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________________ अन्य ग्रंथोंसे तुलना १३९ चतुर्द्वप भूगोल जंबूद्वीप पृथिवीके चार महाद्वीपोंमेंसे एक है और भारत वर्षका दूसरा नाम है । वही सप्तद्वीप भूगोल में एक इतना बड़ा द्वीप बन जाता है कि चतुद्वप भूगोलमेंके उसीके चराचरीवाले अन्य तीन द्वीप ( भद्राश्व, केतुमाल और उत्तरकुरु ) उसके वर्ष होकर उसके अन्तर्गत हो जाते हैं, और भारत वर्ष नामसे वह स्वयं अपना ही एक वर्ष मात्र रह जाता है। तथापि यह जंबूद्वीपका वर्णन इस दृष्टिसे बड़े कामका है कि इसमें चतुर्द्धपि सम्बन्ध में बहुतसे कामके ब्योरे मिल जाते हैं, क्योंकि, वस्तुतः सप्तद्वीपवाला जंबूद्वीप चतुर्दीपा पृथिवीके ही अवान्तर खण्डोंको प्रधानता देकर रचा गया है। यथा -- चतुद्वीपी भूगोलका भारत(जंबूद्वीप) जो मेरु तक पहुंचता है, सप्तद्वीप भूगोलमेंके जंबूद्वीपमें तीन वर्षों में बँट गया है। अर्थात् 'देस' के लिये भारत वर्ष, जिसका वर्ष पर्वत हिमालय है। उसके उपरान्त हिमालयके उस भागके लिये जिसमें पीले रंगवा मंगोलोंकी वस्ती है, किम्पुरुष वर्ष' - - जिसमें प्लक्ष खण्ड पुरुरवा आख्यानकी प्लक्ष पुष्करिणी तथा वेदका प्लक्ष प्रस्रवण है, जहांसे सरस्वतीका उद्गम है। तथा जिस वर्षका नाम आज भी कनौरमै अवशिष्ट है। यह वर्ष तिब्बत तक पहुंचता था, क्योंकि, वहां तक मंगोलों की बस्ती है । तथा उसका वर्ष पर्वत हेमकूट ही, जो कतिपय स्थानोंमें हिमालयान्तर्गत वर्णित हुआ है, तिब्बत है जहां आज भी बहुतायतसे सोना निकलता है । यही भारत ( सभा पर्व ) के अर्जुनकृत उत्तर दिग्विजयका हाटक प्रदेश है । — हरिवर्ष से हिरातका तात्पर्य है जिसका पर्वत महामेरु श्रृंखला अन्तर्गत निषध ( हिंदूकुश ) है जो मेरु तक पहुंच जाता है । इसी हरिवर्षका नाम अवेस्तामें ' हरिवरजो' मिलता है जो उसमें आयक चीजस्थानके मध्य माना गया है। वह एक प्रकारसे अपने यहांकी कल्पनासे मिल जाता है, क्योंकि यह स्थान अपने यहांके भू-केन्द्र सुमेरुके चरणतलमें ही है । यों जिस प्रकार चतुर्दीपका भारत ( जंबूद्वीप ) तीन भागों में बंटकर महत्तर जंबूद्वीप के तीन 'वर्ष' बन गये, उसी प्रकार रम्यक, हिरण्मय तथा उत्तरकुरु नामक वर्षो विभक्त होकर चतुद्वप भूगोलवाले उत्तरकुरु महाद्वीपके तीन वर्ष बन गये हैं । किन्तु पूर्व और पश्चिमके द्वीप भद्राश्व और केतुमाल यथापूर्व दोके दो ही रह गये हैं । अन्तर केवल इतना है कि यहां वे दो महाद्वीप नहीं, एक द्वीपके अन्तर्गत दो वर्ष हैं। साथ ही इन सबके केन्द्रीय मेरुको मेखलित करनेवाला इलावृत भी एक स्वतन्त्र वर्ष बन गया है। यों उक्त चार द्वीपोंसे पल्लवित तीन उत्तरी, तीन दक्षिणी, दो पूर्व-पश्चिमी तथा एक केन्द्रीय वर्ष इस जंबूद्वीपके नौ वर्षोंकी रचना कर रहा है। प्रस्तुत लेखमै निम्न स्थानोंको आधुनिक भूगोलसे इस प्रकार सम्बद्ध बतलाया गया हैमेरु- वर्तमान भूगोलका जो पामीर प्रदेश है वही पौराणिक मेरु है । इसके पूर्व से निकली हुई यारकंद नदी ही सीता नदी तथा पश्चिमसे निकली हुई आमू दरिया वा आक्शस ही सुक्षु नदी है । इसके दक्षिण में दरद - काश्मीरमें बहने वाली कृष्णगंगा नदी ही पौराणिक गंगा नदी हो सकती है। इसके उत्तर में थिपानसानके 'अंचलमै वसा हुआ देश ( उत्तरकुरु), पूर्वमें मूज- ताग ( मूंज) एवं शीतान (शीतान्त ) पर्वत, १ तथा किम्पुरुषे विप्रा ! मानवा हेमसन्निभाः । दशवर्षसहस्राणि जीवन्ति प्लक्षभोजनाः ॥ ८ ॥ कूर्म, ४६. २ यह नाम सुत्रंशु, सुचक्षु और सुपक्षु आदि कई रूपों में विकृत हुआ है । इसके मंगोलियन नाम अक्शु और बक्शू, तिब्बती नाम पक्शू, तथा चीनी नाम पो-स्सू वा फो-त्सू तथा आधुनिक स्थानिक नाम स्विश ( विश्वकोष २६,९१० ), बप्पश और बखां इन संस्कृत नामोंसे ही निकले हैं । इसकी उत्पत्ति मेरुके पश्चिमी सर सितोद (जैन भूगोलमै सीतोदा नदीका उल्लेख हुआ है ) से कही गई है । ३ थियानसान की प्रधान शाखा कुरुक-ताग अर्थात् कुरुक पर्वतका कुरुक शब्द कुरुका ही रूप लक्षित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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