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________________ - १.९९ ] तदिओ उद्देसो [ ५१ करवाल कांत कप्परे णाणाविहपहरणेहिं हस्थेहिं । तियसेद्दि समाजुतो माणं सिरसा पडिछेह ॥ ९० बत्तीससहस्वार्ण देवाणं सामिमो महासत्तो | अच्छरबहुपरिवारो भिच्चो सो पडमदेवीए ॥ ९१ दक्खिणपुब्वदिसाए तत्र तु भवणाणि होति दद्दमज्झे । बत्तीस सहरसाई व पढमिणिमज्झम्मि नेयाणि ॥९१ मज्झिमपरिसाण पहू चंदो णामेण णिग्गयपयाओ । चालीससहस्साणं देवाणं होइ सो राया ॥ ९३ वरमडडकुंडलधरो उत्तम मणिरमणपवरपालंबो । कडिसुतक्रणय कंठावरहारविहूसियसरीरो ॥ ९४ असिपरसुकणयमुग्गरभुसुंठिमुसकादिमाउहकरेद्दि । देवेद्दि समाजुत्तों ओोहग्गह साणुराण || ९५ दक्खिणदिसाविभागे' भवणाणि हवंति तस्स जलमज्झे । चालीससहस्त्राणि य दरवियसियकमलगभेसु ॥९६ बाहिरपरिसाहिवई गर्ने सि णामेण जिग्गयपयावो । भडदालीससुराणं सहस्सगुणिदाण सो सामी ॥ ९७ पजलंतवर विरीडो णाणामणिविप्रं तमणिम उडो । भालुलियधवलणिम्मलचलंत मणिकुंडलाभरणो ॥ ९८ कोदंडदंडसम्वभिडीवालादियांहि हत्याहि । असुरेहिं समाजुत्ता' भच्छ है भाणं परिच्छंती ॥ ९९ होकर हाथोंमें तलवार कुन्त, खप्पर एवं अन्य नाना प्रकारके आयुवोंसे युक्त हाथोंबाळे देवों (अंगरक्षकों) से युक्त होकर आज्ञाको सिरसे ग्रहण करता है ।। ८८-९० ॥ बत्तीस हजार देवोंका स्वामी, महाबलवान् और अप्सराओंके बहुत परिवारसे सहित वह पद्मवासिनी श्री देवीका भृत्य ( सेवक ) है ॥ ९१ ॥ द्रहके भीतर दक्षिण-पूर्व दिशा (आग्नेय) में पद्मिनियोंके मध्य में उसके बत्तीस हजार भवन जानना चाहिये ॥ ९२ ॥ मध्यम पारिषदों का प्रभु प्रतापी चन्द्र नामक देव है जो चालीस हजार देवोंका स्वामी होता है ॥ ९३ ॥ उत्तम मुकुट व कुण्डलोंका धारक, उत्कृष्ट मणि एवं रत्नोंके श्रेष्ठ प्रालंब ( गळेका भूषणविशेष ) से सहित; कटिसूत्र, कटक, कंठा और उत्तम हारसे विभूषित शरीरवाला वह चन्द्र देव असि, परशु, बाण, मुद्गर, भुशुण्डि एवं मूसल आदि आयुधोंसे युक्त हाथोंवाले देवोंसे युक्त होकर अनुरागपूर्वक श्री देवी की सेवा करता है ॥ ९४-९५ ॥ उसके दक्षिणदिशा भागमें जलके मध्यमें किंचित् विकसित कमलों के मध्यमै चालीस हजार भवन हैं ।। ९६ ।। बाह्य परिषदोंका अधिपति जो प्रतापी जतु नामक देव है वह अड़तालीस हजार देवोंका स्वामी होता है ॥ ९७ ॥ प्रकाशमान उत्तम किरीटसे सहित, नाना मणियों से दैदीप्यमान उत्तम मणिमय मुकुटसे अलंकृत, आलोडित धवल निर्मल एवं चंचळ मणिमय कुण्डल रूप आभरणोंसे सुशोभित वह जतु नामक प्रधान देव कोदण्ड, दण्ड, शर्वल ( कुन्त, वछी या सव्वल ) और मिन्दिपाल आदि अस्त्रोंसे युक्त हाथोंवाले देवोंसे युक्त हो कर आज्ञाकी प्रतीक्षा करता हुआ स्थित रहता है ।। ९८-९९ ।। सरोवर के बीच दक्षिण १श परकर. २ उ समाज्जुतो, व समाजुत्ता, श समाहुतो. ३ उ दिसाविभागो श दिसो विभागो. ४ उ पारिसाहिवह जदु, प ब परिसाणहवई जडु, श पारिसाखिश्यावो जडु. ५ उ श आलुलिद, ६ उ समाजतो, श समाहतो. ७ रा अच्छायि. नं. बी. ६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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