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________________ - ८. १९८ ] अमोउद्देस [ १५३ विधम्मो वज्जिह केवलणाणी ण चावि परिहीणा' । पुग्वविदेहे या सब्वेसु वि' विउलविजसु ॥ चावण्णा संघो पुण्वविदेद्दम्मि होति संबद्धा । पुरिसो लिकमेण तहा णिद्दिट्ठा सम्बदरिसीहिं ॥ १९७ अमरिंदणमिय चलणं भणतवरणाणदंसणपईवं । वरपउमणदिणमियं भणतजिणसामियं वंदे ॥ १९८ ॥ इय जंबूदीवपण्णत्तिलंगहे महाविदेहाहियारे पुब्वविदेहवण्णणो णाम भट्टमो' उद्देसो समत्तो ॥ ८ ॥ पूर्व विदेह के भीतर सभी विशाल विजयोंमें न धर्मकी व्युच्छित्ति होती है और न केवलियोंका भी अभाव होता है ॥ १९६ ॥ पूर्ष विदेह में चातुवर्ण्य संघका संयोग पुरुषपरम्परा के क्रमसे सर्वदा रहता है, ऐसा सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ॥ १९७ ॥ जिनके चरणोंमें देवोंके इन्द्र नमस्कार करते हैं तथा जो उत्कृष्ट अनन्त ज्ञान-दर्शनरूपी प्रदीपसे संयुक्त व उत्तम पद्मनन्दि मुनिके द्वारा नमस्कृत हैं, ऐसे अनन्त जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १९८ ॥ ॥ इस प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसंग्रह में महाविदेदाधिकार में पूर्वविदेहवर्णन नामक आठवां उद्देश समाप्त हुआ ॥ ८ ॥ १ उश परिहीणो. २ ब सब्बे त्रि. ३ उप वश पुग्वविदेहम्मि होंति संबंधा, क पुम्बविदेहे हवंति संबंद्धो ४ व गमियवलनं. ५ उ रा पहतं. ६ प ब अट्टमओ उद्देशो. नं. दी. २०. Jain Education International C Ka For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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