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________________ - १३.६२ तेरसभो उद्देसो [ २४१ विसईविसपुहि जदो' सग्णिवादस्स' जो दु अवबोधो । समणंतरादिगहिदे भवग्गहो सो हवे" जेथो' ॥ ५७ अवगहिदत्यस्स पुणो' सगसगविसएहि जादसारस्स । जं च विसेसग्गग्रहणं ईद्दाणाणं भवे तं तु ॥ ५८ ईहिदत्यस्सं पुणो थाणू पुरिलो' सि बहुवियप्पस्स । जो णिच्छियावबोधो' सो दु अवाओ बियाणाहि ॥ ५९ तह य भवाय मदिस्स" कुंजरसदेति निरिछदस्यस्स । कालंतरभविसरणं सा होदि य धारणा बुद्धी ॥ ६० सोवूण देवदेति" य सामण्णेण य" विचाररहिदेणं । जस्सुप्पज्जइ" बुद्धी अवग्गगई तस्स निहिं ॥ ६१ हरिहर हिरण्णगम्भा ताणं मझेसु को दु सब्वण्डू । एवं जस्स दु बुद्धी" ईद्दाणाणं हवे तस्स ॥ ६२ प्रतिनियत स्वरूप जो 'बोध' अर्थात् ज्ञानविशेष होता है वह आमिनिबोधिक [ मतिज्ञान ] कहा जाता है। वह सामान्यतया अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके भेद से चार प्रकारका है। इनमें से प्रत्येक स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियों और छठे मनकी सहायतासे पदार्थको ग्रहण करते हैं। इस प्रकार निमित्तभेद से उसके चौबीस (४x६ = २४ ) मेद होते हैं। इनमें भी अवग्रह दो प्रकारका है — व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह । जो प्राप्त पदार्थको ग्रहण करता है वह व्यञ्जनावग्रह तथा जो अप्राप्त पदार्थको ग्रहण करता है वह अर्थावग्रह कहलाता है। अब चूंकि व्यञ्जनावग्रह प्राप्त ( अव्यक्त ) पदार्थको ही विषय करता है, अत एव वह अप्राप्यकारी चक्षु और मनको छोड़कर शेष स्पर्शनादि चार इन्द्रियोंकी ही सहाबतासे पदार्थको ग्रहण करता है । इस प्रकार उसके ४ भेद ही होते हैं। इनको पूर्वोक्त २४ भेदोंमें मिला देनेसे २८ भेद हुए । इनमें से प्रत्येक बहु व बहुविध आदि रूप बारह प्रकारके पदार्थको ग्रहण करते हैं, अत एव विषयभेद से उसके तीन सौ छत्तीस ( २८ × १२ = ३३६ ) भेद हो जाते हैं। विषयी और विषयसे युक्त सन्निपातके अनन्तर जो आद्य ग्रहण होता है वह अवप्रह नना चाहिये ॥ ५७ ॥ अपनी अपनी विशेषताओंके साथ जिसके सारांशको या गया है ऐसे अवग्रहगृहीत पदार्थके विषयमें जो विशेष ग्रहण होता है। वह ईहा मतिज्ञान है ॥ ५८ ॥ यह स्थाणु है या पुरुष, इस प्रकार बहुत विकल्प रूप ईहित पदार्थ के विषयमें जो निश्चित ज्ञान होता है उसे अवाय यह 'हाथीका शब्द है' इस प्रकार अवाय मतिज्ञानके द्वारा विस्मरण न होना, वह धारणा ज्ञान कहा जाता है ॥ ६० ॥ जिसके विचार रहित सामान्यसे बुद्धि उत्पन्न होती है उसके अवग्रह निर्दिष्ट किया गया है ॥ ६१ ॥ विष्णु, शिव और हिरण्यगर्भ ( ब्रह्मा ), ( ये देव कहे जाते हैं ।] उनके मध्यमें सर्वज्ञ कौन है, इस प्रकार जिसके [ ईात्मक ] बुद्धि होती है उसके ईहाज्ञान होता है ॥ ६२ ॥ है, ऐसा ग्रहण कर जानना चाहिये ॥ ५९ ॥ निश्चित अर्थका कालान्तर में 'देवता' इस प्रकार सुनकर १ उ बिस्रईविसएहि ा क विसएसिएहिं जदा, प ब विसएविसएहि जुदा २ उश सभिवादस क प ब गया. ६ उ अवग्गहिदत्यस पुण्णो, क प व अविगदिदत्यस्स पुणो, मत्थरस, प व उहित्यरस, श इरिअरस. ८ क पुरखे ९ उपश महिस्स. ११ उश देवदचि- १२ स श दि. १३ उ श जस्सुप्पज्जुहि. तस्य ॥ ६४ ॥ इतक्लिटिन ६५तमा गाथा प्रारम्भाः ३ प ब अगधा. ४ उ श अवे. श अवग्गईिदत्य पुष्णो. • उई णिच्छय अवबोधो १० उश अव १४ ततोऽमे अवायणानं जं. बी. ३१. A " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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