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हिन्दी नाट्यदर्पण'
OF DELHI
हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय
दिल्ली विश्वविद्यालय...Janeleran
Jain Educational
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हिंदी
नाट्यदर्पण
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मुद्रकस्य कराघातैः खिन्ना चेन्मम भारती । कराम्बुजामृतस्पर्शैः सन्तः ! सञ्जीवयन्त ताम् ।।
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हिंदी नाट्यदर्पण श्री रामचन्द्र-गुणचन्द्र-विरचित नाट्यदर्पण की हिंदी व्याख्या
प्रधान संपादक डॉ० नगेन्द्र
संपादक डॉ० दशरथ ओझा डॉ० सत्यदेव चौधरी
भाष्यकार आचार्य विश्वेश्वर सिद्धांतशिरोमणि
हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय
दिल्ली विश्वविद्यालय
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दिल्ली विश्वविद्यालय
पुनर्मुद्रण 1990 प्रतियाँ 2100
संरक्षक
प्रो० निर्मल कुमार सिद्धांत
संपादक मंडल
डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी डॉo नरेन्द्रनाथ चौधरी आचार्य विश्वेश्वर डॉ० विजयेन्द्र स्नातक
डॉ० दशरथ ओझा डॉ० उदयभानु सिंह
संयोजक
डॉ० नगेन्द्र
यह पुस्तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित की गई है
मूल्य 50 रुपए
हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, ई०ए० / 6, मॉडल टाउन दिल्ली- 110 009 द्वारा प्रकाशित तथा अजय ऑफसेट प्रिंटर्स, 73, शिव मंदिर गली मौजपुर, दिल्ली- 110032 द्वारा मुद्रित
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वक्तव्य
हिंदी नाट्यदर्पण नामक यह पुस्तक श्री रामचन्द्र-गुणचन्द्र विरचित नाट्यदर्पण की हिंदी व्याख्या प्रस्तुत करती है जिसका भारत के सभी विश्वविद्यालयों में प्रयोग हो रहा है। इस ग्रंथ के मूल रचनाकार हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र हैं, किंतु इसकी रचना में उनके सहपाठी गुणचन्द्र का भी योगदान होने से उसे दोनों की सम्मिलित कृति माना जाता है। यह ग्रंथ भरतमनि के 'नाट्यशास्त्र' के आधार पर लिखा गया है, किंत फिर भी लेखक-द्वय ने कई स्थलों पर भरतमनि से अपना मतभेद व्यक्त करते हुए अनेक मौलिक प्रस्थापनाएँ भी प्रस्तुत की हैं। हम ग्रंथ के संदर्भ में एक अन्य दिलचस्प तथ्य यह भी कहा जाता है कि गणचन्द्र ने इसे धनंजयकृत 'दशरूपक' की प्रतिद्वंद्विता में लिखा था।
यह पुस्तक पहली बार दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा प्रकाशित की गई थी, परंतु कतिपय कारणों से इसका पनप्रकाशन संभव नहीं हो पाया। पस्तक की माँग को देखते हए हिंदी विभाग ने इसके प्रकाशन का अधिकार निदेशालय को दे दिया है, जिसके लिए निदेशालय हिंदी विभाग का आभारी है। निदेशालय ने पुस्तक को शीघ्र उपलब्ध कराने की दृष्टि से इसका केवल पुनर्मुद्रण कराया है। आशा है इससे छात्रों व अध्यापकों की समस्या का निराकरण होगा।
निदेशालय हिंदी विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर तारक नाथ बाली का आभारी है जिन्होंने हिंदी विभाग की चार पुस्तकों के प्रकाशनाधिकार निदेशालय को देने का निर्णय लिया।
जगदीश चन्द्र मना
निदेशक
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विषयानुक्रम
विषय
पृष्ठ
१-५२
भूमिका
[माचार्य विश्वेश्वर सम्पादकीय(क) नाटपदर्पण में रूपकेतर काव्यशास्त्रीय प्रसंग
[f० सत्यदेव चौधरी] (ख) नाटयशास्त्रीय ग्रन्थों में नाटयदर्पण का स्थान
[डॉ० दशरथ प्रोझा]
५३-८७
८५-६७
प्रथम विवेक
वृत्तिभाग का मङ्गलाचरण वृत्तिमाग की प्रवतरणिका नाटय-रचना की दुष्करता रस-कषियों की प्रशंसा शब्द-कवियों की निन्दा नीरसवाणी की निन्दा कषियों के लिए व्यवहारमान की उपयोगिता विद्वत्ता के साप कवित्व प्रावश्यक काम्यापहरण की निन्दा त्रिविध काव्य-संवाद मूलग्रन्थ का मङ्गलाचरण मङ्गल-श्लोक की दूसरी व्याख्या प्रतिपाद्य विषय रूपकों के भेद
(१) नाटक का लक्षण वर्तमान चरित्रों के प्रभिनय का निषेध नाटकों में देवताओं के नायकत्व का खण्डन नायिका दिव्य भी हो सकती है नायक के चार भेद स्वभाव-व्यवस्था परित के दो भेद भावाभिव्यक्ति के नाटकीय प्रकार नाटकरचना-विषयक विशेष बातें
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(क)
YS
विषय कपाभाग की रचना की शिक्षा नाटक में परित्याज्य पह-लक्षण नाटकों की भंक-संख्या का विषय मलों में प्रदर्शनीय तत्त्व विष्कम्भकादि-प्रयोग विष्कम्भक-लक्षण प्रवेशक-लक्षण महास्य तथा चूलिका-लक्षण प्रावतार-लक्षण विष्कम्मकादि की विषय-व्यवस्था उपाय-व्याख्या बीज पताका-निरूपण पताका और प्रकरी पताका और प्रकरी का दूसरा भेद पताका अनिवार्य नहीं पताका भोर पताका-स्थान पताका-निरूपण पताका:स्थान प्रकरी-लक्षण
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६१
बिन्दु-लक्षण
७७
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कार्य की व्याख्या उपायों की मुख्यता के नियामक हेतु पांच दशामों का निरूपण (१) प्रारम्भावस्था
प्रयत्नावस्था
प्राप्त्याशावस्था (४) नियताप्ति-अवस्था
(५) फलागम-अवस्था सन्धि-निरूपण
(१) मुख (२) प्रतिमुख (३) गर्भ
"
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विषय
(६) निर्वहरण सन्धि का द्वितीय लक्षण
मुखसन्धि के द्वादश श्रङ्ग
(१) उपक्षेप
(२) परिकर
(३) परिन्यास
(४) समाधान
(५) उभेद
(६) करण
(७)
( 5 )
विलोमन
भेदन
( ९ )
प्रापण
(१०) युक्ति (११) विधान
(१२) परिभावना
प्रतिख सन्धि के तेरह भङ्ग
(१) विलास
(२) धूनन
(३) रोध
( ४ )
सान्त्वन (५) वर्ण संहृति
(६) नमं
(७) नर्मद्युति
( 5 )
ताप
(६)
पुष्प (१०) प्रगमन
(११) वज्र
(१२) उपन्यास (१३) अनुसर्पण गर्भ सन्धि के तेरह अंग
(१) संग्रह
( ख )
(२) रूप
(३) अनुमान
(४) प्रार्थना
(५) उदाहृति (६) क्रम
(७) उग
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विवद
(८)
विद्रव
(8.) भाक्षेप
(१०)
(११) मागं
(१२)
प्रत्याहरण (१३) तोटक
ग्रामशं सन्धि के तेरह अङ्ग
(१) द्रव (२) प्रसंग
(३) सम्फेट
(४) अपवाद
प्रधिखल
(५) छादन
(६) धुति
(७)
खेद
( 5 )
विरोध
संरम्भ
शक्ति
(2)
(१०)
(११) प्ररोचना
(१२) प्रादान
(१३) व्यवसाय निर्वहरण सन्धि के चौदह प्रङ्ग
(१) सन्धि (२) निशेष
(३) प्रथन
(४) निर्णय
(५)
परिभाषा
उपास्ति
कृति
घानन्य
समय
परिगूहन
(4)
(७)
( 5 )
( ९ )
(१०)
(११) भाषण
(१२) पूर्व भाव
(१३) काव्यसंहार (१४) प्रशस्ति
अन्य भाचायों के मत का खण्डन
( ग )
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१९०
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१९५
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विषय
विवेक सङ्गति
२. प्रकरण का लक्षण
प्रकरण भेद
प्रकल्प्य स्वरूप
उत्सर्ग का प्रतिदेश
३. नाटिका का लक्षण नाटिका में कर्त्तव्य का उपदेश नाटिका में करने योग्य अन्य बात ४. प्रकरणी का लक्षण
५. व्यायोग का निरूपण
सन्धि तथा प्रवस्थानों की न्यूनता का उपपादन
६. समवकार का निरूपण
समवकार में किये जाने वाले अन्य कार्यों का उपदेश शृङ्गारदि की व्याख्या
७. भारत का लक्षणं
कत्तव्य के प्रदर्शन द्वारा नायक का वर्णन
८. प्रहसन का लक्षण
शुद्ध प्रहसन
सङ्कीर्ण
(घ )
द्वितीय विवेक
९. डिम का लक्षण
रसों की सुख-दुःखात्मकता
डिम में करने योग्य अन्य बातों का तथा नायक का निर्देश
११. ईहामृग का लक्षण
ईहामृग में करने योग्य अन्य बातें
१२. वीथी का लक्षण
१०. उत्सृष्टिकाङ्क का निरूपण
उत्सृष्टिका में करने योग्य अन्य बातों का निर्देश
वोथी के तेरह मङ्ग
(१) व्यवहार (२) प्रघिबल
(३) गण्ड
(४) प्रपञ्च (५) त्रिगत
(६) चल
(७)
प्रसत्प्रलाप
180.
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२४०
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२५७
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विषय
पृष्ठ
२६२
() वाक्केली (६) नालिका (१०) मृदव (११) उद्घात्यक (१२) अवलगित
(१३) अवस्पन्दित व्यायोग आदि अन्य रूपकों के सामान्य, नाटक-लक्षरण
२६६ २६७ २६८
२७३ २७५ २७७ २८१ २८३ २८५ २८७ २८८ २६० २९३ २६५ २६५
तृतीय विवेक वृत्ति-निरूपण भारती वृत्ति का निरूपण प्रामुख का लक्षण प्रामुख के अङ्गभूत पात्रप्रवेश के नियम प्ररोचना-निरूपण सात्त्वती वत्ति का निरूपण कैशिकी वृत्ति का निरूपण प्रारमटी वृत्ति का निरूपण रस-निरूपण रस का प्राश्रय अनुमितिवाद नट में अनुभावों की स्थिति अनुभाव आदि संज्ञानों का विषय रसभेदों का वर्णन (१) भेदों सहित शृङ्गार रस का निरूपण (२) शृङ्गार के विभाव तथा अनुभावों का वर्णन (३) हास्य-रस (४) हास्य के भेद
करुण रस
रौद्ररस (७) वीर रस (८) भयानक रस (९) बीभत्स रस (१०) अद्भुत रस
(११) शान्त रस काव्य में रस का समावेश करने में विशेष सावधानी विरुद्ध रसों का विरोध और उसका परिहार
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३१२
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विषय
रस-दोष
रसों के स्थायी भाव
व्यभिचारिभाव
(१)
निर्वेद
(२) ग्लानि
(३)
(४)
शङ्का
(५) प्रसूया
(६) मद
(७)
( 5 )
अपस्मार
श्रम
चिन्ता
(६)
चपलता
(१०) प्रावेग (११) मति
(१२)
व्याधि
(१३) स्मृति
(१४) धृति
(१५) घमर्ष
(१६) मरण
(१७) मोह निद्रा
(१८)
( १९ ) सुप्त
( २० )
उग्रता
(२१) हर्ष
(२२) विषाद
(२३) उन्माद
(२४) दैन्य
(२५) व्रीडा
(२६) त्रास
(२७) तर्क
( २८ )
गर्व
(२९)
श्रौत्सुक्य (३०) प्रवहित्था
(३१) जाडघ
(३.) प्रालस्य
(३३) विबोध
(च)
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३४८ ३४९ ३४९
३५०
३५१ ३५१ ३५१ ३॥ ३५४ ३५८
(छ) विषय रसादिकों में पारस्परिक कार्य-कारणभाव अनुभाव
(१) वेपथु (२) स्तम्भ (३) रोमाञ्च (४) स्वरभेद (१) (६) मूर्छा (७) स्वेद
(क) विवर्णता अभिनय
(१) वाचिक (२) प्राङ्गिक (३) सात्त्विक (४) प्राहार्य
चतुर्थ विवेक नान्दी घ्रपाका लक्षण
(१) प्रावेशिकी ध्र वा (२) नैष्कामिकी ध्रुवा (३) आक्षेपिकी घ्र वा (४) प्रासादिकी ध्रुवा (५) मान्तरी ध्र वा के पात्रों की प्रकृति के भेद (१) उत्तम प्रकृति-पुरुष (२) मध्यम प्रकृति-पुरुष (३) नीच प्रकृति-पुरुष (४) उत्तमा-स्त्री (५) मध्यमा-स्त्री
(६) नीच-स्त्री नीच प्रकृति वाले नायक मुख्य नायक का लक्षण मुख्य नायक के गुण
(१) तेज (२) विलास
(३) माधुर्य
३६७
३७२
२७२
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विषय
(४)
(५) स्थैर्य
(६) गाम्भीर्य
(७) प्रौदार्य
शोभा
(८) ललित
गोरण नायक
प्रतिनायक
विदूषक प्रादि की प्रकृति
धीरोद्धत्त आदि नायकों में से प्रत्येक के अलग अलग विदूषक
धीरोद्धत्त आदि के सहायक
अन्तःपुर के उपयोगी परिचारक वर्ग का वर्णन
नायिका का लक्षण
नायिकाओं के विशेष भेद
नायिकाओं के तीन भेद
(१) मुग्धा (२) मध्या
(३) प्रगल्मा नायिकाओं के प्रसिद्ध भेद
(१) (२) विप्रलब्धा
(३) खण्डिता
(४) कलहान्तरिता
(५) विरहोत्कण्ठिता
प्रोषितपतिका
•
(६) वासकसज्जा (७) स्वाधीनभर्तृका (८) अभिसारिका
स्त्रियों के यौवन में होने वाले धर्म
तीन प्रांगिक अलंकार
(१) भाव
(२) हाव (३) हेला
दस स्वाभाविक धर्म
( ज )
(१) विभ्रम
(२)
विलास
(३) विच्छित्ति
(४)
लीला
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३९८ ३८८ ३८९ ३८६ ३८९ ३६० ३९० ३९०
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३९०
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विषय (५) विवोक (६) विहत (७) ललित (८) कुटुमित (६) मोट्टायित (१०) किलकिचित प्रयत्नज अलंकार
(१) शोभा (२) कान्ति (३) दीप्ति (४) माधुर्य (५) प्रौदार्य (६) धैर्य
(७) प्रगल्भता नायिकाओं का नायकों के साथ सम्बन्ध नायिकाओं की सहायिकाएं भाषा-विधान प्राकृत-पाठ्य बोलने के विषय में मन्य प्रकार भाषा-विषय के अन्य प्रकार रूपकों में नाम भादि का व्यवहार इसी विषय में कुछ अन्य ज्ञातव्य कल्पित किये जाने वाले नामों की कल्पना करने के प्रकार अन्य रूपक
(१) सट्टक (२) श्रीगदित (३) दुर्मिलिता
प्रस्थान
गोष्ठी (६) हल्लीसक
शम्या प्रेक्षणक रासक नाट्य-रासक काव्य
भारण (१३) भाणिका
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SCREEREDEE
४०६ ४०६ ४०६ ४०७ ४०७ ४०८
४०० ४०८
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परिशिष्ट
विषय
(१)
(२)
(३)
नाट्यदर्पण (मूल)
नाद के विवरण में निर्दिष्ट ग्रन्थकारों के नाम नाट्यदर्पण के विवरण में निर्दिष्ट नाटयादि ग्रन्थों के नाम
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भूमिका
प्रत्यकार का देश
प्रस्तुत ग्रन्थ 'नाटयदर्पण' के रचयिता रामचन्द्र गुरणचन्द्र पश्चिम भारत में स्थित गुजरात देश के निवासी थे । संस्कृत साहित्य के विशाल भण्डार को इतना गौरवश्य एवं समृद्ध बनाने में [शारदा देश ] काश्मीर के बाद गुजरात का विशेष महत्वपूर्ण योगदान रहा है । पुजरात हिल पट्टन का प्रसिद्ध राज्य विद्वानों का प्रमुख प्राश्रय स्थान भौर भारतीय- वाह मय की सेवा एवं समृद्धि में सबसे प्रग्रगण्य राज्य था । इस राज्य की स्थापना विक्रम सं० ८०२ [ई० सत्रु ७४६] में हुई थी । 'भरण हिल - गोपाल' नामक कुशल शिल्पी ने इस स्थान की परीक्षा के बालक्कड' वंश के तत्कालीन राजा 'मोती सम वणराय' को इस स्थान पर उत्तम 'पत्तन' बसाने का परामर्श दिया था । तदनुसार 'मोती सम वणराय' ने इस स्थान पर अपनी राजधानी का निर्मारण कराया पौर 'अराहिल- गोपाल' के नाम पर उसका नाम 'प्रणहिल- पट्टण' रखा। यह 'मरण हिल पट्टण' मागे चलकर भारत का एक प्रमुख राज्य बना और उसने संस्कृत साहित्य को समृद्ध बनाने में बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान किया ।
काश्मीर के समान 'अणहिल- पट्टन' का राज्य भी शैव-राज्य था । उसके राजा प्रायः शैव सम्प्रदाय 'के' अनुयायी थे । किन्तु साहित्य-समृद्धि के क्षेत्र में वहां जैनों का विशेष महत्त्वपूर्ण भाग रहा है । ११वीं शताब्दी से लेकर १३वीं शताब्दी तक प्रायः दो सौ वर्ष पर्यन्त 'मरण हिल-पट्टन' का प्रभुत्व अपने चरमोत्कर्ष पर रहा। इस बीच में (१) भीमदेव (१०२१-६९ ई०] (२) कर्णदेव [१०६४ से ९४ ई० ], राजा के समय 'माहिल पट्टम' 'शेव' विद्वानों का प्रत्यन्त प्रिय केन्द्र बन गया था । शैवाचार्य ज्ञानदेव, सोमेश्वर पुरोहित, सुराचार्य, भोर मध्यदेश के श्रीधर तथा श्रीपति भादि शैव-धर्म के अनेक प्रसिद्ध विद्वान् 'भरण हिल पट्टन' की राजसभा के रत्नों के रूप में उसे सुशोभित कर रहे थे। राजा भीमदेव के 'सन्धि विग्रहिक' दामोदर पण्डित उस समय अपनी विद्वता के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध थे । उनके प्रभाव से ही उस समय 'अहिल -पट्टन' विद्वानों के माकर्षण का केन्द्र बन गया था। यों तो 'माहिल पट्टन' का राज्य शेव राज्य था। उसके राजा मोर 'सान्धिविग्राहिक' दामोदर पण्डित दोनों शैव सम्प्रदाय के अनुयायी थे, किन्तु उनके यहाँ सभी धार्मिक विद्वानों का समान रूप से स्वागत होता था। एक भोर जहाँ शेवाचामं ज्ञानदेव सरीले अंब विद्वान उनकी सभा को सुशोभित करते थे उन्हीं के साथ मोच [भूशुकच्छ ] के कोलकवि 'धर्म तस्वो-पप्लव' की युक्तियों के बल पर सभा में वाद-विवाद करते थे। उसी सभा में जैनाचार्य शान्त-सूरि इनकी सभा के पण्डित थे जो 'बौद्ध तर्क से उत्पन्न दुरूह प्रमेयों की शिक्षा एवं सर्क बुद्धि के लिए अत्यन्त प्रख्यात थे। पट्टन का राजद्वार जैसे सभी धर्मों और सम्प्रदायों के विद्वानों के लिए समान रूप से प्राकर्षण का केन्द्र था इसी प्रकार सभी देशों एवं राज्यों के विद्वानों के लिए भी वह माकर्षण का केन्द्र था । 'कर्ण सुन्दरी नाटिका' के कर्ता काश्मीरी पण्डित बिल्हण घोर नबाङ्गी टीकाकार
जयदेव -सूरि ने कर्णदेव के शासन काल में 'अलहिल-पट्टन' की राजसभा को सुसोभित fear था। प्रस्तुत ग्रन्थ 'नाटय-दर्पण' के रचयिता श्री रामचन्द्र सुरणचन्द्र भी इसी विद्वज्ज-वितर्व प्रगतिशील राज्य की विभूति थे।
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( २ )
प्रन्थकार के गुरु प्राचार्य हेमचन्द्र
प्रस्तुत ग्रन्थ 'नाट्यदर्पण' के निर्माता रामचन्द्र ने अपने नाटकों की प्रस्तावना में सूत्रधार के द्वारा अपने को प्राचार्य हेमचन्द्र का शिष्य बतलाते हुए अपना परिचय दिया है । जैसे
"सूत्र०-दतः श्रीमदाचार्यहेमचन्द्रस्य शिष्येण रामचन्द्रेण विरचितं नलविलासा. भिधानमाचं रूपकमभिनेतुमादेशः।"
[नलविलासस्य प्रामुखे "सूत्र-श्रीसिद्धहेमाभिधान-शब्दानुशासनवेधसः श्रीमदाचार्यहेमचन्द्रस्य शिष्येण रामचन्द्रेण विरचितं सत्यहरिश्चन्द्राभिधानमादिरूपकमभिनीय समाजनमनुरजयिष्यामः।"
[सत्यहरिषचन्द्रस्य प्रस्तावनायाम्] सूत्र०-श्रीमदाचार्यहेमचन्द्रशिष्यस्य प्रबन्धशतक महाकवे रामचन्द्रस्य भूयासः प्रबन्धाः ।"
[निर्भयभीमव्यायोगस्य प्रस्तावनायाम्] इस प्रकार अपने अनेक ग्रन्थों में नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र ने अपने भापको प्राचार्य हेमचन्द्र का शिष्य घोषित किया है । इस 'नाटयदर्पण' की विवृति के अन्त में भी
"शब्द-प्रमाण-साहित्य-छन्दोलक्ष्मविधायिनाम् ।
श्रीहेमचन्द्रपादानां प्रसादाय नमो नमः ॥" लिखकर ग्रन्थकार ने अपने गुरु श्री प्राचार्य हेमचन्द्र को नमस्कार करते हुए उनके प्रति अपनी श्रद्धा का प्रदर्शन किया है।
नाट्यदर्पण-कार रामचन्द्र के गुरु, ये माचार्य हेमचन्द्र, जैन धर्म के अनुयायी और बहुत बड़े विद्वान थे। जैन धर्म के शास्त्रीय तत्त्वों के प्रपूर्व-ज्ञाता एवं व्याख्याता होने के अतिरिक्त वे व्याकरण, न्याय, साहित्य प्रादि शास्त्रों के भी प्रकाण्ड पण्डित थे। इनका जन्म सन् १०९. में गुजरात के अन्तर्गत 'धन्धुका' ग्राम के एक वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम 'चिम' (अथवा चच्च) मोर माता का नाम 'चाहिणी' (अथवा 'पाहिणी) पा। हेमचन्द्र का बाल्यावस्था का राशिनाम 'चङ्गदेव' था। भागे माठ वर्ष की भवस्था में जैन धर्म में दीक्षित होने पर इनका नाम बदल कर 'सोमचन्द्र' प्रसिद्ध हुमा। मोर फिर २१ वर्ष की अवस्था में 'सूरी' पद प्राप्त करने से उनका नाम 'हेमचन्द्र' प्रसिद्ध हुमा। कहते हैं २१ वर्ष की अवस्था में जब इनको 'सूरी' पद प्राप्त हुआ तब इनके शरीर का वर्ण हेम (सुवर्ण) के समान तथा मुख की कान्ति चन्द्रमा के समान थी, इसीलिए इनका नाम हेमचन्द्र रखा गया। ‘सोमप्रभसूरि' विरचित 'कुमारपालप्रतिबोष' की कथा के अनुसार प्राचार्य हेमचन्द्र के सूरिपद की प्राप्ति का महोत्सव नागौर (मारवाड़) में बड़े समारोह के साथ मनाया गया। इस महोत्सव पर होने वाले व्यय का सारा भार नागौर निवासी और प्राचार्य हेमचन्द्र के मक्त व्यापारी 'धनद' ने अपने ऊपर लिया था।
_ 'सोमप्रभसूरि' के अनुसार 'धन्धुका' ग्राम के एक वैश्यकुल में उत्पन्न यह 'चङ्गदेव' बालक 'पूर्णतल्ल-गच्छ' के निवासी श्री देवचन्द्र सूरि' के सम्पर्क एवं प्रभाव से ही श्रमण-सम्प्रदाय में प्रविष्ट हुमा । बालक चङ्गदेव को पायु प्रभी पाठ वर्ष की ही थी। 'देवचन्द्र सूरि' विहार करते हुए उन्हीं दिनों 'बन्द्रदेव' के पाम 'धन्धुका' में पहुंचे। वहां प्रत्येक दिन 'सूरि' का प्रवचन (देशना)
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( ३ )
होता था । इन प्रवचनों कां बालक चङ्गदेव के हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ता था। एक देशना (प्रवचन) पूरी होने पर यह वणिक् कुमार चङ्गदेव प्रत्यन्त विनयपूर्वक प्राचार्य के सामने उपस्थित हुआ । बालक के मामा ' नेमि' ने प्राचार्य से बालक का परिचय कराया। और बालक 'चङ्गदेव' ने उनसे प्रार्थना की कि - 'सुचारित्र्य रूपी जलयान द्वारा इस संसार सागर से पार लगाइए ।' देवचन्द्रसूरि ने बालक की योग्यता और उत्कट इच्छा को देख कर उसके मामा ' नेमि' से कहा कि इसके पिता 'चच्च' को प्रेरणा करो कि वह इसे व्रत ग्रहण की प्राज्ञा दे दे तब हम इस बालक को प्राप्त कर निःशेष शास्त्र परामार्थ का अवगाहन करावेंगे । पश्चात् यह लोक में तीर्थङ्कर जैसा उपकारक होगा' । अन्त में सम्भवतः १०६८ ई० में आठ वर्ष की आयु में बालक 'चङ्गदेव' ने प्राचार्य देवचन्द्र सूरि से जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की। उस समय उस 'सोहमुह' सौम्यमुख का नाम 'सोमचन्द्र' रखा गया । २१ वर्ष की आयु में १९११ ई० में 'सूरि' पद प्राप्त करने पर उनका नाम 'सोमचन्द्र' से बदल कर हेमचन्द्र हो गया !
यह नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र के गुरु श्राचार्य हेमचन्द्र के प्रारम्भिक जीवन की कहानी है । आचार्य हेमचन्द्र के गौरव का यथेष्ट परिचय इससे मिलता है । 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' की लोकोक्ति के अनुसार प्राचार्य हेमचन्द्र के गौरव के लक्षण उनकी बाल्यावस्था में ही प्रकट होने लगे । उनका जीवन क्रमशः विकसित होता हुआ जैन धर्म के एक महान् आचार्य एवं संस्कृत-साहित्य के पूर्व विद्वान् के रूप में लोकप्रतिष्ठा के चरम शिखर पर पहुँच गया था ।
हेमचन्द्र का राजसम्बन्ध -
जैसा कि पहले कहा जा चुका है आचार्य हेमचन्द्र का जन्म गुजरात में सन् १०६० में हुआ था । और १०९८ में उन्होंने प्राचार्य देवचन्द्र सूरि से जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की। गुजरात में इस समय जयसिंह सिद्धराज का राज्य चल रहा था। जयसिंह सिद्धराज का शासनकाल १०६३ से १२४३ ई० तक रहा। इसके बाद ११४३ से ११७३ तक लगभग ३० वर्ष कुमारपाल में 'अहिल पट्टन' को गद्दी पर राज्य किया । इन दोनों राजाओं के यहां आचार्य हेमचन्द्र को बड़ा गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था । जयसिंह सिद्धराज लगभग उनके समवयस्क थे, प्रतएव उनका सदैव मित्रवत् व्यवहार रहता था । कुमारपाल शिष्य के समान उन पर सदा भक्ति रखते थे। जयसिंहसिद्धराज के शासन में गुर्जर और मालवा राज्यों में लम्बा युद्ध चलता रहा। अन्त में ११३६ ई० में मालवा राज्य के ऊपर गुर्जर राज्य को विजय प्राप्त हुई। इस विजयप्राप्ति के अवसर पर गुर्जर देश की प्रजा ने अपने राजा जयसिंह सिद्धराज का बड़े उत्साह एवं समारोह के साथ स्वागत किया । इस स्वागत समारोह के अवसर पर राजा जयसिंह सिद्धराज का श्राचार्य हेमचन्द्र के साथ प्रथम परिचय हुआ था । यह परिचय उत्तरोत्तर प्रगाढ़ मंत्री के रूप में विकसित होता गया । जयसिंहसिद्धराज के विजय महोत्सव के अवसर पर सभी सम्प्रदायों के प्रतिनिधियों ने उनका स्वागत किया था । इसी प्रसङ्ग में जैन धर्म के प्रतिनिधि के रूप में प्राचार्य हेमचन्द्र ने उनका स्वागत किया था । उनके स्वागत पद्यों में निम्न पद्य विशेष रूप से प्रसिद्ध है---
भूमि कामदुघां स्वगोमयरसैरासिञ्च रत्नाकर ! मुक्ता स्वस्तिक मातनुध्वमुडुप त्वं पूर्णकुम्भी भव । घृत्वा कल्पतरोर्दलानि सरल दिग्वा रणास्तोरणान्याधत्त स्वकरैविजित्य जगतीं नन्वेति सिद्धाधिपः ।
( प्रभावकचरित पृ ३०० )
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( ४ )
इस प्रथम राजपरिचय के समय आचार्य हेमचन्द्र की प्रायु ४६ वर्ष के लगभग बी । किसी अन्य अवसर पर राजा जयसिंह सिद्धराज 'अणहिल पट्टन' के राजमार्ग पर हाथी पर चढ़े हुए जा रहे थे। दूसरी श्रोर से श्राचार्य हेमचन्द्र सूरि पैदल भा रहे थे। मार्ग सकरा था । राजा जयसिंह सिद्धराज ने हाथी रुकवा दिया। इस पर प्राचार्य हेमचन्द्र ने उनको एक ओर से निःशंक हाथी निकाल ले जाने का सुझाव देते हुए तत्काल बना कर निम्न श्लोक पढ़ा
" कारय प्रसरं सिद्ध ! हस्तिराजमशङ्कितम् । त्रस्यन्तु दिग्गजाः किन्तभूयस्त्वयैवोद्भूता यतः ॥।”
हेमचन्द्राचार्य को साहित्यसेवा -
उपर्युक्त विवरण के अनुसार सन् ११३६ में मालव- विजयोत्सव के समारोह के अवसर पर प्राचार्य हेमचन्द्र का भरण हिल पट्टन' के अधीश्वर जयसिंह सिद्धराज के साथ प्रथम परिचय हुधा । उसके बाद सन् १९४६ में जयसिंह की समाप्ति हो गई। इस प्रकार सात वर्ष तक इन दोनों का साथ रहा। इन सात वर्षों के थोड़े से काल में राजा जयसिंह के प्रोत्साहन और प्रेरणा से, इन्होंने बहुत बड़े और बहुत महत्त्वपूर्ण साहित्य की रचना की है। व्याकररण, न्याय, साहित्य, छन्दःशास्त्र प्रादि सभी विषयों पर उनके प्रौढ़ एवं प्रत्यन्त उच्च कोटि के ग्रन्थ पाए जाते हैं : १] सिद्ध-हेमशब्दानुशासन, २ काव्यानुशासन ३ छन्दोऽनुशासन, ४ वादानुशासन, ५ धातुपारायण, ६ द्वयाश्रय महाकाव्य, ७ देशीनाममालाभिधान चिन्तामरिण ८ मनेकार्थं संग्रह निघण्टु, ६ सप्त सन्धान महाकाव्य, १० त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित, ११ परिशिष्ट पर्व, १२ योगशास्त्र, १३ वीतराग स्तोत्र १४ द्वात्रिंशिका द्वयस्रीति, १५ प्रमाणमीमांसा प्रादि उनके लिखे हुए ग्रन्थों की सूची बहुत लम्बी है । और इनके प्रतिपाद्य विषयों का क्षेत्र बड़ा व्यापक है । इतने व्यापकं भर विविध विषयों पर इतनी उच्चकोटि के ग्रन्थ लिख कर उन्होंने सचमुच अपने प्राचार्यत्व को चरितार्थ किया भोर संस्कृत साहित्य की महती सेवा की है।
प्राचार्य हेमचन्द्र के ये सभी ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । किन्तु इनमें 'सिद्ध-हेमशब्दानुशासनम्' का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह व्याकरण शास्त्र का ग्रन्थ है यह बात उसके 'शब्दानुशासन' नाम से ही प्रतीत होती है, किन्तु उसके नामकरण में सिद्धहेम पद जोड़ कर आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी और राजा जयसिंह सिद्धराज की मित्रता को अमर कर दिया है। इस नामकरण में 'सिद्ध' पद राजा 'जयसिंह सिद्धराज' का बोधक है और 'हेम' पद प्राचार्य हेमचन्द्र के नाम का सूचक है । सिद्धराज जयसिंह की प्रेरणा से प्राचार्य हेमचन्द्र ने इस शब्दानुशासन की रचना की है इस बात को प्राचार्य हेमचन्द्र ने इस नामकरण द्वारा सूचित किया है। उनका 'त्रिषष्टिशला कापुरुषचरित' एक विशाल पुराण ग्रन्थ है । मौर उनका 'परिशिष्ट-पर्व' भारत के प्राचीन इतिहास के अनुसन्धान कार्य में उपयोगी हो सकता है। संस्कृत प्रौर प्राकृत दोनों भाषात्रों में लिखा गया 'द्वद्याश्रय महाकाव्य' एक उत्कृष्ट महाकाव्य है । 'प्रमारण मीमांसा' उनका दर्शन ग्रन्थ है। इसमें जैन दर्शन के अनुसार प्रमाणों का विवेचन किया गया है। यह ग्रन्थ प्रपूर्ण ही उपलब्ध होता है । यह ग्रन्थ सूत्र रूप में लिखा गया है। सूत्रों के ऊपर उनकी अपनी ही बनाई हुई स्वोपज्ञ वृत्ति भी पाई जाती है। 'योगशास्त्र' में जैन दर्शन के साथ योग-प्रक्रिया का समन्वय करने का बन किया गया है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने सभी विषयों पर ग्रन्थ लिख कर अपने अनुयायियों के संस्कृत अध्ययन के लिए एक स्वतंत्र ग्रन्य- माला की रचना कर दी है। उनके धनुयायी विद्याचियों को पढ़ने पढ़ाने के लिए सभी प्रमुख विषयों पर अपने स्वतन्त्र ग्रन्थ मिल
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सकते हैं । इस प्रकार उन्होंने संस्कृत विद्या के अध्ययन के निमित जैन धर्म एवं गुजरात प्रदेश दोनों को स्वावलम्बी बना दिया है। अन्तिम झांकी
प्राचार्य हेमचन्द्र एक महान् साधुपुरुष और संस्कृत के प्रौढ़ विद्वान थे । उनका अधिकांश समय अध्ययन, अध्यापन एवं साहित्यिक कार्य में व्यतीत होता था। राजा जयसिंह के साथ और उनके बाद जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल के साथ यद्यपि उनका घनिष्ट सम्बन्ध था, किन्तु वे श्रमणों की नाई अलग अपने विहार में रहते थे। प्रावश्यकता होने पर सिद्धगज जयसिंह और कुमारपाल उनके स्थान पर जाकर ही उनसे आवश्यक परामर्श प्राप्त करते थे। फिर भी राज-सम्पर्क बड़ी बुरी बला है । भाचार्य हेमचन्द्र को इस राज-सम्पर्क का बड़ा बुरा फल भोगना पड़ा।
राजा जयसिंह सिद्धराज के साथ माचार्य हेमचन्द्र का प्रथम परिचय ११३६ में मालवविजयोत्सव के समारोह के अवसर पर हुआ था। उस समय उनकी अवस्था ४६ वर्ष की थी। उसके बाद ७ वर्ष तक राजा जयसिंह सिद्धराज के साथ उनका सम्बन्ध रहा। उसके बाद उनके उत्तराधिकारी 'मणहिल-पट्टन' के राजा कुमारपाल के साथ ३० वर्ष तक उ. का सम्बन्ध रहा । इस प्रकार ४६ वर्ष की प्रायु में राज-सम्पर्क में आकर ३७ वर्ष तक वे निरन्तर राज-सम्पर्क में रहे, प्रौर ८३ वर्ष की आयु में उनका देहावसान हुमा। उनके देहावसान की घटना बड़ी करुण है !
'प्रणहिल-पट्टन' के राजा और प्राचार्य हेमचन्द्र के शिष्य कुमारपाल के कोई पुत्र नहीं था। एक पुत्री थी और उसका लड़का प्रतापमल्ल था। ३० वर्ष राज्य करने के बाद राजा कुमारपाल वृद्ध हो गए थे, और उन्हें राज्य के उत्तराधिकारी कर निर्णय करने को चिन्ता हुई। उनके निकट सम्बन्धियों में एक तो यही उनका दौहित्र प्रतापमल्ल पा और दूसरा उनका भाई अजयपाल था। इन्हीं दो में से किसी को 'प्रणहिल पटन' की राजगट्टी का उत्तराधिकारी बनाया जा सकता था। इन दोनों में किसको राज-सिंहासन देना उचित होगा इस विषय में परामर्श करने के लिए वृद्ध राजा कुमारपाल भाचार्य हेमचन्द्र से परामर्श करने के लिए उनके स्थान पर गए। राजा के साथ उनका प्रिय एक जैन व्यापारी 'वरणाह-प्राभड़' भी था। राजा जयसिंह सिद्धराज के साथ प्राचार्य हेमचन्द्र का सम्पर्क केवल सात वर्ष ही रहा था । इसलिए जयसिंह शैव धर्म के ही अनुयायी बने रहे, किन्तु कुमारपाल प्राचार्य हेमचन्द्र के उपदेशों को सुन कर जैन बन गए थे। उनका दौहित्र प्रतापमल्ल भी जैन था। इसलिए प्राचार्य हेमचन्द्र ने र कुमारपाल को यह परामर्श दिया कि धर्म के स्थैर्य के लिए प्रतापमल्ल को गद्दी देना अच्छा रहेगा। किन्तु राजा के जैन मित्र 'वणाह-माभड़' की यह सम्मति थी कि-"कुछ भी हो, पर अपना काम का" इस कहावत के अनुसार 'प्रजयपाल' को गद्दी देना ठीक होगा । अन्त में परिस्थितियों से विवश होकर अजयपाल को ही राज्य का उत्तराधिकारी बनाया गया।
प्राचार्य हेमचन्द्र के यहां जिस समय राजा कुमारपाल राज्य के उत्तराधिकारी के विषय में परामर्श कर रहे थे उस समय प्राचार्य का एक विद्यार्थी बालचन्द्र भी वहां उपस्थित था। उस बालक बालचन्द्र के द्वारा प्रजयपाल को किसी तरह यह बात मालूम हो गई कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने उसको गद्दी दिए जाने का विरोध किया है। इस बात को सुन कर उसे बड़ा क्षोभ हुमा और यह भाचार्य हेमचन्द्र तथा उनके कृपापात्र एवं साथियों का शत्रु बन गया। पाचार्य
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हेमचन्द्र की अवस्था उस समय १३ वर्ष की हो चुकी थी और उसके बाद बहुत शीघ्र ही उनका देहावसान हो गया। पता नहीं यह उसके किसी षड्यन्त्र का परिणाम था या यह स्वाभाविक मृत्यु थी। यद्यपि ग्रन्थों में तो इसका उल्लेख नहीं मिलता है फिर भी अजयपाल की प्रकृति को देखते हुए यह पाश्चर्य नहीं है कि उसने किसी षड्यन्त्र द्वारा प्राचार्य हेमचन्द्र को समाप्त करा दिया हो। क्योंकि प्राचार्य के निधन के बाद ३२वें दिन ही अजयपाल ने विष देकर कुमारपाल को समाप्त कर दिया और स्वयं राज्यसिंहासन पर अधिकार कर लिया। इस घटना का उल्लेख अनेक जैन ग्रन्थों में पाया जाता है । सन् १३४८ में लिखे गए राजशेखर सूरि के 'प्रबन्धकोष' में इस घटना का उल्लेख इस प्रकार किया गया है
"एवं ब्रजति काले राजा कुमारपालदेवः श्री हेमश्च वृद्धो जाती। श्री हेमसूरिंगच्छेविरोधः । रामचन्द्र-गुणचन्द्रादिवृन्दमेकतः । एकतो बालचन्द्रः । तस्य च बालचन्द्रस्य राजभ्रातृव्येन मजयपालेन सह मैत्री। एकदा प्रस्तावे राज्ञो गुरूणां प्रामडस्य च रात्री मन्त्रारम्भः । राजा पृच्छति-भगवन् ! प्रहमपुत्रः, कमहं स्वपदे रोपयामि ? गुरवो अवन्ति प्रतापमल्लं दौहित्रं राजानं कुरु धर्मस्थर्याय, अजयपालात्तु स्वस्थापितधर्मक्षयो भावी । अत्रान्तरे प्राभडः प्राहभगवन् ! याशस्तादृशः, प्रात्मीयो भव्यः । पुनः श्रीहेमः-प्रजयपाल राज मा कृथाः रावयव । एवं मन्त्रं कृत्वा उस्थितास्त्रयः । स च मंत्रो बालचन्द्रेण श्रुतः, अजयपालाय च कथितः । प्रतो हेमगच्छीयरामचन्द्रादिषु द्वेषः, प्राभडे तु प्रीतिः । हेमसूरेः स्वर्गमनं जातम् । ततों दिनद्वात्रिंशता राजा कुमारपालोऽजयपालदात्तविषेण परलोकमगमत् । अजयपालो राज्ये निषण्णः । श्री हेम-द्वेषाद् रामचन्द्रादिशिष्याणां तप्तलोहविष्टासनपातनया मारणं कृतम् । राजविहाराणां बहूनां पातनम् । लघुक्षुल्लकानाहाय्य प्रातः प्रातमृगयां कतु मन्यासयति । पूर्वमेते चैत्यपरिपाटीमकार्षुरित्युपाहसता बालचन्द्रोऽपि स्वगोत्रहत्याकारक इति अवद्भिाह्मणर्मनस उत्तारितः । श्रीमालवान् गत्वा मृतः । पापं पच्यते हि सव्यः ।" प्राचार्य हेमचन्द्र के शिष्य
प्रस्तुत ग्रन्थ नाटयदर्पण के निर्माता रामचन्द्र उक्त गुजरात की महाविभूति प्राचार्य हेमचन्द्र के प्रमुख शिष्य थे। राजा जयसिंह सिद्धराज के समय में ही प्राचार्य हेमचन्द्र ने उन्हें अपना पट्ट शिष्य घोषित कर दिया था। सन् १२७७ (सं० १३३४) में लिखे गए प्रभाचन्द्रसूरि के 'प्रभावक चरित' में रामचन्द्र के पट्टधर शिष्य होने का उल्लेख निम्न प्रकार किया गया है।
"राजा श्रीसिद्धराजेन, अन्यदानुयुयुजे प्रभुः। भवतां कोऽस्ति पदृस्य योग्यः शिष्यो गुणाधिकः ।। तमस्माकं दर्शयत चित्तोत्कर्षाय, मामिव । अपुत्रमनुकम्पा, पूर्वे त्वां मा स्म शोचयन् ॥ . प्राह श्रीहेमचन्द्रश्च न कोऽप्येवं हि चिन्तकः । आद्योऽप्यभूदिलापालः सत्पात्राम्भोधिचन्द्रमाः ॥ सज्ज्ञानमहिमस्थैर्य मुनिनां किं न जायते । कल्पद्रुमसमे राशि स्वयीशि कृतस्थिती ।। अस्त्यमुष्यायाणो रामचन्द्राख्यः कृतिशेखरः । प्राप्तरेखः प्राप्तरूपा सङ्घ विश्वकलानिधिः ।। अन्यदाऽदर्शयंस्तेऽमु, क्षितिपस्य स्तुति ' च सः। अनुक्तामाद्यविद्भिहल्लेखाधायिनी व्यधात् ।।
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इन श्लोकों में राजा जयसिंह सिद्धराज और प्राचार्य हेमचन्द्र का संवाद वरिणत है। एक वार राजा सिद्धराज जयसिंह ने प्राचार्य हेमचन्द्र से पूछा कि-हे भगवन् ! भापका उत्तराधिकारी योग्य शिष्य कौन है. हमें भी उसका दर्शन कराने की कृपा करें। राजा जयसिंह के कोई पुत्र नहीं था। इसलिए उसने कहा कि हे प्राचार्य कहीं ऐसा न हो कि मेरी तरह प्रापके विषय में भी शोक का अवसर प्राए कि प्रापका कोई योग्य शिष्य नहीं था। इसलिए अपने पट्टधर उत्तराधिकारी का निश्चय कर लीजिए । और इस पर प्राचार्य हेमचन्द्र ने रामचन्द्र को अपना उत्तराधिकारी पट्टशिष्य बतलाया और कहा इसे किसी समय प्रापको दिखला भी चुका हूँ। उस समय उसने अर्थात् रामचन्द्र ने आपको अपूर्व ढंग से स्तुति भी की थी। इस स्तुति का वर्णन उसी 'प्रभावक चरित' में निम्न प्रकार किया गगा है
तथाहि
मात्रयाप्यधिकं कंचिन्न सहन्ते जिगीषवः ।
इतीव त्वं घरानाथ ! धाराधिपमपाकृथाः ॥
अर्थात् हे राजन् । विजयेन्यु लोग (मात्रयाप्यधिक) अपने से तनिक भी बड़े को सहन नहीं करते हैं, इसलिए घरानाथ ! माप उस धारानाथ अर्थात् मालवाराज का नाश कर डालें। इस श्लोक में धरानाथ तथा धारानाथ शब्दों के प्रयोग में चमत्कार है। इस शब्दों की मात्रामों की गणना की जाय तो 'धरानाथ की अपेक्षा 'धारानाथ' में एक मात्रा अधिक है। कवि ने धरानाथ सम्बोधन 'गुर्जराधीश जयसिंह सिंहराज के लिए किया है और 'धारानाथ' पद से मालवराज को पोर संकेत किया है। वह मात्रया अधिक है । इसलिए इसको नष्ट करने की बात कवि ने कही है । इस उक्ति में कुछ कविजनोचित भपूर्व चमत्कार है । इसीलिए भाचार्य हेमचन्द्र ने उसे 'अनुक्तामाद्यविद्भि' एकदम अपूर्व कहा है । और इसीलिए उसको सुन कर राजा का सिर झूमने लगा। जैसा कि अगले श्लोक में कहा है
शिरोषूननपूर्व च भूपालोऽत्र दृशं दधी।
रामे, वामेतराचारो विदुषां महिमस्पृशाम् ।।
इस प्रकार के वर्णनों से विदित होता है कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने राजा जयसिंह सिद्धराज के सामने ही अर्थात् अपनी मृत्यु से लगभग ४०-४२ वर्ष पूर्व ही रामचन्द्र को अपना पट्टधर उत्तराधिकारी एवं प्रमुख शिष्य घोषित कर दिया पा। रामचन्द्र के अतिरिक्त १ महेन्द्रसूरि, २ गुणचन्द्र सूरि, ३ वर्षमानगणि, ४ देवचन्द्र मुनि, ५ पश्चन्द्र ६ उदयचन्द्र तथा ७ बालचन्द्र ये ७ उनके सहपाठी तथा भाचार्य हेमचन्द्र के विशेष कृपापात्र शिष्य थे।
१. महेननरि-इन में से महेन्द्रसूरि ने प्राचार्य हेमचन्द्र के 'भनेका.संग्रह' मामक अन्य के ऊपर 'हेमानेकार्य संग्रह टीका' लिखी थी। जैसा कि उनके निम्न इलोक से प्रतीत होता है
श्री हेमसूरिशिष्येण श्रीमन्महेमासूरिणा।
भक्तिनिष्ठेन टीकेयं तमाम्नव प्रतिष्ठिता ॥
२.३. पम्पकार के सहाम्यापी पुलचनपति सपा वर्षमानपलि-वि०स० १२४१ (सर १२०४ १०) में सोमप्रभाचार्य ने 'कुमारपाल प्रतियोष' काम्प-न्य की रचना की थी। सोबत
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भपना यह काव्य हेमचन्द्र के शिष्य पुणचन्द्रर्माण तथा वर्षमानगरिण को सुनाया था, इस प्रकार का उल्लेख उन्होंने स्वयं इस प्रकार किया है
शशिजलधिसूर्यवर्षे शुचिमासे रविदिने सिताष्टम्याम् । जिनधर्मप्रतिबोष: क्लृप्तोऽयं गुर्जरेन्द्रपुरे ॥ हेमसूरिपदपंकजहंस: महेन्द्र मुनिपः श्रुतमेतत् ।
वर्षमान-गुणचन्द्रगरिराभ्यां साकमाकलितशास्त्ररहस्यैः ।।
इन श्लोकों में वर्षमान तथा गुणचन्द्र दोनों के नामों का उल्लेख साथ-साथ किया है और उन्हें प्राचार्य हेमचन्द्र का शिष्य बतलाया है। इससे ये दोनों भी नाटघदर्पणकार रामचन्द्र के सहपाठी सिद्ध होते हैं। इनमें से गुणचन्द्र तो वे हैं जिन्होंने रामचन्द्र के साथ मिलकर इस प्रस्तुत ग्रन्थ 'नाट्यदर्पण' और उसकी स्वोपशवृत्ति की रचना की है। वर्धमानगणि ने भी 'कुमार विहारप्रशस्ति' नामक ग्रन्थ की व्याख्या की है। उसका परिचय निम्न लेख से मिलता है
__श्रीहेमचन्द्रसूरिशिष्येण वर्षमानगणिना कुमारविहारप्रशस्ती, काव्येऽमुष्मिन् षडर्थे कृतेऽपि कौतुकात् षोडशोत्तरं शतं व्याख्यानं चक्रे ।
४-५. देवचन्द्र मुनि तपा यशश्चन्द्रगरिण-ये दोनों भी प्राचार्य हेमचन्द्र के शिष्य और नाटपदर्पणकार रामचन्द्र के सहपाठी थे। इनमें से देवचन्द्रमुनि ने 'चन्द्रलेख विजय' नामक 'प्रकरण' (स्पक भेद) की रचना की है, और यशश्चन्द्रगणि का नाम मेरुतुङ्ग सूरि द्वारा विरचित 'प्रवन्धचिन्तामणि' में प्राचार्य हेमचन्द्र के शिष्य रूप में पाया जाता है।
६. उदयचन्द्र-इनके नाम का उल्लेख प्राचार्य हेमचन्द्र-विरचित शब्दानुशासन की न्यास टीका के लेखक कनकप्रम ने निम्न प्रकार किया है
भूपालमौलिमाणिक्य-मालालासितशासनः। दर्शनषट्कनिस्तन्द्रोहेमचन्द्रो मुनीश्वरः ।। तेषामुदयचन्द्रोऽस्ति शिष्यः संश्यावतां वरः। यावज्जीवमभूद् यस्य, व्याख्या ज्ञानामृतप्रपा । तस्योपदेशाद् देवेन्द्रसूरि शिष्यलवो व्यधात् ।
न्याससारसमुद्वारं मनीषी कनकप्रभः ।। ७. बालचन्द्र-रामचन्द्र के सहपाठियों में बालचन्द्र जी का भी विशेष स्थान है। इसके नाम की चर्चा हम अभी भाचार्य हेमचन्द्र की अन्तिम झांकी के प्रसङ्ग में करचुके हैं। रामा कुमारपाल की मृत्यु का कारण यही था, पोर पाश्वयं नहीं कि प्राचार्य हेमचन्द्र की मुत्यु भी इसी कारण हुई हो। कवि कटारमल की उपाधि
कवि रामचन्द्र का जन्म कर पार कहाँ हुमा इसका ठीक निर्णय करने का कोई साधन उपलब्ध नहीं है। सन् ११३६ में प्राचार्य हेमचन्द्र को, पयसिंह सिद्धराज के साथ परिचय होने के समय वे भावार्य हेमचन्द्र के विवापियों में थे। यह बात पूर्वोदत इलोकों के माधार पर मोबा.सकती है, और उससे यह परिणाम भी निकाला जा सकता है कि उनका जन्म गुजरात
हिम-पट्टन' के पास-पास ही कही हुमो होगा। तभी उन्हें प्राचार्य हेमचन्द्र के शिष्यत्व को बीमाबका प्रसार सरलता से मिन मया ।
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प्राचार्य हेमचन्द्र के द्वारा रामचंद्र का परिचय राजा जयसिंह सिद्धराज के साथ भी हो गया था। एक बार ग्रीष्म ऋतु की प्रचण्डता की चर्चा के प्रसङ्ग में राजा जयसिंह सिद्धराज न भने पारिषदों से पूछा कि गर्मी में दिन लम्बे क्यों हो जाते हैं ? 'कथं ग्रीष्मे दिवसा गुरुतरा : ?" लोगों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के उत्तर दिए। उस समय रामचंद्र भी सभा में उपस्थित थे । राजा ने उनका भी अभिप्राय जानना चाहा। रामचन्द्र ने उनके प्रश्न का उत्तर दिया। वह उत्तरं उस समय की सामन्ती परम्परा के अनुसार और कवि रामचन्द्र को कवित्व प्रतिभा के अनुरूप था । रामचन्द्र ने राजा के प्रश्न का उत्तर निम्न श्लोक द्वारा प्रस्तुत किया ।
देव ! श्रीगिरिदुर्गमल्ल ! भवतो दिग्जैत्रयात्रोत्सवे, धावद्वी रतुरङ्ग निष्ठुर खुरक्षुण्णक्ष्मामण्डलात् । वातोद्भूतरजोमिलत्सुरसरित्संजातपङ्कस्थली - दूर्वा चुम्बन चंचुरारविहयास्तेनातिवृद्धं दिनम् ।।
श्लोक में राजा के प्रताप का वर्णन है। राजा जयसिंह सिद्धराज जब दिग्विजय करने निकलते हैं। तब उनके सैनिकों के घोड़ों के खुरों से उड़ाई गई धूलि श्राकाश-गंगा पर जाती है और उस पर दूब उग आती है। सूर्य का रथ जब प्राकाश गंगा पर पहुँचता है तो सूर्य के घोड़े उस हरी हरी दूब को देख कर उसे खाने के लिए रुक जाते हैं। इसलिए उनको अपने लक्ष्य स्थान पर पहुँचने में विलम्ब हो जाता है। इसी कारण दिन बड़ा हो जाता है। उत्तर को सुन कर राजा बहुत प्रसन्न हुए। विशेषकर इसलिए कि यह श्लोक कवि का तुरन्त बनाया हुआ श्लोक या भौर उसमे कवि की कल्पना-शक्ति का परिचय मिलता था ।
इसी प्रकार किसी अन्य अवसर पर राजा जयसिंह सिद्धराज ने रामचन्द्र से कहा कि'सभ्योनगरं वर्णय पट्टनाभिधानम्' 'भरणहिल पट्टन' नगर का वर्णन अभी करो। रामचन्द्र ने तनिक सी देर में ही 'भराहिल पट्टन' नगर के वर्णन में निम्न श्लोक बना कर राजा के सामने प्रस्तुत कर दिया -
एतस्यास्य पुरस्य
पौरवनिताचातुर्यतानिर्जिता
मन्ये नाथ ! सरस्वती जडतया नीरं वहन्ती स्थिता । कीर्तिस्तम्भमिषोच्च दण्डरुचिरामुत्सृज्य वाहावलीतंत्रीका गुरु सिद्धभूपतिसरस्तुम्बी निजां कच्छपीम् ॥
इस श्लोक का भाव यह है कि इस 'अहिल पट्टन' की निवासिनी स्त्रियों की चतुराई से पराजित होकर सरस्वती बिल्कुल मूर्खा बन कर उनके सामने 'पानी भरने लगी । इसीलिए अपनी वीणा की कच्छपी [ नीचे वाले भाग] को सिद्धराज भूपाल के तालाब की कच्छपी के रूप में नीचे छोड़ दिया और वीणादण्ड को राजा के कीर्ति स्तम्भ के रूप में धारण किए प्रोर मेघावली को तंत्री बनाए हुए घूम रही है ।
यों तो दोनों इलोकों में कुछ गड़बड़ है किन्तु सद्यः निर्मित इलोक होने के कारण वे काफी अच्छे श्लोक है । रामचन्द्र की इस प्रकार की प्रतिभा का परिचय राजा जयसिंह सिद्धराज को घनेक बार प्राप्त हो चुका था। इसलिए राजा ने प्रसन्न होकर 'कवि कटारमल्ल' की उपाधि रामचन्द्र को प्रदान की ।
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( १० )
एक बार काशी से विश्वेश्वर नामक कवि पण्डित प्रणहिल पट्टन प्राए। यह राजा कुमारपाल के समय की बात है । वे कविवर श्राचार्य हेमचन्द्र की सभा में पहुँचे । उस समय राजा कुमारपाल भी प्राचार्य हेमचन्द्र के पास बैठे हुए थे । विश्वेश्वर पण्डित ने सा पहुँचते ही प्राचार्य हेमचन्द्र को प्राशीर्वाद देते हुए निम्न श्लोकार्द्ध को पढ़ा
पातु वो हेम ! गोपालः कम्बलं दण्डमुद्वहन् ।
लोकार्द्ध का अर्थ था कि हे हेमचन्द्र ! दण्ड भौर कम्बल धारण किए हुए गोपाल कृष्ण तुम्हारी रक्षा करें। कवि विश्वेश्वर ने प्रपनी धार्मिक भावना के अनुसार कृष्ण के द्वारा उनकी रक्षा की बात कही थी। पर प्राचार्य हेमचन्द्र और उनके श्रास-पास की सारी मण्डली तो जैन मतावलम्बिनी थी। उसे तो 'कृष्ण तुम्हारी रक्षा करें, यह बात कुछ रुचिकर नहीं मालूम पड़ी । उसके स्थान पर यदि 'जिन तुम्हारी रक्षा करें' यह बात कही जाती तो उन्हें प्रच्छा लगता । उस समय कवि रामचन्द्र भी वहीं बैठे थे। उन्हें कृष्ण का यह 'रक्षा करने का गौरव' पसन्द नहीं आया । इसलिए उन्होंने तुरन्त ही शेष प्राधे श्लोक की पूर्ति निम्न प्रकार करके सुना दीषड्दर्शन पशुग्रामं चारयन् जैनगोचरे ॥
पहिले श्लोकाद्वं में दण्ड और कम्बलधारी गोपाल के रूप में कृष्ण को उपस्थित किया था । रामचन्द्र के श्लोकार्द्ध में यह कहा गया है कि हाथ में लाठी लिए हुए और कंधे पर कमरिया डाले हुए वह गोपाल 'जैन गोचरे' जैनों के यहाँ षड्दर्शन रूप पशुनों को चरा रहा है । विश्वेश्वर कवि के हृदय में श्राशीर्वाद देते समय कृष्ण के प्रति जितना अभिमान व्यक्त हो रहा था, रामचन्द्र के इलोका ने उतनी बुरी तरह कृष्ण की हीनता को प्रकाशित किया है। इस प्रकार यह श्लोक धार्मिक संघर्ष का पुन्दर उदाहरण बन गया है । सहृदय लोगों ने उस समय भी इस का रसास्वादन किया होगा । और प्राजके सहृदयों को भी उसमें एक तीखा ही सही पर विशेष रसास्वादन मिलेगा
"पातु वो हेम ! गोपालः कम्बलं दण्डमुद्वहन् । षड्दर्शन पशुग्रामं चारंयन् जैनगोचरे || "
इस घटना का यह विवरण मेरुतुङ्ग आधार पर दिया गया है । चरित्रसुन्दरगणि की घटना का उल्लेख निम्न प्रकार किया है ।
रचित प्रबन्ध चिन्तामरिण [१० २२६-२७] के 'कुमारपालचरित महाकाव्य' में इसी प्रकार
पञ्चलक्षाणि द्रव्याणां दश चोच्चैस्तुरङ्गमान् । विश्वेश्वराय कवये तुष्टः श्री कुमरो ददौ ॥ साधं नृपतिना सोऽथ विश्वेश्वरकवियो । श्री हेमसूरिशालायां विद्वद्गोष्ठी र सेरितः ॥
श्रालोक्य संसदं सूरेभू रिरिजनावृताम् । स ब्रह्मपरिषत्तुल्या मेनां मेने कवीश्वरः ॥ सूरि-शिष्यक्षाय द्वे समस्ये समार्पयत् । 'व्याषिद्धेति' प्रसिद्धाऽऽद्या 'शृङ्गामेणेति' वापरा ॥ तामाद्यां निरवद्यपद्यरचनाहृद्यः कपर्दी महा इमात्यः पूर्वमपूरयद् गुरुतरप्रज्ञाप्रकर्षोद्धरः ।
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कुर्वस्तम्मनसीति विस्मयभरं श्रीसूरिशिष्यः सणान् ।
मन्या मान्यतमोऽनिशं मतिमतां श्रीरामचन्द्रोऽम्यधात् ।। यह वर्णन, पूर्व वर्णन से भिन्न प्रकार का है। इसके अनुसार श्वेश्वर कपिका पहिले राजा कुमारपाल ने अपनी सभा में सत्कार किया। उसके बाद कषि जा कुमारपाल साथ प्राचार्य हेमचन्द्र की शाला में गए है। वहां उन्होंने प्राचार्य के शिष्यों के परीक्षा के लिए दो समस्याएं पूर्ति करने के लिए रखीं। इनमें से एक समस्या 'याषिद्धा' थी और दूसरी 'शृङ्गाग्रेण थी। इनमें पहिली समस्या की पूर्ति पहिले राजा के महामात्य 'कप' ने की । उसके बाद दूसरी समस्या की पूर्ति हेमचन्द्र सूरि के शिष्य रामचन्द ने की। इन दोनों के समस्या-पूर्ति श्लोकों को ग्रन्थकार ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है
नैतस्याः प्रसृतिद्वयेन सरले ! शक्ये पिधातु हशी सर्वत्रापि प लक्ष्यते मुखशशिज्योत्स्नावितानरियम् । इत्यं मध्यगता सखीभिरभितो हग्मीलनात केलिषु,
व्याषिद्धा, नयने मुखं च रुदती स्वे गर्हते कन्यका ॥ यह महामात्य द्वारा की गई 'ब्याषिया' समस्या की पूर्ति है। र पचन्द्र द्वारा की गई दूसरी समस्या को पूर्ति निम्न प्रकार है
स्वं नो गोत्रगुरुस्तवेन्दुरधिपस्तस्यामृतं तस्करे तेन व्याधशरातुरां मम प्रियामेनां समुज्जीक्य । इत्युक्त मगलाञ्छनस्य हरिणे कारुण्यमाजल्पतः
शृङ्गामेण मृगस्य पश्य पतितं नेताम्बु भूमण्डले ।। इनमें से प्रथम श्लोक में कन्यानों की मांखमिचौनी को क्रीडा का वर्णन है। मांड मिचौनी खेलने वाली लड़कियों में एक लड़की की पांखे बहुत बड़ी बड़ी है। इतनी बड़ी कि 'प्रसूतिहयेन' दोनों हाथों से 'पिधातुन शक्ये' ढकने में नहीं पाती है । उससे मांख मिचौनी कैसे खेली जाय। उस लड़की में दूसरा दोष यह भी था कि वह कहीं भी जाकर छिपे, पर उसके सौदर्य की कान्ति चारों मोर फैल जाने से वह छिपी नहीं रह सकती है। इन दोनों कारणों से उस कन्या को 'दृग्मीलन केलि' से निकाल दिया गया-'ज्याषिशा' । पौरवह बेचारी अपने मुख तथा नेत्रों को कोस-कोस कर रोने लगी।
दूसरे श्लोक में कोई मग शृङ्गाय से चन्द्रमा में बैठे हुए मग को स्पर्श करते हुए उससे प्रार्थना कर रहा है कि तुम हमारे वंश के बड़े-बूढ़े गुरु हो, चन्द्रमा तुम्हारा स्वामी है। उससे ममत भरे हाथ के द्वारा व्याध के बाण से मतकल्प मेरी प्रिया हरनी को पुनर्जीवित करादो। इस प्रकार कहते हुए करुणामयी प्रार्थना करने वाले मृग की भांखों से मांसू टपकने लगे। इस प्रकार अपनी दी हुई दोनों समस्याओं की तुरन्त प्रस्तुत की गई इन दोनों सुन्दर पूर्तियों को सुन कर विश्वेश्वर पण्डित अत्यन्त प्रसन्न हुए।
सपहर्ष निजापन से निपीयाशु पूरिते। महो ! बानाति विश्वेऽस्मिन् कविरेव कवेः श्रमम् ॥
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कवि रामचनका पात्मपरिषय
नाटप दर्पणकार रामचन्द्र का यह परिचय हमने अन्य लोगों के ग्रन्थों में वरिणत सामग्री के प्राधार पर दिया था। अब मागे उनकी स्वयं दी हुई सामग्री के आधार पर उनका कुछ परिचय प्रस्तुत किया जाता है। नाटघरचना के नियमों के अनुसार नाटक की प्रस्तावना में सूत्रधार के मुख से प्रत्येक नाटककार अपने सम्बन्ध में कुछ परिचय देता है :
रङ्गप्रसाद मधुरः श्लोकः काम्यार्थसूचकैः ।
स्पकस्य कवेराख्यां गोत्राद्यपि स कीर्तयेत् ।। साहित्यदर्पण ६-२८ । इस नियम के अनुसार प्रत्येक नाटक के प्रारम्भ में कवि रामचन्द्र ने अपना परिचय दिया है, परन्तु परिचय में उन्होंने अपने गोत्रस्थान प्रादि का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है। अपने सभी नाटकों में उन्होंने केवल भाचार्य हेमचन्द्र सूरि के शिष्य-रूप में ही अपना परिचय कराया है । इस लिए उनके ठीक जन्म स्थान, पितृनाम और कुल-गोत्रादि का कोई परिचय हमको नहीं मिलता है। फिर भी उनके अपने व्यक्तित्व के परिचय कराने के लिए उनकी स्वलिखित पर्याप्त सामग्री मिलती है। अपने विषय में सबसे लम्बा परिचय उन्होंने कदाचित् 'रघुविलास' की प्रस्तावना में दिया है । वह परिचय निम्न प्रकार है
___ "मारिष ! सिद्धहेमचन्द्राभिषानशब्दानुशासनविधानवेधसः श्रीमदाचार्य हेमचन्द्रस्य शिष्यं रामचन्द्रमभिजानासि ? चन्द्र०-- [साक्षेपम्
पञ्चप्रबन्ध मिषपञ्जमुखानकेन विद्वन्मनःसदसि नृत्यति यस्य कीतिः । विद्यात्रयीचणमचुम्बितकाव्यतन्द्र
कस्तं न वेद सुकृती किल रामचन्द्रम् ? किन्तु द्रव्यालङ्कारनामा प्रबन्धोऽनभिनेयत्वेन तावदास्ताम् । अपरेषां राघवाभ्युदय-यादवाभ्युदयनलविलास-रघुविलासानां चतुर्णा रमणीयतम-सन्द्ध्यनिवेशानां विशदप्रकृतीनां पुनर्मध्ये कुत्र प्रजानामनुरागः ?
[रघुविलास-प्रस्तावनायाम्] यह उद्धरण 'रघुविलास' को प्रस्तावना से लिया गया है । इसमें कवि रामचन्द्र ने अपने पांच प्रन्थों का उल्लेख किया है। इनमें से प्रथम 'द्रव्यालङ्कार' ग्रन्थ न्यायशास्त्र से सम्बन्ध रखने वाला ग्रन्थ है और शेष चारों उनके प्रसिद्ध नाटक है । पाँच ग्रन्थों के उल्लेख से यह प्रतीत होता है कि 'रघुविलास' की रचनाकाल तक वे इसको मिला कर पांच ग्रन्थों की रचना कर चुके थे। मोर उनके कारण उनकी पर्याप्त ख्याति हो गई थी। इस परिषय में उन्होंने अपने को 'विद्यात्रयी चरणम्' कहा है। साधारण 'त्रयोविद्या' पद से वेदविद्या का ग्रहण होता है । किन्तु रामचन्द्र जैन विद्वान थे इसलिए वेद विद्या से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। उन्होंने जो 'विधात्रयी' का प्रयोग किया है उससे न्याय, व्याकरण तथा साहित्य विद्या का ग्रहण होता है । रामचन्द्र का इन तीनों शास्त्रों के ऊपर पूर्ण अधिकार था, इसी लिए उन्होंने यहां अपने को 'विद्यात्रयीचणम्' तीनों विद्याओं में निपुण कह कर अपना परिचय दिया है । 'नाटयदर्पण-विवृति' के अन्त में
• "शमलक्ष्म-प्रमालक्ष्म-काव्यलक्ष्म-कृतश्रमः । वाग्विलासस्त्रिमार्गों नौ, प्रवाह इव जाह्न.जः ॥"
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लिख कर उन्होंने फिर अपने को इन तीनों विद्यानों का पण्डित सूचित किया है। अपना ही नहीं अपने प्राचार्य हेमचन्द्र का भी इन तीन शास्त्रों का ही पाण्डित्य 'नाटपदर्पण-विवृति' के पन्त में उन्होंने इस प्रकार वर्णन किया है -
"शब्द-प्रमाण-साहित्य-छन्दो-लक्ष्म विधायिनाम् ।
श्रीहेमचन्द्रपादानां, प्रसादाय नमो नमः॥" 'नाटपदपंण विवृति' के प्रारम्भ में भी
. "प्राणाः कवित्वं विद्यानां, लावण्यमिव योषिताम् ।
विद्यवेदिनोऽप्यस्मै, ततो नित्यं कृतस्पृहाः॥" ना० ८० १-९ इस श्लोक से उन्होंने अपने को 'विद्यवेदिनः' कह कर अपना परिचय दिया है । 'सिवहेमशम्दानुशासन' के ऊपर 'न्यास' टीका लिख कर उन्होंने अपने व्याकरणशास्त्र के पाण्डित्य को चरितार्थ कर दिया है । अपने 'द्रव्यालंकार विवृति' ग्रन्थ द्वारा न्यायशास्त्र के पारङ्गतत्व को, पौर नाटयदर्पण एवं अनेक नाटकों की रचना द्वारा अपने साहित्यशास्त्र निष्णातत्व को चरितार्थ कर दिखाया। उनके ग्रन्थों के पढ़ने से स्पष्ट ही प्रतीत होता है कि वे इन सब शास्त्रों के प्रपूर्व विद्वान् थे। इसलिए उनका 'विद्य-वेदित्व' का अभियान यथार्थ ही था।
२. नाटघदर्पणकार रामचन्द्र ने अपने नाटकों में अपनी स्वातन्त्र्य-प्रियता पर बड़ा बल दिया है । उनकी काव्यरचना बिल्कुल स्वतन्त्र है । किमी अन्य कवि की कविता प्रादि का उन्होंने तनिक भी माश्रय नहीं लिया है । इस बात को प्रदर्शित करते हुए नलविलास की प्रस्तावना में लिखा है कि
"नटः [विमृश्य] भाव ! अयं कविः स्वयमुत्पादक उताहो परोपजीवकः ? सूत्रधारः-पत्रार्थे तेनैव कविना दत्तमुत्तरम्
जनः प्रज्ञाप्राप्तं पदमथ पदार्थ घटयतः पराध्वाध्वन्यानु नः कथयतु गिरां वत्त निरियम् । अमावास्यायामप्यविकलविकासीनि कुमुदा
न्ययं लोकश्चन्द्रव्यतिकरविकासीनि वदति ॥ निलविलास १-७] ऐसा प्रतीत होता है कि किसी मालोचक ने रामचन्द्र को गतानुगतिक अर्थात् पुरानी बातों का ही वर्णन एवं अनुगमन करने वाला कह दिया था। उसका विरोध करते हुए इस श्लोक में उन्होंने यह दिखलाया है कि 'हम तो सदा अपनी बुद्धि में प्रस्फुटित नवीन पदार्थों की रचना करते हैं, फिर भी यदि हमें लोग दूसरों का अनुगमन करने वाला कहते हैं तो कहने दो। ऐसा तो संसार में कहा ही जाता है । देखो न ! संसार कुमदों को चन्द्रमा के सम्पर्क से ही खिलने वाला कहता है । पर वे कुमुद तो अमावस्या के दिन चन्द्रमा के न होने पर भी खिलते है। इसलिए चोगों की बात विश्वास के योग्य नहीं है।
"मपि च शपथप्रत्येयपदपदार्थसम्बन्धेषु प्रीतिमावधानं अनमवलोक्य जातखेदेन तेनेदं चाभिहितम् -
स्पृहां लोकः काव्ये वहति जरठः कुण्ठिततमः वोभिर्वाच्येन प्रतिकुटिलेन स्पपुटिते।
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'वयं वीची गादु कथमपि न बताः पुनरिमा
मियं चिन्ता तस्तरलयति नित्यं किमपि मा।
पुरानी शैली के जिन यमकादि प्रधान और चित्रकाव्यों का अर्थ भी समझाना कठिन होता है, इस प्रकार के काव्यों में लोगों की विशेष मभिरुचि से खिन्न होकर रामचन्द्र ने यह श्लोक लिखा है । उसका भाव यह है कि हम इस प्रकार के स्वभावत: दुर्जेय और निकृष्ट रचनाशैली का अवलम्बन करने में असमर्थ हैं । तो लोग हमारे काव्य को पसन्द करेंगे या कि नहीं यही चिन्ता हमें सता रही है । अर्थात् रामचन्द्र ने पुरानी शैली का अवलम्बन करके ही अपने नाटकों की रचना नहीं की है । इसलिए गतानुगतिक केवल पुरानी लकीर के फ़कीर नहीं है
लीक लीक गाड़ी चले लोकहि चल कपूत ।
तीन लीक पर ना चलें शायर शेर सपूत " कवि रामचन्द्र तो शायर भी है और सपूत भी, इसलिए पुरानी लीक पर चलने वाले कैसे हो सकते हैं । सनकी रचनाशली चित्रकाव्य की कठिन शैली से सर्वथा भिन्न सरल और सुबोध शंली है। इसीलिए उनकी रचना विशेष रूप से रसवती बन पड़ी है। इसी बात को उन्होंने निम्न लोक में दिखलाया है
प्रबन्धानापातु नवभरिणतिवेदग्ध्यमधुरानु ववीन्द्रा निस्तन्द्राः कति नहि मुरारिप्रभृतयः । ऋते रामान्नान्यः किमुत परकोटो घटयितु
र सान् नाटयप्राणान् पटुरिति वितर्को मनसि नः।
मर्थात पवीन कल्पना और उक्तियों से मधुर काव्यों की रचना करने वाले मुरारि आदि न जाने कितने कदि हुए हैं। किन्तु नाटय के प्राण भूत रसों का चरमोत्कर्ष तक पहुंचाने में समर्थ, रचना को प्रस्तुत करने वाला तो रामचन्द्र के अतिरिक्त कोई दूसरा कवि दिखलाई नहीं देता है।
यह तो मचन्द्र ने अपनी स्वतंत्र रचनाशली का प्रतिपादन किया है। किन्तु दूसरे कवियों के पद-पदार्थ का माहरण करने वाले कवियों को उन्होंने बड़ी कटु मालोचना की है। उनकी अनेक कृतियों में इस म हरण-प्रवृत्ति को निन्दा पायी जाती है। उनमें से कुछ उदाहरण निम्न
कवित्वं परस्तावत् कलङ्कः पाठशालिनाम् । भन्यकाव्यः कविस्वं तु कलकस्यापि चूलिका ।।
[नाटयदर्पण-वियति १-११] यह लोक नाट पदपण विवृति के मादि में लिखा है। इसी प्रकार इस विवृति के अन्त में भी उन्होंने लिखा है
परोपनीतशब्दार्थाः, स्वनाम्ना कुतकीर्तयः ।
लिबद्वारोऽधुना सेन, को नौ क्लेशमवेष्यति ?
माजकल तो लोग दूसरों के शब्द प्रों को लेकर अपने नाम से प्रसिति प्राप्त कर लेते है। जब हम दोनों अर्थात् नाटयदर्पणकार रामचन्द्र और पुणचन्द्र के उस कष्ट को, जो उन्होंने इस प्रय तथा अन्य अन्य की रचना में उठाया है कोन समझ सकेगा?
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'कौमुदी मित्राणन्द' की प्रस्तावना में भी उन्होंने इसी माय को निम्न प्रकार लिया है
परोपनीतशब्दाः स्वनाम्ना कुतकीर्तयः ।
निबद्धारोऽधुना तेन विश्रामस्तेषु यः साम् ।। कवि रामचन्द्र न केवल काव्य रचना के क्षेत्र में अपितु जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वतंत्रता के उपासक है। अपनी इस स्वातन्त्र्यप्रिगत का परिचा पनेक स्थानों पर दिया है । कुछ उदाहरण निम्न प्रकार है
का चेत् सरसं किमर्षममृतं. वो कुरंगीहशा पोत कन्दर्पविपाण्डगण्डफलक राकाशाम किम् ? स्वातंत्र्य यदि बीविसावधि मुषा स्वभूभुवो वैभवे वैवी यदि पोवनभरा शीत्या सरस्यापि किम् ?।।
नरूविलास २-२] इसके तीसरे मरण में उन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता के सामने स्वर्ग मोर तीनों लोकों के वैभव को तुच्छ बतलाया है। नलविलास के छठे पत्र में उन्होंने फिर इस स्वातंत्र्य की पर्चा की है
अनुभूतं न यद् येन रूपं नार्वति तस्य सः । न स्वतंत्रो व्ययो वेत्ति परतंत्रस्य देहिनः॥
[नलविनास ६-७] पिनस्तोत्र' के रात में उन्होंने स्वातंत्र्य-महिमा का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है
'स्वतंत्री देव ! भूयासं सारमेयोऽपि.वर्मनि ।
मा स्म भूवं परायत्तस्त्रिसोकस्यापि नायकः ॥
हे देव ! मैं चाहता हूँ कि में स्वतंत्र रई। भले ही गली का कुत्ता बन कर रहूँ। पराधीन हो कर में तीनों लोकों का राजा भी बनना नहीं चाहता हूँ। यह स्वातत्र्य-प्रियता का चरम रूप है । सत्यहरिश्चन्द्र की प्रस्तावना में भी उन्होंने लिखा है
सूक्तयो रामचन्द्रस्य, वसन्तः, कलगीतयः ।
स्वातंत्र्य, इष्टयोगश्च पंचते. हर्षसृष्टयः ॥
१ रामचन्द्र की सूक्तियां, २ वसन्त, ३ सुन्दर गान, ४ स्वतंत्रता र इष्ट का योग ये पांचों बस्तुएं मानन्द एवं सुख की सृष्टि करने वाली है। "प्राप्य स्वातंत्र्यलक्ष्मी मुदमथ वहां शाश्वती यादवेन्द्रः"
यादवाम्युदर] "प्राप्य स्वातंत्र्यलकमी मनुमवतु मुर्द शाश्वती भीमसेनः।"
. निर्भय भीमयायोग] "प्रजातगणनाः समाः परमता स्वतंत्रो भव।"
[नमविलास, तथा अत्यहरिचन्द्र] 'भाशाप यशोमवमी परी स्वतंत्रश्चिरं भूयाः" .
