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जंबूदीवपण्णत्ती
[ ५.११२
एवं आगंतूगं अट्ठभिदिवसेसे मंदरगिरिस्त । जिणभवणेसुं य पडिमा जिर्णिदहंदाग पूर्यति ॥ ११२ असहस्सेहिं तहा खीरोवाहिसलिल पुण्णकलसेहिं । ण्हावंति पहिहमणौ परमाए भत्तिरायण ॥ ११३ पडुपडहसंखकाहलमहलकं सालतालविहेहिं । वज्र्ज्जतपवरतूरं महिमं कुव्वंति देविंदा ॥ ११४ गोसीसमलय चंदण कुंकुमपंकेहि चचियं काउं । वरपंच वण्णैणिम्मलसुगंधदामेहिं अच्चति ॥ ११५ ससिधवलसुरहिकोमलणाणाविहभक्ख भोज्जमादीहिं । पूयंति जिणवरिंदे ससुरासुरसुरगणा सवें ॥ ११६ दीवे हि य धूवेहि य चरुअक्खयफलविचित्तकुसुमेहि । अच्चंति य पूयंतिय पहिडमणसा सुरा सव्वे ॥ ११७ एवं एऊणं वंदति विसुद्ध भावहियएण । चदुमंगलच दुसरा विसुद्धसम्मत्तसंजुत्ता ॥ ११८ एवं थोऊन जिगं अमरिंदा अमलपुण्णसंजुत्ता । जेणागदा पडिगदा घेत्तूर्ण धम्मवररयणं ॥ ११९ दरम्म दीवे जिणवरभवणा हवंति एमे । कुंडलदीवेसु तहा मणुसुत्तररु जगसेलेसु ॥ १२०
इस प्रकार आकर वे अष्टाहिक दिनोंमें मन्दर पर्वतके जिनभवनों में जिनेन्द्रप्रतिमाओंकी पूजा करते हैं ॥ ११२ ॥ तथा वे मनमें हर्षित होकर क्षीरसमुद्रके जलसे परिपूर्ण एक हजार आठ कलशों द्वारा उत्कृष्ट भक्तिरागसे अभिषेक करते है ॥ ११३ ॥ वे देवेन्द्र पटु पटह, शंख, काहल, मर्दल, कांस्याल और ताल समूहोंके साथ उत्तम वादित्रोंको बजाते हुए उत्सवको करते हैं || ११४ ॥ उक्त देव उन्हें गोशीर्ष, मलयचन्दन और कुंकुम-पंकसे लिप्त करके उत्तम पांच वर्णकी निर्मल व सुगन्धित मालाओंसे पूजा करते हैं ॥ ११५ ॥ सुरों व असुरोंके साथ सब देवगण चन्द्रवत् धवल, सुगन्धित एवं कोमल नाना प्रकारके भक्ष्य नैवेद्योंके द्वारा जिनेन्द्र देवकी पूजा करते हैं ॥ ११६ ॥ सत्र देव मनमें हर्षित होकर दीप, धूप, चरु, ● अक्षत, फल एवं विचित्र कुसुमसे जिन भगवान्की अर्चा व पूजा करते हैं ॥ ११७ ॥ इस प्रकार से पूजा करके वे हृदयमें निर्मल भावोंको धारण कर चार मंगलों (चत्तारि मंगलअरिहंता मंगलं, सिद्रा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ), चतुः शरणों ( चत्तारि सरणं पवज्जामि - अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि ) और त्रिशुद्ध सम्यक्त्व से संयुक्त होते हुए चन्दना करते हैं ॥ ११८ ॥ इस प्रकार जिन भगवान्की स्तुति करके निर्मल पुण्य से संयुक्त वे देवेन्द्र जिस रूपसे आये थे उसी रूपसे धर्मरूपी उत्तम रत्नको ग्रहण करके वापिस
चले जाते हैं ॥ ११९ ॥ इसी प्रकार ही नन्दीश्वर द्वीपमें, उत्तर पर्वत व रुचक पर्वतपर भी जिनभवन हैं ॥ १२० ॥
कुण्डलवर द्वीपमें, और मानुषोजिस प्रकार भद्रशाल वनमें
१ उश अहामिदिवसे २ प व भुवणेसु. ३ प ब पहिठमाणा ४ उ श परमतूरं. ५ उ पंचजण्णा, श पंचजणा. ६ प ब ससुरासुरवरवरगणा सच्वो, श शमुरासुरगणा सव्त्रे ७ उ प ब श दिव्वेहि ८ प चदुस्सरणो, च चदुस्सरणे. ९ उश जिणि १० उप व श एसेव.
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