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________________ अंदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना उपर्यत सूत्र में + की जगह केवल - (ऋण) ग्रहण करना उल्लेखनीय है। प्रास होनेवाले दो प्रमाणों में से छोटी अवधा के लिये प्रमाण प्राप्त करना उनके लिये इष्ट था। पुनः, गाथा, १८० और १८१ में दिये गये सूत्रों में से निरसित (eliminate) करने पर धनुष, जीवा और बाण में सम्बन्ध प्राप्त होता है: (धनुष) = ६h + (बीवा)२ तथा, ४ ॥+४ (जावा) को ४ (अर्द धनुष की बीना)र लिखने पर हमें निम्न लिखित सम्बन्ध प्राप्त होता है: (धनुष) = २ ॥२+४(अर्द्ध धनुष को जीवा)२ इसी प्रकार अन्य सम्बन्ध भी प्राप्त किये जा सकते हैं। गा.४, २७७-२८३- इन गायाओं में नियय काल का स्वरूप बतलाया गया है। गा.४, २८५-८६- म्यवहार काल की इकाई 'समय' मानी गई है। इसे अविभागी काल भी माना है वो उतने काल के बराबर होता है, बितने काल में पुद्गल का एक परमाणु आकाश के दो उत्तरोत्तर स्थित प्रदेशों के अन्तराल को तय करता है। ___ असंख्यात समयों को एक आवलि और संख्यात आवलियों का एक उच्छवास होता है-इसे अंथकार ने निम्न लिखित रूप में भंकसंदृष्टियों द्वारा प्रदर्शित किया है। हो सकता है कि असंख्यात का निरूपण २ तथा संख्यात का ६ के द्वारा किया हो । आगे, उच्छवास = १ स्तोक, ७ स्तोक = १७व, ३८३ लव = १ नाली, २ नाली = १ मुहूर्त, ३. मुहूर्त =१ दिन, १५ दिन = १ पक्ष, २ पक्ष = १ मास, २ मास =१ ऋतु, ३ ऋतु = १ अयन, २ अयन - १ वर्ष, और ५ वर्ष = १ युग होता है। इस प्रकार, आगे बढ़ते हुए, एक बड़ा व्यवहार १ यहाँ स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि किस गति से. परमाणु गमन करता होगा, क्योंकि मैदतम गति कहना भी आपेक्षिक निरूपण है प्रकेवल नहीं। वीरसेन के अनुसार, ऐसा प्रतीत होता है, कि परमाणु ऐसे एक समय में १४ राजु प्रमाण दूरी भी अतिक्रमण कर सकता है। पर, पुनः समय अपरि. षित ही रहता है, क्योंकि एक समय में विभिन्न दूरियों का अतिक्रमण गति को स्पष्ट कर देता है, पर स्वयं अस्पष्ट रहता है। यदि समय को अविभागी मानते हैं तो एक समय में १४ राजु अतिक्रमण होने से, ७ राजु अतिक्रमण कब हुआ होगा-इस तर्क का स्पष्टीकरण नहीं होता, क्योंकि समय, "अविभाज्य" कल्पना के आधार पर सम्भव नहीं है। इस प्रकार यह कथन एक उपधारणा (postulate) बन जाता है, वहां तर्क और विवाद को स्थान नहीं है। डाक्टर आईसटीन ने भी प्रकाश की अचल गति के सिद्धान्त को उपधारित कर, माइकेल्सन मारले प्रयोग आदि को समझाया है, जहां यदि प्रकाश की लहर पर ही बैठकर, प्रकाश के समान गतिमान होकर कोई अवलोकन कर्त्ता गमन करे तो वह यही अनुभव करेगा कि प्रकाश उसके आगे वही गति से बा रहा है, जैसा कि उसने गतिहीन अवस्था में अनुभव किया था। ऐसे लोक सत्य (universal truth) का अनुभव छद्मस्थ नहीं कर सकते। पर, गणितीय अंतर्दृष्टि से यह सम्भव है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो एलिया के जीनो ने अंतिम दो तर्कों द्वारा इसी प्रश्न का समाधान करने का प्रयास किया हो। जीनो ( ४९५ १ ४३५१ ईस्वी पूर्व) के चार तर्कों का सर्वमान्य समाधान गत प्रायः २३०० वर्षों से नहीं हो सका है। विशेष विवरण के लिये "Greek Mathematics by Heath, pp. 271-283, Edn. 1921". दृष्टव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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