..कौमुदीमित्राणद] "नाम्यासां यवीच्यंत चिरं सर्वार्थ सिदि हदि"
[मानधारान्ते]
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कवि रामचन्द्र के प्रध
प्रस्तुत नाटपदर्पण अन्य के लेखक रामचन्द्र की 'प्रबन्धशतकर्ता' के रूप में विशेष रूप से प्रसिद्धि है। उन्होंने स्वयं प्रमेक ग्रन्थों में अपने को सौ अन्यों का निर्माता 'प्रन्बधशतकर्ता' बतलाया है । 'कौमुदीमित्राणन्द' को प्रस्तावना में 'प्रबन्धशतविधाननिष्णातबुद्धिना' इत्यादि द्वारा स्पष्ट रूप से अपने को १०० ग्रन्यों का निर्माता बतलाया है। इसी प्रकार निर्भयभीमव्यायोग' की प्रस्तावना में 'प्रबन्धशतक महाकवे रामचन्द्रस्य' इन शब्दों में अपने को प्रबन्धशतकर्ता घोषित किया है। किन्तु दुर्भाग्य से उनके सब अन्य उपलब्ध नहीं हो रहे है। छोटे-छोटे 'स्तव' आदि तक को मिलाकर इस समय तक उनकी केवल ३९ कृतियां उपलब्ध हुई हैं। उनमें से हमारे ज्ञान में केवल छः ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, जिनके नाम निम्न प्रकार है
१. नाटघदर्पण [बड़ोदा से प्रकाशित २. नलविलास नाटक [बड़ोदा से प्रकाशित] ३. कौमुदीमित्राणन्द [मात्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित] ४. निर्भयभीमव्यायोग [यशो जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित ५. सत्यश्रीहरिश्चन्द्रनाटक [निर्णय सागर बम्बई से प्रकाशित] ६. कुमारविहारशतक [भा० प्रा० सभा से प्रकाशित)
हमारे ज्ञान में इन छः प्रकाशित ग्रन्थों के अतिरिक्त रामचन्द्र के नाम से निम्न सात अप्रकाशित ग्रन्थ और मिलते हैं जिनका उल्लेख नाटयदर्पण में पाया जाता है
७. मल्लिकामकरन्दंप्रकरणम् [ना० ६० में उद्धृत] ८. यादवाभ्युदयं नाटकम् ना. द. में उद्धृत] ९. रघुविलास-नाटकम् (ना० द० में उद्धृत] १०. राघवाभ्युदय-नाटकम् [ना० द० में उद्धृत] ११. रोहिणीमृगार-प्रकरणम् [ना० द में उद्धृत) १२. वनमालानाटिका [ना० द० में उद्धृत] १३. सुधाकलशः [ना० द० में उद्धृत] १४. द्रव्यालङ्गार [ग्घुविलास प्रस्तावना में उद्धृत] १५ यदुविलास [रघुविलास प्रस्तावना में उदृत]
इनके अतिरिक्त कवि रामचन्द्र के निम्न ग्रन्थ और उपलब्ध होते हैं। वे सब छोटेछोटे स्तव रूप हैं
१६. युगादिदेवद्वात्रिंशिका १७. व्यतिरेकद्वात्रिशिका १८. प्रसाददात्रिशिका १९. प्रादिदेवस्तवः २०. मुनिसुव्रतदेवस्तवा २१. नेमिस्तवः २२. जिनस्तोत्राणि २३. हैमबृहद्वृत्तिन्यासः २४-३६ तक सोलह साधारण जिन स्तब
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मान्यता का अभिशाप
रामचन्द्र के जीवन का अन्तिम भाव दु:खमय ही रहा । इसका कारण उनका प्रन्या हो पाना था। 'प्रमावक-परित' के अनुसार तो मणहिल-मट्टन के राजा जयसिंह सिद्धराज के समय में ही उनकी दाहिनी मांस नष्ट हो गई थी। इस बात का वर्णन प्रभावक-चरित में निम्न प्रकार किया गया है
"उपाययाश्रितस्यास्य महापीठापुरःसरम् । व्यनशर दक्षिण : ........ ....." कर्मप्रामाण्यमालोच्य ते शीतीभूतचेतसा।
स्थितास्तत्र पतुर्मासीमासीनास्तपसि स्थिरे ।" पर्थात् कभी चतुर्मास के अवसर पर कवि रामचन्द्र की पोख. दुखने भाई और प्रत्यन्त पीड़ा देने के बाद उनकी दाहिनी मांस जाती रही । रामचन्द्र ने उसे अपने कर्मों का दोष कहकर सन्तोष किया। भोर पूर्ववत् तपोऽनुष्ठान करते हुए चातुर्मास्य को वहीं पूर्ण किया। ऐसा प्रतीत होता है कि यह घटना उनके मुख्य १५-१६ अन्यों के रचना-काल के बाद हुई है। पौर उसने उनकी कार्य-पद्धति एवं प्रवृत्ति को ही बदल दिया है । इस दुर्घटना के बाद वे अन्य ग्रन्थों को छोड़ कर केवल स्तवों की रचना में लग गए। हमारे इस अनुमान का कारण यह है कि उनके स्ववों में अनेक जगह दृष्टि-दान की प्रार्थना पाई जाती है। 'निमिस्तव' के अन्त में उन्होंने लिखा है
नेमे ! निषेहि निशितासिलताभिराम ! चन्द्रावदातमहसं मयि देव! हुष्टिम् । सयस्तमांसि विततान्यपि यान्तु नाश
मुज्जम्भतां सपदि शाश्वतिकः प्रकाशः ।। इसमें स्पष्टतः दृष्टिदान की प्रार्थना की गई है । 'षोडश षोडशिका' के अन्त में भी कुछ इसी प्रकार की प्रार्थना निम्न श्लोक में की गई है।
स्वामिन्ननन्तफलकल्पतरोऽतिराम ! चन्द्रावदात चरिताञ्चितविश्वपक्र! शकस्तुतांघ्रिसरसीरुह ! दुःस्थसाथै,
देव ! प्रसीद करुणां कुरु देहि दृष्टिम् ।। ऊपर हमने 'प्रभावक परित' के जो श्लोक उद्धृत किए थे यद्यपि 'ध्यनशद् दक्षिणं पक्षुः' केवल दक्षिण चक्षु के नाश की बात कही गई थी किन्तु वस्तुत: उनकी एक ही चक्षु नष्ट नहीं हुई थी अपितु वे दोनों नेत्रों से विहीन अन्धे हो गए थे। इसीलिए इन सब इलोकों में उन्होंने दृष्टिदान की प्रार्थना की है। 'व्यतिरेकद्वात्रिशिका' के अन्त में तो उन्होंने अपने विधिनताव्य' अर्थात् देवात् प्राप्त हुई भन्यता का उल्लेख किया है। और इसके साथ ही 'गलत्तनुता' पर्षात वाक्य का भी संकेत करते हुए लिखा है
जगति पूर्वविविनियोग विधिनतान्ध्य-गलत्तनुताऽदिकम् । सकलमेव विखुम्पति यः क्षणात अभिनवः शिवमुष्टिकरः सताम् ॥
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इत्कारमकारणकसुहदं विश्वस्य पावं जिनं तं स्तोतुस्त्रिजगदिलक्षण गुणग्रामाभिरामाकृतिम् । यः कश्चिद् विकचीबभूव बत मे भाग्यातिरेकस्ततः
तल्लोकव्यतिरिक्तमुक्तिगुवतिप्रेमप्रमोदोत्सवः ॥ इन दोनों श्लोकों में से प्रथम लोक में ग्रन्थकार ने पार्श्वदेव की स्तुति की है और उनके अनुग्रह से 'विधिनतान्य' और 'गलत्तनुता' के नाश की भाशा प्रकट की है। दूसरे श्लोक में भी उन्हीं पार्श्वनाथ की स्तुति करते हुए इसीप्रकार अपने 'भाग्यातिरेक' के 'विकचीभवन' की चर्चा की है । यों भन्छ ता जीवन का अभिशाप है। किन्तु उसमें बाह्य वृत्तियों का निरोध होकर मनुष्य की वृत्तियां स्वयं अन्तर्मुखी बन जाती है और उसके भीतर भगवान के प्रति प्रेम का उदय हो जाता है यह अच्छी बात है। इस दूसरे श्लोक में रामचन्द्र ने अपने उसी 'भाग्यातिरेक' के "विकचीभवन' को प्रमोदोत्सव' कह कर प्रपना सन्तोष व्यक्त किया है। प्रन्थकार के जीवन की अन्तिम झांकी
माचार्य हेमचन्द्र के जीवन की मन्तिम झांकी हम देख चुके हैं। जिस समय 'महिलपट्टन' के राजा कुमारपाल अपने उत्तराधिकारी के निर्णय के सम्बन्ध में परामर्श करने के लिए प्राचार्य हेमचन्द्र के आवास-स्थान पर परामर्श कर रहे थे, उस समय पाचार्य के पन्यान्य शिष्यों के साथ रामचन्द्र भी उपस्थित थे। उस समय प्रजयपाल को राज्य का उत्तराधिकारी न बनाने का जो परामर्श प्राचार्य हेमचन्द्र की भोर से दिया गया था उसमें रामचन्द्र का विशेष हाथ था। माचार्य हेमचन्द्र के शिष्यों में रामचन्द्र का प्रतिद्वन्द्वी पोर मन ही मन उनसे द्वेष रखने वाला उसका सहपाठी बालचन्द्र भी था। उसने ही अजयपाल के पास जाकर रामचन्द्र की चुग़ली करके अजयपाल को रामचन्द्र का शत्रु बना दिया था। इसलिए जैसा कि हम पहिले पढ़ चुके हैं अब अजयपाल राजा बना तो उसने रामचन्द्र को बुला कर गर्म लोहे की चादर के ऊपर बिठा कर उनको मरवा डाला । रामचन की इस नृशंस हत्या के पूर्व मजयपाल ने कहा था कि
महिवीढह सचराचरह जिण सिरि दिल्हा पाय। तमु प्रत्थमरतु दिणेसरह होउत होइ चिराय ॥' [महीपीठस्य सचराचरस्य येन शिरसि दत्ताः पादाः ।
तस्यास्तमनं दिनेश्वरस्य भवितव्यं भवति चिराय ॥] अर्थात् जो मारे चराचर जगत् के सिर पर पैर रखकर चलता है उस दिनेश्वर सूर्य का अन्त में चिरकाल के लिए प्रस्त हो जाता है। इसी प्रकार माज हमारे सिर पर पैर रखने का यत्न करने वाले इस रामचन्द्र का अन्त हो रहा है। रामचन्द्र के सहकारी गमावन्द्र
प्रस्तुत 'नाट्यदर्पण' ग्रन्थ की रचना में रामचन्द्र के साथ गुणचन्द्र का भी नाम माता है । अर्थात् इस ग्रन्थ की रचना रामचन्द्र गुणचन्द्र दोनों ने मिल कर की है। इनमें से रामचन्द्र के जीवन का वृत्तान्त ऊपर दिया गया है । किन्तु गुणचन्द्र के विषय में कुछ अधिक परिचय नहीं मिलता है । केवल इतना विदित होता है कि ये रामचन्द्र के सहपाठी घनिष्ट मित्र भौर प्राचार्य हेमचन्द्र के शिष्य थे। इन्होंने अपने तीसरे साथी वर्षमानगणि के साथ सोमप्रभाचार्य रचित 'कुमारपाल प्रतिबोध' का श्रवण किया था। इस बात का उल्लेख करने वाले दो श्लोक हम पृष्ठ ८
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पर उड़त कर चुके हैं। उनमें 'वर्षमान-गुणचन्द्रगणिभ्यां' पद में गुणचन्द्रगणि पद से इन्हीं नाट्यदर्पण विवृत्तिकार गुणचन्द्र का ही संकेत किया गया है । इन गुणचन्द्र ने रामचन्द्र के साथ मिलकर दो ग्रन्थों की रचना की है। एक तो यही प्रस्तुत 'नाट्यदर्पण' ग्रन्थ और दूसरा इसी प्रकार का 'द्रव्यालङ्कारवृत्ति' ग्रन्थ है । ये दोनों ग्रन्थ रामचन्द्र तथा गुणचन्द्र की सम्मिलित कृतियां है। इन सम्मिलित दो कृतियों के अतिरिक्त रामचन्द्र की तो ३७ स्वतन्त्र कृतियां मोर पाई जाती.
किन्तु गुणचन्द्र की ओर कोई कृति नहीं पाई जाती है । गुणचन्द्र के विषय में इतना ही वर्णन उपलब्ध होता है। हो माटवर्पण
प्रस्तुत नाट्यदर्पण ग्रन्थ रामचन्द्र-गुरणचन्द्र का बनाया हुआ है। यह चार 'विवेकों' में विभक्त है । मूल ग्रन्थ कारिका रूप में लिखा गया है । उसके ऊपर ग्रन्थकारों ने स्वयं ही विवृत्ति लिखी है । ग्रन्थ में कुल २०७ कारिकाएं हैं। 'रघुनाथ' ने 'विकामोर्वशीय' की टोकायें और 'भर्तृमलिक' ने 'भट्टिकाव्य' की टीका में 'नाट्यदपंख' का उल्लेख किया है । किन्तु वह नाटयदर्पण प्रकृत ग्रन्थ से बिल्कुल भिन्न प्रतीत होता है । इस अनुमान का कारण यह है कि भर्तृ मलिक ने 'भट्टिकाव्य' [१४-२] की टीका में नाट्यदर्पण से 'शुद्धताम्रमयी मध्यशु षिरा काहला मतेति नाट्यदर्पणे' लिखकर नाट्यदर्पण का श्लोक उद्धृत किया है किन्तु यह श्लोक प्रस्तुत नाट पदर्पण में नहीं पाया जाता है। यही नहीं अपितु प्रस्तुत नाट्यदर्पण में ऐसा कोई प्रकरण नहीं है जिसमें इस श्लोक की खपत हो सकती हो। इस श्लोक में 'काला' नामक वाद्य का लक्षण किया गया है किन्तु प्रस्तुत नाटयदर्पण में वाद्य की चर्चा करने वाला कोई भी प्रकरण नहीं आया है । तब यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि भट्टिकाव्य [सर्ग १४-२] में उद्धृत श्लोक रामचन्द्र-गुणचन्द्र कृत नाटयदर्पण से भिन्न किसी अन्य ही नाटयदर्पण से उद्धृत किया गया है।
इसी प्रकार रघुनाथ ने विक्रमोर्वशीय टीका में नाट्यदर्पण का एक उद्धरण निम्न प्रकार दिया है
पत्र च समासोक्त्या पूर्वोक्तप्रकारेण काव्यार्थप्रकाशनात् पत्रावली समाख्येयं नान्दी। तथाचोक्त नाट्यदर्पणकृता
तस्यां बीजस्य विन्यासो ह्यभिनेयस्य वस्तुनः । श्लेषेण वा समासोक्त्या नाम्ना पत्रावली तु सा ॥
[विक्रमोर्वशीय पृ० ७ नि० सागर] इस श्लोक में नान्दी के 'पत्रावली' नामक विशेष भेद का लक्षण दिया गया है किन्तु प्रस्तुत नाट्यदर्पण में यह नहीं पाया जाता है। इससे यह प्रतीत होता है कि रामचन्द्र गुणचन्द्र कृत प्रस्तुत नाट्य दर्पण के अतिरिक्त कोई और भी नाट्य दर्पण रहा होगा जिससे कि उक्त श्लोक उद्धृत किए गए होंगे। नाट्यशास्त्र और नाट्य दर्पण
प्रस्तुत नाट्य दर्पण ग्रन्थ का मूल प्राधार भरतमुनि कृत नाट्यशास्त्र है। पर नाटयशास्त्र एक बड़ा विस्तीर्ण ग्रन्थ है । उसे समस्त ललित कलामों का विश्वकोश कहा जा सकता है। नाटय दर्पण का क्षेत्र उसकी अपेक्षा बहुत छोटा है । नाट्यशास्त्र के १८वें अध्याय में दशरूपकों का वर्णन किया गया है । मुख्यतः उसी के भाषार पर रामचन्द्र-गुण चन्द्र ने अपने इस ग्रन्य की
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रचना की है । रामचन्द्र-चन्द्र के पहिले इसी प्रकार के 'दशरूपक' नामक एक ग्रम्य की रचना 'जय' कर चुके थे। प्रस्तुत ग्रन्थ उसी की प्रतिद्वन्द्विता में लिखा गया प्रतीत होता है। इसकी
भूमि में राजनीति को प्रतिस्पर्धा की प्रेरणा रही हो तो भी कुछ प्राश्चर्य नहीं है । दशरूपककार धनजय मालव नरेश मुञ्ज के सभा पण्डित थे । रामचन्द्र गुरणचन्द्र गुर्जरेश्वर के पण्डित थे। गुजरात पोर मालवा राज्यों का सदा संघर्ष रहता था । उनमें दीर्घकाल तक युद्ध भी चलते रहे ये। इसलिए गौरव-प्राप्ति के हर क्षेत्र में दोनों राज्यों की प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। इसी प्रतिस्पर्धा के कारण मालवाधीश के ग्राश्रय में निर्मित 'दशरूपक' की प्रतिस्पर्धा में इस नाटपदर्पण की रचना हुई हो, यह सर्वथा सम्भावित है। हम प्रागे यह देखेंगे कि नाटघवलकार मे प्रायः १३ स्थलों पर दशरूपककार के मत का उल्लेख किया है किन्तु एक भी स्थान पर उनका नामतः निर्देश नहीं किया है । 'अन्ये', 'केचित्' प्रावि सर्वनाम शब्दों से पूर्वपक्ष प्रस्तुत कर उसका खण्डन किया है। पर उस दशरूपक वाले प्रकरण को प्रारम्भ करने के पहिले हम भरत के नाटकशास्त्र भौर नाट्यदर्पण के विषय में कुछ विचार कर लेना चाहते हैं । नाट्यदर्पण की रचना यद्यपि भरतमुनि के नाटयशास्त्र के भाधार पर की गई है किन्तु रामचन्द्र गुरणचन्द्र ने अनेक स्थलों पर भरतमुनि से अपना मत भेद प्रकट किया है। इस प्रकार के दो उदाहरण हम नीचे देते हैं
का वर्णन करते हुए नाटघदर्पणकार ने
"ग्रस्म च पूर्वरङ्गस्य प्रत्याहारादीन्यासारितान्तानि नवान्तर्जवनिकं गीतकादीनि 'प्ररोचनान्तानि च दश बहिर्जवनिकमङ्गानि प्रयोज्यानि 'पूर्वाचार्यः' लक्षितानि । प्रस्माभिस्तु . स्वतो लोकप्रसिद्धत्वात् तन्न्यासक्रमस्य निष्फलत्वात् विविधदेवता परितोषरूपस्य तत्फलस्य च श्रद्धालुप्रतारणमात्रत्वादुपेक्षितानि । प्ररोचना तु पूर्व रङ्गाङ्गभूताऽपि नाट्ये प्रवृत्ती प्रधानमङ्गमिति लक्ष्यते ।”
१. तृतीय विवेक में 'प्ररोचना' लिखा है कि
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इसमें 'पूर्वाचार्यैः' पद से भरत मुनि का संकेत किया गया है। भरत मुनि ने पूर्व रङ्ग के १२ भङ्गों का विधान किया है। जिनमें से १ जवनिका के भीतर भोर दश जवनिका के बाहर किए जाते हैं। नाट्यदर्पणकार ने इनमें से केवल एक प्रङ्ग 'प्ररोचना' को लिया है, शेष १८ मङ्ग को छोड़ दिया है । उनके छोड़ देने के तीन कारण यहाँ दिखलाए है :
१. स्वतो लोकप्रसिद्धत्वात, २. तन्न्यासक्रमस्य निष्फलत्वात् औौर ३. विविध देवता परितोषरूपस्य तत्फलस्य च श्रद्धालुप्रसारणमात्रत्वात् ।
२. इस स्थल पर नाटयदर्पणकार ने भरत मुनि से अपना मतभेद प्रकट किया है । इसी प्रकार का एक और स्थल भारती वृत्ति के विवेचन में माया है । वृत्तियों के निरूपण के प्रसङ्ग में नाट्यशास्त्र के २० वें अध्याय में निम्न श्लोक भाया है-
रौद्रे भयानके चैव विशेपारभटी दुर्घः । बीभत्से करुणे चैव भारती सम्प्रकीर्तिता ।।
[ नाटघशास्त्र २० - ६४ ]
इसके अनुसार केवल बीभत्स तथा करुण रसों में 'भारती वृति' का प्रयोग भरतमुनि को प्रभिप्रेत प्रतीत होता है । किन्तु उसी २०वें प्रध्याय में इसके पूर्व ४७वां श्लोक निम्न प्रकार माया है
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( २१ ) बेवास्तथास्तु विक्षयारत्यारोपमा
प्ररोचनामुखं चैव वीपी प्रहसनं तथा [पापशास्त्र ४-01] इस श्लोक में प्ररोचना, मामुख मादि को उस मारता वृत्ति का भेद बतलाया गया है। प्ररोचना, भामुख भादि का तो बीभत्स तथा करुण के अतिरिक्त अन्य रसों से भी सम्बन्ध है। इसलिए भरतमुनि के इन वचनों में विरोध प्रतीत होता है । इसकी आलोचना करते हुए नाटपदर्पणकार ने लिखा है कि
___ "ये तु भारत्यां बीभत्स-करणी प्रपनाः, त: सरसबीपी-प्रधानशृङ्गारवीरमाणप्रधानहास्यप्रहसनानि स्वयमेव भारत्यामेव वृत्ती नियंत्रितानि नावेक्षितानि ।" 'ये तु' से यहां भरतमुनि का ग्रहण है । जिन भरतमुनि ने भारती वृत्ति में भी मत्स तथा करुण रस का समावेश माना है, उन्होंने स्वयं ही सर्वरसावीथी, और अङ्गार. या वीर रस जिसमें मुख्य है इस प्रकार के भाण तथा हास्यरस जिसमें प्रधान रहता है उन प्रहसनों की भारती वृत्ति में रचना का जो निश्चय पहिले किया है, उसकी उपेक्षा कर दी है । प्रत: उनके इस कयन में 'वक्तोव्याघात' दोष पाता है। इस प्रकार हम देखते है कि जहां प्रायश्यकता पड़ी है वहां नाट्यदर्पणकार ने भरतमुनि की मालोचना भी की है। नाट्यर्पण और बशरूपक
नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने अपने इस ग्रन्य में प्रायः १३ बार 'मन्ये' 'केचित् पादि शब्दों से अपने पूर्ववर्ती माटघलक्षणकार धनञ्जय के दशरूपक का उल्लेख किया है । इनमें से दो स्थानों पर तो उनके मत को पालोचना करते हुए उन्हें 'न मुनिसमयाध्यवसायिनः' और परसम्प्रदायवन्ध्यः ' अर्थात् भरतमुनि के अभिप्राय को न समझ सकने वाला कहा है। शेष ११ स्थलों पर मुखसन्धि प्रादि के पलों के विविष लक्षणों में अपने लक्षणों से दशरूपक में विसाए गए लक्षणों में जो भेद पाया जाता है उसका प्रदर्शन कराया है। जिन दो स्थलों पर रामचन्द्रपुणचन्द्र ने धनम्जय को 'न मुनिसमयाध्यवसायिनः' भरत मुनि के मत को न समझने वाला बतलाया है उनमें से एक स्थल नाटक-लक्षण के अवसर पर और दूसरा प्रकरण-लक्षण के अवसर पर पाया है।
१. नाटक के लक्षण में नाटपदर्पणकार ने 'ख्याताघराजचरितं' [कारिका ५] यह एक विशेषण दिया है । इसके अनुसार किसी इतिहास-प्रसिद्ध पूर्ववर्ती राजा के चरित का अवलम्बन करके हो नाटक की रचना करनी चाहिए । अर्थात् इतिहास-प्रसिद्ध पूर्वकालीन राजा ही नाटक का नायक हो सकता है। इसके बाद अगली छठी कारिका में धीरोदात्त, धीरोखत, धीरललित तथा धीरप्रशान्त ये चार प्रकार के नायक-स्वभाव बतला कर प्रत्येक के उत्तम, मध्यम दो भेद किए है। इस प्रकार स्वभावभेद के माधार पर नायक के ६ भेद हो जाते हैं । इससे पगली सातवीं कारिका में यह दिखलाया है कि 'देवा धीरोद्धता:' देवता लोग धीरोद्धत स्वभाव के होते है। धीरोदात्ता: सैन्येशमन्त्रिणः' सेनापति तथा मन्त्री धीरोदात्त स्वभाव के होते है। 'धीरशान्ता परिणविप्राः' वणिक् पोर विप्र धीरप्रशान्त स्वभाव के होते हैं । और अन्त में 'राजानस्तु चतुर्विधाः' राजा चारों प्रकार के स्वभाव वाले होते हैं, यह कहा है। इसके अनुसार नाटक का नायक चारों प्रकार के स्वभाव वाला हो सकता है।
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( २२ )
दशरूपकार ने जो नाटक का लक्षण किया है उसमें 'धीरोदात्तः प्रतापवान्' [३-२२] नायक का धीरोदात होना आवश्यक बतलाया है। अर्थात् दशरूपककार के अनुसार नाटक का नायक केवल धीरोदात्त ही हो सकता है अन्य नहीं । इस विषय पर नाट्यदर्पणकार का दशरूपककार से मत भेद है । नाटघदर्पणकार धीरललित यादि को भी नाटक का नायक मानते हैं । दशरूपककार केवल धीरोदात्त को ही मानते हैं । धीरललित आदि को नहीं मानते। इसी कारण रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने दशरूपक का खण्डन करते हुए लिखा है
' [ 'राजान' इति] बहुवचनाद व्यक्तिभेदेन चतुःस्वभावो नाटकस्य नेता । न पुनरेकस्यां व्यक्ती, एकत्र प्राधान्येन स्वभावचतुष्कस्य वर्णयितुमशक्यत्वादिति । प्रधाननायकस्य पायं नियमः । गौणनेतृणं तु स्वभावान्तरमपि पूर्वस्वभावत्यागेन निबध्यते ।
ये तु नाटकस्य नेत्रं धीरोदात्तमेव प्रतिजानते, न ते मुनिसमयाध्यवगाहिनः । नाटकेषु धीरललित दीनामपि नामकानां दर्शनात्, कविसमयबाह्याश्च ।
[ नाट्यदर्पण १-० ]
इस उद्धरण में नाट्यदर्पणकार ने 'केवल धीरोदात्त को नाटक का नायक मानने से भरतमुनि के मत को न समझने वाला कहा है । भरत मुनि ने जो नाटक का लक्षरण किया है वह निम्न प्रकार है-
प्रख्यातवस्तुविषयं प्रख्यातोदात्तनायकं चैव । राजर्षिदेश्यचरितं तथैव दिव्याश्रयोपेतम् ॥ नानाविभूति संयुतमृद्धिविलासादिभिर्गुणैश्चैव । प्रवेशकाढ्यं भवति हि तन्नाटकं नाम ।
[ नाट्यशास्त्र अ०१८, १०-११]
भरतमुनि के इस नाटक लक्षण में स्पष्ट रूपसे 'प्रख्यातोदात्तनायक' पद से नाटक में उदात्त नायक का प्रतिपादन किया है। इसी के प्राधार पर धनञ्जय ने 'दशरूपक' में 'धीरोदात्तः प्रतापवान्' आदि लिखा है । किन्तु रामचन्द्र उसे भरतमुनि के गत को समझने वाली बात कहते हैं । यह बात कुछ अटपटी सी प्रतीत होती है । नाट्यशास्त्र के वर्तमान संस्करणों में उपलब्ध पाठ के अनुसार तो दशरूपक का मत भरत का अनुगामी हो है विरोधी नहीं । सम्भव है रामचन्द्र - गुणचन्द्र के पास नाट्यशास्त्र का जो संस्करण रहा हो उसमें कुछ अन्य प्रकार का पाठ पाया जाता हो । यदि उस पाठ को जिसके आधार पर वे दशरूपककार को भरतमुनि के मतको न समझने वाला कह रहे हैं, यहाँ दे दिया होता तो बात अधिक स्पष्ट हो जाती, उसके बिना नाट्यदर्पणकार की बात स्पष्ट रह जाती है । परन्तु इस विषय में नाट्यदर्पणकार ने दूसरी बात यह भी लिखी है कि- 'नाटकेषु धीरललितादीनामपि नायकानां दर्शनात् कविसमयबाह्याश्च' । अर्थात् नाटकों में धीर ललित श्रादि नायक भी पाए जाते हैं, अतः दशरूपककार का मत कवि सम्पदाय के विपरीत भी है। यह बात कुछ अधिक स्पष्ट है ।
(२) नाट्यदर्पणकार द्वारा की गई दशरूपक की आलोचना का दूसरा प्रसङ्ग 'प्रकरण' के लक्षण में प्राया है। 'प्रकरण' का लक्षण 'दशरूपक' में निम्न प्रकार किया गया है"अथ प्रकरणे वृत्तमुत्पाद्यं लोकसंश्रयम् । अमात्य विप्र-वणिजामेकं कुर्याच्च नायकम् ॥
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(
arer
पीरप्रशास शेष नोटकवत,
## )
धर्मकामायें तत्परम् । सन्धि प्रवेशकरसादिकम् i
वशरूपक ३-३९, ४०j
इस लक्षण के अनुसार 'प्रकरण' में धीरप्रशान्त स्वभाव वाले अमात्य, विप्र या after में से किसी एक को नायक बनाना चाहिए यह प्रयं निकलता है । किन्तु नाटघदर्पणकार इस बात से सहमत नहीं है। उनके मत में प्रमात्थ के साथ धीरप्रशान्त विशेषरण संगत नहीं होता है। प्रथम विवेक की सातवीं कारिका में वे पहिले ही लिख चुके है कि 'धीरोदात्तः संन्येधमन्त्रिरण : ' सेनापति धौर भ्रमात्य धीरोदात ही होते हैं। अर्थात् भ्रमात्य सदा धीरोदात्त होना चाहिए | 'श्रीरशान्ता वरिणविप्राः' वणिक् और वित्र तो धीरशान्त होते हैं, किन्तु धमात्य धीरप्रशान्त नहीं धीरोदात्त होता है। इसलिए दशरूपककार ने जो अमात्य को 'प्रकरण' का तश्यक मान कर 'वीरशान्त' उसका विशेषण दिया है वह उचित नहीं है। इसी बात को नाट्यदर्पण कार ने निम्न प्रकार लिखा है
"सचिव राज्यचिन्तकः । प्रयं वणिग्-विप्रयोर्मध्यपात्यपि धीरोदात्त - धीरप्रशान्ती करणे नेतारौ भवतः इति प्रतिपादनार्थं पृथगुपातः । यस्त्वमात्यं नेतारमभ्युपगम्य धीरप्रशान्तंनायकमिति प्रकरणं विशेषयति, स वृद्धसम्प्रदायवन्ध्यः ।" [ नाट्यदर्पण २ - १]
सचिव अर्थात् अमात्य राज्य का चिन्तक प्रर्थात् प्रबन्ध करने वाला होता है । यद्यपि विप्र तथा दणिक् के भीतर ही इस अमात्य का भी प्रन्तर्भाव हो सकता है अर्थात् विप्र या वरिणक् मैं से ही कोई अमात्य होता है। इसलिए यदि उसका अलग ग्रहण न किया जाता तो भी काम चल सकता था। फिर भी उसका मलग ग्रहण इसलिए किया गया है कि अमात्य धीरोदात्त होता है और वणिक् विप्र दोनों धीरप्रशान्त होते हैं। इसलिए श्रमात्य के पृथग् ग्रहण से यह अभिप्राय निकला कि प्रकरण में धीरोदास तथा धीरप्रशान्त दोनों प्रकार नायक हो सकते हूँ । इस दशा में दशरूपककार ने 'प्रकरण' में अमात्य को नायक मानते हुए मा जो 'धीरप्रशान्स' विशेषण द्वारा 'प्रकरण' में 'धीरप्रशान्त' के ही नायक होने का प्रतिपादन किया है, वह उचित नहीं है।
इन दो स्थलों पर तो नाट्यदर्पणकार ने दशरूपककार के मत की आलोचना की है । किन्तु इनके अतिरिक्त प्रायः ११ स्थल ऐसे हैं जिनमें मुख सन्धि आदि के श्रङ्गों के लक्षणों में नाट्यदर्पण तथा दशरूपक में भेद पाया जाता है । नाट्यदर्पणकार ने ऐसे स्थलों पर अपना लक्षण देने के बाद 'प्रन्ये' आदि पदों से दशरूपक के लक्षण भी दिखा दिए हैं। इन ११ स्थलों को हम नीचे दे रहे हैं ।
१. मुख सन्धि के पञ्चम भङ्ग 'उद्भ ेद' का लक्षण नाट्यदर्पण में 'स्वल्पप्ररोहउद्भेद:' किया गया है [का० १-४३ ] । दशरूपक में उसके स्थान पर 'उभेदो गूढभेदनम् ' [देश० १०:९] किया गया है । नाट्यदर्पण की विवृति में इसी का उल्लेख 'अन्ये तु गूढ भेदनमुभेदमामनन्ति' इस प्रकार किया गया है ।
२. नाट्यदर्पण में मुख सन्धि का आठवां प्रङ्ग भेदन माना गया है । उसका लक्षण 'भेदनं पात्र निर्गम:' [का० १-४४] किया गया है। दशरूपक में उसका लक्षण 'भेदः प्रोत्साहना मता' [ का० १- २९ ] इस प्रकार किया गया है । नाट्यदर्पणकार ने 'मन्ये तु भेदं प्रोत्साहनमाहुः'
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( २४ ) लिल कर इसी भेद को दर्शाया है। इसी प्रसङ्ग में नाट्यदर्पणकार ने 'मन्ये तु संहतानां प्रतिपक्षाणां बीजफलोत्पत्तिनिरोधकानां विश्लेषकं भेदरूपमुपायं भेदनं मन्यन्ते' इस रूप में भेद के तुतीय लक्षण का भी उल्लेख किया है ।
मुख सन्धि के इन दो मङ्गों के लक्षणों के विषय में रामचन्द्र तथा धनन्जय का मतभेद है। मागे 'प्रतिमुख सन्धि' के मङ्गों के विषय में दोनों का मतभेद दिखलाते है।
३. 'प्रतिमुख सन्धि' का पांचवां भङ्ग 'वणंसंहृति' है। उसका लक्षण नाट्यदर्पण में 'पात्रोषो वर्णसंहतिः' [फा० १४८] किया गया है। दशरूपक में उसके स्थान पर 'चातु
योपगमनं वर्णसंहार इष्यते' [१-३५] यह लक्षण किया है । नाट्यदर्पणकार ने इसी भेद को 'अन्ये तु वर्णानां ब्राह्मणादीनां द्वयोस्त्रयाणां चतुणा वा एकत्र मीलनं वर्णसंहारमाचक्षते' इस प्रकार दिखलाया है।
४. 'प्रतिमुख सन्धि' का सातवां मन 'नर्मद्युति' है । इसका लक्षण नाट्यदर्पण में 'दोषावृतो तु तद्युतिः', [का० ४६] किया है । दशरूपक में उसके स्थान पर 'परिहासवचो नर्म, वृतिस्तज्जा द्युतिर्मता' [का० १-३३] यह लक्षण किया गया है । नाट्यदर्पणकार ने अन्ये तु नर्मबां पुति चुतिमाहुः' इन शब्दों में इस भेद को दिखलाया है।
५. 'गर्भ सन्धि' का तीसरा अङ्ग 'रूप' है। उसका लक्षण 'नाट्यदर्पणकार ने 'पं नानार्थसंशयः' किया है । दशरूपक में 'रूपं वितकंवद् वाक्यम्' यह 'रूप' का लक्षण किया गया है । नाट्यदर्पणकार ने 'अन्ये त्वधीयते रूपं वितर्कवद् वाक्यम् इति' [पृष्ठ १४७] इस स्प इस भेद को प्रदर्शित किया है। इसी प्रसङ्ग में 'मन्ये तु चित्रार्थ रूपकं वचः' [पृष्ठ १४८] इन शब्दों में किसी तीसरे लक्षण का भी उल्लेख किया है ।
६. गर्भ सन्धि' का छठा पङ्ग 'क्रम' है। नाट्यदर्पण में उसका लक्षण 'मो भावस्य निर्णयः [का० १-५४] किया गया है । दशरूपक में 'क्रमः संचिन्त्यमानाप्तिः' [-] यह
म का लक्षण किया गया है ! नाट्यदर्पणकार ने 'क्रमः संचिन्त्यमानाप्तिः इत्याहुः' लिखकर इस भेद को दिखलाया है । 'अन्ये तु भविष्य दर्थतत्त्वोपलब्धि क्रममिच्छन्ति' इन शब्दों में कम का तीसरा लक्षण नी नाट्यदर्पणकार ने दिखलाया है।
७. 'अवमर्श सन्धि का पांचवा मग 'छादन' है । नाट्यदर्पण में उसका लक्षण 'छादनं मन्युमार्जनम् [का० १-५८] किया गया है। दशरूपक में 'छादन' के स्थान 'छलन' मङ्ग पाया गया है। नाट्यदर्पणकार ने इसका उल्लेख 'मध्ये त्यस्य स्थाने छलनं अवमाननरूपमाहः' इन शब्दों में किया है । इसके अतिरिक्त (१) 'मन्ये तु कार्यार्थमसमस्याप्यर्थस्य सहनं छापनमिच्छन्ति ।' (२) 'अपरे तु छलनं सम्मोहमिच्छन्ति' इस रूप में छादन प्रङ्ग के विषय में दो मतों का उल्लेख [पृ० १६६] पोर किया है ।
८. 'अवमर्श सन्धि' का छठा प्रङ्ग 'पुति' है । नाट्यदर्पण में उसका लक्षण 'तिरस्कारो द्युतिः' (का० ५९] किया गया है। दशरूपक में 'तर्जनोद्वेजने द्युतिः' [१-४६] इस प्रकार 'धुति' का लक्षण किया है । इस मन्तर का उल्लेख करते हुए नाट्यदर्पण में लिखा है'तर्जनोजनं द्युति केचिदिच्छन्ति' इसके साथ ही 'अपरे तु तर्जनाधर्षणे युति मन्यन्ते' इस रूप में 'अति' के तीसरे लक्षण का भी उल्लेख नाट्यदर्पणकार ने किया है।
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( २५ । ६. 'भवमर्श सन्धि' का रशम मा 'शक्ति' है। उसका लक्षण नाट्य दर्पण में - प्रसादनं शक्तिः' [का० ६०] पोर दशल्पक में विरोषशमनं शक्ति:' [१-४६] किया गया है। ट्यदर्पणकार ने 'एके तु विरोष थमनं शक्तिमिच्छन्ति' लिख कर इस भेद का उल्लेख किया है।
१०. अवमर्श सन्धि का १३वा अङ्ग 'व्यवसाय' है। नाट्यदर्पण में उसका लक्षण मवसायोऽध्यहेतुयुक्' [का० ६०] और दशरूपक में 'व्यवसायः स्वशक्त्युक्तिः' [का० १.५०] किया है। नाट्यदर्पणकार ने 'मन्ये तु व्यवसायः स्वशक्त्युक्तिः इति पठन्ति' लिख कर इस मेर का प्रदर्शन किया है।
११. निर्वहण सन्धि' का पांचवां पङ्ग परिभाषण है। नाट्यदर्पण में उसका शक्षण परिभाषास्वनिन्दनम्' [का० १-६३] मोर दशरूपक में परिभाषा मिथोजल्पः' [१-५२] किया गया है। नाट्यदर्पणकार ने इस भेद को 'एके तु परिभाषा मियोजल्पः इति पठन्ति' लिख कर इस भेद का उल्लेख किया है । रामचन्द्र पौर सागरगम्बी
रामचन्द्र-गुणचन्द्र के पूर्ववर्ती नाट्यलक्षणकारों में दशरूपककार धनञ्जय [सन् ९७४९९५] के बाद दूसरा नाम 'नाटकलक्षणरत्नकोश' के निर्माता 'सागरनन्दी' का पाता है। ये दोनों मम्मट के उत्तरवर्ती प्राचार्य है । सागरनन्दी ने धनञ्जय से लगभग १०० वर्ष बाद अपने 'भाटकलक्षणरत्नकोश' नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की है। इनका असली नाम तो केवल 'सागर' था किन्तु नन्दवंश में उत्पन्न होने के कारण वे 'सागरनन्दी' नाम से ही प्रसिद्ध है। इनका 'नाटकलक्षणरत्नकोश' ग्रन्थ, जैसा कि उसके नाम से ही स्पष्ट है, नाट्यशास्त्र विषयक अन्य है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र को सम्भवत: इस प्रन्थ का भी पूर्ण परिचय प्राप्त था। धनन्जय के समान सागरनन्दी से भी रामबन्द-पुणचन्द्र का अनेक स्थलों पर मत भेद पाया जाता है । नाट्यदर्पण में जिस प्रकार नाटक की पांचों राधियों के विविध प्रङ्गों के लक्षण करते समय जहाँ कहीं दशरूपक के मझरण भेद पाया है वहाँ 'मन्ये' प्रादि शब्दों से दशरूपक के लक्षण को भी उड़त कर दिया है। इसी प्रकार १२वें रूपक भेद 'वीथी' के मङ्गों का विवेचन करते हुए जहां उनके लक्षण से मित्र अन्य लक्षण भी पाए जाते है, वहां 'मन्ये मादि शब्दों में उन लक्षणों का उल्लेख कर दिया है। यह उल्लेख दशल्पक से सम्बद्ध प्रतीत नहीं होता है । क्योंकि दशरूपक में 'वीथी' के प्रमों का विवेचन ही नहीं किया गया है । दशरूपककार ने तृतीय प्रकाश के अन्त में केवल ६८, ६६ दो कारिकामों में 'बीपी' का लक्षण मात्र कर दिया है । उसके अङ्गों का विवेचन नहीं किया किया है। माट्यदर्पणकार ने 'बीपी' के लक्षण के अतिरिक्त उसके १३ अङ्गों का उदाहरणों बहित विस्तृत विवेचन किया है। और उसमें अपने से भिन्न अन्य लक्षणों का भी उल्लेख किया है । समसळप के नहीं है इसलिए ऐसा भनुमान है कि सम्भवतः ये 'नाटकलक्षणरत्नकोश'
रामन और मम्बट
१. काव्यप्रकाशकार मम्मट रामचन्द्र-गुणचन्द्र के पूर्ववर्ती प्राचार्य है । पर उन्होंने अहोभाटवनमाण सम्बन्धी कोई प्राथमिक्षा है मोर न काव्यप्रकाश में ही नाटक-सम्बन्धी किसी विसकी विवेजना की है, इसलिए नाट्यदर्पण का मम्मट के साथ कोई विशेष सम्बन्ध प्रतीत
किन्तु रसदोषों का विवेचन दोनों ने किया है । इसलिए इस अंश में दोनों का
स
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समान्य है। इस प्रसङ्ग में एक स्थल पर नाट्यदर्पणकारकाम्यप्रकाशकार के मतका सन्न किया है। रस-दोषों में मज मर्याद प्रधान रस का अधिक विस्तार करना दोष माना गया है। काव्यप्रकाश में इसे 'मास्याप्यतिविस्तृति' [सप्तम उल्लास सूत्र ५२, १०१से माम में पौर नाट्यदर्पण मैं इसे 'मङ्गोम्बू' [का...२१] नाम से कहा गया है। काव्यप्रकाशकार ने 'मङ्गस्य मप्रधानस्य, पति विस्तरेण वर्णने यया हयग्रीवव हवग्रीवस्य [.३६२ भानमन से प्रकाशित संस्करण] सिल कर प्रतिनायक सय ग्रीव के प्रति विस्तृत वर्णन को इसके उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया है। किन्तु नाट्यदर्पणकार इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं है। उन्होंने इसका खण्डन करते हुए इसे 'वृत्त-दोष' अर्थात् कपा-माग का दोष मात्र कहा है, रसदोष नहीं । रस की दृष्टि से तो उनके मत में यह दोष न होकर पूण है। प्रतिपक्षी का अत्यन्त उत्कर्ष दिखला कर नायक द्वारा उसका वध कराने में तो नायक का उत्कर्ष बढ़ता ही है, इसलिए उस दृष्टि से यह दोष नहीं अपितु गुण ही है, यह नाट्यदर्पणकारका अभिप्राय है। अपने इस मत का प्रतिपादन उन्होंने इस प्रकार किया है
"केचित्र हयग्रीव हयग्रीववर्णनमुवाहरन्ति । स पुनर्व तदोषो वृत्तनायकस्याल्पवर्णनात् । तत्र हि वीरो रसः, स विशेषतो वष्यस्य शौर्य-विभूत्यतिशयवर्णनेन मूष्यत इति ।"
[ना०६०३-२१] इसके स्थान पर उन्होंने कृत्यारावण का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है
"भयाजोग्यम् । पास्प मुस्यरसपोषकतया अवयवभूतस्योग्य विस्तरेणोत्कटत्वं दोषः। यथा कृत्यारावणे जटायुवष-सक्ष्मणशक्तिमेद-सीताविपत्तिश्रवणेषु रामस्य मुहहः करणाषिक्यम् ।"
ना. ६०३-२३] २. प्रतिकूल-विभावादिग्रह' नाम का दूसरा रस-दोष है। काव्यप्रकाश में इसका उदाहरण निम्न प्रकार दिया गया है
"प्रसादे वर्तस्व, प्रकटय मुदं, संत्या रुषं प्रिये शुष्यन्त्यङ्गान्य सूतमिव ते सिंचतु पयः । निधानं सौख्यानो क्षणभिमुखं स्थापय मुखं
र मुग्धे प्रत्येतु प्रभवति गतः कालहरिणः।। मथ शृङ्गारे प्रस्कूिलस्य शान्तस्यानित्यताप्रकाशनरूपो विमावस्तरप्रकाशितो निवरण व्यभिचारी उपात्तः ॥"
का० पृ. ३६० पति इस इलोक में शृङ्गार रस के प्रतिकूल शान्त रस का तथा उसके प्रतिस्पताक्यापनात्मक निर्वेदरूप व्यभिचारिभाव का ग्रहण होने से यहाँ प्रतिकूलविभावारि परिवह रूप रस दोष होता है। नाट्यदर्पणकारने इस उदाहरण को किसी प्रकार की मालोचना न करते हुए भी इसका दूसरा उदाहरण निम्न प्रकार दिया है
त्यजत मानमर्स त विग्रह पुनरेति गतं पतुरंपा ।
परभूताभिारतीय निवेदिते, स्मरमते रमते स्म वधूजनः॥ मा शृङ्गारप्रति लस्य शाम्सस्यानित्यता प्रकासनस्पो विभागो मिबहः।
[मा..-२)
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( २७ )
इन दोनों में केवल श्लोक का अन्तर है, भाव दोनों उदाहरणों का बिल्कुल एक ही है । इसके अतिरिक्त 'अकाण्डे प्रथनं, प्रकाण्डे छेदः दीप्तिः पुनःपुनः तथा प्रङ्गिगोऽननुसन्धानम्, इन चारों रस दोषों के उदाहरण काव्यप्रकाश तथा नाट्यदर्पण में बिल्कुल एक ही दिए हैं।
३. रस-दोषों के निरूपण के प्रसङ्ग में काव्यप्रकाश में 'व्यभिचारि-रस-स्थायिभावानां शब्दवाच्यता' को सबसे पहिला रस दोष कहा गया है। अर्थात् मम्मट के अनुसार व्यभिचारिभाव अथवा रस अथवा स्थायिभावों को अपने वाचक शब्द द्वारा कथन नहीं करना चाहिये । उनका स्त्रशब्द से कथन करने पर रसानुभूति का अपकर्षक होने से दोषाधायक होता है । किन्तु नाट्यदर्पणकार इस बात से सहमत नहीं हैं । इसलिए इस विषय में मम्मट का खण्डन करते हुए उन्होंने लिखा है
"केचित्तु 'व्यभिचारि-रस- स्थायिनां स्वशब्दवाच्यत्वं रसदोषमाहुः । तदयुक्तम् । व्यभिचार्यादीनां स्ववाचकपदप्रयोगेऽपि विभावपुष्टे:
दूरादुत्सुकमागते विवलितं सम्भाषिणि स्फारितं, संदिपत्यरुणं गृहीतवसने किञ्चाञ्चित लतम् । मानिन्याश्चरणानतिव्यतिकरे वाष्पापूक्षणं, चक्षुर्जातमहो ! प्रपंचचतुरं जातागसि प्रेयसि ॥
इसमें उत्सुक दिवलित आदि व्यभिचारिभावों का स्वाद
कथन होने पर भी रस
की परिपुष्टि हो रही है, इस लिए विभावादि का स्वशब्द से ग्रहण दोष नहीं है । यह नाट्यदर्पणकार का अभिप्राय है ।
४. इसी प्रकार
कष्टकल्पनया व्यक्तिरनुभावविभावयोः'
[का० प्र० कारिका ६०.
पू० ३५७ ] को दूसरा रसदोष माना गया है। पर नाट्यदर्पणकार का मत इस विषय में भी मम्मट से भिन्न है । अपने मत को व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है"एवमुभयरस साधारण विभावपदानां कष्ट ेन सन्दिग्धत्वलक्षणो वाक्यदोष एव । यथा -
नियतविभावाभिधायित्वाधिगमोऽपि
परिहरति मति रति लुनीते, स्खलतितरां परिवर्तते च भूयः । इति बत विषमा दशा स्वदेहं परिभवति प्रसभं किमत्र कुर्मः ॥ मत्र रतिपरिहारादीनां विभावानां करुणादावपि " सम्देह इति ।"
सम्भवात् शृङ्गारं प्रति भावत्व[ ना० द० ३ २३ ]
इस प्रकार मम्मट ने काव्य प्रकाश में जिन माठ प्रकार के रसदोषों का वर्णन किया या नाट्यदर्पणकार ने उनमें से तीन का बिल्कुल खण्डन कर दिया, और चार को ज्यों का यों ग्रहण कर लिया है, और एक को उदाहरण में परिवर्तन करते हुए स्वीकार कर लिया है ।
रामचन्द्र और अभिनवगुप्त --
नाट्यशास्त्र पर 'अभिनवभारती' नामक विवृति के निर्माता अभिनवगुप्त भी नाट्यदर्पणकार के पूर्ववर्ती श्राचार्य हैं। रस-निरूपण के प्रसङ्ग में नाट्यदर्पणकार ने उनके मत के बाधार पर अपने मत की स्थापना की है। किन्तु उसमें भी उन्होंने अभिनवगुप्त की अपेक्षा कुछ वनता उत्पन्न कर दी है ।
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'
देव !
१. उत्तरवर्ती सभी मात्रामों ने रस को प्रायः ब्रह्मानन्दसहोदर पर परमानन्दस्वरूप माना है । करुण और भयानक तथा बीभत्स जैसे रसों को भी सुखात्मक एस माना गया है । साहित्यकार मिब्वनाथ ने सभी रसों को ऐकान्तिक सुखात्मकता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है
sentदावपि रसे जायते यत् परं सुखम् । सचेतखामनुप्रवः प्रमाणं तंत्र केवलम् ।। किन सेषु यदा दुःखं न कोऽपि स्यात् तम्मुतः । तथा सतावणादीनां पचिता दुःस हेतुरुर ।।
विश्वनाथ प्रावि के इस सुसाश्यकतावाद के विपरीत अभिनवगुप्त ने प्रत्येक रस को सुखदुःखोभयात्मक रस माना है । अर्थात् उनके मत में प्रत्येक एक में सुख की प्रधानता होते हुए भी दुःख का स्पर्श रहता है । उन्होंने लिखा है
[ साहित्यदर्पण परि० ३,४०५]
इत्यानन्दरूपता सर्वरसानाम् । किन्तूपरञ्जक विषयवशात् तथामपि कटुकिता स्पर्शोऽस्ति वीरस्येव । स हि क्लेशसहिष्णुतादिप्राण एन ।" [हिन्दी अभिनवभारती पृ० ४७८ ]
इनमें भी शृङ्गार, हास्य, वीर तथा प्रद्भुत इन चार रसों में सुख की प्रधानता के साथ दुःख का नुवेध रहता है। इसके विपरीत रौद्र, भयानक, करुरण तथा बीभत्स इन चार रसों में दुःख की प्रधानता के साथ सुख का अनुवेध माना है । केवल शान्त रस को ही उन्होंने नितान्त सुखरूप माना है । प्रभिनवभारती के प्रथम अध्याय में इस विषय का विस्तारपूर्वक विवेचन करते हुए अभिनवगुप्त ने लिखा है-
" स च सुख - दुःखरूपेण विचित्रेण समनुगतो न तु तदेकात्मा । तथाहि -रति-हासउत्साह - विस्मया सुखस्वभावत्वम् । तत्र तु चिरकालव्यापि सुखानुसन्धिरूपत्वेन विषयोन्मुख्यप्रारणतया तद्विषशंसाबाहुल्येन प्रपायभीरुत्वाद् दुःखांशनुवेधों रतेः । हासस्य सानुसन्धानस्य विद्य त्सदृशस्तात्कालिकं ल्पदुःखानुवेधः सुखानुगतः । उत्साहस्य तात्कालिक - दुःखायास निमज्जनरूपानुसन्धिना भावि बहुजनोपकारिचित्तरकालमा विसुसमा चिकीर्षात्मना सुखरूपता । विस्मयस्य निरनुसन्धानतत्तुल्यसुखरूपता ।
क्रोध-भय-शोक- जुगुप्सानां तु दुःखस्वरूपता । तत्र चिरकालदुःखानुसन्धिप्राणो विषयगताssत्यन्तिकनाशभावना तदाकांक्षाप्राणतया सुखदुःखानुवेधवान् क्रोध: । निरनुसन्धितात्कालिककुःसप्राणतया तदण्गमाकांक्षोत्प्रेक्षित सुखानुसम्भिन्नं भवम् । ईकालिकस्रव भी विषय नाशजः प्राक्तनसुखस्मरणानुविद्धः सर्वथैव दुःखरूपः शोकः । उत्पाद्य मानदुःखानुसन्धानजीवितविषयात् पलायनपरायण रूपा निषिष्यमा नच कित सुखामुथिया कुतुप्सा ।
समतपूर्वदःख सञ्चय स्मरणप्राणितः सम्भाविततदुपरमबलम यो निर्वेदः । [हिन्दी] अभिनवभारती ४० २१६-२२४]
इन तीनों अनुच्छेदों में अभिनवगुप्त ने श्रृङ्गार, हास्य, वीर तथा प्रदभुत रसों में सुख की प्रधानता दे साथ-साथ दुःखानुवेष की, तथा रोड, भयानक, कaar तथा बीभत्स रसों में दुःख की प्रधानता के साथ सुखानुवेध की चर्चा करते हुए धमें निर्दोष को नितान्त सुसमय ठहराया है।
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( २९ ) रसों के विषय में नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र-गुराचन्द्र का मत पूर्वोक्त दोनों मतों से भिन्न प्रकार का है । उसे हम विभज्यवादी मत कह सकते हैं। विश्वनाथ प्रादि ने सभी रसों को सुखात्मक रस माना है। भभिनवगुप्त ने सभी रसों को उभयात्मक रस मारा है । किन्तु नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने न सभी रसों को सुखात्मक रस माना है, औः न सभी रसों में सुख-दुःख दोनों का समावेश माना है। उन्होंने रसों को अलग-अलग दो भागों में विभक्त कर दिया है । जिनमें से शृङ्गार. हास्य वीर, अद्भुत तथा शान्त इन पांच को सर्व या सुखात्मक और करुण, रौद्र, भयानक तथा बीभत्स इन चार को सर्वथा दुःखात्मक रस बतलाया। अपने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन नाट्यदर्पण में उन्होंने निम्न प्रकार से किया है -
"तष्टविभावादिप्रथितस्वरूपसम्पत्तयः शृङ्गार-हास्यवीर अद्भुन-शान्ताः पञ्च सुखात्मानः।
प्रपरें पुनरनिष्टविभावाद्युपनीतात्मानः करुण-रौद्र-बीमत्रा-भयानकाः चत्वारो दुःखात्मानः।
यत् पुनः सर्वरसानां सुखात्मकत्वमुच्यते, तत्प्रतीतिबाधितम् । प्रास्तां नाम मुख्यविभावोपचितः, काव्याभिनयोपनीत-विभावोपचितोऽपि भयानको बीभत्सः, करणो रोद्रो वा रसास्वादवतामनाख्येयां कामपि क्लेशदशामुपनयति । अतएव भयानकादिभिरुद्विजते समावः । न नाम सुखास्वादादु गो घटते ।
[नाट्यदर्पण ३-७] ३. इस उद्धरण में रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने स्पष्ट रूप से पांच रसों को सुखात्मक तथा चार रसों को दुःखात्मक कह कर रसों को दो भागों में विभक्त कर दिया है। अत: उनका मत विमज्यवादी मत कहा जा सकता है।
- १. दूसरा प्रसङ्ग जहाँ रामचन्द्र-गुणचन्द्र मभिनवगुप्त के साथ हैं. शान्तरस का प्रकरण है।
शृङ्गार-हास्य-करुण-रौद्र-वीर-भयानका: ।
बीभत्साद्भुतसंज्ञो चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः ।। नाट्यशास्त्र .१५] इस भरतवचन के भाधार पर अनेक विद्वान नाटक में केवल पाठ २सों की स्थिति मानते है। किन्तु अभिनवगुप्त प्रादि अनेक विद्वान् शान्तरस को भी नवम रस मानते हैं। उनके अनुसार इस भरत-वचन के उत्तरार्ध का पाठ 'बीभत्साद्भुतशान्ताश्च नव नाट्य रसा: स्मृताः' इस प्रकार का है । अभिनवगुप्त के नाट्यशास्त्र ने छठे अध्याय पर 'अभिनवभारती' व्याख्या लिखते हुए उसके अन्त में बहुत विस्तार के साथ शान्तरस का विवेचन किया है । उनके पूर्व नाट्यशास्त्र के दूसरे व्याख्याता उद्भट ने भी शान्तरस को नाट्यरस माना है, मोर उक्त भरत वचन के पाठान्तर के मनुसार नवरसों का प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि--
शृङ्गार-हास्य-करुण-रोद्र-बीर-भयानकाः। बीभत्माद्भुत-शान्ताएष नब माटो रसाः स्मृताः ।।
[उन्ट काम्पालं. ४-४] अनट् ने भी शान्त रस को माना है। बल्कि उन्होंने एक प्रेमान् रप को मोर जोड़ कर रसों की संख्या दश कर दी है। उनका श्लोक निम्न प्रकार है
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मजार-बीर-कवण-बीभत्साभयानका ता हास्यः। रोदा शान्तः प्रेयानिति मन्तव्याः रसा। सर्वे।।
[वट काव्यामडार १२-१] पाठ रसों को मान कर शान्तरस का बण्डन करने वालों में दशरूपककार धनम्बय और उनके टीकाकार धनिक का नाम विशेष रूप से उल्लेख-योग्य है । धनजय ने लिखा है
सममपि केचित् प्राहा पुष्टिनाट्येषु नैतस्य । निर्वेदादिरताप्यावस्थायी स्वरते करम् ।।
वरन्यायक तत्तोषस्तेनाष्टो स्थायिनो मताः ॥" [वचस्पक ४, ३.-1६] इसकी व्याख्या करते हुए धनिक ने लिखा है
"इह शान्तरसं प्रति वादिनामनेकविषा विप्रतिपत्तयः । केविदाहुः नास्त्येव शान्तो रसः । तस्थाचार्येण विभावामप्रतिपादनाल्लक्षणाकरणात् । अन्ये तु वस्तुतस्तस्याभावं वर्णयन्ति । पनादिकालप्रवाहायातरागषयोरुन्छेत्त मशक्यत्वात् । मन्ये तु वीरवीभत्सादावन्तर्भावं वर्णयन्ति । एवं बदन्तः थममपि नेच्छन्ति । यथा तथा पस्तु । सर्वया नाटकादी अभिनयात्मनि स्थायित्वमस्माभिः हमस्म निषिध्यते । तस्य समस्तव्यापारविषयरूपस्य मभिनयायोगात् ।
[दशरूपक ४, ३५-३६] दशरूपककार के शान्तरस के विरोधी होने पर भी नाटयशास्त्र के प्रमुख व्याख्याता सूट, भट्टनायक, अभिनवगुप्त मादि ने शान्तरस की सत्ता स्वीकार की है और उसे नाव्यरस माना है इसलिए उसका निषेध करना उचित नहीं है। नाटघदर्पणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र भी इस विषय में अभिनवगुप्त के साथ है । रस के भेद करते हुए उन्होंने लिखा है
मृङ्गार-हास्य-करुणा, रौद्र-वीर-भयानकाः। बीभत्साह.त-शान्ताच, रसा: सद्भिर्नव स्मृताः ।।
[नाटपदर्पण ३, १] (३) शा तरस की स्थिति के बाद तीसरा प्रश्न शान्तरस के स्थायिभाव का है। शान्तरस का स्थायि पाव क्या है ? इस विषय में अनेक मत पाए जाते हैं । मम्मट में 'निर्वेद' को शान्तरस का स्थायिभा ह बतलाते हुए 'निर्वेदस्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः [का० प्र० सूत्र ४. का. ३५] । भरतमुनि ने व्यभिचारीभावों की गणना कराते समय 'निर्वेद' को सबसे पहिला व्यभिचारी भार गिनाया है। तब उसे शान्तरस का स्थायिभाव कसे कहा जा सकता है? यह शंका हो सकती है इस बात को मन में रख कर काव्यप्रकाशकार मम्मट ने उसका समाधान करने का यत्न किया है । उनका कहना है कि 'निर्वेद' स्वरूपतः प्रमङ्गल हए है । उसको व्यभिचारि. भावों की गणना में सबसे पहिले नहीं गिनना चाहिए था। किन्तु भरत मुनि ने उस प्रमाङ्गलिक 'निद' का जो सबसे पहिले ग्रहण किया है, वह इसलिए किया है कि 'निर्वेद' एक ऐसा पाव है वो व्यभिचारिभावों में परिगणित होने पर शान्तरस का स्थायिभाव है। उसकी स्थायिता की सूचना के लिए ही गरत मुनि ने 'निर्व' का ग्रहण सबसे पहिले किया है । मम्मट ने अपने इस अभिप्राय को निम्न प्रकार से प्रकट किया
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"निपस्यामजनप्रायस्य प्रथममनुपादेयत्वेऽपि उपादानं व्यभिचारित्वेऽपि स्थायितां. मिषानार्थम् ।"
[काव्य प्रकाश शानमण्डल पृ०.१३८] सङ्गीतरत्नाकर में भी इसी मुक्तिकम से निर्वेद को शान्त रस का स्थायिभाव सिद्ध करते हुए लिखा है
उहिल्य स्थापिनः, प्राप्ते समये व्यभिचारिणाम् । प्रमालमपि ते पूर्व निर्वेदमेव यत् ॥ मुनिर्मनेऽस्य तन्नूनं स्यायिता-व्यभिचारिते। पूर्वापरान्वयो यस्य मध्यस्यस्यानुषङ्गतः ।।
[सङ्गीतरत्नाकर १३१५-१३१६] नाटपर्पणकार इस बात को नहीं मानते हैं। उनके मत में 'निर्वेद' केवल व्यभिचारिमाव है, स्यायिभाव नहीं है । इसलिए उसे शान्तरस का स्थायिभाव नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने लिखा है"मयं निवेदः रसेवनियतत्वात् कावारिकत्वाच्च व्यभिचारी, म स्थायी।"
[नाट्यदर्पण ३-२८] अभिनवगुप्त ने भी निर्वेद को शान्तरस का स्थायिभाव नहीं माना है । उन्होंने विस्तार पूर्वक इसका खण्डन करते हुए अभिनवभारती में पृ. ६१३-६१७ तक इसका विवेचन किया है । उसके अन्त में लिखा है कि
"ततश्च तस्वमानमेवेदं तस्वमानमालया परिपोष्यमाण. मिति न निर्वेदः स्थायी, किन्तु तस्वमानमेव स्थायीति भवेत् ।"
[अभिनवभारती पु० ६१७] इससे यह स्पष्ट है कि युक्ति कम के मिन्न होने पर भी निर्वेद शान्तरस का स्थायिभाव नहीं है इस विषय में नाटपदर्पणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र अभिनव गुप्त के साथ हैं। नाए रपण या विषय
रामचन्द्र गुणचन्द्र ने अपने 'माटषदर्पण' अन्य की रक्षना यचापि भरत मुनि ६ बाटयशास्त्र के माधार, पर की है किन्तु इन दोनों में बहुत अन्तर है। नाट्य शाः ३६ अध्यायों का एक विशाल विश्वकोष है जिसमें प्रायः समी ललित कलामों का उल्लेख पाया जाता है। उसके सामने नाटयक्षण' बहुत छोटा सा ग्रन्थ है। इसमें नाटयशास्त्र के केवर १८वें अध्याय में पणित विषय काही प्रतिपादन किया गया है । नाटय शास्त्र के १८वें अध्याय का 'दश सपकनिरुपणाध्याय' है। इसमें १ नाटक, २ प्रकरण, ३ ज्यायोग, ४ समवकार, ५ भाण, ६ प्रहसन, ७ डिम, भर.ईहामुग भौर १० वीची इन दस प्रकार के रूपकों का वर्णन किया गया है। इसीलिए इस अध्याय को 'दशा-निरूपणाध्याय' कहते है। इसी प्रध्याय के माधार पर धनञ्जय मे हरूपक' की रचना की थी और उसी के भाषार पर रामचन्द्र गुपपन्न ने. 'नाटपक्षपण की रसना की है।
नाटयशास्त्र के.१८ प्रयाय का नाम 'दशरूपकाध्याय' है, किन्तु उसमें पूर्वोक्त दश पुर व्यकों के निरूपण के साथ सबके संगुर से बम्प दो पकों का भी वर्णन किया है। ये
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( ३२ )
भेद नाटक तथा प्रकरण इन दोनों के मिश्रण से बनते हैं । भरत मुनि ने इनका विधान निम्न श्लोक में किया है-
अनयोश्च बन्धयोगादेको भेदः प्रयोक्तृभिर्ज्ञेयः प्रख्यातस्त्वितरो वा नाटीसंज्ञाश्रिते काव्ये ॥
[ नाटयशास्त्र १८, ५७ ] श्लोक का अर्थ कुछ अस्पष्ट सा है किन्तु इसका यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि नाटक तथा प्रकरण इन दोनों के योग से एक नाटिका या नाटी नाम से प्रसिद्ध भेद समझना चाहिए । अथवा दूसरा प्रकरणी नामक प्रप्रसिद्ध भेद समझना चाहिए। ये दोनों 'नाटी' नाम से कहे जाते हैं ।
इस श्लोक की अस्पष्टता के कारण कुछ लोग 'नाटिका' तथा 'प्रकरणी' दो संकीर्ण भेद मानते हैं और कुछ लोग दोनों के ससुर से बना हुआ केवल एक सङ्कीर्ण भेद मानते हैं और उसे 'नाटी' या नाटिका नाम से कहते हैं। दशरूरककार धनञ्जय 'नाटिका' रूप केवल एक सङ्कीर्णं मेद मानते हैं मोर 'नाट्यदर्पणकार' 'नाटिका' तथा 'प्रकरणी' रूप दो सङ्कीर्ण भेद मानते है । दशरूपक की व्याख्या करने वाले घनिक ने दो भेद मानने का खण्डन किया है। उन्होंने लिखा है"मत्र केचित्
मनयोश्च बन्धयोगादेको भेदः प्रयोक्तुभिर्ज्ञेयः । प्रख्यातस्त्वितरो वा नाटीसंशाधिते काव्ये ||
" इत्यमुळे भरतीयं श्लोकं. 'एको भेदः प्रख्यातो नाटिकाख्यः, इतरस्त्व प्रख्यातः प्रकरणिकासंशो, नाटीसंज्ञया द्वे काव्ये प्राश्रिते' इति व्याचक्षारणाः प्रकरणिकामपि मन्यन्ते । तदसत् । उद्देशलक्षणयोरन मिषानात् । समानलक्षणत्वे वा भेदाभावात् । वस्तु रस-नायकानां प्रकरणाभेदात् प्रकरणिकायाः । अतोऽनुद्दिष्टाया नाटिकाया यन्मुनिना लक्षणं कृतं तत्रायमभिप्रायः- शुद्धलक्षणसङ्करादेव तल्लक्षणे सिद्धे लक्षणकरणं सङ्कीर्णानां नाटिकैव कर्तव्येति नियमार्थं विज्ञायते : " [दशरूपक ३-४३वी टीका ]
इसका अभिप्राय यह है कि 'प्रनयोश्च बन्धयोगात्' इत्यादि भरतमुनि के श्लोक के श्राधार पर कुछ लोग नाटिका और प्रकरणी दो सङ्करकृत भेद मानते हैं । किन्तु उनकी यह मान्यता अनुचित हैं। इसके चार कारण हैं । १. नाटिका तथा प्रकरणी नाम से दो अलग-अलग भेदों का न उद्देश्य अर्थात् नाममात्र से कथन किया गया है घोर न लक्षण । २. यदि नाटिका तथा प्रकरणी दोनों का लक्षण एक सा ही माना जाय तो उनमें भेद नहीं रहता है । ३. प्रकरणी का अलग भेद मानने वाले उसका जो लक्षण करते हैं उसके अनुसार 'प्रकरणी' की वस्तु, रस मोर नायक सब 'प्रकरण' के समान होते हैं इसलिए उसे 'प्रकरण' से अलग मानना असङ्गत हो जाता है । इसलिए प्रारम्भ में कथित 'उद्दिष्ट' न होने पर भी भरतमुनि ने 'नाटिका' का जो लक्षण किया है उसका यह अभिप्राय है कि सङ्करभेदों में से केवल एक 'नाटिका' की रचना करनी चाहिए।
धनिक द्वारा किए इस उत्कट विरोध के बाद भी रामचन्द्र गुणचन्द्र ने 'प्रकरणी' को 'erfeer' free रूपक भेद मान कर उसका लक्षण किया है
' एवं प्रकरणी किन्तु नेता प्रकरणोदितः ।'
अर्थात् नाटिका के समान चतुरङ्कत्व पादि धर्मों से युक्त 'प्रकरणी' होती है। किन्तु इस में भेद यह है कि नाटकोत राजादि नायक के स्थान पर प्रकरणोक्त वणित् यादि नायक होगा
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( २ ) है। इस नायक-भेद के कारण ही इसके नाम का भेद हो जाता है। 'नायकानुसारित्वात् सर्वव्यवहाराणाम्' क्योंकि सारे व्यवहार नायक के अनुसार ही होते हैं । इसलिए प्रकरणोक्त नायक होने के कारण चतुरङ्गत्व प्रादि धर्मों से युक्त रूपक भेद को 'प्रकरणी' कहते हैं . यह ग्रन्थकार का मभिप्राय है। इस प्रकार नाटयदर्पण में १० मुख्य रूपक तथा नाटिका एवं प्रकरणी रूप दो सीर्ण भेदों को मिलाकर कुल १२ प्रकार के रूपकों का वर्णन किया गया है।
दशरूपककार धनञ्जय ने दस प्रकार के मुख्य रूपकों के साथ 'नाटिका' रूप एक सङ्कीर्ण भेद को मिला कर ११ रूपकों का निरूपण किया है । फिर भी उन्होंने अपने ग्रन्थ का नाम 'दशरूपक' ही रखा है । इसका कारण कुछ तो भरतमुनि के नाटयशास्त्र में १८वें अध्याय के लिए प्रयुक्त होने वाला 'दशपकनिरूपणाध्याय' नाम है। उसमें भी नाटिका सहित ११ भेदों का निरूपण होने पर भी उसका नाम 'दशरूपकनिरूपणाध्याय' रखा गया है । उसीके अनुकरण पर धनजय ने भी अपने ग्रन्थ का नाम 'दशरूपक' रखा है। इसके साथ धार्मिक भावना के अनुसार विष्णु के दस अवतारों के साथ भरतमुनि के दशरूपकों का सम्बन्ध जोड़ना भी इसका एक कारण है। अपने मङ्गलाचरण में इस सम्बन्ध को दिखलाते हुए निम्न श्लोक लिखा है--
"दशरूपानुकारेण यस्य मायन्ति भायकाः। नमः सर्वविदे तस्मै विष्णवे भरताय च ॥"
[दशरूपक १, २] जिस प्रकार यहां धनञ्जय ने रूपकों की दश संख्या का अपने इष्ट देव विष्णु [पनाप के पिता का नाम भी विष्णु ही था के दस अवतारों के साथ सम्बन्ध जोड़ कर अपनी धार्मिक भावुकता का परिचय दिया है, इसी प्रकार नाटपदर्पणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने रूपकों की द्वादश संख्या का अपने धर्म में प्रतिपादित प्राचार से लेकर दृष्टिवाद-पर्यन्त द्वादश मङ्गों के साथ सम्बन्ध पोरकर ही. अपना मङ्गलाचरण श्लोक लिखा है
"चतुर्वर्गफलो नियं, जैनों वाचमुपास्महे । रूपदिशभिविश्वं यया न्याय्य धृतं पथि ॥"
[नाटयदर्पण १.१] इस प्रकार दस के स्थान पर १२ रूपक भेदों का निरूपण नाटघदर्पण का प्रतिपाद्य विषय है । इस विषय का प्रतिपादन करने के लिए ग्रन्यकार ने अपने प्रन्थ को चार भागों में विभक्त किया है। उन्हें 'विवेक' नाम से निर्दिष्ट किया है। प्रथम विवेक में उन्होंने केवल नाटक का निरूपण किया है। द्वितीय विवेक में 'प्रकरण' प्रादि शेष ११ रूपक भेदों का निरूपण किया है । इस प्रकार अपने मुख्य प्रतिपाद्य विषय मर्थात् द्वादश रूपों के लक्षणों का प्रतिपादन उन्होंने दो विवेकों में ही कर दिया है। उसके बाद तृतीय विवेक में नाटप से सम्बद्ध वृत्ति, रस, भाव भौर अभिनय मादि का विवेचन किया है, भोर पतुथं विवेक में कुछ ऐसी बातों की चर्चा की है जो सारे रूपकों में समान रूप से उपयोग में पाने वाली है। इसलिए इस विवेक का नाम 'सर्वरूपकसाधारणमक्षणनिर्णयः' रखा गया है। दशरूपककार वनश्चय ने नाटक के अतिरिक्त अन्य रूपक-भेदों के निपल में बहुत संक्षेप से काम लिया है। अधिकांश रूपकों का निरूपण उन्होंने दो चार श्लोकोही समाप्त कर दिया है। नाटयर्पणकार रामचन्द्र-पुरुचन्द्र ने नाटक के समान पन्य रूपक भेदों का निरूपण भी प्रर्याप्त विस्तार के साथ किया है। इसलिए उबका निरूपण धमक्षय की अपेक्षा अधिक स्पष्ट और उपयोगी बन पड़ा है।
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मोदयार्पण के उदाहरण
___ नाट्यदर्पण का विषय-प्रतिपादन जैसे दशरूपक की अपेक्षा अधिक विशद् पोर विस्तुत है, इसी प्रकार उसके उदाहरणों का क्षेत्र भी दशरूपक की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक है । रामचन्द्रगुणचन्द्र ने अपने प्रतिपाद्य विषय के स्पष्टीकरण के लिए इस पम्प में जो उदाहरण प्रस्तुत किए है वे प्रायः ६३ नाटकों से लिए गए हैं। इन ६३ नाटकों की सूची बहुत लम्बी है। दशरूपक में यह बात कहाँ है ? इन ६३ नाटकों में ११ नाटक तो स्वयं रामचन्द्र के अपने बनाए हुए नाटक है। भवभूति के (१२) उत्तर रामचरित (१३। महावीर चरित और (१४) मालती माषव तीनों नाटक इस सूची में उपस्थित है। इसी प्रकार कालिदास के (१५) अभिज्ञान शाकुन्तल, (१६) विक्रमोर्वशीय तथा (१७) मालविकाग्निमित्र इन तीनों नाटकों के उदाहरण इसमें प्रस्तुत किए गए है। यह बात विशेष रूप से उल्लेख योग्य है कि इसमें 'मालविकाग्निमित्र' का नाम सर्वत्र 'मालतिकाग्निमित्र' दिया गया है। विशाखदेव कृत (१८) मुद्राराक्षस नाटक के साथ उनके (१९) देवीचन्द्र गुप्त नाटक के उदाहरण भी इसमें दिए गए हैं। मुरारिकवि के (२०) अनर्घराषव, श्रीहर्ष के (२१) नागानन्द, भोर (२२) रत्नावली, (२३) शूद्रक के मृच्छकटिक, (२४) भट्ट नारायण के वेणीसंहार के उदाहरण भी दिए गए हैं । (२५) मास के स्वप्नवासवदत्तम् तथा (२६) दरिद्रचारुदत्तम् नाटकों का उल्लेख इसमें पाया है । इसमें विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि भास के स्वप्नवासवदत्तम् से 'पादाक्रान्तानि पुष्पाणि' इत्यादि एक ही श्लोक (का० ५३ में अनुमान के उदाहरण रूप में दिया गया है किन्तु वह इलोक 'स्वप्नवासवदत्तम्' के वर्तमान मुद्रित संस्करणों में नहीं पाया जाता है। मोर भास के 'चारुदत्त' का यहां 'दरिद्र चारुदत्त' नाम से उल्लेख किया गया है । (२७) कुन्दमाला नाटक के उदाहरण भी पाए हैं। रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने उसे 'वीरनाग' की रचना बतलाया है जबकि वर्तमान उपलब्ध 'कुन्दमाला' नाटक दिङ्नाग की कृति है । सम्भव है दिङ्नाग का ही दूसरा नाम 'वीरनाग' हो। अमात्य शकुक के (२८) 'चित्रोत्पलावलम्बितम्' नाटक के उदाहरण भी इसमें दिए है। पता नहीं यह शंकुक भरत के व्याख्याकार शंकुक हैं या कोई दूसरे । बाणभट्ट की (२९) कादम्बरी. (३०) कालिदास के कुमारसम्भव, गुणाल्य की (३१) बृहत्कथा, व्यास के (३२) महाभारत पौर भर्तृ मेण्ठ के (३३) हयग्रीववध के उदाहरण भी दिए गए हैं । ये ३३ ग्रन्थ तो प्रायः प्रसिद्ध ग्रन्थ है। किन्तु इनके अतिरिक्त प्रायः ३० ऐसे ग्रन्थों के उदाहरण भी रामचन्द्र गुणचन्द्र ने अपने इस नाट्यदर्पण में प्रस्तुत किए हैं जो अत्यन्त मप्रसिद्ध है, और अब तक प्रकाशित नहीं हुए हैं। उनका कुछ थोड़ा सा परिचय देना आवश्यक है । प्रतः हम इनका सामान्य परिचय नीचे दे रहे हैं। नाट्यदर्पण में उन त ३५ अलभ्य प्रन्थ
१. अनङ्गवती नाटिका-नाट्यदर्पण के तृतीय अनुस्छेद के प्रारम्भ में तीसरी कारिका की व्याख्या में पूर्वरङ्ग के अन्त में 'स्थापक' द्वारा 'भामुख' के अनुष्ठान के उदाहरण के लिए "तथा च 'अनङ्गवत्या नाटिकायां दृश्यते 'पूर्वरङ्गान्ते स्थापक' इति" इस रूप में मनमवती 'नाटिका' का उल्लेख केवल एक बार किया गया है। और कहीं भी इसका उल्लेख नहीं मिलता है। इसका निर्माण किसने और कब किया इसका परिचय प्राप्त होना सम्भव नहीं है । ग्रन्थ के मलम्य होने से उसकी कथा वस्तु का भी पता नहीं चल सकता है ।
भोज के 'शृङ्गारप्रकाश' [११-१४७]. हेमचन्द्र के 'काव्यानुशासन' [८,३३९] तथा शारदातनय के 'भावप्रकाशन' (पृ. २६७ मधि ९] में 'प्रवङ्गवती' का उल्लेख निम्न प्रकार मिलता है
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'क्षुद्रकथा मन्थुल्ली येह महाराष्ट्रभाषया भवति । गोरोचनेव कार्या सानङ्गवतीव वा कविभिः ।।"
[शृंगारप्रकाश ११-१४७] "प्रेतमहाराष्ट्रभाषायां क्षुद्र कथा गोरोचनानङ्गवत्यादिवत् मन्थल्लिका।
क्षुद्रकथा मन्थल्ली प्रेत महाराष्ट्रभाषया भवति । गोरोचनेव कार्या सानङ्गवतीव वार्कचेटी [कवि मिः॥"
काव्यानुशासन सविवेक नि० सा० पृष्ठ ३३६] "क्षुद्रकथा मत्तल्लिका येह महाराष्ट्रभाषया भवति । गोरोचतेक कार्याऽनङ्गवती मावरसविधा ॥"
[भावप्रकाशन पृ० २६७, अधि] इन तीनों ग्रन्था में जिस “पनंगवती' का उल्लेख मिलता है यह नाट्यदर्पण में उद्धृत 'भनंगवती' माटिका से भिन्न कोई और ही चीज है। क्योंकि 'नाट्यदर्पण' को 'प्रनंगवती नाटिका' जैसा कि उसके 'पूर्वरंगान्त स्थापकः' इस उतरण से प्रतीत होता है। संस्कृत भाषा में लिखी गई नाटिका है, और 'शृगारप्रकाश' प्रादि तीनों ग्रन्थों में उल्लिखित 'गोगेचना अनंगवती' महाराष्ट्र को प्रेत भाषा में लिखी हुई कोई क्षुद्र कथा है जिसे महाराष्ट्र भाषा में 'मन्थुल्ली' कहते हैं। इस लिए 'नाटपदपंण" की अनंगवती नाटिका' उससे बिल्कुल भिन्न है।
कमेन्द्र की 'बृहत्कथामंजरी' [५१८-१९] में एक अनंगवती के चरित का उल्लेख मिलता है । सम्भव है कि 'नाट्यदर्पण' वाली 'मनंगवती नाटिका' की रचना इसी कथा के प्राधार पर की गई हो, मौर जैसे उदयन-वासवदत्ता की कया के प्राधार पर अनेक नाटकों की रचना हुई है. इसी प्रकार 'अनंगवती' की यह कथा भी महाराष्ट्र की प्रेत भाषा में क्षुद्र कथा के रूप में प्रसिद्ध हुई हो। इस सबके होने पर भी 'नाटयदर्पण' की 'अनंगवती नाटिका' के कर्ता मादि का विषय बिल्कुल अन्धकार में रहता है ।
२. मनङ्ग सेनाहरिनन्धिप्रकरणम्-'नाट्यदर्पण' के प्रथम विवेक में 'अमर्श सन्धि' के पांचवें भंग 'छादन' के निरूपण में अन्य कार ने
___"यथा श्री शुक्तिवासकुमारविरचिते मनंग सेना-हरिनन्दिनि प्रकरणे नवमेऽङ्क राजपुत्र चन्द्रकेतुना दत्त कर्णालङ्कारयुगलं नायिकया माधव्या नायकस्य प्रेषितम् ।" इत्यादि रूप में 'मनंगसेना-हरिनन्दिप्रकरणम्' का उल्लेख किया है, और उसे 'शुक्तिवास कुमार' की कृति बतलाया है। किन्तु ये 'शुक्तिवासकुमार' कौन है ? इसका कुछ पता नहीं चलता है। इसलिए उनके काल प्रादि का निश्चय नहीं किया जा सकता है।
.. अभिनवराघवम्-नाटपदपंण के तृतीय विवेक में 'प्ररोचना' के लक्षण के प्रसंग में ग्रन्थकार ने निम्न प्रकार से केवल एक बार इस नाटक का उल्लेख किया है
"यया क्षीरस्वामिविरचितेऽभिनवराघवेस्थापक:-(सहर्षम्) मायें ! चिरस्य स्मृतम् ।
मस्स्येव राघवमहीनकथा पवित्र, काव्यप्रबन्धघटना प्रथितप्रथिम्नः । मद्देन्दुराज-चरणाम्जमधुव्रतस्य, क्षीरस्य नाटकमनन्यसमानसारम् ।"
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यह नाटक तो नहीं मिलता है, किन्तु इस श्लोक में उसके कर्ता माविका पर्याप्त परिचय दे दिया गया है । इसके अनुसार 'अभिनवराघव' के निर्माता क्षीरस्वामी, भट्टन्दुराज के शिष्य है। ये भद्देन्दुराज अभिनवगुप्त के भी गुरु है । ध्वन्यालोक की 'लोचन' टीका में प्रभिनवगुप्त ने इनका उल्लेख निम्न प्रकार किया है
भट्टेन्दुराजचरणाजकृताधिवास, हृद्यश्रुतोऽभिनवगुप्तपदाभिषोऽहम् । यत् किंचिदप्यनुरणन् स्फुटयामि काव्या
लोकं सुलोचन-नियोजनया जनस्य ।। यथाऽस्मदुपा यायभटेन्दुराजस्य ।" [ध्वन्यालोकलोचन पृ० ४३, ११६]
इससे प्रतीत होता है कि अभिनवराघव के निर्माता पौर स्वामी कदाचित मभिनवगुप्त के सहपाठी हैं । 'नाट्यदर्पण' के अतिरिक्त (१) कल्हण कृत राजतरंगिणी, [तरंग ४, श्लोक ४९९], (२) अमरकोश के व्यापाता क्षीरस्वामी, (३) हेमचन्द्राचार्यकृत सिद्धहेमशब्दानुशासन [म. १, पु. ४४]. तथा हेमचन्द्र की ही 'मभिधानचिन्तामणि' की स्वोपशनामभावाविवृति [५० ३६०, ४६१] में भी क्षीरस्वाम' के नाम का उल्लेख पाया जाता है । ये सब क्षीरस्वामी कदाचित् एक ही व्यक्ति रहे होंगे। उस दशा में क्षीरस्वामी ने मभिनवगुप्त के काल में ही रामचन्द्र के चरित को लेकर अपने इरए 'अभिनवराघवम्' नाटक की रचना की होगी। पर यह इस समय उपसम्प नहीं हो रहा है।
(४) पर्जुनचरितम्-नाटघदर्पण के तृतीय विवेक में विरुद्ध रसों के विरोध या पविरोध की व्यवस्था के प्रकरण [का० १-२३] में 'अर्जुनचरित' का एक श्लोक केवल एक बार निम्न प्रकार उद्धृत किया गया है-- यथा प्रचुनचरिते
समुत्थिते धनुर्वनी भयावहे किरीटिनः ।
महानुपप्लवोऽभवत् पुरे पुरन्दरविषाम् ॥ पत्र नायकस्य वीरः, प्रतिपक्षाणां तु भयानकः।"
'मर्जुनचरित' के लेखक का यहां नाटयदर्पणकार ने कोई उल्लेख नहीं किया है किन्तु इसके निर्माता ऽवन्यालोककार मानन्दवर्धन है। यह मानन्दवर्धन का लिसा एक महाकाव्य है। मानन्दवर्धन ने अपने ध्वन्यालोक में दो बार इसका उल्लेख निम्न प्रकार किया है
"विपक्षविषये हि भयातिशयवर्णने नायकस्य भयपराक्रमादिसम्पत् सुतरामुघोतिता भवति । यथा मदीये मलुनचरिते अर्जुनस्य पातालावतरणप्रसङ्गे वैशन प्रदर्शितम् ।"
मानन्दवर्घन का यह अर्जुनपरित नाटक नहीं अपितु महाकाव्य है इस बात का उल्लेख भी उन्होंने स्वयं ही किया है
"यथा र मदीय एव पर्जुन चरिते महाकाव्ये x x x" .. रुद्रट के काव्यालङ्कार, की. टीका में 'ममि सानु' - 'पर्युनचरितं भानन्दवर्षनाचार्यप्राकृतकाव्यम्' लिख कर समपरित की साफत का काम्य बतमाया । किन्तु उनका
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( १७ )
यह कथन ठीक नहीं है। जो इसोक यहाँ मापदणकार ने उस किया है वह संस्कृत का प है, इसलिए यह स्पष्ट है कि अर्जुनचरित प्रानन्दवर्धनाचार्य का संस्कृत महाकाव्य है । नमिसाधु मे बिना देखे हो अनुमान से उसे प्राकृत काव्य कह दिया है। यह काव्य इस समय उपलब्ध नहीं है, इसलिए उसका नाम प्रसिद्ध ग्रन्थों की सूची में दिया है।
(५) इन्दुलेखानाटिका - नाटचदर्पण के प्रथम विवेक में निर्वहण अधि के काव्यसंहार नामक धन के निरूपण के प्रस में कारिका ६५ ] सत्यकार ने इन्दुलेला नाटिका का एक प्राकृत भाग उद्धृत किया है [ना० द० १४६५] । किन्तु इस नाटिका का कर्ता कौन है ? इसका कोई परिचय प्रभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है।
X
(६) इग्बुसेलावीषी - नाटघदर्पण के द्वितीय विवेक में 'बोथी' के पांचवें भङ्ग [का० ३३] के निरूपण के प्रसज्ञ में
"यथा इन्दुलेखायो वीच्याराजा - वयस्य !
