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________________ ६) जंदावपण्णता [४. १८५उदयंतभाणुसंणिभमंदारासोगकमलसच्छाया। पचलंतचारचामर रत्ततुरंगा दु विदियाए ॥ १८६ णितकणयसणिहखुरवुडभरजणियरेणुपिंजरिया । वरगोरोयणसंणिभ वरतुरयो तदियकम्छाए ॥ १८. मरगयवण्णसमुज्जलतुंगमहाकाय गमणपरिहत्था । मभिणवतमालसामल तुरयवरा तह चडस्थीर || १८८ रयणाभरणविहूसिय मणिकिरणसमूहणासियतमोहा । णीलुप्पलदलसंणिभ तुरगवरा पंचमाए दु॥१८९ ससहरकिरणसमागमविभिण्णवररत्तकुमुदवण्णाभा । जासवणकुसुमणिभ वरतुरया छ?माए दु ।।... मणपवणगमणचंचलखरखुररवजणियसगंभीरा । मिणिदणीळसंणिभ वरतुरया सत्तमाए ॥१९१ एवं तुरयाणीया सत्तविभागा हवंति णिहिट्ठा । दिम्बामलरूवधरा जाणाभरणेहि संकण्णा ॥ १९२ मोसु तूरणिवहा पडहमुदिंगादिसहगंभीरा । वरकाहलमहुररवा पक्खुभिर्यसमुद्दणिग्मोसा ॥ १९३ रयणमया पल्लाणा देवकुमारेहि वाहमाणा ते । सोइंति महाकाया देवाण विउम्वणा दिम्वा ॥ १९४ कक्षामें उदित होनेवाले सूर्यके सदृश अथवा मन्दार, अशोक एवं कमलके सदृश कान्तिवाले, तथा चलते हुए सुन्दर चामरोंसे सहित रक्त तुरंग होते हैं ॥ १८६ ॥ तृतीय कक्षामें अग्निसंयोगसे शुद्ध किये गये निर्मल सुवर्णके सदृश व खुरपुटके भारसे जनित धूलिसे पिंजरित उत्तम अश्व श्रेष्ठ गोरोचन के सदृश (पीत) होते हैं ॥ १८७ ॥ चतुर्थ कक्षामें मरकत जैसे वर्णवाले उज्ज्वल एवं उन्नत महान् शरीरसे संयुक्त तथा गमन दक्ष उत्तम अश्व नवीन तमाल वृक्षके समान श्याम वर्णवाले होते हैं ॥१८८ ॥ पंचम कशामें रत्नोंके आभरोसे विभूषित व मणिकिरणों के समूहसे अन्धकारसमूहको नष्ट करनेवाले श्रेष्ठ अश्व नीलोत्पलपत्रके सदृश वर्णवाले होते हैं ॥ १८९ ।। छठी कक्षामें शशधर (चन्द्र ) के समागमसे विकासको प्राप्त उत्तम रक्त कमल जैसे वर्णवाले श्रेष्ठ अश्व जपा कुसुमके सदृश होते हैं ॥ १९० ।। सातवीं कक्षामें मन अथवा पवनके समान गमन करनेमें चंचलताको प्राप्त तीक्ष्ण खुरोंके शब्दसे उत्पन्न शब्दसे गम्भीर उत्तम अश्व भिन्न इन्द्रनील मणिके सदृश होते हैं ॥ १९१ ।। इस प्रकार दिव्य व निर्मल रूपको धारण करनेवाली और नाना आभरणोंसे ज्याप्त अश्व सेनायें सात विभागोंसे युक्त निर्दिष्ट की गई हैं ॥ १९२ ॥ मध्यमें वादित्रसमहसे सहित, पटह व मृदंग आदिके शब्दसे गम्भीर, उत्तम काइलके मधुर शब्दसे युक्त, प्रक्षोभको प्राप्त हुए समुद्र जैसे निर्घोषसे संयुक्त, रत्नमय पलानोंसे साहित, और देवकुमारोसे चलाये जानेवाले वे देवोंकी विक्रियासे निर्मित महाकाय दिप घोड़े शोभायमान होते हैं ॥ १९३-१९४ ॥ अनुपम रूप व तेजसे सम्पन्न वे महा बलवान् पंब पवलंत. २ उ खुरवड, प खुरउद, ब खुरउद्य, श खुरकर. ३ उश वरातुरया, पब वस्तु - रिवा. ४ उश ससहकिरण. ५ उश वणड्डा, ब वण्णाम. ६ उश तुरय. ७ दश पञ्चलस्वर, पव पंचळखल. ८ उश काहलमहुवररवापखुभिय, पब काहलमुद्गरवरपरयुनिय, ९पय समदुणिरघोसा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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