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________________ -३. २१४] तदिओ उद्देसो सद्धावदि विगढावदिए गंधावदि मालवंतपरियंता । वंसेसु चसु एदेणारया ववेदड्ढा ॥२०९ जोयणसहस्स एदे वित्यिग्णा तेत्तियं च उम्बिद्वा । सवस्थ समा णेषा पल्लगसंडाण कंचणमया य॥ २१० तिण्णवे सहस्साणं वासहि चेव हॉति सदमे । वेदड्डाण परिरओ वट्टाणं जंबुदीवम्हि ॥ २११ ते गिरिवरे अपत्ता सरिदामो मजायणपमाणं । पुवावरेण गंता लवणसमुई समुपयंति ॥ २१२ मुहभूमिविसेसेग य उच्छपभजिदं तु सा हवे वढी । वड़वी इछागुणिर्द मुहप्पखित्ते य होइ बट्टफलं॥ वयणखिदिरहिपउच्छपहिदइच्छगुगम्मि वरणाक्खित्ते । सायरणदीणगाणं' पदेसवढी समुट्टिा ॥ २१४ चार क्षेत्रोंमें श्रद्धावती, विकटावती, गन्धवती और अन्तिम माल्यवान् ये चार वृत्त वैताढ्य जानना चाहिये । २०९ ॥ ये सुवर्णमय वृत वैताग्य एक हजार योजन विस्तीर्ण, इतने ही ऊंचे, सर्वत्र समान विस्तारवाले व पत्यके ( कुशूल ) के आकार जानना चाहिये ॥ २१०।। जम्बूद्वीपमें वृत्त वैताढ्योंकी परिधि तीन हजार एक सौ बासठ (३१६२) योजन प्रमाण है ॥ २११ ॥ गंगादिक नदियां अर्ध योजन प्रमाणसे उन वृत्त वैताढ्यों को प्राप्त न होकर अर्थात् उनसे अर्ध योजन इधर रहकर ही पूर्व व पश्चिम की ओरसे लवणसमुद्रको प्राप्त होती हैं ॥२१२॥ भूमिमेंसे मुखको घटाकर शेषमें उत्सेकका माग देनेपर वृद्धिका प्रमाण आता है । इस वृद्धिक इच्छाले गुणित कर मुखमें मिला देने पर अभीष्ट स्थानमें विवक्षित क्षेत्रका विस्तार जाना जाता है ।। २१३ ॥ उदाहरण- श्रद्धावान् नामक वृत्त वैताड्ढ्य १००० यो. ऊंचा है। इसका विस्तार मूलमें १००० यो. और ऊपर ५०० यो. है । इसका मध्यविस्तार प्रकृत करणसूत्र के अनुसार निम्न प्रकार होगा- भूमि १००० यो., मुख ५००, उत्सेध १०००, १०००-५०० = ३ वृद्धि । इच्छा ५०० यो.; ५०० x ३ = २५० यो.; ५०० + २५० = ७५० यो. मध्यविस्तार । वदन (मुव) और क्षिति (भूमि ) को परस्परमें घटाकर शेषों उंचाईका भाग देकर जो लब्ध हो उसे इच्छासे गुणित कर मुखमें मिला देनेपर सागर, नदी व नोंमें होनेवाली प्रदेशवृद्धिका प्रमाण होता है ॥२१॥ उदाहरण - लवणसमुद्रमें पूर्णिमाके दिन १६००० यो. और अमावस्याके दिन ११००० यो. प्रमाण जलकी उंचाई समभूमितलसे होती है । १६००० यो. की उंचाईपर उसका विस्तार १०००० यो. रहता है । अत एव भूमि का प्रमाण २ ला. यो. और मुखका प्रमाण १०००० यो. है। १६००० यो. नीचे जाकर यदि १९०००० यो. की वृद्धि होती है तो ११००० यो. नीचे जाकर कितनी वृद्धि होगी-२०००००-१०००० = १९. वृद्धिपमाण, १ ९० x ११००° = १३०६२५,१३०६२५+ १०००० = १४०६२५ यो.। १पब सदावदिविगडावदि. २उशविणे. ३५ब वेदहाण, ४उश पढगं, पब वाहाणं. ५ उपबश अढ.६श मुहनोभूमिविसेसेण. ७श भूहयखिते. ८ पब बटिफलं. ९श पगाणं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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