किं नु कलहंसनादो, मधुरो मधुपायिनां तु भंकारः ? हृदयगृहदेवतायास्तस्या
सनूपुरुष रणः ॥"
नु
यह एक श्लोक उद्धृत किया है। महाराज भोज के 'श्रृङ्गार प्रकाश' (१२-१८८] तथा शारदातनय के 'भावप्रकाशन' [ अधिव, पृ० २३१] में भी यही पक्ष इसी नाम से उड़त किया गया है। किन्तु 'भावप्रकाशन' में 'हृदयगतदेवतायाः' के स्थान पर 'हृदयगतवेदनायाः ' पाठ दिया गया है। नाटघदर्पण तथा शृङ्गारप्रकाश का पाठ एक ही है, और अधिक मच्छा पाठ है । जैसा कि नाम से हो प्रकट है 'इन्दुलेखा नाटिका' तथा 'इन्दुलेखा वीथी' एक ही कथानक पर ऊपर लिखे हुए दो अलग ग्रन्थ हैं, किन्तु दोनों में से किसी के भी कर्ता का पता नहीं मिलता है ।
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(७) उदयमचरितम् - नाटयदर्पण के तृतीय विवेक में आरभटी वत्ति के निरूपण मैं 'ख' के उदाहरण रूप में 'उदयनचरितं किलि जहस्तिप्रयोगः' (पू: १४० ) इस रूप में 'उदयन चरित' का उल्लेख किया है । 'दशरूपक' को 'मवलीक' टीका में [२] ५७, और साहित्य दर्पण [ ६-१३५ ] मैं भी इसी रूप में उदयनचरित्र का उल्लेख किया गया है। वैसे उदयन की कथा संस्कृत साहित्य में प्रत्यन्त प्रसिद्ध और बड़ी व्यापक कथा है। मूलतः उदयन का चरित बृहत्कथा से लिया गया है, और उसके साधार पर अनेक नाटकों की रचना हुई है । सम्भव है उसके आधार पर 'उदयन efer' ares feet नाटक की रचना हुई हो । पर वह न उपलब्ध है मोर न उनके कर्ता का कोई पता चलता है। यहां जिस रूप में उसका उल्लेख हुआ है उसके किसी विशेष नाटक के रूप में नहीं, खिमान्य रूप से उदयन-कथात्मक स्वयनचरित का ग्रहण करने से भी काम वच सकता है। ऐसे माह के काव्योलङ्कार में विजिगीषुमुपन्यस्य वत्सेशं वृद्धदाम' [ ४-१९], कालिदास के मत में 'प्राप्यायन्ती मुदयन कथाकोविदप्रामवृक्ष प्राचार्य हरिभद्रसूरि के 'प्रावश्वक सूत्रवृत्ति' में [पू० ६६-६७, ६७३,६०५], प्राचार्य हेमचन्द्र विरचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिते' [पर्य० १० स १११८४-२६५ ], सोमप्रभ के कुमारपाल प्रतिबोध [ ८०-५९] मादि जन-ग्रन्थों में भी समान रूप से उदयन की कथा का उल्लेख मिलता है । था बात इस कथा की प्रत्यन्त लोकप्रियता की सूचक है ।
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( 5 ) उदासराघवम् नाटघवर्षण में 'उदातराघव' नाटक कम किया गया है। पहली बार प्रथम विवेक की ४५ वीं की
उससे तीन धरी बाद
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प्रथम विवेक की बिल्कुल समाप्ति पर प्रौर तीसरी वार चतुर्थ विवेक की द्वितीय कारिका की व्याख्या में 'दशरूपक' के प्रलोक-टीकाकार ने तृतीय प्रकाश की २५वीं कारिका की व्याख्या में 'यमा छद्मना बालिवघो मायुराजेन उदात्तराघवे परित्यक्तः, इस रूप में उदात्तराघव का उल्लेख करते हुए उसे मायुराज की कृति बतलाया है। वकोक्तिजीवित-कार' कुन्तक ने भी 'यथा उदात्त राघवे कविना वैदग्ध्यवशेन मारीचमृग मारणाय प्रयातस्य लक्ष्मणस्य परित्राणार्थं सीतया कातरत्वेन रामः प्रेरित इत्युपनिबद्धम्' इस रूप में 'उदात्तराघव' का उल्लेख किया है। इन दोनों उल्लेखों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस 'उदात्तराघव' के कवि ने रामचरित को उदास बनाने के लिए उसको कथावस्तु में नये संशोधन किए है। इसीलिए कुन्तक ने लिखा भी है कि
"यथा ( एकस्यामेव दाशरथिकथार्या) रामाभ्युदय उदात्तराघव-वारचरित बालरामायणकुत्याराव - मायापुष्पकप्रभृतयः । ते हि प्रबन्धप्रवरास्तेनं व कथामार्गेण मिरगंलरसाजारगर्भसम्पदा प्रतिपदं प्रतिवाक्यं प्रति प्रकरणं च प्रकाशमानाभिनवभ X x x हर्षातिरेकमनेकशोऽप्यास्वाद्यमानः समुत्पादयन्ति सहृदयानाम् ।"
[वक्रोक्ति जीवित पृ० ५३९ ]
'दशरूपकावलोक' में [३-५६, ३-३१, ४-२३, २८] उदात्तराघव के तीन श्लोक भी उद्घृत किए गए हैं । विश्वनाथ ने साहित्य दर्पण [परि० ६, श्लोक २७, ५०, १५४] में इसके इलोक उदत किए हैं। भोजदेव के 'शृङ्गारप्रकाश' ( पृ० १२], सरस्वती कण्ठाभरण [ १० ६४५१, हेमचन्द्राचार्य के 'काव्यानुशासन' को स्वोपज्ञ मलङ्कारचूड़ामणिवृत्ति [पृ० १५० ] में भी इसके उदाहरण दिए गए हैं। इससे यह नाटक अत्यन्त लोकप्रिय रहा प्रतीत होता है। राजशेखर ने 'मायुराज' को कलचुरि वंश का कवि कहा है। ऐसा जल्हा-संग्रहीत 'सूक्तिमुक्तावली' के निम्न लेख से प्रतीत होता है
"राजशेखर --
मायुराजसमो जातो नान्यः कलचुरिः कविः । उदन्वतः समुत्तस्थुः कति वा तुहिनांशयः ॥
[जल्हरण- संग्रहीत सूक्तिमुक्तावली ४५ ] इस कार बहुप्रशंसित, बहुचर्चित यह उदासराघव नाटक निश्चय ही प्रत्यन्त उच्चकोटि का नाटक रहा होगा. किन्तु दुर्भाग्य से इस समय यह उपलब्ध नहीं हो रहा है ।
( ९ ) कृत्यारावणम् - नाट्यदर्पणकार ने कृत्यारावरण के १३ उदाहरण इस ग्रन्थ में दिए हैं। इस 'प्रमुख' में ने 'अवलगित' का उदाहरण [ २-३६ ], प्रथम अङ्क से 'अधिबल' का उदाहरण [२ - ३१] द्वितीय श्रम से 'वज्र' का उदाहरण [१-५० ], चतुर्थ प्रक से 'प्रार्थना' का उदाहरण [१-५३], षष्ठ अङ्क से 'विद्रव' का उदाहरण [ १ - ५४ ], मोर सप्तम भरत से 'विशेष' और 'शक्ति' के उदाहरण में [१-५६, ६०] ७ उदाहरण तो प्रस्-निर्देश पूर्वक उद्धत किए हैं। इनके अतिरिक्त रूप, युति, खेद, श्राक्ष्य, प्रारभटी-वृत्ति, प्रङ्गोग्यू इन ६ के उदाहरण अङ्कोल्लेख के बिना दिए हैं। इस प्रकार केवल नाट्यदर्पण' में १३ बार 'कृत्यारावण' नाटक का उल्लेख हुआ है । इसके अतिरिक्त अभिनवगुप्त की अभिनवभारती [श्र० १० पृ० ४१०, श्र० ५० पृ० १०४-१०५, प्र० ४२ पृ० १७६ ख० २, ४४४, ५२३, ५२४ ख० ३ पृ० १३, ४०] में जगह भोजदेव के 'शृङ्गारकाश' में प्र० १२, १८७, १६७, २०० तीन जगह, हेमचन्द्राचार्य के काव्यानुशासन-विवेक में एक जगह [अ० ६, पू० २७९ ], शारदातनय के
भाव
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प्रकाश' में [पृ. २३८, २४१] दो जगह और साहित्यदर्पण [परि० ६, इलोक १३७] में भी इसका उल्लेख पाया जाता है । कुन्तक ने भी वक्रोक्तिजीवित में इसका उल्लेख किया है। किन्तु 'शरकावलोक' में इसका एक बार भी उल्लेख नहीं मिला यह प्राश्चर्य की बात है.। इतना प्रसिद्ध यह नाटक भी प्राज उपलब्ध नहीं हो रहा है, यह भी पाश्चर्य की बात है।
(१०) कोशलिकानाटिका-नाटपदर्पण के प्रथम विवेक की दसवीं कारिका की व्याख्या के प्रसङ्ग में केवल एक बार 'कोशालिकानाटिका' का उल्लेख पाया है। इस उल्लेख से वह प्रतीत होता है कि यह नाटिका वत्सराब उपवन के चरित्र को लेकर लिखी गई थी। नाटपर्पण में लिखा है- 'यथा मधीभवनुत (१)शविरचितायो कोशालिकायो नाटिकाया कोशामिकाप्राहिमधिकृत्य प्रवृनस्य वरसगमस्य न प्रासनिकम् ।" इस नाटिका का अन्यत्र कोई नस्लेख नहीं मिलता है, मोर न यह नाटिका ही उपलब्ध होती है।
(११)-विवारपलावनिक असर -जाटपर्पण के प्रथम-विवेक में गर्मसहिए सातवें मग 'उद्वेग' के उदाहरण के प्रसङ्ग में प्रन्यकारने
"यथा प्रमात्पसंकुविरचिते चित्रोपमावलम्बितके प्रकरणे पञ्चमे नेपये सचीत्कारम्-" इत्यादि का में चित्रोत्पमावलम्बितक' प्रकरण को अमात्य शंकुक की कुति घोषित किया है। शंकुक का नाम तो साहित्यशास्त्र के इतिहास में प्रत्यन्त प्रसिद्ध है। काव्यप्रकाशकार ने रस-निरूपण के प्रसङ्ग में चतुर्ष उल्लास में, अभिनवगुप्त ने 'अभिनवभारती में अनेक बार शंकुक का नाम उल्लेख किया है। किन्तु सब जगह उनके मत का खण्डन ही किया गया है। उदाहरणार्थ
तेन संकुकादिभि.x xx वयंव बहुतरमुपम्यस्तम् । [.२ पृ. ६७) शंकुकस्त्वाह x x x एतदप्यसत् । [प० ६, २७४] पत्वत्र पकुकेनोक्त x x x तदसत् [म. ६, २८२] इति धीशंकुकः। एतच्च पूर्वापरविस्मरणविजृम्भितमस्य [अध्याय ६, २६३]
इसी प्रकार यहां नाटघदर्पण में द्वितीय विवेक के 'वीथी' निरूपण के प्रसङ्ग में उनके मत की अनुपादेयता का प्रतिपादन करते हुए अग्थकार ने लिखा है
__ "शंकुकस्तु मधमप्रकृतेायकत्वमनिच्छन् प्रहसनमाणादी हास्यरसप्रधाने विटादे. नायकत्वं प्रतिपादयन् कथमुपादेयः स्यादिति ।"
[नाट ट्यदर्पण २-२८] राजतरंगिणी [स. ४,७०५] में
कविबुधमनः सिन्धः शशांक: शंकुकाभिधः ।
यमुद्दिश्याकरोत् काव्यं सुवनाभ्युदयाभिषम् ।।
इत्यादि पर द्वारा शंकुक को 'भुवनाभ्युदयम्' नामक काम्य का निर्माता बतलाया है। वल्लभदेव-संग्रहीत सुभाषितावलि' में [१२६, ५३८, ५४५, ७५०, ८७३, ८७४, १०६, १२३३, १२३४, ३१२७, ..३७८ संख्या बारह परक के नाम से उड़त किए गए है। माटपशास्त्र के ग्याल्याता के रूप में उनकी विशेष प्रसितिपिपापा के कामानुमासन [प. २०५७ रिसास्वातना भावप्रकायन' (प... २५२ बी क का उस्लेव मिा
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गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि में शंकुक ही इस 'चित्रोत्पलार्वलम्बितक' प्रकरण के निर्माता होंगे। किन्तु वे किसके प्रप्रमात्य थे इसका पता नहीं चल रहा है। यह ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है ।
(१२) छल्तिरामम् - नाटयदर्पणकार ने चार स्थानों पर 'छलितराम' नाटक के नाम का उल्लेख करते हुए उदाहरण प्रस्तुत किए है। कुन्तक के वक्रोक्तिजीवित में भी 'दलितराम' का उल्लेख पाया जाता है । धनिक के 'दशरूपकावलोक' में [१०४१, ३-१३, १७] तीन स्थलों पर, मोज के 'शृङ्गारप्रकाश' [० ११, पृ० १२३], तथा सरस्वतीकण्ठाभरण [१० ३७७, ६४५ ] तथा विश्वनाथ के साहित्यदर्पण [ परि० ६ प २६१] में भी इसका उल्लेख पाया जाता है। किन्तु न तो इसके कर्ता का पता चलता है और न यह ग्रन्थ ही उपलब्ध होता है ।
'व्यायोग' के लक्षण के
(१३) जामदग्न्यजयः - 'नाटचदर्पण' के 'द्वितीय विवेक में प्र में 'स्त्रीनिमित्त संग्राम' जिसमें स्त्री की प्राप्ति के लिए संग्राम न वह व्यायोग होता है। इसका उदाहरण दिखलाने के लिए- 'स्त्रीति मत्र्य संग्रामसंयुक्तश्च । यथा- 'जामदग्नजय परशुरामेण सहस्राजु तस्य वैधः कृतः । इस रूप में इस जामदग्न्यजय व्यायोग' का उल्लेख किया है । 'दशरूपक के मूल में मोर 'अवलोक' टीका में भी व्यायोग के लक्षण के प्रसङ्ग में 'अस्त्रीनिमि तश्च संग्रामो जामदग्न्यजये यथा' [ ३-६१], लिख कर इसका निर्देश इसी रूप में किया गया है । किन्तु इसकी रचना किसने कब की इसका कोई पता नहीं लगा है। यह ग्रन्थ भी इस समय उपलब्ध नहीं हो रहा है ।
(१४) तरङ्गवतम् - नाट्यदर्पण के द्वितीय विवेक में 'प्रकरण' के निरूपण प्रसङ्ग में का० ३ तथा ४ की व्याख्या में दो जगह 'तरङ्गवत्त' प्रकरण का उल्लेख किया गया है। धनिक के 'दशरूपकावलोक' [३-३८], शारदातनय के 'भावप्रकाशन' [भूषि०८, १० २४३], प्रौर विश्वनाथ के साहित्यदर्पण [परि० ६ ० २२६ ] में भी इसका उल्लेख पाया जाता है किन्तु इसका कर्ता कौन है इस विषय में कोई पता नहीं चलता है, भोर न यह ग्रन्थ मिलता है ।
(१५) देवीचन्द्रगुप्तम् - माटयदर्पण' में सात वार देवी चन्द्रगुत नाटक का उल्लेख भाषा है मोर उसे 'मुद्राराक्षसकार' विशालदेव या विशाखदत्त की कृति बतलाया गया है । इन उदाहरणों से इस नाटक की कथावस्तु प्रायः स्पष्ट हो जाती है । राजा रामगुप्त ने प्रबल शकराय के मांगने पर अपनी रानी ध्रुवदेवी को शकराज को समर्पित कर देना स्वीकार कर लिया। बाद को रामगुप्त के भाई चन्द्रगुप्त ध्रुवदेवी के वेष में शकराज के शिविर में गया मौर वहां पहुँच कर चन्द्रगुप्त ने शकराज का वध कर डाला, यह इस नाटक की कथा है। इस कथा का उल्लेख 'हर्षचरित' में पाया जाता है
"शकानामाचार्यः शकाधिपतिः चन्द्रगुप्त भ्रातृजायां ध्रुवदेवीं प्रार्थयमानः, चन्द्रगुप्तेन घ. बदेवीवेषधारिणा स्त्रीवेषजनपरिवृतेन रहसि व्यापादित इति ।"
[ हर्षचरित उ० ५ ० २७० ]
'काव्यमीमांसा' में भी इस कथा का उल्लेख प्राता हैदवा रुद्धगतिः खसाधिपतये देवीं ध्रुवस्वामिनीं यस्मात् खण्डितसाहसो निववते श्रीरामगुप्तो नृपः ।
[ काव्यमीमांसा ०९५० ४७ ]
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इस कथा को लेकर देवीयाप्त नाटक की कमाई
भी बनेक गह पाया जाता है। किन्तु यह अन्य इस समय उपलब्ध नहीं है।
मुद्राराक्षस राधा देवीचन्द्र गुप्त के अतिरिक्त 'मभिसारिकवयितक' नामक एक मार mटक भी विशाखदेव ने बनाया था। इस बात का उल्लेख अभिनवभारती [4. २२ पृ० १९७, वण ३ पृ० २८] तथा 'शृंगारप्रकाश' में मिलता है । यह नाटक वत्सराज उदयन के परितको कर लिखा गया था, यह बात भी निम्न उद्धरणों से विदित होती है
“যথা লিয়াবৰনিম গাগাফিলষ্টি হয় বলী হইয়া पात् लीलाचेष्टितात् कामः प्रत्यालीयः।""- . : भि.पा . २९ १० १९७]
"यथा श्रीविशालदेवकृते भिसारिकापतके वत्सराजः सम्भावितपुत्रवधाय पपावत्य कुस्तम चाम्यवाद
मारR पृ० १९७) १६. पयोनिधिमपनमायण स्विीय विको 'समवकार' के निरूपण प्रसंग में 'पत्र द्वादश नेतारः फल सेवा पृषक पपई
किं वाहरण में 'यथा पयोनिधिमेयने हरि-बमि-प्रभृतीनां समयादिलामाः' इस रूप में 'पयोधिमथन' का उल्लेख होने से यह 'समवकार' प्रतीत होता है । 'दशरूपक' के समवकार निरूपण में भी 'बहुवीररसाः सर्वे यवदम्भोधिमन्यने' [३-६४] इस रूप में 'अम्भोधिमथन' का उल्लेख किया गया है। यह 'पयोधिमथन' का ही दूसरा नामान्तर है। भोमदेव के 'शृंगारप्रकाश' में [प्र. ११ पृ. १४८) तथा हेमचन्द्राचार्य • 'काम्यानुशासन में अपभ्रंश भाषा में लिखे गए एक 'मधिमथत' का उल्लेख निम्न प्रकार मिलता है
"योऽपभ्रशनिबद्धो मात्राछन्दोभिरभिमतोऽल्पषियाम् । वाच्यः स सन्धिबन्धः चतुमुसोक्ताधिमपनादि ॥"
[शृंगारप्रकाश पृ० २१, पृ० १४८] अपभ्रंशभाषानिबद्धसन्धिबन्धमथनादि । [काव्यानुशासन ० ८ १० १३०] पता नहीं इसी 'मम्धिमथन' को नाट्यदर्पण कार ने यहाँ 'पयोधिमथम' के नाम से निविष्ट किया है, या यह कोई अलग ग्रन्थ है । न यह ग्रन्थ मिलता है और न उसके कर्ता मादि का पता चलता है।
१६. पाण्डवानन्दम् - नाट्यदर्पण के द्वितीय विवेक में वीथी' के 'उद्घात्यक' नामक ११वें अंग के उदाहरण में पाण्डवानन्द का सूत्रधार सपा पारिपश्विक की उक्ति-प्रत्युक्ति म 'का भूषा बलिना क्षमा' इत्यादि एक श्लोक उवृत किया गया है। उसकी प्रवतरणिका में- 'यथा पागवानन्दे सूत्रधार-परिपाश्विकयोक्तिप्रत्युक्ती-' इस रूप में 'पाण्डवानन्द' का उल्लेख किया, गया है। पीपी' के प्रसंग में निर्दिष्ट होने के कारण यह 'बीथी' है ऐसा अनुमान होता है। 'पम्पकावलोक' में 'उद्घात्यक' के उदाहरण रूप में तनिक से पाठ भेद के साथ यही पच उड़त किया गया है। 'अभिनवभारती' [म. १८ पु. ४५४] में भी 'पाण्डवानन्द' का यह पर सड़त हुमा है और बारदातनय के 'मावप्रकाशम' [१० २३०] में भी यह पच पाण्डवानन्द' से उड़त पावा पाता है। किन्तु इसका कर्ता कौन पा इसका कुछ भी पता नहीं चलता है पोरन यह अन्य
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१७. पार्षविजयम्-नाटपर्पण के प्रथम विवेक में प्रतिमुख सन्धि के पाठ ग्रंग 'ताप' तथा 'अनुमर्पण' के निरूपण के प्रसंग में 'यथा पार्थ विजये' लिख कर तीन बार 'पार्थविजय के उद्धरण दिए गए हैं। भोजराज के 'शृंगार प्रकाश में भी [५० १२, प्रा० वि० पृ० १६४, १६७. १९१] साम, दूत रूप सन्ध्यंगो के उदाहरण रूप में पार्थविजय' के कुछ घंश उद्धृत किए गये है।
__ "तत्र पुमोऽपि ह्रीः यथा 'पार्थविजये' गन्धर्वः पराजितस्य बद्धस्य अर्जुनेन विक्रम्य मोचितस्य दुर्योधनस्य ।" "तत्र साम यथा पार्थविजये' भगवान् वासुदेवो दौत्येन गतो दुर्योधनमाह"
शृगारप्रकाश प्र० १२, प्रा० वि० पृ० १९७, १६.] 'सूक्तमुक्तावली' में राजशेखर के नाम से निम्न पद्य उद्धृत हुप्रा है
कतुं त्रिलोचनादन्यः कः पार्षविजयं क्षमः । तदर्थः शक्यते द्रष्टुं लोचनयिमिः कथम् ।।"
सूक्तमुक्तावली पि० रि० २, ६३] इस श्लोक से प्रतीत होता है कि इस 'पार्थविजय' के निर्माता त्रिलोचन कवि है। प्रसिद्ध दार्शनिक वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवातिक तात्पर्यटीका' में 'त्रिलोचनगुरूनीतमार्गानुगमनोन्मुखः' लिख कर त्रिलोचन अपना गुरु घोषित किया है। इन्हीं त्रिलोचन कवि का बनाया हुमा यह पार्थविलय' नाटक था। किन्तु इस समय तक उपलब्ध या प्रकाशित नहीं हुमा है।
१८. पुष्पदूतिकम् --'नाट्यदर्पण' के प्रथम तथा द्वितीय विवेक में कुल मिला कर माठ स्थानों पर 'पुष्पगुतिकम्' के नाम तथा उसके उद्धरण दिए गए हैं। 'वक्रोक्तिजीवित' का जो उद्धरण हम 'कृत्यारावण' के विवेचन के प्रसंग में पृष्ठ ३८ पर दे पाए है उसमें भी 'पुष्प दूतिक' का नाम पाया है। अभिनवभारती [अ० १८ पृ. ४३२] तथा 'दशरूपकावलोक' [प्र० ३, श्लोक ४५] में 'पुष्पतिक' का उल्लेख पाया जाता है। इसमें समुद्र दत्त नामक परिणक नायक और कुलस्त्री रूप नन्दयन्ती नायिका की कथा दी गई है । विविध ग्रन्थों में इसके उद्धरण मिलने पर यह ग्रन्थ प्राज उपलब्ध या प्रकाशित नहीं है।
१९. प्रतिमानितम्-'नाट्यदर्पण' के प्रथम विवेक के अन्त में-'श्री भीमदेवसूनोवंसुनागस्य कृतो प्रतिमानिरुद्ध' इन शब्दों में 'प्रतिमानिरुद्ध' नाटक का निर्देश किया गया है। अभिनवभारती [५० १६, पृ० ३] में भी भीमदेव-सूनु वसुनाग की कृति के रूप में 'प्रतिमानिरुद्ध' का निर्देश किया गया है। 'वक्रोक्तिजीवित' में केवल नाटक के नाम का उल्लेख पाया जाता है : वल्लभदेव-संगृहीत 'सुभाषितावली' में [श्लोक १२७४, १२८३, १३६३] तीन एलोक वसुनाग कृत उद्धृत किए गए है । 'प्रतिमानिरुद्ध' के निर्माता वसुनाग के ही बनाए हुए प्रतीत होते हैं । यह नाटक भी इस समय उपलब्ध नहीं है।
. २०. प्रयोगाम्युक्यम्--नाट्यदर्पण के द्वितीय विवेक में 'वीथी' के चतुर्थ अंग 'प्रपंच' के निरूपण के प्रसंग में विदूषक और चेटी का संवाद 'प्रयोगाभ्युदय' से उद्धृत किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि यह 'वीथी' श्रेणी का रूपक है। भोजदेव के 'भंगारप्रकार
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में भी[ ८.१९ प्रयोगाम्युष्य' का ठीक वही स उदाहुमा है। परन्तु यह अन्य श्री इस समय उपलब्ध नहीं है।
२१. बालिकावम्बितकम्-जलविलास में 'बालिकावंचितक' के समाहरण रोकार दिए गए हैं। एक उदाहरण उसके पामुक से लिया गया है। उसमें 'बीपी' के नव भग 'माली' का प्रयोग निम्न प्रकार दिवसाया है"या बालिकावंचित पारिपाश्विक:
तपनीयोज्ज्वलकरकं. कुवलयापि भासमानाकाले।
तेजोमयं दिनकराद् द्वितीयमावव मे भूतम् ।। पत्र निगूढो मारवलक्षणोऽर्थः ..... लोके "द्वितीयमेनं 'मुनि पश्व' इति चतुपादान्यषाकरणेन व्याश्यात इति।"
[नारयदर्पण २-३५] इसमें प्राकाश-मार्ग से कृष्ण के पास पाते हुए नारद का वर्णन है। दूसरे स्थान पर"यथा वा बालिकावञ्चितके
रिष्टस्तावदुरप्रभृङ्गविकटः शैलेन्द्रकल्पा वृषः, सप्तद्वीपसमुद्रजस्य पयसः शोषक्षमा पूतना । केशी वाजितनुः खुरैविघटयेदापनगांन्मेदिनी, सार्थ बन्धुभिरेवमूजितबलं का कंसमास्कन्दति ॥"
[नाटयवर्पण २-३२] मादि श्लोक इस 'बालिकावञ्जितक' से उद्धृत किए गए हैं। इन उद्धरणों से प्रतीत होता है कि यह रूपक कृष्ण की कथा को लेकर लिखा गया है, और उसमें 'बालिका' पद कदाचित् राषा के लिए प्रयुक्त हुपा होगा । दुर्भाग्य से यह रूपक भी उपलब्ध नहीं होता है।
२२. मनोरमावत्सराजम्-नाट पदर्पण के द्वितीय विकेक में 'वीथी' के 'प्रसत्तालाप' नामक पक्ष के निरूपण के प्रसङ्ग में केवल एक वार इसका उल्लेख किया गया है। उसमें "यथा भीमट-विरचिते मनोरमावत्सराजे" इस रूप में इस रूपक का निर्देश किया गया है। जैसा कि इसके नाम से ही प्रकट है यह रूपक वत्सराज उदयन की कथा को लेकर लिखा गया है। उदयन के भरित को लेकर संस्कृत साहित्य में भनेक ग्रन्थों की रचना हुई है। (१) वासवदता, (२) वीणावासवदत्ता, (३) स्वप्नवासवदत्ता, (४) प्रतिज्ञायोगन्धरायण, (५) रत्नावली, (६) प्रियदर्शिका, (७) कौशालिका, (८) अभिसारिकाशितक, (E) तापसवत्सराज, (१०) उदयनचरित मादि सभी ग्रन्थ एक ही कथा को लेकर. लिखे गए है। भीमट कवि का यह 'मनोरमावत्सराज' रूपक उसी श्रेणी में प्राता है। इसके निर्माता भीमट के विषय में अल्हण-संकलित 'सूक्तमुक्तावली' में एक पंच पाया है -
कलिजरपतिश्पके भीमट: पञ्चनाटकीम् । प्रापप्रवन्धराजत्वं तेषु स्वप्नदशाननम् ॥
[सूक्तमुकाबली २:६३] अर्थात् भीमट कवि कलियर के राजा थे। उन्होंने पांच नाटक बनाए थे जिनमें 'स्वप्न-दशानन' नामक सर्वश्रेष्ठ था । पिटसन प्रादि के अनुसार 'रावणीमान' काव्य के निर्माता भीम और फलिभरराज भीमट एक ही व्यक्ति है। वेद की बात है कि उनकी यह कति भी पानी तक प्रकाश में नहीं पाई है।
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).
२३. मल्लिकामकरग्यम् - यह रामचन्द्र का aers बनाया 'प्रकरण' रूप है। 'नाट्यदर्पण' के तृतीय विवेक की २१वीं कारिका की व्याख्या में 'यथा वा अस्मदुपश मल्लिकामकरन्दे प्रकरणे -
इस रूप में 'मल्लिकामकरन्द' का उदाहरण केवल एक धार दिया गया है। भाज से ३०० वर्ष पहिले १७वीं शताब्दी में कान्तिविजयगरण द्वारा तैयार किए गए सूचीपत्र में 'तस्यैव [ पं० रामचन्द्रस्य ] मल्लिकामकरन्दनाटकम्' १५०० । [पुरातत्व पु० दे० प्र० ४ ४२४- १२८ ] इस रूप में मल्लिकामकरन्द. को रामचन्द्र का नाटक बतलाया है। किन्तु यह ठीक नहीं है । क्योंकि ग्रन्थकार ने स्वयं उसे 'नाटक' के स्थान पर 'प्रकरण' कहा है । १५०० इलोक अर्थात् मनुष्टुप् इसका परिमाण था, किन्तु यह ग्रन्थ भब तक प्रप्राप्य भोर अप्रकाशित है ।
प्रास्यं हास्यकरं शशाङ्कयशसां बिम्बाधरः सोदरः पीयूषस्य वचांसि मन्मथमहाराजस्य तेजांसि च । दृष्टिविपचन्द्रिका, स्तनतटी लक्ष्मीनटीनाटघभूः प्रौचित्याचरणं विलासकरणं तस्याः प्रशस्यावधेः ||
२४. मायापुष्पकस्- 'नाटयदर्पण' के प्रथम विवेक में 'बीज' का निरूपण करने बाली २१वीं कारिका की व्याख्या में -
heet मायापुष्पके शापः प्रविश्य वचनक्रमेणाह -
इस रूप में मायापुष्पक का उदाहरण प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार आगे पताका लक्षण के प्रसंग में [का० ३३] फिर 'यथा मायापुष्पके' लिख कर एक उदाहरण प्रस्तुत किया है. इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि यह नाटक है और रामचन्द्र की कथा को लेकर लिखा गया है । अभिनवभारती [ श्र० १३ पू० २१६, अ० १९ पृ० १०, म० २२ पृ० १६९ ] में भी तीन वार इसका उल्लेख हुआ है, मौर कुन्तक के 'वक्रोक्तिजीवित' का जो उद्धरण हम अभी 'कृत्यारावण' की विवेचना (९० ३८) में दे पाए हैं उसमें भी 'मायापुष्पक' के नाम का उल्लेख है । किन्तु इस नाटक का कर्ता कौन है इसके विषय में कोई पता नहीं चलता है, और न यह नाटक अब तक प्रकाशित ही हुधा है ।
मार कर 5 दिखावा है
कैकेयी वव पतिव्रता भगवती क्वैवंविधं वाग्विषं, धर्मात्मा कर रघूदहः क्व गमितोऽरण्यं सजायानुजः । क्व स्वच्छ भरतः क्व वा पितृवधान्मात्राऽधिकं दह्यते किं कृत्वेति कृतो मया दशरथेऽवध्ये कुलस्य क्षयः ॥ "
२५. माययाभ्युबबन - यह नाटक स्वयं नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र कवि का बनाया हुआ है । 'यथा वा वस्मयुपश एव यादवाभ्युदये लिख कर ग्रन्थकार ने अपने इस नाटक से सात स्थानों पर उदाहरण उद्धृत किए हैं । ग्रन्थकार के परिचय के प्रसङ्ग में हमने उनके 'रघुविलास' नाटक के प्रमुख से जो उद्धरण दिया था उसमें उनकी सर्वश्रेष्ठ पांच नाटकों में इस 'यादवाभ्युदय नाटक' का भी नाम है। जैसा कि इसके नाम से ही प्रतीत होता है इसमें यदुवंशी कृष्ण के चरित्र का वर्णन है । कंस और जरासन्ध प्रादि भारत पर कृष्ण के साम्राज्य का प्रदर्शन उसके काव्योपसंहार के निम्न श्लोक
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बातो घोषभुवा विधृत्य मधुजित्, कंस: क्षयं लम्भिता, सम्प्रत्येव विनिर्मितं मगधभूभ: कवन्धं वपुः । पादाक्रान्तमजायताईभरतं तद् अहि नः किं परं? सेयोऽस्मादपि पाण्डवेश! पुनरप्याशास्महे यद् वयम् ।।
[नाट्यदर्पण १-६१] यह नाटक यों तो स्वयं नाटपदर्पणकार रामचन्द्र का बनाया हमा है, किन्तु अब तक अनुपलब्ध और अप्रकाशित है । प्रतः यहां उसका समावेश किया गया है।
२६. रविलासम्-ग्रन्थकार के परिचय के प्रसङ्ग में 'रघुविलास' का जो उद्धरण हम ऊपर दे चुके हैं उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह 'रघुविलास' नाटक नाटघदर्पणकार रामचन्द्र को अपनी कृति है, और वह उनके सर्वश्रेष्ठ पांच नाटकों में से एक है। नाटघदपंण में उन्होंने अपने इस नाटक के १४ उदाहरण दिए हैं। किन्तु दुर्भाग्य की बात है कि स्वयं नाट्यदर्पणकार का यह नाटक भी प्राज तक उपलब्ध तथा प्रकाशित नहीं हो सका है।
२७. राघवाभ्युदयम्-'यादवाभ्युदय के समान यह 'राघवाभ्युदय' नाटक भी नाटपदपंणकार रामचन्द्र का अपना बनाया हुमा नाटक है, और उनके सर्वोत्तम पांच नाटकों में गिनाया गया है। जैनसाहित्य संग्रह खं० १ ० २ की 'राघवाभ्युदयं नाटकं पं० रामचन्द्र कृतं १० मम्' इस टिप्पणी से प्रतीत होता है कि यह नाटक दस ग्रहों का बड़ा नाटक है। किन्तु अन्य कृतियों के समान अब तक अनुपलब्ध मोर पप्रकाशित है।
२६. राधाविप्रलम्भम्-'नाटयदर्पण' के प्रथम विवेक के भात में 'यथा भेजलविरचिते राधाविप्रलम्भे रासकाङ्क परिकर-परिन्यासयोरुपक्षेपेणंव गतवान तन्निबन्धः । एवं परस्परान्तर्भावे चतुरङ्गोऽपि क्वापि सन्धिर्भवति ।" इस रूप में ग्रन्थकार ने 'राधाविप्रलम्भ' को भेज्जल-कवि विरचित रासकार बतलाया है। इसका उल्लेख मभिनवभारती में भी भाया है पौर वहां इसका एक श्लोक निम्न प्रकार उद्धृत किया गया है--
मेधाविशिखण्डि-ताण्डवविधावाचार्यकं काल्पयन् निर्झयो भुरजस्य मूर्छतितरां वेगुस्वनापूरितः । वीणायाः कलयन् लयेन गमकानुग्राहिणीं मूच्र्छनां कलंत्येष च कालकुट्टितलयां रम्यश्रति षाडवे ।"
- [अभिनवभारती दिल्ली संस्करण पृ० २१] इसी पद्य को अभिनवभारती के पंचमाध्याय में फिर 'भेज्जलनाम्ना निजरूपके उक्तम्' [म. ५ पृ० २१४ प्र० ६] इस अवतरणिका के साथ उद्धृत किया है। 'शृङ्गारप्रकाश' में 'यया रासकाङ्क' प्रि० १२, पृ० १८२] इन शब्दों में कदाचित इसी 'रासकार का उल्लेख किया गया है।
२६. रामाभ्युदयम्-नाटघदर्पण में अन्यकार के नाम का उल्लेख किए बिना स्थानों पर 'रामाभ्युदय नाटक' के उद्धरण दिए गए है। इस नाटक के द्वितीया से सीता के प्रति सुग्रीव की सन्देशोक्ति, मारीच, राषण और प्रहस्तहा संवाद. दिए गए है। अर्थ मळू से सीता के पग्नि-प्रवेश प्रादि 'परिपूहन' के उदाहरण मे, सीता-परिवान का मवमानन 'पल साहरण में, भाषा-शिरोमन 'पारपटी'
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(v)
के
लक्षण के अवसर पर बिलाए है। ध्वन्यालोक [उद्योत २, १३३] ध्वन्यालोकलोचन [ उद्योत ३, १४८] शृङ्गार प्रकाश' [० १२१८६, २०१]. 'भावप्रकाशन' [०७, २०० २१२] आदि में भी इस नाटक का उल्लेख पाया जाता है। ध्वन्यालोक -कांचन [ उद्योत ३. ५० ४४८ ] के उल्लेख से ही यह विदित होता है कि इस नाटक के कर्त्ता यशोवर्मा है। क्षेमेन्द्र के |सुसतिलक' [२, ३९ ३ २२] तथा वल्लभदेव-संग्रहीत सुभाषितावली' [१० ६०४] में यशोवर्मा की कृतिरूप ये कुछ श्लोक उद्धत किए गए हैं। वे सम्भवत इसी नाटक से लिए गए है । यशोवर्मा नाम के एक राजा कन्नौज में हुए हैं। उनका काश्मीरराज ललितादित्य से युद्ध हुआ था, चोर उम युद्ध में यशोवर्मा को पराजय का दुःख देखना पड़ा। उनके इस युद्ध का वर्णन 'राजतरंगिणी' में किया गया है
कविवाक्पति राजभवभूत्यादिसेवितः । जितो ययो शोवर्मा तद्गुणस्तुतिवन्दिताम् ॥
'प्रभिवनभारती' श्रादि के निर्माता अभिनव गुप्त के लगभग २०० वर्ष पूर्व उनके पूर्वज प्रत्रिगुप्त इन्हीं कान्यब्जेश्वर यशोवर्मा के यहां रहते थे। इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद काठमीर नरेश बड़े सम्मान पूर्वक उनको अपने यहां लिया ले गए थे। अभिनवगुप्त ने स्वयं अपने 'तंत्रालोक' ग्रन्थ में इस घटना का वर्णन निम्न श्लोकों में किया है
नि दोषशास्त्रसदनं किल मध्यदेशः, तरिमन्नजायत गुणाभ्यधिको विजन्मा | को व्यत्रिगुप्त इति नामनिरुतगोत्र :, शास्त्राब्धिचर्वणकलोखदगस्त्य गोत्रः ।। तम ललितादित्यो राजा स्वकं पुरमानयत् । प्रवरभसाद काश्मीराख्यं हिमालय मूर्धजम् ॥
[गजतरंगिणी त० ४, १४४ ]
[मन्त्रालोक, म० २७]
इन यशोवर्मा के यहाँ विद्वानों का संग्रह था। कवि वाक्पतिराज भवभूति भादि इन्हीं की राजमभा में रहते थे। सम्भव है इन्हीं यशोवर्मा ने इस 'रामाभ्युदय' नाटक की रचना की हो । यह नाटक भी अब तक उपलब्ध या प्रकाशित नहीं हुआ है ।
*
३०. रोहिणी मृगा नाटपदपंण के प्रथम विवेक में 'मुखसन्धि' के 'परिन्यास' नामक तृतीय भङ्ग के निरूपण-प्रसङ्ग मैं
-
'यथा वा अस्मदुपशे रोहिणीसुगा भिधाने प्रकरणे मृगाङ्कं प्रति वसन्तः ।'
इस रूप में 'रोहिणीमुगाड़' को नाट्यदर्पणकार ने स्वयं अपनी कृति घोषित किया
है । आगे फिर 'मुख सन्धि' के परिभावना नामक १२ में अङ्ग के उदाहरण रूप में भी 'रोहिणीमृगा' प्रकरण से एक श्लोक उद्धव किया है। पर यह 'प्रकरण' भी इस समय उपलब्ध नहीं है ।
३१. मापामाटिका- 'रोहिली सुगाड़' प्रकरण के समान 'बनमालानाटिका' भी . स्वयं नाट्यदर्पणकार की कृति है। हंडा कि उन्होंने तृतीय विवेक में २१ वीं कारिका की व्यास्त 'पाइन सम्मों 7: किया है।
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बहष्ट्टिप्पणी पर रखके भागार पर पानी' मारि . ३३८] इस बनमामा नाटिका को अमरचन्द्र की गति तनामा है। किन्तु यह ठीक नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि रामचन्द्र स्वान पर मुंब.से प्रचन्द्र लिख दिया गया है। गणि-कान्तिविरुष के लिए प्राचीमान्दा सूविपत्र' में तो 'प. रामचन्द्रकसा वनमालामाटिका नोक..[पुरातल पु०.६.४,४२४. ४२८] इन शब्दों में 'बममामा माटिका' को रावण की इतिही सावा है। समाटिका का केवल एक ही उदाहरण नाट्यदर्पण में दिया गया है, और यह सवा मल की बाबतीत उक्ति के रूप में है। इससे प्रतीत होता है कि उस माटिका की रपमा भी मल- बन्ती परित को लेकर की गई है। किन्तु यह नाटिका भी इस समय तक उपलब्ध क प्रकाशित नहीं हुई है।
(३२) शिपिविलसितम्-माट्यर्पण के प्रथम विवेक में विमर्श सन्ति के समय के प्रसङ्ग [का० ३९) में विषिवितधितन' का केवल एक उद्धरण निम्न प्रकार दिया है
देवतो यया विषिविलसिते पामे"चुकी-हा विक् कष्टम्, नबोल्लभ्यः प्रानः कर्मविपापवार्ताऽपि नैव यविहास्ति सं राषचन्द्रः तेनोज्झिता विधिविमोहितचेतनेन ।' देवा वने त्रिदशनापविलासिनीमिः,
कतुं गता जगति सस्पमिति प्रवादः॥" इस उदाहरण की लक्षण के साथ योजना करते हुए नाट्यदर्पणकार ने लिखा है-.
"पत्र सूदाचारावलम्बिनि नले देवत्यक्त-दमयन्ती-राज्यप्राप्तिविधनको विमर्शः।" इस पंक्ति से स्पष्ट प्रतीत होता है कि नल-दमयन्ती के चरित्र को लेकर इस नाटक का रचना की गई थी। किन्तु इसका निर्माता कौन था इसका कुछ पता नहीं पलता। नाटक भी अब सक उपलब्ष तथा प्रकाशित नहीं हुमा है ।
__३३. विलक्षाबुर्योधनम-नाट्यदर्पण के प्रथम विवेक में 'प्रतिमुख-शनि के शवम मा 'पुष्प' के उदाहरण [का० ४६] रूप में
यथा विलभदुर्योधने-भीष्मः
एतते हदयं स्पृशामि यदि का साक्षी तवैवात्मक, सम्प्रत्येव तु नोहे यवमवत् तत् तावदाकर्म्यताम् । एक: पूर्वमुवायुषैः स बहुभिहस्ततोऽनन्तरं
यावन्तो वयमाहवप्रणयिनः तावन्त एवापुंनाः॥ इस एक उदाहरण के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी विलादुर्योधन का नाम नहीं मिलता है। इस लिए यह नहीं कहा जा सकता है कि इसका कर्ता कोन है । वह नाटकमा सकराषित भी नहीं हुपा है।
३४. सुपाकल-'माट्यपंख' के द्वितीय विवेक में बीबी मुहब' भामक के.निरूपण में 'यथा प्रस्मदुपड़े सुधाकमशे' पोर 'पपा सुपाकल इन अवतरसिकायों के साथ दो पसोक उपाहरण रूप में प्रस्तुत किए है। ये दोनों ही नोक प्राकृत भाषा है। इससे हमतील होता है कि यह 'सुपाकमशः' नाट्यदर्पणकार रामचनको सुन्दर गापामयी बया भाव-माया प्रधान इति है। यह कोई नाटकमा कलही..अनिए गुणापि
सहवास और
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साहित्य संशोषकसं० १५० २] 'सुधाकलशास्यसुभाषिताकोश: पं० रामचन्द्रकंतः" इस लेख से प्रतीत होती है । पुरातत्व [पु० ८ म० ४, ४२४, ४२८] में पं० रामचन्द्रकृतः सुधाकलशः १३००' इस लेख से यह भी प्रतीत होता है कि इसमें १३०० श्लोक थे। इसमें प्राकृत श्लोकों की प्रधानता थी। यह ग्रन्थ भी अब तक अनुपलब्ध तथा अप्रकाशित है।
३५. हपपीववषम्-'हयग्रीववध' संस्कृत साहित्य का प्रत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके रचयिता भतु मेष्ठ है। इनकी भी संस्कृत साहित्य में प्रत्यन्त प्रशंसा पाई जाती है। काव्यमीमांसाकार राजशेखर ने लिखा है-प्रारम्भ में जो प्रादि कवि वाल्मीकि पे. घे ही अगले जन्म में भर्तु मेण्ठ बने थे। उसके बाद भर्तृ मेण्ठ ने भवभूति के रूप में जन्म लिया और भाज वे ही भर्तृ मेण्ठ राजशेखर के रूप में उपस्थित है। इस प्रकार राजशेखर ने भर्तु मेण्ठ के साथ-साथ अपनी भी प्रशसा कर ली है । राजशेखर का श्लोक निम्न प्रकार है
बभूव वल्मीकि भवः पुरा कविः, ततः प्रपेदे भुवि मत मेण्ठताम् । स्थितः पुनर्यो भवभूतिरेखया स वर्तते सम्प्रति राजशेखरः ।।
[बालरामायण १-१६, बालभारत प्र० १२] राजशेखर ने ही दूसरी जगह काव्यमीमांसा में यह लिखा है कि विशाला अर्थात् उज्जयिनी नगरी में प्राकर बड़े-बड़े महाकवियों की परीक्षा होती है कि कौन कितने पानी में है। उसमें माकर ही कालिदास पोर मत मेण्ठ की परीक्षा हुई। यहीं माकर प्रमर, रूप, सूर मोर भारवि का यश फैला, पौर हरिश्चन्द्र तथा चन्द्रगुप्त की परीक्षा भी यहीं माकर हुई। इन सब कवियों में कालिदास, मत मेण्ठ तथा भारवि तीन तो प्रसिद्ध कवि है, शेष प्रत्यन्त प्रप्रसिद्ध कवि है । फिर भी अपने समय में उज्जयिनी में उसका अपना कुछ विशेष गौरव रहा होगा। राजशेखर का यह लोक निम्न प्रकार है
इह कालिदास-मत मेष्ठी पत्रामर-रूप-सूर-मारवयः । हरिचन्द्र-चन्द्र गुप्तो परीक्षिताविह विशालायाम् ॥
[काव्य मीमांसायाम् मं० १० पृ० ५५] राजशेखर भत मेण्ठ के बड़े भत्त और प्रशंसक थे। यह बात इन ऊपर उद्धृत दिए हुए दोनों श्लोकों से स्पष्ट प्रतीत होती है । बल्हण की संगृहीत 'सूक्तमुक्तावली' में भी राजशेखर के नाम से एक पद्य मिलता है, जिसमें राजरोखर ने भत मेण्ठ की सूक्तियों की तुलना 'मणि' अर्थात् हाथी को होकने वाले अंकुश से और कवियों की तुलना कुंजर से अर्थात् हाथी से की है। राजशेखर का कहना है कि जैसे 'सुरिण' के लगने पर हाथी का सिर घूमने लगता है इसी प्रकार समेठ की सूक्तियों को पढ़ कर कविकुंजर मर्थात् महाकवियों के सिर झूमने लगते है। अपनी इस सुन्दर कल्पना को उन्होंने श्लोक में निम्न प्रकार व्यक्त किया है
"वक्रोक्रया मेष्ठराजस्य वहन्त्या मणिरूपताम् ।
मामिला पुन्वन्ति मूर्षानं कविकुनराः॥" [मुक्तमुक्तावली २-६४] शांघरपद्धति में भी भ मेरठ के बाम का उल्लेख निम्न श्लोक में पाया जाता है
मासो रामिल-सोभिती वररुचिः श्री साहसाकविः छोगारजितकालिबास-तरताबा सुमधुच ।।
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दण्डी बाण-दिवाकरी गणपतिः कान्तश्च रत्नाकरः सिद्धा यस्य सरस्वती रसवती के तस्य सर्वेऽपि ते ।।
___ [शार्गधरपद्धति १८८] कवि पद्मगुप्तने भी-जिनका दूसरा नाम परिमल भी था--'नवसाहसांकचरित' नामक अपने अन्य में मत मेण्ठ का स्मरण बड़े मादर के साथ करते हुए उनकी प्रशंसा-सूचक निग्न दो हलोड लिखे है
तत्त्वस्पृशस्ते कवयः पुराणाः श्री भत मेण्ठ प्रयुखा जयन्ति । निस्त्रिशषारासहशेन येषां वैदर्भमार्गेण गिरः प्रवृत्ताः ।।
[नवसाहसांकचरित ५] मत मेण्ठ सहा कवि संसार में सर्वोत्कर्षशाली है जिनकी वाणी तलवार की धार के समान वैदर्भी रीति का अवलम्बन करके प्रवाहित होती रहती है । इस पद्य में भर्तृ मेण्ठ के काव्य में वैदर्भी रीति की प्रधानता सूचित करते हुए उसकी अत्यन्त प्रशंसा और उसके प्रति मादर भाष को प्रकट किया गया है। उन्हीं पद्मगुप्त ने भर्तृ मेण्ठ की प्रशंसा में दूसरा श्लोक निम्न प्रकार लिखा है
पूर्णेन्दुबिम्बादपि सुन्दराणि, तेषामदूरे पुरतो यशांसि । ये भर्तु मेष्ठादिकबीन्द्रसूक्ति
व्यक्तोपविष्टेन पया प्रयान्ति ॥" [नवसाहसांकचरित ] मर्थात् जो नवीन कविगण भतृ मेण्ठ जैसे कवीन्द्र की सूक्तियों द्वारा स्पष्ट रूप से उपविष्ट मार्ग पर चलते हैं, अर्थात् भर्तृ मेष्ठ के समान वैदर्भी रीति का अवलम्मान करते है उनको शीघ्र ही पूर्णिमा के मन्द्रमा से भी अधिक सुन्दर यश प्राप्त होता है । इस प्रकार हम देखते हैं किन केवल राजशेखर ही भर्तृमेण्ठ के प्रशंसक है, अपितु पयाप्त भी उनके वैसे ही भक्त और प्रशंसक प्रतीत होते हैं.। 'सूकमुक्तावली तया 'शाङ्गाधरपद्धति' भी भतु मेष्ठ का गुणगान कर रही है। इन्हीं प्रसिद्ध कविराज भ मेण्ठ ने 'हयग्रीववर्ष' नामक महाकाव्य की रचना की थी।
काश्मीर के इतिहास 'राजतरंगिणी'. में ऐसी कथा दी हुई है कि भत् भेण्ठ अपने 'हयग्रीन वध' नामक नवनिर्मित महाकाव्य को लेकर काश्मीराधिपति मातृप्त के यहाँ गए। वहाँ उन्होंने अपना सारा महाकाव्य राजा को सुनाया, पर यहां उन्हें एक बार साधुवाद प्राप्त नहीं हुपा म उनको राजा की परसिकता और अपने प्रकवित्व दोनों पर बड़ी पनि हुई। दे अपनी पुस्कार ! बाप मगे तो राजा ने उठकर एक सोने का पात्र उसके नीचे लगा दिया कि कहीं इसकाव्य का माधुर्य नीचे न बिखर जाय । म मेष्ठ राजा के हृदय का भाष समझ कर अत्यन्त बाहुए, और उन्होंने अनुभव किया कि मुझे मेरी रचना के अनुरूप मादर ाप्त हो गया। इससे अफोको समम मार, बाद में रामानेसको जो पनादि दिया वह 6 उनको अनावश्यक . सा प्रतीत हुपा । राजतरंगिणीकार ने इस सुन्दर घटना का उलल बिनम र किया है
हयग्रीववषं मेस्तदने संयन् न । मासमाप्ति तो नापत् साधु साध्विति वा पत्रः ।। अथ अपयितुं तस्मिन् पुस्तकं प्रस्तुरे न्ययात् । मावण्यनिर्यावधिया - RATOR :
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( ५० ) अन्तरशतया तस्य ताश्या कृतसस्कृतिः । भत मेण्ठः कविमने पुनरकं धियोऽर्पणम् ॥
[राजतरंगिणी ३० ३, २६०-२६२] काव्यप्रकाश की 'बालबोधिनी' टीका में वामनाचार्य ने प.१] हयग्रीददध को नाटक बतलाया है। सूर से 'राजकीय प्रन्यमाला' में प्रकाशित काव्यप्रकाश में भी 'हयग्रीववर्ष' का नाटक रूप में ही उल्लेख किया गया है। इसी कारण हमने भी अपनी काव्य प्रकाश की टीका में नाटक रूप में ही उसका निर्देश कर दिया है। किन्तु 'श्रृंगारप्रकरश', 'काव्यानुशासन' प्रादि प्राचीन अन्यों से निति होता है कि यह नाटक नहीं, अपितु 'सर्गबन्ध' महाकाव्य है । हेमचन्द्राचार्य के 'काव्यानुशासन' में [म. ८. ३३७] 'संस्कृतभाषानिबद्धसर्गजन्छ हयग्रीववधादि' लिख कर ग्रन्थकार ने इसे पष्ट रूप से श्रय काव्य ही सूचित किया है। भोजदेव के 'शृंगारप्रकाश में भी 'हयग्रीववध' का अनेक स्थानों पर उल्लेख पाया है। वहाँ भी इसे महाकाध्य ही माना है। 'श्रृंगारप्रकाश' में कुछ स्थल, जिनमें 'हयग्रीववध' की पर्चा की गई है निम्न प्रकार है"हयग्रीवधादयो महादेवादीनामैतिहासिकं चरितमावेदयन्ति ।"
[शृङ्गारप्रकाश प्र० १२, पृ० १६८] "मासीद दैत्यो इयग्रीवः......."
[सं० प्र० ११, पृ० १४०]] रात्रिवर्णनं किरातर्जुनीय-कुमारसम्भव-शिशुपालबष-हयग्रीववषादी।"
[शृङ्गारप्रकाश प्र० ११, पृ० १५२] यस्मिन् इतिहासानिपेशलान् पेशलान् कविः कुरुते । स हयग्रीववधादिप्रबन्ध व सगंबन्धः स्यात् ॥"
शृङ्गारप्रकाश प्र० पृ. १५६] कवि क्षेमेन्द्र ने 'सुवृत्त लिलक' [३, १६] में सगंबन्ध महाकाव्य के प्रारम्भ में अनुष्टुप के प्रयोग का उदाहरण देते हुए हयसीववष का 'मासीद दैत्यो हयग्रीवः' इत्यादि पर नत किया है। इससे भी प्रतीत होता है कि हमनीववर्ष' नाटक नहीं, काम्य है।
श्री मङ्ख कवि ने अपने 'श्रीकण्ठचरित' में अत्यन्त अक्षा के साथ भतुंमेष्ठ कविका उल्लेख करते हुए लिखा है---
मेण्टे स्वद्विरदाधिरोहिणि, बंधं याते सुबन्धी विषेः - शान्त हन्त च भारवी, विषटिते बाणे विवादस्पृशाः।
वाग्देव्या विरमन्तु पत्र विधुरा द्राग् स्प ष्टते
शिष्टः कश्चन् स प्रसादयति जयद्वाणि सदारिणनी॥ ऐसे महाकवि थे मत मेण्ठ, बिनका यशोगान संस्कृत साहित्य के अनेकानेक कवियों ने मुक्तकण्ठ से किया है । किन्तु काव्यप्रकाशकार मम्मट की दृष्टि में मेष्ठकपि चे नहीं। उन्होंने दो तीन जगह मे कवि का उल्लेख किया है पर यह प्रसंसा-व्यंबक नहीं है। सबसे पहिले काव्यप्रकाश के प्रपा उल्लास में उन्होंने सबसे निकष्ट चित्र काव्य का सो उदाहरण दिवा है यह हयग्रीववष में से बोल कर निकाला है
विनिर्मतं मानवमात्ममन्दिराब - भवत्युपश्रुत्व पाल्पयापि वा।
स-सम्भमेन्द्रतिपातिवाचा निमोविवावि भिवामपती॥
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__ यह श्लोक टीकाकारों के अनुसार भतमेण्ड के 'हक वर्ष' से लिया गया है। श्लोक में कवि ने यह भाव प्रस्तुत किया है कि जिस समय हयग्री प्रसाद से केवल घूमने के लिए ही निकलता था और उसका समाचार यदि इन्द्र को पता जाता था तो इन्द्र इतना भयभीत हो उठता था कि सैकड़ों नौकर-चाकरों के होते हुए भी भाग र अपनी 'नगरी अमरावती का फाटक बन्द कर देता था, और उस फाटक के बाद होने पर कति यह उत्प्रेक्षा करता है कि मानो हयग्रीव के डर के कारण अमरावती नायिका ने मानी पाखें मीच ली है।
हयग्रीव के प्रभावातिशय का वर्णन ऋषि ने कितने सुन्दर ढंग से किया है। नगरी का द्वार बन्द करने के लिए इन्द्र की उतावली, और मनरावती के भय से मोख मीचने की उत्प्रेक्षा, इस पद्य में कुछ चमत्कार दिखला रही है। पर का प्रकाशकार ने स्से मधम काव्य की कोटि में रखा है।
जैसा कि ऊपर पुष्ट ५० पर उद्धृत शृङ्गारप्रकाश के उद्धरण से विदित होता है कि 'हयग्रीवाय' में महादेव के ऐतिहासिक चरित का वर्णन किया गया है. हयग्रीव इसमें प्रतिनायक है । शिशुपालवध' आदि के समान इस काव्य का नामकरण भी नायक नहीं अपितु प्रविनायक के नाम पर हुमा है। इसके नायक महादेव है। उनके द्वारा इयग्रीव का वध इसमें दिखलाया गया है। किन्तु उसके वध के पूर्व हयग्रीव के प्रतापातिशय का वर्णन बहुत विस्तार के साथ किया गया है। इसलिए काव्यप्रकाशकार ने रसदोषों के प्रसङ्ग में 'अङ्गस्याप्यतिविस्तृतिः' दोष के उदाहरण रूप में फिर 'हयग्रीववष' का ही उल्लेख किया है। "अङ्गस्याऽप्रधानस्यातिविस्तरेण वर्णनं यथा हयग्रीववधे हयग्रीवस्य ।"
काव्यप्रकाश, ज्ञानमण्डल सं० पृ० ३६२] इन सब उल्लेखों से प्रतीत होता है कि काव्यप्रकाश मम्मट की दृष्टि में हयग्रीववध एक नितान्त निम्न श्रेणी की कृति है। हमारे प्रस्तुत नाटघ दर्पणकार राम चन्द्र-गुरणचन्द्र मम्मट के इस विचार से सहमत नहीं है । मम्मट ने हयग्रीव के जिस अतिशय वर्णन को रस दोष माना है, रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने उसे दोष न मान कर रस का उत्कर्षाधायक गुण माना है। उनके मत में हयग्रीव के अतिशय वर्णन को यदि दोष ही कहा जाय तो वह 'वृत्त-दोष' मथति कथा का दोष हो सकता है, रस का दोष नहीं। रस की दृष्टि में तो वह वर्णन वीररस का उत्कर्षाधायक ही है अपकर्षकारक नहीं। इसी प्रसङ्ग में 'नाटयदर्पण' में केवल एक वार हयग्रीववध का उल्लेख नाट्यदर्पणकार ने किया है । मम्मट ने जिसे 'भङ्गस्याप्यतिविस्तृति' दोष कहा है उसे माट्यदर्पणकार ने 'मनोग्य' नाम से निर्दिष्ट किया है । इसके उदाहरण रूप में उन्होंने 'कृत्यारावण' से जटायुवध, लक्ष्मण-शक्तिभेद, सीताविपत्ति-श्रवण आदि से उत्पन्न वार-वार वणित करुण रस के अतिशय को प्रस्तुत किया है, और उसके बाद काव्यप्रकाशकार के मत का खण्डन करते हुए उन्होंने लिखा है
__ "केचिदत्र हयग्रीववधे हयग्रीववर्णनमुदाहरन्ति । से पुनर्वसदोषो वृत्सनायकस्याल्पवर्णनात् । तत्र हि वीरो रसः, स विशेषतो वध्यस्य शौर्यविभूत्यतिशयवर्णनेन भूष्यते ।"
नाट्यदर्पण ३-२३] अर्थात् [काव्यप्रकाश कारकादि] कुछ लोग 'हयग्नीववध' में हयग्रीव के वर्णन को इस 'प्रोग्य' के उदाहरण रूप में प्रस्तुत करते है, किन्तु वह वृत्त-अर्थात् कथा भाग का दोष है, क्योंकि कथा के नायक का वर्णन उसमें कम किया गया है। वह रस का दोष नहीं है । क्योंकि उस 'हयग्रीववध' का मुख्य रस वीर रस है, और वध्य के शौर्य, वीर्य, विभूति मादि के भतिशय वर्णन से उस मुख्य बीर रस का उत्कर्षाधान ही होता है, अपकर्ष नहीं । इसलिए हयग्रीव का प्रतिशय वर्णन रस दोष नहीं कहा जा सकता है! यह नाट्यपंणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र की सम्मति है।
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। ५२ ) भर्तु मेण्ठ अपनी रसवती रचना के लिए ही तो इतने प्रसिद्ध है। यदि वै मम्मट के अनुसार केवल अधम चित्रकाव्य के निर्माता होते तो क्या उन्हें इतनी प्रसिद्धि प्राप्त हो सकती है ? और क्या राजशेखर जैसे मनस्वी कवि का सिर जो कि अपने को वाल्मीकि का मवतार मानता है भर्तुमेण्ठ के सामने श्रद्धा से मुक सकता था। और क्या उस नीरस प्रथम काव्य को सुनकर ही 'प्राविद्धा इव कुन्वन्ति मूर्धानं कविकुञ्जराः' की उक्ति चरितार्थ हो सकती थी? ये सब उक्तियां भर्तु मेण्ठ की इस महती रचना की अपूर्व रसवत्ता की परिचायिका है। मम्मट ऐसे मालोचक है, जो अपनी 'दोषदृष्टि के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध या बदनाम है। अपनी इसी 'दोष दृष्टि के कारण 'हयसीव वध' में उन्हें सर्वत्र दोष ही दोष दिखलाई दिए हैं। पर राजशेसर,पपगुप्त, बिल्हण मादि अन्य कवियों एवं पालोचकों को दृष्टि में भर्तु मेण्ठ एक 'रससिः कवीश्वरः' है। ऊपर 'राजतरंगिणी' से माहगुप्त तथा भर्तृ ण्ठ की जिस कथा का उल्लेख किया गया है वह भी इसी बात की पुष्टि करती है । 'लावण्यनिर्याणधिया तषः स्वरणंभाजनम्' की बात भी तो हयग्रीषवष की अतिशय रसवत्ता को हो सूचित कर रही है। बड़ोदा से प्रकाशित 'उदय सुन्दरी कपा' में उसके निर्माता कायस्य कवि सोवा ने भी तो भत मेग्ठ की इस 'रससिद्धता की प्रशंसा करते हुए लिखा है
"स कश्चिदालेल्यकरः कवित्वे प्रसिद्धनामा मुवि भ मेष्ठः । रसप्लवेऽपि . स्फुरति प्रकामं,
वर्णेषु यस्योज्ज्वलता तथव ॥" इस प्रकार के बहुप्रशंसित, महुचित और बड़े बड़े कवियों के श्रद्धाभाजन भत मेण्ठ की एकमात्र कृति को प्रथम काव्य की श्रेणी में रखना और उससे रसदोषों का अनुसन्धान करना मम्मट की केवल दोषदृष्टि की विशेषता को ही प्रत्यापित करता है। मत मेण्ठ हो भब भी 'कश्चिदालेख्यकरः कवित्वे'-कविता के पूर्व चित्रकार हैं। जिनके चित्र में 'रसप्लवेऽपि रस का . प्रवाह भरा होने पर भी, और दूसरे पक्ष में पानी पड़ जाने पर भी 'स्फुरति प्रकामं वर्णेषु यस्योज्ज्वलता तथैव' वर्णो की, और दूसरे पक्ष में चित्र के रंगों की चमक वैसी ही बनी रहती है तनिक भी मलिन नहीं हो पाती है। उपसंसहार.
