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________________ १२) जग्बूदीपणाची कप्पणियरको तमालहितालतालवाउलिदो । लवलीलवंगकलिदो बइमुत्तख्याउलसिरीयो ॥ ४५ णारंगफणसपड़रो कदलीवणमंदिसो परमरम्मो । बहुजादिमल्लिखचियो कुंदणकटयपरियरिभो ॥ ५६ वरणालिएररहमो पूराफलतरुवरेहि रमणीमो । तंबूलवलिगणो कुंकुमघरछेहि पिंचामो ॥ १७ एकामिरीहणियहो कक्कोलाजान्दिपलसमिद्धो य । चंदणपायवेणिधिमो भगळयाकथुरियसमग्गो ॥ ४८ तस्स बास्पदु मज़ो जिणियंदाण' विगमोहाणं । कंचणमणिरयणमया चत्तारि इति भवणाणि ॥ ४९ सोसयमायामा पपणासा विस्थड़ा समुहिट्टा । पण्णत्तरि उच्छेहा जाणामणिरमणपरिणामा ॥ ५० भदेव जोडणाई उच्छेहा होति ताण दाराणि चडजोयणविधिण्णा विस्थिपणसमप्रवेसा ॥५॥ सोलसडोयणदीदा पीडामा होति ताण णिहिता । भट्टेव य उबिदा ममिकिरणवलसतिमिरानो ॥ ५२ तेसु जिणा परिमा पंचधणुस्सयपमाणइच्छेहा । होति सुरासुरमहिश णःणामणिकणयपरिणामा ॥ ५५ एवं चेव दुणेवा गंदीसर चेय णाम दीवस्स । वाणजिणघराणं विखंमायामउदा ॥१॥ भान वृक्षोके वनोंसे व्याप्त, कर्पूर वृक्षोंके समूहसे युक्त; तमाल, हिंताल एवं ताळ वृक्षोंसे व्याकुलित; लवली व लवंग वृक्षोंसे कलित, अतिमुक्त लताओंके समूहसे सुशोभित, नारंग व पक्स वृक्षोसे प्रचुर, कदलीवनसे मण्डित, अतिशय रमणीय, बहुत जातिके मल्लि ओंसे खचित, कुंद, अर्जुन एवं कुटज वृक्षोंसे वेष्टित; उत्तम नालिकेर वृक्षासे निर्मित, सुपारीक उत्तम वृक्षोंसे रमणीय, ताम्बूल बेलोंसे गहन, कुंकुम वृक्षसे मस्ति , इलायची. व मिरिचके वृक्षसमूहसे युक्त, ककोल व जातिफलॉस समृद्ध, चन्दन वृक्षोंसे निचित, तथा अगरलता व कस्तूरीसे समग्र है ॥४१-४८॥ उस बनके मध्यमें मोहसे रहित हुए जिनेन्द्र रूप चन्द्रोंके सुवर्ण, मणि एवं रत्नोंसे निर्मित चार भवन हैं ॥ १९ ॥ नाना मणियों एवं रत्नोंके परिणाम रूप वे जिनभवन सौ योजन बायत, पचास योजन विस्तृत और पचत्तर योजन ऊंचे कहे गये हैं ॥ ५० ॥ उक्त जिनमवनोंके द्वार आठ योजन ऊंचे, चार योजन विस्तृत और विस्तारके समान प्रवेशवाले होते हैं ॥५१॥ मणिकिरणोंसे अन्धकारको नष्ट करनेवाले उनके पीठ सोलह योजन दीर्घ और आठ योजन ऊंचे होते हैं ॥५२॥ उनके ऊपर सुर व असुरोंसे राजित माना मणियों एवं सुवर्णके परिणाम रूप पांच सौ धनुष ऊंची जिनप्रतिमायें होती है ॥५३ ।। इसी प्रकार ही नन्दीश्वर नामक द्वीपके बावन जिनगृहोंके भी विष्कम्भ, आयाम और उंचाईका प्रमाण जानना चाहिये ॥५४॥ सब ही भद्रशालोंमें स्थित जिनगृह तीन छत्र, सिंहा प १हितालतालवारलदो, श हितालवाव्यो. २५ महणे. उशगोस पिचली, कुमणहि बिविय ४५समयो. ५ पाक्य, श पाल.. ६५ अर. बिगिंदोबाण. सा, शोषणाए य. १५वहति ताणि दूराणि, यति इससुमागण. १.पपरेसो. ११पब बलिद. १२ तेसि. १३ मिणध्वताणं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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