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________________ ७४ ] जंबूदीवपण्णत्ती [१.१६७० मझे माझे तेसिं वजंतमहंततूरणिग्घोस । जिणजम्मणमहिमाए' वसभाणीया समुच्छरिया ॥ १६७ घंटाकिंकिणिणिवहा वरचामरमडिया मणभिरामा। मणिकुसुममालपउरामणोवमा रूवसंपण्णा ॥१६८ घरकोमलपल्लाणा देवकुमारेहि वाहमाणा ते । सोहंति दु गच्छंता चलंतधरणीहरा चेव ॥ १६९ कोडीसय छन्भहिया भडसट्टा लक्ख होति णिहिट्ठा । सत्तविभागाण तहा वसभाणीयाण परिसंखा ॥ १७० रूवूणभट्ट विरलिय दो दो दाऊण तेसु रूबेसु । भण्णोण्णगुणेण तहा फलेण रूवर्णजादेण ॥ १७॥ भादिमकच्छं गुणिदे सत्त वि कच्छाण होदिवसभाणं । परिसंखा णिहिट्ठा जिणिंदईदेहिणाणीहि ॥ १७२ सम्याण अणीयाणं कच्छाणं पिंडेसंखपरिमाणं । एस कमो णायब्वो संखेषण य समुद्दिटुं° ॥ १७३ सिसिरयरहोरहिमचयसंखेंदुमुणालकुंदकुमुदाभा । धवलादवत्तभासुर धवलरहा पढमकन्छम्मि ॥ १७४ वेरुलियरयणणिम्मियचउचक्कविरायमाण गच्छति । मंदारकुसुमसंणिह महारहा विदियकच्छम्मि ॥ १७५ शब्दसे सहित वे वृषभानीक उछलते हुए जिन भगवान्के जन्मकल्याणकमें जाते हैं॥१६७|| घंटा व किंकिणियों के समूहसे सहित, उत्तम चामरोंसे मण्डित, मनोहर, प्रचुर मणिमालाओं व पुष्पमालाओंको पहिने हुए, अनुपम रूपसे सम्पन्न, उत्तम कोमल पलानसे सहित, और देवकुमारोंसे चलाये जानेवाले वे वृषभ चरते हुए पर्वतों जैसे शोभायमान होते हैं ॥ १६८-१६९ ॥ सात विभागोंके वृषभानीकों की संख्या एक सौ छह करोड़ अड़सठ लाख कही गई है ॥१७॥ एक कम आठ अंकों का विरलन करके उन अंकोंके ऊपर दो दो अंक देकर परस्पर गुणा करनेसे जो फल प्राप्त हो उसमेंसे एक कम करके शेषसे प्रथम कक्षाको गुणा करनेपर सातों कक्षाओं सम्बन्धी वृषभानीकोंकी संख्या प्राप्त होती है, ऐसा ज्ञानवान् जिनेन्द्र भगवान्ने निर्दिष्ट किया है ॥ १७१-१७२ ।। . उदाहरण-८- १ = ७२२२२२२२, इनके परस्परका गुणनफल १२८ १२८ - १ = १२७, प्रथम कक्षा ८४०००००; ८४००००० ४ १२७ = १०६६८००००० समस्त वृषभानीकसंख्या। सब अनीकों सम्बन्धी कक्षाओंकी संख्याके पिंडप्रमाणको लानेके लिये संक्षेपसे यही क्रम कहा गया जानना चाहिये ॥१७३॥ प्रथम कक्षामें शिशिरकर (चन्द्र), हार, हिमचय, शंख, इन्दु, मृणाल एवं कुंद पुष्प जैसी प्रभावाले; धवल छत्रसे सुशोभित धवल रय होते हैं ॥१७४ ॥ द्वितीय कक्षामें वैडूर्य मणिसे निर्मित चार चार्कोसे विराजमान और मन्दार कुसुमके सदृश कान्तिवाले महारथ गमन करते हैं ॥ १७५ ॥ तृतीय कक्षामें सुवर्णमय छत्र, चामर और हिलते हुए उत्तम १ पब महिमाण २ उश समोपछारिया, ३ उश परिहा. ४ उपबश देवकुमाराहि. ५ उश तुबूण, पब रूवेण. ६ प गुणिदो, ब गुणिहो. ७ उश सत्त वि कछाण, ८ उपबश होति. ९ उश पिंठ. १० पब संखेवेण समुदि. ११श सिसिरहार. १२ उ श धवलहरा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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