यह ३५ नाटकों मोर काव्यों का परिचय हमने यहाँ उपस्थित किया है। इन ग्रन्यों का उल्लेख संस्कृत साहित्य के भनेकानेक ग्रन्थों में पाया जाता है। प्राज से ८०० वर्ष पूर्व १२वीं शताब्दी में नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र के समय में ये अन्य उपलब्ध थे। ग्रन्थकार ने उनमें से अनेक उद्धरण स्वयं दिए हैं। परन्तु पाज तक ये ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुए है। सम्भवतः उपलब्ध भी नहीं हुए हैं । अन्यथा उनका प्रकाशन अवश्य होता। इतने सुप्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थों का इस ८०० वर्ष के बीच में सर्वथा लोप हो बाना माश्चर्य की बात है, या फिर उनकी अब तक उपलब्धि न होना हमारे प्रमाद की सूचक है । नाट्यदर्पणकार ने इन महत्त्वपूर्ण प्रन्पों का नाम मोर परिचय हमको दिया, इसके लिए हम उनके कृतज्ञ है। अब इनकी सोष करना मोर उनके प्रकाशन की व्यवस्था करना हमारा काम है। पाशा है विद्वज्जन इस दिशा में विशेष रूप से प्रवल करेंगे ताकि उनकी उपलब्धि सर्वसाधारण को हो सके।
विस्पर सिवान्तशिरोमणि बसन्त पञ्चमी, सं० २०१७
प्राचार्य जनवरी १९९१
गुरुकुम मिश्वविद्यासप वृन्दावन
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सम्पादकीय (क) नाट्यदर्पण में रूपकेतर काव्यशास्त्रीय प्रसंग
नाट्यदर्पण अपने नाम के अनुरूप नाट्यशास्त्रीय प्रन्य है, जिसे ग्रन्थकारों ने चार विवेको में विभक्त किया है। इन्होंने रूपक के दश मेवों में नाटिका और - प्रकरणी को जोड़कर इसके कुल बारह भेद स्वीकार किये हैं। इन जैन लेखकों ने इतनी संख्या शायद इसलिए गिनायी है कि 'जैनी' वारणी के भी १२ रूप माने गये हैं। ग्रन्थ के प्रथम विवेक में 'नाटक' नामक प्रथम रूपक-भेद का स्वरूप एवं विवेचन प्रस्तुत किया है और द्वितीय विवेक में 'प्रकरण' भादि शेष ग्यारह भेदों का। तृतीय विवेक में रसवृत्ति, रस, रस-दोष तथा अभिनय का विवेचन है तथा चतुर्थ विवेक में आपकोपयोगी अन्य सामग्री का, जिसके अन्तर्गत नायक-नायिका भेद को भी स्थान मिला है। इस प्रकार
ग्रन्थ में रूपक-सम्बन्धी प्रचलित सामग्री को एकत्र निरूपित, व्यवस्थित एवं विवेचित किया गया है। कलेवर को दृष्टि से सर्वाधिक स्थान ग्रन्थ के प्रमुख विषय रूपक को ही मिला है । इस दृष्टि से दूसरा स्थान रस का है और तीसरा स्थान नायक-नायिका भेद का। उक्त विषयों के अतिरिक्त इस ग्रन्थ में कतिपय अन्य विषयों पर भी मानुषंगिक रूप से प्रकाश पड़ गया है, जैसेकाव्यप्रयोजन, काव्यहेतु, कवित्व-महिमा, प्रलंकार, वक्रोक्ति, भौचित्य, अनौचित्य, दोष मादि । इस लेख में रूपक के परिरिक्त प्रायः सभी प्रसंगों पर ग्रन्थकारों का दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाएगा। १. काव्यप्रयोजन
इस ग्रन्थ में काव्यप्रयोजन-प्रसंग को स्वतन्त्र स्थान नहीं मिला। ग्रन्थ के निम्नोत मंगलाचरण
चतुर्वर्गफलां नित्या जैनी वाचमुपास्महे ।
रूपैदशभिविश्वं यया न्याय्ये धृतं पथि ॥ --में ग्रन्थकारों ने 'जैनी' वाणी की उपासना करते हुए इसे चतुर्वर्ग-फल-प्रदायिनी कहा है और अपनी वृत्ति में इस फल को अभिनेय वाक्य अर्थात् दृश्यकाम्य के साथ भी सम्बद्ध किया है । इस सम्बन्ध में उनका मन्तव्य इस प्रकार है :
१. दृश्य काव्य द्वारा धर्म, मयं पौर काम ये तीनों फल तो प्राप्त होते ही हैं, इससे मोक्षप्राप्ति भी होती है।
२. मोक्ष-प्राप्ति का एक कारण तो यह है कि इससे सहृदय को शिक्षा मिलती है कि रामादि के समान माचरण का ग्रहण करना चाहिए और रावणादि के समान माचरण का त्याग । दूसरा कारण यह है कि धर्म नामक पुरुषार्थ की स्वीकृति कर लेने पर इसके द्वारा परम्परा-रूप से मोक्ष-प्राप्ति भी सम्भव है।' हा मोक्षप्राप्ति म फल धर्म की अपेक्षा गौण फल होता है।' १. प्रचामिनेयवापरतया इलोकोऽयं व्यायायते । पचपि सामार धर्मार्थकामफलाम्येव
नाटकाचीनि तपापि 'रामवर सितम्यं न राबसवा' इति हेयोपादेयहानोपाबानपरतया,
धर्मस्य मोलहेतुतया मोसोऽपि पारम्पर्षण फलम्। -हिन्दी नाटपर्पण पृष्ठ ११ २. मोबस्तु धर्मकार्यत्वात गौवं फलन् । -वही, पृष्ठ २१
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( ५४ ) ३. 'जैनी' वाणी के अनुरूप काव्य के द्वारा भी इन पुरुषार्थों में से रचयिता अथवा पाठक को वही फल प्रधानता से प्राप्त होता है जो उसे प्रभीष्ट होता है और शेष फल उसे गोण रूप से मिलते हैं।
४. जनी' वाणी से तात्पर्य काव्य-नाटक भी लिया जा सकता है, क्योंकि यह वाणी (रचना) भी 'जिनों' अर्थात् राग प्रादि के विजेताओं-काव्यनाटककारों-की होती है।
काव्यप्रयोजनों में पुरुषार्थचतुष्टय को सर्वप्रथम भामह ने स्थान दिया था और इनके उपरान्त रुद्रट और कुन्तक ने । अग्निपुराणकार ने मोक्ष को छोड़ कर शेष त्रिवर्ग को ही काव्यप्रयोजन माना था । रामचन्द्र-गुणचन्द्र के उपरान्त विश्वनाथ ने भी पुरुषार्थ-चतुष्टय को काव्यप्रयोजन के रूप में स्वीकार किया। इन चारों में से अर्थप्राप्ति ऐसा प्रयोजन है, जिस पर कोई विवाद नहीं किया जा सकता। 'धर्म' से तात्पर्य यदि 'धार्यते इति धर्म:' अर्थात् शुभ कर्तव्य का पालन है, तो यह काव्य का साक्षात् प्रयोजन न होकर प्रसाक्षात् प्रयोजन है । कर्तव्य वस्तुत: उस कर्म का नाम है जिसे हम दूसरों की प्रेरणा प्रथवा उपदेश द्वारा करते हैं तथा दूसरों के उपकार के लिए करते है, किन्तु काव्य-सर्जन अन्तःप्रेरणा से प्रसूत होने के कारण न तो दूसरों की प्रेरणा अथवा उपदेश की अपेक्षा रखता है और न इसके द्वारा दूसरों का उपकार करना कवि का प्रमुख उद्देश्य होता है । और यदि 'धर्म' से तात्पर्य 'पुण्यफल-प्राप्ति' लिया जाए तो इसे भाज के बुद्धिवादी युग का मानव स्वीकार नहीं करेगा। ठीक यही स्थिति 'मोक्ष' नाम काव्यप्रयोजन की भी माननी चाहिए, क्योंकि स्वयं ग्रन्थकार ने धर्म और मोक्ष में कारण-कार्य सम्बन्ध स्वीकार किया है। शेष रहता है एक पुरुषार्थ- 'काम' अर्थात् अभीष्ट फल की प्राप्ति । 'काम' शब्द से यदि मानवीय रागात्मक भावों की इच्छापूर्ति यह अभिप्राय लिया जाए तो इसे प्रकारान्तर से प्रलोकिक मानन्दप्राप्ति का पर्याय मान सकते हैं जिसे मम्मट ने 'सद्यःपरनिर्वृति' नाम दिया है। वस्तुत: यही फल काव्य का.प्रमुख एवं अभीष्ट प्रयोजन है । किन्तु नाट्यदर्पण में इसे स्पष्ट शब्दों में स्थान नहीं मिला।
इस ग्रन्थ के इस प्रसंग में उपयुक्त एक विशेषता उल्लेखनीय है कि जो सहृदय जिस फल-प्राप्ति के लिए काव्य-निर्माण अथवा काव्य-पठन करता है उसे वही फल तो प्रमुख रूप से मिलता है और शेष फल गौण रूप से । निस्सन्देह उनकी यह धारणा अन्य काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में देखने को नहीं मिलती। किन्तु 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' इस कथन पर भी माज का बुद्धिवादी मानव पूर्ण प्रास्था एवं विश्वास नहीं रखता । दूसरी उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इन्होंने काव्य-नाटक की रचना को भी 'जैनी' वाणी इसलिए कहा है कि यह राग प्रादि के विजेतानों को वारणी होती है । ग्रन्थकारों ने यद्यपि श्लेष के बल पर ही यह खेंचतान करने का प्रयास किया है, किन्तु उनकी यह धारणा निस्सन्देह मान्य है । काव्य-नाटक प्रणेता इनके प्रणयन के समय सांसारिक राग-द्वेष, सुख-दुःख, लाभ-हानि मादि द्वन्द्वों से ऊपर उठ चुका होता है । चित्त की एकाग्रता के बिना वह कवि-कर्म भी नहीं कर सकता। समाधि की अवस्था अथवा वेद्यान्तरस्पर्शशून्यता इस कर्म के लिए नितान्त मनिवार्य है । तटस्थता इस कर्म की भाषारशिला है । यही कारण है कि किसी उद्देश्य को लक्ष्य में रख कर रचित ग्रन्थ अथवा काव्य-नाटक वास्तविक 'काव्य' कहाने के अधिकारी नहीं होते ऐसे काव्यों से साम्प्रदायिकता अथवा 'प्रापेगण्डा' के दुर्गन्ध की लपटें उठा करती है।
१. इष्टलक्षणत्वाम्ब फलस्य यो यस्य पुग्वार्थोऽभीष्टः स तस्य प्रधानम् । -वही, पृष्ठ । २. जिनाना रागावितला नालाबपनापेक्षयं बनी। -वही, पृष्ठ ११
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२. काव्यहेतु
संस्कृत काव्यशास्त्रियों में से जिन्होंने काव्यहेतुमों का निरूपण किया है उनमें से दण्डी वामन, रुद्रट, कुन्तक और मम्मट का नाम उल्लेख्य है। मम्मट ने पूर्ववर्ती काव्यशास्त्रियों का सारग्रहण करते हुए केवल तीन काव्यहेतु निविष्ट किये थे-शक्ति, निपुणता पौर अभ्यास । नाटपदर्पण के रचयितामों ने इस मोर स्पष्ट संकेत नहीं किया। ग्रन्थारम्भ में काव्यनाटप-निर्माण पर चलता-सा प्रकाश डालते हुए वे कहते है कि 'बो कवि निधन से लेकर राजा तक की 'मोचिती' पर्थात् उनके सामान्य व्यवहार से अवगत न होते हुए भी काव्य-निर्माण की कामना करते है, वे विद्वज्जनों के उपहास के पात्र बनते है
पारगद पति पापोषिती न विवन्ति ये।
स्पयन्ति कवित्वाय, रेलनं ते सुमेषसाम् ॥ ११८ तया जो नाटककार न तो गीत, वाच, नुत्य प्रादि जानते है, न लोकस्थिति से परिचित है, और न प्रबन्धों अर्थात नाटकों का पभिनय ही कर सकते है वे भी नाटक-रचना करने के अधिकारी नहीं है
मगीतवाद्यवृत्तमा नोकस्थितिविवो माये।
अभिनेतुंरतुंबवास्ते पहिमुनाः॥ उपयुकदोनों पों में दो काम्पहेतुपों की प्रकारान्तर से पर्चा हुई है : गीत, वाब, नृत (नृत्य) मभिनय मादि का क्रियात्मक मान तपा रंक से राजा-पर्यन्त लोक-व्यवहार से परिचिति। इन दोनों हेतुओं को रुद्रट पोर कुन्तक के शब्दों में अधिकांश सीमा तक 'व्युत्पत्ति' कह सकते है. पौर मम्मट के शब्दों में निपुणता' । पूर्ण सीमा तक इसलिए नहीं कि इन प्राचार्यों ने 'व्युत्पत्ति' और 'निपुणता' के अन्तर्गत लोक-व्यवहारमान के प्रतिरित काम्यग्रन्यों एवं काव्यशास्त्रीय प्रन्यों का पठन-पाठन भी सम्मिलित किया है। प्रस्तु.! रामचनगुणचन्द्र के उपयुकपन से यह समझना चाहिए कि उन्हें केवल 'व्यवहार-माम' को ही काम्यहेतु मानना अभीष्ट होगा भोर वेष दो को, प्रतिमा मौर मम्यास को, नहीं। जैसे कि ऊपर बह पाये है उनका उद्देश्य काव्यहेतुनों का निरूपण करना नहीं था, केबल कवित्व-महिमा प्रकरण में उन्होंने इस प्रसंग की चर्चामात्र कर दी है। निस्सन्देह शक्ति अथवा प्रतिभा काव्य-रचना का अनिवार्य हेतु है, और मोकज्ञान तथा इसके साथ साथ 'अभ्यास' गौण हेतु है, किन्तु इन दोनों से शक्ति का परिकार एवं संस्कार होता है-यह भी प्रसन्दिग्ध रूप से सत्य है। प्रतिमास्य हेतुः । पुत्पत्यम्यासान्या संस्कार्या।
. -काम्यानुशासन (हेमचन), पृष्ठं ६ ३. कवित्व-महिमा
विद्वज्जनों को शास्त्रज्ञान के साथ विकर्म में भी निपुण होना चाहिए, इस सम्बन्ध . में इस ग्रन्थ में इन शब्दों में पर्चा की गयी है-जिस प्रकार लावण्य नारी का प्राण है उसी प्रकार कवित्व सफल विचामों का प्राण है। यही कारण है कि तीनों पियामों प्रति तीनों वेदों के ज्ञाता भी सर्वदा कवित्व-निर्माण की अभिलाषा रखते है । सत्य तो यह है कि विस्व-निर्माण का समाव विद्वानों के लिए एक ऐसा कलंक हैसा कि मासिका के ऊपर कोढ़ का होता है, अथवा यह अमाव ऐसा है जैसे किसी मृगनयनी केसरीर पर कुतों का प्रभाव हो । मोर धायद इसी कलंक
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एवं प्रभाव से बचने के लिए] कई लोग मन्य कवियों के काव्यों द्वारा कवि बनना चाहते है । किन्तु यह प्रवृत्ति तो उक्त कलंक की भी चूलिका प्रर्थात् बद्धक है।
उक्त प्रसंग से दो विषय हमारे सामने माते है-अन्य शास्त्रज्ञान के साथ-साथ कविकर्म का भी अपेक्षित रहना तथा चौरकवि की निन्दा ।
अन्य शास्त्रज्ञान के साथ फकिकर्म में भी नैपुण्य होना किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व में निस्सन्देह शोभावृद्धि का कारण बन सकता है, पर इसके प्रभाव में किसी के व्यक्तित्व में न तो कलंक लगने की सम्भावना करना समुचित है। मोर न ही कवित्व को सकल विद्यानों का प्राण समझना । शास्त्र-ज्ञान बुद्धि एवं मस्तिष्क का व्यापार है और कवि-कर्म हृदय का। प्रतः शास्त्रीय चर्चा मोर कवित्व में एक दूसरे का पुट दे देने से इनमें से किसी का भी यथावत् एवं सम्यक् रूप उपस्थित नहीं होता । क्योंकि कवित्व में कल्पना एक अनिवार्य तत्व है मौर उधर शास्त्रीय चर्चा तथा कल्पना का पारस्परिक विरोध है । इस आधार पर निस्संकोच कहा जा सकता है कि शास्त्रवेत्ता को अपने सिद्धान्तों का निरूपण, प्रतिपादन प्रयवा सम्पादन करते समय कविकर्म की नितान्त अपेक्षा नहीं रहती। यदि कविकर्म से तात्पर्य पद्य-निर्माण है तो यह तात्पर्य संकुचित सीमित एवं एकदेशीय होने के कारण यथार्थ नहीं है, मौरन ही रामचन्द्र-गुणचन्द्र को सम्भवतः यही तात्पर्य अभीष्ट होगा। प्रतः कवित्व को सकल विद्यामों का 'प्राण' समझना मनुचित है। यदि कविकर्म से तात्पर्य 'पद्य-निर्माण' ले भी लिया जाए तो भी मुद्रण-यन्त्र के इस युग में हर शास्त्रीय अथवा लौकिक चर्चा को पच-बद रूप में प्रस्तुत करना हास्यास्पद एवं प्रवाञ्छनीय है । हो, यदि कोई शास्त्रवेत्ता कवि भी है तो यह विशिष्टता जैसे कि ऊपर कह पाए है उसके व्यक्तित्व में शोभा-वृद्धि का कारण बन जाएगी, किन्तु इसका प्रभाव उसके कलंक का कारण किसी भी रूप में नहीं है।
पौरकवि की निन्दा जितनी को बाए पोड़ी है। दूसरों की रचना को अपना बताने वाला तो चोर है ही, किन्तु दूसरों का भावापहरण करके उसे अपने शब्दों में प्रस्तुत करने वाला तो पहले प्रकार के चौर कवि की अपेक्षा कहीं अषिक दम्भी है, प्रतः अधिक परापी प्रौर निन्दनीय है । ऐसे 'कवियों' की निन्दा भनेक रूपों में की गही है। इस सम्बन्ध में काम्पशास्त्रियों में राजशेखर के और कवियों में बाणभट्ट के कपन प्राय: उक्त किए जाते है। इसमन्ध के हिन्दी व्याख्याकार प्राचार्य विश्वेश्वर ने राजशेखर के उबरण प्रस्तुत किये है (. पृष्ठ ६) बाणभट्ट ने चौरकवियों की भर्त्सना हुए कहा है।
भन्यवलपरावृत्या वि । मनाया सता मध्ये विवीरो बिवाव्यते ॥
हर्षचरितम् १६ १, प्राणः कवित्वं विधान सावधानिय योषिताम् ।
विषयेविनोऽप्यस्म ततो नित्यं तिस्पृहा ॥ नासिकान्ते हवं वित्र प्रयोग रमायो। कुचामावः पुरनाक्याः काम्यामातो, विपश्चितः ॥ प्रकवित्वं परस्तावत् कल पाठशालिनान् । सम्यकाम्यैः कवित्वं इमरस्यापि निका।
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'इस सम्मान में विधारसरह है कि विवह स्वीकार किया जाता है कि मोमिकता' नाम का तस्व नितान्त दुर्लभ है, तो भावसाम्प के माधार पर किसी की मखना क्यों की जाए? भावसाम्य का एक कारण तो मानव-मन का ऐक्य है । विभिन्न देश और काल में वर्तमान व्यक्तियों ने जो कि प्रत्येक दृष्टि से एक दूसरे से अप्रमावित है एक ही प्रकार के विचार प्रकट किये है। निस्सन्देह इस प्रकार का भावसाम्य उपस्थित करने वाला व्यक्ति किसी भी रूप में अपराध तथा निन्दा का पात्र नहीं है। कभी कोई बात, कोई घटना अथवा कोई विचार पढ़ा-सुना जाने.पर हमारे हृदय के किसी कोने पर जा पड़ता है और फिर कमी परिस्थितिवश जागृत होकर अनायास वारणी अपवा लेखनी द्वारा निःसृत हो जाता है और भाव-साम्य का कारण बन जाता है। किन्तु इस प्रकार की साम्पता पर मानव का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि नतो वह दूसरों के विचारों को अपने मन में संस्कार रूप में प्रसुप्त होने से रोक सकता है और न ही उन्हें अभिव्यक्त होने से । कभी हम दूसरों के विचारों को पड़ और सुनकर .. उन्हें नवीन एवं व्यवस्थित रूप में प्रतिपादित करने के लिए लालायित हो उठते है और उन्हें निबन्ध, कविता, नाटक, कहानी उपन्यास प्रादि के रूप ढाल देते हैं। निस्सन्देह यह प्रक्रिया भी निन्दनीय नहीं है, क्योंकि इससे पूर्व भावों को नवीन दिशा मिलती है, हमारी, कल्पना का संयोग पा कर ये भाव कहीं अधिक स्पष्ट, विशद, ग्राह्य एवं प्रभावशाली बन जाते हैं। इस पुनराम्यान-प्रक्रिया को चाहें तो मौलिकता का नाम भी दे सकते हैं। पूर्वज्ञात भाव हमारी कल्पना का योग पाकर यदि नवीन रूप में प्रतिपादित हो जाएं तो इसे 'मौलिकता' मान लेने में अधिक मापत्ति भी नहीं होनी चाहिए । भव देवल शेष एक रूप रह जाता है जो प्रत्यन्त भसनीय है, वह है-दूसरे के भावों का बाह्य कलेवर बदल देना, दूसरे के शब्दों के स्थान पर अपने शब्दों मोर दूसरों की वाक्यवली के स्थान पर अपनी वाक्यवली को रखते चले जाना पोर इस दम्भ की प्रारमें कपि पौर विचारक कहलाना । यह प्रवृत्ति पूर्णतः त्याज्य है। ४. अलंकार
ग्रन्थ के मूल भाग में निम्नोक्त स्थलों पर प्रकार की चर्चा हुई है :
१. कथा मादि का मार्ग प्रलंकारों द्वारा कोमल होने के कारण सुखपूर्वक संचरसीय है, किन्तु नाटक का मार्ग रस की कल्लोलों से परिपूर्ण होने के कारण प्रत्यन्त पठिन है।'
२. वह पाणी को श्लेष अलंकार से पुरु होने पर भी रसप्रवाह से रहित होने के कारण कठोर होती है वह [भोक्ता के मन को उस प्रकार प्रमुस्मित नहीं करती जिस प्रकार दुर्भग [भात यौन रस न निकलने के कारण कठोर भग पानी] स्त्रियां [पुरुषों को माहादित नहीं करती।'
३. नाटक नामक रूपक में प्रबंधारा रस का बलन मात् स्खलन अथवा भंग नहीं होना चाहिए : पाकमावता ॥१॥ १. अलंकारमृतः पापाः कवादीमा पुसम्परः ।
कुसन्धारस्तु नाट्यस्म सालोलासंकुमः ॥ १॥ २. इलेवालंकारमानोऽपि रसानियनकक्षा।
दुर्मगार कामिन्यः पीपन्तिममनो विरः ॥१॥
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उक्त स्थला के अतिरिक्त निम्नोक्त वो मन्य स्थलों में प्रकार की चर्चा साक्षात् न हो कर प्रसाक्षात् रूप से हुई है:
१. जो कवि (नाटककार) नानाविध शब्द तथा अर्थ के लील्य (चमत्कार) कारण रस रूप अमृत से पराङ्मुख हो जाते है वे विद्वान् होते हुए भी उत्तम कवियों की गणना में नहीं पाते।
२. काव्य (नाटक) में पर्व और शब्द की उत्प्रेक्षा (कल्पना) इतनी इलाध्य नहीं है जितना कि रस इलाध्य है। पका हुमा और सुन्दर भी माम यदि रस-शून्य हो तो [भोक्ता के मन में] उसके प्रति उद्वेजना (पणा, अरुचि) उत्पन्न हो जाती है।
___ इन दोनों स्थलों में शब्द मोर पर्ष के लोल्य (चमत्कार) और इनकी उत्प्रेक्षा (कल्पना) से ग्रन्थकारों का तात्पर्य शब्दालंकार और प्रर्थालंकार से ही है।
ग्रन्थ के मूलभाग में अन्यत्र भी 'प्रलंकार' शब्द का प्रयोग हुमा है, पर वहां इस शब्द से तात्पर्य है-नायिका के यौवनस्थ भाव, हाव भादि २० धर्म जो तीन सों में विभक्त किये गये है। किन्तु प्रस्तुत प्रकरण से इन प्रलंकारों का कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि ये शम्दार्य रूप काव्य-शरीर के शोभाकारक धर्म न होकर नायिका के व्यक्तित्व के शोभाकारक धर्म है।
उपयुक्त उद्धरणों में से प्रथम उखरण में कक्षा की भपेक्षा नाटक को इस प्राधार पर उत्कृष्ट माना गया है कि रस के बिना भी केवल अलंकार-प्रयोग के बल पर कचा का निर्माण हो सकता है किन्तु नाटक के लिए रस एक अनिवार्य तत्व है। वस्तुतः यह धारणा संस्कृत के दशकुमारचरित, वासवदत्ता मादि कथा-पाख्यायिका साहित्य को लक्ष्य में रखकर प्रस्तुत की गयी प्रतीत होती है, जिनमें अलंकारों का प्रतिशय प्रयोग हुपा है । इसका एक कारण पाठक की दृष्टि से था और दूसरा कारण कवि की दृष्टि से । यह साहित्य सामान्य स्तर से उच्च वर्ग के लिए निर्मित होता था। इनसे एक ओर ये पाठक अनुप्रास, यमक, श्लेष, परिसंख्या, विरोधाभास मादि से चमस्कृत होते नहीं अघाते थे, और उधर दूसरी ओर 'गचं कवीनां निकषः वदन्ति' इस उक्ति के माधार पर गवकार की सिद्धि एवं प्रशंसा का प्राधार अलंकार-प्रयोग द्वारा चमकार-प्रदर्शन समझा जाने लगा था। किन्तु उक्त धारणा वर्तमान कथा-साहित्य के लिए नितान्त उपयुक्त नहीं है। नाटक के समान इसके लिए भी रस-तत्व का समावेश नितान्त अनिवार्य है, और अलंकार की इसे भी विशेष प्रपेक्षा नहीं रहती। इसी प्रकार प्रबन्धकार मोर मुक्तककार कवियों में भी रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने इसी प्रकार का ही भन्तर निर्देश किया है जो कि युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। .. १. मानार्थशब्दलौल्येन पराञ्चो ये रसामृतात् ।
विद्वांसस्ते कवीद्राणामहन्ति न पुनः कयाम् ॥ ना० १० १०६ २. न तपार्यशब्बोत्प्रेक्षाः इलाध्याः काम्ये पया रसः ।
विपाककनमप्यानं उद्वेषयति नीरसम् ॥ मा०३० २२२ ३. . ना० २०४।२७,२८ ४. x x x x x। योग्यतां च रसनिवेशकव्यवसायिनः प्रबन्धकवयो विवन्ति, न पुनः शब्दार्थप्रथन-वैचिश्यमानोन्मविष्णवो मुक्तकवयः ।
हि. ना. १० पृष्ठ १९७
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उक्त द्वितीय उखरण में रस मोर प्रलंकार के पारस्परिक सम्बन्ध पर प्रकाश डालते हुए प्रकारान्तर से अलंकार को रस की अपेक्षा दो स्थितियों में अनुकृष्ट माना गया है :
(क) रस ही काव्य का अनिवार्य धर्म है, अलंकार नहीं,
(ख) अलंकार का अनुचित प्रयोग रसास्वाद में बाधक बनता है। ये दोनों धारणाएं रस-सिद्धान्त के ही अनुकूल प्रस्तुत की गयी है।
प्रलंकारवादियों ने सभी काव्य-शोभाकर धर्मों को 'अलंकार' की संभाते हुए किसी विशेष काव्यांग को काव्य के अनिवार्य तत्व के रूप में स्वीकृत नहीं किया था। उनकी दृष्टि में न केवल अनुपास एवं उपमा मादि ही अलंकार थे, अपितु गुण, रीति, रस, ध्वनि, नाटयवृत्ति भादि ये सभी मी काव्यशोमाकर होने के कारण 'अलंकार' नाम से अभिहित किये गये थे। प्रतः उनके मनुसार यदि किसी काव्यांग को काम का मनिवार्य तत्व स्वीकृत करना चाहें तो उसका नाम 'अलंकार' ही होगा। चाहे वह मनुप्रास-उपमा प्रादि का वाचक हो, अथवा गुण, रीति, रस पौर ध्वनि का। किन्तु इधर रसवादियों ने केवल रस को ही काव्य की प्रास्मा अर्थात् अनिवार्य तत्व स्वीकृत किया, तथा भलंकार को शनार्थ का प्राभूषक धर्म मानते हुए प्रकारान्तर से इसे रस का भी उत्कर्षक मान लिया और वह भी नित्य रूप से नहीं। नित्यरूप से प्रलंकार को रस का उत्कर्षक धर्म न मानने का कारण यह है कि यह शब्दार्थ का शोभावर्द्धक होते हुए भी कभी तो रस का उत्कर्ष करता है, कभी नहीं करता और कभी इसका अपकर्ष भी कर देता है-ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कटक-कुण्डल प्रादि कामिनी के शरीर के शोभवर्द्धक होते हुए उसकी मनःस्थिति के अनुसार कभी उसकी प्रात्मा का उत्कर्ष करते हैं, कभी नहीं करते और कभी अपकर्ष भी करते हैं।
रस और अलंकार के पारस्परिक सम्बन्ध निर्देश-प्रसंग में भलंकारवादियों का यह मन्तव्य भी उल्लेखनीय है कि वे रस, भाव प्रादि को अंगीभूत और अंगभूत दोनों रूपों में स्वीकार करते हुए इन्हें निम्न रूप से 'प्रलंकार' में अन्तर्भूत करते थे-अंगीभूत रस को रसवद् अलंकार में, अङ्गीभूत भाव को प्रेयस्वद् में, मनीभूत रसाभास एवं भावाभास को उर्जस्वी में, मनीभूत भावशान्ति को समाहित में। इनके अतिरिक्त मलीभूत भावोदय, भावसन्धि और भावशबलता को इन्हीं नामों के ही प्रलंकारों में भरसभूत किया गया है । इसके अतिरिक उन्होंने मङ्गभूत रस, भाव मादि सब को द्वितीय उदात्त प्रलंकार ही में अन्तत किया। किन्तु वस्तुतः रस, भाव मादि से. अन्य चमत्कार नितान्त बाह्य न होकर नितान्त भान्तरिक है । प्रलंकार की रचना अनिवार्यतः कवि के सायास शब्द-योजन पर प्राघृत है मौर उसका चमत्कार 'नाद तथा प्रथं पर । किन्तु इधर रसपूर्ण काव्य की रचना के लिए शब्दयोजन अनिवार्य तत्व नहीं है, और इसका मास्वाद नाद एवं अर्थ पर प्राधृत न होकर व्यङ्गधार्थ पर माघृत है । शब्दयोजन यदि अलंकृत न भी हो, तो भी सरस रचना व्यङ्गयार्थ के बल पर सहृदय के लिए मास्वाद-प्रदान की क्षमता रखती है । 'प्राधान्येन व्यपदेशाः भवन्ति' इस सिद्धान्त के अनुसार यह निष्कर्ष निस्संकोच निकाला जा सकता है कि एक और 'अलंकार' कविनिष्ठ है तो दूसरी ओर 'रस' सहृदय-निष्ठ । मूलतः इन्हीं आधारों पर रसवादी रस को अलंकार में अन्तर्भूत करने के विरुद्ध हैं । उन्होंने रस को काव्य को प्रात्मा के रूप में स्वीकार करते हुए अलंकार को अननिवार्य रूप में इसका उत्कर्षक धर्म मान लिया । अतः उन्होंने .. १. ' काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते ।
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मङ्गोमूत रस, माव पारिको इन्ही मामों से ही अपिहित किया। हां, मङ्गभूत रस, भौर भाव को इन्होंने कामः रसप पौर प्रेयस्वद् अलंकार नाम दिया, रसमास तथा भावाभास को ऊर्जस्वी अलंकार और भावशान्ति को समाहित अलंकार । इसके अतिरिक्त भावोदय मादि तीनों को मजरूप में परिणत होने पर इन्हीं नामों के ही मलंकारों से अभिहित किया गया । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि रसवद् मलंकारों को अनुप्रास तथा उपमा मादि के समान चित्रकाव्य का अंग न मानकर पुरणीभूतम्बाप के 'पपरस्याङ्ग नामक भेद का अंग स्वीकार करके मम्मट ने प्रकारान्तर से वह भी संकेत किया कि ये भलंकार अनुप्रास, उपमा पादि प्रलंकारों को प्रपेक्षा उच्च भाव-भूमि पर अवस्थित है क्योंकि इनमें वाच्याथं की अपेक्षा व्यङ्गपार्थ भले ही गौण हो, किन्तु अनुप्रास, उपमा भादि के समान इनमें वाच्यार्य की अपेक्षा व्यङ्गपार्थ की प्रस्फुटता नहीं होती।
रसवादी भाचार्यों का प्रकार के प्रति यही इष्टिकोण है, मोर इसी के ही प्राधार पर रामचन्द्रगुणचन्द्र की उक्त कथन में प्रकारान्तर से स्वीकृति है कि रस ही काव्य का अनिवार्य धर्म है, भसंकार नहीं।
प्रब रामचन्द्र-गुणचन्द्र की दूसरी धारणा को लें कि प्रलंकार का अनुचित प्रयोग रसास्वाद में बाधक बनता है। दूसरे शब्दों में, प्रकार का मौचित्यपूर्ण प्रयोग ही रस का उत्कर्ष कर सकता है, पनौचित्यपूर्ण प्रयोग नहीं । इस सम्बन्ध में वामन, भोजराज और क्षेमेन्द्र के निम्नोत कवन अवलोकनीय है :
प्राभूषणों के प्रादर्श-प्रयोग के लिए केवम ऐसा शरीर ही अधिकारी है जो हर प्रकार से सुपात्र हो। इस दृष्टि से न तो अचेतन शव अलंकारों का अधिकारी है, न किसी यति का शरीर पौर न किसी नारी का यौवनवन्ध्य वपु ।'घर सजीव, स्वस्थ, सुन्दर शरीर पर भी माभूषणों का प्रयोग मौचित्य की अपेक्षा रखता है-मंजन की कालिमा बड़ी बड़ी मांखों में ही शोभित होती है भन्यत्र नहीं, मुक्ताहार उन्नत पीन पयोषरों पर सुशोभित होते हैं अन्यत्र नहीं
दीर्घापांगं नयनयुगलं भूषयत्यजनधीः
तुङ्गाभोगी प्रभवति कुचावचितं हारयष्टिः । १००भ० १३१६० किन्तु इसके विपरीत कण्ठ में मेखला का, नितम्बफलक पर सुन्दर हार का, हाथों में नूपुरों का, परणों में केयूरों का प्रवधारण कितना कुरूप, मदा और हास्यप्रद बनेगा यह कहने की मावश्यकता
१. (क) तथा हि प्रचेतनं शवशरीरं कुण्डलायुपेतमपि न भाति, अलंकारयाभावात् ।
यतिशरीरं कटकादियुक्त हास्यावहं भवति, प्रलंकारस्य अनौचित्यात् । (स) वपुरिव यौवनवन्ध्यमङ्गनायाः । का० सू० वृ० ३३११२ (पत्ति) २. कण्ठे लेखलया नितम्भफलके तारेण हारेण वा।
पाणी नूपुरबन्धनेन धरणे केयूरपाशेन वा॥ शौर्य प्रगते रिपो कवरणया, नायान्ति के हास्यतां, पोधित विना वधि प्रतन्ते, नालंकृतिर्नोगुणाः ।।
च०, पृष्ठ १
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( ६१ )
उन तीन कथनों से स्पष्ट है कि भाभूषणों का प्रयोग जहाँ सजीव एवं सुन्दर शरीर की अपेक्षा रखता है, वहां मौचित्य भी उसके लिए अनिवार्य तत्व है । काव्यगत प्रलंकारों के शोभावह प्रयोग में भी इन्हीं दोनों तत्त्वों की अनिवार्यता अपेक्षित है - ( १ ) प्रलंकारों का सरस काव्य में प्रयोग (२) सरस काव्य में भी अलंकारों का भौचित्यपूर्ण प्रयोग । एक प्रोर यदि शव, यति-शरीर अथवा यौवनवन्ध्यवपु पर श्राभूषणों का श्रवधारण एक कोतुहल मात्र है, तो दूसरी मोर नीरस काव्य में भी अलंकार प्रयोग का अन्य नाम 'उक्तिवैचित्र्य मात्र' है - 'यत्र तु नास्ति रसः तत्र ( अलंकाराः) उक्तिवैचित्र्यमात्रपर्यवसायिनः । जिस प्रकार हाथों में नूपुरों का और चरणों में केयूरों - का बन्धन समुचित नहीं है, उसी प्रकार विप्रलम्भ शृङ्गार में भी यमक आदि का बन्धन समुचित नहीं है । तात्पर्य यह कि लौकिक और काव्यगत दोनों प्रकार के अलंकारों का जीवन और उनकी प्रलंकारिता उचित स्थानविन्यास पर ही प्राश्रित है। फिर भी शरीर सौन्दर्य की अपेक्षा काव्यसौन्दर्य अधिक संवेदनशील है । उदाहरणार्थ रकार का अनुप्रास विप्रलम्भ शृंगार के एक उदाहरण में रस का उपकार करता है तो टकार का अनुप्रास उसी ही रस के दूसरे उदाहरण में रस का उपकार नहीं करता।' तभी मम्मट को प्रलंकारों के विषय में लिखना पड़ा - क्वचित्तु सन्तमपि नोपकुर्वन्ति । स्पष्ट है कि एक ही रस के दो उदाहरणों में कोमल वर्णं 'रकार' और कठोर वर्ग 'टकार' की साता प्रथमा प्रसह्यता का उत्तरदायित्व भौचित्य के ही सद्भाव अथवा प्रभाव पर निर्भर है ।
जहाँ तक शब्दालंकारों भौर अर्थालंकारों के पारस्परिक तारतम्य का प्रश्न है, संस्कृत का काव्यशास्त्री शब्दालंकारों के प्रयोग के मनोचित्य के विषय में अपेक्षाकृत अधिक प्राशंकित रहा है। यही कारण है कि दण्डी जैसे प्रलंकारवादी ने भी अनुप्रास मौर यमक के प्रति अपनी अवहेलना प्रकट की है, * प्रोर रुद्रट जैसे प्रलंकारप्रिय प्राचार्य ने अनुप्रास अलंकार की स्वसम्मत मधुरा, प्रोढा प्रादि पाँच वृत्तियों के औचित्यपूर्ण प्रयोग पर विशेष बल दिया है। मानन्दवर्द्धन ने अनुप्रास बन्ध के विषय में एक चेतावनी दी है कि 'श्रृंगार के सभी प्रभेदों में अनुप्रास का बन्ध सदा एक सा प्रभिव्यंजक नहीं हुआ करता । प्रतः कवि को इस अलंकार के श्रौचित्यपूर्ण प्रयोग के लिए विशेष सावधानी बरतनी चाहिए। शृङ्गार विशेषतः विप्रलम्भ शृङ्गार में यमक का (शब्दश्लेश, चित्र भादि का भी) प्रयोग कवि के प्रमाद का सूचक है । कुन्तक अनुप्रासमयी रचना की प्रतिनिबद्धता का० प्र०, ८ उल्लास, पृष्ठ ३०
१.
२. (क) काव्यस्यालमलंकारैः किं मिथ्यागरण तंग गंः ।
यस्य जीवितमोषित्यं विचिन्त्यापि न दृश्यते । प्रो०वि०च० पृ० ४ (ख) उचित स्थानविन्यासावलंकृतिरलंकृतिः । वही पृ० ६ ।
३. देखिए मम्मट द्वारा उद्धृत दोनों उदाहरण --
(क)
प्रपसारय घनसारम्
..... ।
(ख) घिसे विट्टरिए टट्टावि' (का० प्र० ८ म उल्लास )
का० द० १ । ४३, ४४, ६१.
४.
५.
का० प्र० २ । ३२.
६. (क) शृङ्गारस्यांगिनो यत्नादेकरूप
11
सर्वेष्वेवप्रभेदेषु नानुप्रासः प्रकाशकः ॥ ध्व० २ ! १४ ॥
(ख) ध्वन्यात्मभूतशृङ्गारे यसकाविनिबन्धनम् ।
शक्तावपि प्रभावित्वं विप्रलम्भे विशेषतः ॥ व० जी० २ । ४.
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( ६२ )
( संकुलता - पूर्ण बद्धता) के पक्ष में नहीं है, और यदि ऐसी रचना हो भी जाए; तो उसे असुकुमार नहीं बनाना चाहिए' । भट्टलोल्लट (?) के मत में यमक श्रादि शब्दालंकार रस के प्रतिविरोधी हैं । इनका प्रयोग कवि के अभिमान का सूचक है, अथवा भेड़चाल के समान है । "
इन सब प्राचार्यों के अनुरूप रामचन्द्र- गुणचन्द्र ने भी अलंकार विशेषतः श्लेष अलंकार को अपने उक्त कथन में रस के गलन अर्थात् भंग का कारण माना है ।
हमने देखा कि शब्दालंकारों के मौचित्य को समझाते समझाते संस्कृत का श्राचार्य कहीं कहीं उनका विरोध और निषेध तक कर बैठा है। पर प्रर्थालंकारों के प्रयोग का निषेध वह किसी अवस्था में करने को उद्यत नहीं है । वह इन्हें स्वस्थ रूप में देखना चाहता है । अलंकार का स्वस्थ रूप है - रस, भाव श्रादि का अंग बन कर रहना । उसे यह रूप देने के लिए एक प्रबुद्ध afa को विशेष प्रकार के समीक्षरण की सदा प्रपेक्षा रखनी चाहिए। का प्रयोग करते चले जाना कवि की स्वेच्छा पर भी निर्भर नहीं है समझे जाएंगे, जब ये रस में दत्तचित्त, प्रतिभावान् कवि के सामने किसी प्रयत्न के बिना रचना में रसानुकूल समाविष्ट होकर स्वयं कवि को भी माश्चर्यचकित कर दें । निष्कर्ष यह कि मर्थालंकारों के प्रौचित्यपूर्ण प्रयोग की कसौटी है - प्रपृथग्यत्न- रूप से रसानुकूलता की प्राप्ति
इसके अतिरिक्त अर्थालंकारों के उपकारक तभी
।
हाथ जोड़े चले आएं, " अर्थात्
रसाक्षिप्ततया यस्य बन्धइशक्यक्रियो भवेत् ।
पृथग्यत्ननिर्वत्यः सोऽलंकारो ध्वनौ मतः ॥ ध्वन्या २ । १६ ।
मौर यदि शब्दालंकारों का भी, रसोपयोगी बन कर अपृथग्यत्न- रूप से, रचना में स्वत: समावेश सम्भव होता, तो संस्कृत के प्राचार्यों ने अर्थालंकारों के समान इन्हें भी निश्चित ही समान महत्त्व दे दिया होता ।
ये ध्वनि
अर्थालंकारों का मौचित्यपूर्ण प्रयोग करने के लिए मानन्दवर्द्धन ने निम्न साधनों में से किसी एक का आश्रय लेने की सम्मति दी है
( १ ) अंगीभूत रस के प्रति रूपक प्रादि श्रलंकारों का सदा मंगरूप से विवक्षा करता ।
(२) अंगीरूप में अलंकारों की विवक्षा कभी न करना ।
(३-४) प्रवसर पर इनका ग्रहण अथवा त्याग करना ।
१. नातिनिबन्धविहिता, नाप्यपेशलभूषिता । व० जी० २ । ४ ।
२. यमकानुलोमतदितरचक्राविभिदो तिरसविरोधिन्य । प्रभिमानमात्रमेतद् गङ्कुरिकावि प्रवाही वा ॥ का० अनु० (हेम) पृष्ठ
३.
४. रसभावादितात्पर्यमाश्रित्य विनिवेशनम् ।
प्रलंकृतीनां सर्वासामलंकारत्वसाधनस् ॥ ब्व० पृ० १२२ ।
५. अलंकारान्तराणि - रससमाहितचेतसः प्रतिभावते: कवेरहम्पूविकया परापतन्ति ।
(ध्वग्या० २।१६। वृत्ति)
ध्वन्या० २ । १८, १९
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(५) भारम्भ करके उसे अन्त तक निभाने का प्रयत्न न करना । (६) यदि मनायास माद्यन्त निर्वाह हो भी जाए तो उसे अंगरूप में रसपोषक
बनाने का यत्न करना।
उपर्युक्त साधनों में से प्रथम दो तो एक ही हैं। पांचवें साधन का तीसरे और चौथे में तथा छठे का पहले में अन्तर्भाव हो सकता है । इन सब का कुल मिलाकर उद्देश्य यह है कि रचना में प्रलंकारों को रस के अंग रूप में ही स्थान दिया जाए, प्रधान रूप में कभी नहीं, और ऐसा करने के लिए कवि समीक्षा-बुद्धिसे काम ले, तभी मर्यालंकार अपनी यथार्थता को प्राप्त कर सकेंगे
ध्वन्यात्मभूते भृङ्गारे समीक्ष्य विनिवेशतः ।
रूपकाविरलंकारवर्ग एति यथार्थताम् ॥ ध्व० २ । १७ ॥ ५. गुण
रस और गुण के परस्पर-सम्बन्ध का निर्देश करते हुए एक स्थान पर ग्रन्थकार लिखते हैं कि 'व्यायोग' नामक रूपक में वीर, रोद्र प्रादि दीप्त रसों की स्थिति होती है। मतः इस में गद्य तथा पद्य दोनों पोजगुण-युक्त होने चाहिएं : दीप्तानां वीररौद्रादीनां रसानामाश्रयः । प्रतएवात्र गधं पद्यं चौजोगुणयुक्तम् ।' (हि० ना० द० पृष्ठ० २२१) .
मानन्दवर्द्धन तथा उनके अनुयायियों के अनुसार गुण का रस के साथ दोहरा सम्बन्ध होता है-एक सम्बन्ध प्रधान है और दूसरा गौण । प्रधान सम्बन्ध का प्राधार सहृदय की चित्तवृत्ति है, और गौरण सम्बन्ध का प्राधार वर्ण, पद और अर्थ हैं । अतः गुरण प्रधानतः रस का धर्म है और गौणतः वर्णादि का'।
(१) रस के साथ गुरण का प्रधान सम्बन्ध होता है । इसका यह तात्पर्य है कि शृंगार, करुण मादि कोमल रसों में चित्त की द्रुति होने के कारण माधुर्य गुण की स्वीकृति होगी, और वीर, रौद्र मादि कठोर रसों में चित्त की दीप्ति होने के कारण अोज गुण की। कोमल अथवा कठोर रसों में से किसी भी रस में यदि प्रर्थ का भवबोध त्वरित हो जाएगा तो वहाँ चित्त की व्याप्ति होने के कारण माधुर्य अथवा भोज के मतिरिक्त प्रसाद गुण की भी स्वीकृति की जाएगी। दूसरे शब्दों में, किसी सरस. रचना में यदि त्वरित अर्थावबोध न होगा तो वहां रस के अनुकूल माधुर्य अथवा भोज में किसी एक गुण की स्थिति मानी जाएगी, और यदि त्वरित अर्थावबोध हो जाएगा तो वहाँ रस के अनुकूल माधुर्य और प्रसाद गुरण, अथवा भोज और प्रसाद गुरण दो-दो गुणों की स्थिति स्वीकृत होगी। इस प्रकार ये गुण सहृदय के चित्त की विभिन्न अवस्थामों पर आधारित हैं। चित्त की द्रुति, दीप्ति अथवा व्याप्ति नामक अवस्थाएं पहले होती हैं और रसाभिव्यक्ति इनके बाद होती है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि सहृदय का मन इन भवस्थानों में से न गुजरे और रस का अभिव्यक्ति हो जाए । निष्कर्षतः चित्तवृत्ति कप गुण और रस में पूर्वापर-सम्बन्ध है तथा यह सम्बन्ध नित्य अर्थात पनिवार्य है।
(२) गुण का रस के साथ गोण सम्बन्ध भी है । इसका तात्पर्य यह है कि शृंगार, करुण १. (क) ये रसस्याङ्गिनो धर्माःx x अचलस्थितयो गुणाः। (ब): गुणवृत्या पुनस्तेषां मृत्तिः समायोर्मता।
.का०० ८.६६,७१
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प्रादि कोमल रसों में कोमल वर्णों का प्रयोग होना चाहिए तथा समस्त पदों का प्रयोग या तो न हो, यदि हो तो अल्प हो जिसमें समस्त पर लघु हों। इसी प्रकार वीर, रोद्र मादि कठोर रसों में कठोर वर्गों का प्रयोग करना चाहिए, तथा सघन और अधिक समासों का प्रयोग होना चाहिए। उक्त वर्णों एवं पदों का प्रयोग कोमल रसों में माधुर्य गुण का अभिव्यंजक कहाता है और कठोर रसों में मोज गुण का। इनके अतिरिक्त यदि किसी भी सरस रचना में प्रथं का प्रवबोध त्वरित हो जाएगा तो उसमें चाहे कैसे भी वर्णों और पदों का प्रयोग हो वहां माधुर्य अथवा मोज में से किसी एक गुण के साथ प्रसाद गुण की स्वीकृति भी की जाएगी। इस प्रकार ये गुण वर्ण भौर पद पर आधारित हैं, रचना अर्थात काव्य के बाह्य पक्ष पर माषारित है, पूर्वोक्त गुणों के समान सहृदय की चित्तवृत्ति अर्थात् काव्य के प्रान्तरिक पक्ष पर पापारित नहीं हैं। इसके अतिरिक्त पूर्वोक्त गुणों के समान इन गुणों का रस के साथ नित्य सम्बन्ध भी नहीं है। उदाहरणार्थ, श्रृंगार रस के किसी पद्य में यदि कोई अपीढ कवि दीर्घ-समस्तवृत्ति मौर टवर्गादि से युक्त कठोर वर्णयोजना का प्रयोग कर लेगा, तो उस स्थिति में भी उस पद्य में रसगत माधुर्य गुण की ही स्वीकृति होगी और वर्णादिगत प्रोजगुण की । क्योंकि गुण की स्थिति रस पर मात है न कि वर्णयोजना पर । हाँ, इस पद्य में 'वर्ण-प्रतिकूलता' नामक दोष भी अवश्य माना जाएगा। किन्तु मादर्श स्थिति यही है कि श्रृंगार प्रादि रसों में माधुर्यगुण के अभिव्यञ्जक वणं प्रयुक्त किये जाने चाहिए और रौद्र मांदि रसों में प्रोज गुण के।
रामचन्द्र-गुणचन्द्र को अपने उपयुक्त फवन में यही मादर्श स्थिति प्रभीष्ट है कि पीर-रौद्र प्रादि दीप्त रसों में रसगत मोज गुण तो स्वतःसिद्ध है ही, वहाँ धादिगत भी मोष ग्रण ही होना चाहिए। ६. वक्रोक्ति
प्रस्तुत ग्रन्थ में 'वक्रोक्ति' शब्द का प्रयोग जिन प्रसंगों में हुमा है, उनमें निम्नोक्त चार प्रसंग उल्लेखनीय है-वीथी, शृंगार रस, भामुख, और रसदोष । इन्हीं प्रसंगों में वक्रोक्ति को न तो कुन्तक-सम्मत व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है, तथा न शब्दालंकार रूप प्रचलित अर्थ में । इन प्रसंगों में इसका प्रयोग एक-समान अर्थ में न होकर तीन भिन्न अर्थों में हुमा है :
(१) वीथी'-प्रसंग में वक्रोक्ति से तात्पर्य है-विविधता विचित्रता, अथवा शबलता। ग्रन्थकारों ने वीथी के लक्षण में इसे नाटकादि द्वादश रूपकों की उपकारिणी कहा है और इसका कारण यह बताया है कि वीथी के व्याहार, अधिबल प्रादि १३ अंग नाटक भादि सभी रूपकों में उपयोगी है, और इन अंगों के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है, कि ये अनेक वक्रोक्तियों अर्थात् विविधताओं, विचित्रताओं अथवा शबलताओं से युक्त है
सर्वेषां रूपकाणां नाटकावीनां वक्रोक्त्याविसंकुला। त्रयोदशाङ्गप्रवेशेन उपयोगिनी वैचित्र्यकारिका ॥ हि० मा० द० पृष्ठ २४१
इसी प्रसंग में ही शृंगार और हास्य को अनेक प्रकार की वक्रोक्तियों से युक्त कहा गया है । यहाँ भी 'वक्रोक्ति' का अर्थ विविधता ही है
वक्रोक्तिसहलसंपुलत्वेन शृंगारहास्ययो सूचनामात्रत्वात् कैशिकी सिहोमस्वम्। -वही
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( * ) (२) इसी प्रकार श्रृंगार रस के निम्मोक्त प्रसंग में भी वक्रोक्ति से अभिप्राय है सुन्दर वार्तालाप, न कि कुन्तक-सम्मत वक्रोक्ति---
प्रथमः सम्भोगायो बहुः । परस्परावलोकन-मान-विचित्रयोक्त्यादिभेवतोऽनन्तप्रकारः।
----हि० ना० ६० पृष्ट १०७ (३) प्रामुख-प्रसंग में 'वक्रोक्त' (वक्रोक्ति) साम्ब का प्रयोग 'स्पष्ट वचन से विपरीत' भर्य में हुअा है : मुख में सूत्रधार को प्रकार के वचनों का प्रयोग करता है-स्पष्ट भौर वक्रोक्त।" वक्रोक्त से तारार्य है साक्षात् विवक्षित अर्थ का अप्रतिपादक कथन--"वक्रोक: साक्षाद् विवक्षितार्थस्याप्रतिपादन :,' अर्थात् वह वचन को स्पष्टतया न कहा जा कर घुमा-फिरा कर कहा जाए, जैसा कि संस्कृत नाटकों के 'भामुख' में प्राय: व्यवहृत होता है ।
(४) रसदोष-प्रसंग में 'वक्रोक्ति' शब्द का प्रयोग ता नहीं हुमा, 'मवक्रोक्ति' का हुमा है । यहाँ 'वक्रोक्ति' से अभिप्राय है-युक्त, उचित, मान्य, संगत मादि । रस, स्थायिभाव, व्यभिचारिभाव, प्रादि की स्वशब्दवाच्यता का सर्वप्रथम संकेत उद्भट ने किया था, तथा कुन्तक, मम्मट मादि भाचार्यों ने इसे एक दोष माना था, किन्तु रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने इस दोष-कल्पना को प्रयुक्त कहा है, तथा इसे भव्युत्पन्न जनों की उक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए इसे 'प्रवक्रोक्ति' अर्थात् प्रयुक्त, अनुचित, अमान्य, असंगत धारणा माना है : 'तस्माद् मयुर सनोक्तिस्वाववक्रोक्तिरेवेयम्' (हि. ना० द०)। उक्त धारणा प्रयुक्त है अथवा नहीं, यहाँ यह विचारणीय नहीं है । विचारणीय यह है कि क्या 'वक्रोक्ति' शब्द का अर्थ 'युक्त' मांदि भी हो सकता है ? शन्द के वाच्यार्थ से तो इस अर्थ का बोध नहीं होता, हाँ यदि खेंचतान की जाए तो वक्रोक्ति = काव्य का बाह्य साधन% काष्य का उपयुक्त अथवा युक्त, मान्य, उचित तत्व । प्रतः वक्रोक्ति का अर्थ हुआ युक्त पौर प्रवक्रोक्ति का प्रयुक्त । किन्तु इस धारणा से मनस्तुष्टि नहीं होती। सम्भवतः यह पाठ ही प्रशुद्ध . हो । अथवा 'वक्रोक्ति' शब्द का अर्थ काव्यत्व भी लिया जा सकता है, जिसके अनुरूप 'प्रवक्रोक्ति' का प्रथं होगा--'काव्यत्व से बहिष्कृत' । प्रस्तु! यह शम्न यहाँ 'मप्रयुक्त' कोष से दूषित है।
(२)
इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में निम्नोक्त स्थल पर यद्यपि 'वक्रता' अथवा 'वक्रोक्ति' शब्द का बहार नहीं किया गया, तथापि जिस धारणा को वहाँ प्रस्तुत किया गया है उसका मूल प्राधार अचन की वक्रता ही है । 'वीथी' नामक रूपक-मेव के १३ अंगों में से १० मंग है मृदैवम् - जिसका लक्षरः है।जसमें गुण और दोष का पारस्परिक व्यत्यय हो-व्यत्ययो पोषयौः मुदवम् ।' (हि. ना. ४० पृष्ठ २६३) । इस प्रकार 'मृदद' नामक वीथ्यत के दो रूप हैं गुणों का दोष बन माना और दोषों का गुण बन जाना । प्रथम रूप के बाहरण-स्वरूप नाट्यदर्प में तीन उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं जिनमें गुण को दोष बताया गया है। इनमें से प्रथम दो उदाहरण लीजिए १. विदूषकनटी मार्षः प्रस्तुताक्षेपि भाषणम् ।
सूत्रधारस्य वझोत स्पष्टोतं यत् तवामुखम् ॥ २. पित्त व्यभिचारिरसस्पायिनो स्वशम्बवायरवं रसबोधमा, तभन्न् ।
हि २०१० पुल ३२८
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( ६६ )
(क) द्यूत सभा में बेचारी द्रोपदी 'गौ: गो:' [अर्थात् में तुम्हारी 'गी' हूँ, मुझे बचाश्रो, मुझे बचाओ ] चिल्लाती रही किन्तु उस समय क्या धनुर्धारी अर्जुन वहाँ नहीं था जो उसे बचा सकता ? 'वेणीसंहार' में दुर्योधन जयद्रथ की माता की चेतावनी को अवहेलना करते हुए बोले ।
(ख) [मेरे आने पर ] तुम्हारे मुखचन्द्र ने मुस्करा कर मेरा स्वागत किया, नेत्रों ने प्रफुल्लित होकर, बाहुग्रों ने रोमाञ्चित होकर और वाणी ने गद्गद् स्वर को धारण करके, किन्तु तुम्हारे कुचदन्द्रों में कोई परिवर्तन नहीं आया, वे वैसे के वैसे कठोर प्रर्थात् जड़ बने रहे," 'नलविलास' में नल आगतपतिका दमयन्ती से बोले ।"
पहले पथ में अर्जुन का 'धनुषंरत्व' और दूसरे पद्य में कुचद्वन्द्वों की 'कठोरता' - यद्यपि ये दोनों गुण है तथापि इन्हें दोष रूप में स्वीकृत किया गया है। इन उदाहरणों से दो बातें स्पष्ट हैं । एक यह कि यहाँ 'गुण' शब्द काव्यगुणों का सूचक न होकर लौकिक गुणों का सूचक है, घोर दूसरी यह कि इस प्रकार की दोषता का आधार वचन की वक्रता है जिससे गुण दोष न बन कर और भी अधिक निखर आता है तथा काव्य-सौन्दर्य का कारण बनता है ।
इसी प्रकार दोष के गुग्गग्ग बन जाने के सम्बन्ध में भी जो उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं। उनमें सभी दोष काव्य-दोष के सूचक न होकर लौकिक दोषों के सूचक हैं तथा दे गुण रूप में दरित किए जाने पर भी ग्राह्य न बन कर त्याज्य बन गये हैं। इस वर्णन प्रकार का मूल प्राधार भी वचन की वक्रता ही है । दो उदाहरण लीजिए : २
(क) द्रोण, कर्ण, जयद्रथ प्रादि सात महारथियों द्वारा अभिमन्यु के वध का समाचार सुनकर दुर्योधन कह उठा कि शत्रु पर किया गया अपकार भी निःसन्देह अत्यन्त प्रानन्ददायक होता है ।
(ख)
सब की पत्नियाँ सुन्दर नहीं होतीं, परनारीगामी पुरुष राज्यदण्ड का भागी बनता है, X X X X X X, यदि दूसरों के हित में संलग्न वेश्यायें न हों तो बेचारे कामातं जन कहां जायें ?
प्रथम पद्य में 'क्षात्रधर्म का परित्याग' रूप दोष गुरण माना गया है, भोर द्वितीय पद्य में 'वेश्यागमन' रूप दोष भी गुण रूप में स्वीकार किया गया है । किन्तु इन दोनों पद्यों के वक्ताभों के प्रति न तो कवि की सहानुभूति है और न ही उसके अनुरूप सहृदय की । अतः वचन वक्रता के आधार पर ये दोनों लौकिक दोष और भी अधिक त्याज्य रूप में वरिणत हो गये हैं ।
औचित्य और अनोचित्य
मौचित्य
इस ग्रन्थ में 'प्रोचित्य' का प्रयोग निम्नोक्त चार स्थलों पर हुआ है
(१) कवि धीरोदात्त प्रादि मुख्य पात्र के लिए] अपनी गच्छा से किसी फल- विशेष का उत्कर्ष वरिणत नहीं करने लग जाता, अपितु 'प्रोचत्य' अर्थात् उनिता को देखकर ही वह ऐसा करता है : "कविरपि न स्वेच्छया फलस्य उत्पषं निबद्धमर्हति किन्तु प्रोचित्येन ।" (पृष्ठ ३०)
१-२ हिन्दी ना० ४० पृष्ठ २६३-२६५ ।
७.
(क)
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(२) जो वृत्त नायक अथवा प्रकृत रस के प्रयुक्त अथवा विरुद्ध हो उसे या तो छोड़ देना चाहिए, अयवा उसकी अन्यथा कल्पना कर लेनी चाहिए ।।१।१८) यहां 'अन्यथा' शब्द से स्वयं ग्रन्थकारों का अभिप्राय है औचित्य अथवा अविरोध-अन्यथेति औचित्येनाऽविरोधेन वा। उदाहरणार्थ, नलविलास में नल जैसे धीरललित नायक द्वारा निरपराध पत्नी का त्याग यद्यपि अनुचित है किन्तु कापालिक के प्रयोग से वह [उचितता-(प्रोचित्य-) पूर्वक निबद्ध हो गया है, अतः यह प्रसंग अनिबन्धनीय नहीं है । (पृष्ठ ३६)
(३) जिस प्रकार नाटक में अभिनय प्रबन्ध के लिए उपयुक्त फल, अंक, उपाय, x xx रस प्रादि का प्रयोग किया जाता है उसी प्रकार प्रकरण में भी इन सब का प्रयोग मौचित्य (उचितता) का उल्लंघन किये बिना करना चाहिए --."अभिनेयप्रबन्योचितं फलाडोपाय.."रसादिकं यथा नाटके लक्षितं तथाऽत्रापि सावित्याऽनतिन रणऽऽयोग्यम् ।" (पृ० २१२)
घ) निर्वेद आदि तेतीस संचारिभाव शृगाराम रसों में यशायोग प्रयुक्त करने चाहिए : "त्रयस्त्रिशत् यथायोगं रसानां व्यभिचारिणः ।" यहां यायोग' का तात्पर्य है-रसों के मौचित्य (उचितता) का अनुल्लंबर अर्थात् इसका सम्यक् पालन --- 'यरायोगम्' इति रसौचित्या. ऽनतिक्रमेण ।
(हि. ना. द० पृष्ठ ३३१) उक्त उद्धरणों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि 'मोचित्य' दाद का प्रयोग क्षेमेन्द्र-सम्मत औचित्य-सिद्धान्त के पारिभाषिक अर्थ में न किया जाकर 'उचितता' अर्थ में किया गया है, यद्यपि यह अलग बात है कि मूलता जो कुछ क्षेमेन्द्र को अभीष्ट है लगभग वही कुछ रामचन्द्र-गुणचन्द्र को भी प्रभीष्ट है । क्षेमेन्द्र के शब्दों में 'उचितस्य च यो भावस्तदौचित्यं प्रचक्षते', किन्तु उन्होंने क्षेमेन्द्र के समान साक्षात् अथवा असाक्षात् रूप में इसे 'काव्य को जीवित स्वीकार नहीं किया।
() मनौचित्य
इस ग्रन्म में कतिपय स्थलों पर 'मनौचित्य' शब्द का भी प्रयोग हुया है । एक स्थल पर यह पांच रसदोषों में से एक रसदोष है। पांच रसदोष है-पनौचित्य, अंग की उग्रता, अपुष्टि, प्रत्युक्ति मोर मङ्गिभित् । इनमें से 'मनोचित्य' नामक रसदोष का स्वरूप है-वह कर्म जो सहृदयों के मन में विचिकित्सा प्रर्यात शंका अथवा सन्देह का कारण बने-सहरयानां विचिकित्सा-हेतु कर्मानौचित्यम् । (पृष्ठ ३२४)
प्रागे चलकर इसी प्रसंग में मनौचित्य को 'रसदोष' का पर्याय स्वीकार करते हुए अन्धकारों ने कहा है कि यद्यपि अंगों की उग्रता मावि शेष चार रसदोष भी मूलत: 'अनौचित्य' नामक दोष में ही मन्तर्भूत हो सकते है, [अत: इनका पृथक् निरूपण नहीं करना चाहिए], तथापि सहृदयों को अनौचित्य अर्थात् रसदोष का सम्यक ज्ञान हो जाए, इसलिए ऐसा किया गया है"मंगोत्र पादयाच बोषाः परमार्थतोऽनौचित्यान्तःपातिनोऽपि सहृदयानामनौचित्यव्युत्पादनार्षभुदाहरणत्वेनोपासाः । पृष्ठ (३२८)
उक्त दोनों स्थलों से भी यही ज्ञात होता है कि 'अनौचित्य' शब्द क्षेमेन्द्र-सम्मत पारिभाषिक 'प्रौचित्य के प्रभावात्मक प्रर्ष में प्रयतन होकर रसदोष पर्य में ही स्वीकत दया है।
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इसका कारण सम्भवता मानन्दवन का यह कथन प्रतीत होता है कि पनौचित्य के बिना रसमज का कोई अन्य कारण नहीं होता-"मनोचिस्या ऋते नान्यम् रसभङ्गस्य कारणम् ।" (वन्या. ३/१४ वृत्ति) प्रानन्दवर्डन ने रसभंग पोर पनौचित्य में परस्पर सम्बन्ध जोड़ा तो रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने इसे 'रसदोष' का ही समानार्थक मान लिया। इसी प्रसंग में यह ज्ञातव्य है कि मनौचित्य शब्द का दोषं के अर्थ में सम्भवतः सर्वप्रथम प्रयोग महिमभट्ट ने किया था तथा इसके मनेक भेदों की भी चर्चा की थी, किन्तु वहाँ न तो इसे रसदोष के पर्थ में प्रयुक्त किया गया है और न ही इसके भेद रसदोष ही है। वहां तो इसे काव्य-दोष के सामान्य मर्य का ही वाचक माना गया है । (देखिए व्यक्तिविवेक २य विभशं)
हाँ, प्रस्तुत ग्रन्थ में निम्नोक्त स्थल पर 'पनौचित्य' शब्द का प्रयोग क्षेमेन्द्र-सम्मत 'भोचिस्य' के प्रभावात्मक रूप में भी उपस्थित किया गया है-"प्रहसन नामक रूपक केवल हास्य रस का ही विषय है । यह शुगार रस का विषय नहीं हो सकता, क्योंकि [इस रूपक के मुख्य पात्रों] निन्दनीय पाखण्डी प्रादि का जुगार रस के रूप में निरूपण करना भनौचित्य (प्रौचित्य के प्रभाव) का सूचक है-निन्यपालभितीनां शगारस्याऽनौचित्येनाभावात् केवलहास्यविषयत्वमेव । (पृष्ठ ३२१) उधर क्षेमेन्द्र मी रस के पीचित्य के विषय में प्रत्यन्त माग्रहशील है
कुर्वन् सलिये व्याप्तिमौचित्यचिरो रसः ।
मधुमास इवाशोकं करोत्यंकुरितं मनः॥ भौचित्य विचारचर्चा-१६ तथा वे रसों के पारस्परिक संयोजन में मनौचित्य को इष्टकर नहीं मानते
तेषां परस्पराइलेवात् कुर्यादौचित्यरक्षणम् ।
मनोचिस्येन संस्पृष्टः कस्येष्टो रससंकरः ॥ -वही, १८ ८. दोष
पीछे निर्देश कर पाये है कि इस ग्रन्थ में पांच रस-दोषों का निरूपण किया गया है। इस प्रसंग के अतिरिक्त दोष पर मन्यत्र विशिष्ट प्रकाश नहीं गला गया। इस प्रसंग में अन्धकारों ने उक्त पांच रसदोषों के मेवोपभेदों का निस्पण किया है जिन्हें इनसे पूर्व मम्मट ने भी थोड़े-बहुत पन्टर के साथ उल्लिखित किया था। इस प्रसंग की दो उल्लेखनीय विशेषताएं है-(१) रसादि की स्वशनोक्ति को दोष न मानना, तथा (२) विमाव की कष्टकल्पना द्वारा व्यक्ति को मम्मत के समान रसदोष न मानकर 'सन्दिप' नामक वाक्यदोष मानना । ये दोनों स्वल विचारणीय है।
(१३) रसादि की स्वयम्बोक्ति का सर्वप्रथम उल्लेख यूट ने अपने 'काव्यालंकारसारसंग्रह में रस प्रकार का लक्षण प्रस्तुत करते हुए इन समों में किया पा
रसबहक्षितस्यामनाराविरसावयम् ।
समत्वापिसंचारिविमायाभिनयात्परम् ॥ का..... " १. पहला ए-हि० गाउपाहा. २१९ ।
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इस कथन से उनका अभिप्राय यह है कि रसवद् अलंकार वहां होता है जहाँ श्रृंगार मादि स्पष्ट (प्रधान प्रयवा मनी) रूप से दिखाये गये हों तपा साथ ही स्थायिभाव, संचारिभाव, विभाव तथा मिनय प्रयांत अनुभाव और सात्विक भाव [के विभिन्न प्रकारों का स्वशम्द से भासद (कयन) भी किया गया हो। इसी प्रलंकार के उदाहरण-स्वरूप उन्होंने निम्नोक्त तीन पच प्रस्तुत किये ये
इति भावयतस्तस्य समस्तान पार्वतोगुणान् । संभृतानल्पसंकल्पः कम्बः प्रबलोऽभवत् ।। स्विखताऽपि स गाण बभार पुलकोत्करम् । कवम्बकलिकाकोशकेसरप्रकरोपम् ॥ भणमौत्सुक्यभिच्या चिन्तानिश्चलया क्षणम् ।
क्षरणं प्रमोबालसया हुशास्यास्यमभूष्यत ॥ का० सा० सं० ४॥२-४ । यह उदाहरण रसवादियों के मत में रस का है और प्रलंकारवादियों के मत में रसवत् अलंकार का। उन दोनों का विभिन्न दृष्टिकोण ही इस धारणा का उत्तरदायी है । किन्तु यहां विचाणीय विषय यह दृष्टिकोण नहीं है, अपितु यह है कि क्या किसी सरस वाक्य में रस मादि की स्वशब्दोक्ति अनिवार्य है । उद्भट के टीकाकार प्रतिहारेन्दुराज ने उक्त पचों में विभावादि पांचों तत्त्वों की स्वशब्दोक्ति का निर्देश करते हुए लिखा है कि यहां कन्दर्प अर्थात् 'रति' नामक स्थायिभाव, मौत्सुक्य, चिन्ता, प्रमोद (हर्ष) नामक संचारिभाव, स्वेद मोर पुलक (रोमाञ्च) नामक सात्विकभाव-ये सभी, तथा इनके अतिरिक्त पार्वती मोर 'तस्य' अर्थात् महादेव ये दोनों विभाव भी स्वशन द्वारा कथित है। (पृष्ठ ५४) प्रत. यहां उद्भट-सम्मत रसवत् अलंकार का उक्त लक्षण घटित हो जाता है। उद्भट मोर प्रतिहारेन्दुराज के इन वक्तव्यों से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि उद्भट के समय तक रसवत् अलंकार (मयवा रस) के उदाहरणों में विमावादि की स्वशम्दोक्ति अनिवार्यतः स्वीकृत की जाती थी।
उद्धट के उपरान्त मानन्दवचन ने अपने रसदोष-प्रसंग में उक्त दोष का नामोल्लेख नहीं किया। हाँ, रस वाच्य पर प्रात न होकर व्यङ्गय पर मान होता है-इस प्रसंग में उन्होंने प्रकारान्तर से इस दोष की चर्चा की है। इस सम्बन्ध में उनका कथन यह है कि किसी भी रचना में विभाव मादि की परिपक्व सामग्री के प्रभाव में रस पादि के नामोल्लेख-मात्र से रसानुभूति नहीं हो जाती--हि देव भाराविनम्बमानमावि विभावाविप्रतिपादनरहिते काम्ये मनापपि रसवस्वप्रतीतिरस्ति। -न्या. १५४ वृत्ति
मागे बसकर कुम्सक ने उट के उस कवन का उल्लेख करते हुए उसका खण्डन किया। उनके मत का सार यह है कि रस पादि की स्वब्दोक्ति द्वारा ही यदि रसवर्णा का चमत्कार स्वीकार किया जाए तब तो सपुर (पादि मिष्टान) का नाम लेने मात्र से भी उनका मास्वाद प्राप्त हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है।' १. पदपि करिवत् '
स्व चाविचारिविभाषाभिमवारपवम्' इत्यनेन पूर्वमेव सावं विरचितम् । स्वसवासावरतानामपरिणापूर्वमस्माकम् । x x x x बद स्म रमितीयमानाः तिषषमतरत: तमानी परखचमत्कारं कुर्वन्तीत्यनेन न्यायेन पूजनुनयः पापा समरमियवनावाः बास्वापसम्परं सम्मास्यन्ति xxx x. नीतियापित पड ३४३-३४४
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कुन्तक के उपरान्त मम्मट ने 'रस आदि की स्वशब्दवाच्यता' को रसदोषों में परिगणित किया। उन्हें इस दोष की प्रेरणा प्रानन्दवर्द्धन और सम्भवतः कुन्तक के उक्त प्रसंगों से मिली होगी। मम्मट के अनुकरण पर विश्वनाथ ने भी इस दोष की स्वीकृति की ओर निम्नोक्त उदाहरण प्रस्तुत किये
(क) सामुन्वीक्ष्य कुरंगाक्षी रसो नः कोऽप्यजायत । (ख) चन्द्रमण्डलमालोक्य शृङ्गारे मग्नमन्तरम् । (ग) अजायत रतिस्तस्याः त्वयि लोचमगोचरे । (घ) जाता लज्जावती मुग्धा प्रियस्य परिचुम्बने ।
इधर रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने सम्भवतः मम्मट के इस प्रसंग से प्रेरणा प्राप्त कर उनसे असहमति प्रकट करते हुए उक्त रूप में इस दोष को मस्वीकृति की है। इस सम्बन्ध में हमारी विनम्र सम्मति यह है कि
(क) जहां विभावादि-सामग्री अपूर्ण एवं अपरिपक्व रूप में प्रस्तुत की जाती है, अथवा इसका प्रभाव ही रहता है, वहां यदि रस, शृगार, रति, लज्जा प्रादि शब्दों द्वारा कथन को सरस बनाने की चेष्टा की जाए तो निस्सन्देह ऐसे कथन न तो सरस कहाएंगे पोर न काव्यत्व की किसी कोटि में ही वे अन्तर्भूत होंगे। वे केवल साधारण वार्तामात्र ही होंगे जैसे कि विश्वनाथ द्वारा प्रस्तुत उक्त चार वाक्य ।
(ख) जहां विभावादि की सम्पूर्ण सामग्री का उपस्थापन सम्यक् रूप से किया जाए, और यदि वहां रस आदि में से किसी एक का नाम-निर्देश भी अनायास हो जाए तो इन सरस प्रसंगों में यह दोष प्रयम तो स्वीकृत नहीं करना चाहिए, और यदि स्वीकृत किया भी जाए तो उसे क्षम्य समझना चाहिए, क्योंकि इससे रस-प्राप्ति में कोई व्याघात उपस्थित नहीं होता। उदाहरणार्थ, रामचन्द्र-गुणचन्द्र प्रस्तुत पद्य में मानिनी के नेत्रों का प्रपञ्च-चातुर्य-पूर्ण वर्णन काव्यालादकता का उत्पादक है, किन्तु केवल 'उत्सुकम्' नामक संचारिभाव के प्रयोग से इसमें रसदोष मानकर काव्यत्व की प्रस्वीकृति अथवा हीन-काव्यत्व की स्वीकृति करना समुचित नहीं है । इसी प्रकार एक ओर उद्भट तथा दूसरी ओर स्वयं मम्मट द्वारा प्रस्तुत दो उदाहरण भी केवल वार्तामात्र न होकर काव्यचमत्कार के उत्पादन में समर्थ हैं, क्योंकि उस सहृदय को जो इस पारिभाषिक काव्यदोष से नितान्त अपरिचित है, इन शब्दों के प्रयोग के कारण उसके प्राह्लाद में तनिक भी व्याघात नहीं पहुंचता।
(ग) काव्यप्रकाश के टीकाकारों ने इस प्रसंग में यह संकेत भी किया है कि स्थायिभाव, संचारिभाव आदि के प्रचलित नामों के स्थान पर यदि उनका पर्यायवाची शब्द रख दिया जाए तो वहां दोष नहीं रहता। उदाहरणार्थ "ठणत्कारः अतिगतंवत्साहस्तस्य कोऽप्यभूत" में 'उत्साह नामक स्थायिभाव का प्रयोग दोष का कारण है, पर यदि यह पाठ कर दिया जाए तो यह दोष न रहेगा-'प्रमोदस्तस्य कोऽप्यभूत् ।' किन्तु यह धारणा भी समुचित नहीं है । इस दोष का एक
१. हिन्दी नाट्यदर्पण पृष्ठ ३२८ २. (क) सबीग वयितातने.....
(ख) तामनकलयमंगल..." । का० प्र० ७/३२१, ३२२
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मात्र माधार है काव्यचमत्कार की प्रपुष्टि । मम्मट प्रस्तुत यह पथ' इस बाधार पर भले ही सदोष हो, पर इस कारण कदापि सदोष नहीं मानना चाहिए कि इसमें 'उत्साह' शब्द का प्रयोग हुमा है, प्रथवा 'प्रमोद' शब्द रख देने से यह प्रपुष्टि दूर हो जाएगी और यह सदोष न रहेगा ।
(s) वस्तुतः इस दोष की स्वीकृति का मूल उद्देश्य व्यङ्गपायं की महत्ता स्पष्ट करना है । यतः यदि रस, स्थायिभाव आदि का प्रयोग न किया जाए तो यह प्रादर्श स्थिति है, विभावादि की परिपक्वता में इनका प्रयोग सदोष नहीं है तथा इनकी अपरिपक्वता में दोष है ।
अतः रामचन्द्र गुणचन्द्र की उक्त धारणा प्रांशिक रूप से प्राह्म है-पूरात नहीं ।
(२)
अब दूसरे दोष को लें - ' विभाव की कष्टकल्पना द्वारा व्यक्ति (अभिव्यक्ति)।' इस दोष का मम्मट तथा रामचन्द्र- गुणचन्द्र ने निम्नोक्त उदाहरण प्रस्तुत किया है
परिहरति रति माँत सुनीते स्वलतितरां परिवर्तते च भूयः । इति बत विषमा वंशा स्वदेहं परिभवति प्रसभं किमत्र कुर्मः ॥
अर्थात् यह नायिका किसी प्रकार की रुचि नहीं रखती, इसकी बुद्धि क्षीण हो गयी है, यह निरन्तर गिरती पड़ती है तथा बार बार करवटें बदलती है । इस प्रकार इसके देह की मवस्था प्रत्यन्त विषम है, इसका क्या उपाय किया जाए ? -- इस कथन से यह सन्देह बना रहता है कि इस नायिका की यह दशा वियोग (रति) के कारण है अथवा शोक के कारण । अतः यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि यह उदाहरण विप्रलम्भ शृंगार रस का है प्रथा करुण रस का । मम्मट ने इसे 'विभावस्य कष्टकल्पनया व्यक्ति' नामक रसदोष माना है औौर रामचन्द्र गुणचन्द्र ने 'सन्दिग्ध' नामक वाक्यदोष । नाट्यदर्पण में रसदोषों के अतिरिक्त अन्य दोषों का निरूपण नहीं किया गया । काव्यप्रकाश में वाक्यगत सन्दिग्ध का उदाहरण है—
कस्मिन् कर्मरिण सामर्थ्यमस्थ मोसपतेतराम् ।
यं साधुचरस्तस्माद् अञ्जलिर्वस्यतामिह । का० प्र०७/२०५
अर्थात्, इस पुरुष की शक्ति किस कार्य में प्रकट नहीं होती ? यह व्यक्ति तो 'साधुचर' है । मठ: इसे नमस्कार कीजिए । 'साघुचर' से यह स्पष्टतः प्रकट नहीं होता कि वह साधुयों में घूमता-फिरता है' अथवा 'पहले साधु रहा है।' मतः यहां मम्मट के मत में वाक्यगत सन्देह है। निस्सन्देह उक्त 'परिहरति रतिपद्य में इस प्रकार का सन्देह नहीं है। यहां रस-विषयक सन्देह है वाक्यविषयक नहीं ।
इसी प्रसंग में भंगत सन्देह का उदारहण भी द्रष्टव्य है
मात्सर्यमुत्सार्य विचार्य कार्यमार्याः समर्यादमुदाहरन्तु ।
har: मितम्बा: fear भूधराणामुत स्मरस्मेरविलासिनीनाम् ॥ का० प्र० ७ / २६२
१० संप्रहारे
२. का० प्र० ७ / ३२६, मा० ० ३ / २३ वृति |
प्रहरणं । महाराणाम्परस्परम् ।
ठत्कारैः भूतिसाहस्तस्य कोऽप्यभूत् ॥ का० २०७/२२४
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(
२
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मर्थात्, क्या पर्वत के नितम्ब (प्रान्तर भाग) सेवनीय है अथवा विलासिनियों के नितम्बइस कथन में प्रकरणाभाव के कारण यह सन्देह बना रहता है कि यह उदाहरण शान्त रस का है अथवा श्रृंगार रस का। रिहरति रति ..." पद्य तथा इस पद्य में समस्या एक ही है कि दो रसों में से इसे किस रस का उदाहरण माना जाए । किन्तु साथ ही दोनों पद्यों में अन्तर है वह यह कि एक में श्लेष थे. कारण सन्देह है और दूसरे में इसके बिना । वस्तुतः अन्वयव्यतिरेक-सम्बन्ध के आधार पर 'सेव्या नितम्बा।' कपन में प्रदोषता की अपेक्षा पददोषता प्रधिक है, जैसे कि स्वयं मम्मट ने पदगत सन्देह का ऐसा हो उदाहरण प्रस्तुत किया है-"माशीःपरम्परा वन्द्यां कर्णे कृत्वा कृपां कुछ।" इसमें वन्द्याम्' का अर्थ सन्दिग्ध है । क्या इसका प्रयं 'वन्दनीया अर्थात् नमस्करणीया को' है, अथवा वन्द्याम् बन्द्याम्) का अर्थ 'बन्दीकृत पहिला में है ? किन्तु 'सेव्याः नितम्बा...' में रस-विषयक सन्देह है जो के श्लेष' पर आधारित है, और 'पाशी:परम्परां वन्द्याम्...' में श्लेष तो है किन्तु यहां रस-विषयक सन्देह नहीं है। अत: 'प्राधान्येन व्यपदेशाः भवन्ति' के अनुसार प्रथम पद्य में रसदोष है और वितीय पद्य में परदोष । 'श्लेष' के सम्बन्ध में प्राचार्यों की स्पष्ट धारणा है कि इसकी स्थिति तब माननी चाहिए जब यह स्वतन्त्र रूप में प्रयुक्त हो।' इसकी परतन्त्र अथवा गौण स्थिति में प्रधानता उस काम्य-तत्व की माननी चाहिए जिसका यह पोषक हो।
उक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि 'सेव्याः नितम्बा:...' और 'परिहरति रति..." इन दोनों पद्यों में सन्दिाध नामक रसदोष ही है. किन्तु एक अन्तर के साथ-प्रथम में श्लिष्ट सन्दिरध दोष है और दूसरे में पश्लिष्ट, पर दोनों हैं रसगत ही । क्योंकि दोष की दृष्टि से रस-निर्णय में सन्दिग्धता का बना रहना ही दोनों का प्रतिपाद्य है। 'परिहरति रति...' में 'विभाव की कष्टकल्पना द्वारा अभिव्यक्ति' नामक दोष की स्वीकृति इसलिए नहीं माननी चाहिए कि विभावादि तो रस-सिद्धि के लिए साधन है। इस पद्य में रस का निर्णय सन्दिग्ध रह जाने के कारण सन्दिग्ध दोष मानना चाहिए और वह भी रसगत । निष्कर्षतः रामचन्द्र-गुणचन्द्र की यह धारणा कि यहाँ वाक्यगत सन्दिग्ध दोष है अंशतः मान्य है, क्योंकि यहां सन्दिग्ध दोष रसगत ही है वाक्यगत नहीं। ८. रस
नाटयदर्पण में अन्य काव्योपकरणों के समान रस पर भी केवल इस दृष्टि से प्रकाश हाला गया है कि इसका रूपक के साथ क्या सम्बन्ध है, कौन कौन से रस इसके विभिन्न भेदों अथवा अंगों के साथ सम्बद्ध है प्रादि । उदाहरणार्थ-'भाण' रूपक में शृंगार और वीर रस की प्रचामता होती है, 'डिम' में रौद्र रस की तथा 'उत्सृष्टाई' में करुण रस की, और वीथी' का सम्बन्ध सब रसों के साथ होता है, इत्यादि।''भारती' नामक नाटयवृत्ति सब रसों के साथ सम्बद्ध होती है, 'सास्वती' रौद्र, वीर, शान्त भोर मद्धत रसों के साथ, 'कशिकी' हास्य और शृंगार रस के साथ, तथा 'मारभी' रौद्र भादि दीप्त रसों के साथ ।' इसी प्रकार रूपकों में कौन कौन से रस परस्पर मित्र होते है तथा कोरा विरोधी भोर विरोधी, रसों का परिहार किस प्रकार किया पाए, प्रावि-इन बहुचर्चित विषयों पर भी इस अन्य में प्रकाश डाला गया है ।
१. मेषस्य चोपमासमंकारविवित्तोऽस्ति विषयः इति। [फा० प्र० ६ म उ०, इलेवप्रकरण] २. हिन्दी मारवल २/१६, २१, २३, २८ । १. ३/२, ५, ६। ४. वही पृष्ठ ३२० ।
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साक योर , शारस्परिक सम्बन्ध-निर्देशक उपयुक्त स्थलों के अतिरिक्त इस प्रस्थ में रस-विषयक कतिपय अन्य समस्या प्रसंगों की भी चर्चा की गयी है, जैसे--
(१) रस की महत्ता। 10 अनलित से इतर संचारिभावों तथा रसों का नाम-निदश । १३, नौ रसों का क्रम-निर्देश । (४) क्षार रस के दोनों भेदों का निर्णायक प्राधार । (५) अद्भुत रस की महत्ता एवं स्थिति । (६) शान्त रस का स्थायिभाव । (७) अभिनय मोर नट तथा प्रेक्षक । (८) रस की सुखदुःखात्मकता ।
अब इन प्रसंगों का दिग्दर्शन एवं सामान्य विवेचन प्रस्तुत है। (१) रस की महत्ता
प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेक स्थलों पर यह निर्दिष्ट किया गया है कि रस नाटक में अपनी विशिष्ट महत्ता रखता है। इनमें से कुछ स्थलों पर रस को काव्य के अन्य उपकरणों-विशेषतः भलंकार-को अपेक्षा सर्वोत्तम उपकरण के रूप में स्वीकार किया गया है, जिनका उल्लेख पीछे यथास्थान किया चुका है । इस सम्बन्ध में अन्य उल्लेखनीय स्थल इस प्रकार है
(१) नाट्य का पन्थ रस की कल्लोलों से परिपूर्ण होता है।' (२) नाट्य का एक मात्र मापार रस ही है।'
(३) (नाटघ के) कथाभाग में विच्छेद न आने देना रस की परिपुष्टि के लिए किया पाता है।'
(४) 'प्रकरण' नामक रूपक में पुरानी बातों में भी कवि को रस की परिपुष्टि के लिए नयी बात और बढ़ा देनी चाहिए।
(५) कवि (नाटककार, प्रबन्धकार) की समप्र चेतना एकमात्र रस-विधान में ही संमग्न रहती है, वह रस-निवेश में सिद्धहस्त होता है।
उक्त स्थलों से स्पष्ट है कि ग्रन्थकारों को यह मानना अभीष्ट है कि रस नाटक का अनिवार्य तत्त्व है तथा नाटककार का एक-मात्र लक्ष्य इसी की ही पुष्टि एवं सिद्धि करना है । वस्तुतः
१. पन्या: x x x माटपस्य रसकल्लोलसंकुलः। हि० ना० ब० पृष्ठ ३ २. शम्मामात्रशरणाः शुरुकायो यमकलेवादीनामेव निबन्धमर्हन्ति, न तु रसंकशरणस्प
नाटयस्य । -वही, पृष्ठ ३२० ३. इतिवृत्तस्याविच्छेवः रसपुश्पर्षः। -यही पृष्ठ १९६ ४. पपि पत्र प्रात्तानं निवपते तत्रापि कविता रसपुष्टिहेतुरधिकावापो विषयः ।
-वही पृष्ठ २११ ५. रसविधान कवेतसः कः xxx रसनिवेशकव्यवसायिनः प्रबन्धकवयः xxxr
-वही, पृष्ठ १०५.१९७
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( ४ ) नाटक और रस के पारस्परिक सम्बन्ध को चर्चा भरत मुनि के समय से ही की जाती रही है। उन्होंने नाटघ (ना.) के लक्षण में अन्य तत्त्वों के साथ रसतत्त्व का भी समावेश किया है, नाटय के प्रधान अंगों में पाठय, गीत, अभिनय के मतिरिक्त रस को भी गणना की है', तथा नाटय में रस की अनिवार्य स्थिति को प्रकारान्तर से स्वीकार किया है। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि नाट्यदर्पण में कथा पौर मुक्तक-काव्य की सिद्धि प्रलंकार-चमत्कार पर भाषारित की गयी है और नाटक तथा प्रबन्ध-काव्य की रस पर । किन्तु प्रथम धारणा अंशतः सत्य है, और दूसरी धारणा के सम्बन्ध में इतना और ज्ञातव्य है कि प्रबन्धकाव्यों की अपेक्षा नाटक में रस की पुष्टि अधिक संकुलता के साथ की जा सकती है, क्योंकि इस में विभावादि सामग्री अपने यथावत् रूप में सन्निविष्ट रहती है।
इसी प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने शब्दार्थ को काव्य का शरीर मानते हुए कहा है कि इस शरीर में प्राण-संचार करने वाला रस ही है। यही कारण है कि कविजनों की प्रीनि रस की प्रति ही होती है
अर्थशब्दवपुः काम्यं रसः प्रारणेविसर्पति ।
प्रशंसा तेन सौहावं रसेषु कविमानिनाम् ॥ ना० ३० ३/२१ (.) प्रचलित पे इतर रसों त्या संचारिभावों का नामनिर्देश
इस ग्रन्थ में प्रचलित से इतर संचारिभावों तथा रसों का नाम-निर्देश किया गया है किन्तु इनका स्वरूप प्रस्तुत नहीं किया गया । इनकी सूची इस प्रकार है
संचारभाव --क्षुत्, तृष्णा, मंत्री, मुदिता, श्रद्धा, दया, उपेक्षा, रति, सन्तोष, क्षमा मार्दव, मार्जव, दाक्षिण्य प्रादि ।
रस--लोल्य, स्नेह, व्यसन, दुःख, सुख प्रादि । इन पांचों के स्थायिभाव क्रमशा ये हैगई (तृष्णा), माईता, मासक्ति, प्रति और सन्तोष । किन्तु कई प्राचार्य इनका अन्तर्भार प्रचलित रसों में मानते हैं। (३) नव रसों का क्रम
इस ग्रन्थ में शृंगार आदि नो रसों की पूर्वापर-क्रम स्थिति के सम्बन्ध में निम्नोर संगतियां प्रस्तुत की गयी है जो कि प्राय: मनस्तोवक है । (१) सर्वप्रथम श्रृंगार रस की गणना करने चाहिए क्योंकि 'काम' सब प्राणियों में सुलभ तत्त्व है, तथा उन्हें प्रत्यन्त परिचित रहता है, प्रत सब को मनोहर प्रतीत होता है । (२) श्रृंगार के उपरान्त हास्यरस की गणना की जाती है, क्योंकि यह रस शृंगार का अनुगामी (उससे उद्भूत एवं उसका पोषक) होता है। (३) इसके उपरान
१. बहकतरसमार्गम् x x x मा० शा० १६/११८ २. जग्राह पाठयमृग्वेदात् सामन्यो गीतमेव च।
यजुर्वेदभिनयान् रसानापरणादपि ॥ बही १/१७ ३. ये रसा इति पठयन्ते नाटचे नाटपषिधमणः । वही १/२ ४. देखिए पृष्ठ ६ ५, ६, हिन्दी नाटपर्पण पृष्ठ ३३१, ३०६
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करुण रस-क्योंकि यह हास्य रस का विरोधी अर्थात् उसके विपरीत होता है । (४) इसके उपरान्त रौद्र रस-क्योंकि यह रस अर्थप्रधान है और अर्थ की उत्पत्ति काम से होती है। (५) इस के उपरान्त वीर रस-क्योंकि यह रस धर्मप्रधान है और धर्म की उत्पत्ति काम और अर्थ दोनों से होती है । (६) इस के उपरान्त भयानक रस-क्योंकि वीररस का मुख्य उद्देश्य है भीत जनों को अभय-प्रदान । (७) इसके उपरान्त बीभत्स रस-क्योंकि सात्त्विक जन भय के प्रति जुगुप्सा प्रकट करते हैं । (८) इसके उपरान्त अद्भुत रस-क्योंकि बीभत्स को विस्मय द्वारा दूर किया जा सकता है। (९) सब से अन्त में शान्त रस की गणना की जाती है, क्योंकि शम सब धर्मों का मूल कारण है।'
निष्कर्षतः उक्त प्रसंग में 'काम' को प्रधान माना गया है, क्योंकि इसी पर ही धर्म और अर्थ दोनों आधारित है, तथा इन तीनों के बल पर शृगार प्रादि नौ रसों की पूर्वापर-स्थिति निर्धारित की गयी है; तथा साथ ही प्रकारान्तर से शृंगार रस की प्रधानता भी सिद्ध की गयी है, क्योंकि अकेला शृंगार रस ही ऐसा है जो 'काम' से सम्बद्ध है । शृगार के अतिरिक्त अन्य रस या तो अर्थ और धर्म में से किसी एक अथवा दोनों पर अवलम्बित है अथवा एक दूसरे रस पर । इस प्रकार से रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने अग्निपुराणकार एवं भोजराज की एतविषयक प्रख्यात धारण का अन्य रूप से समर्थन किया है कि शृंगार रस सर्वोपरि रस है । (४) शृङ्गार रस के दोनों भेदों का निर्णायक प्राधार
शृंगार रस के दो प्रचलित भेदों के सम्बन्ध में ग्रन्थकारों का कहना है कि ये भेद गाय के चितकबरे और काले वर्ण के समान नितान्त विभिन्न न होकर परस्पर संकुलित (मिश्रित) रहते हैं, क्योंकि एक अोर सम्भोग में विप्रलम्भ की सम्भावना बनी रहती है और दूसरी पोर विप्रलम्भ में मनोगत सम्भोग का भाव अनुस्यूत रहता है । किन्तु इस स्थिति में निर्णय उत्कटता के प्राधार पर किया जाता है। हाँ, यदि किसी पद्य में दोनों अवस्थाओं को प्रस्तुत किया जाता है तो वह मीलित (एक समान आह्लादक) चित्रण का स्थल अतिशय चमत्कार का द्योतक होता है
अवस्थाद्वयमीलननिबन्धने च सातिशयश्चमत्कार:। (हि० ना० २० पृष्ठ ३०६)
इनमें से प्रमम धारणा का आधार व्याकरणशास्त्र का यह प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि 'प्राधान्येन व्यपदेशाः भवन्ति ।' निस्सन्देह शृङ्गार के दोनों भेदों में इतर भेद का अंश संवलित रहता है और उसका व्यपदेशक आधार है किसी एक तत्त्व का प्राधान्य । किन्तु दूसरी धारणा .विचारणीय है। प्रथम तो ऐसे पद्यों का मिलना असम्भव है, जिन में सम्भोग अथवा विप्रलम्म में से किसी एक रूप की प्रधानता लक्षित न होती हो, और दूसरे, पंडितराज जगन्नाथ के शब्दों में संयोग और विप्रलम्भ का एकमात्र प्राधार अन्तःकरण की वृत्ति-विशेष है; बाह्य वातावरण नहीं है ।' रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने इस प्रसंग में जो उदाहरण प्रस्तुत किया है, उसी से मिलता जुलता उदाहरण जगन्नाथ ने भी इसी प्रसंग में दिया है
१, २. हि ना० २० पृष्ठ ३०५, ३०६ ३. इमो संयोगवियोगाल्यावन्तःकरणवृत्तिविशेषौ । -रसगंगाधर पृष्ठ ४१ ४. "एकस्मिन शयने पराङ्मुखतया वीतोत्तरं ताम्यतो" इत्यादि
-हि० ना० १० पृष्ठ ३०७
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( ७६ ) शायता सविधेऽप्यनीश्वरा सफलीक महो मनोरथान् । दयिता दयिताननाम्बुजं परमीलनयना निरीक्षते ॥
[रसगंगाधर पृष्ठ ४१,१२] इन दोनों उदाहरणों में अन्तःवृत्ति के आधार पर अन्ततः सम्भोग श्रृंगार की ही स्वीकृति होगी, वियोग की भावना तो यहां उद्दीपक मात्र है। (५) अदभुत रस की महत्ता एवं स्थिति
नाट्यदर्पण में अद्भुत रस को चर्चा दो स्थलों पर की गयी है-एक 'परिगृहन' नामक निर्वहण-सन्ध्यङ्ग के प्रसंग में और दूसरे 'नाटक' नामक रूपक के प्रसंग में।
पहले प्रसंग में अद्भुत रस का सामान्य सा स्वरूप-निर्देश है-"अद्भुत रस की प्राप्ति 'उपगृहन' (परिगृहन) कहाती है । इसका स्थायिभाव 'विस्मय' है । उदाहरणार्थ, रामाभ्युदय नाटक में सीता-ज्वलन प्रकरण के अन्तर्गत सीता के लिए अग्निदेव का प्रवेश प्रादि ।" [पृष्ठ १८८]
दूसरे प्रसंग में अद्भुत रस की महत्ता एवं स्थिति पर प्रकाश डाला गया है-"नाटक नामक रूपक में एक रस अंगीरूप में होना चाहिए, तथा अन्य रस अंगरूप में । इसके अन्त में अद्भुत रस होना चाहिए : एकाङ्गिरसमन्याङ्गम् अद्भुतान्तम्' । 'मद्भुतान्तम्' पद का विग्रह करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि “अद्भुत एव रसोऽन्ते निर्वहणे यत्र", अर्थात् नाटक के अन्त में–निर्वहण सन्धि में-प्रद्भुत रस होना चाहिए । इसकी व्याख्या में मागे कहा गया है कि "नाटक में एक ओर शृंगार, वीर, रौद्र प्रादि रसों द्वारा स्त्रीरत्न, पृथ्वीलाभ, शत्रुक्षय रूप सम्पत्तियों की प्राप्ति होती है, और दूसरी पोर करुण, भयानक तथा बीभत्स रसों द्वारा इन सब की प्राप्ति । किन्तु नाटक के अन्त में अद्भुत रस द्वारा लोकोत्तर एवं असम्भाव्य फलरूप प्राप्ति दिखानी चाहिए, क्योंकि प्रत्येक क्रिया का कोई न कोई फल तो अवश्य होता ही है, अतः यदि नाटक में प्रसाधारण वस्तु रूप फल की कल्पना न की गयी तो फिर इसके निर्माण में परिश्रम करने से क्या लाभ ?"
