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• अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
मैं आपकी शरणमें आया हैं।'* [इस प्रकार प्रार्थना चौड़ा और उतना ही गहरा हो। उसके ऊपरी किनारेपर करके रात्रिमें शयन करे।]
तीन मेखलाएँ बनवाये। उसमें यथास्थान योनि और दूसरे दिन एकादशीको निराहार रहकर भगवान् मुखके चिह्न बनवाये। तदनन्तर ब्राह्मण [कुण्डमें अग्नि केशवकी पूजा करे और रातभर बैठा रहकर शेषशायी प्रज्वलित करके] जौ, घी और तिलोंका श्रीविष्णुभगवानकी आराधना करे। फिर अनिमें घीकी आहुति सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा हवन करे। इस प्रकार वहाँ विधिदेकर प्रार्थना करे कि 'हे पुण्डरीकाक्ष ! मैं द्वादशीको श्रेष्ठ पूर्वक वैष्णवयागका सम्पादन करे। फिर कुण्डके मध्य में ब्राह्मणोंके साथ ही खीरका भोजन करूंगा। मेरा यह व्रत यत्नपूर्वक घीकी धारा गिराये, देवाधिदेव भगवान्के निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण हो।' यह कहकर इतिहास-पुराणकी श्रीविग्रहपर दूधकी धारा छोड़े तथा अपने मस्तकपर कथा सुननेके पश्चात् शयन करे। सबेरा होनेपर नदीमें पूर्वोक्त जलधाराको धारण करे। घीकी धारा मटरकी जाकर प्रसन्नतापूर्वक स्नान करे। पाखण्डियोंके संसर्गसे दालके बराबर मोटी होनी चाहिये। परन्तु दूध और दूर रहे। विधिपूर्वक सन्थ्योपासन करके पितरोंका तर्पण जलकी धाराको अपनी इच्छाके अनुसार मोटी या पतली करे। फिर शेषशायी भगवान्को प्रणाम करके घरके किया जा सकता है। ये धाराएँ रातभर अविच्छित्र रूपसे सामने भक्तिपूर्वक एक मण्डपका निर्माण कराये। उसके गिरती रहनी चाहिये। फिर जलसे भरे हुए तेरह भीतर चार हाथकी सुन्दर वेदी बनवाये। वेदीके ऊपर कलशोंकी स्थापना करे। वे नाना प्रकारके भक्ष्य दस हाथका तोरण लगाये। फिर सुदृढ़ खंभोंके पदार्थोंसे युक्त और श्वेत वस्त्रोंसे अलङ्कत होने चाहिये। आधारपर एक कलश रखे, उसमें नीचेकी ओर उड़दके उनके साथ चंदोवा, उदुम्बर-पात्र तथा पश्चरत्नका होना दानेके बराबर छेद कर दे। तदनन्तर उसे जलसे भरे और भी आवश्यक है। वहाँ चार ऋग्वेदी ब्राह्मण उत्तरकी स्वयं उसके नीचे काला मृगचर्म बिछाकर बैठ जाय। ओर मुख करके हवन करें, चार यजुर्वेदी विप्र कलशसे गिरती हुई धाराको सारी रात अपने मस्तकपर रुद्राध्यायका पाठ करें तथा चार सामवेदी ब्राह्मण धारण करे। वेदवेत्ता ब्राह्मणोंने धाराओंकी अधिकताके वैष्णव-सामका गायन करते रहें। उपर्युक्त बारहों अनुपातसे फलमें भी अधिकता बतलायी है; इसलिये ब्राह्मणोंको वस्त्र, पुष्प, चन्दन, अँगूठी, कड़े, सोनेकी व्रत करनेवाले द्विजको चाहिये कि प्रयत्नपूर्वक उसे धारण जंजीर, वस्त्र तथा शय्या आदि देकर उनका पूर्ण सत्कार करे। दक्षिण दिशाकी ओर अर्धचन्द्रके समान, पश्चिमको करे। इस कार्यमें धनकी कृपणता न करे। ओर गोल तथा उत्तरकी ओर पीपलके पत्तेकी आकृतिका इस प्रकार गीत और माङ्गलिक शब्दोंके साथ रात्रि मण्डल बनवाये। वैष्णव द्विजको मध्यमें कमलके व्यतीत करे। उपाध्याय (आचार्य या पुरोहित) को सब आकारका मण्डल बनवाना चाहिये। पूर्वकी ओर जो वस्तुएँ अन्य ब्राह्मणोंकी अपेक्षा दूनी मात्रामें अर्पण करे। वेदीका स्थान है, उसके दक्षिण ओर भी एक दूसरी वेदी रात्रिके बाद जब निर्मल प्रभातका उदय हो, तब शयनसे बनवाये। भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर हो पूर्वोक्त उठकर [नित्यकर्मके पश्चात्] तेरह गौएँ दान करनी जलकी धाराको बराबर मस्तकपर धारण करता रहे। चाहिये। उनके साथकी समस्त सामग्री सोनेकी होनी दूसरी वेदी भगवान्की स्थापनाके लिये हो। उसके ऊपर चाहिये। वे सब-की-सब दूध देनेवाली और सुशीला कर्णिकासहित कमलकी आकृति बनाये और उसके हों। उनके सींग सोनेसे और खुर चाँदीसे मँढ़े हुए हों मध्यभागमें भगवान् पुरुषोत्तमको विराजमान करे । उनके तथा उन सबको वस्त्र ओढ़ाकर चन्दनसे विभूषित किया निमित्त एक कुण्ड बनवाये, जो हाथभर लम्बा, उतना ही गया हो। गौओंके साथ काँसीका दोहनपात्र भी होना
• नमो नारायणायेति त्वामहं शरणं गतः॥