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________________ विकोषपण्णसिका गणित __ [Dan-, -३०००००] [९(D21-,-१०००००)-९००...] +-१५ प्राप्त होता है। इस सूत्र की खोज वास्तव में प्रशंसनीय है। गा. ५, २७२- वर्णित सातिरेक प्रमाण को प्रतीकरूप से निम्न लिखित रूप में प्रस्तुत किया बा सकता है: EI Dna+Dnm+Dnb]४०००००}-१८०००००००००० यहाँ n की गणना वारुणीवर समुद्र से आरम्भ होती है। इस प्रकार, वारुणीवर समुद्र से लेकर अपस्तन समुद्रों के क्षेत्रफल से उपरिम (आगे के) समुद्र का क्षेत्रफल पन्द्रहगुणे होने के सिवाय प्रक्षेपभूत ४५५४०००००००००० योजनों से चौगुणा होकर १६२०००००००००० योजन अधिक होता है। गा.५, २७३- अतिरेक प्रमाण प्रतीक रूपेण (Dnm)x९०००००+२७०००००००००० होता है। गा.५,२७४-बब द्वीप का विष्कम्भ दिया गया हो, तब इच्छित द्वीप से (बम्बूद्वीप को छोड़कर) अधस्तन द्वीपों का संकलित क्षेत्रफल निकालने का सूत्र यह है : (Dan-,-१०००००)[(Dan-,-१०००००)९-२७०००००]:१५ यहाँ Dan-1, २n - १वीं संख्या क्रम में आने वाले द्वीप का विस्तार है। गा.५, २७५- जब क्षीरवर द्वीप को आदि लिया बाय अथवा n' की गणना इस द्वीप से प्रारम्भ की जाय तब वर्णित वृद्धि का प्रमाण सूत्र द्वारा यह होगा: (D."+-१०००००) ९x४००००० गा.५, २७६-घातकीखंड द्वीप के पश्चात् वर्णित वृद्धियाँ त्रिस्थानों में होती हैं। जब n' की गणना धातकीखंड द्वीप से प्रारम्भ होती है; तब वर्णित वृद्धियाँ सूत्रानुसार ये हैं : Dnx. Dnx; Dnxx २ २ गा.५,२७७- अधस्तन द्वीप या समुद्र से उपरिम द्वीप या समुद्र के आयाम में वृद्धि का प्रमाण प्राप्त करने के लिये सूत्र दिया गया है। यहाँ n' की गणना घातकी खंड द्वीप से प्रारम्भ होती है। प्रतीक रूप से आयाम वृद्धि DAX९०० है । गा.५, २८०-८१- यहाँ से कायमार्गणा स्थान में जीवों की संख्या प्ररूपणा, यतिवृषभकालीन अथवा उनसे पूर्व प्रचलित प्रतीकत्व में दी गई है। तेबस्कायिक राशि उत्पन्न करने के लिये निम्नलिखित विधि ग्रंथकार ने प्रस्तुत की है। इस रीति को स्पष्ट करने के लिये आंग्ल वर्ण अक्षरों से प्रतीक बनाये गये हैं। सर्वप्रथम एक घनलोक ( अथवा ३४३ धन राजु वरिमा) में जितने प्रदेश बिन्दु है, उस संख्या को Gl द्वारा निरूपित करते हैं। अब इस राशि को प्रथम बार वर्गित सम्वगित करते हैं तब | Gll राशि प्राप्त होती है। १ गोम्मटसार जीवकांड गाथा २०३ की टीका में घनलोक से प्रारम्भ न कर केवल लोक से प्रारम्भ किया है। प्रतीत होता है कि घनलोक और लोक का अर्थ एक ही होगा। स्मरण रहे कि लोक का अर्थ असंख्यात प्रमाण प्रदेशों की गणात्मक संख्या है। मुख्य रूप से एक परमाणु द्वारा व्यास आकाश के प्रमाण के आधार पर प्रदेश की कल्पना से असंख्यात संलग्न प्रदेश कथंचित् अखंड लोकाकाश की संरचना करते है अथवा एक लोक में असंख्यात प्रदेश समाये हुए है। इस प्रमाण को लेकर कायमार्गणा स्थान में तेजस्कायिक बीवों की संख्या की प्राप्ति के लिये विधि का निरूपण किया गया है। (शेष आगे पृ.७६ पर देखिये) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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