(पृष्ठ ३७) इस कथन का अभिप्राय यह है कि मंगी रस चाहे कोई भी हो किन्तु उस रस से सम्बद्ध फल 'अद्भ' से मिश्रित होना चाहिए । 'अद्भुत' से यहां तात्पर्य है ऐसा फल जो एक पीर तो असम्भाव्य हो, अर्थात् ओ सामान्य परिस्थितियों में सुलभ न हो, अथवा जिसके लिए नायक को लोकाचार से किचिद् विलक्षण माचरण करना पड़े अथवा घोर विपत्तियों का सामना करना पड़े; और दूसरी मोर वह लोकोत्तर हो, अर्थात् जिसकी प्राप्ति सामान्य जन के लिए प्रायः असम्भव सी होती हुई भी सबकी लालसा एवं कामना का विषय बनी रहे। उदाहरणार्थ, सामान्य लोकव्यवहार के तमान केवल विवाह-सम्बन्ध द्वारा नायिका की प्राप्ति में अद्भुत-तत्व का समावेश म होने के कारण यह नाटक का विषय नहीं है । हाँ, दुष्यन्त-शकुन्तला का प्रेम-प्रसंग नाटक का विषय बन सकता है, क्योंकि इसमें एक मोर लोकाचार से विलक्षण प्राचरण किया गया है भोर दूसरी ओर अनन्द्य सुन्दरी शकुन्तला रूप फलप्राप्ति प्रत्येक सहृदय की लालसा एवं कामना का विषय बन गयी है। इसी प्रकार 'पृथ्वीराज-संयोगिता स्वयंवर' भी प्रसामान्य वरमाला-प्रसंग के समालेश के कारण नाटक का विषय बन सकता है। इसी प्रकार वीर रस के नाटकों में भी मैपोलियन का कथन भी कि "मैं गया. मैंने देखा और मैंने जीत लिया" उसी स्थिति में नाटक
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का विषय बन सकता है जब कि या तो शत्रुपक्ष का कायरतापूर्ण पलायन भी साथ ही दिखाया जाए, या फिर यह दिखाया जाए कि शत्रुओं के रक्त की प्यासी तलवार ज्यों की त्यों खिची रह गयी और वह 'बेचारा' जनशून्य शत्रु-नगरी में हाथ मलता रह गया । किन्तु इस सबसे बढ़कर श्रादर्श स्थिति राम-रावण युद्ध प्रसंग की माननी चाहिए जिसमें राम ने रावण पर आक्रमण करके उसकी सेना एवं सहयोगी वीर सम्बन्धियों का मूलोच्छेदन करके लंका विजय के उपरान्त सीता का उद्धार किया ।
इन सब प्रकरणों में श्रंगी रस श्रृंगार अथवा वीर रस स्वीकार किये जाएंगे। यदि इनमें अन्य रसों की झलक मिलेगी भी तो वे अंगी के पोषक होने के कारण वंगरूप में स्वीकृत रहेंगे । किन्तु अंगी ( पोष्य) रहा के चमत्कार का मूल कारण ये अंग (पोषक) रस नहीं हैं, अपितु 'अद्भुत' का समावेश ही है—यह रामचन्द्र गुरा/चन्द्र का मूल अभिप्राय है, और शायद इसी प्रथवा इस प्रकार की धारणा से प्रेरित होकर धर्मदत्त नामक आचार्य ने निम्नलिखित कथन में प्रभुत रस की सर्वत्र ( सब सरस रचनाओं में ) स्वीकृति कर ली थी
रसे सारः चमत्कार: सर्वत्राऽप्यनुपते । तच्च मत्कारसारत्वे सर्वाप्यद्भुतो रसः ॥ "
-
और इसी आधार पर ही नारायण नामक आचार्य ( श्राचार्य विश्वनाथ के पितामह) ने केवल प्रदभुत रस को ही एकमात्र रस घोषित किया था- तस्मात् प्रभुतमेवाह् कृती नारायणो रमम् । निस्सन्देह रस में चमत्कार ही सारभूत तत्व है। मकार को विश्वनाथ के शब्दों में विस्मय का अपर पर्याय भी कह सकते हैं, जिससे सहृदय के चित्त का विस्तार होता है। "चमत्कार: चित्तविस्ताररूपो विस्मयापरपर्याय: "
और इस चमत्कार अथवा विस्मय को खींचतान कर 'प्रभुत' का भी पर्याय मान लेने में कोई प्रापत्ति नहीं होनी चाहिए, और यही मद्भुत सभी रसों में एक अनिवार्य तत्त्व भी है, क्योंकि इसके बिना रस की सिद्धि ही सम्भव नहीं है । किन्तु यह सब स्वीकार करते हुए भी
(१) न तो रामचन्द्र गुणचन्द्र भाचार्यों के समान इस 'अद्भुत' को 'अद्भुत रस' इस नाम से प्रभिहित करना चाहिए, और
-
(२) न श्राचार्य नारायण के समान इस प्रद्भुत को ही एकमात्र रस स्वीकार करना चाहिए | क्योंकि उक्त स्वीकृति में यह 'चमत्कार' प्रथवा 'अद्भुत' नामक तत्व रचना के मूल रस का केवल साधन मात्र होता है, साध्य नहीं होता, साध्य तो शृंगार आदि अन्य रस ही होते हैं । केवल इतना ही क्यों, यहां तक कि जिस रचना में प्रद्भुत रस साध्य रूप में रहेगा, वहां भी साधन रूप में ही इसकी स्थिति अनिवार्यतः रहेगी । निष्कर्षतः इस प्रसंग में 'भुत' शब्द काव्यचमत्कार का ही पर्याय है, अद्भुत रस का नहीं ।
(६) शान्त रस का स्थायिभाव
रामचन्द्र गुणचन्द्र ने शान्त रस का स्थायिभाव निर्वेद न मानकर 'शम' माना है । इस सम्बन्ध में उनके निम्न कथन उल्लेखनीय हैं
१२.
साहित्यदर्पण ३३ इति ।
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( ७८ )
(१) निःस्पृहता ( इच्छा के प्रभाव ) को 'शम' कहते हैं - निःस्पृहत्वं शमः । (पृष्ठ ३३०) काम, क्रोध, लोभ, मान, माया आदि से रहित, विषयसंलग्नता से विमुक्त, प्रक्लिष्ट चित्तवृत्ति रूप 'शम' नामक स्थायिभाव शान्त रस [ के रूप में अभिव्यक्त] होता है : 'काम-क्रोध-लोभ- मान-मायाधनुपरक्त-परोन्मुखता -विवर्जिताऽक्लिष्टचेतो रूपशमस्थायी शान्तो रसो भवति । ( पृष्ठ ३१७)
(२) दरिद्रता, व्याधि, अपमान, ईर्ष्या, भ्रम, श्राक्रोश, ताडन, इष्टवियोग, परविभूतिदर्शन प्रदि ( सांसारिक) क्लेशों के कारण विरसता ( वैराग्यभाव ) तथा तत्त्वज्ञान को निर्वेद नामक संचारिभाव कहते हैं-निर्वेदस्तत्वधीः क्लेशैर्वैरस्यम् । ( पृष्ठ ३३१ )
(३) जन्म-मरण से युक्त संसार से, भय तथा वैराग्य से, जीव, भजीव (परमात्मा श्रीर प्रकृति), पाप-पुण्य आदि तत्त्वों तथा मोक्ष के उपायों के प्रतिपादक शास्त्रों के विमर्शन से शान्त रस की उत्पत्ति होती है । (पृष्ठ ३१७ )
स्पष्टतः उक्त कथनों में 'शम' को स्थायिभाव माना गया है और 'निर्वेद' को संचारिभाव। रामचन्द्र गुणचन्द्र से पूर्व मम्मट ने निर्वेद को स्थायीभाव भी माना था भौर संचारिभाव भी तथा 'निर्वेद' स्थायिभाव से शान्त रस की अभिव्यक्ति स्वीकृत की थी। किन्तु इन आचार्यों ने मम्मट के इस मन्तव्य को स्वीकृत करते हुए कहा है कि एक ही भाव को इन दोनों नामों से अभिहित करना स्ववचन विरोध है । किन्तु वस्तुतः मम्मट को भी वही अभीष्ट है जो इन दोनों श्राचार्यों को है। उन्होंने सभी स्थायिभावों तथा संचारिभावों की सूची प्रस्तुत करके इन्हें 'लक्षण नाम प्रकाश' समझ कर इनका लक्षण प्रस्तुत नहीं किया । किन्तु उनके शान्त रस के प्रख्यात उदाहरण "अहो वा हारे वा कुसुमशयने वा दृषदि वा" से निस्सन्देह यही प्रतीत होता है कि निर्वेद नामकस्थायिभाव तत्वज्ञान से उत्पन्न भाव है, न कि सांसारिक क्लेशों के कारण उत्पन्न वैराग्य भाव से । हाँ, यह दूसरा रूप इसे संचारिभाव की ही संज्ञा देगा, स्थायिभाव की नहीं ।
मम्मट की इसी धारणा को मम्मद के टीकाकारों ने भी समझा था भौर स्पष्टतः लिखा था
स्थायी स्यात् विषयेष्वेष तत्वज्ञानात् भवेद् यदि । इष्टानिष्ट वियोगाप्तिकृत स्तु व्यभिचार्य सौ ॥
का० प्र० ( बालबोषिनी टोका) पृष्ठ ११६
किन्तु फिर भी, रामचन्द्र- गुणचन्द्र ने निर्वेद और शम का स्वरूप मलग-अलग दिखाकर विषय की स्पष्टता में पूर्ण सहयोग दिया है, और सम्भवतः इनके ग्रन्थ से प्रथवा इसी के अनुरूप किसी
१. (क) निर्वेदस्य x x x प्रथमम् x x x उपदानं व्यभिचारित्वेऽपि स्थायिताभिधानार्थम् । का० प्र० ४ । ३४
(ख) निर्वेदस्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रस। ।
वही ४ । ३५
२. मम्मटस्तु व्यभिचारिकथनप्रस्तावे निर्वेदस्य शान्तरसं प्रति स्थायितां, 'प्रतिकूल विभावादिपरिग्रहः' इत्यत्र तु तमेव प्रति व्यभिचारितां च व वारणाः स्वचनविरोधेन प्रतिहतः इति । - हि० ना० ब० पृष्ठ ३३२ ।
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( ७२ )
मन्य ग्रन्थ से प्रेरणा प्रारत कर विश्वनाथ ने भी काव्यप्रकाश के समान 'निर्वेद' को दोनों रूपों में स्वीकृत न कर इन्हीं के अनुरूप शम तथा निर्वेद दोनों भावों की अलग-अलग स्वीकृति की है ।" वस्तुतः स्वच्छ प्रतिपादन के लिए श्रावश्यक भी यही था ।
अभिनय और नट तथा प्रेक्षक
'प्रभिनीयते इति श्रभिनयः' । अभिनय उसे कहते हैं जिसके द्वारा [श्रभीष्ट] प्रर्थ (विषय) सामाजिकों के सम्मुख साक्षात् रूप से प्रस्तुत किया जाता है - सामाजिकानामाभिमुख्येन साक्षात्कारेण नीयते प्राप्यतेऽर्थोऽनेनेति अभिनयः ।
(6.)
अनुकर्त्ता (नट ) अपने अनुकरण द्वारा अनुकार्यं ( रामादि) और प्रेक्षक के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है उसके अनुकरण के बल पर प्रेक्षक उसे ही अनुकार्य समझने लगता है । किन्तु यह सब कैसे सम्भव होता है क्योंकि न तो अनुकर्ता ने अनुकार्य को देखा होता है, और न प्रेक्षक ने । अतः न तो धनुकर्ता अनुकार्य का [ यथावत्] अनुकरण कर सकता है और न प्रेक्षक धनुकर्ता के अनुकरण को देखते हुए भी इसे [वास्तविक] अनुकरण मान सकता है ।"
इस शंका के समाधान में रामचन्द्र गुरणचन्द्र के निम्न कथन उल्लेखनीय है :
१. अभिनेता कवि-प्रणीत रामादि के चरित को पढ़कर प्रत्यन्त अभ्यास द्वारा ऐसा अनुभव करने लगता है कि उसने मनुकार्य को स्वयं देख सा लिया है और पुनः यह अध्यवसान करने लगता है कि में उसी का ही अनुकरण कर रहा हूँ ।"
२. यहां एक शंका की जा सकती है कि कवि जन अपने नाटकों में राम शादि अनुकार्य की अवस्था का चित्रण कैसे कर पाते हैं जबकि उन्होंने भी तो राम को नहीं देखा होता । इसके उत्तर में कहा गया है कि " त्रिकालदर्शी ऋषिजनों से उन्हें यह ज्ञान मिलता है, जिसके प्राधार पर वे अपने नाटकों का निर्माण करते हैं, तथा इनके ही ज्ञान पर पूर्ण विश्वास करने से प्रेक्षक भी नट को अनकार्य समझ लेता है । *
३.
यद्यपि नट को यह ज्ञात नहीं होता कि अमुक अवसर पर किस प्रकार का हास्य प्रथवा रोदन अनुकार्य ने किया होगा, किन्तु वह वस्तुतः लोकव्यवहार का ( लोक में विभिन्न भवसरों पर हंसने और रोने वाले व्यक्तियों का) अनुकरण कर रहा होता है ।"
१. साहित्यदर्पण ३ । १४२, १७५, २४५ २. रामादेरनुकार्यस्य नटेन प्रेक्षक
स्वयमदृष्टत्वात् । अनुकर्त्ता हि मनुकार्यमदृष्ट्वा नानुकर्तुं मलम् । प्रेक्षकोऽपि चादृष्टानुकार्यो नानुकर्तुं नुकस स्वमनुमन्यते ।
हि० ना० ० पृष्ठ ३५.२
३. तवयं नटो रामादेश्चरितं कविनिबद्ध मधीत्य प्रत्यन्ताभ्यामवशतः स्वयं हृष्टमनुमन्यमानोऽनुकरोमि इत्यध्यवस्यति । - वही
४.
इह तावद् इत्थमाकृतिरित्थं गतिः XXX इत्येवमशेषमपि रामाविललितम् ऋषीणां कालदशिना ज्ञानेन निश्चितं कवयो नाटके निबध्नन्ति । तत्र चार्थे मुनिशामविश्वासात् नटस्य साक्षात् दर्शनेमेव । - वही, पृष्ठ ३५३
५. परमार्थतस्तु लोकव्यवहारमेवाऽयमनुवर्तते । - वही
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४. उधर प्रेक्षक भी यद्यपि देश-काल के भेद के कारण नट को रामादि समझने में असमर्थ होता है, तो भी नट द्वारा उच्चरित रामादि के शब्द-संकेतों के श्रवण तथा अत्यन्त मनोरम संगीत प्रादि के वशीभूत होकर उस नट को रामादि समझने लगता है जो [वाचिक प्रादि] चार प्रकार के अभिनय से आच्छादित हो चुका होता है-उसका अपना वास्तविक रूप रामादि के रूप के नीचे ढंप गया होता है । ऐसी स्थिति में प्रेक्षक रामादि की सुख अथवा दुःख रूप. प्रवस्थानों में लीन हो जाता है।'
५. इसके अतिरिक्त अनुकर्ता को अनुकार्य समझ लेने का कारण म्रान्ति भी है, जिसके बल पर प्रेक्षक श्रृंगार आदि रसों का आस्वाद प्राप्त करता है : उन्मिपन्ति च भ्रान्तेरपि शृंगारादयः । क्योंकि इसी भ्रान्ति के ही कारण स्वप्न में भी कामिनी, वैरी अथवा चौर आदि को देख कर स्वप्न ष्टा स्तम्भ मादि अनुभावों का अनुभव करते हैं।
उक्त कथनों का निष्कर्ष यह है कि कोई प्रेक्षक जब तक अनुकर्ता को कृत्रिम व्यक्ति समझ रहा होता है तब तक उसे रसास्वाद प्राप्त नहीं हो सकता । किन्तु जब वह उसे अनुकार्य समझने लगता है तभी उसे रसास्वाद की प्राप्ति होती है। उसे अनुकार्य समझ लेने का कारण है उसका अभिनय-कौशल तथा अन्य रंगमञ्चीय मनोहारी व्यवस्था। इन दोनों को नाट्यदर्पण के अनुसार 'भ्रान्ति' अथवा चकाचौंध भी कह सकते हैं। उधर अनुकर्ता का अभिनय-कौशल भी इसी अध्यवसान पर प्राधारित है कि वह अपने मापको अनुकार्य ही समझ ले भौर यह तभी सम्भव है जब एक मोर तो वह कवि-निबद्ध नाटक का पुनः पुनः अभ्यास करता है और दूसरी ओर वह लोकिक व्यवहार से विभिन्न प्रकार के मनोभावों का प्रदर्शन सीखता है। शेष रहा कवि का प्रश्न कि उसे अनुकार्यों की विभिन्न मनोदशामों का ज्ञान कैसे हो जाता है ? वह इसे ज्ञानचक्षुषों से देखने वाले ऋषियों से प्राप्त करता है।
रामचन्द्र-गुणचन्द्र का उक्त विवेचन अधिकांशत: मान्य है। उनका अन्तिम कथन किञ्चित् शिथिल है। इसका अभिप्राय केवल यही लिया जा सकता है कि कविजन काव्य-नाटक के निर्माण के समय अपनी कल्पना के बल पर जो विवरण प्रस्तुत करते हैं वे शायद लगभग वैसे ही होंगे जैसे कि अनुकार्यों के साथ घटित हुए होंगे। जिसे माज का पालोचक कल्पना (इमैजिनेशन) कहता है उसे राम चन्द्र-गुणचन्द्र के शब्दों में 'ऋषियों की शानचक्षु' कह सकते हैं। स्वयं वाल्मीकि भी यदि राम के समय में रहे हों तो भी वे उनकी सर्व प्रकार की मनोदशाओं से अवगत नहीं होंगे। अतः उनकी ज्ञानचक्षु को 'कल्पना' का पर्याय मान सकते हैं। इसी प्रकार भास, कालिदास मादि नाटककारों ने अन्य मुनियों के सम्पर्क द्वारा मनुकार्य व्यक्ति की मनोदशामों का ज्ञान प्राप्त किया होगा-यह मानना भी न तो व्यवहार-संगत है पोर न बुद्धिसंगत ।"
हमारे विचार में अनुकार्य की स्थिति के प्रवबोष के लिए सर्वप्रमुख साधन है परम्परा१. प्रेक्षकोपि रामाविशम्दसंकेतमवरणाद प्रतिहसंगीतकाहितवैवश्याच स्वरूपदेशकालभेदेना.
सपाभूतेष्वपि अभिनेय चतुष्टयाSEावनात् तथाभूतेब्जिय नटेषु रामादीमध्यवस्यति ।
प्रतएव तासु तासु सुन:सपासु रामायवस्थासु तन्मयीभवति। -वही, पृष्ठ ३५२-३५३ २. उन्मिपन्निव भ्रान्तेरपि गारामयः। कामिनीवैरि-चौरादीन् प्रषिस्वप्नमभिपश्यतः पुंस:
कथम् प्रपरचा रसप्ररोहरोहिणस्तत्र स्तम्लादयोऽनुभावाः प्रादुर्भवेयुरिति ।-वही, पृष्ठ ३५३ १. निममेत पति.मानन्तो (लका) न रामाविलुसकुशेषु तन्मयी भवेयुः। -वही
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( है )
गत ज्ञान अथवा लोकानुश्रुति । इसी के ही बल पर कविजन राम के परम्परागत मथवा लोकानुश्रुत रूप का चित्रण करते चले आये हैं । यद्यपि अपनी कल्पना के आधार पर वे के चरित्र में इधरउधर परिवर्तन भी कर देते हैं, तथापि उन के मूल रूप में, उनकी मूल भावना में कोई अन्तर नहीं माता । वह अपने ही देश विशेष अथवा काल-विशेष के व्यक्ति के रूप में ही चित्रित किये जाते हैं, अन्य देश अथवा काल के व्यक्ति के रूप में नहीं । इसी प्रकार नट भी यद्यपि नाटक में निर्दिष्ट नाटक: कार (अथवा निर्देशक ) के 'स्वगत, प्रकट, सांवेग, सकोप, सहर्ष 'तारस्वरेण' प्रादि निर्देशों द्वारा अभिनय - कौशल प्राप्त करता है, किन्तु किसी व्यक्ति-विशेष के अभिनय के लिए उसे निर्देशन लोकपरम्परा द्वारा ही मिलता है । विरही राम, विरही यक्ष और विरही पुरुरवा के रहविलाप में क्या अन्तर है यह ज्ञान उसे अथवा उसके निर्देशक को केवल लोक-परम्परा द्वारा ही मिलता है । ठीक यही स्थिति की भी है। सीता के वियोग में 'राम' यदि रंगमंच पर सूरने लगता है तो भारतीय परम्परा से प्रभिश प्रेक्षक का 'करुण रस हास्य-विनोद में परिवर्तित हो जाता है, किन्तु इस पप से शि किसी विदेशी के रसास्वाद में कोई अन्तर नहीं आता बिसूरना भी करुण रस की अभिव्यक्ति का कारण बन सकता है पर सामान्य अनुकार्य के अनुकरण-प्रसंग में न कि राम जैसे धीरोदास नायक के प्रसंग में। इस रसभंग अथवा रसास्वाद का एक मात्र कारण है लोक-परम्परागत ज्ञान अथवा लोकानुश्रुति । इसी कसोटी पर यदि कोई नट शामनय करता है तो प्रेक्षक उसे अनुकार्य समझकर रसास्वाद प्राप्त करता है ।
6
८. रस की सुखदुःखात्ककता.
इस ग्रन्थ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रसंग वह है जिसमें रस को सुखदुःखात्मक कहा गया है- सुल्यः खात्मको रसः । ( ३७ ) इस कथन को स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकारों का अभिमत है कि जहाँ शृंगार, हास्य, वीर, अद्भुत प्रोर शान्त ये पाँच रस सुखात्मक, वहाँ करुण, रौद्र, बीस और भयानक ये जार रस दुःखात्मक है ।' प्रथम वर्ग के रस तो निर्विवाद रूप से सुखात्मक है हौ, किन्तु द्वितीय वर्ग के रसों को भी यदि सुखात्मक मान लिया जाता है तो इसी पर रामचन्द्रचन्द्र को आपत्ति है । इस सम्बन्ध में उन्होंने निम्नोक्त चार तर्क उपस्थित किये हैं :
१. उनका पहला तर्क यह है कि भयानक प्रादि रस सहृदयों को किसी प्रवर्णनीय क्लेशदशा तक पहुँचा देते हैं । इनसे सामाजिक उद्वेग प्राप्त करते हैं । सुखास्वाद से भी भूला कहीं कोई उद्विग्न होता है ?" सीता का हरण, द्रोपदी के वस्त्रों तथा केशों कः कर्षण, हरिश्चन्द्र की चाल के यहाँ दासता, रोहिताश्व की मृत्यु मादि घटनाओं के अभिनय को देखकर कौन ऐका हृदय है जो सुवास्वाद को प्राप्त करता हो ? 3
२. दूसरा तर्क यह है कि काव्य-नाटक में लौकिक आचार-व्यवहा का चित्रार्थ रूप में दी किया जाता है । कविजन सांसारिक सुखों का वर्णन सुख-रूप में करते है घोर दुःखों का वर्णन दुःख-रूप में। विरही राम-सीता मादि मनुकार्यों की करुणं दशाएँ निस्सन्देह दुःखात्मक
१. हिन्दी नाटचदर्पण पृष्ट २६० ॥
२. भयामको बीभत्सः कदलो रौद्रो वा रसास्वादवताम् समास्येयां कामपि क्लेशदशासुप• नयति । अतएव भयानका विभिवद्विजते समाजः । म राम सुशास्वार वेगो घटते ।
- वही, पृष्ठ २९१ ।
बड़ी, २२१-२१२ ।
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(
२
)
होती हैं, अत: यदि उनके काव्य-नाटक गत अनुकरण को सुखात्मक माना जाए तो वह अनुकरण वास्तविक न होगा, क्योंकि वह लौकिक वस्तुस्थिति से विपरीत ही रहेगा।'
३. रस को सुखात्मक मानने वालों की ओर से यह कहा जा सकता है कि जैसे लोक में विरही एवं शोकाकुल जनों के सम्मुख कारुणिक प्रसंगों का वर्णन अथवा अभिनय करने से उन्हें सुख-तान्त्वना - मिलती है, इसी प्रकार काव्य-नाटक गत करुण, भयानक मादि रस भी सुखात्मक ही है, दुःखात्मक नहीं हैं। किन्तु रामचन्द्र-गुणचन्द्र का कथन है कि वस्तुतः ऐसे प्रसंगों में भी दुःखी जनों को जो सुखास्वाद मिलता प्रतीत होता है। मूलतः वह भी दुःखास्वाद ही है, क्योंकि यदि वही व्यक्ति दु:खपूर्ण वार्तामों से सुख-सा अनुभव प्रतीत करता है, तो प्रमोदपूर्ण वार्ताओं से [इतर जनों के समान] सुख का अनुभव न कर विकलित ही होता है । प्रतः वादियों का उक्त सहानुभूति-मूलक तकं मनस्तोषक एवं मान्य नहीं है। वस्तुत: करुण प्रादि रस दुःखात्मक ही हैं।'
४. यद्यपि भयानक, करुण भादि रस दुःखात्मक ही है, फिर भी यदि इनसे सहृदय परम आनन्द को प्राप्त करते हैं तो केवल-मात्र कवि एवं नट की कुशलता से चमत्कृत होकर ही।'
इस कथन से ग्रन्थकारों का तात्पर्य यह है कि कवि के व्यवस्थित एवं मार्मिक निरूपण को पढ़कर अथवा नट के सुन्दर एवं हृदयहारी अभिनय को देखकर हमें जो आस्वाद प्राप्त होता है, उसकी लोलुपता ही सहृदय को भयानक, करुण आदि रसों से युक्त भी काव्य-नाटकों से प्रानन्द प्राप्त कराती है तथा उन्हें बार बार पढ़ने-देखने की अोर प्रवृत्त कराती है, अन्यथा ये रस तो दुःखा. त्मक ही होते हैं। एक उदाहरण द्वारा अपने कथन की पुष्टि करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि जिस प्रकार लोक में वीर पुरुष अपने उस प्राण-घातक शत्रु को भी देखकर आश्चर्यचकित से रह जाते हैं जो प्रहार करने में अत्यन्त निपुण होता है, उसी प्रकार प्रेक्षक भी अथवा नटके कौशल द्वारा चमत्कृत हो जाते हैं।
उक्त तर्कों में से प्रथम तर्क मन के उद्वेग को लक्ष्य में रख कर प्रस्तुत किया गया है और द्वितीय तर्क लौकिक व्यवहार और काव्य-रचना की पारस्परिक अन्वति को। तृतीय तर्क लौकिक सहानुभूति एवं सान्त्वना से सम्बद्ध है और चतुर्य तकं काव्यत्व एवं अभिनय-जन्य बाह्य चमत्कार से । यदि गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो इन चारों तर्को के मूल में एक ही भ्रान्त धारणा सन्निहित है कि लौकिक व्यवहार और कवि-कृति में कोई अन्तर नहीं है, ये दोनों एक ही घरातल. पर अवस्थित है। यही कारण है कि पहले तर्क में सहृदय को भी भयानक, करुण मादि रसों १. (क) कवयस्तु सुखदुःखात्मकसंसारानुरूप्येण रामाविचरितं निबध्नन्तः सुखदुःखात्मक
रसानु विडमेव प्रग्नन्ति । (ख) तथानुकार्यगताश्च करणावयः परिवेवितानुकार्यस्थात् तावद् बुखात्मका एव ।
यदि चाऽनुकरणे सुखात्मनः स्युःन सम्यग् हानुकरणं स्यातू । विपरीतस्बेन
भासनाद् इति । -वही, पृष्ठ २९१-२६२ । २. वही, पृष्ठ २६२ । ३. मनेनैव च सर्वाङ्गाद्वारकेन कविनटशक्तिजन्मना चमत्कारेण विप्रलपाः परमानन्द
रूपता दुःखात्मकेष्वपि करणाविषु सुमेषसा प्रतिजानते । -वही, पृष्ठ २६१।। ४. विस्मयन्ते हि शिरच्छेवकारिणाऽपि प्रहारकुशलेन वैरिणा शोधारमानिनः। -वही
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द्वारा वैसा ही उद्विग्न एवं विकलित समझ लिया गया है जैसा कि सामान्य व्यवहार में भयमीत अथवा काग्रस्त व्यक्ति को । किन्तु वस्तुतः लौकिक रति, शोक बादि भावों में तथा काव्यगत इन भावों में सदा अन्तर रहता है। लौकिक भाव एक देश, काल एवं व्यक्ति तक सीमित रहते हैं और काव्य-गत भाव प्रत्येक प्रकार की सीमा से नितान्त विमुक्त होते हैं। इसी प्रकार दूसरे तर्क में उक्त धारणा के ही बल पर लौकिक घटनाओं और काव्य-गत घटनानों को एक समान समझ लिया गया है | किन्तु यह एक अमान्य मन्तव्य है । दोनों में बहुविध तथा बहुहेतुक अन्तर रहता है। इनमें से एक अन्तर तो यह है कि काव्य में लोकिक घटनाओं के अवमान केवल यथार्थ का चित्रण न होकर यथार्थ के साथ कल्पना-तत्त्व का समिक्षण भी अनिवार्यतः रहता है । श्रस्तु ! अतः लोक मौर काव्य की पारस्परिक अनुकूलता को शाधार मानकर प्रकार्य के ही अनुरूप सहृदय के सुखदुःख का निर्णय करना मुलत: भ्रमपूर्ण है । अब तीसरे वर्क को लें। उधर लोक में पुत्र- विच्छेदविला माता के शोक में, और इधर ऐसी माता को रंगमंच पर देखकर अथवा इसके चरित्र को पढ़कर शोकविह्वल सहृदय के शोक में अन्तर है। उधर सान्त्वना से दुःख का हल्का होना, इस का कुछ क्षणों के के लिए लुप्त हो जाना अथवा इसका बढ़ जाना आदि सभी स्थितियां सम्भव हैं, किन्तु इधर शोक स्थायिभाव से उद्विग्न अथवा प्राकुल [ यदि इस स्थिति को यह नाम दें तो ] सहृदय के लिए प्रथम तो सान्त्वना प्रदान का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, क्योंकि काव्य-नाटकगत घटनामों से इतर घटनाओं के साथ उसका कोई सम्बन्ध ही नहीं । भौर यदि उसके सम्मुख ऐसी घटनाएँ लायी भी जाती है तो उस समय वह सहृदय न होकर सांसारिक व्यक्ति मात्र रह जाता है। चतुर्थ तर्क में सत्यता भवश्य है, पर एकांगी । कवि के रचना - कौशल से और विशेषतः नट के अभिनय कौशल जन्य चमत्कार निस्सन्देह सहृदय को प्रभिभूत कर देता है। इस कथन की पुष्टि में एक प्रत्युदाहरण लीजिए कि किस प्रकार एक अत्यन्त करणोत्पादक एवं हृदयविदारक दृश्य भी एक मनाड़ी नट के असफल प्रदर्शन द्वारा करुरण के स्थान पर हास्य का रूप धारण कर लेता है । अस्तु ! कवि और नट की कुशलता से उत्पन्न चमत्कार से किसी भी स्थिति में इनकार नहीं किया जा सकता, किन्तु यह चमत्कार पूर्ववर्ती प्रभाव का उद्दीपक कारण होता है, उसका उत्पादक कारण नहीं होता । उदाहरणार्थ, शृंगार रस में वह सहृदय के रति भाव को उद्दीप्त करता है और करुण रस में उसके शोक भाव को । इसके प्रतिरिक्त उक्त कौशल-जन्य चमत्कार कवि अथवा नट की / प्रतिभा के प्रति प्रेक्षक के हृदय में प्राश्चर्यभाव भी उत्पन्न करता है । किन्तु जैसा कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र का मन्तव्य है कि इसी प्राश्चर्यभाव को करुण रस में सुख प्राप्ति का कारण नहीं मानना चाहिए। यह प्राश्चर्यभाव लौकिक होता है । मतः इससे लौकिक माह्लाद ही उत्पन्न हो सकता है, काव्यगत रस-सुखात्मक रस - उत्पन्न नहीं हो सकता ।
(२)
सों को सुखात्मक भौर दुःखात्मक स्वीकार करने वाले प्रथम माचार्य रामचन्द्र गुणचन्द्र नहीं है। इनसे पूर्व भी कुछ इस प्रकार के स्पष्ट कथन मिल जाते हैं।"
(क) येन त्वम्यषायि सुखदुःखजननशक्तियुक्ता विषयसामग्री बाह्यंव सुखदुःखस्वभावो दः । [ प्रज्ञात प्राचार्य] प्रभिनवभारती, भा० १ पृष्ठ २७८
१. विशेष विवरण केलिए देखिए 'रससिद्धान्त: स्वरूप-विश्लेवरण' (मानम्वप्रकाश दीक्षित)
पृष्ठ २०६-२३०..
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(ख) रसस्य सुखदुःखात्मकतया तदुभयलक्षरणरवेन उपपद्यते, प्रतएव तदुभयजनकत्वम् ।
-रसकलिका (रुद्र भट्ट) नम्बर प्राफ़ रस'ज़ पृष्ठ १५५ (ग) रसा हि सुखदुःखरूपाः। शृं० प्र० २ग भाग पृष्ट ३६६
किन्तु इन कथनों से यद्यपि यह स्पष्ट प्रतीत नहीं होता कि उक्त प्राचार्य सभी रसों को सुखात्मक और दु:खात्मक स्वीकार करते थे अथवा कुछ को सुखात्मक और कुछ को दु.खात्मक, किन्तु फिर भी सम्भावना यही है कि वे भी रामचन्द्र-गुणचन्द्र के समान शृंगार, हास्य आदि को. सुखात्मक मानते होंगे और भयानक, करुण प्रादि को दुःखात्मक । इन कथनों के अतिरिक्त प्राचार्य वामन ने किसी प्राचार्य के नाम पर ऐसा कथन भी उद्धृत किया है, जिससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि वह स्वयं अथवा सम्भवता कुछ अन्य प्राचार्य भी करुण रस में सुख और दुःख दोनों का सम्मिश्रण मानते थे:
कवरणप्रेक्षणीयेषु सम्प्लवःसुखदुःखयो।
यथाऽनुभवतः सिद्धस्तथैवोज:प्रसादयोः ॥ का० सू० वृ० ३।१।६ वृत्ति अर्थात् जिस प्रकार करुण रस के नाटकों में सुख और दुःख का मिश्रण सहृदयजनों के अनुभव द्वारा सिद्ध है, उसी प्रकार अोज पोर प्रसाद का मिश्रण भी उनके अनुभव द्वारा सिद्ध है। सुख पहले होता है अथवा दुःख पहले—इस मोर इस श्लोक में कोई संकेत नहीं है, किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें करुण रस में दुःख की स्थिति पूर्वमान्य होगी, और सुख की बाद में । दूसरे शब्दों में, सहृदय लौकिक दुःख का अनुभव करता हुआ भी अन्ततः काव्यगत मानन्द का प्रलौकिक सुख का अनुभव करता है। कुछ इस प्रकार की धारणा की व्याख्या मधुसूदन सरस्वती ने सम्भवतः सर्वप्रथम मौलिक रूप से की है। उनके कथन का अभिप्राय यह है कि सभी रसों से निस्सन्देह सुख का अनुभव होता है, परन्तु यह अनुभव सब रसों में तुल्य रूप से नहीं होता। इसका कारण यह है कि सत्त्वगुण की प्रधानता ही सुख का हेतु है, किन्तु ऐसा कभी नहीं होता कि किसी रस में रजोगुण मौर तमोगुण नितान्त अभिभूत हो जाएं और सस्वगुण पूर्णत: माविर्भूत अथवा उद्विक्त हो जाए, अपितु रजोगुण और तमोगुण किसी न किसी अंश तक अवश्य विद्यमान रहते हैं। ये किस रस में कितनी मात्रा में विद्यमान रहते हैं, यद्यपि इसका निर्णय कर सकना कठिन है तथापि वे रहते अवश्य है। अत: उनके मिश्रण के तारतम्य के अनुसार सब रसों में सुख के साथ दुःख का मिश्रण भी समझना चाहिए।
इस प्रकार हमारे सम्मुख निम्नोक्त-चार विकल्प उपस्थित होते है(क) सभी रस सुखात्मक है, (ख) सभी रस सुखदुःखात्मक हैं, . (ग) श्रृङ्गार, हास्य प्रादि रस सुखात्मक हैं मोर भयानक, करुण मादि रस
दुःखात्मक हैं, (घ) शृंगार मादि रस तो सुखात्मक हैं किन्तु भयानक प्रादि रस सुखदुःखात्मक है। १. सस्वगुणस्य सुखरूपत्वात् सर्वेषां भावना सुलमयत्वेऽपि रखस्तमोशमिश्रणात तारतम्य
भवगन्तव्यम् । प्रतो न सर्वेषु रसेषु तुल्यसुखानुभवः । -म० भाऊ र० पृष्ठ १५६
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इन विकल्पों में से रामचन्द्र-गुणचन्द्र यद्यपि स्पष्टत: तीसरे विकल्प को स्वीकार करते हुए भयानक प्रादि को दुःखात्मक स्वीकार करते हैं, तथापि वे इन्हें अन्तत: सुखात्मक भी स्वीकार करते होंगे। कुछ इस प्रकार का संकेत उन्होंने स्वयं भी दिया है-पानकमाषर्यमिव च तोरणास्वादेन दुःखास्वादेन सुतरां सुखानि स्ववन्ते इति । (हि. ना० द० पृष्ठ २६१) अर्थात "जिस प्रकार पानक (खट्टे-मीठे-तीखे पेय) की मिठास दुःखस्वादजनक तीक्ष्ण पदार्थ के मिश्रण से और भी अधिक सुखास्वाद प्रदान करती है, उसी प्रकार करुण आदि रसों में भी दु:ख का मिश्रण सुखास्वाद प्रदान करता है।" वस्तुतः देखा जाए तो पानक पदार्थ और करुण रस में स्थापित यह उपमेय. उपमान सम्बन्ध यथावत एवं सुघटित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि पानक में माधुयं भोर तीक्ष्णता के मिश्रण में भले ही पूर्वापर-सम्बन्ध हो, किन्तु उसके मास्वाद में पूर्वापरसम्बन्ध नहीं रहता, किन्तु करुण रस के शोक (लौकिक दुःख) और इस रस के प्रास्वाद (सुख) में निस्सन्देह पूर्वापर-सम्बन्ध बना रहता है, यद्यपि यह अलग बात है कि इनमें काल का अन्तर इतना त्वरित एवं क्षिप्र होता है कि यह कहते नहीं बनता कि इस दुःख मौर सुख में कोई काल-सम्बन्धी अन्तर है भी। अस्तु ! जो हो, रामचन्द्र-गुणचन्द्र का यह उद्धरण यह मानने के लिए पर्याप्त है कि वह उक्त विकल्पों में से तीसरे विकल्प को स्वीकार न कर चौथे विकल्प को स्वीकार करते होंगे कि भयानक, करुण आदि केवल दुःखात्मक न होकर सुखदुःखात्मक हैं । अथवा यों कहिये कि दुःखसुखात्मक है । पूर्वस्थिति में यह दुखात्मक हैं पौर अन्तिम स्थिति में सुखात्मक । यदि यही उनकी मान्यता है तो इसकी व्याख्या उपस्थित की जा सकती है । यदि वे भयानक, करुण प्रादि को नितान्त दुःखात्मक स्वीकार करते हैं तो उनकी यह धारणा काव्यशास्त्र और मनोविज्ञान के तो प्रतिकूल हैं ही, व्यवहार के भी सर्वथा प्रतिकूल होने के कारण सर्वथा अमान्य है । इस दृष्टि से विश्वनाथ का केवल एक यही तक इसे अमान्य ठहराने के लिए पर्याप्त है कि करुण प्रादि रस इसीलिए सुखात्मक है कि सहृदय जन इसे देखने के लिए सदा उन्मुख अर्थात् लालायित रहते हैं
करणादावपि रसे बायते यत्परं सुखम् । सचेतसामनुभवः प्रमाणं तत्र केवलम् । किंच तेषु यदा दुःखं न कोऽपि स्यासन्मुखः।।
सा०६० ३१४,५ रामचन्द्र-गुणचन्द्र का कोई पाठक उनके सम्पूर्ण ग्रन्थ के अवलोकन के उपरान्त यह मानने को कदापि उद्यत न होगा कि उन जैसे तत्त्ववेता और चिन्तक माचार्य करण मादि को केवल दुःखात्मक ही मानते होंगे। वह इसे दुःलात्मक मानते अवश्य होंगे किन्तु पूर्वस्थिति में, पौर मन्ततः वे इन्हें सुखात्मक ही मानते होंगे।
इस मान्यता की ब्यारया कई रूपों में तथा कई दृष्टियों से की जा सकती है।
...... श्रृंगार, करुण प्रादि सभी प्रकार के रसों में रति, शोक मादि सभी स्थापिभाव अब तक विभावादि के संयोग द्वारा रसरूप में परिणत अपना अभिव्यक्त नहीं होते, तब तक उनसे लौकिक सुख अथवा दुःला का ही अनुभव होता है। उवाहरणार्थ, यदि किसी प्रेक्षक को पंगार रस के नाटक में अपनी प्रेयसी की अपवा करण रस के नाटक में अपने मृत पुष की स्मृति
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( ८६ ) हो पाती है तो उसका रति अथवा शोक भाव उसे लौकिक सुख अथवा दुःख की अनुभूति करायेगा । वह प्रेक्षक नाटयगृह में बैठा हुमा भी तत्क्षण के लिए सहृदय न होकर सांसारिक व्यक्ति ही होता है। किन्तु जिस क्षण वही व्यक्ति निजत्व की भावना से ऊपर उठ जाता है, वही क्षण रसदशा का है-रतिजन्य सांसारिक सुख अथवा शोकजन्य सांसारिक दुःख इस रस-दशा की पूर्वस्थिति बन जाते हैं और रस-दशा पन्तिम स्थिति बन जाती है।
२." काव्यशास्त्रीय आधार पर लौकिक कारण, कार्य एवं सहकारिकारण काव्य में इसीलिए क्रमशः विभाव, अनुभाव और संचारिभाव कहाते हैं कि वे अब लौकिक क्षेत्र से ऊपर उठकर अलौकिकता के क्षेत्र में जा पहुँचते है। जब तक भय, शोक प्रादि भाव लौकिक कारण मादि से सम्पृक्त है. (चाहे वह घटना-स्थल नाटयगृह भी क्यों न हो), तब तक वे निस्सन्देह दुःखात्मक है, किन्तु विभाव मादि से सम्पृक्त होने के कारण वे सुखात्मक भयानक, करुण प्रादि रसों के रूप में परिणत हो जाते है।
३. भयानक, करुण प्रादि को अपनी परिणति में सुखात्मक स्वीकार करने के लिए काव्याचार्यों का 'साधारणीकरण' नामक सिद्धान्त एक प्रवल साधन है, जिसके बल पर सहृदय असाधारण (विशेष) से साधारण (सामान्य) भावभूमि पर उतर पाता है ।' उसका भय अथवा शोक किसी देश अथवा काल-विशेष से मुक्त हो जाता है। वह अपने समस्त मोह, संकट मादि (से अन्य प्रज्ञान) से निवृत्त हो जाता है। परिणामतः काव्य-नाटकगत कोई पात्र भब उसके लिए अपना विशिष्ट व्यक्तित्व खोकर मानव-मात्र बन जाता है-राम नामक पुरुष पात्र पुरुषमात्र, बन जाता है और सीता नामक स्त्री-पात्र स्त्रीमात्र बन जाता है, और इसका प्रगला परिणाम यह होता है कि सहृदय निजत्व और परत्व दोनों प्रकार के विश्वासों से विनिमुक्त हो जाता है। प्रतः इस प्रकार की परिस्थिति में सहृदय के लिए न तो शृंगार प्रादि रसों द्वारा लौकिक सुखानुभूति स्वीकार की जा सकती है, और न भयानक प्रादि रसों द्वारा लौकिक दु:खानुभूति - यह अवस्था दोनों प्रकार के रसों में अलोकिक सुखात्मिका ही होती है।
इस प्रकार अन्त में हम कह सकते हैं कि
१. प्रत्येक स्थायिभाव अपरिपक्व अवस्था में लौकिक सुख अथवा दुःख का कारण बनता है, किन्तु परिपक्व अवस्था में केवल अलौकिक सुख का ही।
२. भयानक, करुण प्रादि रसों में निस्सन्देह प्रेक्षक भय, शोक प्रादि से जन्य दुःख का अनुभव करता है-किन्तु वह लौकिक दुःख ही होता है-ठीक उसी प्रकार जैसे वह शृंगार, हास्य मादि रसों में रति, हास मादि से अन्य लौकिक सुख का अनुभव करता है। किन्तु यह लौकिक सुख अथवा दुःख रस-दशा की पूर्ववर्ती भवस्था है और रस-दशा उसकी परवर्ती अवस्था है।
१. (क) असाधारणस्य साधारणकरणम् इति साधारणीकरणम् । २. xxxभयमेव परं देशालाबनालिगितम्। -हिन्दी अभिनवभारती पृष्ठ ४७० ३. काव्येxxनाटचे चेxxनिविडनिजमोहसंकटतानिवारणकारिणा विभावादि-साधारणीकरणात्मनाxxx।
-वही, पृष्ठ ४६४.४६५ ४. तत्र सीताविशदाः परित्यक्तानकतनयाविविशेषा स्त्रीमानवाचिनः । -शरूपक ४/४० वृत्ति
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३. किन्तु यह सदा प्रावश्यक नहीं कि प्रत्येक महत्व को इस प्रकार के लौकिक सुख अथवा दु:ख की अनुभूति हो ही, किन्हीं सहृदयों को नहीं भी होती, यद्यपि ऐसे सहयों की संख्या बहुत अल्प होती है, किन्तु दोनों प्रकार के रसों से उन्हें अलोकिक सुखानुभूति अवश्य प्राप्त होती है।
४. प्रतः भयानक आदि रसों को नित्य रूप से दुःक्षात्मक नहीं मान सकते, पौर अधिकांशतः ऐसा मान लेने पर भी वह दुःख लौकिक ही होता है, किन्तु यह दुःस परवर्ती अलौकिक सुखानुभूति की प्राप्ति के लिए किसी भी रूप में न तो अनिवार्य साधन है और न ही सहायक साधन । हां, वह अत्यन्त भावुक सहृदयों की प्रलौकिक सुखानुभूति के लिए उद्दीपक कारण अवश्य सिद्ध हो सकता है।
५. निष्कर्षत: भयानक, करुण मादि रस दुःसात्मक नहीं है, वे वे भी श्रृंगार मादि के समान सुखात्मक ही हैं ।
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(ख) नाटयशास्त्रीय ग्रन्थों में नाटयदर्पण का स्थान
नाटपशास्त्र-सम्बन्धी उपलब्ध एवं अनुपरम्प साहित्य का वर्गीकरण करने से हमें प्रमुख नाटपाचार्यों की सात कोटियां मिलती है:
( सरसके पूर्ववती माचार्य जिनकी रचनाओं को मरत ने अपने नाटयशास्त्र में सर्वथा भात्मसात कर लिया है । हम भाचार्यों की रचनाएं अभी तक अप्राध्य हैं।
(२) प्राचार्य भरत जिनका नाटयशास्त्र शताब्दियों तक प्रायः सभी प्राचार्यों की रचनामों का मूलाधार बना रहा ।
(३) मरत के भनुवर्ती प्राचार्य जिनकी रचनाएँ भरत के नाटयशास्त्र पर माधत हैं। इन्होंने कारिकाएं एवं वृत्तियां लिखकर भरत के मत का स्पष्टीकरण किया। इस वर्ग के प्रमुख माचार्य -प्रभिनवगुप्त', धनजय', सागरनन्दी', रामचन्द्र-गुणचन्द्र', शारदातनय, शिङ्गभूपाल, पगोस्वामी, सुन्दरमित्र और नन्दिकेश्वर।
(४) वे प्राचार्य जिनकी सम्पूर्ण रचनाएं तो अनुपलब्ध है, किन्तु अन्य प्राचार्यों ने अपनी रचनामों में जिनका उल्लेख करते हुए कहीं कहीं उनके उद्धरण दिये हैं । उदाहरणार्थ अभिनवगुप्त ने अपने प्रथम अध्याय में नान्दी का विवेचन करते हुए 'कोहलप्रदर्शिता नान्दी' मिल कर यह सिद्ध किया है कि उन्हें कोहल की कोई न कोई रचना उपलब्ध थी जो अब मप्राप्य है ! वे एक स्थान पर भरत से कोहल का मतभिन्य दिखाते हुए वे लिखते हैं : "अनेन तु लोकेन कोहलमतेन एकावशाङ्गत्वमुच्यते । न तु भरते।"
. [पभिनवभारती, अध्याय ६ कारिका १० की वृत्ति] मभिनवगुप्त ने पतिलापार्य के श्लोकों को भी चौदह बार उद्धृत किया है। इससे सिद्ध होता है कि दत्तिल नामक भाचार्य की भी कोई न कोई रचना अभिनवगुप्त को प्राप्त धौ । सागरनन्दी के 'नाटकलमणरत्नकोष' में प्रश्मकुट्ट मोर बादरायण की रचनामों के कई उद्धरण प्राप्त होते है । इसी अन्य में शातकर्णी नामक प्राचार्य के कई उद्धरण पाये जाते हैं । अभिनवगुप्त
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१. रचना-अभिनवभारती -समय बसवीं शताम्बी का अन्त ।
-समय ९७४ से ६४ ई.। नाटकमक्षरणरत्नकोश-समय ११ शतक का पूर्वा। नाटपर्पण --समय १२ शतक का मध्यभाग । भावप्रकाशन -समय १२ पौर १३ शतक के मध्य । नाटकपरिभाषा . -समय १४ शतक । नाटकचमिका -समय १५ शतक ।
नाटयप्रदीप -समय १६१३ई। , अमिनयरर्पण -समय २-३ शती ई० (सम्भवतः)
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( ८e ) ने बरु नामक प्राचार्य की रचना का उबरण देकर एक स्थान पर लिखा है-'तुम्बस्लेदमुहम्।' अभिनयभारती के चौदहवें अध्याय में कात्यायन का मत कई श्लोकों में उसृत किया गया है । कात्यायन ने वीरों के भुजदंड के वर्णन में नग्धरा बन्द और नायिका-वर्णन मैं वसन्ततिलका का प्रयोग विहित माना है। इसीप्रकार इसी ग्रन्थ के चोये अध्याय में राहुल नामक प्राचार्य का मत देते हुए अभिनवगुप्त लिखते है-'यथोक्त राहुलेन,' तथा 'ते च यथाह राहुला' विश्वनाथ ने अपने ग्रन्थ साहित्यदर्पण में नखकुट्ट की रचनामों के उद्धरण दिये है। इस प्रकार इस कोटि के प्रमुख नाट्याचार्य हुए-मातगुप्त, दत्तिल, अश्मकुट्ट, बादरायण, शातकी, तुम्बुरु, कात्यायन, राहुल, नखकुट्ट मादि। . .
(५) पांचवीं कोटि में वे प्राचार्य प्राते हैं जिनका एकमात्र नामोल्लेख पाया जाता है, किन्तु जिनकी न तो कोई रचना उपलब्ध है, न किसी श्लोक का उसरण ही कहीं पाया जाता है। ऐसे प्राचार्यों में भरत के पूर्ववर्ती है-शिलालिन, कृशाश्व, पूर्तिल, शाण्डिल्य, वात्स्य जिनका उल्लेख भरत के नाटयशास्त्र में पाया जाता है। मभिनवभारती, दशरूपक पौर भावप्रकाशन में सदाशिव, पद्मभू, द्रोहिरिण, व्यास, पाञ्जनेय नामक प्राचार्यों का नाटयकार के रूप में वर्णन मिलता है, परन्तु उनकी किसी रचना का उसरण नहीं पाया जाता । शारदातनय ने अपने ग्रंथ भावप्रकाशन में सुबन्धु का उल्लेख किया है। यदि यह सुबन्धु वासवदत्ता के रचयिता भी है, तो इनका समय पांचवीं शताब्दी में मानना होगा, किन्तु नाटयसम्बन्धी इनकी कोई भी रचना प्राप्य नहीं है।
(६) छठी कोटि में वे प्राचार्य माते है जिन्होंने नाटक के सम्बन्ध में कोई स्वतंत्र रचना , न करके केवल भरत नाटयशास्त्र का भाष्य प्रस्तुत किया है । ऐसे भाष्यकारों में प्राचार्य मभिनवगुप्त, कीर्तिघर, नान्यदेव, भट्ट उद्भट, श्रीशंकुक, भट्टयंत्र प्रसिद्ध है।
(७) सातवीं कोटि में वे प्राचार्य हैं, जिन्होंने काव्यशास्त्र के सभी अंगों को ग्रहण करके उसके कुछ प्रध्यायों में नाटय-शास्त्र का विवेचन किया है। ऐसे प्राचार्यों में शिङ्गभूपाल, रूपगोस्वामी, भोजराज, विद्यानाथ और विश्वनाथ प्रसिद्ध है । शिङ्गभूपाल ने अपने ग्रन्थ 'रसार्णवसुधाकर' में एक ओर तो 'नाटक-परिभाषा' की रचना केवल नाट्य-विषयों को लेकर की, मोर दूसरी ओर इस ग्रन्थ के अंतिम भाग में काव्य के अन्य विषयों के साथ नाटयशास्त्र पर भी प्रकाश डाला । इसी प्रकार भोजराज ने 'शृंगारप्रकाश' के बारहवें प्रकाश में नाटक का वर्णन किया पौर शेष में साहित्यशास्त्र के समी अंगों का । उन्होंने अपने 'सरस्वतीकण्ठाभरण' के पांचवें परिच्छेद में तो नाटक का विवेचन किया और शेष अध्यायों में काव्यशास्त्र के अन्य अंगों का । विद्यानाथ ने 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' नामक ग्रन्थ के केवल तीसरे प्रकरण में नाटक का विवेचन किया पौर विश्वनाथ ने साहित्यर्पण के छठे परिच्छेद में नाटय-सम्बन्धी लक्षणों पर प्रकाश डाला। इन प्राचार्यों ने भरत-नाटयशास्त्र एवं दशरूपक को अपनी रचनामों का भाधार बनाया।
उक्त प्राचार्यों में से अधिकांश ने अपने को भरत के नाट्यशास्त्र का ऋगी माना है, किन्तु नाटयदर्पण के रचयिता रामचन्द्र-गुरणचन्द्र बड़े गर्व के साथ अपनी रचना को सर्वथा मौलिक मानते हैं, और भरत-नाट्यशास्त्र पर प्रान्त दशरूपक के मतों का स्थान स्थान पर खण्डन करते है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र के पूर्व धनञ्जय और उनके अनुज पनिक की दशरूपक पर अवलोक-वृत्ति का इतना प्रचार हो गया था कि सर्वत्र उक्त ग्रंथ ही समाप्त हो रहा था। धनञ्जय के उपरान्त
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तीन शताब्दियां बीत चुकी थीं, भोर इस काल में ऐसे अनेक नाटक विरचित हो चुके थे, जिन्हें देख कर रामचन्द्र-गुणचन्द्र को दशरूपक के लक्षण और उदाहरण अपर्याप्त प्रतीत होने लगे, और उन्हें नाटयशास्त्र पर एक स्वतन्त्र मौलिक ग्रन्य लिखने की.मावश्यकता जान पड़ी।
रचना की प्रेरणा
रामचन्द्रगुणचन्द्र के पूर्व नाट्यशास्त्र-सम्बन्धी तीन ग्रन्थ पति प्रसिद्ध थे। १. भरतकृत 'नाट्यशास्त्र' २. धनञ्जय-कृत 'दशरूपक' ३. सागरनन्दी-कृत 'नाटकलक्षणरत्नकोष'। नाटघदर्पण में स्थान स्थान पर उपर्युक्त तीनों ग्रन्थों से मतभेद मिलता है । रामचन्द्र स्वयं एक सफल नाटयकार थे। उन्होंने एक दर्जन से अधिक नाटकों की रचना की। अपने ग्रन्थ नाट्यदर्पण में पारिभाषिक शब्दों का लक्षण देते हुए उदाहरण के लिए उन्होंने अपने नाटकों से उद्धरण दिये । इससे यह माभास मिलता है कि वे पूर्ववर्ती प्राचार्यों के लक्षण और उदाहरणों से प्रसन्तुष्ट होकर नवीन ग्रन्यों की रचना आवश्यक समझते थे। वे स्वयं लिखते हैं कि कालिदास आदि महान् कवियों के बनाए हुए अनेक रूपकों को देख कर और स्वयं भी अनेक रूपकों का निर्णय करके हम दोनों नाट्य-लक्षण की विवेचना प्रारम्भ करते हैं । (ना० द. १२)
प्राचार्य विश्वेश्वर ने अपनी भूमिका में इस ग्रन्थ की प्रेरणा के सम्बन्ध में अपना मत देते हुए लिखा है "इसकी पृष्ठभूमि में राजनीति की प्रतिस्पर्धा की प्रेरणा रही हो तो भी कुछ माश्चर्य नहीं है । दशरूपककार धनञ्जय मालवनरेश मुंज के सभापण्डित थे। रामचन्द्र-गुणचन्द्र गुर्जरेश्वर के पण्डित थे । गुजरात पोर मालवा राज्यों का सदा संघर्ष रहता था। इसमें दीर्घकाल तक युद्ध भी चलते रहे थे। इसलिए गौरव-प्राप्ति के हर क्षेत्र में दोनों राज्यों की प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। इसी प्रतिस्पर्धा के कारण मालवाधीश के प्राश्रय में निर्मित दशरूपक की प्रतिस्पर्धा में इस नाटयदर्पण की रचना हुई हो, यह सर्वथा संभावित है"।
दशरूपक और नाटकलक्षणरत्नकोष से नाट्यदर्पण की तुलना करते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि रामचन्द्र को पूर्ववर्ती मावार्यों के नाट्यसम्बन्धी लक्षणों से कई स्थलों पर इतना असन्तोष था कि उन्हें अपने मत को स्पष्ट करने केलिए एक नये ग्रन्थ की रचना करनी आवश्यक प्रतीत हुई । दशरूपक और नाट्यदर्पण की तुलना करते हुए २१ स्थलों पर मतभेद मिलता है, जिसका विस्तृत विवेचन भूमिका के पृष्ठ २१ से २५ तक देखा जा सकता है । सागरनन्दी के मत से भी ये ग्रन्थकार कई स्थलों पर मतभेद रखते हैं, इसका विस्तृत विवेचन भी पृष्ठ २५ पर देखा जा सकता है।
रामचन्द्र-गुणचन्द्र को मौलिकता
रामचन्द्र-गुणचन्द्र निर्भीक शास्त्र प्रणेता थे। उन्होंने न केवल धनञ्जय और सागननन्दी के ही मतों का खण्डन किया है. अपिट भरतमुनि के मत का भी खंडन करने में उन्हें संकोच नहीं हुा । निदर्शन एवं प्रमाण के लिए निम्न प्रसंग द्रष्टव्य हैं
। तृतीय विवेक में प्ररोचना के सम्बन्ध में उनका मत देखा जा सकता है । इसके लिए भूमिका का पृष्ठ २० द्रष्टव्य है । वृत्तियों का निरूपण भी भरतमुनि के मत से भिन्न जान पड़ता है।
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( १ )
रामचन्द्र ने भरतमुनि के 'भारती वृत्ति विवेचन' में 'वदतोव्याघात दोष' दिखा कर भरतमुनि के मत की आलोचना की है। भरतमुनि ने जहाँ रूपक के दश भेद किये हैं, वहाँ 'नाटयदर्पणकार' ने इसके बारह भेद करके मंगलाचरण में ही जिनवाणी के प्राचारादि से लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त बारह अंगों के अनुसार रूपक के बारह भेदों का संकेत कर दिया है। भरतमुनि के दशरूपकों से दो भेद नाटिका मौर प्रकरणी अधिक मान कर इन्होंने नयी पद्धति से बारह रूपकभेदों का वर्गीकरण किया है। उन्होंने नाटक, प्रकरण, नाटिका, भौर प्रकरणी में कैशिकी, सात्त्वती, चारभटी प्रोर भारती वृत्तियाँ मानी हैं, किंतु व्यायोग, समवकार, भाण, प्रहसन, डिम, उत्सृष्टिकाङ्क ईहामृग एवं वीथी में कैशिकी रहित केवल तीन वृत्तियों । इसप्रकार वृत्तियों के आधार पर नाटकों का वर्गीकरण रामचन्द्र गुरणचन्द्र की अपनी मौलिक सूझ है ।
नाट्यदर्पण में रस - विवेचन भी पूर्वाचार्यों से कहीं कहीं भिन्न प्रतीत होता है । रामचन्द्रगुणचन्द्र अपने पूर्ववर्ती प्राचार्य मम्मट के मत का खंडन करते हुए कहीं भी संकोच नहीं करते । मम्मट 'अधिक विस्तार' को रसदोष में परिगणित करते हैं, किन्तु नाट्यदर्पणकार इसे रसदोष न मान कर वृत्तदोष मानते हैं। उनका कथन है कि रस की दृष्टि यह दोष न होकर गुण है । " प्रतिपक्षी का अत्यंत उत्कर्ष दिखलाकर नायक द्वारा उसका बध कराने में तो नायक का उत्कर्ष बढ़ता ही है, इसलिए यह दोष नहीं अपितु गुण है।" इसका विस्तारपूर्वक वर्णन नाट्यदर्पण के पृष्ट १५५ पर देखा जा सकता है। इसी प्रकार इन भाचार्यों ने अभिनवगुप्त के मतों का भी रस की दृष्टि में खंडन किया है। इसके लिए भूमिका (पृष्ठ २८ से ३१) तक द्रष्टव्य है ।
१
नास्यदर्पणकार का रस- विवेचन सर्वथा मान्य भले ही न हो, पर वह मौलिक अवश्य है । उन्होंने रस को सुखदुःखात्मक दोनों माना है, उनके मत से शृङ्गार, हास्य, वीर, अद्भुत और शांत तो सुखात्मक रस हैं, किन्तु करुण, रौद्र, बीभत्स और भयानक रस दुखात्मक ही हैं । तृतीय विवेचन में कतिपय आचार्यों के सभी रसों को सुखात्मकता का खंडन करते हुए रामचन्द्रपुरणचन्द्र कारिका की वृत्ति में कहते हैं :
[कुछ आचार्यों के द्वारा] जो सब रसों को सुखात्मक बतलाया जाता है, वह प्रतीति के विपरीत [ होने से सामान्य प्रसंगत ] है । मुख्य [ प्रर्थात् वास्तविक ) विभावों से उत्पन्न करुण प्रादि की दुःखात्मकता की तो बात ही जाने दो, काव्य के अभिनय में प्राप्त [ बनावटी ] विभाव प्रादि से उत्पन्न हुआ भी भयानक, बीभत्स, करुण, अथवा रौद्र रस आस्वादन करने वालों को कुछ अवर्णनीय-सी क्लेश दशा को उत्पन्न कर देता है । इसीलिए भयानक प्रादि [ दृश्यों] से सामाजिकों को घबराहट होती है [यदि सब रस सुखात्मक हों तो ] सुखास्वादसे तो किसी को उद्वेग नहीं होता [इसलिए करुणादि रस दुःखात्मक ही होते हैं ] । "
१. स्थायीभावः श्रितोत्कर्षो विभावव्यभिचारिभिः । स्पष्टानुभावनिश्रेयः सुखदुःखात्मको रसः ॥
२. यत् पुनः सर्वरसानां सुखदुःखात्मकत्वमुच्यते तत् प्रतोतिबाधितम् । प्रास्तां नाम मुख्यविभावोपचिताः, काव्याभिनयोपनीतविभावोपचितोऽपि भयानको बीभत्सकरुणौ रौद्रो वा रसास्वादवतामनाख्येयाँ कामपि क्लेशवशामुपनयति । श्रतएव भयानकादिभिरुद्विजते समाजः । न नाम सुखास्वादोबुद्वेगो घटते । हि० ० ना० द० पृष्ठ २६०-२६१
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(१२) सभी रसों को सुखात्मक.मानने वाले माचार्यों के तकों का खंडन करते हुए नाट्यवर्पणकार कहते है कि कवि एवं अभिनेता के कौशल के द्वारा करुण मादि रसों में भी बुद्धिमान व्यक्ति को परमानन्द की अनुभूति होती है, यह धारणामात्र है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र की युक्ति यह है कि कविगण तो सुख-दुःखात्मक संसार के अनुरूप ही रामादि के चरित्र की रचना करते समय सुखदुःसात्मक रसों से युक्त ही (काव्यनाटक मादि की) रचना करते हैं। जब कवि को स्वतः दुःसात्मक रस की अनुभूति होती है तो रोहिताश्व के मरण, लक्ष्मण के शक्ति-भेदन प्रादि को देखकर सामाजिक को सुख का मास्वाद कैसे हो सकता है ? [इसलिए करुणादि रसों को सुखात्मक मानना उचित नहीं है।
उनका दूसरा तर्क यह है कि मनुकायंगत करुणादि विलापादि युक्त होने के कारण निश्चित रूप से दुःखात्मक ही होते हैं। यदि उनको अनुकरण में सुखात्मक माना जाय तो वह सम्यक् अनुकरण नहीं हो सकता है ।
तीसरा तर्क है कि इष्टजन के विनाश से दु:खियों के सामने करुणादि का वर्णन किये जाने प्रथवा अभिनय किये जाने पर जो सुखास्वाद होता है वह भी वास्तव में दुःखात्मक ही होता है।
. नाट्यदर्पणकार करुण को दुःखात्मक और विप्रलम्भ शृङ्गार को सुखात्मक स्वीकार करते हुए कारण बताते हैं कि-विप्रलम्भ भृङ्गारस्तु वाहादिकार्यत्वाद् दु.खरूपोऽपि सम्भोगसम्भावनागर्भस्वात् सुखात्मकः ।
अर्थात् विप्रलम्भ शृंगार तो इष्टजन के दाहादि द्वारा विनाश की प्रतीति से जन्य होने के कारण दुःख रूप होने पर भी उसमें सम्भोग (पुनर्मिलन) की सम्भावना बनी रहने से सुखात्मक
नाट्यदर्पणकार का रससिद्धान्त अन्य प्राचार्यों के सिद्धान्त से भिन्न है। वे काव्य मोर नाटक में सामान्य-विषयक और विशेष-विषयक विविध रसों की स्थिति मानते हैं ! जहाँ अन्य प्राचार्य लोक में होने वाली स्त्री पुरुष की परस्पर रति को रस नहीं मानते, वहाँ नाटयदर्पणकार लौकिक स्त्री पुरुष आदि को भी विभावादि शब्दों से और उनकी रति प्रादि को भी 'रस' शब्द से निर्दिष्ट करते हैं।
___ग्रन्थकार के मंत से रसानुभूति के पांच प्राधार होते हैं (१) लौकिक रूप में स्थित पुरुष (२) नट (३) काव्य नाटक के श्रोता (४) काव्यनाटक के मनुसन्धाता अर्थात् कवि एवं नाटयकार (५) सामाजिक । अनुकार्य, अनुकर्ता, श्रोता एवं अनुसन्धाता को तो प्रत्यक्ष रूप में रसानुभूति होती है किन्तु सामाजिक को परोक्ष रूप में । रामचन्द्र-गुणचन्द्र के मत से प्रेक्षक मादि में रहने वाला रस लोकोत्तर है और शेष लौकिक ।
रसभेद संबंधी ग्रंथकार का मत अन्य प्राचार्यों के मत से भिन्न है। यद्यपि रामचन्द्रगुणचन्द्र रस के मूलतः नौ भेद मानते हैं, किन्तु इनके अतिरिक्त तृष्णा को स्थायी भाव मान कर लोल्यरस, आर्द्रता को स्थायिभाव मानकर स्नेह रस, प्रासक्ति को स्थायी भाव मान कर व्यसनरस, परति को स्थायीभाव मान कर दुःख रस, और संतोष को स्थायी भाव मान कर सुख रस की भी अनुभूति वे स्वीकार करते हैं।
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इस प्रकार ग्रंथकार ने स्वतन्त्र ढंग से रसविवेचन का भी प्रयास किया है। इस प्रयास में सफलता की कसोटी एक मात्र यही है कि मागामी भाचार्यों ने उनके मत को कहीं मान्य नहीं माना, और विश्वनाथ मादि ने उनके मतों की सर्वदा अवहेलना ही की।
नाट्यदर्पणकार की एक बड़ी विशेषता यह दिखाई पड़ती है कि वे अपनी कारिका के गूढ़ स्थलों की व्याख्या स्वरचित वृत्ति में इतने विस्तार के साथ कर देते हैं कि वे गूढ़ स्थल स्पष्ट हो जाते हैं। कहीं कहीं तो अन्य भाचार्यों के कई श्लोकों में वरिणत लक्षणों को वे एक ही श्लोक में समाविष्ट कर लेते हैं । जहाँ भरत मुनि ने अठारहवें अध्याय के १०,११,१२वें श्लोकों में नाटक का लक्षण किया है वहाँ रामचन्द्र ने केवल एक श्लोक में नाटक की परिभाषा इस प्रकार की है
"उन रूपक भेदों में से धर्म, अर्थ मोर कामरूप त्रिविष फलों वाला, अंक, उपाय, दशा, संधि से युक्त, देवता मादि जिसमें सहायक हों, इस प्रकार का पूर्वकाल के प्रसिद्ध राजामों का चरित्रप्रदर्शित करने वाला अभिनेय काव्य नाटक कहलाता है:
ख्याताखराजचरितं धर्मकामासत्कनम्।
साङ्कोपायावशा-संधि-दिव्याङ्गता नाटकम् ॥ १।५।। रामचन्द्रगुणचन्द्र ने अभिनवगुप्त के नाटक शब्द की व्युत्पत्ति की मालोचना की है। अभिनवगुप्त ने 'पट् नृती' के स्थान पर 'णतनतो' पाठ मान कर नति अर्थात् नमनाक नद् धातु से नाटक की सिद्धि मानी है, जो उनके विचार से 'मिता ह्रस्वः ६४१६२ (पष्ठा०) सूत्र से णिच् परे रहते उपधा को ह्रस्व करने के विधान से 'नटक' शब्द 'घटक' के समान बनता है । किन्तु रामचन्द्र की यह अापत्ति उपयुक्त नहीं है, क्योंकि अभिनवगुप्त ने ननायक धातु से भी नाटक शब्द की सिद्धि की है। (विशेष विवेचन के लिए नाट्यदर्पण की प्रस्तुत हिन्दी व्याख्या पृ० २३ देखिए।) इस सम्बन्ध में विवेचन करते हुए प्राचार्य विश्वेश्वर ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अभिनवगुप्त ने केवल नमनार्थक धातु से ही नहीं, अपितु नर्तनार्थक पातु से भी नाटक शब्द की सिद्धि की है । अभिनवगुप्त लिखते है:
नाटकं नाम तच्चेष्टितं प्रतीभावदायकं भवति तथा हल्यानुप्रवेशरजनोल्लासनया हृदयं शरीरं च नर्तयति नाटकम् ।
नाटक और नाटकेतर काव्यांगों में अन्तर
नाटयदर्पणकार के पूर्व प्राचार्यों ने नाटक एवं नाटकेतर काव्य में उतनी स्पष्टता के साथ अन्तर नहीं दिखलाया है, जितनी स्पष्टता हमें रामचन्द्रगुणचन्द्र की रचना नाट्यदर्पण में मिलती है । प्राचार्य धनञ्जय ने नाटक और नाटकेतर रूपकों में अन्तर दिखाते हुए लिखा है
प्रकृतित्वावशान्येषां भूयो रसपरिप्रहात ।
सम्पूर्णलक्षणत्वाच्च पूर्व नाटकमुच्यते ॥ [नाटक अन्य प्रकार के रूपकों की प्रकृति है । प्रर्थात् प्रकरण मादि भेदों का लक्षण नाटक के प्राधार पर ही किया जाता है। नाटक में बहुत अधिक रस का परिग्रह होता है, और उसमें संपूर्ण लक्षण होते हैं।
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(१४)
यहाँ धनञ्जय ने नाटक और अन्य रूपकों में अन्तर दिखाने का प्रयत्न किया है, पर रूपक और रूपक से इतर साहित्य का अन्तर कहीं नहीं स्पष्ट किया है। रामचन्द्रगुणचन्द्र ने इस समस्या को सुलझाने का प्रयत्न किया है
१. रामचन्द्रगुणचन्द्र ने नाटक और कथासाहित्य में व्यावर्तक धर्म स्थापित करते हुए कहा है कि यद्यपि कथादि भी श्रोतामों के हृदय को नचा देते हैं किन्त वे उपायादि वैचित्र्य हेतुमों के प्रभाव में उतने उल्लासकारी नहीं होते।
२. नाटक के द्वारा राजा और उसके अंग रूप में मामात्यादि को व्युत्पन्न किया जाता है, जो नाटकेतर साहित्य में सम्भव नहीं है।
३. कथासाहित्य और नाटक की रचनाशैली में स्पष्ट अन्तर इस प्रकार होता है। श्रव्यकाव्य में पद्य ही पद्य और पाख्यायिका में गद्य ही होता है और दोनों में समुद्र, नदी, सूर्य, चन्द्र प्रादि के प्राकृतिक वर्णन का बाहुल्य होता है। किन्तु नाटक में पद्य की संख्या स्वल्प और गद्यशैली भी पाख्यायिका से भिन्न होती है। कादम्बरी एवं वासवदता आदि प्राख्यायिका-ग्रन्थों में दीर्घ सामासिक गद्य स्पृहणीय है। किन्तु नाटक में सरल एवं दोघं समास-रहित गद्य ही वाञ्छनीय है, ककंश और अधिक समस्तपदयुक्त गद्य ठीक नहीं। नाटक में उसी अवान्तर कथावस्तु की योजना होती है, जो परंपरा से फल की साधक होती है । रामचन्द्रगुणचन्द्र ने अपने 'नलविलास' नामक नाटक का उल्लेख करते हुए दमयन्ती के चित्रदर्शन द्वारा नल के हृदय में अनुराग उत्पन्न करने का प्रयास किया है, मतः चित्रदर्शन की प्रवान्तर कथा नाटक के सर्वथा उपयुक्त ही मानी जायगी।
४. नदी, समुद्र, सूर्य, चन्द्रमा, पर्वत, मधुपान जलक्रीड़ा प्रादि का वर्णन नाटकेतर साहित्य में आवश्यक माना जाता है, किन्तु नाटक में इन लम्बे वर्णनों से नाटक-रस तिरोभूत हो जाता है। इनका प्रत्यल्प वर्णन तो स्वीकार्य हो सकता है, पर विस्तृत वर्णन नाटकोपयोगी नहीं माना जा सकता।
५. अलंकारों का विशेष प्रयोग भी नाटक में उपादेय नहीं समझा जाता। नाट्यदर्पणकार कहते हैं कि उन्हीं श्लेषोपमादि का प्रयोग करना चाहिए जो रससिद्धि के लिए किये जाने वाले प्रयत्न से ही सिद्ध होते हैं । कथाभाग में उपक्षेप प्रादि संन्ध्यंगों की रचना इस प्रकार करनी चाहिए कि जिससे वे रस को तिरोभूत न कर सकें।
लक्षण और उदाहरण
नाट्यदर्पणकारने पारिभाषिक शब्दावली के लक्षण एवं उदाहरण पूर्ववर्ती प्राचार्यों से पृथक् रूप में किये है। उन्होंने न तो भरत का अनुसरण किया है और न अन्य पूर्ववर्ती नाट्याचार्यों का । उन्होंने लक्षण और उदाहरण की एक नवीन पद्धति अपनाई है। सूत्रों में सामान्य लक्षण और वृत्ति में उसका विवेचन किया है। यहां दो बार पारिभाषिक शब्दों के लक्षण और उदाहरण लिखकर रामचन्द्रगुणचन्द्र को मौलिकता पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जायगा।
प्रङ्क का लक्षण भरतमुनि इस प्रकार लिखते हैं
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( ६५ )
प्र इति रूढिशब्दो भावश्च रसंश्च रोहयत्यर्थान् । नानाविधानयुक्तो
यस्मात्तस्माद्भवेदङ्कः ॥
इस लक्षण से प्रङ्क का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता । धनञ्जय ने भी अङ्क का लक्षण स्पष्ट नहीं किया । नाट्यदर्पणकार ने अह्न का लक्षण अन्य प्राचार्यों की अपेक्षा अधिक विस्तार के साथ इस प्रकार लिखा है
[कार्य की प्रारम्भ प्रादिरूप] अवस्था की समाप्ति अथवा कार्यवश [ असमाप्त अवस्था का भी] विच्छेद [ जो भगले प्रङ्क की कथा के बीज अथवा ] बिन्दु से युक्त और दो घड़ीं से लेकर चारप्रहर तक के दर्शनीय अर्थ से युक्त हो वह 'अ' कहलाता है ।
पाँच अवस्थाओं में से किसी भी एक अवस्था का प्रारम्भ और पूर्णता द्वारा समाप्ति [प्रत की नियामिका होती है । उसको मङ्क में दिखलाना चाहिए] प्रथवा मसमाप्त अवस्था का भी कार्यवश जो बीच में विच्छेद कर दिया जाय वह भी अङ्क का नियामक है । 'कार्य' पद से यहाँ एक दिन में न हो सकने वाले दूरदेशगमन प्रादि अथवा बहुत लम्बा होने के कारण एक दिन में जिसका अभिनय किया जाना सम्भव न हो [उसका ग्रहण होता है ] । उसके कारण जो अवस्था का बीच में हो विच्छेद कर दिया जाता है वह भी 'मङ्क' का नियामक है । [कारिका १९ ]
रामचन्द्रगुणचन्द्र का यह लक्षण पूर्ववर्ती प्राचार्यों के लक्षणों से अधिक स्पष्ट है । किन्तु प्राश्चर्य यह है कि परिवर्ती आचार्यों ने इसका कोई उपयोग नहीं किया, और विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में भरत के ही लक्षण का आधार लेते हुए कहा है " जिसके अन्त में सम्पूर्ण पात्र रंगमंच से निष्क्रमण कर जाएँ।" भरत ने कहा है : निष्क्रामः सर्वेषां यस्मिन्नङ्कः स विज्ञेयः श्रोर विश्वनाथ ने भरत के निम्नलिखित श्लोकों की सर्वथा उपेक्षा की तथा उनका कोई अंश अपने में सम्मिलित नहीं किया
लक्षण
लिखा है
यत्रार्थस्य समाप्तिर्यत्र च बीजस्य भवति संहारः । किञ्चिदवलग्न बिन्दु) सोऽङ्क इति सवावगन्तव्यः ॥
अङ्क का यह लक्षण अधिक स्पष्ट हैं । अभिनवगुप्त ने इसी लक्षण का आधार लेकर
इत्य लक्षणे ः शब्दः । अन्यतो व्यवच्छेवकं लक्षलम् श्रभिनेये रसभावsafarius रोहयति । हृवयसंवादसाधारणता करणेन प्रत्यक्षीभावनया रसाकारोदयप्ररोहो भवति । प्रारम्भाद्यत्रस्थालक्षरणो यत्र समाप्यते सोऽङ्कः । मुखादिषु यथाक्रमं बीजस्य दशाविशेषाः संहारसान्ववाच्या अनेक रसाङ्कितत्वाव इति नाम । - अभिनवभारती
अभिनवगुप्त ने भरतमत की व्याख्या विस्तार के साथ की है । सागरनन्दी ने 'नाटकलक्षणरत्नकोश' में भङ्क में वर्जित घटनाओं का ही उल्लेख किया है । घटनाकाल के विषय में इतना अवश्य लिखा है "बहुकालप्रपेयं कार्यं नाङ्क विधेयम् ।" अर्थात् दीर्घकाल में घटित होने
१. प्रत्यक्षचित्रचरितैर्युक्तो भावरसोद्भवैः । प्रन्तनिष्क्रान्तनिखिलपात्रोऽङ्क इति कीर्तितः ॥
सा० द० ६-१६ ।
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वाले कार्य को अङ्क में स्थान नहीं देना चाहिए, किन्तु भर की विशेषताओं का कहीं उल्लेख नहीं किया।
उपर्युक्त लक्षणों की तुलना करते हुए यह स्वीकार करना पड़ेगा कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने पूर्ववर्ती प्राचार्यों के अङ्क-सम्बन्धी पक्षणों को स्वतन्त्र रीति से सोचने और व्यापक बनाने का प्रयत्न किया है । इसी प्रकार अर्थप्रकृति के लक्षण का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने से भी इम उक्त निष्कर्ष पर ही पहुंचते है।
अर्थ-प्रकृति
भरतमुनि ने बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य नामक पांच पर्वप्रकृतियों का विवेचन किया है। परवर्ती सभी प्राचार्यों ने भरतमुनि का ही मनुसरण किया और उन्हीं के निर्मित लक्षणों को पाधार बनाया। सभी ने प्रयोजन-सिद्धि के पांच हेतुमों का उपयुक्त सम रखा। किन्तु रामचन्द्रगुणचन्द्र ने इनमें परिवर्तन कर दिया। उन्होंने प्रर्यप्रकृति को 'उपाव भाम से अभिहित किया और उनका क्रम रखा- .
