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. अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
सूक्तोंका जप करे। पश्चिमद्वारपर रहनेवाले सामवेदी करना उचित है। उसमें भी यथाशक्ति दक्षिणा देनी ब्राह्मण वैराजसाम, पुरुषसूक्त, सुपर्णसूक्त, रुद्रसंहिता, चाहिये। चतुर्थी-कर्म पूर्ण करके यज्ञ-सम्बन्धी जितने शिशुसूक्त, पञ्चनिधनसूक्त, गायत्रसाम, ज्येष्ठसाम, पात्र और सामग्री हों, उन्हें ऋत्विजोंमें बराबर बाँट देना वामदेव्यसाम, बृहत्साम, रौरवसाम, रथन्तरसाम, गोव्रत, चाहिये। फिर मण्डपको भी विभाजित करे। सुवर्णपात्र विकीर्ण, रक्षोन और यम-सम्बन्धी सामोंका गान करें। और शय्या किसी ब्राह्मणको दान कर दे। इसके बाद उत्तर द्वारके अथर्ववेदी विद्वान् मन-ही-मन भगवान् अपनी शक्तिके अनुसार हजार, एक सौ आठ, पचास वरुणदेवकी शरण ले शान्ति और पुष्टि-सम्बन्धी मन्त्रोंका अथवा बीस ब्राह्मणोंको भोजन कराये। पुराणों में जप करें। इस प्रकार पहले दिन मन्त्रोंद्वारा देवताओंकी तालाबकी प्रतिष्ठाके लिये यही विधि बतलायी गयी है। स्थापना करके हाथी और घोड़ेके पैरोंके नीचेकी, जिसपर कुआँ, बावली और पुष्करिणीके लिये भी यही विधि है। रथ चलता हो-ऐसी सड़ककी, बाँबीकी, दो नदियोंके देवताओंकी प्रतिष्ठामें भी ऐसा ही विधान समझना संगमकी, गोशालाकी तथा साक्षात् गौओंके पैरके चाहिये। मन्दिर और बगीचे आदिके प्रतिष्ठा-कार्यमें नीचेकी मिट्टी लेकर कलशोंमें छोड़ दे। उसके बाद केवल मन्त्रोंका ही भेद है। विधि-विधान प्रायः एक-से सषिधि, गोरोचन, सरसोंके दाने, चन्दन और गूगल भी ही हैं। उपर्युक्त विधिका यदि पूर्णतया पालन करनेकी छोड़े। फिर पञ्चगव्य (दधि, दूध, घी, गोबर और शक्ति न हो तो आधे व्ययसे भी यह कार्य सम्पन्न हो गोमूत्र) मिलाकर उन कलशोंके जलसे यजमानका सकता है। यह बात ब्रह्माजीने कही है। विधिपूर्वक अभिषेक करे। अभिषेकके समय विद्वान् जिस पोखरेमें केवल वर्षाकालमें ही जल रहता है, पुरुष वेदमन्त्रोंका पाठ करते रहें।
वह सौ अनिष्टोम यज्ञोंके बराबर फल देनेवाला होता है। - इस प्रकार शास्त्रविहित कर्मके द्वारा रात्रि व्यतीत जिसमें शरत्कालतक जल रहता हो, उसका भी यही करके निर्मल प्रभातका उदय होनेपर हवनके अन्तमें फल है। हेमन्त और शिशिरकालतक रहनेवाला जल ब्राह्मणोंको सौ, पचास, छत्तीस अथवा पचीस गौ दान क्रमशः वाजपेय और अतिरात्र नामक यज्ञका फल देता करे। तदनन्तर शुद्ध एवं सुन्दर लग्न आनेपर वेदपाठ, है। वसन्तकालतक टिकनेवाले जलको अश्वमेध यज्ञके संगीत तथा नाना प्रकारके बाजोंकी मनोहर ध्वनिके साथ समान फलदायक बतलाया गया है तथा जो जल ग्रीष्मएक गौको सुवर्णसे अलङ्कत करके तालाबके जलमें कालतक मौजूद रहता है, वह राजसूय यज्ञसे भी अधिक उतारे और उसे सामगान करनेवाले ब्राह्मणको दान कर फल देनेवाला होता है। दे। तत्पश्चात् पञ्चरत्नोंसे युक्त सोनेका पात्र लेकर उसमें महाराज ! जो मनुष्य पृथ्वीपर इन विशेष धर्मोका पूर्वोक्त मगर और मछली आदिको रखे और उसे किसी पालन करता है—विधिपूर्वक कुआँ, बावली, पोखरा बड़ी नदीसे मैंगाये हुए जलसे भर दे। फिर उस पात्रको आदि खुदवाता है तथा मन्दिर, बगीचा आदि बनवाता दही-अक्षतसे विभूषित करके वेद और वेदाङ्गोंके विद्वान् है, वह शुद्धचित्त होकर ब्रह्माजीके लोकमें जाता है और चार ब्राह्मण हाथसे पकड़े और यजमानकी प्रेरणासे उसे वहाँ अनेकों कल्पोतक दिव्य आनन्दका अनुभव करता उत्तराभिमुख उलटकर तालाबके जलमें डाल दें। इस है। दो परार्द्ध (ब्रह्माजीकी आयु) तक वहाँका सुख प्रकार 'आपो मयोः' इत्यादि मन्त्रके द्वारा उसे जलमें भोगनेके पश्चात् ब्रह्माजीके साथ ही योगबलसे डालकर पुनः सब लोग यज्ञ-मण्डपमें आ जाये और श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। यजमान सदस्योंकी पूजा करके सब ओर देवताओंके भीष्मजीने कहा-ब्रह्मन् ! अब आप मुझे उद्देश्यसे बलि अर्पण करे। इसके बाद लगातार चार विस्तारके साथ वृक्ष लगानेकी यथार्थ विधि बतलाइये। दिनोंतक हवन होना चाहिये। चौथे दिन चतुर्थी-कर्म विद्वानोंको किस विधिसे वृक्ष लगाने चाहिये?