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________________ -९. २१) णवमी उदेसो [१५५ वणवेदिएहि जुत्तो वरतोरणमंडिमो परमरम्मो । जिणचंदभवणणिवहो विज्जुप्पभदेवसाहीणो ।। १२ वत्तो पच्छिमभागे गंतूर्ण पंचजोयणसयाणि । होइ हु कंचणवेदी णिसधसमीवे समुदिट्ठा ॥॥ विज्जुप्पभसेलादो' गंतूर्ण भइसालवणमझे । बावीसं च सहस्सा जोयणसंखेहि तहिं होदि ॥ १४ परवेदिया विचित्ता पंचेव धणुसया दु विस्थिण्णा । कोससमुत्तुंगा गाणाविहरयणसंछण्णा ॥ १५ तत्तो भवरदिसाए पठमा णामेण जणवदो होइ । पउमुप्पलपुप्फेहि य पउँमिणिसंडेहि रमणीमो ॥ वरकमलसालिएहि य वप्पिणाणवहेहि मंडिओ रम्मो । गिप्पण्णसव्वधण्णो समिद्धगामेहि संछण्णा ॥. गंगासिंधूहि तहा वेदवणगेण भूसिमो पवरो । छक्खंडपउमविजो णिहिट्ठो सम्वदरिसीहि ॥ सस्स देसस्स णेया गयरी णामेण अस्सपुरी । वणवेदिएहिं जुत्ता परतोरणमंडिया दिग्वा ॥ १९ मणिरयणभवणणिवहाचणपासादसंकुला रम्मा। जिणइंदगेहपउरा इंदपुरी णा पञ्चक्खा ॥ २. भवरेण तदो गंतुं सहावदिणामपम्वदो होइ । मसिहरणिवहो जिणभवणविकसिमो तुंगो ॥१॥ कंधणमभो विसालो गइंदकुंभागदी परमरम्मो । वणवेदिएहि जुत्तो वरतोरणमंडिमो दिवो ॥ २९ वन-वेदियोसे युक्त, उत्तम तोरणोसे मण्डित, अतिशय रमणीय, जिनभवनोंके समूहसे युक्त और विधुत्प्रम देवके स्वाधीन है ॥ ११-१२ ॥ उससे पश्चिम भागमें पांच सौ योजन जाकर निषध पर्वतके समीपमें सुवर्णमय वेदी निर्दिष्ट की गई है ॥ १३ ॥ विद्यत्प्रभ शैलसे बाईस हजार योजन प्रमाण भद्रशाल वनके मध्यमें जाकर वहां पांच सौ धनुष विस्तीर्ण, दो कोश ऊंची और नाना प्रकारके रत्नोंसे व्याप्त विचित्र उत्तम वेदिका है ॥१४-१५॥ उससे पश्चिम दिशामें पद्मा नामक देश है । छह खण्डोंसे युक्त वह श्रेष्ठ पद्म विजय पद्म व उत्पल पुष्पों एवं पद्मिनियों के समूहोंसे रमणीय, उत्तम कलम धानसे शोभायमान खतोंके समूहोंसे मण्डित, रम्य, समस्त धान्योंकी निष्पत्तिसे सहित, समृद्ध ग्रामोंसे व्याप्त तथा गंगा त्र सिन्धु नदियों एवं वैतात्य पर्वतसे भूषित है; ऐसा सर्वदर्शियों द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ॥१६-१८ ॥ उस देशकी राजधानी अश्वपुरी नामकी नगरी जानना चाहिये। यह नगरी वन-वेदियोंसे युक्त उत्तम तोरणोंसे मण्डित, दिव्य, मणि एवं रत्नमय भवनसमूहसे सहित, सुवर्णमय प्रासादासे व्याप्त, रम्य तथा प्रचुर जिनेन्द्रगृहोंसे सहित होती हुई साक्षात् इन्द्रपुरी जैसी प्रतीत होती है ॥ १९-२०॥ उसके पश्चिममें जाकर श्रद्धावती (शब्दावनि) नामक पर्वत है। यह पर्वत आठके आधे अर्थात् चार शिखरों के समूहसे सहित, जिनभवनसे विभूषित, उन्नत, सुवर्णमय, विशाल, गजराजके कुम्भके समान आकृतिवाला, अतिशय रमणीय, वन-वेदियोंसे युक्त, १कब जिणयंद. २५ °सेलाहो. ३ उशपउमप्पलपुप्फेहि, ब पउमप्पहपुण्फेहि.४ ब पहु. ५७ शवप्पणणामेखियवप्पिणिणित्रहेहि. उश सम्वधम्मो पुण्णागामेहिब सम्वधण्णो समिधगामेहि. ७ उश संकुल ८ बणाय. ९ उश सावहि, व संडावदि. १० क गांवकुमाकिदी य परमरम्मो, कंमागही. परमरम्मो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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