बीजं पताका प्रकरी बिन्दुः कार्य ययाचि।
फलस्य हेतवः पन्ध चेतनाचेतनात्मकाः ।। सूत्र १।२८ उन्होंने कारिका की वृत्ति में यह सष्ट किया है कि रुचि के अनुरूप इनके क्रम में परिसन किया जा सकता है । अन्य भाचार्य इस मत से सहमत नहीं। दूसरा भन्तर यह है कि रामचनापूर्णमा इन उपायों का विभाजन चेतन एवं प्रचेतन की दृष्टि से एक विलक्षण रीति से करना चाहते है। अचेतन हेतु भी मुख्य भौर पमुख्य भेद से दो प्रकार का होता है। 'बीज' मुख्य भवेतन हेतु है और 'कार्य' अमुख्य। इसी प्रकार चेतन हेतु भी मुख्य मौर उपकरणभूत दृष्टि से दो प्रकार के होते हैं । 'बिन्दु' मुख्य चेतन हेतु है । उपकरणभूत चेतन हेतु दो प्रकार के होते है-(१) स्वार्थसिद्धि युक्त होने के साथ परार्थ-सिद्धिपर (२) पराध-सिस्तित्सर । प्रथम का नाम 'पताका' है, मोर द्वितीय का नाम प्रकरी।
इस प्रकार का वर्गीकरण भोर कम हमें अन्य किसी प्राचार्य की रचना में नहीं दिखाई पड़ता । पंच उपायों के लक्षण भी अन्य भाचार्यों से कहीं-कहीं भिन्न रूप में दिखाई पड़ते है। रामचन्द्र की विशेषता यह है कि ये लक्षण के उपरान्त स्वरचित नाटकों से उदाहरण देकर लक्षणों की पुष्टि करते है। बीज मोर बिन्दु के लक्षण और उदाहरण का मापायों को अपेक्षा अधिक पष्ट और बोधगम्य है। मावश्यकतानुसार एकही. 'उपाद के पार पार उदाहरण देकर उन्होंने कठिन विषय को सरल बना देने का प्रयास किया है। उदाहरणार्थ, बीज केक्षण के उपरान्त रत्नावली, सत्यहरिश्चन्द्र, स्वरचित यादवाभ्युदय एवं मुद्राराक्षस के उन स्थलों का विश्लेषण किया है जहाँ से 'बीज' प्रारम्भ होकर शाखा मावि रूप में विस्तार पाता है।
उपयुक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि राम चन्द्र ने नादच-सम्बन्धी (द स्थलों का मौलिक रीति से चिन्तन करने का प्रयास किया है। इतना अवश्य है कि मौलिकता
उत्साह में वे कहीं कहीं इतने बहक गए है कि मुबलक पनते पागले. रह पाते हैं। जैसे स-वर्णन कतिपय प्रसंगों में ।
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( ५ ) नाट्यदर्पणकार का योगदान
___ रामचन्द्र उन कतिपय प्राचार्यों में परिगणित होने योग्य है जिनमें कारयित्री एवं भावयित्री दोनों प्रकार की प्रतिमा विद्यमान है। नाट्यदर्पण के अतिरिक्त उन्होंने मल्लिका-. मकरन्दम, यादवाभ्युदयम्, रघुविलासम, राघवाभ्युदयम्, रोहिणीमुगाङ्कम्, वनमाला-नाटिका मादि नाटक एवं सुधाकलश नामक काव्य की रचना की। अपने नाटपग्रन्थ के लिए उनके मन में नाटकरचना की प्रेरणा उठी प्रपवा नाटक-रचना के उपरान्त प्राचीन नाटय-सक्षणों में संशोधन की मावश्यकता प्रतीत हुई. अथवा दोनों प्रेरणाएँ साथ साथ उत्पन्न हुई, यह निश्चय करपा कठिन है।
___ यद्यपि नाटयार्पणमें विद्वान् व्याकरण की अनेक प्रशुद्धियां निकाल सकते हैं, मोर प्राचार्य की नवीन मान्यतामों का खण्डन भी कर सकते है, पर इतना तो अवश्य ही स्वीकार करना पड़ेगा कि (१) उन दोनों ग्रन्थकारों ने अनेक प्रकाशित नाटय-ग्रन्थों का अध्ययन करके उनके आधार पर एक नये नाट्यशास्त्र का निर्माण किया । (२) अनेक प्रकाशित ग्रन्थों का विषय प्रकाश में लाकर नाट्य-साहित्य की समृद्धि की (३) नाट्य-साहित्य मोर नाट्यशास्त्र का नये ढंग से चिन्तन किया। (४) अनेक गम्भीर विषयों का अपने मतानुसार स्पष्टीकरण किया। (५) विरक्ति प्रधान जैन समाज में शृंगार-प्रधान नाट्यसाहित्य को भी समाहत किया। (६) पूर्वाचार्यों द्वारा निति नाट्य-लक्षणों में संशोधन उपस्थित करने का साहस करके नवीन शैली पर सोचने का मार्ग प्रशस्त किया। (७) रस-विवेचन में इन प्राचार्यों ने एक नया सिद्धान्त उपस्थित किया। ये प्राचार्य रसों को प्रभिनवगुप्त के समान न तो सुख-दुःख रूप ही मानते हैं, न इनका मत धनंजय-धनिक एवं विश्वनाथ के समान सुखात्मकवादी ही है। इनका मत विभज्यवादी मत कहलाता है जिसके विषय में हम पूर्व विवेचन कर पाए हैं।
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श्रीरामचन्द्र-गुणचन्द्र विरचितं स्वोपज्ञविवरणविभूषितं
नाट्यदर्पणम्
प्रथमो विवेकः चतुर्वर्गफलां नित्यं जैनी वाचमुपास्महे । रूपैदिशभि-विश्वं यया न्याय्ये धृतं पथि ॥१॥ अथ श्रीमदाचार्य विश्वेश्वरसिद्धान्तशिरोमणिविरचिता
नाट्यदर्पणदीपिका हिन्दी व्याख्या इनोत पृच्छ जनिमा कवीनां मनोधृतः सुकृतस्तक्षत द्याम् । इमा उ ते प्रण्यो वर्धमाना मनोवाता अघ नु धर्मणि ग्मन् ।।
ऋग्वेद ३-३८-२। विश्व-नाट्यमिदं सूत्रधारो यस्तनुते सदा। रसकन्दस्वरूपाय तस्मै सूत्रात्मने नमः ।।
यदंश-भायं भरते सवृत्तिके कृतं, न पूर्ति-विषयस्य तावता। अतोऽस्य पूत्य परिशिष्टरूपतः :
तनोमि वृत्तिं खलु नाट्यदर्पणे ।। वृत्तिभागका मङ्गलाचरण
[धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप] चतुर्वर्गात्मक फलोंको प्रदान करने वाली [रागादि के विजेता] जिनोंकी [उस] वाणीको हम नमस्कार करते हैं जिसने [अपने] बारह रूपों के द्वारा संसारको न्यायोचित मार्गमें स्थापित किया है ।१।
इस ग्रन्थके निर्माता श्री रामचन्द्र-गुणचन्द्र (१०६३-११७५) दो व्यक्ति हैं। उन्होंने सम्मिलित रूपसे इस ग्रन्थकी रचना की है। दोनों जैन आचार्य श्री हेमचन्द्र के शिष्य और परस्पर सहाध्यायी गुरुभाई हैं। जैन मतावलम्बी होनेके कारण इस गङ्गलश्लोक में उन्होंने 'जैनी-वाणी' अर्थात् रागादि विजेता अपने आराध्य जिनोंकी वाणीको नमस्कार किया है । उस 'जिन-वाणी' के उन्होंने 'द्वादश-रूप' बतलाए हैं । ये 'द्वादस-रूप' जैन शास्त्रोंमें निम्न प्रकार गिनाए गए हैं
१. प्राचाराग, २. सूत्रकृताङ्ग, ३. स्थानाङ्ग, ४. समवायाङ्ग, ५. भगवती,
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२. ]
नाट्यदर्पणम्
महाकविनिबद्धानि दृष्ट्वा रूपाणि भूरिशः । स्वयं च कृत्वा, स्वोपज्ञं नाट्यलक्ष्म विवृवहे ||२||
६. ज्ञाताधर्मकथा, ७ उपासकदशा, 5 अन्तकृद्दशाङ्ग, ६ अनुत्तरोपपायिक, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाक और १२ दृष्टिवाद |
श्राचाराङ्गसे लेकर दृष्टिवाद पर्यंत इन 'द्वादश रूपों के द्वारा ही रागादिके विजेता जिनोंको वारणीने विश्वको धर्ममार्ग में स्थित रहने की प्रेरणा प्रदान की है। इसलिए ग्रन्थकारने यहाँ उन द्वादश रूपों वाली जिन-वारणीको नमस्कार किया है। किन्तु इसके अतिरिक्त यहाँ 'द्वादश रूपों' की चर्चा करनेका कुछ और भी कारण है उसका सम्बन्ध इस ग्रन्थसे है । नाट्यदर्पण के आरम्भ में जो यह मङ्गल- श्लोक लिखा गया है उसका ग्रन्थके प्रतिपाद्य नाट्य विषय के साथ भी कुछ सम्बन्ध होना चाहिए। इस दृष्टिसे ग्रन्थकार इसकी नाट्यपरक भी आगे स्वयं प्रस्तुत करेंगे । इस व्याख्या में 'द्वादरूपैः' से बारह प्रकार के रूपकभेदोंका ग्रहण किया जायगा । इसी दृष्टिसे ग्रन्थकारने यहाँ विशेष रूपसे 'रूपंद्वादशभिः ' पदों का समावेश किया है ।
[ अव०
नाट्य विषयपर सबसे प्राचीन और प्रामाणिक ग्रंथ भरत मुनिका 'नाट्यशास्त्र' है । उसके बाद 'दशरूपक', 'भावप्रकाश', 'साहित्यदर्पण' तथा 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' आदि अनेक प्रत्थों में नाट्य-सम्बन्धी विषयका विवेचन किया गया है। इन सबमें ही प्रायः रूपक के दस भेद गिनाए गए हैं । दश-रूपककार धनञ्जयने तो अपने ग्रन्थका नाम हो 'दशरूपक' रखा है। उससे रूपक के मुख्य दस भेदोंकी सूचना मिलती है। उन्होंने दस रूपकों का सम्बन्ध दस अवतारोंके साथ भी जोड़ा है। दस अवतारोंके समान रूपक भी दस ही हैं, यह उनका मत है । परन्तु फिर भी उन्होंने गौरा भेदके रूपमें ग्यारहवें भेद 'नाटिका' का भी उल्लेख किया है। मौर 'रत्नावली नाटिका' के बहुत से उदाहरण भी ग्रंथ में प्रस्तुत किए हैं। 'भावप्रकाश' तथा साहित्यदर्पणकार ने भी 'नाटिका' को ग्यारहवाँ भेद माना है और उसके उदाहरण रूप में 'रत्नावली - नाटिका' का उल्लेख किया है । इस प्रकार अन्य प्राचार्यो के मत में भी रूपकके ग्यारह भेद बन जाते हैं । किन्तु यहाँ ग्रंथकार ने 'प्रकरणी' नामक एक और भेद करके रूपकके बारह भेद कर दिए हैं । उसी श्राधारपर यहाँ 'द्वादश रूपों' की चर्चा की गई है ।
इस ग्रंथ के दो भाग हैं एक कारिका भाग श्रीर दूसरा उसका वृत्ति प्रथवा विवरण भाग । दोनों भागों के रचयिता एक ही हैं । अर्थात्- जिन्होंने मूल कारिकाओंकी रचना की है, उन्होंने उनपर स्वयं ही वृत्ति भी लिखी है। इसलिए यह मङ्गल-श्लोक कारिका भाग और वृत्ति भाग दोनोंके प्रारम्भ में दिया गया है । यहाँपर यह श्लोक वृत्ति भागके मङ्गलाचरण के रूपमें दिया गया है। मूलकारिका भागके मङ्गलाचरण के रूप में प्रागे फिर इसको लिखकर इसकी व्याख्या करेंगे । सम्प्रति वृति भागको प्रवतरणिकांके रूपमें बारह श्लोक लिखते हैं ।
वृत्ति भागकी अवतरणिका -
.
[कालिवास प्रावि] महाकवियोंके बनाए हुए अनेक रूपकों [ भूरिशः रूपाणि ] को
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अव.]
प्रथमो विवेकः अलङ्कारमृदुः पन्थाः कथादीनां सुसञ्चरः । दुःसञ्चरस्तु नाट्यस्य रसकल्लोलसङ्कलः ॥३॥ न गीतावाद्यनृत्तज्ञा लोकस्थितिविदो न ये । अभिनेतुच कतुं च प्रबन्धास्ते बहिर्मुखाः ॥४॥
देखकर और स्वयं भी [अनेक रूपकोंका निर्माण करके [मर्शत नाव्य-लक्षण मादिका पूर्ण मान और अनुभव प्राप्त करके हम दोनों [अर्थात् इस ग्रंथके रचयिता रामचन्द्र गुरणचन्द्र इस नायवर्पण ग्रंथमें नाव्य-लक्षणकी विवेचना [प्रारम्भ करते हैं ।२।।
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि इस ग्रन्थके कर्ता रामचन्द्र और गुणचन्द्र दो व्यक्ति हैं। उन दोनोंने मिलकर इस ग्रन्थकी रचना की हैं। इस माट्यदर्पणके अतिरिक्त 'द्रव्यालङ्कारवृत्ति' नामक एक और भी ऐसा ग्रन्थ है जिसकी रचना इन दोनोंने मिलकर की है। गुणचन्द्रका स्दतन्त्र रूपसे लिखा हुआ कोई अन्य नहीं मिलता है। परन्तु रामचन्द्र ने स्वतन्त्र रूपसे भी बहुतसे ग्रन्थोंकी रचना की है। उनको प्रायः 'प्रबन्ध-शतकर्ता उपाधि से विभूषित किया जाता है। इसका अभिप्राय यह हुमा कि उन्होंने लगभग सौ ग्रन्थोंकी रचना की थी। उनके सब ग्रन्ध तो अब तक नहीं मिले हैं और न उनके नाम ही ज्ञात हैं किन्तु फिर भी अपने ग्यारह नाटकोंका उल्लेख उन्होंने अपने इस ग्रन्थमें स्थान-स्थानपर किया है। अर्थात् अधिक नहीं तो कम-से-कम ग्यारह नाटक तो उन्होंने बनाए ही हैं। जब इतने नाटक उन्होंने स्वयं बनाए हैं तो सम्भवतः अपने समयमें उपलब्ध प्रायः सभी नाटक उन्होंने पढ़ डाले होंगे। इतने नाटकोंके पढ़ने और स्वयं बनानेके बाद उन्होंने इस नाट्यदर्पणकी रचनामें हाथ लगाया है इससे विदित होता है कि वे इस विषयपर ग्रन्थ लिखने के लिए प्रत्यन्त उपयुक्त और अधिकारी व्यक्ति हैं। इसी बातको सूचित करने के लिए उन्होंने इस श्लोक में सबसे पहले अपने नाट्य-विषयक इस विशाल अनुभवका उल्लेख उपर्युक्त प्रकारसे किया है। नाट्यरचनाकी दुष्करता
काव्यके, श्रव्य-काव्य, नाटक आख्यायिका प्रादि अनेक भेद माने गए हैं। इन सबकी ही रचनाके लिए विशेष प्रकारको प्रतिभाकी प्रावश्यकता होती है किन्तु ग्रंथकार की दृष्टि में नाटककी रचना अन्य प्रङ्गोंकी अपेक्षा अधिक कठिन है । इसलिए वे अगले श्लोकोंमें उसकी दुष्करताका प्रतिपादन करते हुए लिखते हैं
कथा प्रावि [काव्यके अन्य प्रभेदोंकी रचना का मार्ग अलङ्कारोंसे कोमल हो मानेके कारण सुखपूर्वक सञ्चरण करने योग्य है [मर्थात् अलङ्कार-प्रधान कथा प्रादिकी रचना सरलतासे की जा सकती है] किन्तु रसोंको कल्लोलोंसे परिपूर्ण होनेसे नाट्यका मार्ग प्रत्यन्त कठिन. [दुःसञ्चर] है। ३ ।
जो गीत-वाद्य-नृत्य प्रादिको नहीं जानते हैं और जो लोक-व्यवहार में कुशल नहीं हैं वे [प्रवन्धान अर्थात्] नाटकोंका अभिनय करने और रचना करनेकेलिए [बहिर्मुख हैं अर्थात्] अधिकारी नहीं हैं । ४।
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४]
दर्पणम्
स कविस्तस्य काव्येन मर्त्या अपि सुधान्धसः । रसोमिंघूर्णिता नाट्य यस्य नृत्यति भारती ||५|| नानार्थशब्दलौल्येन पराश्वो ये रसामृतात् । विद्वांसस्ते कवीन्द्राणामर्हन्ति न पुनः कथाम् ||६||
१
इन श्लोकों में ग्रन्थकारने कथा प्रादि काव्यभेदोंके मार्गको 'अलङ्कारमृदु:' भतएव 'सुसञ्चर' कहा है और नाटककी रचनाके मार्गको 'रस- कल्लोल - संकुल' होनेके कारण 'दुः सञ्चर' बतलाया है । किन्तु कथा आदि गद्य-काव्यों के लेखकोंने 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' लिखकर उस गद्य रचनाको ही कवियोंकी प्रतिभाकी परखके लिए कसौटी माना है । इसी प्रकार पद्यात्मक प्रबन्ध-काव्यों के लेखकोंने छन्दके परिमित अक्षरोंके बन्धन में बँधकर की जाने वाली काव्य रचना ही कवि-प्रतिभाका निकष माना है । वास्तव में प्रतिभावातु कवियों के लिए तो सभी मार्ग सुसञ्चर हैं और अप्रतिभावानोंके लिए सभी जगह कठिनाई है । पण्डितराज जगन्नाथने अपनी रचना शक्तिकी प्रसंशा करते हुए लिखा है
साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रहग्रन्थिले
तर्फे वा मयि संविधातरि समं लीलायते भारती । शय्या वास्तु मृदूत्तरच्छदवती दर्भाङ्कुरैरास्तृता । भूमिर्वा हृदयङ्गमो यदि पतिस्तुल्या रतिर्योषिताम् ॥ जिस प्रकार अनुकूल पतिके होनेपर चाहे कठोर भूमि हो या कोमल सुसज्जित शय्या हो स्त्रियोंके श्रानन्द श्रौर विलास में कोई अन्तर नहीं पड़ता है इसी प्रकार प्रतिभावान् कविके होनेपर वह किसी मार्ग चले उसके आगे सरस्वती समान रूपसे ही अपने सौन्दर्यको अभिव्यक्त करती है, उसमें अन्तर नहीं माता है ।
रसकवियों की प्रशंसा
नाट्यकी रचनाको 'रस- कल्लोल - संकुल' होनेके कारण ही कठिन कहा गया था। किन्तु वह रस ही नाट्य या काव्यका प्रारण है। इसीलिए 'रससिद्धाः कवीश्वराः' रसकवियोंकी सर्वत्र प्रशंसा की गई हैं। अगले श्लोक ग्रन्थकार भी उनकी लिखते हैं
में
प्रशंसा करते हुए
[ भव०
मर्त्यलोकके घासी
ant [ वास्तविक ] कवि है और उसके काव्य [ के पढ़ने ] से [ मनुष्य ] भी [ काव्यरस रूप ] श्रमृतका पान करने वाले बन जाते हैं जिसकी वारणी नाटक में रसकी लहरियोंमें चकराती हुई-सी नाचती है । ५ । शब्द-कवियोंकी निन्दा
जो कवि नानार्थक [श्रर्थात् श्रनेकार्थ- वाचक लिष्ट ] शब्दोंके प्रलोभनमें [ पड़कर ] रसामृत्रसे पराङ्मुख हो जाते हैं [अर्थात् रसकी उपेक्षा कर, केवल श्लेष श्रादिके निर्वाहके लिए शब्द प्रधान तुकबन्दीमें लग जाते हैं] वे विद्वान् [शब्दपटुताके कारण विद्वान् तो कहे जा सकते हैं किन्तु वे 'कवीन्द्राणां कथां न प्रर्हन्ति'] उत्तम कवि नहीं कहला सकते हैं । ६ !
१. कथम् ।
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अव० ]
प्रथमो विवेक:
रसानिस्यन्दकर्कशाः ।
श्लेपालङ्कारभाजोऽपि दुर्भगा इव कामिन्यः प्रीणन्ति न भनो गिरः ||७! आरङ्काद् भृपतिं यावदौचितीं न विदन्ति ये । स्पृहन्त कवित्वा खेलनं ते सुमेधसाम् ||८||
नीरस वाणीकी निन्दा
श्लेष अलङ्कारसे युक्त होनेपर रस- प्रवाहसे रहित होनेके कारण कर्कश [वियों को] वाणी उसी प्रकार [सहृदयों के ] अनको प्रफुल्लित नहीं करती है जिस प्रकार श्रालिङ्गन करती हुई श्रौर श्रलङ्कारोंसे सजी हुई होनेपर भी [ यौन] रसके न निकलने के कारण कठोर भग वाली [दुभंग] स्त्रियाँ [पुरुषोंको] श्राह्लादित नहीं करती हैं । ७ ।
इस प्रकार इन तीन श्लोकों में ग्रन्थकारने रसकवियोंकी प्रशंसा करते हुए यह दिखलाया है कि रस ही काव्य या नाटकका सर्वस्व है। उससे रहित नाटकों को अलङ्कार प्रादिसे चाहे जितना भी अलंकृत कर दिया जाय वे सहृदयों को प्राकृष्ट नहीं कर सकते हैं । सहृदयों के आकर्षण के लिए रसप्रधान नाटक ही उपयुक्त हो सकते हैं । कवियों के लिए व्यवहार ज्ञानकी उपयोगिता
उत्तम काव्य या नाटककी रचनाके लिए सबसे मुख्य कारण तो कविकी प्रतिभा है । किन्तु उसके बाद कविकी व्युत्पत्ति अर्थात् लौकिक तथा शास्त्रीय व्यवहारका परिज्ञान भी दूसरा अनिवार्य कारण है । मम्मट श्रादिने तो इन दोनों को अलग-अलग कारण न मानकर सम्मिलित रूपसे कारण माना है । और उनके साथ 'काव्यहशिक्षयाभ्यासः' ग्रर्थाद अभ्यासको भी जोड़कर ---
[ ५
शक्ति निपुणता लोक-शास्त्र- काव्याद्यवेक्षणात् । काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे ||
काव्यप्रकाश १-२ :
शक्ति अर्थात् कवित्वकी बीजभूत प्रतिभा, लोक, शास्त्र तथा काव्यादिके परिशीलन से उत्पन्न निपुणता अर्थात् व्युत्पत्ति, और काव्यके निर्माण तथा उसकी विवेचना में समर्थ काव्यज्ञोंकी शिक्षा के अनुसार अभ्यास करना ये तीनों मिलकर 'हेतु:' अर्थात् काव्यके कारण होते हैं । 'न तु हेतवः' अलग-अलग तीन कारण नहीं होते हैं। इसी दृष्टिसे यहाँ भी ग्रन्थकार लोकव्यवहार प्रादिकी उपयोगिताका प्रतिपादन करते हुए लिखते हैंनिर्धन से लेकर राजा तक [ के व्यवहार] के प्रौचित्यको जो नहीं जानते हैं और forest कामना करते हैं [अर्थात् कवि बनना चाहते हैं] वे विद्वानोंके उपहासके [मनोरंजनके] पात्र बनते हैं [ लेखनं ते सुमेधसाम् ] ८० विद्वत्ता के साथ कवित्व आवश्यक --
अगले श्लोकोंमें ग्रन्थकार इस बातपर बल देते हैं कि लोक रंजन और लोकमें प्रतिष्ठाकी प्राप्ति केवल विद्वत्ताके द्वारा नहीं हो सकती है । इनकी प्राप्तिके लिए शास्त्रीय विद्वत्ता के साथ कवित्वकी शक्ति भी श्रावश्यक है । कवित्वके बिना कोरा विद्वान् लोकमें न प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है और लोकका ध्यान अपनी श्रोर श्राकर्षित कर सकता है ।
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. नाट्यदर्पणम्
[ अव० गणाः कवित्वं विद्यानां लावण्यमिव योषिताम् । विद्यवेदिनोऽप्यस्मै ततो नित्यं कृतस्पृहाः ॥६॥ नासिकान्ते द्वयं श्वित्रं द्वयोवींडा रसज्ञयोः कुचामावः कुरङ्गाक्ष्याः काव्याभावो विपश्चितः ॥१०॥ अकवित्वं परस्तावत् कलङ्कः पाठशालिनाम् ।
अन्यकाव्यः कवित्वं तु कलङ्कस्यापि चूलिका ॥११॥ स्त्रियोंके लावण्यके समान कवित्व, विद्यानोंका प्राणरूप है। इसलिए त्रयोविद्याके जानने वाले विदोंके विद्वान] भी इस [कवित्वकी प्राप्ति के लिए सदा उत्सुक रहते हैं ।।।
[श्लोकके उत्तराखं में कही जाने वाली] दो वस्तुएँ नाकके ऊपर हुए कोढ़के समान है और [इन] दोनोंसे रसज्ञोंको लज्जा होती है। [वे दोनों वस्तुएँ कौन सी यह कहते हैं। उनमेंसे एक तो] मृगनयनी [सन्वरी] के स्तनोंका प्रभाव [अर्थात् छोटे स्तन का होना और दूसरा) विद्वानका काव्याभाव [अर्थात् कवि न होना, ये दोनों नाकपरफे कोढ़ के समान लज्जाप्रद होते हैं] ॥१०॥ . काव्यापहरणकी निन्दा
जैसा कि पिछले श्लोकोंमें कहा गया है बिना कवित्वके केवल कोरे विद्वानोंको भी जगत्में पादर प्राप्त करना कठिन हो जाता है। इसलिए कभी-कभी कवित्वकी प्रतिभा से हीन, किन्तु लोकमें प्रादर पानेके लिए उत्सुक, विद्वान् भी दूसरोंके काव्यको चुराकर अपहरण कर अपने नामसे प्रसिद्ध कर देते हैं और इस प्रकार अनायास ही लोकमें पादर प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार लोगोंकी निन्दा करते हुए ग्रन्थकार अगले श्लोक में लिखते हैं
[पाठशालिनाम् अर्थात् विद्वानोंकेलिए कवि न होना ही बड़ा कलङ्क है किन्तु अन्यों के काव्यसे [अर्थात् दूसरोंके काव्यका अपहरण करके अपने नामसे प्रसिद्ध करनेसे] कवित्व [को प्राप्त करनेका यत्न तो कलरकी भी चूलिका [और भी अधिक बढ़ाने वाली चेष्टा]
राजशेखर प्रादिने इस प्रकारके कवियोंका अच्छा विवेचन किया है। उन्होंने कवियोंके चार भेद किए हैं। (१) उत्पादक कवि, (२) परिवर्तक कवि, (३) आच्छादक कवि
पोर (४) संवर्गक कवि। इनमेंसे 'उत्पादक' कवि उसको कहते हैं जो अपनी प्रतिभाके . बलसे सुन्दर मूतन काव्यकी स्वयं रचना करता है। वही वास्तवमें कवि कहलानेका अधिकारी है। दूसरा 'परिवर्तक' कवि वह कहलाता है, जो किसी अन्य कविके भाव और शब्दों में हेर-फेर करके उसको अपना काव्य बना लेता है। अर्थात् कुछ परिवर्तनोंद्वारा दूसरेकी कवितापर अपने व्यक्तित्वकी छाप लगा देता है। तीसरे प्रकारका कवि 'पाच्छादक' कवि होता है । वह दूसरेकी रचनाको छिपा देता है, प्रकाशित होनेका अवसर नहीं देता है पौर उसीसे मिलती-जुलती या हीन कोटिकी भी अपनी कविताको प्रसिद्ध कर देता है । चौथा कवि 'संवर्गक' कवि कहलाता है। 'संवर्गक' का अर्थ डाकू है। जो दूसरे काव्यको
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अव० ] प्रथमो विवेकः
[ ७ खुल्लम-खुल्ला अपना कहकर प्रकाशित करनेका दुस्साहस करता है वह 'संवर्गक-कवि' कहलाता है । परिवर्तक कवि और आच्छादक कवि यदि चोर कवि हैं तो संवर्गक-कवि डाकू कवि है। कवियोंके ये सब भेद प्राचीन काल में भी पाए जाते थे और अब भी पाए जाते हैं। इस प्रकारके कवियों के विषय में निम्न श्लोकमें अच्छी चुटकी ली गई है
कविरनुहरति च्छायां, अर्थ कुकविः, पदादिकं चौरः।
सकलप्रबन्धहत्रे साहसकर्त्रे नमस्तस्मै । अर्थात् कवि यदि कभी काव्यापहरणका यत्न करता है तो वह केवल छायामात्रका ही अपहरण करता है। कुकवि दूसरेके काव्य से अर्थका अपहरण करता है और चोर कवि पदादिका अपहरण करता है। किन्तु जो सारे प्रबन्ध, सारे काव्यका ही अपहरण कर लेता हूँ उस साहसिक डाकूको दूरसे नमस्कार है।
इसका अभिप्राय यह हुआ कि दूसरोंके काव्यसे छायामात्रका अपहरण करना, ग्रहण कर लेना अनुचित नहीं है उसकी अनुमति सुकविके लिए भी प्रदान की गई है। किन्तु अर्थापहरण, पदापहरण और प्रबन्धापहरण उत्तरोत्तर गुरुतर अपराध बन जाते हैं । त्रिविध काव्यसंवाद--
ऊपरके श्लोकमें 'कविरनुहरति च्छायां' लिखकर कविको छायापहरणको अनुमति-सी प्रदान कर दी गई प्रतीत होती है । इसका कारण यह है कि काव्योंमें बहुधा साम्य भी पाया जाता है। और वह साम्य कभी-कभी महाकवियोंके काव्योंमें भी पाया जाता है। पर वह छाया-साम्य ही होता है । ध्वन्यालोककार प्रानन्दवर्धन तथा राजशेखर प्रादि ने इस प्रकारके काव्य-साम्यको तीन भागोंमें विभक्त किया है। (१) प्रतिबिम्ब-कल्प साम्य, (२) प्रालेख्यप्रख्य साम्य और (३) तुल्यदेहिवत् साम्य । इनका वर्णन करते हुए मानन्दवर्धनाचार्यने लिखा है
संवादो धन्यसादृश्यं तत् पुनः प्रतिबिम्बवत् ।
आलेख्याकारवत् तुल्य देहिवच्च शरीरिणाम् ॥ ध्वन्यालोक ४.१२ । इनके लक्षण राजशेखरने निम्न प्रकारसे किये हैं
अर्थः स एव सर्वो वाक्यान्तरविरचनापरो यत्र । तदपरमार्थविभेदं काव्यं प्रतिबिम्बकल्पं स्यात् ॥ कियतापि यत्र संस्कारकर्मणा वस्तु भिन्नवद् भाति ।
तत् कथितमर्थचतुरै-रालेख्यप्रख्यमिति काव्यम् ।। अर्थात् प्रतिबिम्बकल्प-काव्य, मूलकाव्यका प्रतिविम्बमात्र प्रतीत होता है उसका अपना व्यक्तित्व और स्वरूप मूल काव्यसे अलग प्रतीत नहीं होता है । प्रानन्दवर्धनाचार्यने इस प्रकारके काव्यको 'तात्त्विक-शरीर-शून्य' और राजशेखरने उसको 'अपरमार्थ-विभेद' कहा है। यह काव्य सर्वथा हेय है। दूसरे भालेख्यप्रख्य काव्य में मूलकाव्यका कुछ संस्कार करके उसकी रचना की जाती है। जिससे वह प्रतिविम्बभावको छोड़कर आलेख्य या चित्रके समान प्रतीत होता है। यह भी हेय ही माना जाता है। तीसरा 'तुल्यदेहिवत्' साम्य माना गया है। मानन्दवर्धनने इसके विषय में लिखा है
तत्त्वस्यान्यस्य सद्भावे पूर्वस्थित्यनुयाय्यपि । वस्तु भातितरां तन्व्याः शशिच्छायमिवाननम् ।। ध्वन्या० ४-१४ ।
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[ का० १ सू० १
नाट्यदर्पणम कवित्ववन्ध्याः क्लिश्यन्ते सुखाकतु जगन्ति ये । नेत्रे निमील्य विद्वांसस्तेऽधिरोहन्ति पर्वतम् ||१२|| अथ शिष्टसमयपरिपालनाय प्रत्यूहव्यूहोपशमनाय च सकल सन्दर्भार्थम्तवनागर्भ समुचितेष्टाधिदैवतस्य सूत्रकारों नमस्कार श्लोकं परामृशन:[ सूत्र १ ] - चतुर्वर्गफलां नित्यं जैनीं वाचमुपास्महे । रूपैर्द्वादशभि- विश्वं यया न्याय्ये पथि धृतम् ॥ १ ॥
८]
अर्थात् जिस प्रकार कामिनीका मुख पूर्ववर्ती चन्द्रमाकी कान्तिका अनुसरण करने पर भी प्रत्यन्त शोभित होता है इसी प्रकार पूर्वकाव्यकी छायाका अनुसरण करनेवाला नवीन काव्य भी चमत्कारयुक्त हो सकता है । श्रानन्दवर्धन इस प्रकारके काव्य- साम्यके समर्थक हैं । इसीको पूर्व इलोक में "कविरनुहरति च्छायां" लिखकर ग्राह्य कहा गया है ।
कवित्वशक्तिसे रहित जो [विद्वान् प्रपनी कोरी विद्याके श्राधारपर ] जगत्को प्रसन्न [सुखी] बनानेका क्लेश उठाते हैं वे विद्वान् मानो आँखें मींच कर पर्वतपर चढ़ने का यत्न करते हैं। [श्रर्थात् वे कभी अपने कार्य में सफल नहीं हो सकते हैं] उनका वह प्रयास प्रविवेकपूर्ण है ॥ १२ ॥
मूल ग्रन्थका मैङ्गलाचरण
ऊपरके बारह श्लोक ग्रन्थकी अवतरणिका रूपमें लिखे गए थे । वे मूल ग्रन्थ के भाग न होकर उसके व्याख्याभूत विवरणके भाग थे । अब प्रागेसे मूल ग्रन्थ धौर उसकी व्याख्याका श्रारम्भ होता है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है यह ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है- एक मूल कारिका भाग जिसको सूत्रभाग भी कहा जाता है, और दूसरा उसका व्याख्या - भाग श्रथवा विवरण भाग कहलाता है। इन दोनों भागोंके निर्माता एक ही व्यक्ति हैं । प्रर्थात् सूत्रकारोंने स्वयं ही उसपर विवरण भी लिखा है । इसलिए मूल सूत्र ग्रन्थका जो मङ्गल श्लोक था उसीको उन्होंने अपने विवरणके प्रारम्भमें मङ्गलश्लोकके रूपमें भी दे दिया है । 'चतुवर्गफलां' इत्यादि श्लोकको हम इससे पहिले भी देख चुके हैं, वही श्लोक अब फिर श्रा गया है। इसका यही कारण | पहिली जगह विवरण या व्याख्या-भागके मङ्गलश्लोकके रूपमें उसको दिया गया था । अव उसे मूल सूत्र-ग्रन्थ के मङ्गलदलोकके रूपमें लिखकर स्वयं सूत्रकार ही उसकी व्याख्या कर रहे हैं। इस बात को समझ लेनेसे श्लोककी पुनरावृत्ति से किसी प्रकारका संशय या भ्रम उत्पन्न नहीं होगा ।
'सदाचार के परिपालन के लिए श्रौर विघ्न समुदायके नाश करनेकेलिए सूत्रकार [अर्थात् मूल सूत्र ग्रन्थके निर्माता रामचन्द्र गुरणचन्द्र ] सम्पूर्ण ग्रन्थके अर्थको स्तुति से युक्त [प्रन्थके प्रारम्भमें नमस्कार करने योग्य ] समुचित इष्टदेवता [जैनी वाक् श्रर्थात् सरस्वती ] के नमस्कार -परक श्लोक लिखते हैं-
[ सूत्र २] - [ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप] चतुर्वर्गात्मक फलको प्रदान करने वाली [रागादि दोषोंको जीत लेने वाले श्रत एव ] जिनों [प्रर्थात् जिन नामसे कहे जाने वाले सन्तों] की [ उस] वारणीको [ इस ग्रन्थके निर्माता हम दोनों] नमस्कार करते हैं जिसने
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का० १ सू० १ ]
प्रथमो विवेकः
[ ε
'चतुर्वर्गे' इत्यादि - चतुर्वर्गो धर्म-अर्थ-काम-मोक्षा, यथौचित्यं प्रधानं गौ वा 'फलं' यस्याः । समुदाय समुदायिनोरभेदोऽप्यस्ति, तेन पुरुषभेदेन एक-द्वि-त्रिपुरुषार्थ फलत्वेऽपि चतुर्वर्गफलत्वं न विहन्यते ।
इष्टलक्षणत्वाच्च फलस्य यो यस्य पुरुषार्थोऽभीष्टः स तस्य प्रधान, अपरो गौणः | 'नित्यम्' इत्यनेन आवश्यकं वाचः चतुवर्गफलं प्रति हेतुत्वमुच्यते । अर्थापेक्षया जिनानामियं 'जैनी' । जिनोपदिष्ट' ह्यर्थं ऋषयो प्रश्नन्ति | 'वाचम्' इति भारतीम् । 'उपास्महे' तदर्थानुष्ठानेन समीपे वर्तामहे । समीपवृत्या च तदेकशरणत्मात्वमात्मनः ख्यापितम् ।
[अपने प्राचाराङ्ग से लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त प्रसिद्ध] बारह रूपोंके द्वारा समस्त जगत्को न्यायोचित [ धर्मानुकूल ] मार्ग में नियन्त्रित किया है |१|
'चतुर्वर्ग' इत्यादि [व्याल्येय श्लोक का प्रतीक भाग है । श्रागे उसकी व्याख्या करते हैं] चतुर्वर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष [रूप चारों पुरुषार्थ प्रकरणानुकूल] प्रौचित्य अनुसार जिसके प्रधान या गौण फल हैं [ वह चतुर्वगंफला वारणी हुई ] । समुदाय श्रौर समुदाय [श्रर्थात् समष्टि और व्यष्टि ] का प्रभेद भी [माना जाता ] है इसलिए पुरुषभेदसे [कीं] एक [ कहीं ] दो और [कहीं] तीन पुरुषार्थके फल होनेपर भी चतुर्वर्गफलत्व का खण्डन नहीं होता है ।
इसका अभिप्राय यह है कि यहाँ जिन वारणीका जो 'चतुर्वर्गफलत्व' प्रतिपादन किया है वह सर्वत्र समान रूपसे घटित नहीं होता है । पुरुषभेदसे उसमें भेद पाया जाता है । कहीं धर्म अर्थ कामादिमें से केवल एक ही फलकी प्राप्ति होती है । कहीं दो फल भी मिल सकते हैं और कहीं तीन या चार फल भी मिल सकते हैं। इसलिए जिन वारगी कहीं एकफला, कहीं द्विफला, और कहीं त्रिफला भी हो सकती है । इसलिए यहाँ जो 'चतुर्वर्गफलत्व' कहा है सो उचित नहीं है । यह शङ्का हो सकती है । इस शङ्काका समाधान करनेकेलिए ग्रन्थकारने समुदाय और समुदायी अर्थात् समष्टि और व्यष्टि के प्रभेद - सिद्धान्तका श्राश्रय लिया है । इस सिद्धान्त के अनुसार समुदायी अर्थात् व्यष्टि रूप धर्म, अर्थ आदि अलग-अलग व्यक्तियों और उन चारोंके समुदाय अर्थात् समष्टिको अभिन्न मानकर केवल एक, दो या तीन फलों के होने पर भी चतुर्वर्गफलत्व बन जाता है। उसमें कोई दोष नहीं होता है । यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है ।
ये चारों फल सर्वत्र समान स्थितिमें भी नहीं होते हैं । कोई प्रधान होता है प्रोर कोई गौरा । जो फल जिस समय जिस व्यक्तिको विशेष रूपसे अभीष्ट होता है वह उस समय प्रधान फल कहलाता है और शेष फल गौरग कहलाते हैं । परन्तु वह फल चाहे प्रधान रूप हो अथवा गौण रूप, प्रत्येक दशा में चतुर्वर्गफलके भीतर गिना जाता है । तभी उन चारोंकी फलरूपताका उपपादन हो उकता है ऐसी बातको प्रागे कहते हैं---
और फलके इष्ट होने से [अर्थात् अभीष्ट अर्थकी प्राप्तिके ही फल-पद- वाच्य होनेसे धर्मादि चारों पुरुषार्थोमेंसे जिस समय ] जो पुरुषार्थ जिसको प्रभीष्ट है वह उसके लिए प्रधान [ फल ] होता है और प्रत्य [पुरुषार्थ ] गौरग [ फल ] होते हैं । [ 'चतुर्वर्गफलों के साथ अन्वित होने वाले ] 'नित्यम्' इस पदसे वारणीका चतुर्वर्गफलके प्रति आवश्यक - श्रनिवार्य —हेतुत्व
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१० नाट्यदर्पणम्
[ का० १, सू०१ 'नित्यम्' इत्यस्यात्रापि सम्बन्धादुपासनस्याविच्छित्तिः ख्यापिता । रूपाणि अङ्गान्याचारादीनि दृष्टिवादपर्यन्तानि । 'द्वादश' प्रसिद्धानि । संख्या निर्देशेन चानियन्त्रितसंख्याया जिनवाचः प्रस्तुतातुल्यत्वेन व्यवच्छेदः कथ्यते ।
___ 'विश्वम्' इति समुदायापेक्षमेकत्वम्। कर्मभूमित्वात् प्राधान्यविवक्षया मनुष्यलोको का विश्वम् । 'न्याय्ये' न्यायादनपेते । 'धृतम' व्यवस्थापितम् । व्यवस्थापनस्य काल्येऽपि अतीतनिर्देशोऽर्थापेक्षया वाचोऽनादित्वख्यापनार्थः । 'पथि' इति पुरुषार्थप्रापणोपायत्वादहिंसा-दानादिकं कर्म लक्ष्यते । सूचित किया है ।' [अर्थात् जिनवाणी अवश्य ही चतुवर्गरूप फलको प्रदान करने वाली होती है। यह जिन-वाणी सर्वत्र साक्षात् शब्दात्मक ही हो यह आवश्यक नहीं है किन्तु] अर्थको अपेक्षासे [रागादिके विजेता अत एव 'जिन' नामसे प्रसिद्ध सन्तों] जिनोंकी यह [वारणी] 'जैनी' वाग [कही गई है। जिनों [ अर्थात् रागादि विजेता सन्तों ] के द्वारा बतलाए हुए प्रर्थको ही ऋषि लोग ग्रन्थ रूपसे लिखते हैं । [इसलिए ऋषियोंके ग्रन्थों में लिखी गई भाषा साक्षात् जिन-वाणी न होते हुए भी 'प्रर्थापेक्षया' जिनोंकी वाणी 'जैनी वाग्' [कही जा सकती है] 'वाचम्' इस पदसे भारती [का ग्रहरण होता है] । 'उपास्महे' इससे उसके अनुसार पाचरण द्वारा उसके समीपमें उपस्थित होते हैं । समीप रहने के द्वारा अपने एकमात्र उसके शरणगत्वका प्रतिपादन किया है।
'नित्यम्' इस पदका अन्वय एक बार पहिले 'चतुर्वर्गफलां' के साथ कर चुके हैं । किन्तु दुबारा 'उपास्महे' के साथ भी ग्रन्थकार उसका अन्वय करना चाहते हैं। और इस प्रकार उपासनाकी नित्यता या निरन्तरता सूचित करना चाहते हैं । इसलिए अगली पंक्तिमें वे अपने इस अभिप्रायको व्यक्त करते हुए लिखते हैं
"नित्यम् इस [पद का यहाँ [उपास्महे पदके साथ] भी अन्वय होनेसे उपासनाका अविच्छेद [नरन्तर्य] सूचित किया है । [बारह] रूप अर्थात् प्राचारादिसे लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त बारह अङ्ग प्रसिद्ध हैं। [द्वादश इस] संख्या निर्देशसे अनियत-संख्या वाली जिन-वाणीके प्रस्तुत [अर्थात् द्वादश संख्या वाले रूपकभेदों के साथ समानता न होनेसे व्यवच्छेद किया गया है ।
___ इसका यह अभिप्राय हुआ कि जिनोंकी वाणी तो अन्य विषयोंसे सम्बन्ध रखने वाली अनेक प्रकारको हो सकती है किन्तु यहाँ उस सबका ग्रहण नहीं किया गया हैं। द्वादशाङ्ग वाली जिन-वाणीकी ही प्रस्तुत द्वादश प्रकारके रूपकोंके साथ समानता हो सकती है इसलिए आचाराङ्गसे लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त द्वादश अङ्गोंका प्रतिपादन करने वाली जिन-वाणीको ही यहाँ नमस्कार किया है।
___'विश्वम्' इस पदमें समुदायको दृष्टिसे एक वचन [का प्रयोग किया गया है । [अर्थात् उस एकवचनसे समष्टि रूपसे सारे चराचर जगत्का ग्रहण करना चाहिए] । अथवा कर्मभूमि [अर्थात् कर्म-योनि] होनेके कारण प्रधानताको विवक्षासें [केवल] मनुष्यलोक [यहाँ] 'विश्व' [पदसे अभिप्रेत हो सकता है। [धर्मपय्यर्थन्यायादनपेते अष्टा० इस सूत्रसे न्याय-शब्दसे यत्प्रत्यय करके 'न्याय्य' शब्दकी सिद्धि होती है। इसलिए] 'न्याय्य' अर्थात् न्यायसे अनपेत [न्यायानुकूल मार्ग] में । 'धृतम्' अर्थात् व्यवस्थित किया । [इस] व्यवस्थापनके अकालिक होने
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का० १, सू०१ ] प्रथमो विवेकः
[ ११ २--प्रथाभिनेयवाक्यपरतया श्लोकोऽयं व्याख्यायते । यद्यपि साक्षात् धर्मअर्थ-कामफलान्येव नाटकादीनि तथापि 'रामवद् वर्तितव्यं न रावण वद्' इति हेयोपादेय-हानोपादानपरतया, धर्मस्य च मोक्षहेतुतया मोक्षोऽपि पारम्पर्येण फलम् । 'नित्यम्' इत्यनेन चतुर्वर्गफलान्येव रूपकाणि निबन्धनीयानि इति ख्याप्यते। जिनानां रागादिजेतृणां लक्षणप्रणयनापेक्षेयं 'जैनी'। न नाम सर्वत्रोपदिष्टं लक्षणं न । नवेक्षाऽर्वाचीनदृशः संक्षेपविस्तराभ्यां तत् कतु प्रभवन्ति । पर भी अर्थात् जिन-वारणीके द्वारा जगत्को न्याय-मार्गमें व्यवस्थित करनेका कार्य, भूत भविष्य वर्तमान तीनों कालोंमें ही होता रहता है फिर भी 'धृतम्' पदमें प्रतीतकालके सूचक क्त-प्रत्ययके द्वारा केवल प्रतीत-कालका निर्देश वाणीके अनादित्वको सूचित करने के लिए किया गया है। 'पथि' मार्ग में इस [पद] से [धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप] पुरुषार्थोके प्राप्त करनेका उपाय होनेके कारण अहिंसा दान आदि कर्मका ग्रहण [पथि पदसे होता है। [अर्थात् जिनोंकी वाणीने विश्वको अहिंसा दान प्रादि कर्मों में लगाया यह 'पथि धृतम्' का अर्थ है। मङ्गल श्लोककी दूसरी व्याख्या
यहाँ तक विवरणकारने मङ्गलश्लोकको सामान्य मङ्गलाचरण-परक व्याख्याकी है। प्रागे वे इसकी दूसरे प्रकारकी व्याख्या करेंगे। इस दूसरी व्याख्याका सम्बन्ध प्रकत नाटकादि रूप विषयके साथ होगा। इसलिए इसमें 'वाचम्' शब्दसे सामान्य वारणी मात्रका ग्रहण न होकर केवल नाटकादि रूप वाणीका ही ग्रहण किया जायगा। शेष पदोंके अर्थों में तो कोई विशेष अन्तर नहीं किया गया है किन्तु उनकी व्याख्या नाटकादिपरक रूपसे भिन्न प्रकारसे दिखलाई है। उसीको अगले अनुच्छेदमें लिखते हैं
- अब आगे अभिनेय-वाक्य [अर्थात् नाटक आदि परक रूपसे इस श्लोकको [दूसरे प्रकारसे व्याख्या करते हैं । यद्यपि साक्षात् रूपसे नाटक प्रादि [बारहों प्रकारके रूपक] धर्म, अर्थ और काम [इन तीनोंमेंसे ही किसी एक] फलको ही प्रदान करने वाले होते हैं [अर्थात् मोक्ष रूप चतुर्थ फलके साध नाटकादिका कोई साक्षात् सम्बन्ध नहीं होता है] फिर भी 'रामके समान आचरण करना चाहिए रावणके समान नहीं' इस प्रकारको हेय [अर्थात् परित्याग करने योग्य अधर्माचरण और उपादेय [अर्थात् ग्रहण करने योग्य धर्माचरण] के [क्रमशः] हान [अर्थात् परित्याग] और उपादान [अर्थात् ग्रहण] परक होनेसे [नाटकादि मोक्षके प्रति भी परम्परया कारण हो सकते हैं। इसलिए मोक्षको भी उनका फल कहा जा सकता है । इसका दूसरा कारण भी अगली पंक्तिमें देते हैं कि] और धर्मके [भी] मोक्षजनक होनेसे परम्परासे मोक्ष भी [नाटिकादिका] फल हो सकता है । 'नित्यम्' इस [पद से चतुर्वर्ग रूप फल के साधक, अथवा चतुर्वर्ग रूप फलको प्रदर्शित करने] वाले ही नाटकादि की रचना [कवियोंको] करनी चाहिए यह बात ["नित्यम्' पदसे सूचित की गई है । [जैनी इस पदमें 'जिन' पदसे तस्येदम् अष्टा० इस सूत्रके द्वारा श्रग -प्रत्यय करके 'जनो' पद बनता हैं । इसलिए उसका अर्थ] जिनानामिय जैनो जिनोंकी यह । अर्थात् जिन-सम्बन्धिनी धारणी यह होता है । और 'जिन' शब्दसे रागादिके विजेता सन्तोंका ग्रहण होता है इसलिए 'जिनों' अर्थात् राग आदिको यश में कर लेनेवालोंकी यह वासी साक्षात् रूपसे जिनप्रोक्त न
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१२ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० १, सू०१ 'वाचम्' नाटकाचां, 'उपास्महे' परिशीलयामः । 'नित्यम' इति अत्रापि सम्बभ्यते । सततापरिशीलिताभिनेयवाचो हि कुतो नामौचित्यवादिनो भवेयुः ।
- रूप्यन्ते अभिनीयन्ते इति रूपाणि नाटकादीनि । अनभिनयानां रूपशब्दाप्रतीतेः सामान्यनिर्देशेऽपि वाचोऽभिनेयत्वं लभ्यते । भूरिभेदत्वेऽप्यभिनेयवाचो 'द्वादभिः ' इति प्रस्तुतप्रकरणापेक्षम् । विश्वम्' इति पूर्ववत् , समवकारादीनां देव-दैत्यचरितव्युत्पादकत्वात् । 'पथि' इति यशःसम्पदुपायत्वात कृत्यं लक्षात । नायक-प्रतिनायकयोहि नयानयफलोपदशनेन नाटकादिभि-दु दोन्तचेतसां न्यायादनपेते कृत्ये प्रवृत्तिर्व्यवस्थाप्यते ।
अत्रापि व्याख्याने श्रद्धापरत्वेन नमस्कारपरतैव श्लोकस्य । व्याख्येय-व्या. ख्यानयोरेककत कत्वख्यापनार्थमयमेव श्लोको विवरणस्याप्यादावधीत इति ॥१॥ होने पर भी मूल रूपमें] लक्षणोंकी रचनाको दृष्टिसे 'जैनी' [वारणी कही जा सकती है। [यहाँपर यह शङ्का हो सकती है कि नाटकायिके लक्षण तो भरतादिके ग्रन्थों में सर्वत्र पाए जाते हैं फिर उनको जिन-प्रणीत कैसे कह सकते हैं। इसका उत्तर देनेकी दृष्टि से अगली रक्तिमें लिखते हैं कि सर्वत्र उपदिष्ट अर्थ लक्षण न हो ऐसी बात नहीं है। [क्योंकि मूल रूपसे जिनों द्वारा प्रणीत लक्षणोंको हो] नवीन दृष्टिवाले बादके [भरत प्रादि मुनि संक्षेप .और विस्तारके द्वारा उनको [फिर कर सकते हैं।
'वाचम्' अर्थात् नाटकादि रूप [वारणी] को। 'उपास्महे' अर्थात् हम परिशोलित निरूपित करते हैं। प्रथम व्याख्यामें भी 'नित्यं' पदका सम्बन्ध 'चतुर्वगंफलां' और 'उपास्महे' दोनों पदोंके साथ किया गया था। इसी प्रकार इस द्वितीय व्याख्याने भी दोनोंके साप सम्बन्ध माना है। इसी बात को प्रागे लिखते हैं कि 'नित्यम्' यह पद पहले चतुर्वर्गफला के साथ एक बार अन्वित हो चुका है किन्तु दुबारा यहां [उपास्महेके साथ] भी अन्वित होता है। 'उपास्महे के साथ 'नित्यम्' पदके सम्बन्धसे यह अभिप्राय निकलता है कि नाटक प्रादिका निरन्तर परिशीलन करने से ही नाटकके लक्षणादिका निरूपरण ठीक तरहसे किया जा सकता है । अन्यथा] अभिनय वारणी [अर्थात् नाटकादि का निरन्तर अनुशीलन न करने वाले [नाटकलक्षणकार अर्थात् नाट्यशास्त्रके विषयपर ग्रंथ लिखने वाले विद्वान्] प्रौचित्य को प्रतिपादन करने वाले [अर्थात् नाटकादिमें उचित नियमोंके प्रतिपादक ] कैसे हो सकते हैं ?
नाटकादिका निरन्तर परिशीलन न करनेवाले विद्वान् अनुभवहीन होने के कारण नाटकादिके लक्षण और प्रौचित्य आदिका प्रतिपादन नहीं कर सकते हैं। इसलिए हमने अर्थात् इस ग्रन्थके प्रणेता रामचन्द्र और गुणचन्द्रने नाटकोंका सतत परिशीलन करके अनुभव प्राप्त करनेके बाद ही इस ग्रन्थकी रचनाका साहस किया है यह ग्रन्थकारका निगूढ़ अभिप्राय है।
मागे ग्रंथकार रूपक शब्दको व्युत्पत्ति द्वारा यह दिखलाते हैं कि नाटकों के लिए 'रूपक शब्दका प्रयोग क्यों होता है।
रूपित अर्थात् अभिनय द्वारा प्रदर्शित किये जाते हैं, इसलिए नाटकादि 'रूप' या रूपक कहलाते हैं। जिनका अभिनय नहीं होता है उनको 'रूप' शब्दसे प्रतीति न होनेके कारण
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का०२, सू०२ ] प्रथमो विवेकः
[ १३ अथ लक्षणस्य विषयं प्रतिजानीते-- (सूत्र २)-अभिनेयस्य काव्यस्य भूरिभेदभृतः कियत् ।
कियतोऽपि प्रसिद्धस्य दृष्टं लक्ष्म प्रचक्ष्महे ॥२॥ यहाँ वाणीका सामान्य निर्देश होनेपर भी उससे अभिनेय [नाटकादि रूप वारणी] का हो ग्रहण होता है । अभिनेय [नाटकादि रूप वाणोके बारहसे अधिक बहुतसे भेद होनेपर भी 'द्वादशमिः' बारह यह पद] प्रस्तुत प्रकरणके अनुसार कहा गया है । "विश्वस्' यह पद पूर्व [माया के समान [यहाँ इस द्वितीय व्यायामें भी समुदायको दृष्टिसे एकवचनमें प्रयुक्त हुषा है। क्योंकि नायके भेद रूप समस्कार प्रादिमें देव तथा दैत्य प्रादिके चरित का प्रदर्शन होनेसे नाट्य समस्त विश्वसे ही सम्बन्ध रखता है] । 'पथि' यह [पद] यश: सम्पादनकै उपाय होनेसे उत्सम कार्योंको बोधित करता है। नायक और प्रतिनायकके धर्म और अधर्म के फलोंको दिखलाकर नाटकादि दुर्दान्तचित्त [प्रमियों के व्यवहारको भी न्याय्य मार्गमें व्यवस्थित करते हैं।
इस [दूसरी] व्याख्यामें भी श्रद्धापरक होनेसे यह श्लोक नमस्कार सूचक ही समझना त्राहिए । व्याख्येय [भूल कारिकानाग और व्याल्या [अर्थात् इस विवरण दोनोंके कर्ता अभिन्न होनेसे इसी श्लोकको विवरण के प्रारम्भमें भी दे दिया गया है। यहाँपर यह मूल ग्रंथको कारिकाके रूपमें पाया है। अतः उसकी व्याख्या की गई है। पहली बार विवरणके मङ्गलश्लोकके रूपमें दिया गया था । अतः उसकी व्याख्या यहाँ नहीं की गई थी] ॥१॥ प्रतिपाद्य विषय
प्रथम श्लोकमें मङ्गलाचरण करने के बाद अब द्वितीय कारिकामें ग्रन्थकार अपने ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयका दिग्दर्शन कराते हैं। जैसा कि ग्रन्थ के नामसे ही स्पष्ट है नाट्यसे सम्बन्ध रखने वाले लक्षरणों प्रादिका प्रतिपादन ही इस ग्रन्थका मुख्य एवं प्रधान प्रतिपाद्य विषय कहा जा सकता है। इन लक्षण त्रादिका प्रतिपादन भी ग्रन्थकार पूर्वप्रणीत भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' प्रादिके अाधारपर करेंगे । इसीलिए मूल कारिकामें कहा है.---'दृष्टं लक्ष्म प्रचक्ष्महे' अर्थात पूर्व-प्रतिपादित लक्षणों के प्राधारपर ही हम लक्षण आदि लिखेंगे । अन्तर इतना है कि भरतमुनिके समान नाट्यके सारे विषयोंका और सारे भेदोंका प्रतिपादन न कर के कुछ चुने भेदों और विषयोंका ही लक्षण करेंगे और वह भी बहुत विस्तारके साथ नहीं अपितु संक्षेपमें करेंगे। इसी दृष्टिसे कारिकामें 'कियतोऽपि' और 'कि यत् लक्ष्म प्रचक्ष्महे' दो जगह 'वियत' पदका प्रयोग किया गया है । पहली जगह 'कियतोऽपि' का अभिप्राय यह है कि सारे नाट्यभेदोंका नहीं अपितु केवल कुछ भेदोंका ही लक्षण करेंगे। दूसरी जगह "कियत्' पदका अभिप्राय यह है कि विस्तारपूर्वक लक्षण न करके कुछ थोड़ासा ही संक्षिप्त लक्षण करेंगे। इसी बात को आगे लिखते हैं
अब लक्षरण अर्थात्] शास्त्र के विषयका प्रतिपादन [को प्रतिज्ञा करते हैं---
सूत्र २]-बहुत प्रकारके भेदोंसे युक्त अभिनेय-काव्य [अर्थात् नाय] मेंसे कुछ प्रसिद्ध भेदों] के [भरत नाट्यशास्त्र आदिमें विस्तारपूर्वक पूर्व-दृष्ट कुछ अर्थात् संक्षिप्त] लक्षण हम [अपने इस ग्रन्थमें आगे] कह रहे हैं ।२।
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१४ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० २, स०२ 'अभिनेयस्य' वाचिक-माणिक-सात्विक-आहायर भिनयः प्रत्यक्षीभवनयोग्यस्य । सूत्रकाराभिप्रायापेक्षं चैतत् , तेन रस-भाव-नायक-नायिकादिलक्षणस्य अभिनेयं प्रति प्रवृत्तस्य अनभिनेयव्यापित्वेऽपि न विरोधः । 'काव्यस्य' वर्णनात्मनः शब्दार्थग्रन्थनस्य कविव्यापारस्य । 'भूरीन्' रसप्रधानान् नाटकादीन, अप्रधानरसांश्च दुर्मिलित-श्रीगदित-भाणी-प्रस्थान-रासकादीन् 'भेदान्' विभनि । 'कियत्' इति अनान्तरीयकस्य रङ्गसन्ध्यन्तरालादिलक्षणस्य परिहारेण वक्ष्यमाणप्रबन्धद्वादशकप्रथननान्तरीयकं कतिपयं लक्ष्मेति योगः।
‘कियतोऽपि' लक्षणविधावभिप्रेतस्य । तेन कोहल: शीतलक्ष्माणः साटकादयो न लक्ष्यन्ते । लक्षणीयबाहुल्येऽपि हि यावत्येव भागे लयितुः श्रद्धा तावाने व लक्ष्यते । कियतोऽपि च 'प्रसिद्धस्य' रसप्राधान्यादखिललोकरञ्जकतया ख्यातस्य नाटकादेः । 'दृष्ट' पूर्वमुनिप्रणीतनाट्यलक्षणपौर्वापर्यपरामर्शेन उपयुक्ततया निश्चितम् । एवं च स्वमनीषिकानिरासेन लक्षणस्योपादेयत्वमुत्तम् । लक्षति अभिने यादनभिनेयाच्च कियतोऽपि व्यवच्छिनत्तीति 'लक्ष्म' लक्षणम् । 'चक्ष्महे' सारासारोपादानहानाभ्यां संक्षेप-विस्तराभ्यां च प्रकर्षेण ब्रूमहे । एवं चापरप्रणीतलक्षणोत्यकर्षेण निष्प्रयोजनत्वमपास्तमिति ।।२।।
'अभिनेय [काव्य] के' अर्थात् वाचिक, प्राङ्गिक, सात्त्विक [अर्थात् मानस और प्राहार्य [अर्थात् वेष-भूषात्मक चार प्रकारके] अमिनयोंके द्वारा प्रत्यक्ष होने योग्य [नाव्य] का [लक्षरण कहेंगे] । यह बात सूत्रकारके अभिप्रायको दृष्टि से कही है । इसलिए रस भाव नायक-नायिका प्रादिके जो लक्षण अभिनेय [काव्य की दृष्टिसे किये गए हैं उनके अनभिनेय अर्थात् श्रव्य-काव्य में पाए जाने पर भी विरोध नहीं होता है। 'काव्यका' अर्थात् वर्णनात्मक शब्द और अर्थके ग्रन्थन रूप कविके व्यापारका । 'बहुतसे' अर्थात् रस-प्रधान नाटक प्रावि, और गौण रस वाले दुर्मिलित, श्रीगदित, भारणी, प्रस्थान और रासक आदि भेदोंको धारण करने वाले [यह 'भूरिभेदभृतः' पदका प्रर्थ हुआ] । 'कियत्' इससे अनावश्यक रङ्ग सन्ध्यन्तराल प्रादिके लक्षणोंको छोड़कर पागे कहे जाने वाले बारह प्रकारके प्रबन्धोंकी रचनाके लिए पावश्यक 'कुछ' लक्षणोंको कहेंगे यह सम्बन्ध [या अभिप्राय] है।
इसका अभिप्राय यह हुआ कि भरतमुनि-प्रणीत नाट्यशास्त्र आदिमें रङ्गशालाके निर्माण प्रादिके विषयको बहुत सूक्ष्म विवेचन करते हुए अत्यन्त विस्तारके साथ प्रतिपादन किया गया है । प्रकृत प्रन्थकारने उस विषयको बिल्कुल छोड़ दिया है । उन्होंने अपने क्षेत्रका बहुत विस्तार न करके सीमित क्षेत्रको ही अपना विषय बनाया है उसकी दृष्टि से जितना भाग अत्यन्त आवश्यक समझा गया है उसीका प्रतिपादन यहाँ किया है । और वह भी अभिनेय कान्यके केवल कुछ भेदोंके सम्बन्धमें ही लिखा गया है। बारह प्रकारके अभिनेयकाव्यके भेदोंकी विवेचना ही इस ग्रन्थमें की गई है। अतः ग्रन्थकारका क्षेत्र उन भेदोंकी विवेचना तक ही सीमित है। इस बातको आगे लिखते हैं
"कियतोऽपि' अर्थात् ग्रन्थ [लक्षणविधि] में अभिप्रेत फुछ छोड़े-से [भेदों] का [ही लक्षण करेंगे] । इसलिए [नाज्यशास्त्रके भरतमुनिसे भी प्राचीनतर प्राचार्य] कोहल प्रणीत साटक [सट्टक] मादिका लक्षण यहां नहीं किया गया है । लक्षणीय [अर्थात् अभि नेय
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का० ३-४, सू०३ ] प्रथमो विवेकः
[ १५ अथ व्यक्तिभेदानुद्देशे, नियतं न शक्यते लक्षणमाख्यातुमिति तानुदिशति[सूत्र ३]-नाटकं प्रकरणं च नाटिका प्रकरण्यथ ।।
व्यायोगः समवकारो भाणः प्रहसनं डिमः ॥३॥ काव्यों का बाहुल्य [बहुतायत] होनेपर भी जितने भागमें ['लक्षयितुः' लक्षण करने वाले अर्थात्] ग्रन्थकारको श्रद्धा [इच्छा] है उतने ही भागके [अर्थात केवल बारह भेवोंके ही लक्षण करते हैं। और "कियतोऽपि च प्रसिद्धस्य' कुछ प्रसिद्ध अभिनेय-काव्यों का प्रति रसकी प्रधानता होनेके कारण समस्त जगत्के पाल्हादके कारण रूपसे प्रसिद्ध नाटक प्रादिका [ही लक्षण करेंगे] । 'दृष्ट' अर्थात् [भरत प्रादि पूर्वमुनियों के द्वारा रचे गए नाव्य लक्षणों के तारतम्य [पौर्वापर्य का विचार करके उपयुक्ततया निश्चय किए हुए [लक्षणको कहेंगे । इस प्रकार ['दृष्टं' पदके प्रयोग द्वारा पूर्वाचार्योंके लक्षणोंके उपादेयता-तारतम्यकी विवेचना करके लक्षण कहेंगे इस बातको सूचित करनेसे अपनी कल्पनामात्रके निरास द्वारा लक्षणोंको उपादेयताका प्रतिपादन किया है। [प्रागे 'लक्षणम्' शब्दका अर्थ करते हैं, जो अभिनेय पौर कुछ अनभिनेयोंसे भी पृथक् करता है वह लक्षण है ['समानासमानजातीयव्यवच्छेदो हि लक्षरणार्थः'] इसके अनुसार समानजातीय अन्य अभिनेय काव्योंसे और असमानजातीय अनभिनेय कायोंसे भिन्न करने वाले ही नाटक प्रादिके लक्षण होते हैं। यह बात इस पंक्तिसे सूचित को है ] । 'प्रकृष्टरूपसे कह रहे हैं' अर्थात् [पूर्वाचार्योंके लक्षणों से सार भागको ग्रहण करके और प्रसार भागको त्याग कर और संक्षेप तथा विस्तारके द्वारा [अर्थात् जहाँ पूर्वाचार्योने बहुत संक्षेप कर दिया है वहाँ कुछ विस्तार करके और जहां उन्होंने अधिक विस्तार किया है वहाँ संक्षेप करके] प्रकृष्टरूपसे कह रहे हैं। इस प्रकार अन्योंके रचे लक्षणोंसे उत्कर्ष दिखलाकर [अपनी रचनाके निष्प्रयोजनत्वका निराकरण कर दिया है [अर्थात् उपयोगिता प्रदर्शित करदी है] ॥२॥ रूपकों के भेद
जैसाकि ग्रन्थकार प्रथम मङ्गल-श्लोकमें संकेत कर चुके हैं इस ग्रन्थमें बारह प्रकारके रूपक-भेदोंका निरूपण किया जायगा। इसलिए अगली दो कारिकाओंमें ग्रन्थकार उन बारह भेदोंके नाम गिनाते हैं। इस नाम गिनानेकी प्रक्रियाको शास्त्रीय परिभाषामें 'उद्देश' शब्दसे कहा जाता है । 'उद्देश' शब्दका अर्थ 'नाममात्रेण वस्तुसङ्कीर्तनं उद्देशः' अर्थात् नाममात्रसे वस्तुका कथन करना 'उद्देश' कहलाता है यह किया गया है। प्रायः शास्त्रोंमें उद्देश लक्षण और परीक्षा इन तीन प्रकारके उपायोंके द्वारा अपने विषयका प्रतिपादन किया जाता है । उस पद्धतिका ही अवलम्बन करके ग्रन्थकार यहाँ रूपक-भेदोंका नाममात्रसे कथन या 'उद्देश' इन दो कारिकाओं में कर रहे हैं । फिर आगे उनके लक्षण प्रादि करेंगे।
[सूत्र ३]–१ नाटक और २. प्रकरण, तथा ३. नाटिका, ४. प्रकरणी एवं ५. ग्यायोग, ६. समवकार, ७. भारण, ८. प्रहसन, ६. डिम ।
१०. उत्सृष्टिकाङ्क, ११. ईहामृग, १२. वीयो [ये बारह रूपकके भेद होते हैं। उनमेंसे नाटक प्रकरण नाटिका और प्रकरणी ये] चार [भेद कशिको, सात्वती प्रारभटी तथा भारती रूप] सब वृत्तियोंसे युक्त होते हैं और बादके पाठ [रूपक भेद] कशिकोवृत्तिसे रहित
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१६]
नाट्यदर्पणम
sa ईहामृगो वीथी चत्वारः सर्ववृत्तयः । त्रिवृत्तयः परे स्वष्टौ कैशिकी परिवर्जनात् ||४॥
'चकारः' सर्वपुरुषार्थफलत्वेन महापुरुषोपदेशार्हचरितत्वेन च प्रबन्धेषु नाटकप्रकरणयोः प्राधान्यमाह । 'अथ' - शब्दो नाटिकादिचतुष्ट्याद् अपूर्णसन्धित्वेन विष्कम्भक प्रवेशका योग्यत्वेन अनुपदेशार्हचरितप्रायत्वेन च उत्तरेषां पार्थक्यं · ज्ञापर्यात | 'अङ्क' इति उत्सृष्टिकाङ्की, न पुनरवस्थासमाप्त्यादिरूपः । श्रङ्कवतां मध्ये पाठात् छन्दोऽनुरोधाच्च एकदेशेनाभिधानम् ।
[ का० ३-४, सू० ३
'चत्वारः' इति प्रक्ररण्यन्ता व्यक्तिभेदाः । 'सर्वा' गुण प्रधानभावेन चतस्रोऽपि वृत्तयों भारती-सात्वती-आरभटी-कैशिक्यो वक्ष्यमाणलक्षणा यत्र । 'तिस्रो' भारतीसात्वती-आरभट्यो व्यस्ताः समस्ता वा वृत्तयो येषु । अत्र च येषु व्यायोग- समवकार- ईहामृग - डिमेषु एकस्या वृत्तेर्न र्लक्षणे प्राधान्यनिर्देशस्तेषु व्यक्तिभेदेन पृथक-पृथगेकैकस्या वृत्तेः कविस्वेच्छया प्राधान्य' निबध्यते । येषु तु भेदेषु भारण-प्रहसन - उत्सृष्टिकाङ्क वो षु यस्या वृत्तेः प्राधान्यनिर्देशस्तेषु प्रतिव्यक्ति तस्या एव प्राधान्यमपरयोगौणत्वमल्पत्वाभावो वा । 'कैशिक्याः' परि सामस्त्येन 'वर्जनं' अभावः । यद्यपि समवकारे शृङ्गारत्वमस्ति तथापि न तत्र कैशिकी । न खलु काममात्र शृङ्गारः, किन्तु विलासोत्कर्षः । न चासौ रौद्रप्रकृतीनां नेतृणाम् । शृङ्गारशब्दश्च तत्र काममात्रपर्यवसायीति ॥। ३-४||
होनेके कारण [ केवल सास्वतौ प्रारभटी तथा भारती इन] तीन प्रकारकी वृत्तियोंसे युक्त हो होते हैं । ३-४ ।
[कारिका में 'प्रकरणं' के बाद झाया हुआ ] चकार, समस्त [ प्रर्थात् चारों प्रकारके ] पुरुषार्थीके प्रदान करने वाले होनेसे तथा महापुरुषोंके उपदेश-योग्य चरित्रसे युक्त होने के कारण [बारहों प्रकारके इन ] प्रबन्धों [प्रभिनेय-काव्यों] में नाटक तथा प्रकरणकी प्रधानताको सूचित करता है । [ 'प्रकररणों' के बाद प्रयुक्त हुआ ] अथ शब्द १. सम्पूर्ण [अर्थात् आगे कही जाने वाली पाँच प्रकारको ] सन्धियोंसे युक्त न होनेके कारण, २. विष्कम्भक तथा प्रवेशक [ इनके लक्षण मागे किए जायेंगे] के प्रयोग्य होनेसे, और ३. उपदेश प्रदान करनेमें असमर्थ चरित्रोंसे पूर्ण होनेके काररण [ व्यायोगसे लेकर वीथी पर्यन्त ] अगले श्राठ [ भेदों] का नाटकादि [ प्रथम चार भेदों] से भेद सूचित करता है। [कारिका में प्राए हुए ] 'प्रङ्क' शब्द से 'उस्सृष्टिकाङ्क' का [ ग्रहण करना चाहिए] अवस्था समाप्ति प्रादि रूप प्रङ्कोंका नहीं । प्रयुक्त [ नाटकादि ] के मध्यमें पठित होनेसे छन्दके अनुरोध से [ उत्सृष्टिकाङ्क पूरा शब्द न कहकर ] एकदेश [ श्रङ्क-पद] से कथन किया गया है ।
[चार] अर्थात् [नाटकसे लेकर ] 'प्रकरणी' पर्यन्त [ रूपकोंके ] व्यक्ति भेद । [सर्ववृत्तयः सब वृत्तियोंसे युक्त होते हैं। इसका अर्थ करते हैं] सब अर्थात् गुरणभाव या प्रधानभावसे भारती, सात्वती श्रारभटी तथा कैशिकी चारों वृत्तियाँ जिसमें रहती हैं। [वे नाटकादि चार भेद सब वृत्तियोंसे युक्त होते हैं । श्रागे 'त्रिवृत्तयः' का अर्थ करते हैं] तीन अर्थात् भारती, सात्त्वती तथा श्रारभटी [नामक तीन ] वृत्तियाँ अलग-अलग [ व्यस्त ] अथवा सम्मि
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का०५, सू० ४ ] प्रथमो विवेक
[ १७ अथ यथोद्देशं लक्षणमाह[सूत्र ४]-ख्याताधराजचरितं धर्मकामार्थसत्फलम्
साङ्कोपाय-दशा-सन्धि-दिव्याङ्गं तत्र नाटकम् ॥॥ लित रूपसे [समस्ता] जिनमें रहती हैं [वे व्यायोगसे लेकर वीथी पर्यन्त पाठ रूपकभेद 'त्रिवृत्तयः' तीन वृत्तियों वाले होते हैं। इनमें जिन व्यायोग, समवकार ईहामृग और डिममें उनके लक्षणों में एक-एक वृत्तिके प्राधान्यका निर्देश [किया हुआ है उनमें व्यक्ति-भेदसे कवि अपनी स्वेच्छासे एक-एक वृत्तिको प्रधान रूपसे निबद्ध करता है । और जिन भेदोंमें अर्थात् भारण प्रहसन, उत्सृष्टिकाङ्क और वीथीमें जिस [विशेष] वृत्तिका नाम लेकर] प्राधान्यका निर्देश किया गया है उनमें [कवि अपनी स्वेच्छासे नहीं अपितु उसी निर्देशके अनुसार उसी वृत्तिको प्रधान रूपसे और अन्य दोनों [वृत्तियों की गौरण रूपसे अथवा अल्पताके कारण सर्वथा प्रभावको [उपनिबद्ध करता है । आगे 'कैशिकोपरिवर्जनात्' का अर्थ करते हैं-] कैशिकी [वृत्ति का 'परि' अर्थात् सम्पूर्णतया वर्जन अर्थात् अभाव होनेरो च्यायोगसे लेकर वीथी पर्यन्त पाठ भेद केवल तीन वृत्तियों वाले होते हैं] । यद्यपि समवकारमें शृङ्गारत्व [शृङ्गारका भाव काम प्रदर्शित होता है किन्तु फिर भी [शृङ्गारमें होनेवाली] कैशिकी-वृत्ति वहाँ नहीं रहती है। क्योंकि केवल साधारण कामका ही नाम शृङ्गार नहीं है किन्तु [उसके] विलास का उत्कर्ष [उदात्तीकरण शृङ्गार शब्दसे कहा जाता है । समवकारमें सामान्य लौकिक कामव्यापारमात्रका प्रवर्शन होता है उसके विलासोत्कर्ष या उदात्तीकरणका नहीं] । क्योंकि [वह] समवकारमें प्रस्तुत किए जाने वाले [रौद्र-प्रकृतिके] पात्रों में नहीं हो सकता है। इसलिए समयकारमें यथार्थ शृङ्गारका प्रदर्शन सम्भव नहीं है, और उसमें प्रयुक्त शृङ्गार शम्ब केवल [सामान्य] काम मात्रका बोधक है।
इसका यह अभिप्राय है कि तीन वृत्तियों वाले पाठ म्पक-भेदोंमेंसे समवकार में यद्यपि कामको प्रवृत्तियोंका दर्शन होता है किन्तु उसको उदात्त रूप न होनेसे शृङ्गार शब्दसे नहीं कहा जा सकता है । इसलिए उसमें कैशिकी वृत्तिका उपयोग नहीं होता है। अत एव व्यायोग आदि अन्य सात भेदोंके साथ, काम-युक्त होने पर भी समवकारको कैशिकी-वृत्ति हीन केवल तीन वृत्तियों वाले वर्गमें रखा गया है ।।३-४॥ १ नाटक लक्षण
पिछली कारिकामों में ग्रन्थकारने रूपकके वारह प्रधान भेदोंका 'उद्देश' अर्थात् 'नाममात्रेण वस्तुसङ्गीतंन' किया है । 'त्रिविधा च शास्त्रस्य प्रवृत्तिः, उद्देशो लक्षणं परीक्षा च' इस सिद्धान्तके अनुसार 'उद्देश' के बाद लक्षणका अवसर प्राता है। अत एव प्रागे ग्रन्थकार उद्देशके क्रमसे ही लक्षणोंका निरूपण प्रारम्भ करते हैं । उद्देशक्रममें सबसे पहले नाटकका नाम पाया है इसलिए सबसे पहले नाटकका ही लक्षण करते हैं।
अब उद्देश क्रमके अनुसार [नाटकके] लक्षरणको कहते हैं--
[सूत्र ४] उन [रूपक-भेदों] मेंसे धर्म, अर्थ और काम [रूप त्रिविध] फलावाला, प्रङ्क, उपाय, दशा, सन्धिसे युक्त, देवता प्रावि जिसमें [प्रधान नायकके अङ्ग अर्थात् सहायक हों, इस प्रकारका पूर्वकालके प्रसिद्ध राजानोंका चरित [प्रदर्शित करनेवाला अभिनेय काव्य] नाटक [नामसे कहा जाता है ।।
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१८ ]
नाट्यदर्पणम
[ का०५, सू०४ ख्याताघराजस्य चरितं यत्रेत्यन्यपदार्थः । इह ख्यातत्वं विधा, नाम्ना, चेष्टितेन, देशेन च । कौशाम्यां चरितं वत्सराजेनैव रजकम् । चरितमपि वत्सराजस्य । कौशाम्यां वासवदत्तालाभादिकमेव । वासवदत्तालाभादिकं वत्सराजस्य कौशाम्ब्यामेव ।
चरितख्यातत्वं च प्रधानचरितापेक्षया। ततस्तदनुयायीनि रन्जकत्वार्थमख्याताम्यपि चरितानि क्रियन्ते । तेन बहुषु रामप्रबन्धेषु सीताहरणानयनोपायानां युद्धानां गौण पात्राणि । अपरेषां च भणितिविशेषादीनां भेदेऽपि न विरोधः ।
पूर्वकालके प्रसिद्ध राजाका चरित्र जिसमें प्रदर्शित किया गया हो वह [ख्यातायरामचरित' अभिनेय काव्य हुआ], यह अन्य-पदार्थप्रधान [बहुव्रीहिसमास 'ख्यातायरामचरित' इस पद में किया गया है। इसमें प्रसिवस्व तीन प्रकारसे होता है, १ नाससे [प्रसिदत्व), २कायोंसे चेष्टितेन प्रसिद्धत्व प्रौर ३ देशसे प्रसिद्धत्व । [मागे इन तीनों प्रकारके प्रसिदत्वको उदाहरणों द्वारा स्पष्ट रूपसे दिखलाते हैं। जैसे नामकी प्रसिसिका उदाहरण यह है कि कौशाम्बीमें चरित [अर्थात चहाएं अभिनय वत्सराज के नाम से ही हरयाकर्षक होता है। अर्थात इस रूपमें वत्सराज नामसे नायक उदयनका ख्यातत्व बनता है। दूसरा चरितसे प्रसिद्धका उदाहरण दिखलाते हैं] और वत्सराज [उवयन] का कौशाम्बोमें वासवदत्ता-प्राति रूप चरित ही [हत्याकर्षक होता है। यह परित कार्यों द्वारा प्रसिद्धिका उदाहरण हमा। इसोको तीसरे प्रकारसे बदल देनेपर] बत्सराज [उदयन का वासवदत्तालाभारिक [चरित] कौशम्बीमें ही [हण्याकर्षक होता है यह देशसे प्रसिद्धिका उदाहरण हुमा । अर्थात् एक वत्सराजके चरित्रमें ही तीनों प्रकारको प्रसिहि बाई जाती है ।
यह चरित्रकी ख्याति प्रधान नायकको दृष्टिसे हो [ली बातो] है। इसलिए शोभाधान केलिए उस [प्रषान-नायक] के अनुयायी प्रसिद्ध चरित्र भी [नाटकमें उपनिवड] किए जाते हैं। इसलिए बहुतसे राम-काम्योंमें सीता हरण तथा पुनः प्रालिके युटोंमें गौण पात्र [भी पाए जाते हैं] । और अन्य [भप्रधान पात्रों को उक्तियोंमें [भिन्न-भिन्न नाटकों में बिरोब होनेपर भी दोष नहीं होता है।
___वहां ग्रन्थाकारने 'नाम्ना, चेष्टितेन देशेन च' तीनों प्रकारकी प्रसिदि एक वत्सराज उदयन के चरित्रमें ही दिखलाई है। और उसकेलिए तीन भिन्न-भिन्न स्थानोंपर 'एबकार' का प्रयोग किया है । 'कौशाम्व्यां चरितं वत्सराजेनैव रजकम्'। इस वाक्यमें 'एव कार' द्वारा वत्सराज नामपर बल दिया गया है । अर्थात् कौशाम्बी में वहाँके पूर्ववर्ती राबा वत्सराज उदयनका नाम प्रसिद्ध है इसलिए वहां उनका चरित्र ही लोगोंको प्रिय लगता है। यह 'वत्सराजेनैव' में वत्सराजके साप प्रयुक्त 'एक्कार' का अभिप्राय है। दूसरी जगह 'परितमपि वत्सराजस्य कौशाम्व्यां वासवदत्तलाभादिकमेव' में प्रयुक्त ‘एवकार' वासवदतां-प्राप्ति रूप चरितके ऊपर ही बल देता है। अर्थात् वत्सराज उदयनके पन्य चरित्र इतने हृदयाकर्षक नहीं है जितना कि वासवदत्ता-प्राप्तिका वृत्तान्त । यह 'चेष्टितेन' प्रसिद्धिका उदाहरण हुमा । तीसरी जगह 'वासवदत्ता लाभादिकं वत्सराजस्य कौशाम्म्यामेव' यहाँ 'कौशाम्बी' के साप प्रयुक्त 'एवकार' कौशाम्बी रूप देशपर विशेष बल देता है। पर्याद वत्सराज उदयनका वासवदत्ता-लाभरूप चरित भी केवल कौशाम्बी में ही विशेष रूपसे लोकप्रिय है भन्या नहीं।
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का० ४, सू० ४ ]
प्रथमो विवेकः
[ १६
आद्य ेति पूर्वः तेन वर्तमानभविष्य तोर्निरासः । कविना हि रञ्जनार्थं किश्चित् सदयुपेक्ष्यते, किचिदसदप्याद्रियते । वर्तमाने च नैसरि तत्कालप्रसिद्धिबाधया रसहानिः स्यात् । पूर्व महापुरुषचरितेषु च अश्रद्धानं स्यात् । भविष्यतस्तु वृत्तं चरितमपि न भवति । चर्यते स्म चरितमित्यतीतनिर्देशात् ।
यह 'देशेन' प्रसिद्धिका उदाहरण है । इस प्रकार एक वत्सराज उदयन के चरित्रमें ही तीनों प्रकारको प्रसिद्धिके उदाहरण ग्रन्थकारने दिखला दिए हैं। वर्तमान चरित्रों के अभिनयका निषेध -
नाटकों में केवल पूर्वकालके प्रसिद्ध राजाग्रोंको ही नायक रूपमें प्रस्तुत किया जा सकता है वर्तमान या भविष्यत्के राजाओं को चरित-नायक के रूपमें प्रस्तुत नहीं करना चाहिए इस बातको यहाँ अन्थकारने 'आद्य-राज' पदसे सूचित किया है । इस बातको विवरणकार अगली पंक्तियों में दिखलाते हैं-
