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________________ १६०) जंबूदीवपण्णत्ती [९.६४अवरेण तदो गतुं कुमुदा णामेण जणवदो होइ । धणधण्णरयणणिवहो गयरायरमंडिभो पवरो ॥ ६४ कलमबहुपोसवल्लियहरिकेसरिरत्तै सालिछेत्तहो । रपणमहिससालिवतसालीहि संकण ॥ ६५ गंगासिंधूहि तहा वेदड्ढणगेण भूसिओ देसी । बहुगामणयरपट्टणमडंबखेडेहि रमणीओ ॥ ६६ विसयम्मि तम्मि मज्झे होइ भलोग ति गामदो गयरी । सनणजणेहिं भरिया कलगुणविण्णाणजुत्तेहि ॥ वरवज्जकणयमरगयणागापासादसंकुला रम्मा । वेरुलियवेदिणिवहा मरगयवरतोरणुतुंगा' ॥ ६८ ससिकंतरयणसिहरा जिणभवणविहूलिया परमरम्मा । पोखरणिवाविपउरा वणसंडविहूसिया दिग्या ॥ ६९ तत्तो भवरदिसाए सुहावहो णामदो णगो होइ । भट्ठसिहरसहिमो जिगभवणविहूसिमो दिब्यो ॥ ७० कमलाभवेदिणिव हो° फलिहामयतोरणहि करसाहो । कणिपारकेसरणिभो वणसंडेविहूसिमो दिवो ॥ ७॥ मणिमयपासादउँदो संगीप्रमुइंगस इगंभीरो । तण्णामदेवसहिओ सुरसुंदरिसंकुलो दिव्यो । ७२ भवरेण तदो गंतुं सरिदा गामेण जणवदो होह । बहुगामणवरपउरो रयणहीवेदि कयसाहो ॥ ७३ पट्टणमडंबपउरो" दोणामुहबहुविहेहि रमणीओ । संबाहणिवहसहिलो कम्मरणियहि रमणीभो ॥ ७४ ॥ ६३ ॥ उससे पश्चिमकी ओर जाकर कुमुदा नामका देश है। यह देश धन, धान्य एवं रत्नोंके समूइसे सहित, नगरों व आकरोंसे मण्डित, श्रेष्ठ; कलम धान, बहुपोष बल्लि, हरि केसरि व रक्तशालि धानके खेतोस व्याप्त, राजधान्य :श्यामा) महिष शालि व वसंत शालिसे ढका हुआ(:) गंगा-सिन्धु नदियों तथा वैतान्य पर्वतसे भूषित और बहुत प्रामों, नगरों, पट्टनों, मटंबों एवं खेडोंसे रमणीय है ॥ ६४-६६ ॥ उस देशके मध्यमें अशोका नामकी नगरी है । यह नगरी, कला-गुण एवं विज्ञानसे युक्त सज्जन जनोंसे परिपूर्ण, उत्तम वज्र; सुवर्ण व मरकतमय नाना : प्रासादोंसे व्याप्त, रम्य, वैडूर्यमय वेदीसमूहसे युक्त, मरकतमय उत्तम उन्नत तोरणोंसे संयुक्त, चन्द्रकान्त मणियोंके शिखरोंसे सहित ऐसे जिनभवनोंसे विभूषित, अतिशय रमणीय, प्रचुर पुष्करिणियों व वापियोंसे संयुक्त, दिव्य और वनखडोसे विभूषित है ॥६७-६९॥ उससे पश्चिम दिशामें सखावह नामका पर्वत है। यह दिव्य पर्वत चार शिखरोंसे सहित, जिनभवनसे विभूषित, दिव्य, उत्तम पद्म जैसी प्रभावाली वेदिकाओंके समूहसे सहित, स्फटिकमणिमय तोरणोंसे शोभायमान, कनेरके परागके सदृश प्रभावाली, वनखण्डोंसे विभूषित, दिव्य, मणिमय प्रासादोंसे युक्त, संगीत व मृदंगके शब्दसे गम्भीर, उसके नामवाले (सुखावह) देवसे सहित और देवांगनाओंसे व्याप्त है ।। ७०-७२ ॥ उससे पश्चिम की ओर जाकर सरिता नामक देश है। यह देश प्रचुर प्रामों व नगरोंसे युक्त, रत्नद्वीपोंसे शोभायमान, पट्टनों व मटंबोंकी प्रचुरतासे सहित, बहुत प्रकारके द्रोणमुखोंसे रमणीय, संबाहसमूहसे सहित और कर्बटसमुदायसे रमणीय है ।। ७३-७४ ।। उश कलव, कब कमल. २शहरिकसौरत. ३ उत्तो बत्तट्ठो, शत्तहो. ४ उ शरब्जण्ण, कब राजण्ण. ५उश णिवह. ब वरतोरणतुंगा ब सियरा. ८ब मुहावहा. ९श सुहावही मंदरगो. १० उ कमलाइविदिण्णिवहो, क कमलामवेदिणिवदो, ब कमलाइवेदिणिवहो, श कमलहविदिण्णिवहो. ११बबणमंड, ११ब पासाह. १३ब गामयरपउरो: श गामणयपउरो. १४ उश पवरो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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