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________________ जबूदीवपण्णत्ती पुण्णागतिलसवण्णा पारावपमोरकंठसंकासा । 'कंदलकल्हारणिभा केदहकणवीरसंकासा ॥ . मंदारतारकिरणा सत्तच्छदसालकुसुमसंकासा । किंसुर्यमुणालवण्णा दुखकुरसिरिसकुसुमसंकासो॥६२ पारसमसागवण्णा णववियसियरत्तकुसुमसंकासा । इंदीवरदलवण्णा विभिण्णसियकुसुमसंकासा ॥ १३ पायारसंपरिउहावरगोउरमडिया परमरम्मा। धवंतघयवडाया मणितोरणसंकल्ला विउला॥ वरभूहरसंकासा णाणाविहचारुभवणसंकण्णा । दिध्वमणोवमरूवा असंखसुरसुंकुला रम्मा ॥ ६५ पोक्खरणिवाविपउरा सरिसरवरदीहियाहि परिपरिया। उववणकाणणसहिया भलिउलकुलजणियेक्षकारा ॥१६ गिरिवरकूडेसु वहा गिरिवरसिहरसु गिरिवरणोसु । होति सुराणं पुरवर जिणभवणविहूसिया रम्मा ॥ ६. विर्खभायामेहि य उन्छेहेहि य हवंति जावदिया | वेदडणमम्मि तदा तावदिया मंबुजेसु गिहा ॥ ६८ पउमो य महापउमो विगिंछवरकेसरी य पुंडरिमो । तह य महापुंडरिमो महादहा होवि भचलेसु ॥ ६९ दहकुंरणगणदीण य वणदीवपुराण कूडसेढीणं । तरवेदी णिहिट्ठा मणितोरणमंडिया दिवा ॥ ७. सेलाणं उम्छेहो दसगुणिद दहाण होइ मायामा । दसमजिदे भवगाई पंचगुणं हवा विक्खमं ॥७॥ ................................... कबूतर व मयूरके कण्ठके सदृश, कंदल व कल्हारके समान वर्णवाले, केतकी व कनैरके सदृश, मन्दारके समान निर्मळ किरणोंवाले, सप्त छद व शाल वृक्षोंके कुसुमेकि समान, किंशुक व मृणाल जैसे वर्णवाले, दूर्वाङ्कुर व शिरीष कुसुमके सदृश, पाटळ व अशोक समान वर्णवाले, नवीन विकसित रक्त कुसुमोंके सदृश, कमलपत्रके तुल्य वर्णवाले, विकसित सित कुसुमेकि सदृश, प्राकारसे वेष्टित, उत्तम गोपुरासे मण्डित, अतिशय रमणीय, फहराती हुई वजा-पताकाओंसे सहित, मणितोरणोंसे व्याप्त, विस्तृत, उत्तम भूघरके सदृश, नाना प्रकारके सुन्दर भवनोंसे युक्त, दिव्य व अनुपम रूपवाले, असंख्य देवोंसे व्याप्त, रम्य, प्रचुर पुष्करिणी व वापियोंसे सहित, नदी, सरोवर एवं दीर्घिकाओंसे परिपूर्णः वन-उपवनोंसे सहित, और म्रमरसमूहके मंकारसे युक्त हैं ॥ ५३-६६ ॥ पर्वतोंके कूटोंपर, पर्वतशिखरोंपर तथा पर्वतन गोंपर भी इसी प्रकार जिनमवनेंस विभूषित एवं रमणीय देवोंके उत्तम भवन होते हैं ॥ ६ ॥ जितना विष्कम्भ, आयाम और उत्सेध वैताड्ढय पर्वतपर स्थित गृशंका है उतना ही वह कमलोंपर स्थित गृहोंका भी है ॥ ६८ ॥ पद्म, महापम, तिमिछ, केसरी, पुण्डरीक और महापुण्डरीक, ये महा द्रह उक्त कुलाचलोंपर स्थित हैं ॥ ६९ ॥ द्रइ, कुण्ड, पर्वत, नदी, वन, दीप, पुर, कूट और विद्याधरश्रेणियों के मणितोरणोंसे मण्डित दिव्य तटवेदियो कही गई हैं॥ ७० ॥ पर्वतोंके उत्सेधको दशसे गुणित करनेपर द्रोंका आयाम, उसमें दशका माग देनेपर उनका अवगाह, और पांचसे गुणित करनेपर उनका विस्तार होता है ॥१॥ १बती ६१ तमगाषाया उपराई १रतमगाथायाम पूार्ड नोपलम्यते. २१ सय ३१t दुष्यंकरसिरसकसुमामा. ४३श गवाधियसिय. ५ उ श जाणिय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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