'प्राद्य' इस [पद ] से पूर्व [कालके राजामोंका ही ग्रहण होता है], इसलिए वर्तमान और भविष्यत् [ कालके राजानोंके चरित्रका वर्णन] का निषेध हो जाता है। [इसकेलिए आगे दो युक्तियां देते हैं । उनमेंसे पहली युक्ति यह है कि-नाटक में] शोभाधान के लिए कवि कभी-कभी कुछ विद्यमान [अर्थात् वास्तविक ] वातको भी छोड़ देता है और कुछ प्रविद्यमान [अर्थात् स्वयं कल्पित प्रथं] को भी ग्रहरण कर लेता है। [यदि नाटकोंमें वर्तमान कालके व्यक्तिको भी नायक बना दिया जाय तो ऐसे स्थलोंमें] वर्तमानको नेता बनानेपर तो तस्कालीन प्रसिद्धि बाधित होनेसे रसकी हानि होगी । और पूर्वकालके महापुरुषोंके चरितकी उपेक्षा [श्रद्धानं] भी होगी । [इसलिए वर्तमान कालके चरित्रको नाटकमें नायक नहीं बनाना चाहिए] और भविष्यत् कालका [कल्पित कथानक ] तो 'चरित' भी नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि जिसका [ प्रतीतकाल में ] श्राचररण किया जाता था वह 'चरित' [ कहलाता ] है यह [बात 'चरित' पदमें प्राए हुए क्त प्रत्ययसे सूचित होती है। इसलिए क्त प्रत्ययके द्वारा ] प्रतीतकालका निर्देश होनेसे [ भविष्यत्कालके कथानकको चरित भी नहीं कहा जा सकता है] । अभिनव भारतीकार अभिनवगुप्तने भी प्रथमाध्यायमें [पृ० १४५ पर] इस विषय की विवेचना विस्तार के साथ की है। भरत नाट्यशास्त्र के प्रथमाध्याय में 'तदन्तेऽनुकृतिवंद्धा यथा दैत्याः सुरंजिता:' । यह [ श्लोक ५७ ] प्राया है। इसमें इन्द्रको सभामें देवताओंों द्वारा दैत्योंपर विजय प्राप्त करनेके कथानकके अभिनय किए जानेकी बात लिखी है । इस प्राधारपर किन्हीं पूर्ववर्ती टीकाकारोंने यह परिणाम निकाला है कि अपने स्वामी राजा प्रादिको प्रसन्न करनेके लिए कभी-कभी उनके चरित्रका भी अभिनय उनको दिखलाना चाहिए। परन्तु प्रभिनवगुप्त इस बातको स्वीकार नहीं करते हैं । इसलिए उन्होंने प्रथमाstreet इस ५७ वीं कारिकाकी व्याख्या के प्रसङ्गमें इस प्रश्नको उठाकर उसका खण्डन निम्न 'प्रकारसे किया है
"प्रभुपरितोषाय प्रभुचरितं कदाचिन्नाटये वर्णनीयमिति' 'यथा दैत्याः सुरैर्जिताः' इत्येतस्माल्लभ्यत इति केचिदाहुः ।
- तदसत् । दशरूपक-लक्षण युक्तिविरोधात । तत्र हि किञ्चित् प्रसिद्धचरितं किञ्चिदुत्पाद्यचरितमिति वदयते” ।
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२० ]
नाट्यदर्पणम
[ का० ५, सू० ४
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राजेति क्षत्रियमात्रं, न पुनरभिषिक्त एव । राम-जीमूतवाहन पार्थादीनामनभिषिक्तानामपि दर्शनात् । क्षत्रियो मर्त्य एव तेन न देवनेतृकं नाटकमित्युक्तं भवति । नाटकं हि रामवद्वर्तितव्यं न रावणवत् इत्युपदेशपरम् । देवतानां तु दुरुपपादस्याव्यर्थस्येच्छामात्रत एव सिद्धिरिति तच्चरितमशक्यानुष्ठानत्वान्न मर्त्यानामुपदेशयोग्यम् । तेन ये दिव्यमपि नेतारं मन्यन्ते न ते सम्यगमंसतेति ।
" न च वर्तमानचरितानुकारो युक्तो, विनेयानां तत्र राग-द्वेषमध्य अध्यस्थतादिना तन्मयीभावाभावे प्रीतेरभावेन व्युत्पत्तेरप्यभाभात् । वर्तमानचरिते च धर्मादिकर्म - फत्तसम्बन्धस्य प्रत्यक्षत्वे प्रयोगवैयर्थ्यम् । अप्रत्यक्षत्वे 'भविष्यति प्रमाणाभावात् इति न्यायेन व्युत्पत्तेरसम्भवान्नाधिकम् । एतच्च दशरूपकाध्याय वितनिष्याम इत्यास्तां तावत् ” ।
इसका अभिप्राय यह है कि प्रभु राजादिके प्रसन्न करनेके लिए कभी-कभी उसके चरित्रका भी अभिनय उनको दिखलाना चाहिए ऐसा जो लोग मानते हैं उनका कथन उचित नहीं है। क्योंकि दशरूपकों के लक्षणों में कुछ नाटकादि प्रसिद्ध चरित वाले माने गए हैं प्रोर समवकार आदि कुछ भेद उत्पाद्य चरित अर्थात् कल्पित चरित्र के श्राधारपर निर्मित माने गए हैं। वर्तमान राजादिका चरित्र इन दोनों में से किसी श्रेणी में नहीं श्राता है । अतः उसका अभिनय उचित नहीं है । इस सम्बन्ध में दूसरी युक्ति यह है कि वर्तमान चरित्रों में देखने वालों का राग-द्वेष- माध्यस्थ्य आदि होनेसे उनका न मनोरंजन होगा और न उनको कोई शिक्षा ही मिलेगी । अर्थात् नाटकके दोनों ही प्रयोजन व्यर्थ हो जायेंगे । श्रतः वर्तमान चरितका अभिनय नहीं करना चाहिए । इसी विषय में अभिनवगुप्तने तीसरी युक्ति यह दी है कि वर्तमान चरितमें यदि धर्मादिका फल तुरन्त प्रत्यक्ष हो जाता है तो नाटकके प्रयोगका कोई लाभ सामाजिकको नहीं मिलता है । और यदि धर्मादि फलका प्रत्यक्ष नहीं होता है तो उससे कोई. शिक्षा नहीं मिल सकती है । अतः वर्तमान चरितका अभिनय उचित नहीं है ।
यहाँ प्रकृत ग्रन्थ में रामचन्द्र गुणचन्द्रने भी वर्तमान चरित्र के अभिनयको अनुपयुक्त ठहराया है। उनकी युक्तियां श्रभिनवगुप्तकी युक्तियोंसे भिन्न है किन्तु उनकी कल्पना सुन्दर है । इन दोनोंकी युक्तियों को मिलाकर इस विषयका एक सर्वाङ्ग सुन्दर विवेचन उपस्थित हो जाता है । इसलिए हमने अभिनवगुप्तके मतका यहाँ उल्लेख कर दिया है । नाटक में देवताओं के नायकत्वका खण्डन --
और 'राजा' पदसे क्षत्रियमात्रका ग्रहण करना चाहिए केवल अभिषिक्तका हो [ग्रहण ] नहीं [करना चाहिए ]। क्योंकि राम, जीमूतवाहन और युधिष्ठिर श्रादि अनभिषिक्त भी [ नायक रूपमें] पाए जाते हैं । क्षत्रियसे मानव [रूप क्षत्रिय ] का ही ग्रहण करना चाहिए इसका यह अभिप्राय होता है कि नाटक में देवतानोंको नायक नहीं बनाया जा सकता है। क्योंकि 'रामके समान श्राचरण करना चाहिए रावण के समान नहीं, इस उपदेशको देनेवाला नाटक होता है । और देवताओं के लिए तो प्रत्यन्त कठिन कार्यको सिद्धि भी उनकी इच्छा मात्र ही हो जाती है इसलिए उनके चरितके अनुसार आचरण सम्भव न होनेसे वह मनुष्योंके लिए उपदेशपर नहीं हो सकता है [ इसलिए देवताको नायक बनाना व्यर्थ धौर अनुचित है] इसलिए जो देवताओं को भी [नाटकोंको ] नायक मानते हैं उनका मत ठीक नहीं है।
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का०५, सू० ४ ] प्रथमो विवेकः
[ २१ नाथिका तु दिव्यापि भवति यथोर्वशी। प्रधाने मर्त्यचरिते तच्चरितान्तर्भावात् । उपदेशाजहप्रायवृत्तत्वेन दीप्तरसत्वेनैव च समवकारादौ दिव्योऽपि नेता न विरुध्यते । चरितमित्याचरितं न तु कविवुद्धिकल्पितम् । बाहुल्यापेक्षं चैतत, तेनाल्पं किमपि रजक कल्पितमपि न दोषायेति ।।
धर्म-काम-अर्था व्यस्त-समस्ताः सत् प्रधानं फलं यत्र । मोक्षन्तु धर्मकार्यत्वात् गौणं फलम् । सन्तोऽचिरभावित्वाद् वर्तमाना वा धर्मार्थ-कामाः फलम। तेन भाविकामार्थफलत्वादागमान नाटकम् ।
तत्र धर्मफले नाटके दया-दम-दान-न्यायप्रायं दृष्टफलं आमुष्मिकफलं च राज्याद्यबाधया नेतुश्चरितं व्युत्पाद्यते । न पुनः सर्वसङ्गपरित्यागं कृत्वा व्रतमाचरितमित्यामुष्मिकफलमेव । साक्षाद् दृष्टफलार्थी हि लोकः। . नायिका दिव्य भी हो सकती है
नायिका तो दिव्य भी हो सकती है जैसे उर्वशी । क्योंकि प्रधान मानव [रूप नायक | के चरित्रमें उस [दिव्य नायिका के चरित्रका अन्तर्भाव हो जाता है। उपदेश प्रदान करनेकी क्षमतासे रहित और दीप्त रस वाला होनेते समवकार प्रादिमें तो दिव्य अर्थात् देवताओंको नेता माननेपर भी कोई विरोध नहीं होता है। 'चरित्रमें' इस पदसे | पहले ] आचरण किया हुआ यह अर्थ गृहीत होता है । कविकी बुद्धिसे कल्पित [चरित्रका का ग्रहण] नहीं होता है । और यह बाहुल्यको दृष्टि से [कहा गया है इसलिए थोड़ा-सा कुछ सौन्दर्याधायक [वृत्त] कल्पित होनेपरभी दोषाधायक नहीं होता है।
[आगे 'धर्मकामार्थसत्फलम्' इस कारिका भागको व्याख्या करते हैं-] अलग-अलग [व्यस्त या समस्त [समष्टि] रूपमें धर्म, काम और अर्थ जिसके सत् अर्थात् प्रधान फल हैं [वह 'धमकामार्थसत्फलम्' हुआ] । मोक्ष तो धर्मका कार्य [धर्म-जन्य होनेसे गौरण फल होता है [इसलिए यहाँ उसकी गणना नहीं कराई है] । अथवा अत्यन्त शीघ्र प्राप्त होने वाले होनेसे भावी धर्मादि को भी सत् कहा जा सकता है इसलिए सत् अर्थात् वर्तमान [वर्तमान सामीप्ये वर्तमानवद्वा] धर्म काम और अर्थ जिसके फल है [यह 'धर्म-कामार्थसत्फलम्' को दूसरी व्याख्या हुई। इस व्याख्याके अनुसार [सुदूरवर्ती जन्मान्तर में प्राप्त होने वाले] भावी फल [का प्रतिपादन करने वाले 'पागम', नाटक [श्रेणी में नहीं माने जाते हैं।
उन [धर्म, काम और अर्थ फल वाले नाटकों जैसे] में से धर्म-फल वाले नाटकोंमें दया, दम, दान और न्याय प्रादि दृष्ट फल तथा राज्य प्रादिकी अबाघासे पारलौकिक फल वाले नेताके चरित्रका प्रदर्शन कराया जाता है। समस्त सम्बन्धोंको परित्याग करके [नायकने] व्रतका अनुष्ठान किया इस रूपमें प्रामुष्मिक फल वाले [नायकके चरित्र का प्रदर्शन नहीं [कराया जाता है । इसका कारण यह है कि संसार साक्षात् दृष्ट फलको [देखना चाहता है।
__'धर्म-कामार्थसत्फलम्' इस कारिकाभागमें धर्म फल वाले नाटककी चर्चा की गई है। धर्म के भीतर विधिरूप और निषेधरूप दोनों प्रकारके धर्मोका समावेश हो सकता है। दया दान आदिका करना विधिरूप धर्म है और सब व्यापारोंसे उपरति रूप व्रतादि, निषेध रूप धर्म है। यहाँ नाटकमें दया दानादि रूप विधि धर्मोंका ही धर्म पदसे ग्रहण करना चाहिए । सर्वव्यापारोपरति रूप धर्मका ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि उस प्रकारके कर्मों
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२२ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का०५, सू०४ कामफले च दिव्यकुलजस्त्रीसम्भोग-सङ्गीतक-कामचारोपवनविहारप्रायम। अर्थफले च शत्रुच्छेद-सन्धि-विग्रहादिराज्यचिन्ताप्रायमिति ।
. 'साक, इति अङ्क-उपाय दशा-सन्धिभिर्वक्ष्यमाणैः सह वर्तते । 'दिव्याङ्गम, इति दिव्यं देवता अन्योऽपि चोत्तमः प्रधानस्य नेतुरङ्ग सहायः पताका-प्रकरीनायक-लक्षणो यत्र । दिव्यो हि नेतैव विरुध्यते न पुन: सहायः। अत्यन्त भक्तानामेव नाम देवताः प्रसीदन्तीति देवताराधनपुरःसरं उपायानुष्ठानमाधेयमिति व्युत्पादनार्थ दिव्योऽप्यस्वेन कार्यः ।
का फल लोकमें साक्षात् नहीं देखा जाता है । इसलिए जिन व्रतादिके प्रदर्शनसे सामानिकको साक्षात् फलका दर्शन न हो सके उस प्रकारके धर्मका ग्रहण यहाँ धर्म पदमें अभिप्रेत नहीं है।
राज्यादिकी बाधाका प्रभाव तो उसके पूर्वकृत धर्मका दृष्ट फल हो सकता है किन्तु व्रतानुष्ठानका फल उस समय देखनेको नहीं मिल सकता है। अतः दया, दान आदि दृष्टफल तथा राज्यकी बाधाका अभाव आदि प्रामुष्मिक धर्म फल माने जा सकते हैं । यह ग्रन्थकारका अभिप्राय प्रतीत होता है ।
और कामफल वाले [नाटक] में दिव्य [अर्थात् अप्सरा] अथवा [उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई] कुलीन स्त्रीका. सम्भोग, सङ्गीत, कामचार [अर्थात् यथेच्छ उपभोग प्रादि पाचरण] और उपवन-विहार प्रादि [प्रधान फल प्रदर्शित किया है। अर्थफल वाले [नाटक में शत्रुका नाश, सन्धि-विग्रह आदि राज्य चिन्ताका प्रधान फलके रूपमें प्रदर्शन किया माता] है।
यहां तक ग्रन्थकारने 'धर्मकामार्थसत्फलम्' इस कारिका-भागकी व्याख्या की है। अब मागे 'साझोपायदशासन्धि' इस पदकी व्याख्या करते हैं। इसमें अङ्क, उपाय, दशा और सन्धि पद पाए हैं, ये सब नाट्यशास्त्रके पारिभाषिक शब्द हैं। ग्रन्थकार इन सबके लक्षरण आगे करेंगे। उन प्रङ्क प्रादि सबसे युक्त, पूर्वकालिक राजाओं के चरित्रका प्रस्तुत करने वाला नाटक होता है यह इस पदका अभिप्राय है । इसी अभिप्रायको अगली पंक्तियों में देते हैं
आगे कहे जाने वाले प्रङ्क, उपाय, दशा तथा सन्धिसे युक्त [प्राधराजचरित नाटक कहलाता है] | "दिव्याङ्गम्' [इस पदके दो प्रकारके अर्थ हो सकते हैं। उनमेंसे पहिला अर्थ यह है कि दिव्य अर्थात् देवता [अथवा और भी [कोई] उत्तम-प्रकृति [महानुभाव प्रधान अर्थात् नायकका अङ्ग अर्थात् सहायक प्रर्थात् पताका-नायक अथवा प्रकरी-नायक-रूप जिसमें हो [वह नाटक 'दिव्याङ्ग' हुआ। इसपर यह शङ्का हो सकती है कि अभी तो नाटकमें दिव्य नायकके रखे जानेका खण्डन कर चुके हैं फिर उसके तुरन्त बाद ही देवतामोंको नायकका सहायक अथवा पताका-नायक या प्रकरी-नायक बनानेकी बात कह रहे हैं ये दोनों विरुद्ध बातें हैं। इसका शङ्का समाधान करते हैं कि] देवताको नायक बनाना ही अनुचित है सहायक बनाना [अनुचित नहीं है । प्रत्यन्त भक्तोंके ऊपर ही देवता प्रसन्न होकर उनके सहायक बननेके लिए उद्यत] होते हैं इसलिए देवताओंका पूजन करके ही उपायोंका अनुष्ठान करना चाहिए इस बातको शिक्षा देनेके लिए देवताओंको भी सहायक [रूपमें प्रस्तुत करना चाहिएं [यह इस पंक्तिका अभिप्राय है] ।
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का०५, सू०४ ] प्रथमो विवेकः
[ २३ तत्र देवता यथा नागानन्दे गौरी । उत्तमप्रकृतिर्यथा रामादिप्रबन्धेषु सुग्रीवादिरिति । यद्वा दिव्यानि अनवद्यानि अङ्गानि वक्ष्यमाणानि उपक्षेपादीनि यत्र ।
तत्रेति निर्धारणार्थः । अभिनेयसमुदायान् प्रधानपुरुषार्थप्रवृत्तविनयराजादिव्युत्पादनगुणेन नाटकं निर्धार्यते । नाटकमिति नाटयति विचित्रं रञ्जनाप्रवेशेन सभ्यानां हृदयं नर्तयति इति नाटकम् । अभिनवगुप्तस्तु नमनार्थस्यापि नटेर्नाटकशब्द व्युत्पादयति । तत्र तु घटादित्वेन ह्रस्वाभावश्चिन्त्यः ।।
उनमेंसे देवता [के सहायक होनेका उदाहरण] जैसे नागानन्दमें गौरी [मलयातीको प्राप्तिमें जीमूतवाहन को सहायक बनती है । दूसरे प्रकारके] उत्तम-प्रकृति [के सहायक होकेको उदाहरण] जैसे रामादिके नाटकोंमें सुग्रीव प्रादि । प्रथवा विव्य अर्थात् सुन्दर जिसके मन अर्थात् प्रागे कहे जाने वाले उपक्षेप मावि [रूप बङ्ग] हैं वह [दिव्याङ्गहमा । यह 'दिबाज' पदका दूसरा अर्थ है।
[कारिकामें आया हुमा] 'तत्र' शब्द निर्धारणार्थक [छांटनेके अर्थमें प्रयुक्त है। [बारह प्रकारके] अभिनेय [काव्यों के समुदायमेंसे [नाटकका अलग निर्धारण यहाँ 'तत्र' शम्बके द्वारा किया गया है। क्योंकि] मुख्य [धर्म, अर्थ, काम रूप] पुरुषार्थों [को सिद्धि में प्रवृत्त, उपदेश करने योग्य राजा मादिको [विशेष रूपसे] शिक्षा प्रदान करने वाला होते नाटकको [अभिनेय-काव्यके अन्य भेदोंसे 'तत्र' शबके द्वारा यहाँ] अलग किया जा रहा है ["निर्वायते' । इसलिए 'तत्र' शब्द यहाँ निर्धारणार्थक है। भागे] नाटक [भन्दको व्युत्पत्ति विखलाते हैं] नाना प्रकारसे सौन्दर्य के प्रवेश द्वारा ही सहृदयोके हृदयोंको [नाटयति नबति] मानन्दातिरेक से नघाता-सा है इसलिए नर्तनार्थक नट धातुसे] 'नाटका, [शब्द बनता है। अभिनवगुमने तो ['रपट नृतो' के स्थानपर 'एट नौ पाठ मानकर 'नति अर्थात् नमन मर्च वाले नट धातुसे भी नाटक शब्दकी सिद्धि की है। किन्तु उस स्थलपर [नमन अर्थमें तो नट धातुके] घटादि गणपठित होनेसे [मित और घटादि गणपठित धातुमोको 'घटादयो मित.के अनुसार मित् माननेसे 'मिता ह्रस्वः' प्रष्टा० ६-४.६२ सूत्रसे णिच् परे रहते उपधाको हस्व करने का विधान होनेसे 'नाटक' शब्दमें] ह्रस्वका प्रभाव चिन्तनीय है । [अर्थात् शुद्ध नहीं प्रतीत होता है] । अर्थात् यदि घटादि गरणस्थ नट धातुसे इस शब्दकी सिद्धि को जायगो तो उपधाको ह्रस्व होकर 'घटक' शब्दके समान 'नटक' शब्द बनना चाहिए । नाटक शब्द नहीं बनेगा।
___'गट नृत्तो' पातु भ्वादिगण में [धातु-संख्या ३१० तथा ७८१] दो स्थानोंपर पढ़ा गया है। सिद्धान्तकौमुदीकारने इन में से प्रथम-पठित धातुको नाट्यार्थक और दुबारा पठित धातुको नृत्यार्थक माना है।
___ "इदमेव. पूर्वमपि पठितम् । तत्रायं विवेकः पूर्वपठितस्य नाट्यमर्थः। यत्कारिषु नटव्यपदेशः । वाक्यार्थाभिनयो नाट्यम् । घटादौ तु नृतं नृत्यं चार्थः । यत्कारिषु नर्तकम्पपदेशः । पदार्थामिनयो नृत्यम् । गात्रविक्षे"मात्रं नृत्तम् । केचित्तु घटादी गट नती इति पठन्ति ।
भ्वादिगणकी ७८१ संख्या 4 : धातुको व्याख्या में यह सिद्धान्तकौमुदीकारका लेख है। इसी णट नतो पाठका उल्लेख नमनार्थक नट धातुके रूप में यहां किया गया है।
अभिनवगुप्तने नाटक शन्दको व्युत्पत्ति करते समय यद्यपि 'गट नतो' धातुका स्पष्ट रूपसे उल्लेख नहीं किया है किन्तु 'नमनं प्रह्वीभावः' नमनका अर्थ 'प्रह्वीभाव' नम्रता
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२४ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का०५, सू० ४
यद्यपि कथादयोऽपि श्रोतृहृदयं नाटयन्ति तथापि श्रङ्कोपायादीनां वैचित्र्यहेतूनामभावात् न तथा रञ्जकत्वमिति न ते नाकटम् । तथा नाटकं प्रधानपुरुषार्थेषु राज्ञां तदङ्गभूतेष्वमात्यादीनां च बहूनां व्युत्पादकमिति कतिपयव्युत्पादकानि प्रक रखादीन्यपि न नाटकमिति ।। ५ ।।
प्रदर्शन होता है । इस 'प्रह्वीभाव' और 'नति' शब्दों का उल्लेख नाटक शब्दको व्युत्पत्ति के प्रसङ्गमें अवश्य किया है । अठारहवें ग्रध्याय में नाटक के विवेचन के प्रसङ्गमें-
(१) नृपतीनामेव नाटकन्नाम तच्चेष्टितं प्रह्वीभावदायकं भवति [पृ० ४१३, पंक्ति ८] ।
(२) यद्यपि सर्वसूत्रकाराणामर्थो हृदये प्रविप्रो विनेयांश्च विनीतान करोति [ ४१४, पंक्ति २] ।
•
(३) प्रधान पुरुषार्थे प्रधानविनेयानां, अन्यत्रान्येषां वेदयतोऽवर्नति व्युत्पत्तिं ददाति । तत एव नाटकमुच्यते । [पृ० ४४, पंक्ति ७] ।
इत्यादि रूप में अनेक स्थानोंपर नमन प्रह्वीभाव, नति आदि भावोंका नाटक शब्द के साग सम्बन्ध दिखलाया है । जिससे प्रतीत होता है कि अभिनवगुप्त नमनार्थक नट धातु से मी नाटक शब्दको व्युत्पत्ति मानते हैं ।
परन्तु प्रकृत ग्रन्थकार रामचन्द्र गुरणचन्द्र इस व्युत्पत्ति से सहमत कहना है कि घटादि गरण पठित गट धातुको ही कुछ लोगों ने 'नृतौ' के में माना है । घटादि गरण पठित धातुयोंको भित्-संज्ञा होकर उनमें मितां हो जाता है । उस दशा में नाटक पद में भी हस्व होकर 'घटक' के चाहिए । 'नाटक' शब्द उस धातुसे नहीं बन सकता है । श्रत एव व्युत्पत्तिका खण्डन किया है ।
रामचन्द्र - गुणचन्द्र यहाँ ग्रभिनवगुप्तकी व्याख्यापर जो ग्रापत्ति की है वह घटादि मरणस्य नट-धातुको नत्यर्थक माननेपर ही बन सकती है। यदि उससे भिन्न पहिले स्थलपर ३१० घातु संख्या वाले नट धातुको नमनार्थक मान लिया जाय तो इस प्रकारको आपत्ति नहीं उठ सकती है । सम्भव है अभिनवगुप्त उसी स्थलपर 'नट नती' पाठ मानते हों दूसरी जगह नहीं । उस दशा में उनकी व्युत्पत्ति में कोई दोष नहीं होगा ।
अभिनवगुप्त ने केवल नमनार्थक धातुसे ही नहीं अपितु [पृ० ४१३, अध्याय १८] नतंनायक धातुसे भी नाटक शब्दकी सिद्धि को है । नाटकं नाम तच्चेष्टितं प्रह्वीभावदायकं भवति तथा हृदयानुप्रवेशरञ्जनोल्लासनया हृदयं शरीरं च नर्तयति नाटकम्' ये दोनों प्रकारको व्युत्पत्तियाँ अभिनव गुप्तने की हैं ।
यद्यपि कथा श्रादि भी श्रोताओंके हृदयको [ श्रानन्दातिरेक से ] नचाते हैं किन्तु वे उपाय आदि वैचित्रयके हेतुझोंके न होनेसे इतने श्रानन्द-दायक नहीं होते हैं इसलिए उनको नाटक नहीं कहते हैं । और नाटक प्रधान पुरुषार्थ के विषयमें राजा [अर्थात् मुख्य नायक ] और उसके अंग रूपमें श्रमात्य श्रादि बहुतों को व्युत्पन्न कराने वाला होता है इसलिए [ उससे मिन्न] केवल कुछ [गिने-चुने व्यक्तियों ] को व्युत्पत्ति प्रदान कराने वाले प्रकरण श्रादि [अभिनेय-काव्योंके अन्य ग्यारहों भेद] नाटक नहीं [कहलाते ] हैं।.
नहीं हैं । उनका
बजाय 'नतो' अर्थ
ह्रस्यः सूत्रसे हस्व समान 'नटक' पद बनना रामचन्द्र - गुणचन्द्र ने इस
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का० ६, सू०५ ] प्रथमो विवेकः अथ राजशब्दं व्याख्यातु सामान्येन नेतुः स्वरूपमाह[सूत्र ५]-उद्धृतोदात्त-ललित-शान्ता धीरविशेषणाः ।
वाः स्वभावाश्चत्वारो नेतृणां मध्यमोत्तमाः ॥६॥ 'धीरो' धैर्य महाव्यसनेऽप्यकातयं विशेषणं येषां उद्धतादीनां, धीरोद्धत-धीरोदात्त-धीरललित-धीरप्रशान्ता इत्यर्थः। एवं नाम कविवर्णात । जन्मोत्विवाग्तु स्वभावा नेतृणां यथा-तथा वा सन्तु । 'नेतणाम' इति बहुवचनात् प्रायेणेकेकस्मिन् धर्मिण्येकेकः स्वभावः, क्वचिदेव तु चत्वारः । 'मध्यमोत्तमा' इति-यद्यपि स्वस्थाने सर्वमपि उत्तममध्यमाधमभेदेन त्रिधा, तथापि धीरोद्धतादयः स्वभावा उत्तममध्यमभेदेनैव वर्णनीया इति ॥ ६॥
___ इस ग्रन्थ के निर्माता रामचन्द्र-गुणचन्द्रने इस नाटकके लक्षण-सूत्रकी रचनामें अपने कौशलका बड़ा अच्छा परिचय दिया है । अन्य ग्रंथों में जहां नाटकका लक्षण किया गया है वहां कई श्लोक इसके लक्षण रूपमें लिखे गए हैं। स्वयं भरतमुनिने अनेक श्लोकोंमें नाटकका लक्षण इस प्रकार किया गया है-- .
प्रख्यातवस्तुविषयं प्रख्यातोदात्त-नायकं चैव । राजर्षिवंश्यचरितं तथैव दिव्याश्रयोपेतम् ॥१०॥ नानाविभूतिभिर्युतं ऋद्धिविलासादिभिगुणैश्चैव। . अंकप्रवेशकाध्य भवति हि तन्नाटकं नाम ॥१॥ नृपतीनां यच्चरितं नाना रस-भाव-चेष्टितं बहुधा ।'
सुखदुःखोत्पत्तिकृतं भवति हि तन्नाटक नाम ॥१२॥० ॥ किन्तु यहाँ ग्रन्थकारने केवल एक ही श्लोकमें नाटकके लक्षणको सर्वांग-पूर्ख बना दिया है । यह उनके रचना-कौशलका द्योतक है। नायकके चार भेद
अब राज शब्द [अर्थात् नायक की व्याख्या करनेकेलिए सामान्य रूपसे नायको स्वरुपका वर्णन करते हैं
[सूत्र ५]-नायकोंके धौर विशेषणसे युक्त उद्धत, उदात्त, ललित और प्रशांत [अर्वात धौरोत, धीरोदात्त, धोरललित और धीरप्रशांत] चार प्रकारके स्वभाव [केवल मध्यम तवा उत्तम [दो रूपोंमें] ही वर्णन करने चाहिए [अधम नहीं] ॥६॥
धीर अर्थात् धैर्य अर्थात् भारी विपत्तिमें भी न घबड़ाना, जिनका विशेषख है बे, अर्थात धोरोखत, पोरोवात्त, घोरललित तथा धीरप्रशांत [इन चार प्रकारके नायक-स्वमार्योका वर्णन करना चाहिए। इस प्रकारका [स्वभावोंका] वर्णन [केवल] कवि [अपने नाटकमें] करता है। [उन्हीं] नायकोंके जन्मसे उत्पन्न स्वभाव चाहे जैसे हों। 'नेतृणाम्' इस बहुवचन के निशसे [यह प्रतीत होता है कि] प्रायः एक-एक व्यक्ति में एक-एक प्रकारका ही स्वभाव [साव्य-नाटक में होता है । चारों स्वभाव तो कहीं [विरले ही पाए जाते हैं । मध्यमोतमा' इससे [पदसे यह सूचित होता है कि यद्यपि अपने-अपने स्थानपर सब ही [वस्तुएँ] उत्तम, मध्यम और अधम भेवसे तीन प्रकारकी होती हैं। [इसलिए धीरोद्धत प्रादिके भी ये तीन
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२६ ]
नाट्यदर्पणम् । [ का०५, सू०६ भव बहुवचनाप्तमेव विषयभेदं स्पष्टयति[सत्र ६] देवा धीरोद्धता, धीरोदाचाः सैन्येश-मन्त्रिणः ।
. धीरशान्ता वणिग्-विप्राः, राजानस्तु चतुर्विधाः ॥७॥ स्वभाव-स्वभाविनोरभेदात् सामानाधिकर एयनिर्देशः । राज्ञां चातुविध्यमहनात् देवा धीरोद्धता एव, सैन्येश-मन्त्रिणो धीरोदात्ता एव, वणिग-विप्रा घोरशान्ता एव, वर्णनीया इति स्वयोगव्यवस्थायकत्वेनैवावधार्यते नान्ययोगव्यबच्छेदेन । तीन भेद हो सकते हैं। फिर भी पीरोइत मावि [नायकोंके स्वभाव] उत्तम तथा मध्यम [बस दो] भेदों में ही वर्णन करने चाहिए [अर्थात् उनके अधम रूपको नाटकों में प्रस्तुत नहीं करना चाहिए] ॥६॥ स्वमाव-व्यवस्था
पिछली कारिकामें नायकोंके चार प्रकारके स्वभावोंका वर्णन किया था। उसकी बास्सामें यह भी कहा था कि सामान्य रूपसे एक व्यक्तिमें एक ही प्रकारका स्वभाव पाया बाता है किन्तु कहीं-कहीं चारों प्रकारके स्वभाव भी एक व्यक्तिमें पाए जा सकते हैं । अब इन चारों प्रकारके स्वभावोंकी व्यवस्था अर्थात् किन लोगोंमें किस प्रकारका स्वभाव पाया बाता है अथवा किसका किस प्रकारका स्वभाव नाटकादिमें चित्रित करना चाहिए इस बात को इस कारिकामें कहते हैं
[सूत्र ६]-देवता धीरोदत [स्वभाव] सेनापति तथा मन्त्री धीरोदात्त [स्वभाव] पहिला तथा बाह्मण धीरप्रशान्त [स्वभाव तथा क्षत्रिय चारों प्रकारके [स्वभाववाले हो सकते हैं ॥७॥
इस कारिकामें धीरललितका कोई उल्लेख नहीं किया है। व्यक्तिभेदसे क्षत्रिय चारों स्वभावके हो सकते हैं । इस कथनसे क्षत्रियों में धीरललितका समावेश हो जाता है । श्रीकृष्ण आदि धीरललित-नायकके उदाहरण हैं। यहां जो देवतामोंको धीरोद्धत, सेनापति मौर मन्त्रियोंको धीरोदात्त, तथा विप्र तथा वणिकको धीरप्रशान्त बतलाया है, उसका अभिप्राय स्वयोगव्यवस्थापन-मात्र है, अन्ययोग-व्यवच्छेद नहीं। अर्थात् देवता प्रादिका उसी-उसी प्रकारका स्वभाव चित्रित करना चाहिए यही इस व्यवस्थाका अभिप्राय है। प्रत्योंमें इस प्रकारका स्वभाव नहीं हो सकता है, यह इसका तात्पर्य नहीं है। इस बातको विवरणकार पाये लिखते हैं
स्वभाव तथा स्वभाववान दोनोंका प्रभेद मानकर दिया धोरोखताः मादिमें समभाव परक पोरोखताः' तथा स्वभाववान् 'देवा' दोनों पदोंका समाम विभक्ति तथा समान पचनमें प्रबोब म] सामानाधिरण्य-निर्देश किया गया है। राजा [प्रति मषियों के चातुर्विम्यके बहे बानेसे देवता पोरोखत ही हो सकते हैं], सेनापति तथा मन्त्री धीरोदात्त हो, मोर बलिकतवा विप्र धीरप्रशान्त ही वरिणत होने चाहिए यह बात स्वयोगम्यवस्थापकत्वेन ही निर्धारित होतो है प्रन्ययोग म्यवच्छेदकत्वेन नहीं।
अमुक बात ऐसी ही होनी चाहिए इस भावमें सयुक्त होने वाला 'ए' पद विवरण
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का० ७, सू० ६ ]
प्रथमो विवेकः
[ २७
यः पुनः परशुरामस्यातिक्रूरत्वख्यापनार्थो धीरोद्धतत्वनिबन्धः स 'भाषाप्रकृतिवेपादेः कार्यतः कापि लंघनम्' इत्यपवादादविरुद्धः । अयं च नियमो देवानां मर्त्यापेक्षया न स्वापेक्षया । शिवादीनामुदात्तानां ब्रह्मादीनां शान्तानामपि च दर्शनात् । 'राजानः' इति क्षत्रियजातिः । बहुवचनात् व्यक्तिभेदेन चतुःस्वभावो नाटकस्य नेता, न पुनरेकस्यां व्यक्तौ । एकत्र प्राधान्येन स्वभावचतुष्कस्य वर्णयितुमशक्यत्वादिति । प्रधाननायकस्य चायं नियमो गौणनेतृणां तु स्वभावान्तरमपि पूर्वस्वभावत्यागेन निबध्यते । ये तु नाटकस्य नेतारं धीरोदात्तमेव प्रतिजानते न ते मुनिसमयाध्यवगाहिनः । नाटकेषु धीरललितादीनामपि नायकानां दर्शनात् कविसमय
वाह्याच ||७||
गार्थक माना जाता है । इसके प्रायः तीन प्रकारके प्रयोग माने जाते हैं । 'विशेष्य-सम्बद्धः एवकारः प्रन्ययोगव्यवच्छेदक : 'अर्थात् विशेष्य पदसे जब 'एव' का पद सम्बन्ध होता है तो वह अन्ययोगका व्यवच्छेदक होता है । जैसे 'पार्थं एव धनुर्धर:' इसमें 'पार्थ' अर्जुनको छोड़कर अन्य धनुर्धर नहीं हैं यह प्रन्ययोगका व्यवच्छेद होता है । इसी प्रकार 'विशेषरण संगतः एवकार प्रयोगव्यवच्छेदक : ' । विशेषण-संगत एवकार प्रयोग व्यवच्छेदक होता है जैसे 'पार्थो धनुर्धर एव' अर्थात् अर्जुन धनुर्धर ही है यहाँ 'एव' शब्द श्रर्जुनमें धनुर्धरत्वके प्रयोग अर्थात् सम्बन्धाभावका निषेधक अर्थात् प्रवश्य सम्बन्धका द्योतक है । इसी प्रयोगव्यवच्छेदक एवकारको यहाँ ग्रन्थकारने 'स्वयोगव्यवस्थापक' माना है । धीरोद्धत आदि विशेषरणों के साथ सम्बद्ध एत्रकार अन्ययोगका व्यवच्छेदक नहीं अपितु प्रयोगव्यवच्छेदक अथवा स्वयोगव्यवस्थापकमात्र है यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है । तीसरा एवकार क्रियाके साथ सम्बद्ध होता है । 'क्रिया सम्बद्ध एवकारो प्रत्यन्तायोगव्यवच्छेदक : क्रिया के साथ सम्बद्ध होने वाला 'एवकार' श्रत्यन्तायोगका व्यवच्छेदक होता है । जैसे 'नीलं कमलं भवत्येव' इसमें 'भवति' क्रियाके साथ सम्बद्ध 'एवकार' कमलमें नीलत्वके प्रत्यन्त प्रयोगका निषेध करके नील कमल भी हो सकता है इस अर्थको बोधित करता है ।
और जो [विप्र ] परशुराम के प्रतिक्ररत्वके सूचित करने के लिए धीरोद्धतत्वका वर्णन किया गया है वह 'कहीं कार्यवश [विशेष प्रयोजनसे] भाषा - प्रकृति और वेष आदि [ विषयक नियमों का उल्लंघन भी किया जा सकता है' इस अपवादके विद्यमान होनेसे अनुचित नहीं है [अर्थात् यहाँ अपवाद रूपमें ही परशुराम के ब्राह्मण होते हुए भी धीरोद्धत-स्वभावका वर्णन किया गया है यह समझना चाहिए] । देवतानोंका यह [ धीरोद्धत स्वभावका ] नियम मनुष्योंकी दृष्टिसे है, अपनी दृष्टिसे नहीं। क्योंकि [देवताओं में भी ] शिव प्रादि धीरोदात्त तथा ब्रह्मा श्रादि धीरशान्त [नायक] भी दिखलाई देते हैं । 'राजानः' पदसे [राजाका ही ग्रहण न करके ] क्षत्रियजाति मात्र [ का ग्रहण करना चाहिए ] । श्रौर [ राजानः पदमें] बहुवचन [के प्रयोग ] से व्यक्ति-भेदसे नाटकके नेता चारों प्रकारके स्वभाव वाले हो सकते हैं, एक व्यक्ति में [ चारों प्रकारके स्वभाव ] नहीं [हो सकते हैं यह बात सूचित की है] । क्योंकि एक व्यक्तिमें ही चारों प्रकारके स्वभावका वर्णन कर सकना असम्भव है । और यह नियम [अर्थात् चारों प्रकारके स्वभावका एक व्यक्तिमें वर्णन नहीं किया जा सकता है केवल ] प्रधान नायकके विषयमें ही है। गौरा नायकोंमें तो पूर्व-स्वभावको छोड़कर अन्य स्वभावका वर्णन भी किया जा सकता
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नाट्यदर्पणम्
२८ ]
अथ धीरोद्धतादीनां यथोद्देशमर्थमाह[ सूत्र० ७ ] - धीरोद्धतश्चलश्चण्डो दर्प दम्भी
विकत्थनः ।
।
धीरोदाचोऽतिगम्भीरो न्यायी सच्ची क्ष्मी स्थिरः ||८|| शृङ्गारी धीरललितः कलासक्तः सुखी मृदुः । नयी ॥६॥
[ का०८-६, सू० ७
धीरशान्तोऽहङ्कारः कृपालुर्विनयी
अकातरत्वं धीरशब्दस्यार्थः सर्वत्र समान एव । चलत्वादयः पुनरुद्धतादीनां शब्दानामर्थाः । चलोऽनवस्थितः । चण्डो रौद्रः । दर्पः शौर्यादिमदः । दम्भः कूट प्रयोगः । विकत्थनः स्वप्रशंसी । श्रतिगम्भीरो दुरवबोधमध्यः । सत्त्वी शोक - क्रोधाद्यनभिभवनीयः । स्थिरो विमृश्यकारी ।
कलासक्तो गीतादितत्परः । सुखी मन्त्रिन्यस्तराज चिन्ताभारत्वान्निराधिः । मृदुरक्रूराचारः । अनहङ्कारः सर्वथाप्यनवलेपः । धीरोदात्तस्तु विनयच्छन्ना वलेपः, इति भेदः । विनयी गुरुजनाद्यनुल्लंघीति । उपलक्षणमात्रं चैतत् तेनोद्धतादीनां यथौचित्यमपरेऽपि धर्मा दृष्टव्या इति ||८
है । जो नाटकके नायकको केवल धीरावात ही मानते हैं वे भरतमुनिके सिद्धान्तको नहीं समझते हैं। और नाटकोंमें धीरललित प्रावि नायकोंके भी पाए जानेसे कवियोंके व्यवहारसे अपरिचित प्रतीत होते हैं । [ प्रर्थात् भरतमुनिके सिद्धान्त तथा कवियोंके व्यवहार दोनोंके अनुसार नाटकों में चारों प्रकारके नायकोंका चित्रण किया जा सकता है। केवल धीरोदात ही नायक हो ऐसा कोई बन्धन नहीं है ] ||ou
अब [ उद्देश] क्रमके अनुसार धीरोद्धत श्रादिका अर्थ बतलाते हैं
[ सूत्र ७ ]धीरोद्धत [नायक] अस्थिर चित्त, भयङ्कर, अभिमानी, छली, श्रात्म- श्लाघी, [ होता है]। धीरोदास [ नायक ] अत्यन्त गम्भीर, न्यायप्रिय, शोक - क्रोध श्राविके वशीभूत न होने वाला [सरवी ], क्षमाशील और स्थिर [ सोच-विचार कर कार्य करने वाला होता है ] ॥८॥
[ सूत्र ७ ] धीरललित [ नायक ] शृङ्गारप्रिय, [गीत वाद्यादि] कलानोंका प्रेमी [ राज्यभारको मन्त्रीको सौंपकर निश्चित हो जाने वाला ] सुखी और कोमल स्वभावका [ होता है] । और धीरप्रशान्त [ नायक ] सर्वथा श्रहङ्कार-रहित, दयालु, विनयशील और नीति अवलम्बन करने वाला होता है ।॥
[कारिकामें श्राए हुए ] 'धीर' शब्दका अर्थ प्रकातरत्व [न घबड़ाना ] है । वह [ धीरोदात्तं आदि चारों प्रकारके नायकोंमें] सबमें समान ही है और चलत्व श्रादि उद्धत प्रादि शब्दों के • श्रर्थ हैं । 'चल' अर्थात् प्रस्थिरचित्त । 'चण्ड' श्रर्थात् भयङ्कर । शौर्यादिके घमण्डका नाम 'दर्प' है । 'वम्भ' का अर्थ कूटप्रयोग [छल ] है । श्रात्मश्लाधा करने वाला 'विकत्थनः ' [ होता ] है । 'प्रतिगम्भीर' अर्थात् जिसके मनकी बात सहज न समझी जा सके। 'सत्त्वी' अर्थात् शोक- क्रोध विके वश में न होने वाला 'स्थिर' अर्थात् सोच-विचार कर कार्य करने वाला ।
कलासक्त प्रर्थात् गीत [वाद्य] प्रावि [ कलानों] का प्रेमी । 'सुखी' अर्थात् राज्यकी चिन्ताका भार मन्त्रीको सौंपकर निर्शचत हो जाने वाला । 'मृदु:' अर्थात् क्रूर आचरण न
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का० १०, सू० ८ ]
अथ चरितशब्दं व्याचष्टे
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[ सूत्र ८ ] -- मुख्यमिष्टफलं वृत्तं अङ्गं प्रासङ्गिकं क्वचित् । सूच्यं प्रयोज्यमभ्यू, उपेक्ष्यं तच्चतुर्विधम् ॥१०॥
प्रथमो विवेकः
मुख्यं सर्वप्रबन्धव्यापित्वात् प्रधानम् । इष्टं सर्वोत्कर्षेण कवेरभिप्रेतं फलं यस्य । वृत्तं चरितम् । अङ्ग मुख्यवृत्तस्यानुयायित्वादवयवः । प्रसङ्गात् परकीययत्नादागतं प्रासङ्गिकम् ।
इह तावत् न निसर्गतः किञ्चिच्चरितं मुख्यमङ्ग वा, किन्तु बहुष्वपि फलेषु कविर्यस्य अत्यन्तमुत्कर्षमभिप्रैति तत्फलमिष्टम् । अनेन च यत् फलवद् वृत्तं तदिह मुख्यम् । तदितरत् अङ्गत्वात् प्रासङ्गिकम् । रामप्रबन्धेषु हि सुग्रीवमैत्री - शरणागत
[ २६
करने वाला । 'प्रहङ्कार' अर्थात् सर्वथा अभिमान शून्य | धीरोदात्त [नायक ] तो [अभिमानयुक्त होनेपर भी ] विनयके द्वारा अपने अभिमानको छिपा लेने वाला होता है यह [षीर प्रशान्त से उसका ] भेद है । 'विनयी' अर्थात् गुरुजन श्रादि [की प्राज्ञा या मर्यादा] का उल्लंघन न करने वाला | ये धर्म केवल उपलक्षण मात्र है । इसलिए प्रौचित्यके अनुसार धीरोद्धत आदि [ नायकों] में अन्य धर्म भी समझ लेने चाहिए ॥ ८-६ ॥
चरित के दो भेद
नाटक में वर्णित प्राख्यान वस्तु जिसको यहाँ ग्रन्थकारने 'वृत्त' तथा 'चरित' शब्दोंसे निर्दिष्ट किया है दो प्रकारका होता है। एक मुख्य और दूसरा उसका अङ्गभूत । नाटक में वरित प्रधान फल की प्राप्ति जिसको होती है वह पात्र नाटकका नायक या प्रधान पात्र होता है । उसका चरित मुख्य चरित कहलाता है । और शेष सब चरित उसकी कार्यसिद्धिके उपकारक होते हैं इसलिए वे सब उसके प्रङ्गभूत चरित माने जाते हैं । इसी बातका प्रतिपादन ग्रन्थकार इस कारिकाके विवरण में निम्न प्रकार करते हैं
[ सूत्र ८ ] - [ कविके द्वारा अभिप्रेत ] प्रधान फल जिसको प्राप्त होता है उसका चरित [ इष्टफलं वृत्तं] मुख्य [ चरित कहलाता है] । और [ श्रनिवार्य रूपसे सर्वत्र नहीं अपितु 'क्वचित्' श्रर्थात् ] कहीं-कहीं [afरंगत ] प्रासाङ्गिक [वृत्त] ग्रङ्ग [प्रप्रधान चरित कहलाता ] है । [इन दोनों प्रकारके चरितोंके भी उनकी अभिव्यक्तिको प्रक्रियाको दृष्टिसे चार भेद होते हैं । उनके नाम इस कारिकामें निम्न प्रकार दिखलाए हैं] वह भी १ सूच्य, २ प्रयोज्य, ३ श्रभ्यूह्य [कल्पनीय] श्रौर ४ उपेक्षणीय [भेदसे] चार प्रकारका होता है ॥ १०॥
सारे प्रबन्ध [ अर्थात् सारे नाटक में भाविसे लेकर अन्त तक निरन्तर] व्यापक रहनेसे प्रधान [ चरित हो ] मुख्य [ चरित कहलाता ] है । [ उसका लक्षरण यहाँ 'इष्टफलम्' किया गया है । इसलिए इस शब्दका अर्थ प्रागे देते हैं ] । 'इष्ट' अर्थात् कवि जिसके फलको सबसे उत्कृष्ट रूपमें चाहता है [वह 'इष्ट' फलं इष्ट फल वाला वृत्त] है [वृत्त अर्थात् चरित] । श्रङ्ग-प्रर्थात् मुख्य चरितका अनुगामी होनेसे उसका श्रवयव [ श्रङ्ग-चरित कहलाता है ] । प्रसङ्ग प्रर्थात् अन्य [विषयक ] यत्न से प्राप्त होने वाला वृत प्रासङ्गिक [चरित कहलाता ] है ।
इनमें से कोई भी चरित स्वभावत: मुख्य या श्रंग-रूप नहीं होता है । किन्तु अनेक फलोंमें से कवि जिसको प्रत्यन्त उत्कर्ष [ दिखलाना ] चाहता है वह फल 'इष्ट' [फल होता ] है ।
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३०
नाट्यदर्पणम्
[ का० १०, स०८ विभीषणरक्षण-रावणवध-सीताप्रत्यानयनादिषु सीताप्रत्यानयनस्यैव प्राधान्य विना प्रतिपादितम् । तत्सम्पादनाय तदितरेषु प्रवृत्तेः । अत एव तान्यङ्गानि ।
- कविरपि न स्वेच्छया फलस्योत्कर्ष निबधुमर्हति, किन्त्वौचित्येन । यस्य धीरोद्धतादे-र्यदेव फलमुचितं तस्यैवोत्कर्षों निबन्धनीयः। प्राङ्गिकस्यापि च मुख्यवृत्तप्रयत्नेनैव निष्पत्तिविधेया । प्रयत्नान्तरे हि तदपि मुख्यं स्यात् । तापस वत्सराजे हि वत्सराजस्य मुख्याय कौशाम्बीराज्यलाभाय प्रयत्नेनैव यौगन्धरायणव्यापारण प्रासङ्गिक वासवदत्तासंगम-पद्मावतीप्राप्त्यादिकर्मापि साध्यते ।
'क्वचित्' इति यत्रैव मुख्यो नेता फलसिद्धौ सहायमपेक्षते तत्रैव प्रासङ्गिकम् । न सर्वत्र । यथा भट्टश्रीभवनुतचूड़ामणिविरचितायां कोशालिकायां नाटिकाया कोशालिकाप्राप्तिमधिकृत्य प्रवृत्तस्य वत्सराजस्य न प्रासङ्गिकम् ।
यथा वास्मद्रपझे सत्य-हरिश्चन्द्रे नाटके प्रतिज्ञानिर्वाहं प्रति प्रवृत्तस्य 'हरिश्चन्द्रस्य । 'तच्चतुर्विधम्' इति 'तत्' सामान्येन वृत्तम् ।।१०।। यह फल जिसको प्राप्त होता है वह 'चरित' यहां मुख्य ['चरित' कहलाता है। उससे भिन्न [चरित उसका] अङ्ग होनेसे प्रासङ्गिक [चरित कहलाता है । राम-विषयक नाटकों में सुग्रीवमंत्री, शरणागत विभीषणको रक्षा, रावरण-बध और सीताका लौटाना प्रादिमेंसे सीताके प्रत्यानयनका ही प्रधान रूपसे वर्णन किया है। अन्यों का वर्णन करने में उस [सीता-प्रत्यानयन] के सम्पादनके लिए ही प्रवृत्त होनेसे [सोता-प्रत्यानयन ही प्रधान फल है। अन्य प्रधान नहीं है] इसलिए वे अंग [कहलाते हैं।
कवि भी अपनी इच्छासे [किसी विशेष फलका उत्कर्ष वर्णन नहीं कर सकता है। किन्तु प्रौचित्यके अनुसार [ही वह उत्कर्षका वर्णन करता है । जिस धीरोद्धत प्रादि [नायक के केलिए जो फल उचित हो उसका ही उत्कर्ष वर्णन करना चाहिए। और मुख्यवृत्तके लिए किए गए प्रयत्नके द्वारा ही प्रासङ्गिक [वृत्त को भी सिद्धि करनी चाहिए। उस [प्रासं. गिक वृत्तको सिद्धि] के लिए अलग प्रयत्न करनेपर तो वह भी मुख्य बन जावेगा। 'तापसवत्सराज' नामक नाटक में वत्सराज [उदयन] के कौशाम्बीके राज्यको प्राप्ति रूप मुख्य फलके लिए किए गए [वत्सराजके मंत्री यौगन्धरायणके व्यापारसे ही वासवदत्ताका समागम और पद्मावतीकी प्राप्ति प्रादि ख्य प्रासनिक कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं।
[इसी प्रकार सर्वत्र मुख्य फलकी प्राप्तिके लिए किए जाने वाले व्यापारसे ही प्रासङ्गिक कार्योंकी सिद्धि दिखलानी चाहिए। उसके लिए अलग व्यापारको आवश्यकता नहीं होनी चाहिए । अन्यथा वह अङ्ग न रहकर प्रधान बन जायगा] ।
[कारिकामें पाए हुए] 'क्वचित्' इस पदसे [यह सूचित किया है कि जहाँ मुख्य नायक [अपने] फलको सिद्धिके लिए सहायकको चाहता है वहां ही प्रासङ्गिक [चरित] को प्रावश्यकता होती है। [वहींपर उसका वर्णन करना चाहिए] सब जगह नहीं। जैसे श्री भवनुत चूड़ामरिण भट्ट द्वारा विरचित 'कोशालिका' [नामक नाटिकामें कोशालिका [नायिका] की प्राप्तिकेलिए प्रवृत्त वत्सराजका [कोई सहायक प्रहात न होने से उसमें] प्रासङ्गिक [वृत्त] या चरित्र नहीं है।
अथवा जैसे हमारे बनाये हुए 'सत्यहरिश्चन्द्र' [नामक नाटकमें अपनी प्रतिज्ञाको
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का० ११, सू० ६ ] प्रथमो विवेकः
[ ३१ अथ चातुर्विध्यमेव स्पष्टयतिसूत्र ६]--नीरसानुचितं सूच्यं, प्रयोज्यं तद्विपर्ययः ।
ऊह्यं तदविनाभूतं, उपेक्ष्यं तु जुगुप्सितम् ॥११॥ नीरसं अरञ्ज कम् । अनुचितं सरसप्यनहं आलिङ्गन चुम्बनादि । तत् सूर्य विष्कम्भादिभिर्जाप्यम्। तस्य नीरसानुचितस्य विपर्ययः सरसमुचितं च प्रयुज्यते, वाचिकादिभिरभिनयैः सामाजिकानां साक्षादिव क्रियते इति प्रयोज्यम। तयोः सूच्यप्रयोज्ययोरविनाभूतं देशान्तरप्राप्त्यादौ गमनादि ऊह्यते स्वयं वितयं ते इति उपम् । न नाम देशान्तरप्राप्तिः पादविहरणादिकं विना भवति । उपेक्ष्यते ब्रीडादिहेतुत्वादवगण्यते इत्रपेक्ष्यम्'। जुगुप्सनीयं भोजन-स्नान-शयन-प्रस्रवणादि । यत् पुनरुत्तररामचरिते सीतायाः, अस्मदुपज्ञ नलविलासे अरण्ये दमन्त्याश्च प्रयुक्तं तत् प्रस्तुततोपयोगित्वात् रञ्जकत्वाच्च न दुष्टम् ।।११।।। पूर्ण करनेकेलिए प्रवृत्त हरिश्चन्द्रका [कोई सहायक या प्रासङ्गिक वृत्त या चरित्र नहीं है । कारिकाके अन्तमें पाए हुए ] 'तच्चतुर्विधम्' इस [पद] में 'तत्' [पदसे सामान्य रूपसे चरित [अर्थात् वृत्त, (१) सूच्य, (२) प्रयोज्य, (३) अभ्यूह्म अर्थात् कल्पनीय और (४) उपेक्ष्य पादि भेदोंसे चार प्रकारका हो सकता है यह बात प्रन्धकार द्वारा सूचित को रई है] ॥१०॥ चरितकी चार अवस्थाएँ या स्थितियाँ- .
अब [पिछली कारिकामें बतलाई हुई चरितकी] चार प्रकारको स्थितिको ही [इस कारिकामें स्पष्ट करते हैं
[सूत्र ]-[प्रस्तुत चरितमें जो कुछ भाग] नीरस या अनुचित हो वह [विखलाने योग्य नहीं होता है अपितु विष्कम्भका दिने अन्योंकी उक्ति द्वारा] सूचित करने योग्य [होता है। [अतः उसको 'सूच्य' वृत्त कहा जाता है, उसके विपरीत [अर्थात् सरस और उचित भाग हो] 'प्रयोज्य' [अभिनय द्वारा दिखलाने योग्य होता है। उसका अविनाभूत [अर्थात् जिसके बिना 'प्रयोज्य' भागका अभिनय ही न हो सके वह भाग स्वयं] 'ऊह्य' [अर्थात् कल्पनीय होता है। और घृणा उत्पन्न करने वाला [जुगुप्सित भाग] 'उपेक्षरणीय' [होता] है [अर्थात् उसका अभिनय नहीं करना चाहिए] ॥११॥
नीरस अर्थात् जो मनोरञक न हो। अनुचित अर्थात् जो सरस होनेपर भी [दिखलानेके] अयोग्य हो जैसे प्रालिङ्गन, चुम्बन प्रादि, वह 'सूच्य' अर्थात् विष्कम्भक प्रादि द्वारा ज्ञापनीय [अर्थात् अन्योंके वर्णन द्वारा बोध्य होता है। [मागे 'तद्विपर्पयः' का अर्थ करते हैं] उसका अर्थात् नीरस और अनुचित रूप 'सूच्य भागका विपरीत अर्थात् सरस और उचित है वह प्रयुक्त किया जाता है अर्थात् वाचिक प्रादि [चारों प्रकारके] अभिनयों द्वारा सामाजिकों के सामने प्रत्यक्ष-जैसा किया जाता है इसलिए 'प्रयोज्य' [कहलाता है। उन 'सूच्य' तथा 'प्रयोज्य' दोनोंका अविनाभूत [अर्थात् जिसके बिना 'सूच्य' अथवा 'प्रयोज्य' भागका उपपादन हो न हो सके] जैसे अन्य स्थानपर पहुंचनेके लिए [अपरिहार्य] गमन 'प्रादिको स्वयं कहा, १. उपेक्ष्यते वीडादिहेतुत्वादवगण्यते इत्युपेक्ष्यं योज्यम् । २. तयोः सूच्य-प्रयोज्ययो जुगुप्सनीयं भोजन-स्नान-शयन प्रस्रवणादि ।
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३२ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १२, सू० १० अथ अन्यानपि वृत्तभेदान् दर्शयति[सूत्र १०] प्रकाशं ज्ञाप्यमन्येषां स्वगतं स्वहृदि स्थितम् ।
परावृत्य रहस्याख्यान्यस्मै तदपवारितम् ॥१२॥ मर्थात् कल्पना की जा सकती है इसलिए वह 'ऊह्य' [कहलाता है । क्योंकि पैरोंसे चेले बिना दूसरे स्थानपर नहीं पहुंचा जा सकता है। जो उपेक्षित किया जाता है अर्थात् लज्जादि-जनक होनेके कारण अनाहत किया जाता है वह 'उपेक्ष्य' [कहलाता है। [धृणाके जनक] भोजनस्नान-शयन और मूत्र-त्याग प्रादि [प्रस्रवण] जुगुप्सित [कहलाते हैं। किन्तु 'उत्तररामचरित' में रामको गोवमें पड़ी हुई सीताका और हमारे बनाए हुए 'नलविलास' में वनमें दमयन्तीके शयनका जो अभिनय दिखलाया गया है वह प्रस्तुतमें उपयोगी होने और मनोरञ्जक होनेके कारण दोष नहीं है ॥११॥ भावाभिव्यक्ति के नाटकीय प्रकार
नाटकमें और लोक में भी सारी बातें एक ही रूप में से नहीं कही जाती हैं । भिन्न-भिन्न अवसरोंपर भिन्न-भिन्न प्रकारकी शैलीका अवलम्बन वार्तालापमें किया जाता है । कोई बात ऐसी होती है जो सबके सामने कही जाती है । कोई ऐसी होती है जिसे वक्ता दूसरों से छिपा कर अपने तक ही सीमित रखना चाहता है। इन दोनों के लिए नाटकमें अलग-अलग शैलियों का अवलम्बन किया जाता है। जो बात गोप्य नहीं है, वक्ता सबको उस बातको सुनाना चाहता है उसको नाट्यकी परिभाषामें 'प्रकाशम्' शब्दसे कहा जाता है। और जिसको वक्ता अन्य सबसे छिपाकर केवल अपने तक ही सीमित रखना चाहता है इस प्रकारकी बात के लिए नाटकमें 'स्वगतम्' शब्द का प्रयोग किया जाता है । ये 'प्रकाशम्' तथा 'स्वगतम्' शब्द नाटक में भावाभिव्यक्तिकी विशेष प्रकारकी शैलीको सूचित करते हैं। 'स्वगतम्' रूपमें कही जाने वाली बात गोप्य होती है । परन्तु उसकी गोप्यता केवल अभिनय करने वाले पात्रों की दृष्टिसे ही होती है। नाटक के देखने वाले सामाजिकोंकी दृष्टिसे नहीं। नाटक में लिखते समय जिसको 'स्वगतम्' लिखा जाता है वह बात भी सामाजिकोंको सुनानी ही होती है। अन्यथा सामा
रसास्वाद गडबडा जायगा। इसलिए अभिनय करते समय उस स्वगत भागको भी ज़ोरसे बोला जाता है कि जिससे सामाजिकगण उसे स्पष्ट रूपसे सुन सकें। केवल मुख-मुद्रादिके द्वारा ऐसा अभिनय किया जाता है कि मानो वक्ला अपने मन में ही कह रहा है ।
इसी प्रकार जो बात अनेक पात्रोंसे छिपाकर किसी एक पात्र पर प्रकट करनी होती है उसे अन्य लोगोंकी अोर से मुख मोड़कर उस एक व्यक्तिसे कहा जाता है। उसको 'अपवारित' नामसे कहा गया है । इस 'अपवारितम्' को भी सामाजिकको सुनाना अवश्य अभिप्रेत होता है । इसी बात को इस कारिकामें लिखते हैं---
प्रब वृत्त [को अभिव्यक्ति के अन्य प्रकारोंको भी दिखलाते हैं
[सूत्र १०] - अन्य सबको जतलाने योग्य [वृत्त या बात को 'प्रकाशम्' और केवल अपने हृदयमें स्थित [गोप्य बात] को 'स्वगतम्' [शैलीसे] कहा जाता है। [बहुतोंसे छिपाकर एक ही व्यक्ति पर प्रकट करनेकेलिए अन्योंकी पोरसे] मुख मोड़कर रहस्यका कथन करना 'अपवारितम्' कहा जाता है ।१२।
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का० १३, सू०११ ] प्रथमो विवेकः
[ ३३ यद् वृत्तमगोप्यतया अन्येषामात्मव्यतिरिक्तानामपि ज्ञाप्यं तत् प्रकाशत इति 'प्रकाशम्' । यत् पुनरन्येषां गोप्यतया स्वहृद्य व स्थितं तत् 'स्वगतम' । परावृत्य अङ्गवलनेनाश्रावयितेभ्यः पराङ्मुखीभूय अन्यस्मै रहस्याख्या या तदपवार्यते बहूनां प्रच्छाद्यत इति 'अपवारितम्।
आख्यायते इति आख्या । कर्मसाधनः । तेन वृत्तमपवारितम् । एवमुत्तर. त्रापि॥१२॥ [सूत्र ११]-त्रिपताकान्तरोऽन्येन जल्पो यस्तज्जनान्तिकम् ।
आकाशोक्तिः स्वयं-प्रश्न-प्रत्युत्तरमात्रकम् ॥१३॥ जो बात गोप्य न होनेसे अपनेसे भिन्न अन्य लोगोंको भी बतलाने योग्य है उसको प्रकाशित किए जाने के कारण 'प्रकाशम्' कहते हैं। और जो [बात] अन्यों से छिपाने योग्य होनेसे अपने मनमें ही रखनी होती है उसको 'स्वगतम्' कहते हैं । शरीर को घुमाकर जिनको सुनाना नहीं है उनकी ओरसे मुख मोड़कर किसी दूसरेसे रहस्यका कथन करना बहुतोसे छिपाए जानेके कारण 'अपवार्यते इति अपवारितम्' इस व्युत्पत्तिके अनुसार 'अपवारितम्' कहलाता है।
जिसको कहा जाय वह 'पाख्या' है। [यह कारिकामें पाए हुए 'साख्या' शब्दको व्युत्पत्ति है। इसके अनुसार प्राख्या शब्द] कर्ममें [प्रत्यय करके] सिख होता है। इसलिए [कर्मभूत अर्थात कहा जाने वाला] वृत्त 'अपवारित' [कहलाता है। इसी प्रकार प्रागे [जल्प पादि शब्दोंकी व्युत्पत्ति] भी समझनी चाहिए ॥१२॥
पिछली कारिका में ग्रन्थ कारोंने 'प्रकाशम्', 'स्वगतम्' और 'अपवारितम्' इन तीन नाटकीय परिभाषाओंकी व्याख्या की थी। उसी प्रसंगमें चौथा 'जनान्तिकम्' शब्द भी नाटकोंमें प्रयुक्त होता है । 'जनान्तिकम्' और 'अपवारितम्' शब्द एक-दूसरेसे सम्बद्ध किन्तु एक-दूसरे से विपरीत स्थितिके बोधक हैं। जब बहुसंख्यक अन्य सब लोगोंसे छिपाकर कोई बात किसी एक ही व्यक्तिपर प्रकट करनी होती है तब उसको 'अपवारितम्' कहते हैं। इस 'भपवारितम्' का लक्षण पिछली कारिकामें किया जा चुका है। 'जनान्तिकम्' शब्दका प्रयोग उससे विपरीत स्थितिमें होता है। जो बात किसी एक ही व्यक्तिसे छिपाकर अन्य बहुसंख्यक व्यक्तियोंपर प्रकट करनी होती है उसके प्रकट करनेकेलिए विशेष शैलीका अवलम्बन किया जाता है और उस विशेष शैलीको 'जनान्तिकम्' कहा जाता है। इस शैलीमें 'त्रिपताक' अथवा 'विपताकाकर' का प्रयोग किया जाता है । 'जनान्तिकम्' के समान 'त्रिपताक' शब्द भी नाश्य शास्त्रका पारिभाषिक शब्द है। कनिष्ठिकाके पास वाली 'अनामिका' उमलीको अंगूठेसे दबाकर शेष तीन उंगलिया उठाकर जो हाथकी स्थिति बनती है उसको 'त्रिपाताकाकर' कहते हैं। इस प्रकार हाथको मुखके पास लगाकर एक विशेय व्यक्तिसे छिपाकर अन्यों को सुनाने के लिए जो बात की जाती है उसको 'जनान्तिकम्' कहते हैं । इसीको आगे लिखते हैं
[सूत्र ११]-त्रिपताक [अर्थात् जिसमें तीन उंगलियां उठी हुई हों इस प्रकारके] हायको बीच में लगाकर [एक व्यक्तिसे छिपाकर बहुसंख्यक मन्योंके साथ जो वार्तालाप है
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३४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १३, सू० ११ जलप्यते इति जल्पो वृत्तमेव । ऊर्ध्वसर्वागुलिर्वक्रानामिकः कररित्रपताकः । सोऽन्तरमश्राव्यं प्रति व्यवधानं यत्र । अन्येन सह जल्पो जनानामेकस्यैव गोप्यत्वात् बहूनामन्तिक, श्राव्यतया निकटं, 'जनान्तिकम्'। इह यद् वृत्तमेकस्यैव गोप्यं बहूनामगोप्यं तज्जनान्तिकम् । तद्विपरीतमपवारितम्। प्रश्नश्च प्रत्युत्तरं चेति समाहारः । अपात्रकम, रङ्गप्रविष्टद्वितीयपात्ररहितम् । रङ्गप्रविष्टपात्रेण स्वयमात्मनैव यः प्रश्नो यच्चोत्तरं तदाकाशे पात्राभावात् शून्ये उक्तिः 'श्राकाशोक्तिः'। उच्यते इति उक्तिः । प्रश्नोत्तरविषयोऽर्थः। क्वचित् स्वोत्तरार्थमनुभाषणच्छायया परकीयः प्रश्नः, क्वचिन् स्वप्रश्नस्यानुभाषणच्छायया परकीयमुत्तरं इत्युभयपि आका शोक्तिरिति ।।१३।। वह 'जनान्तिक' और बिना पात्रके स्वयंही प्रश्न तथा उत्तरका कथन 'आकाशोक्तिः' [कहलाता है ॥१३॥
___ जो कहा जाता है वह जल्प' 'वृत्त' ही होता है । अनामिका उंगलीको झुकाकर और सब अंगुलियाँ उठी हों ऐसा हाथ "त्रिपताक' [कहलाता है। उसको प्रभाव्य [अर्थात् जिस एक व्यक्तिको बात सुनाना अभीष्ट नहीं है उस एक व्यक्ति के प्रति व्यवधान जिसमें बनाया जाय । [वह जल्प "त्रिपताकान्तरः जल्पः' हमा] । अन्योंके साथ [विशेष प्रकारका] वार्तालाप एकहीके प्रति गोप्य होने, और [बहुतोंके प्रति भगोप्य होनेसे] बहुतसे जमोंके लिए श्राव्य होनेसे 'प्रन्तिक' अर्थात् निकट होनेके कारण 'जनान्तिक' [कहलाता है। [मागे 'अपवारित' और 'जनान्तिक' का विशेष भेद दिखलाते है-] इनमेंसे जो बात एकही [व्यक्ति] से छिपाना हो बहुतोंसे गोप्य न हो वह 'जनान्तिक' [कहलाता है। उसके विपरीत [अर्थात् बहुतोंसे गोप्य और एकपर ही प्रकाशनीय अर्थ] 'अपवारितम्' [कहा जाता] है। [ कारिकामें पाए हुए 'प्रश्नप्रत्युत्तरम्' पदमें ] प्रश्न और प्रत्युत्तर इन दोनोंका समाहार है। 'अपात्रकम्' [ पदका ] रङ्गमें प्रविष्ट दूसरे पात्रसे रहित [यह भाव है] । रङ्ग में प्रविष्ट पात्रके द्वारा जब स्वयं अपने-अापही प्रश्न और प्रत्युत्तर किया जाता है वह प्राकाशमें अर्थात् दूसरा पात्र न होनेसे शून्यमें कथन होनेसे 'प्राकाशोक्तिः' [कहलाती है। जो कहा जाय वह [अर्थ] 'उक्ति' है । अर्थात् प्रश्न और उत्तरका विषयभूत अर्थ [उक्ति पदसे अभिप्रेत है। इसके भी दो प्रकार होते हैं] कहीं स्वयं उत्तर देनेके लिए अनुभाषरणके द्वारा दूसरेका प्रश्न, और कहीं अपने प्रश्नके [उत्तर रूप] अनुभाषण द्वारा दूसरेका उत्तर [प्राकाशोक्तिके रूप में कहा जाता है। ये दोनों ही प्राकाशोक्ति [कहलाते हैं। [अनुभाषरणच्छा. याका अभिप्राय यह है कि उस परकीय प्रश्न या उत्तरको स्वयं कहके सुनाता है अर्थात कहीं प्रश्नांश आकाशभाषित रूप होता है, और कहीं उत्तर भाग प्राकाशभाषित रूप होता है। इस 'आकाशभाषित' शब्द का प्रयोग भी नाटकों में पाया जाता है। ] ॥१३॥
बारह तथा तेरह संख्याकी इन दोनों कारिकाओं में नाटकीय भावाभिव्यक्तिकी पांच शैलियां दिखलाई हैं। इनमें से 'प्रकाशम्' तथा 'स्वगतम्' ये दोनों शब्द परस्पर सम्बद्ध शम्द है। जब 'स्वगतम्' रूपसे कहींपर कुछ बात कही जाती है तब उसके बाद फिर जहाँपर गोपनीय बात समाप्त हो जाती है और वक्ता सबको सुनाने योग्य बात कहना प्रारम्भ करता है वहाँपर 'प्रकाशम्' शब्दका प्रयोग किया जाता है। हर जगह 'प्रकाशम्' शब्दका प्रयोग
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का० १३, सू० ११ ]
प्रथमो विवेकः
[ ३५
नहीं होता है। क्योंकि नाटकका सारा भाग तो सर्वश्राव्य अर्थात् 'प्रकाशम्' होता ही है । उसके लिए हर जगह 'प्रकाशम्' लिखने की भावश्यकता नहीं होती है । उस 'प्रकाशम्' के बीच जहाँ कुछ भाग ऐसा श्रा जाता है जिसे वक्ता स्वयं तक ही सीमित रखना चाहता है उसके लिए 'स्वगतम्' शैलीका प्रयोग होता है । यद्यपि 'स्वगत' शब्दसे अपने मनमें कही जाने वाली "स्वगतं स्वहृदि स्थितम्" बातका ही ग्रहण होता है किन्तु वह बोली इतने उच्चस्वरसे जाती है कि नाटक देखने वाले सामाजिक उसको सुन सकें । जहाँ कोई ऐसी बात कहनी होती है जिसको उस समय सामाजिकको भी सुनाना अभीष्ट नहीं होता है वहाँ उस बातको 'स्वगतम् ' पदसे न कहकर 'कर्णे एवमिव' लिख कर कानमें कहलाया जाता है । 'स्वगतम्' के रूप में कही जाने वाली बात केवल अन्य पात्रोंसे गोपनीय होती है । सामाजिकों से नहीं | एक बार जब 'स्वगतम्' लिख दिया गया तब वह 'स्वगतम्' के रूपमें कही जाने वाली बात जहाँपर समाप्त होती है उसके बाद 'प्रकाशम् ' पदका निर्देश करना आवश्यक होता है । इसलिए 'स्वगतम्' के समास होने के बाद 'प्रकाशम्' का उल्लेख नाटकों में सर्वत्र किया
है
गोपनीय बातको कहनेका एक प्रकारका यह 'स्वगतम्' हुआ। इसके अतिरिक्त दो प्रकार और भी हैं। एक 'अपवारितम्' और दूसरा 'जनान्तिकम्' । इनमें से जब एक व्यक्तिसे छिपा कर प्रधिक व्यक्तियोंपर बातको प्रकट करना अभीष्ट होता है तब उस बातको 'जनान्तिकम्' नामसे कहा जाता है। 'जनान्तिकम्' शब्दका अर्थ ही यह बतला रहा है कि बहुत से 'जनों' के 'प्रतिक' अर्थात् समीप जो हो वह 'जनान्तिकम्' कहलाने योग्य है । इसलिए 'जनान्तिकम्' के रूप में कही जाने वाली बात एक ही व्यक्तिसे गोपनीय श्रोर बहुतसे जनोंके लिए श्राव्य होने के कारण उनके 'अन्तिक' अर्थात् 'निकट' होनेसे 'जनान्तिक' नामसे कही जाती है। इसके विपरीत जो बात बहुतों से छिपा कर एक ही व्यक्तिपर प्रकाशित करने योग्य हो उसको प्रगट करने के लिए 'अपवारितम्' शब्दका प्रयोग किया जाता है । यह शब्द भी नाटकों बहुत प्रयुक्त होता है ।
इस प्रकार गोपनीय बातको प्रकट करने के लिए (१) 'स्वगतम् ' ( २ ) ' अपवारितम्' और (३) 'जनान्तिकम्' इन तीन नाटकीय प्रभिव्यक्ति-शैलियोंका निर्देश किया गया है। इन सभी शैलियोंके द्वारा अभिव्यक्त किए जाने वाले भाव सामाजिकोंके लिए श्राव्य ही होते हैं। इसलिए इतने जोरसे अभिव्यक्त किए जाते हैं कि सामाजिक बिना किसी कठिनाईके उनको सुन सकें । केवल अभिनयकी मुद्राओंोंके द्वारा उनकी गोपनीयताका प्रदर्शन किया जाता है। आगे कही जाने वाली श्रथवा पूर्व कही जो बात सामाजिकको भी नहीं सुनानी होती है उसके लिए इनसे भिन्न (४) 'कर्णे एवमेव' कानमें कहलाने की चौथी शैली और भी पाई जाती
।
है उसका निर्देश यहाँ नहीं किया गया है श्रागे १६वीं कारिका में उसका उल्लेख करेंगे यह ' एवमेव' वाली शैली नाटकों में बहुत कम मात्रा में विरल रूपसे ही प्रयुक्त होती है । एक नाटक में एक बारसे अधिक इसका प्रयोग प्रायः नहीं पाया जाता है । ( ५ ) प्रकाशम् वाली पांचवी शैली मुख्य अभिव्यजना-शैली है । जो सारे नाटकों में
प्रद्यत्तं व्यापक रहती
है ।। १३ ।।
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नाट्यदर्पणम
३६ ]
अथ वृत्तस्य कर्तव्यगुणानाह
[ सूत्र ११] - स्वम्पपद्यं लघुगद्यं श्लिष्टावान्तरवस्तुकम् सिन्धु-सूर्येन्दु- कालादिवर्णनाधिक्यवर्जितम् ॥१४॥
सुष्ठु प्रसन्नार्थ प्रसिद्धशब्दं अल्पं परिमितं पद्य यत्र । गद्य ेन ह्यर्थः कथ्यमानः सुखावबोधो भवति । लघु हृद्यं परिमितं च गद्यं यत्र । कर्कशं बहुसमासं च गद्य दुर्बीधत्वात् खेदमुपनयति । श्लिष्टानि पारम्पर्येण प्रधानफलसम्बद्धानि श्रवान्तराणि प्रस्तुतान्तरालवर्तीनि वस्तूनि यत्र । नाट्ये हि तदेवावान्तरं वृत्तमायोज्यं यत् पारम्पर्येण प्रधानफलसाधकम् । यथा रत्नावल्यां प्लवगसम्पातः सागरिकानुरागबीअस्य फलकस्य सम्प्राप्तिहेतुः । यथा वास्मदुपज्ञे नलविलासे कापालिक विदूषक नियुद्ध राज्ञोनुरागमूलस्य दमयन्ती प्रतिकृतिदर्शनस्य हेतुः । सिन्धुर्नदी समुद्रो वा । सूर्येन्दुभ्यां तदुदयस्तौ गृह्यते । कालो वसन्तादिः प्रभावादिश्च । आदिशब्दात् गिरि-मधुपानजलक्रीडादि । सिन्ध्यादिक हि काव्यकण्डूवशान्निष्फलं न वर्णनीयम् । सफल मध्ये केन द्वाभ्यां वा वृत्ताभ्याम् | अधिक्यन्तु रसमन्तरयतीति ||१४||
[ का० १४, सू० ११
नाटक रचनाविषयक विशेष बातें---
अगली दो कारिकानों में ग्रन्थकारोंने नाटककी रचना में ध्यान रखने योग्य कुछ विक्षेष बातोंका उल्लेख निम्न प्रकार किया है
अब वृत्तके [अर्थात् नाटककी रचना के अवश्य ] करने योग्य गुणों को कहते
हैं
[ सूत्र ११ ] - सुन्दर और थोड़े पद्यों तथा सरल गद्यसे एवं परस्पर सम्बद्ध श्रवान्तर [कथा आदि ] वस्तुओं से युक्त, समुद्र, नदी, सूर्य-चन्द्र [के उदयास्त ] श्रौर [ वसन्त या प्रभात श्रादि ] कालके अधिक वर्णनसे रहित [अर्थात् स्वल्प वर्णन युक्त नाटककी रचना करनी चाहिए यह बात नाट्य-रचना में प्रवश्य कर्तव्य अर्थात् विशेष ध्यान देने योग्य है । १४ ।
सुन्दर अर्थात् सरल अर्थ और प्रसिद्ध शब्दों वाला, थोड़ा श्रर्थात् परिमित पद्य जिसमें हो [यह स्वल्पपद्यं का अर्थ हुमा ] | क्योंकि गद्य के द्वारा कहा गया श्रर्थ जल्दी समझमें ला जाता है । 'लघु' अर्थात् मनोहर और परिमित गद्य जिसमें हो [ यह 'लघुगद्यं' का अर्थ है ] । कर्कश और अधिक समासों वाला गद्य कष्टदायक होता है श्लिष्ट अर्थात् परम्परासे प्रधान फल से ही सम्बन्ध रखने वाली अवान्तर अर्थात् प्रस्तुतके बीच में प्रयुक्त वस्तुएँ जिसमें हों [यह 'श्लिष्टावान्तरवस्तुकम् ' का अर्थ है ] । नाटकमें उसी प्रवान्तर कथावस्तु की योजना करनी चाहिए जो परम्परया प्रधान फलकी साधक हो । जैसे रत्नावली श्राना, सागरिका [ उदयनके प्रति] अनुरागके सूचक चित्रपटकी जैसे हमारे बनाए हुए नलविलास में कापालिक और विदूषकका झगड़ा राजा [ नल] के [ दमयन्तीके प्रति] अनुरागके सूचक दमयन्तीके चित्रके दर्शनका हेतु है । सिन्धुका श्रर्थ नदी श्रथवा समुद्र है। सूर्य और इन्दु पसे उनके उदय अस्तका प्रहरण होता है । प्रावि शब्दसे पर्वत, मधुपान, जलक्रीडा प्रादि [ का ग्रहण होता है] । केवल काव्यरचनाकी खुजली मिटाने के लिए समुद्र श्रादिका व्यर्थ वर्णन नहीं करना चाहिए। सार्थक होनेपर भी एक-दो श्लोकों
[नाटिका ] में बन्दरका प्राप्तिका हेतु है । प्रथवा
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का० १५, सू० १२ ]
प्रथमा विवेकः
[१२] – एकाङ्गिरसमन्याङ्गमद्भूतान्तं रसोर्मिभिः । अलङ्घितमलङ्कार-कथाङ्गैर गलद्रसम्
॥१५॥
एको नायकौचित्येनान्यतमो श्रङ्गी प्रधानरसो यत्र । अन्ये अङ्गिरसादपरे रसा श्रङ्ग' गौणा यत्र । नाटकं हि सर्वरसं, केवलमेको अङ्गी, तदपरे गौणाः । अद्भुत एव रसो अन्ते निर्वहणे यत्र । यतः शृङ्गार-वीर - रौद्रैः स्त्रीरत्न- पृथ्वीलाभ-शत्रुक्षयसम्पत्तिः । करुण-भयानक- वीभत्सैः तन्निवृत्तिः । इति इयता क्रमेण लोकोत्तरासम्भाव्यफलप्राप्तौ भवितव्यमन्ते अद्भुतेनैव । अपि च नाटकस्यासाधारणवस्तुलाभः फलत्वेन यदि न कल्प्यते तदानीं क्रियायाः फलमात्रं 'किलिदस्त्येवेति किं तत्रोपायव्युत्पादनक्लेशेन । 'रसोर्मिभी' रसाधिक्येन 'अलङ्घित' अविच्छिन्नम् । न नाम रसपरतया कथा शरीरमन्तर येत् ।
से ही करना चाहिए। क्योंकि लम्बा वर्णन रसको तिरोभूत कर देता है ।
इस कारिका में 'स्वल्पपद्यं' शब्द विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है । वैसे 'स्वल्प' शब्द एक साधारण शब्द है । उसका प्रथं 'थोड़ा' होता है । इसलिए 'स्वल्पपद्य' का अर्थ 'थोड़े पद्यों वाला' यह होना चाहिए। किन्तु ग्रन्थकारने यहाँ उसकी जो ब्याख्या की है उसमें उन्होंने 'स्वरूप' पदको सु + अल्प दो भागों में विभक्त कर 'सु' का अर्थ 'सुष्ठु प्रसन्नार्थ प्रसिद्धशब्द, तथा 'अल्प' का अर्थ परिमित किया है। इसलिए यह शब्द विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है । यहाँ तक चौदहवीं कारिकाको व्याख्या समाप्त हो गई । किन्तु यह विषय प्रभी पूर्ण नहीं हुआ है । मगली कारिकामें भी इसी विषयका वर्णन किया गया है ।
[ सूत्र १२] - जिसमें एक रस प्रधान और अन्य रस श्रप्रधान हों ग्रन्तमें प्रद्भुत रस [ का निवेश ] हो किन्तु रसाधिक्यसे [ कथाभाग ] विच्छिन्न न होने पांवे, साथ ही अलङ्कार या कथा आदि [के प्राधिक्य ] से रसका विच्छेद भी न होने पावे [इस इन सब बातोंका ध्यान रखते हुए ही नाटककी रचना करनी चाहिए] । १५ ।
नायकके प्रौचित्यके अनुसार कोई एक रस जिसमें प्रधान हो [ यह 'एकाङ्गिरस' का अर्थ है ] । 'अन्य' अर्थात् प्रधान रससे भिन्न रस जिसमें प्रङ्ग प्रर्थात् गौरण हो । नाटक में [वैसे तो ] सारे रस होते हैं किन्तु एक रस प्रधान और उससे भिन्न सब गौण होते हैं । अन्तमें अर्थात् निर्वहरण- सन्धिमें प्रद्भुत रस ही होना चाहिए। क्योंकि शृङ्गार, वीर, रौद्र रसोंके द्वारा स्त्रीरत्न प्रथवा राज्यादिका लाभ और शत्रुके विनाश प्रादिको सिद्ध होती है । प्रौर करुण, भयानक तथा वीभत्सके द्वारा [प्रतिनायकको ] उन [स्त्रीरत्न राज्य आदि प्राप्ति ] की निवृत्ति होती है । इस लिए इस प्रकारसे [सभी रसोंका नाटक में उपयोग होता है और ] लोकोतर सम्भाव्य फल प्राप्ति [के दिलाने] में अन्तमें अद्भुत रस होना चाहिए। [ इसकी सिद्धि के लिए दूसरा हेतु यह भी है कि ] यदि श्रसाधाररण वस्तुकी प्राप्तिको नाटकका फल न माना जाय तो प्रत्येक क्रियाका कुछ-न-कुछ फल तो अवश्य होता ही है फिर उसके लिए उपायोंका अवलम्बन करने से क्या लाभ? रसकी लहरोंसे प्रर्थात् रसके प्राधिक्यसे [जिसकी कथावस्तु ] लंघित अर्थात् विच्छिन्न न हो। रस- प्रधान होकर कभी कथाके स्वरूपको विच्छिन न करे ।
१.
