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. अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पयपुराण
मस्तक झुकाये। तत्पश्चात् सुगन्धित पुष्प, नैवेद्य और धूप विनय करके शय्या, प्रतिमा तथा धेनु आदि सब कुछ आदिके द्वारा इन्दुपत्नी रोहिणी देवीका भी पूजन करे। ब्राह्मणको दान कर दे।]
इसके बाद रात्रिके समय भूमिपर शयन करे और राजन् ! जो संसारसे भयभीत होकर मोक्ष पानेकी सबेरे उठकर स्नानके पश्चात् 'पापविनाशाय नमः'का इच्छा रखता है, उसके लिये यही एक व्रत सर्वोत्तम है। उच्चारण करके ब्राह्मणको घृत और सुवर्णसहित जलसे यह रूप और आरोग्य प्रदान करनेवाला है। यही पितरोको भरा कलश दान करे। फिर दिनभर उपवास करनेके सर्वदा प्रिय है। जो इसका अनुष्ठान करता है वह पश्चात् गोमूत्र पीकर मांसवर्जित एवं खारे नमकसे रहित त्रिभुवनका अधिपति होकर इक्कीस सौ कल्पोंतक चन्द्रअनके इकतीस ग्रास घीके साथ भोजन करे । तदनन्तर लोकमें निवास करता है। उसके बाद विद्युत् होकर मुक्त दो घड़ीतक इतिहास, पुराण आदिका श्रवण करे। हो जाता है। चन्द्रमाके नाम-कीर्तनद्वारा भगवान् राजन् ! चन्द्रमाको कदम्ब, नील कमल, केवड़ा, जाती श्रीमधुसूदनकी पूजाका यह प्रसङ्ग जो पढ़ता अथवा पुष्प, कमल, शतपत्रिका, बिना कुम्हलाये कुब्जके फूल, सुनता है, उसे भगवान् उत्तम बुद्धि प्रदान करते हैं तथा सिन्दुवार, चमेली, अन्यान्य श्वेत पुष्प, करवीर तथा वह भगवान् श्रीविष्णुके धाममें जाकर देवसमूहके द्वारा चम्पा-ये ही फूल चढ़ाने चाहिये। उपर्युक्त फूलोकी पूजित होता है। जातियोंमेंसे एक-एकको श्रावण आदि महीनोंमें क्रमशः भीष्मजीने कहा-ब्रह्मन् ! अब मुझे तालाब, अर्पण करे। जिस महीने में व्रत शुरू किया जाय, उस बगीचा, कुआँ, बावली, पुष्करिणी तथा देवमन्दिरकी समय जो भी पुष्प सुलभ हों, उन्हींक द्वारा श्रीहरिका प्रतिष्ठा आदिका विधान बतलाइये। पूजन करना चाहिये।
पुलस्त्यजी बोले-महाबाहो! सुनो; तालाब इस प्रकार एक वर्षतक इस व्रतका विधिवत् आदिको प्रतिष्ठाका जो विधान है, उसका इतिहासअनुष्ठान करके समाप्तिके समय शयनोपयोगी सामग्रियोंके पुराणोंमें इस प्रकार वर्णन है। उत्तरायण आनेपर शुभ साथ शय्यादान करे। रोहिणी और चन्द्रमाको सुवर्णमयी शुक्ल पक्षमें ब्राह्मणद्वारा कोई पवित्र दिन निश्चित करा मूर्ति बनवाये। उनमें चन्द्रमा छः अङ्गलके और रोहिणी ले। उस दिन ब्राह्मणोंका वरण करे और तालाबके चार अङ्गलकी होनी चाहिये। आठ मोतियोंसे युक्त श्वेत समीप, जहाँ कोई अपवित्र वस्तु न हो, चार हाथ लम्बी नेत्रोंवाली उन प्रतिमाओंको अक्षतसे भरे हुए काँसीके और उतनी ही चौड़ी चौकोर वेदी बनाये । वेदी सब ओर पात्रमें रखकर दुग्धपूर्ण कलशके ऊपर स्थापित कर दे। समतल हो और चारों दिशाओंमें उसका मुख हो। फिर फिर वस्त्र और दोहनीके साथ दूध देनेवाली गौ, शङ्ख सोलह हाथका मण्डप तैयार कराये। जिसके चारों ओर तथा पात्र प्रस्तुत करे। उत्तम गुणोंसे युक्त ब्राह्मण- एक-एक दरवाजा हो । वेदीके सब ओर कुण्डोंका निर्माण दम्पतीको बुलाकर उन्हें आभूषणोंसे अलङ्कत करे तथा कराये। कुण्डोंकी संख्या नौ, सात या पाँच होनी चाहिये। मनमें यह भावना रखे कि ब्राह्मण-दम्पतीके रूपमें ये कुण्डोंकी लम्बाई-चौड़ाई एक-एक रत्रिकी' हो तथा वे रोहिणीसहित चन्द्रमा ही विराजमान हैं। तत्पश्चात् इनकी सभी तीन-तीन मेखलाओंसे सुशोभित हों। उनमें इस प्रकार प्रार्थना करे–'चन्द्रदेव ! आप ही सबको यथास्थान योनि और मुख भी बने होने चाहिये । योनिकी परम आनन्द और मुक्ति प्रदान करनेवाले है। आपकी लम्बाई एक बित्ता और चौड़ाई छ:-सात अंगुलकी हो। कृपासे मुझे भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त हों। [इस प्रकार मेखलाएँ तीन पर्व' ऊँची और एक हाथ लम्बी होनी
१. कोहनीसे लेकर मुट्ठी बँधे हुए हाथतककी लम्बाईको 'रलि' या 'अरनि' कहते हैं। २. अंगुलियोंके पोरको 'पर्व' कहते है।