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________________ - ४. ६३ ] च उत्यो उद्देसो [ ६३ छत्तत्तय सीहासणभामंडलच्चामर। दिसंजुता । बहुकुसुमन रिसद् दुहिम सोय रुक्खेदि अहिरामा' ॥ ५५ भिंगार कल सदरपण बहुधवलचामरसणाद्दा | घंटापडायपउरा मंगलकलसेहिं संछष्णा ॥ ५६ बहुविविधपुष्पमाला मुप्तादामेहि सोहिया' रम्मा । दज्ांतर्धूमणिवहा बहुकुसुमकयच्चणसणाद्दा ॥ ५७ सिदद्दरिक सणसामरत्तं सुयपट्टसुत्तनिवदेहि । बहुविधयमाला उलपवणपणच्चंत सोहंता ॥ ५८ वरपडद्दभेरिमद्दल भंभावीणादिकं सतालेहिं । वज्र्जततूरपउरा काहलकोलाहलरवेहिं ॥ ५९ संगीस दबहिरियच्छरणच्चतमणहराकोय। " । पवरच्छराहि भरिया सुरवरणिनद्देहिं सोहंता ॥ ६० रयणमयवेदिणिवा मणितोरणबहुविहेद्दि छज्जेता" | वरणेसालपउरा अहिले यघरेहिं रमणीया ं ॥ ६१ पोक्खर निवाविवप्पिण बहुभवणविचिन्तकप्प रुक्खे हैं । सोइति जिणाण घरा सम्वेसु वि भद्दसालेसु ॥ ६२ एवं जे जिणभवणा निदिट्ठा भद्दसालवणंसंडे | वउसु वि भवसेसु वि वणेसु ते होंति मजुद्धा ॥ ६३ सन, मामण्डल और चामरादिस संयुक्त; बहुत कुसुमवृष्टि, दुंदुभि और अशोक वृक्षों से रमणीय श्रृंगार, कलश, दर्पण, बुद्बुद और बहुतसे धवल चामरोंसे सनाय घंटा एवं पताकाओं से प्रचुर, मंगलकलशों से व्याप्त, बहुतसी पुष्पमालाओं एवं मुक्कामालाओं से शोभित, रमणीय, ऊपर उठते हुए धुंएके समूह से सहित, बहुतसे फूलों द्वारा की गई पूजासे सनाथ; धवल, हरित, कृष्ण, श्यामल और रक्त वस्त्रों व रेशमी वस्त्रोंके समूह से शोभायमान; वायुसे प्रेरित होकर नाचनेवाली बहुत प्रकारकी ध्वजाओं के समूह से रमणीय, उत्तम पटह, मेरी, मईल, मंभा, बीणादि एवं कांस्पतालों तथा काहलके कोलाहल शब्दों के साथ बजते हुए प्रचुर चाजोंसे सहित; संगीत शब्दसे बहिरी हुई अप्सराओंके नृत्य से मनोहर दिखनेवाले, श्रेष्ठ अप्सराओंसे परिपूर्ण, उत्तम देवोंके समूहों से शोभायमान रत्नमय वेदियों के समूहसे युक्त, बहुत प्रकारके मणितोरणोंसे सुशोभित, उत्तम एवं प्रचुर नाट्यशालाओंसे साइत, अभिषेकगृहोंसे रमणीय तथा पुष्करिणी, वापियों एवं वप्रिणियोंसे सहित, बहुत प्रकारके भवनों व विचित्र कल्पवृक्षों से शोभायमान हैं ॥ ५५-६२ ॥ इस प्रकार जो जिनभवन भद्रशाल वन खंडमें कहे गये हैं उनसे आधे आधे वे शेष चारों ही वनों हैं ॥ ६३ ॥ उनका उत्सेध, १ उश दाहि. २ उ अहिराम. प ब अ सेरामा, श अराम. ३ श वुल्वध ४ विविहमंडमाला. ५ड सोसिया, श सोईया. ६ उश उकंत, प उसंत, ब ( अष्पष्टम् ). ७ उश सुतानिवे, प ब हि. ८ श विहुविह. ९ उपवणपणअंत, श पवलपणभ्वंत. १० उश सिंगीय. ११ प ब महिरिया. १२ व मणहराचोहा. १३ प प्रत्याः ६१-६२तमगाथयोर्व्यत्ययो दृश्यते । १४ वा सोहंता १५ उपया पह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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