________________
८० ]
जंबूदीवपण्णत्ती
[ ४.२२५
गंधण्याण मणीया सत्तस्सरसंजुदा तु गायंता । गच्छंति सुरा पवरा जिणजम्मणजाणियसंतोसा ॥ २२५ महुरमणोहरक्का दिव्याहरणेहि भूसिया देवा । सज्जसरेहि' प जुत्ता कच्छाए होति पढमा ॥ २२९ रिसभसरेण' प जुत्ता वत्थामरणेहि मंडिया दिग्वा । विदियाए कच्छाए महुरं गायंति जयंति ॥ २२७ नीलुपणीसासा महिणवलावण्णरूप संपण्णा । तदियाए कच्छाए गंधारसरेण गायंति ॥ २२८ ममिसरेण जुत्ता जलंतदरमउडकुंडला भरणा । गायंति पथरदेवा कच्छाए वह चउत्थीए ॥ ९२९ पंचमसरेण जुत्ता सुकुमरेसिंगार सहगंभीरा । कच्छाए पंचमिए णिहिद्वा सुरवरा विद्दा ॥ १३० धनदसरेण जुत्ता सायरणिग्वे । समणहराला वा । छट्टीए कच्छाए अमरकुमारा समुद्दिट्ठा ॥ २३१ गायंति महुरमणहरणिसायघोसेण भासुरा ममरा । सुरसुंदरिसंजुत्ता सत्तमिए तह य कच्छा ॥ २३२ बंसीवीणावसिमहुपरिकंसाल तालियादीहि । संजुत्ता देवीको गार्यति जिणाण भसीए ॥ २३३ ढक्कामुर्गिरि महसारम उदे किष्णरादीहिं । वज्र्जतमधुरमणहरगंधन्दा सुरगणा चलिया ॥ २३४ सायरतरंगसंणिभ भमरंजणसच्छा जगजगता । परमार कच्छार किण्डरा पैसंकुला गया ॥ २३५
उत्पन्न हुए सन्तोषसे सात स्वर युक्त गान करते हुए जाते हैं ॥ २२५ ॥ मधुर एवं मनोहर मुखवाले तथा दिव्य आभरणोंसे भूषित उक्त देव प्रथम कक्षा षड्ज स्वरोंसे युक्त होत हैं ॥ २२६ ॥ वस्त्राभरणोंसे मण्डित उक्त दिव्य देव द्वितीय कक्षा में ऋषभ स्वरसे युक्त मधुर गान करते व नाचते हैं ॥ २२७ ॥ तृतीय कक्षा में नीलोत्पलके समान निश्वासवाले और अभिनय लावण्यमय स्वरूपसे सम्पन्न वे देव गान्धार स्वरसे गाते हैं ॥ २२८ ॥ चतुर्थ कक्षा में चमकते हुए मुकुट एवं कुण्डल रूप आमरणोंसे सहित के उत्तम देव मध्यम स्वरसे युक्त होकर गाते हैं ॥ २२९ ॥ पांचवी कक्षा में सुकुमार ( सुन्दर ) आभूषणों के शब्द से गम्भीर उक्त श्रेष्ठ देवोंके समूह पंचम स्वरसे युक्त कहे गये हैं ॥ २३० ॥ छठी कक्षा में समुद्र के निर्घोष के समान मनोहर आलापवाले देवकुमार चैत्रत स्वरसे युक्त कहे गये हैं । २३१ ॥ सातवीं कक्षा में सुन्दर कान्तिवाले उक्त देव देवांगनाओंसे संयुक्त होकर मधुर एवं मनोहर निषाद स्वरसे गाते हैं ॥ २३२ ॥ वंशी, वीणा, बच्ची (स्त्री) सक, मधुकरी, कांस्याल और ताक ( कंसिका ) आदि वाद्यविशेषसे संयुक्त देवियां जिन भगवान की भक्तिसे गान करती है ॥ २३३ ॥ ढक्का, मृदंग, झालर, महासार, मुकुंद ( वाद्यविशेष) और किन्नर आदि बादित्रोंको बजाते हुर मधुर एवं मनोहर गन्धर्व देवोंके समूह प्रस्थित हुए ॥ २३४ ॥ प्रथम कक्षा में समुद्रतरंगके सदृश अथवा भ्रमर व अंजनके समान प्रभावाले जगमगाते हुए [ भृत्य ] जाओंसे युक्त जानना चाहिये ॥ २३५ ॥ [ उक्त भृत्य ] द्वितीय कक्षा में उन्नत
कृष्ण
१ उश सरेही. २ प ब रिसतसरेण वा सितमेरण. ३ प ब महुरा. ४ उ स गच्छति ५ उश सकुहर. ६ उश सुरणिवहा. ७ प व मणहरावाला, श मणिहराळावा.
श मुदिए. ९ प व महासरामडद.
१० डा गंधम्बपुरा गणा
११ उ श किण्हग्मय, प व किण्डाशय.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org