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________________ २३६) जंबूदीवपण्णती [१३.११ वाससदसहस्साणि दुचुलसीदिगुणं हज्ज पुग्वंग । पुग्वंगसदसहस्सा चुलसीदिगुणे हवे पुण्य ॥" पुम्वस्स दु परिमाणं' सदर खलु कोहि सदसहस्साणि । छप्पणं च सहस्सा बोब्वा वासकोठीणं ॥ १५ पुग्वं पन्ध णउदै कुमुदं परमं च णलिण कमल च। तुडियं भर ममम हाहा हाह य परिमाणं ॥३ महवि दु लदो लदा वि य महालदंगं महालदा य' पुणो । सीसपपिय हस्थप्पहेलियं हवदि अचलप्पं ॥ एवं एसो कालो संखेज्जो होदि वस्सगणणाए । गणणाभवदिक्कतो हवदि य कालो भसंखेज्जो ॥ १५ मंतादिममहीणं अपदेसं णेव इंदिए गेझं । जं दग्वं भविभागीतं परमाणू मुणेयव्वा ॥ १६ . जस्म न कोइ अणुदरी सो भणुभो होदि सम्वदन्याण । जावे परं अणुत्तं तं परमाणू मुणेयम्वा ॥ सत्येण सुतिक्खेण य छेत्तुं भेत्तुं च जं किर ण सक' । तं परमाणु सिद्धा भणति भादि पमाणेण" ॥ १८ परमाणूहि य या ताणतेह मेलिदेहि" तहा। ओसण्णासण्णेत्ति य खंधो सो होदि णादवो ॥ १९ कालका कथन करते हैं ॥ १० ॥ चौरासीसे गुणित एक लाख वर्ष प्रमाण अर्थात् चौरासी लाख वर्षोंका एक पूर्वाग और चौरासीसे गुणित एक लाख पूर्वाग प्रमाण एक पूर्व होता है ॥११॥ पूर्वका प्रमाण सत्तर लाख छप्पन हजार करोड़ (७०५६००००००००००) जानना चाहिये ॥ १२॥ [इसी विधानसे अपने अपने अंगके साथ --- यथा पूर्वाग-पूर्व व पाग-पर्व इत्यादि ) पूर्व, पर्व, नयुत, कुमुद, पम, नलिन, कमल, त्रुटित, अटट, अमम, हाहा, हूहू लता [लतांग], लता, तथा महालांग, महालता, शीर्षप्रकम्पित, हस्तप्रहेलित और अचलाम, इस प्रकार वर्षोंके गणनाक्रमसे यह काल संख्येय है । गणनासे रहित काल असंख्येय होता है ॥ १३-१५॥ जो द्रव्य अन्त, आदि व मध्यसे रहित; अप्रदेशी, इन्द्रियोंसे अग्राह्य (ग्रहण करनेके अयोग्य) और विभागसे रहित हो उसे परमाणु जानना चाहिये ॥१६॥ सब द्रव्यों में जिसकी अपेक्षा अन्य कोई अणुतर न हो वह अणु होता है। जिसम आत्यन्तिक अणुत्व हो उसे सब द्रव्योंमें परमाणु जानना चाहिये ॥१५॥ जो अतिशय तीक्ष्ण शस्त्रसे छेदा-भेदा न जा सके उसे सिद्ध अर्थात् केवलज्ञानी परमाणु कहते हैं। यह प्रमाणव्यवहारकी अपेक्षा आदिभूत है, अर्थात् आगे कहे जानेवाले अवसन्नासन्नादिके प्रमाणका मूल आधार परमाणु ही है॥१८॥ अनन्तानन्त परमाणुओंके मिलनेसे अवसन्नासन्न नामक स्कन्ध होता है, ऐसा जानना चाहिये ॥१९॥ उन आठ अवसन्नासन्न द्रव्योंसे एक सन्ना १उ पुवंग सदसहस्सा चुलसीदि हवे गुणं पुवं, श पुच्वंगं सदसहस्साणि दुचुलसौदिगग हवेग्ज पुग्वंग. .उश पुब्वसह परिमाणं. ३ क कोरिसहस्साणि ४ उश दियं अडंगममं हाहहह य, क तडियं तुर अममं हाहा हुहूय, पब तुब्यि तुडडं अमम हाहा हूहू य. ५ श अहा विदलदा. ६शय महागदमंगहालदाय, ७ उश हत्थापहेलियं, क इत्थं पहेलियं, पब हापहेहियं. ८ उ अश्तं परमाणू, पब अणुतं तं परमाणं,श अत्तं तुं परमाणू. ९ उक पब सक्का. १. उक पब परमाणू सिद्धं, शते परमाणू सिद्ध. ११ उप श आदिप्यमाणेण, क आदिपमाणो. १२ उ मेलिदाहि, शमेलिताहि. १३ उ मोसण्णासपणेसि संधो, श उसग्गा पश्यति खंधो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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