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________________ जंबूदीवपणत्तिकी प्रस्तावना काराकोरम, काशार और अल्ताई पहाडोंकी ऊंची चोटियोंकी पट्टीसे परिमण्डित है-यह ठीक सकोरेकी आकृति हो गई, ऊंची चोटियोंकी शृंखला जिसकी दीवार हुई और बीचका चतुरस्र पैदा हुआ। यह भी यहां विशेष ध्यान देने योग्य है कि इस पामीरमें मेरु शब्द आश्लिष्ट है, यह शब्द सपाद-मेरुका जन्य है। मेरुके सम्बन्धमें सपाद-मेरु मेरुके महापादका व्यवहार प्रायः हुआ है, अतः यह व्युत्पत्ति अशंकनीय है। इसी प्रकार काश्मीर शब्द भी मेरुका अंग जान पड़ता है। जैसा कि विद्वानोंका अनुमान है, अवश्य यह शब्द कश्यपमेरुका अपभ्रंश है। नीलमत पुराणके अनुसार भी काश्मीर कश्यपका क्षेत्र है। साथ ही तैत्तिरीयक अरण्यक (११७) में कहा गया है कि महामेरुको कश्यप नहीं छोड़ता। पौराणिक कालमें मेरु-मण्डल (पामीर प्रदेश ) का नाम कांबोज था। हैमवत- यह पहले भारत वर्षका ही दूसरा नाम रहा है। यथा इमं हैमवतं वर्ष भारतं नाम विश्रुतम् । मत्स्य. ११२।२८. आगे चलकर वह स्वतन्त्र एक वर्ष मान लिया गया है। यथा इदं तु भारतं वर्षे ततो हेमवतं परम् । - भारत भीष्म ६।७. उपर्युक्त विषय-वर्णन और ग्रंथान्तरोसे तुलना द्वारा प्रस्तुत ग्रंथका संक्षिप्त परिचय प्राप्त हो जाता है। ग्रंथका प्राकृत पाठ अनेक स्थलों पर सुरक्षित नहीं पाया जाता, यदि कुछ और हस्तलिखित व स्वतंत्र प्राचीन प्रतियां मिलाने के लिये हस्तगत हो जाय तो ग्रंथका और भी अधिक प्रामाणिक पाठ तैयार हो सकता है जिसे हम निश्चयसे लेखककी सच्ची रचना कह सकें। और तभी संभवतः ग्रंथके कुछ अशोकी असंगति और अप्रासंगिकताका निराकरण किया जा सकेगा ( उदाहरणार्थ, देखिये उद्देश १३ में कल्पोंका विवरण)। इस ग्रंथकी परम्परा कुछ बातोंमें सर्वार्थसिद्धि, हरिवंशपुराण आदि ग्रंथोसे भिन्न पाई जाती है। किन्तु अर्धमागधी श्रुतांगकी जम्बूदीव-पण्णत्तिसे उसकी कुछ विषयोंमें आश्चर्यजनक समता दिखाई देती है। तिलोयपण्णत्तिके साथ उसका साम्य प्रचुर मात्रामें पाया जाता है। वहांकी अनेक गाथायें यहां जैसीकी तैसी अथवा कुछ हेर फेरके साथ पाई जाती हैं। उसकी जो गाथायें मूलाचार, बृहत्क्षेत्रसमास, त्रिलोकसार और ज्योति करण्डकमें भी पाई जाती हैं वे संभवतः जैन आचार्यों में परम्परासे प्रचलित करणानुयोगका अंश हों ! - यह संपूर्ण ग्रंथ गाथा छन्दमें और प्राकृत भाषामें रचा गया है। यह प्राकृत प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् पिशेलके मतानुसार जैन शौरसेनी कहलाने योग्य है। कुछ क्षेत्रोंके भारी वर्णन हमें अर्धमागधीके लम्बे लम्ये समासोंसे युक्त रचनाशैलीका स्मरण कराते हैं। ५ ग्रंथकारका परिचय व रचनाकाल ग्रंथम उसके रचनाकालका कोई निर्देश नहीं है। तथापि ग्रंथकारने प्रशस्तिमें अपनी जो उपर्युक्त गुरुपरम्पराका वर्णन किया है (उद्देश १३, गा. १५३ आदि ) उसके अनुसार उनके गुरुका नाम वलनन्दि गरुके गुरुका नाम वीरनन्दि था। ग्रंथकार पद्मनन्दिने शास्त्रका ज्ञान विद्यागुरु श्रीविजयसे प्राप्त किया था और इस ग्रंथकी रचना उन्होंने माघनन्दिके शिष्य सकलचन्द्र के शिष्य श्रीनन्दिके लिये की थी। जिस नगरमें यह ग्रंथ लिखा गया था उसका नाम 'बारा नगर' था जो पारियत्त (पारियान) देशमें था जहां शक्तिकुमार (या शान्तिकुमार ) नामके राजा राज्य करते थे। पं. नाथूरामजी प्रेमीने अपने एक लेखमें यह प्रमाणित करनेका प्रयत्न किया है कि विन्धाचलसे उत्तरका प्रदेश ही पारियात्र कहलाता था; राजस्थानके कोटा प्रदेशामें जो एक कसया चारा नामका है वही ग्रंथकारका बारा नगर होना चाहिये: नदिसंबकी • Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002773
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2004
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Mathematics, & agam_jambudwipapragnapti
File Size10 MB
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