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जंबूदीषपण्णत्तिको प्रस्तावना जिस प्रकार जैन भूगोलमें मंदर पर्वतके उत्तरेंमें जंबूवृक्ष अवस्थित है उसी प्रकार वैदिक भूगोलमें भी मेरुकी पूर्वादिक दिशाओं में क्रमशः मंदर, गन्धमादन, विपुल और सुपार्श्व नामक पर्वतोंके ऊपर कदम्ब, जंबू, पीपल और वट ये चार वृक्ष स्थित हैं।
दोनों सम्प्रदायोंमें विशेषता यह है कि जहां जैन भूगोलमें जंबूद्वीपको चारों ओरसे वेष्टित करनेवाला लवण समुद्र, उसको वेष्टित करनेवाला धातकीखण्ड द्वीप, उसको वेष्टित करनेवाला कालोद समुद्रः इस प्रकार उत्तरोत्तर एक दुसरेको वेष्टित करनेवाले असंख्यात द्वीप-समुद्र स्वीकार किये गये हैं वहां वैदिक भूगोलमें इसी प्रकारसे एक दूसरेको वेष्टित करनेवाले केवल निम्न सात द्वीप और सात ही समुद्र स्वीकार किये गये हैं- जंबूद्वीप, लवणसमुद्र, प्लक्षद्वीप, इक्षुरससमुद्र, शाल्मलीद्वीप, सुरासमुद्र, कुशद्वीप, घृतसमुद्र, क्रौंचद्वीप, क्षीरसमुद्र, शाकद्वीप, दधिसमुद्र, पुष्करद्वीप और शुद्धसमुद्र । (विशेष जाननेके लिये देखिये ति. प. २, प्रस्तावना पृ. ८१-८७)
चातुर्दीपिक भूगोल काशी नागरी प्रचारिणी सभाके दारा प्रकाशित सम्पूर्णानन्द-अभिनन्दन ग्रन्थ 'पुराणों में चातुदीपिक भूगोल और आर्योंकी आदिभूमि' शीर्षक एक लेख श्री रामकृष्णदासजीका प्रकाशित हुआ है। इसमें लेखक महाशयने यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि सप्तद्वीपा भूगोलकी अपेक्षा चातुर्दीपिक भूगोल अपेक्षाकृत प्राचीन है और उसका वर्णन कोरी कल्पना न होकर आधुनिक भूगोलसे भी कुछ सम्बन्ध रखता है। इसका अस्तित्व अभी भी वायुपुराणमें कुछ अवशिष्ट है। इसका सद्भाव सम्भवतः ऋग्वेदकालसे है, क्योंकि ऋग्वेदमें जिन चार समुद्रोंका उल्लेख है वे इन्हीं चार द्वीपोंसे सम्बद्ध चार दिशाओंके चार समुद्र हैं। पाठकों की जानकारीके लिये हम उपर्युक्त लेखका सारांश प्रायः लेखकके ही शब्दों में यहां साभार
लेखकका अनुमान है कि मेगास्थिनेके समयमें भी यही चार दीपवाला भूगोल चलता था, क्योंकि वह लिखता है-“भारतीय तत्त्वज्ञ और पदार्थविज्ञानवेत्ता भारतके सीमान्तपर तीन और ये तीन देश सीदिया, वैक्टिया तथा एरियाना हैं" जो मोटे तौरपर चतुर्तीपी भूगोलके जंबूद्वीपेतर अन्य तीन द्वीपोंसे मिल जाते हैं। अर्थात् सीदियासे उसके भद्राश्व तथा उत्तरकुरु एवं वैक्ट्रिया तथा एरियानासे केतुमाल दीप अभिप्रेत हैं। अशोकके समय तक प्राचीन परम्पराके अनुसार चतुर्दीप भूगोल ही चलता था, क्योंकि उसके शिलालेखोंमें जंबूद्वीप भारतवर्षकी संज्ञा है।
महाभाष्यमें सप्तद्वीपा पृथिवीकी चर्चा है। अत एव सप्तद्वीप भूगोल अशोक तथा महाभाष्यकालके बीचकी कल्पना जान पड़ती है।
यह चातुर्दीपिक भूगोल सप्तद्वीपा भूगोलके समान कल्पनाप्रधान नहीं है। इसका आधार प्रायः वास्तविक है, अत एव उसका सामंजस्य आधुनिक भूगोलसे हो जाता है। यूनानी लेखकोंने लिखा है कि भारतीयोंको अपने देशके भूगोलका स्पष्ट शान है। वह अवान्तर ब्योरों सहित चतुर्तीप-भू-वर्णनपर ही घटता है, किसानोंकी भरमारवाले इस सप्तद्वीप भूगोलपर नहीं।
१ बौद्ध सम्प्रदायवर्णित भूगोलके लिये देखिये ति. प. २, प्रस्तावना पृ.८७-९०. २ सप्तद्वीपा वसुमती त्रयो लोका:- महाभाष्य पस्पशाहिक.
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