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तिलोयपण्णत्तिका गणित
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F१०००००
भाल ३२५
१०००० यो.
इस आकृति ( ३२ द) में ज्येष्ठ पाताल का आकार आदि दिये गये हैं।
ये पालाल क्रम से हीन होते हुए (मभ्य भाग से दोनों ओर ) नीचे से क्रमशः वायु भाग, बल एवं वायु
से चलाचल भाग, और केवल जल भाग में विभाजित हैं। -१०००००
इन पातालों के पवन सर्व काल शुक्ल पक्ष में स्वभाव से (१) बढ़ते हैं और कृष्ण पक्ष में पटते हैं। शुक्ल पक्ष में कुल पंद्रह दिन होते हैं। प्रत्येक दिन पवन की २२२२६ योजन उत्सेध में वृद्धि होती है, इस प्रकार कुल वृद्धि शुक्र
पक्ष के अंत में २२२२३ ४ १५ - २००० योजन होती Tooooयो.
है। इससे बल केवल ऊपरी त्रिभाग में तथा वायु
निम्नादो त्रिमागों में ३०.. उत्सेध तक रहते हैं। आकृति-३२१ में रेखांकित भाग, जल एवं वायु से चलाचल है अर्थात् उस भाग में वायु और बल, पक्षों के अनुसार बढ़ते घटते रहते हैं। चम वायु बढ़कर दो विभागों को शकृपक्षांत में व्याप्त कर लेती है तो बल, सीमांत का उलंघन कर, आकाश में चार हजार धनुष अथवा दो कोस पहुँचता है। फिर कृष्ण पक्ष में यह घटता हुआ, अमावस्या के दिन, भूमि के समतल हो जाता है। इस दिन, ऊपर के दो त्रिभागों में जल और निम्न त्रिभाग में केवल वायु स्थित रहता है। कम घनत्ववाली वायु का, जल के नीचे स्थित रहना, आकृते-25 अस्वाभाविक प्रतीत होता है, किन्तु वह कुछ विशेष दशाओं में सम्भव भी है।
गा.४.२५२५-ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रंथकार को शात था कि दो वृत्तों के क्षेत्रफलों के अनुपात उनके विष्कम्भों के वर्ग के अनुपात के तुल्य होते हैं। यदि छोटे प्रथम वृत्त का विष्कम्भ D, तथा क्षेत्रफल A, हो, और बड़े द्वितीय वृत्त का विष्कम्भ D, तथा क्षेत्रफल A, हो तो
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-A,) अथवा DIA;
गा.४, २५३२ आदि-इन सूत्रों में एक और आकृति का वर्णन है। वह है, 'वाकार आकृति'। इष्वाकर पर्वत निषध पर्वत के समान ऊंचे, लवण और कालोदधि समुद्र से संलम तथा अभ्यंतर भाग में अंकमुख व बाह्य भाग में क्षुरप्र के आकार के बतलाये गये हैं। प्रत्येक का विस्तार १००० योजन और अवगाह १०० योजन है।
१ बम्बूद्वीपप्रासि, १०८७. वृत्त के सम्बन्ध में समानुपात नियम २।११-२० में भी है।
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