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जीवपत्तिकी प्रस्तावना के परिणामों की संख्या है। इससे भी भसंख्यात लोक प्रमाणगुणे, मन वचन काय योगों के अविभागप्रतिच्छेदों ( कर्मों के फल देने की शक्ति के अविभागी अंशों) की संख्या का प्रमाण होता है।
इसी प्रकार यद्यपि उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात और अन्य परीतानन्त में केवल १ का अंतर हो चाने से ही 'अनन्त' संशा उपचार रूप से प्राप्त होती है। अवधिशनी का विषय उत्कृष्ट असंख्यात तक का होता है, इसके पश्चात् का विषय केवलशानी का होने से, अनन्त संशा प्राप्त हो पाती है। वास्तव में, व्यय के अनन्त काल तक भी होते रहने पर बो राशि क्षय को प्राप्त न हो उसे 'अनन्त' कहा गया। इस प्रकार, बब जघन्य अनन्तानन्त की तीन बार वर्गित सम्बनित राशि में, अनन्त राशियां मिलाई जाती है, तभी उसकी अनन्त संज्ञा सार्थक होती है।
वीरसेनाचार्य ने अर्द्ध पुद्गलपरिवर्तन काल के अनन्तत्व के व्यवहार को उपचार निबन्धनक बतलाया है। भव्य बीव राशि भी अनन्त है।
शंका होती है कि अब अर्द पुद्गलपरिवर्तन काल की समासि हो जाती है तो भन्य बीव राशि भी क्यों क्षय को प्राप्त न होगी। इस पर आचार्य ने कथन किया है कि अनन्त राशि वही हैबो संख्यात या असंख्यात प्रमाण राशि के व्यय होने पर भी अनन्त काल से भी क्षय को प्रासन ही होती। अर्द्ध पुद्गलपरिवर्तन काल, यद्यपि 'अनन्त' संज्ञा को अवधिज्ञान के विषय का उलंघन करके प्राप्त है, तथापि असंख्यात सीमा में ही है। इस प्रकार, व्यय के होते रहने पर भी, सदा अक्षय रहनेवाली भव्य बीव राशि समान और भी राशियां बो क्षय होनेवाली पुद्गलपरिवर्तन काल बैसी सभी राशियों के प्रतिपक्ष के समान, उपर्युक्त विवेचनानुशार पाई जाती है।
बाई केटर ने प्राकृत संस्थाओं (१, २, ३,...."अनन्त तक) के गणात्मक प्रमाण को एक राशि अथवा कुलक मान किया है, जिसे No (Aleph Nought) प्रतीक से निर्देशित किया है। इस अनन्त प्रमाण राधि से, गण्य (Denumerable) राशियों के प्रमाण स्थापित किये गये हैं और सिद किया गया है कि २No=No, तया (No) = No आदि ।
हसी प्रकार No से बड़ी संख्या का आविष्कार, गणित क्षेत्र में अद्वितीय है। कर्ण विधि (Diagonal Method) के द्वारा सिद्ध किया गया है कि .
२No>No. विशद विवेचन अत्यन्त रोचक है तथा बैनाचार्यों को विधियों से उनका तुलनात्मक अध्ययन, सम्भवतः गणित के लिये नवीन पथ प्रदर्शित कर सकेगा।
यहां प्रथकार ने यह भी कथन किया है कि वहां वहां संख्यात S को खोबना हो, वहां वहां अबपन्यानुत्कृष्ट संख्यात (Sm) पाकर ग्रहण करना चाहिये (बो एक स्थिर राशि नहीं है वरन् ३ से लेकर भागे तकाकी कोई भी राशि हो सकतीहैबो उत्कृष्ट संख्यात से छोटी)। उसी प्रकार यहां वहां असंख्यातासंख्यात की खोज करना हो वहां वहां अबघन्यानुत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात (Aa ग्रहण करना चाहिये; तथा अंत में वहां वहां अनन्तानन्त का ग्रहण करना हो वहां वहां lim का ग्रहण करना चाहिये।
गा.४, १४४३-मूल में वो संदृष्टि दी गई है उसमें चौथी पंक्ति में रुद्र की अंक संदृष्टि ४ मान कर प्रतीक रूप से उसे उन चौंतीस कोठों में स्थापित किया गया है।
गा.४, १६२४- हिमवान् पर्वत की उत्तर बीवा २४९३२६९ योजन, तथा धनुपृष्ठ २५२३०१ योचन है । यह सब गणना, उपर्युक्त सूत्रों से, का मान V१० मान कर की गई है।
१ षटखंडागम, पुस्तक ४, पृष्ठ ३३८, ३३९.
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