SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जंबूदीवपणतिकी प्रस्तावना ५०० उदन रेखा से 8 कोण पर अमिनत है, जिसकी स्पर्श निष्पत्ति स्प8 = ४५ो - ५०० है। १००० ११००० इसके पश्चात्, ५०० योजन की ऊँचाई पर जाकर व्यास ५०० योजन चारों ओर से घट माता है तथा इसी व्यास का रम्भ ११००० योजन की ऊंचाई तक रहता है। यहां ( आकृति-२९ स) उदय रेखा अथवा रम्भ की जनन रेखा प्रवण रेखा से कोण बनाती है, जिसकी स्पर्श निष्पति फिर से है। . इसी प्रकार, ५१५०० योजन ऊपर खाकर व्यास चारों ओर ५०० योजन घटता है तथा उस पर ११००० योजन उत्सेध की रम्भ स्थापित रहती है। अंत में २५००० योजन ऊपर और चाकर ५०० योजन त्रिज्या चारों ओर से ४९४ योजन कम होती है, इसलिये केवल १२ योवन चौड़े तलवाली तथा ४० योजन उत्सेध की, मुख में ४ योजन व्यासवाली चूलिका सबसे ऊपर, अंत में, रहती है (आकृति-२९ द)। चूलिका की पार्श्व रेखा उदन से 'कोण बनाती है जिसकी स्पर्श निष्पत्ति स्प' है। गा.४,१७९३-इस गाथा में, शंकु के समच्छिन्नक की पार्श्व रेखा का मान निकालनेके लिये जिस सूत्र का प्रयोग किया है वह प्रतीकरूप से यह है. (आकृति-३० अ) यहां भूमि D, मुख d, ऊँचाई h, पार्श्वभुजा को 1 माना गया है, तदनुसार; . साक्षति २० गा. ४, १७९७ - बिस तरह त्रिभुज संक्षेत्र ( Triangular Prism) के समच्छिमक (Frustrum) के अनीक समलम्ब चतुर्भुज होते हैं, उसी प्रकार शंकु के समन्छिनक को उम्र समतल द्वारा केन्द्रीय अक्ष में से होता हुआ काटा बावे तो छेद से प्राप्त आकृतियां भी समलम्ब चतुर्भुव प्राप्त होती है। इसलिये, यहां स्त्र में, पहिले दिया गया स्त्र उपयोग में लाया जाता है। LIV(D-d) + (E)२ - - यदि, चूलिका के शिखर से 5 योजन नीचे विष्कम्म निकालना हो, तो निम्न लिखित सूत्र का उपयोग किया जा सकता है। (आकृति-३० ब) ------x r=h [P]+b प्राकृत - अथवा : = D - [(E-)(PHP)] उपर्युक्त सूत्रों का उपयोग, १७९८-१८०० गाथाओं में किया गया है । गा. ४, १८९९-- इस गाथा में समवृत्त रवस्तूप, “समवट्टो चेट्टदे. रयणथूहो” का नाम शंकु के लिये आया है। गा, ४, ७११ आदि- ग्रंथकार ने समवशरणके स्वरूप को आनुपूर्वी ग्रंथ के अनुसार वर्णन करने में कुछ क्षेत्रों का वर्णन किया है । मुख्य ये है- . १ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ४१३९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy