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• अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् •
रविवार हो अथवा सूर्यकी संक्रान्ति हो, वह तिथि समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली होती है। उस दिन सूर्यके नामोंसे भगवती पार्वती और महादेवजीकी पूजा करनी चाहिये। सूर्यदेवकी प्रतिमा तथा शिवलिङ्गका भी भक्ति पूर्वक पूजन करना उचित है। हस्त नक्षत्रमें 'सूर्याय नमः' का उच्चारण करके सूर्यदेवके चरणोंकी, चित्रा नक्षत्रमें 'अर्काय नमः' कहकर उनके गुल्फों (घुट्ठियों) की स्वाती नक्षत्रमें 'पुरुषोत्तमाय नमः 'से पिंडलियोंकी, विशाखामें 'धात्रे नमः' से घुटनोंकी तथा अनुराधामें 'सहस्रभानवे नमः 'से दोनों जाँघोंकी पूजा करनी चाहिये। ज्येष्ठा नक्षत्रमें 'अनङ्गाय नमः' से गुह्य प्रदेशकी मूलमें 'इन्द्राय नमः' और 'भीमाय नमः' से कटिभागकी, पूर्वाषाढा और उत्तराषाढामें 'त्वष्ट्रे नमः' और 'सप्ततुरङ्गमाय नमः' से नाभिकी, श्रवणमें 'तीक्ष्णांशवे नमः' से उदरकी, धनिष्ठामें 'विकर्तनाय नमः' से दोनों बगलोंकी और शतभिषा नक्षत्रमें 'ध्वान्तविनाशनाय नमः 'से सूर्यके वक्षःस्थलकी पूजा करनी चाहिये । पूर्वा और उत्तरा भाद्रपदामें 'चण्डकराय नमः' से दोनों भुजाओंका रेवतीमें 'साम्नामधीशाय नमः' से दोनों हाथोंका, अश्विनीमें 'सप्ताश्वधुरन्धराय नमः' से नखोंका और भरणीमें 'दिवाकराय नमः' से भगवान् सूर्यके कण्ठका पूजन करे। कृत्तिकामें ग्रीवाकी रोहिणीमें ओठोंकी, मृगशिरामें जिह्वाकी तथा आर्द्रामें 'हरये नमः' से सूर्यदेवके दाँतोंकी अर्चना करे। पुनर्वसुमें 'सवित्रे नमः' से शङ्करजीकी नासिकाका, पुष्यमें 'अम्भोरुहवल्लभाय नमः 'से ललाटका तथा 'वेदशरीरधारिणे नमः' से बालोंका, आश्लेषामें 'विबुधप्रियाय नमः ' से मस्तकका, मघामें दोनों कानोंका, पूर्वा फाल्गुनीमें 'गोब्राह्मणनन्दनाय नमः' से शम्भुके सम्पूर्ण अङ्गका तथा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रमें 'विश्वेश्वराय नमः 'से उनकी दोनों भौंहोंका पूजन करे 'पाश, अङ्कुश, कमल, त्रिशूल, कपाल, सर्प, चन्द्रमा
पाशाङ्कुशपद्मशूलकपालसर्पेन्दुधनुर्धराय नमः ।
+ गयासुरानङ्गपुरान्धकादिविनाशमूलाय नमः शिवाय ।
[ संक्षिप्त पद्मपुराण
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तथा धनुष धारण करनेवाले श्रीमहादेवजीको नमस्कार है। * 'गयासुर, कामदेव, त्रिपुर और अन्धकासुर आदिके विनाशके मूल कारण भगवान् श्रीशिवको प्रणाम है।' इत्यादि वाक्योंका उच्चारण करके प्रत्येक अङ्गकी पूजा करनेके पश्चात् 'विश्वेश्वराय नमः' से भगवान्के मस्तकका पूजन करना चाहिये। तदनन्तर अन्न भोजन करना उचित है। भोजनमें तेल और खारे नमकका सम्पर्क नहीं रहना चाहिये। मांस और उच्छिष्ट अन्नका तो कदापि सेवन न करे।
राजन् ! इस प्रकार रात्रिमें शुद्ध भोजन करके पुनर्वसु नक्षत्रमें दान करना चाहिये। किसी बर्तनमें एक सेर अगहनीका चावल, गूलरकी लकड़ीका पात्र तथा घृत रखकर सुवर्णके साथ उसे ब्राह्मणको दान करे। सातवें दिनके पारणमें और दिनोंकी अपेक्षा एक जोड़ा वस्त्र अधिक दान करना चाहिये। चौदहवें दिनके पारणमें गुड़, खीर और घृत आदिके द्वारा ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक भोजन कराये। तदनन्तर कर्णिकासहित सोनेका अष्टदल कमल बनवाये, जो आठ अङ्गुलका हो तथा जिसमें पद्मरागमणि (नीलम) की पत्तियाँ अङ्कित की गयी हों। फिर सुन्दर शय्या तैयार करावे, जिसपर सुन्दर बिछौने बिछाकर तकिया रखा गया हो और ऊपरसे चंदोवा तना हो। शय्याके ऊपर पंखा रखा गया हो। उसके आस-पास खड़ाऊँ, जूता, छत्र, चंवर, आसन और दर्पण रखे गये हों। फल, वस्त्र, चन्दन तथा आभूषणोंसे वह शय्या सुशोभित होनी चाहिये। ऊपर बताये हुए सोनेके कमलको उस शय्यापर रख दे। इसके बाद मन्त्रोच्चारणपूर्वक दूध देनेवाली अत्यन्त सीधी कपिला गौका दान करे। वह गौ उत्तम गुणोंसे सम्पन्न, वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित और बछड़ेसहित होनी चाहिये । उसके खुर चाँदीसे और सींग सोनेसे मँढ़े होने चाहिये तथा उसके साथ काँसीकी दोहनी होनी चाहिये। दिनके पूर्व भागमें ही दान करना उचित है। समयका उल्लङ्घन