगादिविवब्जिदो. ६श सत्तत्योवियक्षणो. • उ श णाण, पामे. शपतितिनियमणो.
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