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________________ विछोयपण्णत्तिका गणित गा.७.३६- पृथ्वीतल से चंद्रमा की ऊँचाई ८८० योजन बतलाई गई है। एक योजन का माप आधुनिक ४५४५ मील लेने पर चंद्रमा की दूरी ८८.४४५४५ अथवा ३७,९३६०० मील प्राप्त होती है। भाधुनिक सिद्धान्तों के अनुसार वैशानिकों ने चंद्रमा की दूरी प्रायः २.३८००० मील निश्चित की है। गा.७.३६-३७-हाँ आधनिक वैज्ञानिकों ने चंद्रमा को स्वप्रकाशित नहीं माना है, वहाँ प्रयकार के अनुसार चंद्रमा को स्वयं प्रकाशवान मानकर उसे शीतल बारह हजार किरणों सहित बतलाया है। न केवल वहाँ की पृथ्वी ही, वरन् वहाँ के बीच भी उद्योत नामकर्म के उदय से संयुक्त होने के कारण स्वप्रकाशित कहे गये हैं। गा.७, ३९- ग्रंथकार के वर्णन के अनुसार नैन मान्यता में चंद्रमा अर्द्धगोलक (Hemispherical) है| उस अर्द्ध गोलक की त्रिज्या २६ योजन मानी गई है अर्थात् व्यास प्रायः २(380X४५४५ = प्रायः ४१७२ मील माना गया है आधुनिक ज्योतिषविज्ञों ने अपने सिद्धान्तानुसार इस प्रमाण को प्रायः २१६३ मील निश्चित किया है। इस प्रकार ग्रंथकार के दत्त विन्यासानुसार यदि अवलोकनकर्ता की आंख पर चंद्रमा के व्यास द्वारा आपतित कोण निकाला बाय तो वह रेडियन अथवा ३.५९ कला (3.59 minutes ) होगा। आधुनिक यंत्रों से चंद्रमा के व्यास द्वारा आपतित कोण प्रायः ३१ कला (31"7") प्राप्त हुआ है। यह माप या तो प्रकाश के किसी विशेष अज्ञात सिद्धान्तानुसार हमें यंत्रों द्वारा गलत प्राप्त हो रहा है अथवा ग्रंथकार द्वारा दिये गये माप में कोई त्रुटि है। यहां एक विशेष बात उल्लेखनीय यह है कि चैन मान्यतानुसार अर्द्धगोलक ऊर्ध्वमुख रूप से अवस्थित है बिससे इम चंद्रमा का केवल निम्न माग ( अर्द्ध माग) ही देखने में समर्थ है। इसी बात की आधुनिक वैज्ञानिकों ने पुष्टि की है कि चंद्रमा का सर्वदा केवल एक ही और वही अर्द्ध भाग हमारी भोर होता है और इस तरह हम चंद्रमा के तल का केवल ५९% भाग ( कुछ और विशेष कारणों से) देखने में समर्थ है। वेधयंत्रो से प्राप्त अवलोकनों के आधार पर कुछ खगोलशास्त्रियों का अभिमत है कि मंगस आदि ग्रहों के भी केवल अद्ध विशिष्ट माग पृथ्वी की भोर सतत रहते है। इसका कारण, उनका भक्षीय परिभ्रमण उपधारित किया गया है। गा.७,६५- इसके पश्चात, ग्रंथकार ने सूर्य की ऊँचाई चंद्रमा से ८० योजन कम अथवा ८०० योजन (आधुनिक ८०.४४५४५-३६३६००० मील)तलाई है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने सूर्य की दूरी प्रायः ९२, ७००,... मील निमित की है। ईसासे प्रायः चार सौ वर्ष पूर्व ग्रीक विद्वानों ने आकाश पिंडों के दैनिक परिभ्रमण का कारण पृथ्वी का स्वतः की अक्ष पर परिभ्रमण सोचा। पर, एरिस्टाटिल (ईसासे ३८४-३२२ वर्ष पूर्व) ने पृथ्वी को केन्द्र मानकर शेष चंद्र, सूर्य तथा ग्रहों का परिभ्रमण क्लिष्ट रीति द्वारा निश्चित किया। यह ज्ञान अपना प्रभाव २००० वर्ष तक जमाये रहा। इसके विरुद्ध पोलेण्ड के कापरनिकस (१४७३-१५४३) ने सम्पूर्ण बीवन के परिश्रम के पश्चात् सूर्य को मध्य में निश्चित कर शेष ग्रहों का उसके परितः परिभ्रमणधील निभित किया। सूर्य से उनकी दरियां भी निश्चित की। इसके पश्चात. प्रसिद्ध ज्योतिषशास्त्री बान केपलर (१५७१-१६३०) ने ग्रहों के पथों को ऊनेन्द्र निश्चित किया तथा सूर्य को उनकी नाभि पर स्थित बतलाया। उसने यह भी निश्चित किया कि ग्रह से सूर्य को जोड़नेवाली त्रिज्या समान समयमें समान क्षेत्रों (reas)को तय करती है। और यह कि किसी ग्रह के आवर्त काल के अंतराल के बर्ग (Square of the periodio time) और उसकी सूर्य से माध्य दूरी ( mean distance) के घन, की निष्पति निश्चल रहती है। दूरबीन ने भी वृहस्पति और शनि आदि ग्रहों के उपग्रहों को खोजने में सहायता की। सन् १६८७ में न्यूटन ने विश्वको जान केपलर के फलों Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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