न किञ्चित् ।
[ ३७
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नाट्यदर्पणम् [ का० १६,१७, सू० १३,१४ अलङ्काराः श्लेषोपमादयः। कथा वृत्तम् । अङ्गान्युपक्षेपादीनि, अङ्गभूता रसाश्च, तैरगलन अत्रुटन रसो यत्र । त एव श्लेषोपमादयो विधेया ये रसनिष्पत्तिप्रयत्नेनैव निष्पद्यन्ते । वृत्तान्ते अङ्गानि उपक्षेपादीनि च तथा निबन्धनीयानि यथा रसमन्तरयन्ति । अङ्गभूता रसाश्च तथा नियोज्या यथा न नाङ्गिनं रसं तिरोदधत इति ॥१॥ अथ वृत्तबन्धशिक्षामाह[सूत्र १३]- उक्तत्वाद् वक्ष्यमाणत्वाद् भूयः कार्याद् यदुच्यते ।
तत् कर्णे श्रावयेद् येन न याति पुनरुक्तताम् ॥१६॥ उक्त पूर्व, वक्ष्यमाणं पुरः प्रकाश्यमानम् । प्रयोजनवशाद् भूयोऽपि यद् वृत्तमुच्यते तत् पुनरुक्तताभयात पात्रस्य कर्णे कविः श्रावयेत् । तथा च दृश्यते 'कर्णे एवमेव' ॥१६॥ [सूत्र १४]-गोपुच्छकेशकल्पानि नाट्यवस्तूनि कल्पयेत् ।
उदात्ता रञ्जका भावाः स्थापनीयाः पुरः पुरः॥१७॥ गोपुच्छम्य च केशा: केचित् स्तोकमात्रयायिनः, केचिन्मध्यावधयः, केचि. दन्तव्यापिनः । एवं प्रबन्धवस्तून्यपि । यथा रत्नावल्यां प्रमोदोत्सवो मुखसन्धावेव निष्ठितः । मुखोपक्षिप्तो बाभ्रव्यादिवृत्तान्तश्च निर्वहणारम्भे। रत्नावली प्राप्स्या
___ अलङ्कार श्लेष उपमादि है । कथा अर्थात् वृत्तान्त । अङ्गसे उपक्षेप आदि अङ्गों तथा अप्रधान रसोंका प्रहरण होता है। उनसे [अर्थात् श्लेषादि अलङ्कार, अवांतर कथा और उपक्षेपावि अङ्गों अथवा अप्रधान रसों] के द्वारा जिसमें [प्रधान] रसका विच्छेद न हो। उन्हीं श्लेष उपमाविका प्रयोग करना चाहिए जो रस-सिद्धिके लिए किए जानेवाले प्रयत्नसे ही सिद्ध हो सकते हों। और कथाभागमें उपक्षेप प्रादि अङ्गोंकी रचना इस प्रकारसे करनी चाहिए कि जिससे वे रसको तिरोभूत न कर सकें। तथा अङ्गभूत अप्रधान रसोंको इस ढंगसे रखना चाहिए कि वे प्रधान रसको तिरोभूत न कर सकें ॥१५॥
अब कथाभागको रचनाको शिक्षाको कहते हैं--
[सूत्र १३]-पहले कहे हुए या प्रागे कहे जानेवाले [कथाभाग] को यदि कार्यवश फिर दुबारा कहा जाय तो उसको [कवि 'कणे एवमेव' लिखकर] कानमें कहलावे जिससे वह पुनवक्त न हो।१६।
'उक्त' अर्थात् पहिले कहा हुआ और 'वक्ष्यमाण' अर्थात् मागे कहे जाने वाला जो अर्थ प्रयोजनवश दुबारा कहा जाता है उसको पुनरुक्तिसे बचानेकेलिए कवि पात्रके कानमें कहलावे । जैसा कि [नाटकोंमें] 'कर्णे एवमेव' [लिखा] देखा जाता हैं ॥१६॥
[सूत्र १४]-नाटकको 'नुओंको रचना गोपुच्छके केशोंके समान करे। और जो उदात्त तथा मनोरञ्जक भाव हों उनको आगे-आगे [मुख्यरूपसे प्रस्तुत करे ।१७।
गोपुच्छके बालोंमें कुछ थोड़ी दूर तक हो जाते हैं। कुछ बीच तक पहुंचते हैं। और कुछ अन्त तक फैले रहते हैं। इस प्रकार नाटककी वस्तुएँ भी रखनी चाहिए। जैसे रत्नावली [नाटिका में प्रमदोत्सव मुखसन्धिमें ही समाप्त हो गया है। मुखसन्धिमें सूचित
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का०१८, स. १५ ] प्रथमो विवेकः
[ ३६ दयश्च साररूपाः पदार्थाः अन्ते इति । उदात्ता उत्तमप्रकृतियोग्याः। अनुदात्ता अपि ये रखका भावास्ते सकलस्यापि प्रबन्धस्य रसारोहाथै पुरः पुरो निवेशनीया इति॥१७॥
अथानिबन्धनीयमाह[सूत्र १५]-अयुक्तं च विरुद्धं च नायकस्य रसस्य वा।
वृत्तं यत् तत् परित्याज्यं प्रकल्प्यमथवाऽन्यथा ॥१८॥ अयुक्तमनुचित, विरुद्ध विपरीतम् । परित्याज्यमुपेक्षणीयम्। धीरललितस्य धनुचितं परस्त्रीसम्भोगादि, विरुद्धं धीरोद्धतत्वादि । शृङ्गारस्य प्रत्यक्षमालिङ्गनचुम्बनादि अनुचितं, वीभत्सस्तु विरुद्धः । अन्यथेति औचित्येनाविरोधेन वा । यथा नलविलासे धीरललितस्य नायकस्य दोषं विना सधर्मचारिणीपरित्यागोऽनुचित इति कापालिकप्रयोगेण निबद्धः । एवमन्यदप्यूह्यमिति ॥१८॥ बाभ्रव्य प्राविका वृत्तान्त निर्वहण-सन्धिके प्रारम्भमें [समाप्त हो गया है] भोर रस्नावलीकी प्राप्ति मादि सारभूत पदार्थ अंतमें समाप्त हुए हैं। उदात्त [भाव अर्थात् उत्तम प्रकृतिके योग्य [भाव मुख्यरूपसे प्रस्तुत करने चाहिए] और अनुदात्त होनेपर भी जो रजक भाव हैं वे भी सारे नाटकके रसके अधिरोहण [पोषण] केलिए मागे मागे [प्रधान रूपसे] रखने चाहिए ॥१७॥
___ इस कारिकामें ग्रन्थकारने 'कणे एवमेव' को पुनरुक्तिके बचानेकेलिए प्रयुक्त किए जानेवाले भावाभिव्यक्ति के साधनके रूप में प्रस्तुत किया है । किन्तु कहीं-कहीं उस समयकी सामाजिकसे गोप्य बातको अभिव्यक्त करने के लिए भी इस मार्गका अवलम्बन किया जाता है। नाटक में परित्याज्य
___ पिछली कारिकाप्रोंमें नाटककी रचनामें ग्रहण करने योग्य विशेष बातोंकी ओर ध्यान दिलाया गया था। अब इस कारिकामें नाटक में परित्याग करने योग्य बातोंका उल्लेख करते हुए ग्रन्थकार दिखते हैं
प्रब [नाटकमें] न रखने योग्य [बातोंको कहते हैं
[सूत्र १५] जो [बात] नायकके अथवा [प्रकृत] रसके लिए अनुचित या विपरीत हो उसको परित्याग कर देना चाहिए [नाटकमें प्रदर्शित नहीं करना चाहिए] अथवा अन्य प्रकारसे उसकी कल्पना कर लेना चाहिए [अर्थात् उसको बदल देना चाहिए ।१८।।
प्रयुक्त अर्थात् अनुचित और विरुद्ध अर्थात् विपरीत [अर्थको] परित्लाज्य अर्थात उपेक्षा करने योग्य [समझना चाहिए] । जैसे धीरललित [नायक केलिए परस्त्रीके साथ सम्भोग करना अनुचित है [इसलिए परित्याज्य है] । और धीरोदतत्वादि विरुद्ध है। [इसलिए धीरललित नायकके वर्णनमें उसमें धीरोद्धतत्वके गुण-स्वभाव प्रादिका चित्रण नहीं करना चाहिए। प्रागे रसके लिए अनुचित तथा विरुद्धका उदाहरण देते हैं] प्रत्यक्ष दिखलाया हुमा प्रालिङ्गन-चुम्बन आदि शृङ्गारके लिए अनुचित, तथा बीभत्स [रसका प्रदर्शन शृङ्गाररसके] विरुद्ध है। अन्य प्रकार से [कल्पना कर लेना चाहिए इसका अर्थ यह है कि प्रौचित्यके अनुसार अथवा जिससे वह विरोधी न रहे इस प्रकारसे [कल्पना करले] । जैसे नलविलासमें धीरललित नायककेलिए बिना दोषके सहमिरणीका परित्याग अनुचित है इसलिए कापा. लिकके प्रयोगके कारण [नलने दमयन्तीका परित्याग किया है । इस रूपमें [अन्यथा कल्पना करके] परिणत किया गया है। इसी प्रकार प्रग्य [स्थलोंपर भी] समझ लेना चाहिए।
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नाट्यदर्पणम [ का० १६, सू०१६ 'धर्म-कामार्थसत्फलम्' इति सुगमत्वादुपेक्ष्य 'साहोपायदशासन्धि' इत्यस्मादकपदं लज्ञयति[पत्र १६j-अवस्थायाः समाप्तिर्वा छेदो वा कार्ययोगतः ।
अङ्कः सबिन्दु-दृश्यार्थः चतुर्यामो मुहूर्ततः ॥ १६ ॥ अवस्था वक्ष्यमाणाः प्रारम्भादिकाः फच । तत्रान्यतमस्या अवस्थाया उपकम-निष्पत्तिभ्यां या समाप्तिः । असमाप्तायामप्यवस्थायां कार्यवशेन यो वा छेदः खएडन सोऽङ्कः । कार्य दूराध्वगमनादि एकाहाघटमानं भूयस्त्वादेकाहाशक्याभिनयं
शकुन्तला नाटकमें दुष्यन्तके द्वारा शकुन्तलाकी विस्मृति और प्रत्याख्यान भी इसी प्रकारकी घटनाएं हैं जिनकी अन्यथा कल्पना द्वारा कविने अपने नायकके चरितको चमका दिया है । महाभारत में जहाँसे कि शकुन्तलाका पाख्यान लिया गया है- दुष्यन्त एक मत्यन्त लम्पट प्रकृतिका राजा है। जो मधुकरके समान नए-नए पुष्पोंका रसास्वादन करनेका व्यसनी है। इसी प्रसङ्गमें उसने कण्वमुनिके पाश्रममें उनकी अनुपस्थितिमें पहुँचकर शकुन्तलाके साथ सब कुछ किया और उसको अपने महल में बुलानेका वचन देकर भी भूल गया। पर कालिदास ने इसको दुष्यन्तका स्वाभाविक व्यापार न मानकर दुर्वासाके शापको उसका कारण माना है। कालिदासने अपनी इस प्रक्रिया द्वारा इसके कारण रूपमें दुर्वासाके शापकी कल्पना करके दुष्यन्तको न केवल लम्पटताके इस दोषसे ही बचा लिया है बल्कि शकुन्तलाका प्रत्यास्यान करवाकर उसे उच्चकोटिके पादर्शचरित्रके रूपमें चित्रितकर उसको धीरोदात्त नायकका रूप प्रदान कर दिया है ॥१८॥ अङ्कलक्षण
पांचवीं कारिकामें 'ख्याताधराजचरितं' प्रादिसे नाटकका लक्षण किया गया था। उसीकी विशेष व्याख्या मागे चल रही है। इसमेंसे केवल 'ख्याताद्यराजचरितं' इस प्रथम पदकी ही विस्तृत विवेचना १८ वीं कारिका तक की गई है। उस नाटक-लक्षणमें दूसरा पद 'धर्मकामार्थसत्फलम्' यह है । परन्तु यह पद बहुत सरल है इसलिए इसकी अलगसे विशेष भ्याख्या न करके, अगले 'साङ्कोपायदशासन्धि' इत्यादिकी विशेष व्याख्या आगे प्रारम्भ करते हैं । इसमें सबसे पहला 'अङ्क पद है इसलिए इस कारिकामें' 'अङ्क' का लक्षण करते हैं।
'धर्मकामार्थसत्फलम्' यह सरल [पद] है इसलिए उसको छोड़कर अगले साङ्कोपायवंशासन्धि' इस [अगले विशेषण] मेंसे [प्रथम] 'अङ्क' पदका लक्षण करते हैं---
[सूत्र १६]- [कार्यको प्रारम्भ प्रावि रूप] अवस्थाको समाप्ति अथवा कार्यवश [प्रसमाप्त अवस्थाका भी] विच्छेव [जो अगले अङ्कको कथाके बीज अथवा] बिन्दुसे युक्त पौर [दो घड़ी अर्थात् ४८ मिनटके] 'मुहूर्त' से लेकर चार प्रहर [बारह घण्टे] तकके दर्शनीय अर्थसे युक्त हो वह 'अङ्क' कहलाता है [यह अङ्कका लक्षण हुआ] । १६ ।
अवस्था [पदसे] आगे कहे जाने वाली प्रारम्भ [यत्न प्राप्त्याशा प्रादि रूप पाँच हैं। उनमेंसे किसीभी एक अवस्थाका प्रारम्भ और पूर्णता द्वारा समाप्ति [अङ्कको नियामिका होती है । उसको अङ्क में दिखलाना चाहिए] अथवा असमाप्त अवस्थाका भी कार्यवशसे जो बीचमें विच्छेद प्रर्थात् समाप्ति कर दी जाय वह [भो] प्रकका नियामक] है। 'कार्य' पदसे यहाँ
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का० १६, सू० १६ ]
प्रथमो विवेकः
[ ४१
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वा । तद्वशादवस्थाया अन्तराले यश्छेदः क्रियते सोऽप्यङ्क इत्यर्थः । एतावढङ्क-लक्षणम् । बिन्दुरिति सह बिन्दुना वर्तते । विच्छिन्नविस्तृतार्थस्य उत्तराङ्कम्यानुसन्धानात्मा वृत्तसंक्षेप उत्तरत्र विस्तार्यमाणत्वादुदके तेलबिन्दुरिव 'बिन्दु:' । पूर्वोत्तरयोरङ्कयोरसम्बद्धार्थत्वं मा भूदिति पूर्वाङ्कम्यान्ते बिन्दुनिबन्धनीयः ।
एक दिनमें न हो सकने वाले दूर-देशगमन आदि श्रथवा बहुत लम्बा होनेके कारण एक दिन में जिसका श्रभिनय किया जाना सम्भव न हो [ उसका ग्रहरण होता है]। उसके कारण जो अवस्थाका बीच में ही विच्छेद कर दिया जाता है वह भी 'प्रङ्क' [का नियामक ] है यह अभिप्राय है। इतनाही का लक्षण है
[arfour ] 'सबिन्दु:' [श्रर्थात् ] बिन्दुसे युक्त । [ पूर्व में] विच्छिन्न विस्तृत अर्थका गले में सम्बन्ध दिखलानेवाला कथाका सूक्ष्म भाग, आगे विस्तार पानेके काररण तैलबिन्दुके समान 'बिन्दु' [ कहलाता ] है । आगे-पीछे वाले श्रङ्क परस्पर प्रसम्बद्ध न हो जायें इसलिए पूर्व के अन्त में 'बिन्दु' की रचना करनी चाहिए।
अगला श्लोक 'तापसवत्सराजचरित' के तृतीय
के अन्त में दिया गया है । श्लोक में मुख्य रूप से वृक्ष और छायाका वर्णन किया है । परन्तु उसमें नायक-नायिका के व्यवहारका समारोप कर एक प्रकारका विशेष चमत्कार उत्पन्न कर दिया गया है। प्रातःकालके समय सूर्यमण्डल बिल्कुल क्षितिजका स्पशंसा करता हुआ होता है । इसलिए उस समय वृक्षोंकी छायाका परिमारण बहुत लम्बा होता है । अर्थात् छाया बहुत दूर तक फैली होती है । उसके बाद ज्यों-ज्यों सूर्य ऊपर चढ़ता जाता है त्यों-त्यों वृक्षकी छाया छोटी होती जाती हैं । अन्तको दोपहर के समय वह बिल्कुल वृक्षके नीचे इकट्ठी हो जाती है । और वृक्ष उस सारीकी सारी छाया को अपने शरीर के भीतर समाविष्ट कर लेता है ।
वृक्षच्छाया की इन स्थितियोंको कविने मानिनी नायिकाके व्यवहारके सदृश दिखलाया है । मानिनी नायिका जैसे प्रारम्भ में प्रत्यधिक मान करके पति से रूठकर दूर चली जाती है इसी प्रकार वृक्षकी छाया में आरम्भमें अर्थात् प्रातःकाल के समय दीर्घ परिमारणको ग्रहण कर दूर तक फैल जाती है । फिर जैसे मानिनी पश्चात्तापसे पीड़ित होकर लाघवको प्राप्त होती है अर्थात् मानको छोड़कर पतिके पास श्राती है इसी प्रकार ऊपर उठते हुए सूर्यका सन्ताप वृक्षकी छायाको अत्यन्त छोटा बना देता है । और अन्तमें जब नायिका सर्वात्मना नायककी वशवर्तिनी होकर उसकी गोदमें आ जाती है तब नायक उसको जैसे आलिङ्गन पाश में बाँच लेता है इसी प्रकार मध्याह्न में वृक्ष प्रियाके समान अपने ही भीतर सम्पिण्डित छायाको सर्वात्मना अपना लेता है । यह इस श्लोकका भाव है । इस प्रकार इस छाया के व्यवहारपर नायक-नायिका के व्यवहारका श्रारोप कर जिस है उसी प्रकारका व्यवहार नाटकके चतुर्थ अङ्क में नायक-नायिकाका पाया जाता है। इसलिए अगले प्रङ्क विषयका संक्षेप में प्रतिपादक होनेसे इसको 'बिन्दु' के उदाहरण रूपमें यहाँ प्रस्तुत किया गया है। 'बिन्दु' पदका प्रयोग यहाँ 'तेल- बिन्दु' के सादृश्यसे किया जा रहा है । छोटासा बिन्दु जैसे पानी में पड़नेपर बड़े श्राकार में फैलता जाता है इसी प्रकार बिन्द म कथित प्रथं अगले अङ्क में विस्तृत रूपसे फैल जाता है. इसीलिए उसको 'बिन्दु' कहते हैं । इसीका उदाहरण प्रागे देते हैं
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श्लोक में कविने वृक्ष प्रौर व्यवहारको सूचित किया
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नाट्यदर्पणम्
आदौ मानपरिग्रहेण गुरुणा दूरं समारोपितां पश्चात् तापभरेण तानवकृता नीतां परं लाघवम् । उत्सङ्गान्तरवर्तिनीमनुगमात् सम्पिण्डिताङ्गीमिमां सर्वाङ्गप्रयं प्रियामिव तरुश्छायां समालम्बते ॥" इति तृतीयासमाप्तौ उत्तराङ्ककार्यानुसन्धायको बिन्दुः । यथा वा नलविलासे चतुर्थे स्वयम्बराङ्के नेपथ्ये वन्दी -
विन्यस्याभिनवोदये श्रियमयं राशि प्रतापोज्झितो द्यतस्य व्यसनीव धूसर करः सन्त्रुट्यदाशास्थितिः । निद्रायद्दललोचनां कमलिनीं सन्त्यज्य मध्येवनं क्रामत्यम्बरखण्डमात्रविभवो देशान्तरं गोपतिः । इति ।।
४२ ]
यथा तापसवत्सराजे
जैसे तापस वत्सराज चरितमें
प्रारम्भ में [छाया-पक्षमें प्रातःकाल और नायिका-पक्षमें मानके ग्राविमें] प्रबल मान [परिमाण और नवरों] को ग्रहरण करके दूर तक फैली हुई [छाया पक्षमें दूर तक फैली हुई और नायिका पक्षमें नायकसे दूर भागी हुई ], वादको तनुताको प्राप्त कराने वाले सन्ताप [नायिका पक्षमें पश्चात्ताप और छायापक्षमें सूर्यके चढ़ाव] के प्राधिक्यसे प्रत्यन्त लघुताको प्राप्त हुई, इसलिए [धनुगमात् अर्थात् ] लौटकर अङ्गोंको समेटकर गोद में समाई प्रियाके समान eturnt वृक्ष सब भङ्गोंसे प्रेम पूर्वक ग्रहण कर रहा है ।।
यहाँ तृतीय प्रकी समाप्ति में धगले मका सम्बन्ध जोड़ने वाला 'बिन्दु' रखा गया ] है ।
प्रथवा जैसे नलविलासके स्वयम्बराङ्क नामक चतुर्थ प्रङ्क [के अन्त में] में नेपथ्यमें बम्बी [सन्ध्याकालमें सूर्यास्तका वर्णन करता हुआ निम्न श्लोक कह रहा है। इस इलोकमें इसे नलकी प्रवस्थाका भी वर्णन किया गया है] ।
[ यहाँ 'गोपति' शब्द शिष्ट है। उसके वो धर्थ होते हैं एक राजा और दूसरा सूर्य । गो पृथिवीका नाम है। उसका पति अर्थात् राजा नल और 'सूर्य' पक्षमें 'गवां किरणानां पतिः गोपति सूर्यदेव:' इसी प्रकार प्रथम पादमें भाया हुआ 'राशि' ] राजा पद भी शिलष्ट है । उसका एक अर्थ नलका विरोधी राजा, चोर दूसरा अर्थ चन्द्रमा है। प्रभी जिसका उदय हुआ है इस प्रकारके राजा [अर्थात् नल पक्षमें अपने विरोधी राजाको] यह अर्थ होता है । और सूर्य पक्षमें चन्द्रमाको] अपनी लक्ष्मी [नल पक्षमें धन-सम्पत्ति और सूर्य पक्षमें तेज ] बेकर स्वयं प्रतापरहित, हुप्रा खेलनेके व्यसनी [जुझारी] के समान मलिन किरणों [जुझारी पक्षमें करका अर्थ हाथ होगा ] वाला बनकर, और [ सन्त्रट्यदाशास्थिति: सूर्यके पक्षमें उसके प्रस्तोन्मुख हो जानेसे प्राशा अर्थात् ] दिशाओंकी मर्यादाको विलोप करता हुआ [जुधारी पक्षमें जिसकी प्रशाकी स्थिति बिल्कुल समाप्त हो गई है अर्थात् अपनी जीतसे बिल्कुल निराश हो चुका है इस प्रकारका 'गोपतिः' अर्थात् राजा नल और ] सूर्य [दोनों ही 'निद्रायद्दललोचना' सूर्य पक्षमें] जिसकी पंखुड़ी-रूप प्राँखें मिची जा रही हैं इस प्रकार की कमलिनीको [औौर नल पक्षमें सोती हुई दमयन्तीको । सूर्य पक्षमें मध्येवनं] जलके बीचमें [पोर मल पक्षमें जंगलमें ]
[ का० १६, सू० १६
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का० १९, सू० १६ ] प्रथमो विवेकः
[ ४३ इद च पदमुपयोगापेक्षम् । तेन सर्वरूपकपर्यताकघु, एकाङ्कषु च रूपकेषु, समवकाराधषु च उपयोगाभावाद् बिन्दोरनिबन्धः। छोड़कर केवल आकाशका एकदेश [अर्थात् पश्चिम भाग] ही जिसका विभव रह गया है निल पक्षमें 'अम्बर-खण्डमात्रविभवः', जिसके पास केवल एक वस्त्र मात्र ही सम्पत्ति शेष है] इस प्रकारका 'गोपतिः' [अर्थात् सूर्य और दूसरे पक्षमें राजा नल] देशान्तरको [अर्थात सूर्य पक्ष में पाताल लोकको और नल पक्षमें अन्य स्थानको] जा रहा है।
यह श्लोकका साधारण अर्थ है। इसमें वंतालिक सन्ध्याकालीन सूर्यास्तके दृश्यका वर्णन कर रहा है । पर उसमें अगले अङ्कमें दिखलाई जाने वाली सम्पूर्ण घटनाका बीज-रूप से बड़ा सुन्दर चित्रण किया गया है। यह चतुर्थ अङ्क स्वयम्बरा है। इसमें नलका दमयन्तीके साथ विवाहका दृश्य दिखलाया गया है। अगले मङ्कमें नलकी द्यूतक्रीड़ा प्रादिका वर्णन है। नल इतकीड़ामें राज-पाट सब कुछ हारकर बनमें चले जाते हैं। दमयन्ती भी उनके साथ जाती है । राजा नल वहां भूखसे व्याकुल होकर अपनी स्थितिसे बिल्कुल निराश हो जाते हैं पौर मन्तमें बन में जब दमयन्ती सो जाती है तो उसको अकेला छोड़कर कहीं मोर भाग जाते हैं। इस सब घटनाक्रमको अगले अङ्कमें दिखलाया गया है। किन्तु यहाँ कवि ने वैतालिकके द्वारा किए जाने वाले चतुर्थ अङ्कके इस अन्तिम श्लोक में उस सारे घटनाक्रमको श्लेष द्वारा बड़े सुन्दर रूपमें व्यक्त कर दिया है।
नल जुए में हारकर नवीन सम्पत्ति प्राप्त करने वाले विजयी राजाको अपनी सम्पत्ति प्रर्पण कर और स्वयं प्रताप-रहित होकर धूतव्यसनीके समान मलिन हाथ और सम्पूर्ण आशापोंका परित्याग कर अत्यन्त निराश होकर केवल एक कपड़ेका टुकड़ा ही जिनका वैभव शेष रह गया है इस प्रकारके गोपति अर्थात् पृथिवीपाल बनकर 'निद्रायद्दललोचना' कमलिनीके समान दमयन्तीको वनमें अकेला सोता हुआ छोड़कर किसी अन्य देशको चले जाते हैं यह अर्थ भी श्लेष द्वारा इस श्लोकसे सूचित किया गया है। इस प्रकार संक्षेपमें प्रगले अङ्ककी कथाका सूचक होने से यह अङ्कके अन्त में पढ़ा हुआ यह श्लोक 'बिन्दु' का सुन्दर उदाहरण बन पड़ा है।
इस प्रकार 'सबिन्दुः' पदसे, पूर्व प्रकके अन्तर्म अगले अङ्क में आने वाली कथाका सम्बन्ध सूचित करनेकेलिए 'बिन्दु' की रचना प्रावश्यक बतलाई गई है। जिस प्रकार पानी में पड़ा हुप्रा तेलका बिन्दु फैलकर विस्तीर्ण हो जाता है इसी प्रकार प्रशान्तमें 'बिन्दु' पसे जिस कथा-भागका संकेत किया जाता है वह कथा-भाग अगले अङ्कमें विस्तृत होकर फैल जाता है। इसीलिए अङ्कान्तमें किए जाने वाले इस संक्षिप्त संकेत के लिए यहाँ बिन्दु' शब्दफा प्रयोग किया गया है। यह विन्दु प्रत्येक प्रङ्कके अन्तमें अवश्य हो यह प्रावश्यक नहीं है अपितु उपयोगकी अपेक्षासे ही उसकी रचना की जाती है। जहां उसका उपयोग नहीं हो सकता है वहीं उसकी रचना प्रावश्यक नहीं है । जैसे नाटक प्रादिके अन्तिम प्रक्षों में बिन्दुका कोई उपयोग नहीं हो सकता है क्योंकि उसके प्रागे तो फिर कोई नया अंङ्क माना ही नहीं है जिसमें उसका विस्तार हो सके। इसलिए अन्तिम प्रङ्कमें 'बिन्दु' का सन्निवेश नहीं किया जाता है । इसी प्रकार एकाङ्की नाटकोंमें भी दूसरा कोई प्रङ्क न होनेसे 'बिन्दु' का कोई उपयोग नहीं होता है। इस बातको मागे लिखते हैं
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४४ ]
माट्यदर्पणम् [ का० १६, सू०१६ 'दृश्यार्थः' इति दृश्या, रजकत्वाद् दर्शनीया, अर्था नायकपरितोपभोगा यत्र । चरितासाक्षात्कारे हि प्रेक्षकाणामव्युत्पत्तिः । सम्भोगासाक्षात्कारे च किमनेन महाक्लेशेनेति वैरस्य स्यात् । शापावसानविवाहादयोऽपि रजकत्वात् साक्षात्कार्याः । यथा उर्वश्याः शापोद्भवस्य लताभावस्य नाशः। दृश्याविनाभाविनौ सूच्यो-ऊसौ अप्यौँ क्वचिद् भवतः । एतदकस्य स्वरूपम् ।
यह [बिन्दु] पद उपयोगकी दृष्टिसे हो रखा गया है। इसलिए सारे रूपकोंके अन्तिम पडों में, एकाङ्की रूपों में और समवकार प्रादिके पट्टोंमें उपयोग न होनेसे 'बिन्दु' की रचना नहीं की जाती है।
__ अङ्कके लक्षणमें 'सबिन्दुः' के बाद प्रगला 'दृश्यार्थः' पद है। इसलिए अगले अनुच्छेदमें उसकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं
_ 'दृश्यार्थः' इससे [यह अभिप्राय है कि] दृश्य अर्थात् मनोरञ्जक होनेसे देखने योग्य अर्थ अर्थात् नायकके चरित और उपभोग जिसमें हों [वह 'दृश्यार्थः' इमा। इसमें चरित और उपभोग दोनोंका साक्षात्कार प्रावश्यक है। क्योंकि] चरितका साक्षात्कार न होनेपर देखनेवालोंको [रामादिवत् प्रवर्ततिव्यं न रावणादिवत् इस प्रकारको] शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकती है। और सुन्दर भोगका साक्षात्कार न होनेपर [नायकके द्वारा उठाए गए] इस महान् क्लेशसे क्या लाभ हुआ ऐसा अनुभव होनेसे [नाटक] नीरस हो जायगा। शापकी निवृत्ति और विवाह प्रादि भी रञ्जक होनेसे [अंकके भीतर] साक्षात् दिखलाने चाहिए। [अर्थात् उनका दिखलाना निषिद्ध नहीं है] । जैसे [विक्रमोर्वशीमें] उर्वशीके शापवश प्राप्त हुए लताभावको नित्ति [दिखलाई गई] है । दृश्यके प्रविनाभूत होनेसे 'सूच्य' और 'ऊह्य' अर्थ भी कहीं [अङ्कमें हो सकते हैं । यह पङ्कका स्वरूप है ।
___यहाँपर ग्रन्थकारने 'एतदङ्कस्य स्वरूपम्' कहा है। इसके पूर्व ३६ पृष्ठ पर एतावदङ्कलक्षणम्' यह लिख चुके हैं। अर्थात् अङ्कके लक्षणको व्याख्या करते हुए एक जगह 'एतावदङ्कलक्षणम्' और दूसरी जगह 'एतदङ्कस्वरूपम्' यह लिखा है। इस दो प्रकारके लेखका विशेष प्रयोजन है। लक्षण दो प्रकारके माने गए हैं एक तटस्थ लक्षण और दूसरा स्वरूप-लक्षण । जो स्वरूपके अन्तर्गत न होकर भी अन्यसे भेद कराने वाला हो उसको 'तटस्थलक्षण' कहते हैं । और जो स्वरूपके अन्तर्गत होकर प्रन्यसे व्यावृत्ति कराता है वह 'स्वरूपलक्षण' कहलाता है । जैसे 'जन्माद्यस्य यतः' जिससे जगत्का जन्मादि अर्थात् उत्पत्ति, स्थिति पौर प्रलय होता है वह ब्रह्म या ईश्वर है। इसमें जगत्का जन्मादि ईश्वर या ब्रह्मके स्वरूपके अन्तर्गत न होनेपर भी व्यावर्तक होनेसे 'तटस्थ-लक्षण' कहलाता है। मोर 'सच्चिदानन्दं ब्रह्म' प्रादि ब्रह्मके 'स्वरूप लक्षण' होते हैं। इसी प्रकार यहाँ 'प्रवस्थायाः समाप्तिर्वा छेदो वा कार्ययोगतः' यह प्रङ्कका 'लक्षण' अर्थात् 'तटस्थ लक्षण' है और 'सबिन्दुः दृश्यायः' यह महका 'स्वरूप' अर्थात् स्वरूप-लक्षण है । इस अभिप्रायसे ये दोनों पद लिखे गए हैं।
इस प्रकार 'अङ्क' के लक्षण तथा स्वरूपका प्रतिपादन करने के बाद अगले चरण में अन्धकार 'अंक' के काल-परिमाणका निर्देश करते हैं। इसमें एक मुहूर्त अर्थात दो घड़ी [४८ मिनट] से मेकर चार पहर [१२ घण्टा] तक अंकका काल-परिमाण बतलाया है । मर्थात् एक मंकका विस्तार उतना ही होना चाहिए जिसका अभिनय इस समयके भीतर
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[
४५
का० १६, सू०१६ ] प्रथमो विवेकः
'चातुर्यामो मुहर्तता' इति मुहूर्तादारभ्य यामचतुष्टयं यावत् । सर्वापकर्षण घटिकाद्वयाभिने यः। सर्वोत्कर्षेण त्रिंशद्घटिकाभिनेयः । मुहूर्तादप्यपकर्षे प्रयोगापरिपूर्णत्वेन, यामचतुष्टयादप्याधिक्ये आवश्यककर्मविरोधेन च प्रेक्षक-प्रयोवतणा वैरस्यं स्यात् । एतदकस्यापकृष्टमध्यमोत्कृष्टं कालमानमिति ।।
अमुना वृद्धसम्प्रदायायातेनाङ्कलक्षणेन वक्ष्यमाणनीत्या अङ्कसंख्यापरिमाण. मुपपद्यते । ये तु वृद्धसम्प्रदायमवधूय अङ्कमध्येऽप्यवस्था समापयन्ति तन्मतसंग्रहार्थ उत्तरार्धमेव लक्षणम् । अत्र पुनरङ्कसंख्यानियमकारणमपरमन्वेष्यमिति ॥१६॥ समाप्त हो सके । इसी बातको भागे कहते हैं
_ 'चतुर्यामो मुहुर्ततः' अर्थात् 'मुहूर्त' से लेकर चार पहर [जिसका अभिनय हो]। अर्थात कमसे-कम [मुहूर्त भर दो घड़ी [४८ मिनट] में अभिनय करने योग्य । और अधिकसे-अधिक [चार प्रहर] तीस घड़ी [बारह घण्टे में अभिनय करने योग्य । मुहूर्त से भी कम [प्रयोगसमय] होनेपर प्रयोगके अपूर्ण रह जानेसे, और चार पहरसे भी अधिक [अभिनय] होनेपर [सन्ध्याचन्दन प्रवि] प्रावश्यक कार्योमें विघ्न पड़नेसे देखने वालों और अभिनय करने वालों [दोनों] के लिए ही अरुचिकर हो जावेगा। यह [कालको दृष्टिसे] अङ्कका कमसे कम, मध्यम और सबसे अधिक काल-परिमारण कहा है।
यहां सबसे अधिक जो चार प्रहर अर्थात् बारह घण्टेका अभिनयका काल-परिमाण लिखा है वह केवल एकाङ्की रूपकों में ही लागू हो सकता है । अनेक अंकों वाले नाटक मादि में एक-एक अंकका अभिनय चार प्रहर में समात हो यह बात तो बिल्कुल प्रसङ्गत है। प्रतः उसे केवल एकांकी रूपकों तक ही सीमित समझना चाहिए। मध्य काल-परिमारण यद्यपि यहाँ लिखा नहीं गया है किन्तु इनके बीच में कहीं भी स्वयं समझा जा सकता है । इसलिए मध्यमका भी उल्लेख व्याख्याकारने कर दिया है। न्यूनतम परिमाण एक मुहूर्त अर्थात् दो घड़ी या ४८ मिनटका माना गया है।
पूर्वाचार्योंके मतानुसार परम्परासे पाए हुए इस प्र-लक्षणसे प्रागे कही जाने वाली प्रङ्कोंको संख्याका परिमाण भी बन जाता है। जो लोग प्राचीन प्राचार्योके मतको उपेक्षा करके अड्के बीच में भी अवस्थाको समाधि कर देते हैं उनके मतका संग्रह करनेके लिए उत्तराध ही लक्षण है। और इस मतमें अङ्कसंख्याके नियमका कोई और कारण खोजना होगा ॥१॥ नाटकोंकी अङ्क संख्याका विषय
इस कारिकामें अङ्कके लक्षणसे प्रकों की संख्या निश्चयकी बात कही है । उसका यह अभिप्राय है कि अवस्थाको समाप्ति एक अङ्कमें हो करनी चाहिए, अथवा कार्यवश उसका विच्छेद जहाँ होता है वह प्रङ्क कहलाता है। अर्थात् अङ्ककी रचना प्रवस्थानोंके प्राधारपर की जाती है। नाटकमें प्रस्तुत कार्यको १ प्रारम्भ, २ यल, ३ प्राप्त्याशा, ४ नियताप्ति और ५ फलागम ये पांच अवस्थाएं मानी गई हैं। उनका वर्णन प्रागे होगा। इनमें से समान्यतः एक-एक अवस्थाकी एक-एक अंकमें पूर्णता होनेपर माटककी समाप्ति पांच अंकों में हो जानी माहिए। यदि किसी अवस्थाकी पूतिमें दो अंक लग जाय तो नाटकके मंक हो सकते है। हो अबस्थानोंमें दो-दो अंक लग जाने पर सात या पांचों प्रवस्थानों में दो-दो अंक लग जाने
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नाट्यदर्पणम । का० २०, सू०१७ अथास्य लक्षणशेष संख्यापरिमाणमाह-- [चत्र १७]-आवश्यकाविरोध्यर्थः स्वल्पपात्रः सनिर्गमः।
पञ्चसंख्योऽपकर्षेण दशसंख्यः प्रकर्षतः ॥२०॥ एकस्मिन्नङ्क तावदवान्तगणि बहूनि कार्याणि न निबन्धनीयानि । यत्रापि निबध्यन्ते तत्राप्यावश्यकस्य सन्ध्यावन्दन-भोजनादेविरोधेन । सुष्टु कार्योपयोगीनि अल्पानि संख्यया पात्राणि यत्र । तत्रोत्कर्षे दश, मध्यमगत्या अष्टौ, अपकर्षण चत्वारि पन्च वा पात्राणि । आधिक्ये तु पात्रसम्मनैव अभिनयचतुष्टयं प्रेक्षकाणामविभावनीयं स्यात् । प्रभुतपुरुषसाध्य पर्वतोद्धरणादि न रङ्ग दर्शनीयमित्युक्तं भवति । समवकारादौ तु बहुपात्रत्वेऽपि विशेषोपादानान्न दोषः । सनिर्गमः' इति निगमो रङ्गप्रविष्टपात्राणां स्वकार्याणि कृत्वा निष्क्रमो जवनिकया तिरोधानम् । पर अधिकसे-अधिक दस अंक तक रखे जा सकते हैं। इस प्रकार नाटकोंका कमसे-कम पांच भौर अधिकसे-अधिक दस अंकोंके रखनेका विधान किया गया है। वह सब विधान भवस्थामोंको विभाजनका प्राधार मानकर ही किया गया है। इस बात का प्रतिपादन प्रगली कारिकामें करते हैं
अब मडके लक्षणके शेष भाग और संख्या-परिमाणको कहते हैं
[सूत्र १७] -मावश्यक [सन्ध्या-वन्दन-भोजन प्रादि कार्यों में बाधा न डालनेवाला जिसका [अभिनेय] अर्थ है [इस प्रकारका], सुन्दर और परिमिति-संख्या वाले पात्रोंसे युक्त, तथा [अन्तमें सारे पात्रोंके] बाहर चले जाने [को दिखलाने वाला कमसे-कम पांच संख्या और अधिकसे-अधिक वस संख्या युक्त अङ्क होता है । [यह १९-२० दो कारिकानोंको मिला कर प्रडका लक्षण बनता है] । २० ।
एक अङ्कमें बोचके बहुतसे कार्योका समावेश नहीं करना चाहिए। जहाँ कहीं करना ही पड़े वहां भी प्रावश्यक सन्ध्या-वन्दन भोजनादि कार्योमें बाधा न पाने वेना चाहिए। सुष्छु, सुन्दर अर्थात् कार्यमें उपयोगी भोर संख्याको दृष्टिसे 'अल्प'-कम-पात्र, जिसमें हो [बह 'स्वल्पात्र' हा] । इसमें [अर्थात् प्रत्येक प्रमें अधिकसे-अधिक बस, मध्यम रूपमें पाठ पौर और कमसे-कम चार या पांच पात्र होने चाहिए। अधिक [संख्या होनेपर तो पात्रोंकी भीड़-भाड़के कारण ही चारों प्रकारके अभिनय देखनेवालोंको बेक तरहसे नहीं बोल सकेंगे। इसका यह प्राशय भी हुमा कि बहुत अधिक पुरुषोंके द्वारा साध्य पर्वतका उठाना प्रादि कार्य रङ्गभूमिमें नहीं दिखलाने चाहिए। समवकार प्रादिमें तो अधिक पात्र होनेपर भी विशेष [अभिनयों का ग्रहण हो सकने [में बाधा न होने से दोष नहीं होता है। [अर्थात् समवकार माविमें बससे अधिक पात्र भी अङ्क में रखे जा सकते हैं] । 'सनिर्गम', अर्थात् रङ्गमें पाए हए पात्रोंका अपने कार्योको करके बाहर चला जाना अर्थात् जवनिकाके पीछे चला जाना [जिसमें हो वह अङ्क कहलाता है।
समवकारादिमें दशसे अधिक पात्र होनेपर भी 'विशेषोपादान्न दोषः' अभिनयके विशेष रूपोंका ग्रहण करने में कोई दोष नहीं होता है यह बात जो यहाँ कही है उसका कारण यह है कि समवकारमें देवतामों अथवा दैत्यादिका मभिनय दिखलाया जाता है इसलिए उसका
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का० २०, सू० १७ ]
प्रथमो विवेकः
[ ४७
'पश्चसंख्यः' इति अत्यन्तस्तोकतायां पाड्डाः । सर्वोत्कर्षेण दश । मध्यमवृत्या पट, सप्त, अष्टौ, नव 'इत्यङ्कसंख्याया भेदाः । यदा एकैकस्यामवस्थायां एकैकोडस्तदा पचाङ्काः । यदा तु कार्यवशेन काव्यवस्था उपक्रमोपसंहाराभ्यां छिद्यते तदा षटू । एक उपक्रमाङ्कः, एक उपसंहाराङ्कः । अपरावस्थाचतुष्टयस्य तु चत्वारः । एवं कृत्वा अष्टौ नव च । सर्वावस्थाभेदे तु दशेति ।
यदापि कार्यबहुत्वात् काव्यवस्था व्यङ्का तदाप्युत्कर्षतो दशेव । एकस्याः कस्याश्चिदेकाङ्ककरणात् । एकस्यां चावस्थायामङ्कत्रयं दृश्यते । यथा वेणीसंहारे गर्भसन्धौ प्राप्त्याशावस्थालंकृते तृतीय- चतुर्थ पचमा श्रङ्काः । न्यूनत्वे त्वङ्कानामेकाङ्क तापि स्यात् । तथा च पञ्च सन्धयो नोपसंहियेरन् । श्रधिक्ये पुनरनियत संख्यत्वं स्यादिति मध्यमा वृत्तिराश्रीयते । नाटिका-प्रकरयोस्तु चतुरङ्कत्वम । कस्याश्चिदवस्थाया अवस्थान्तरे मिश्रणादिति ॥ २० ॥
मण्डप भी सामान्य नाट्य-मण्डपने बहुत बड़ा बनता है। इसलिए उसमें अभिनय अव्यक्त नहीं होता है । मानव-चरितका अभिनय प्रदर्शित करने के लिए जो मध्यम मण्डप बनता है उसमें अधिक पात्रोंके श्रा जानेपर अभिनय प्रव्यक्त हो जाता है। इसलिए नाटकादिमें दस पात्रोंसे अधिक पात्रोंके एक साथ रङ्गभूमिमें धानेका निषेध है ।
'पञ्जा' 'पाँच प्रङ्क वाला' इससे कमसे कम पाँच अजू हों [ यह अभिप्राय है ] । सबसे अधिक दस [ हो सकते हैं] । मध्यम दशामें छः, सात, म्राठ या नौ तक की संख्याके भेद हो सकते हैं । जब [पूर्वोक पाँच अवस्थाओंमेंसे ] एक-एक अवस्थाके लिए एकएक अङ्क हो तब पाँच ध हुए। जब कार्यवश किसी अवस्थाका उपक्रम और उपसंहार [अलग-अलग दो प्रोंमें] बंट जाता है तब छः म हो जाते हैं। एक उपक्रमाङ्क । दूसरा उपसंहाराङ्क । और शेष चारों अवस्थाओंोंके चार म [मिलकर छः म हो जाते हैं] । viaf [it] प्रवस्थाओंके [उपक्रम उपसंहार रूपमें अलग-अलग मोंमें] बंट जानेपर तो [मिलाकर ] दस ध हो सकते हैं।
और अब कार्यके प्राधिक्यके कारण किसी अवस्थामें तीन प्रकू हो जायें तो भी [सब मिलाकर ] प्रषिक-से-अधिक बस ही प्रङ्क होने चाहिए। [ इसके लिए ] किसी [अन्य] अबस्था मैं एक ही अङ्क करके [कुल संस्था इससे अधिक नहीं होनी चाहिए]। बस ही होने चाहिए। एक अवस्थामें तीन प्र भी पाए जाते हैं। जैसे 'बेरणीसंहार' में प्राप्त्याशा [रूप तीसरी अवस्था] से युक्त 'गर्भसंधि' [नामक तृतीय संधि-भेव] में [नाटकके] तृतीय चतुर्थ और पञ्चम [ तीन ] [ लग गए हैं] कम होनेपर तो एक अजू भी हो सकता है। किन्तु उससे पाँचों संघियों का प्रदर्शन नहीं हो सकेगा । और [इससे भी] अधिक होनेपर संख्याकी कोई प्रबधि - नहीं रहेगी इसलिए मध्यम मार्गका अवलम्बन करना उचित है। नाटिका और प्रकररणीमें तो चार अङ्क होने चाहिए। किसी अवस्थामें दूसरी व्यवस्थाका मिश्रण कर देनेसे [पचिके स्थानपर चार ध हो जायेंगे ॥२०॥
१. इत्यपसंख्या शुभेदाः ।
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४५]
दर्पणम्
अयाङ्कानिबन्धनीयमाह
[ सूत्र १८ ] - श्रभिघातः प्रधानस्य नेतुर्ग्रथ्यो न कुत्रचित् ।
[ का० २१, सू० १८
बन्धः पलायनं सन्धिर्योज्यो वा फललिप्सया ||२१||
अभिघातः शोणितहेतुः प्रहारः । प्रधानस्य मुख्यस्य । तेन पताका प्रकरीनायकादीनां प्रथयत एव । कुत्रचिदिति विष्कम्भकादावपि । सामान्योक्तावप्यभिघातः परपरकृतः । तेन यदस्माभिः सत्यहरिश्चन्द्रे हरिश्चन्द्रेण देवतोपहारार्थ स्वयं स्वमांसोत्कर्तनं निबद्धं न तद् दोषाय ।
अह्नों में प्रदर्शनीय तत्व
पिछली दो कारिकाओं में प्रङ्कका लक्षण करनेके बाद अब अगली कारिका में ग्रन्थकार यह दिखलाना चाहते हैं कि श्रङ्कों में किन-किन बातोंको नहीं दिखलाना चाहिए। जिन बातों कामों में दिखलाने का निषेध है उनमें प्रधान नायकका 'श्रभिघात' सबसे मुख्य है । प्रभिघात शब्दका प्रथं 'रक्त प्रवाहित कर देनेवाला प्रहार' किया गया है। प्रधान नायकका अभिघात तो न केवल प्रङ्कों में अपितु विष्कम्भक आदि में भी कहीं किसी प्रकार नहीं दिखलाना चाहिए । उसका बन्धन पलायान आदि भी सामान्य रूपसे नहीं दिखलाना चाहिए । किन्तु विशेष स्थिति में यदि बन्ध आदिके द्वारा विशेष फलकी सिद्धि हो तब उनको प्रदर्शित किया जा सकता है । इसी बात को इस कारिकामें निम्न प्रकार लिखा है
अब प्रङ्कों में न रखने योग्य [अर्थी] को कहते हैं
[ सूत्र १८] - प्रधान नायकका अभिघात [ शोणित-जनक प्रहार ] कहीं भी [अर्थात् में तो नहीं ही दिखलाना चाहिए किन्तु उसके अतिरिक्त निष्कम्भक श्रादिमें भी ] नहीं दिखलाना चाहिए। [ प्रधान नायकका ] बन्धन पलायन अथवा सन्धि [ भी सामान्य रूप से नहीं दिखलाना चाहिए किन्तु ] विशेष फलकी प्राप्तिकी इच्छा से प्रदर्शित किया जा सकता है । २१ ।
'प्रभिघात' प्रर्थात् रक्तको प्रवाहित करनेवाला प्रहार । प्रधान प्रथवा मुक्य [ नायक ] का [ नहीं दिखलाना चाहिए] इस [ कथन ] से पताका नायक और प्रकरी नायक शादि [ प्रमुख्य नायकों ] का [ श्रभिघात भी ] प्रथित किया ही जाता है [ यह अभिप्राय है ] । 'कुत्रचित्' इससे विकम्भक प्रादिमें भी [ नहीं दिखलाना या वरिंगत करना चाहिए वह अभिप्राय है । प्रभिघात स्वकृत प्रौर परकृत दोनों प्रकारका हो सकता है । विशेष निर्देशके बिना ] सामान्य रूपसे कथित होनेपर भी यहाँ परकृत [ का ही ग्रहरण करना चाहिए]। इसलिए हमने 'सत्यहरिश्चन्द्र' [नाटक] में देवताको उपहार रूपमें चढ़ाने के लिए हरिश्चन्द्र के ही द्वारा स्वयं अपने मांस काटनेका जो वर्णन किया है वह [ परकृत प्रभिधात न होवेके कारण ] दोवाधायक नहीं है।
इसमें प्रधान नायक के श्रभिघातका निषेध करते हुए वृत्तिग्रन्थ में पताका नायक तथा प्रकरी नायकके अभिघातकी अनुमति दे दी गई है। इन पताका और प्रकरी नायकोंके लक्षण आगे किए जायेंगे । किन्तु इस प्रकरण के अर्थको समझने के लिए संक्षेप में उनका ज्ञान प्रावश्यक है । 'व्यापि प्रासङ्गिककं वृत्तं पताकेत्यभिधीयते' यह 'पताका' का लक्षण, और 'प्रासङ्गिक
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का० २१, सू०१८ ] प्रथमो विवेकः
[ ४६ . परेणापि विपक्षण कृतो निबिध्यते । तेन नागानन्दे गरुड़कृताभिघातस्य जीमूतवाहनस्य साक्षात्करणं परोपकाराय सत्त्वाधिक्येन विशेषतो रसपुष्टिमावहति । योऽपि चास्माभी रघुविलासे शक्तिसक्तवक्षसो लक्ष्मणस्य प्रवेशः कृतः, सोऽपि न दोषाय । सीताऽऽनयनलक्षणफलसम्बन्धेन रामस्य मुख्यत्वात् । 'बन्ध' इति परैर्ग्रहणम् । यथा वासवदत्तानृत्तवारे वत्सराजस्य । पलायनमपसरणम् । यदाहुः'अशक्ये सर्वमुत्सृज्यापगच्छेत्' । दृष्टा हि जीवतः पुनरावृत्तिर्यथा सुयात्रोदयनयोः । इति । 'सन्धिः ' सन्धानम् । तदुक्तम्
"प्रवृत्तचक्रेणाक्रान्तो राक्षा बलवताऽबलः।
सन्धिनोपनमेत् तूर्ण कोश-दण्डात्मभूमिभिः।" इति फललिप्सयेति-बन्धनादीनि तावन्न योज्यानि । यदि च योज्यन्ते तदा पर्यन्ते विशिष्ट फलमवेक्ष्य, न पुनरेवमेवेति ॥२॥ प्रदेशस्थं चरितं प्रकरी मता' यह 'प्रकरी'का लक्षण है । अर्थात् प्रासङ्गिक किन्तु व्यापक चरित का नाम 'पताका' है जैसे राम-प्रबन्धों में सुग्रीवका चरित्र रामके बाद व्यापक चरित है । प्रतः उसका नायक सुग्रीव 'पताका-नायक' माना जाता है । इसके विपरीत एकदेशस्थ प्रासङ्गिक वृत्तको 'प्रकरी' कहा जाता है जैसे जटायुका वृत्तान्त रामायणमें 'प्रकरी' चरित है। उसका मायक जटायु 'प्रकरी-नायक' है । उसका अभिघात और बध तक भी दिखलाया जा सकता है पौर दिखलाया भी गया है।
[परकृत अभिघातमें भी] 'पर' शब्दसे शत्रुके द्वारा किया गया [मभिधात] ही निषित है। इस लिए नागानन्दमें गड़के द्वारा अभिघात किए हुए [रक्त प्रवाहित होते हुए] जीमूतबाहनके साक्षात्कारसे परोपकारके प्रबल उत्साहके कारण रसको विशेष रूपसे पुष्टि होती है। [इस लिए वह बोषाधायक नहीं है । और हमने भी रघुविलासमें जो छातीमें शक्ति लगे हुए लक्मणका [रङ्गमापर] प्रवेश कराया है वह बोषाधायक नहीं है। क्योंकि सीताके वापस लाने रूप फल सम्बन्धके कारण राम मुख्य [नायक] है। [लक्ष्मण मुख्य-नायक नहीं है । प्रतः उनका मभिधात प्रदर्शित करना दोषाधायक नहीं है। कारिकामें पाए हए] 'बन्ध' [पदका पर्य] दूसरों के द्वारा पकड़ा जाना है। जैसे वासवदत्ताको नृत्यशालामें वत्सराजका [बन्धन दिखलाया गया है वह विशेष फलको सिद्धिका जनक होनेसे दोषाधायक नहीं है] पलायनका अर्थ [युद्धादिसे] हट जाना है। जैसाकि [उसके प्रौचित्यको दिखलानेकेलिए] कहा गया है 'मसमर्थ हो जानेपर सब कुछ छोड़कर चला जावे'। क्योंकि जीवित रहते फिर वापिस पाना देखा जाता है । जैसे सुयात्र पौर उदयनका । [इस लिए जीवन रक्षाके लिए अनिवार्य होनेपर पलायन भी उचित है] । 'सन्धि' अर्थात् मेल कर लेना । जैसाकि [उसका पौचित्य दिखलाते हुए कहा है
[जिसका चक्र चल रहा है उस] प्रभावशाली बलवान् राजाके साथ दुर्बल राजा कोश बण और अपनी भूमि माविके द्वारा सधि कर ले। ..
'फललिप्सया' इसका यह अभिप्राय है कि [स्वमान्यतः] बन्ध प्रालिको योजना नहीं करनी चाहिए किन्तु यदि योजनाको ही जाय तो अन्तमें किसी विशेष फलको देखकर हो की नाय, ऐसे ही नहीं ॥२१॥
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५० ]
नाट्यदर्पणम् । का० २२, २०१६ अथ विष्कम्भादीनां लक्षणकथनार्थ अङ्कावर्णनीयं विष्कम्भकादिभिर्वर्णनीयमित्याह[त्र १६]-दराध्वयानं पूरोधो राज्य-देशादिविप्लवः ।
रतं मृत्युः समीकादि वण्यं विष्कम्भकादिभिः ॥२२॥ दूरावयानमिति। मुहूर्तत्रिक-चतुष्कसाध्य देशान्तरंगमनं शक्यत्वादऽपि दर्श्यते । यत् पुनरधिककालसाध्यं तदशक्यत्वात् विष्कम्भकादिभिरेव वर्ण्यम् । विश्रान्तिस्थान-शयन-पान-भोजनादीनां बहूनामरञ्जकक्रियाणां प्रसङ्गात् । समवकारादौ तु दूरध्वयानदर्शनेऽपि न दोषः । दिव्यस्य गगनक्रमणसामर्थ्यात् । विष्कम्भकादि-प्रयोग
नाटकादिमें 'दृश्य', 'सूच्य' तथा 'ऊह्य' तीन प्रकारके अर्थ होते हैं इस बासका उल्लेख वृत्तिकार ११ कारिकाके वृत्तिभागमें कर चुके हैं। इनमें से जिन प्रोंको नाटकमें साक्षात् अभिनय द्वारा दिखलाया जाता है वे 'दृश्य' अर्थ कहलाते हैं। नाटकादिका अधिकांश भाग 'दृश्य' ही होता है। उसका नाम ही 'दृश्य काव्य' है। किन्तु कुछ भाग ऐसा भी होता है जिसको अभिनय द्वारा दिखलाना न सम्भव हो सकता है और न कविको प्रभीष्ट हो सकता है। ऐसे अर्थों को कवि अन्य रूपोंमे कहलवाकर सूचितमात्र करता है । उनको 'सूच्य' अर्थ कहते हैं । इन 'सूच्य' अर्थोमे प्रायः दो प्रकारके अर्थ पाते हैं, एक नीरस और दूसरे प्रति विस्तीर्ण एवं अनुपयोगी। रामादिके जीवन के मुख्यभागोंको ही अभिनय द्वारा प्रदर्शित किया जाता है । छोटी-छोटी बातोंको अभिनय द्वारा दिखलानेसे नाटकका बहुत विस्तार हो जायगा इसलिए उन अर्थोको पात्रोंके वार्तालाप द्वारा सूचित कराया जाता है । इसी प्रकार नीरस पर्यकी भी सूचनामात्र दी जाती है । उन अर्थोको 'सूच्य' प्रथं कहते हैं। और उनके लिए नाटकमें पडोंसे भिन्न विशेष भागोंकी रचना की जाती है । उन भागोंका सामान्य नाम 'अर्थोपोपक' है। ये 'अर्थोपक्षेपक' पाँच प्रकारके माने गए हैं । जिनको क्रमशः १. विष्कम्भक, २. प्रवेशक, ३. चूलिका, २. अङ्कास्य, मोर ५. अंकावतार कहते हैं । इन्हींके लक्षण करनेकेलिए प्रन्यकार इन विष्कम्भक मादिके द्वारा सूचनीय अर्थोकी चर्चा इस कारिकामे निम्न प्रकार करते हैं
अब विष्कम्भक प्रादि [पाँच प्रकारके अर्थोपक्षेपकों] के लक्षण करनेकेलिए पड़ों में प्रवर्णनीय [सूच्य-भाग] को विष्कम्भकादिके द्वारा वर्णन [अर्थात् सूचन] करना चाहिए इस बातको कहते हैं
[सूत्र १६]-दूर देशको गमन, नगराबरोष, राज्य तथा देशाविका विप्लव, सम्भोग, मृत्यु, प्रगच्छेद प्रादि [अड़ों में न दिखलाने योग्य प्रों को "विष्कम्भक' प्रादिके द्वारा वर्णन करना चाहिए । २२।
'दूर मार्गका गमन' इसका यह अभिप्राय है कि तीन-चार मुहूर्तमें जिसकी समाप्ति हो सके इस प्रकारका देशान्तर-गमन तो सम्भव होनेसे अमें भी दिखलाया जा सकता है। किन्तु जो अधिक कालमें समाप्त हो वह [अड्डोंमें दिखलानेके] अशक्य होनेसे विष्कम्भक मावि के द्वारा ही परिणत किया जाना चाहिए। क्योंकि उसमें ठहरनेका पड़ाव, शयन, पान, भोजन मावि बहुत-सी परम्मक क्रियामोंका समावेश होगा। समवकार माविमें तो दूर मार्गको यात्राके दिखलानेमें भी दोष नहीं है क्योंकि देवतामोंमें प्राकाम-गमनकी सामर्थ्य होती है।
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का० २२, सू०१६ ] प्रथमो विवेकः
नगररोधोऽप्येवमेव, सेनायाः, पर्णकुटी-यन्त्र-सुरङ्गादिदानव्यापाराणां च बाहुल्यात् । राज्य-देशादिभ्रंशोऽपि पतन-मरणादिसम्भवात् तथैव । रतमिति
आलिङ्गन चुम्बनादि ब्रीडादायित्वादेवमेव । तेन तदनुकूलानि रहःप्रवेश-वक्रोक्त्यादीन्यकेऽपि दर्श्यन्ते । मृत्युः प्राणनिर्गम एव । समीकं हस्त-पादादिच्छेद एव । तेन नागानन्दे जीमूतवाहनस्य क्षणभाविनां इन्द्रियवैकल्यादीनां, रघुविलासे च रावणस्य विभीषणं प्रति साटोपं चन्द्रहासग्रहणस्याङ्कऽप्यविरोधः । आदिशब्दादपरमपि प्रभूतकाल-क्लेशसाध्यं ब्रीडातङ्कदायि च गृह्यते। आदिशब्देन प्रवेशक-श्रङ्कास्यचूलिकाङ्कावताराणां ग्रहणमिति ॥२२॥
नाटक में 'दूरान्वयान' अर्थात अधिक लम्बी यात्राको अङ्कों द्वारा दिखलानेका निषेध किया गया है । इसका कारण यह है कि अधिक लम्बी यात्रा में रास्ते में ठहरने के लिए पड़ावों, उनमें होने वाले भोजन, पान शयन सभी व्यापारोंको दिखलाना आवश्यक होगा। वह सब एक तो अत्यन्त नीरस हो जायगा और दूसरे लम्बा भी अधिक हो जायगा । इसलिए नाटकमें उसको प्रत्यक्ष दिखलानेका निषेध कर अर्थोपक्षपकोंके द्वारा सूचित मात्र करने का विधान किया गया है। किन्तु 'समवकार' प्रादि रूपकभेदोंमें दूराध्वयानका अङ्कोंमें दिखलानेका भी निषेध नहीं किया गया है। इसका कारण यह है कि 'समवकार' में देवादिके चरित्रका प्रदर्शन किया जाता है । उन देवतामोंमें माकाश-गमनकी सामर्थ्य होती है अतः उसमें बीचके पड़ाव, आदि सम्बन्धी व्यापारोंके दिखलानेकी अावश्यकता न रहने से न नीरसता पाती है और न दीर्घता।
__नगरावरोध भी इसी प्रकार [नीरस व्यापारोंसे पूर्ण होनेके कारण दिखलाया नहीं जा सकता है। [क्योंकि उसमें सेनाके [ठहरनेकेलिए] पर्णकुटी [डेरा या झोंपड़ी] यन्त्र सुरंग लगाने प्रादि व्यापारोंको बाहुल्य होता है। राज्य-देशादिका विप्लवभी पतन-मरण मावि [अनेक प्रकारके नीरस और अशोभनीय व्यापारों की सम्भावनासे पूर्ण होनेके कारण उसी प्रकारका [अर्थात् नाटकमें न दिखलाकर केवल सूचित करने योग्य] है। सम्भोग भी मालिङ्गन-चुम्बन प्रादि लज्जाजनक [व्यापारसे परिपूर्ण होनेके कारण उसी प्रकारका [अर्थात् रङ्गमनपर न दिखलाने योग्य] है। इसलिए उस [सुरत-सम्भोग] केलिए अनुकूल एकान्त-स्थानमें प्रवेश और वक्रोक्ति प्रावि तो प्रकोंमें भी दिखलाए जाते हैं [किन्तु उसके मागे जहांसे मालिङ्गन-चुम्बनादि प्रारम्भ होता है उस भागको वीडादायक होनेसे पोंमें रङ्गमञ्चपर दिखलाना निषिद्ध माना गया है] । मृत्युसे प्राण निकल जानेका ही प्रहण होता है। 'समीक' का अर्थ हाथ-पैर प्राविका काटना ही है । इसलिए नागानन्दमें जीमूतवाहनका कुछ समय होने वाला इन्द्रिय-वैकल्य आदि, और रघुविलासमें रावणका विभीषण के प्रति कोष कारके तलवारका प्रहरण मृत्यु अर्थात् प्राविमोचन अथवा समीक अर्थात् हाथ-पैरके छेवन तक न पहुंचनेसे, दिखलाया जानेपर भी दोषाधायक नहीं है । [समीकावि' में प्रयुक्त] 'प्रादि' शब्बसे प्रभूत काल और प्रभूत क्लेशसे साध्य तथा ग्रीडादायक प्रादि अन्य अर्थोंका भी प्रहण होता है। [और विष्कम्भकादिभिः में प्रयुक्त] 'मादि' शब्दसे प्रवेशक, अङ्कास्य, चूलिका और भावतार [रूप शेष चारों अर्थोपक्षेपको] का भी ग्रहण होता है। अर्थात् सूख्य अर्थ को इन पाँच प्रकारके अर्थोपक्षेपकोंके द्वारा ही सूचित करना चाहिए । साक्षात रूपसे नहीं दिखलाना चाहिए] ॥२२॥
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नाट्यदर्पणम् [ का० २३-२४, सू०२० अथ प्रथम विष्कम्भकं शुद्धाशुद्धभेदं लक्षयति[सूत्र २०]-अकानहस्य वृत्तस्य त्रिकालस्यानुरजिना ।
संक्षिप्य संस्कृतेनोक्तिरङ्कादौ मध्यमै जनैः ॥२३॥ शुद्धो विष्कम्भकस्तत्र सङ्कीर्णो नीच-मध्यमैः ।
अङ्कसन्धायकः शक्यसन्धानातीतकालवान् ॥२४॥ विष्कम्भकलक्षण
पिछली कारिकामें ग्रन्थकारने नाटकके प्रकों में जिन बातोंका साक्षात् रूपसे दिखलाना वजित है उनका उल्लेख किया था। इनमें से दूराध्वयान प्रादि कुछ कार्य प्रभूतकाल-साध्य या प्रभूत श्रमसाध्य होनेसे, कुछ कार्य व्रीडादायी होने से, और कुछ कार्य प्रात वृदायी होने के कारण अङ्कानह प्रक्षों में साक्षात् रूपसे दिखलाने के अयोग्य माने गए हैं। परन्तु कथाभागकी सङ्गति बनाए रखने के लिए इन भागोंकी भी सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसलिए प्रेक्षकोंको इन कथाभागोंसे परिचित कराने के लिए 'विष्कम्भक' प्रादि पांच प्रकारके 'मर्थोपक्षेपकों की रचनाकी व्यवस्था नाट्यशास्त्र में की गई है। इन 'अर्थोपक्षेपकों में सबसे मुख्य 'विष्कम्भक' है। इसलिए अगली दो कारिकामोंमें ग्रन्थकारने 'विष्कम्भक' का लक्षण निम्न प्रकार किया है।
__ अब [पांचों 'अर्थोपक्षेपकों' में सबसे पहले शुद्ध और अशुद्ध भेव वाले [दो प्रकारके] 'विष्कम्भक' का लक्षण करते हैं
[सूत्र २०]-[अब उन [पांचों प्रकारके 'अर्थोपक्षेपकों] मेंसे [भूत भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालोंके [अडानह] अडोंमें न दिखलाने योग्य वृत्त [कथाभाग] को अड्के प्रारम्भमें संक्षिप्त करके मध्यम पात्रों के द्वारा संस्कृतमें कहलानेको 'शुद्ध विष्कम्भक' [कहते है] मोर नीच तथा मध्यम पात्रोंके द्वारा संस्कृत तथा प्राकृत भाषामें कहलानेका यत्न] सहोणं [विष्कम्भक कहलाता है। [शुद्ध और सङ्कीर्ण दोनों प्रकारका विष्कम्भक पङ्क कि प्रतिपाद्य विषयको सङ्गति] को जोड़ने वाला [अथवा दो अड्के बीचके कथाभागकी सङ्गतिको जोड़ने वाला 'प्रसन्धायक होता है] और जितने कालकी स्मृति सम्भत्र हो उतने प्रतीतकाल [की स्मृति कराने वाला [शक्यसन्धानातीतकालवान होता है ।२३-२४॥ ___ग्रन्थकारने यह 'विष्कम्भक' का लक्षण किया है । लक्षणकी रचनाशली कुछ अस्पष्टसी प्रतीत होती है । इसलिए उसको ठीक तरहसे समझने के लिए विशेष प्रयत्न करने की प्रावश्यकता है । इस लक्षणमें निम्न बातें समाविष्ट की गई हैं
१. विष्कम्भकमें अङ्कानह पर्थात् जिसका नाटकके प्रकोंमें दिखलाना उचित नहीं है
उन्हीं बातोंका समावेश किया जाता है। २. उस अङ्कानह भागको मध्यमपात्रोंके द्वारा अथवा नीच भोर मध्यम दोनों प्रकार
के पात्रों द्वारा कहलाया जाता है। केवल मध्यम पात्रोंके द्वारा कहालाया जाने पर 'शुद्ध-विष्कम्भक' तथा नीच-मध्यम द्विविध पात्रों द्वारा कहलाए जाने पर
'संकीर्ण विष्कम्भक' होता है। ३. विष्कम्भकमें प्रर्थकी सूचना देने वाले पात्राकी भाषाका भी उल्लेख किया है
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का० २३-२४, सू० २० ]
प्रथमो विवेकः
[ ५३
अरञ्जकं च रञ्जकमपि एकदिनाशक्याभिनयं च प्रेक्षकैः साक्षादनुपलभ्यमानं 'श्रङ्कानर्हम्' | 'त्रिकालस्य' वृत्त-वर्त्स्यद् - वर्तमानकालस्य | अनुरञ्जिनेति समस्तेन श्रदीर्घसमासेन च प्रसन्नेन । 'संक्षिप्य' विततमपि उत्तराङ्कसन्धानोपयोग्येव कृत्वा ।' संस्कृतेनेति शुद्धविष्कम्भकापेक्षम् । सङ्कीर्णे तु संस्कृतेनासंस्कृतेनापि च, नीचपात्रस्यापि तत्र भावात् ।
अङ्कादाविति प्रथमेऽङ्के श्रमुखादूर्ध्वम्, अन्येषु पुनरारम्भे इति तावत् सर्वे समामनन्ति । कोहलः पुनरेतं प्रथमाङ्कादावेवेच्छति ।
किन्तु उसमें केवल शुद्धविष्कम्भूक के पात्रोंकी भाषा संस्कृत होती है । सङ्कीर्ण विष्कम्भक में जो मध्यम पात्र हों वे ही संस्कृत बोलते हैं भोर नीच पात्र प्राकृत भाषाका ही अवलम्बन करते हैं । टीका में तो इस भेदका उल्लेख किया गया है किन्तु मूल में उसको उल्लेख न होनेसे अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता है ।
४. 'अङ्कसन्धायकः' तथा 'शक्यसन्धानातीतकालवान्' ये दो पद जो लक्षण में रखे गए हैं वे अधिक स्पष्ट हैं । 'मङ्कसन्धायकः' का अभिप्राय यह है कि विष्कम्भक दो अङ्कोंके बीच कथा भागको जोड़कर कथासूत्रको प्रविच्छिन्न बनाता है। मोर 'शक्या सन्धानातीतकालवान्' का अभिप्राय यह है कि अतीतकालकी जिन घटनाओं का उल्लेख उसमें किया जाता है वे घटनाएँ बहुत अधिक पुरानी नहीं होनी चाहिए। केवल उतनी पुरानी हों जिनका स्मरण सामान्य रूपसे मनुष्यको रह सकता है ।
५. पांचवीं बात यह है कि विष्कम्भककी रचना अङ्कके प्रारम्भ में ही की जाती है । अन्त में या बीचमें नहीं । 'अङ्कादी' का यह भी अभिप्राय है कि यह विष्कम्भक प्रथम प्रमें. भी रखा जा सकता है । किन्तु वहाँ यह प्रामुखके बाद हो मा सकता है उसके पहले नहीं । अन्य मोंमें अंक प्रारम्भमें होता ही है ।
इन्हीं सब बातों को लेकर व्याख्याकार इन श्लोकोंकी व्याख्या निम्न प्रकार करते हैं
[रक अर्थात् ] नीरस, अथवा सरस होनेपर भी [प्रत्यन्त विस्तीर्ण होनेके कारण ] जिसका अभिनय एक दिनमें करना सम्भव न हो [ इसीलिए ] प्रेक्षकोंको साक्षात् [ प्रभिनय द्वारा ] न दिखलाया जाने वाला [कथाभाग ] श्रङ्कनाई [ श्रंक में न दिखलाने योग्य ] है । तीनों कालका प्रर्थात् भूत, भविष्यत् तथा वर्तमानकालका । 'अनुरंजिना' [संस्कृतेन] इससे सर्वथा समास-रहित अथवा छोटे-छोटे समासों वाले सरल [प्रसन्न ] संस्कृतके द्वारा। 'संक्षिप्य' प्रर्थात् fatati [कथाभाग ] को भी अगले अंकका सम्बन्ध जोड़ने मात्र [संक्षिप्त ] बना कर [कहलाना ] । 'संस्कृतेन' [ संस्कृत भाषाके द्वारा कहलाना ] । यह केवल शुद्ध-विष्कम्भकको दृष्टिसे कहा गया है । सङ्कीर्ण [ विष्कम्भक ] में तो संस्कृत और [प्रसंस्कृत अर्थात् ] प्राकृत से भी [अर्थात् दोनों भाषाओं के द्वारा वृत्त कहलाया जाता है] क्योंकि उसमें नीच पात्र भी होते हैं [वे संस्कृत नहीं बोल सकते हैं । अतः वे प्राकृत भाषामें भावरण करते हैं और जो मध्यम पात्र होते हैं वे संस्कृतभाषामें । इस प्रकार सङ्कीर्ण विष्कम्भक में संस्कृत तथा प्राकृत दोनों भाषाओंका उपयोग होता है ] ।
'प्रावो' प्रङ्कके प्रारम्भमें इससे [यह अभिप्राय है कि ] प्रथम प्रङ्क में [प्रमुख प्रर्थात् प्रस्तावनाके बाद, और शेष प्रङ्कोंमें प्रङ्कके प्रारम्भमें ही [ विष्कम्भककी रचना होना चाहिए
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५४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० २३-२४, स० २०
मध्य मैरिति श्रमात्य सेनापति वणिग् विप्रादिभिः । न पुनर्देवी कुमारनायक प्रतिनायकादिभिः । मध्यमत्वं चैषा राजापेक्षया । राजपरिजनापेक्षया तु तेऽपि प्रधानम् । जनैरिति पुम्भिः, स्त्रीभिः, स्त्री- पुसैश्च सामान्यवाधित्वात् । बहुवचनमतन्त्रम् । तेनैकेनापि स्वगतेनाकाशोक्त्या च निबध्यते । जनैरिति सामान्यनिर्देशादेव च शुद्धविष्कम्भे स्त्रिया अपि संस्कृतेनैव पाठः । शुद्धो नीचाप्रवेशात् । विष्कस्नाति अनुसन्धानेन वृत्तमुपष्टम्भयति इति विष्कम्भकः ।
1
तत्रेति विष्कम्भादिषु पञ्चसु मध्यात् द्विभेदत्वेन विष्कम्भको निर्धार्यते । अथ सङ्कीर्णो नीचस्यापि प्रवेशात् । नीचा दास चेट्यादयः । 'अङ्कसन्धायक' इति अङ्कस्य यह बात [ नाट्यशास्त्र] सब [ श्राचार्य ] मानते हैं । किन्तु कोहल [नामक नाट्याचार्य ] इसको केवल प्रथम प्रङ्कके प्रारम्भमें ही मानते हैं ।
इसका अभिप्राय यह हुआ कि भरत ग्रादि अन्य सब नाट्याचार्योंके मत में नाटकके किसी भी प्रङ्क में प्रावश्यकतानुसार विष्कम्भकका प्रयोग किया जा सकता । किन्तु केवल इतना ध्यान रखना है कि जब कभी भी विष्कम्भकका प्रयोग किया जाय वह सदा अके प्रारम्भ में ही होना चाहिए। बीचमें या अन्त में नहीं । किन्तु कोहलाचार्यका मत इससे भिन्न है । उनका यह कहना है कि विष्कम्भकका प्रयोग केवल प्रथम प्रङ्कके प्रारम्भ में ही किया जा सकता है । अन्य अङ्कोंमें उसका प्रयोग नहीं हो सकता है । या फिर प्रके मध्य अथवा अन्त में कहीं भी किया जा सकता है ।
'मध्यम:' इस पदसे श्रमात्य सेनापति वणिक् विप्र श्रादिके द्वारा [ यह अर्थ करना चाहिए ] । महारानी, राजकुमार, नायक, 'प्रतिनायक' श्रादिके द्वारा [ यह श्रर्थ] नहीं [ लेना चाहिए ] । इन [ श्रमात्य सेनापति श्रादि ] का [भी] मध्यमत्व राजाकी दृष्टिसे है । राजाके श्रन्य सेवकों st अपेक्षासे तो वे भी प्रधान हैं । 'जनै:" इस पदसे [पदके ] सामान्य वाचक होनेसे पुरुषोंके द्वारा, अथवा स्त्रियोंके द्वारा, अथवा स्त्री और पुरुष दोनोंके द्वारा यह अर्थ ग्रहण [करना चाहिए। इसमें ] बहुवचन श्रविवक्षित है। [प्रर्थात् बहुतसे पात्र ही प्रयुक्त किए जायें यह इस बहुवचनान्त 'जनै:' पदका अभिप्राय नहीं है ] । इसलिए 'स्वगत' अथवा 'श्राकाशभाषितके रूपमें एक पात्रके द्वारा भी [अपेक्षित अर्थको कहला कर विष्कम्भकका] प्रयोग किया जाता है । 'जन' इस सामान्य निर्देशके कारण ही शुद्ध विष्कम्भकमें स्त्रियोंके द्वारा भी संस्कृतमें ही पाठ किया जाता है। [इसका अभिप्राय यह है कि सामान्य रूपसे स्त्रियोंके मुखसे प्राकृत भाषाका ही प्रयोग नाटकोंमें कराया जाता है किन्तु शुद्ध विष्कम्भकमें यदि कोई मध्यम स्त्रीपात्र हो तो उसको संस्कृतमें भाषरण कराया जा सकता है] । शुद्ध [ विष्कम्भक ] नीच [पात्रों] का प्रवेश न होनेसे [ही शुद्ध कहलाता ] है । [आागे विष्कम्भक शब्दका निर्वचन दिखलाते हैं ] 'विष्कम्नाति' अर्थात् स्मृतिके द्वारा कथाभागको [ जोड़कर ] पुष्ट बनाता है इसलिए [ उसको ] 'विष्कम्भक' कहा जाता है [ यह विष्कम्भक शब्दका प्रवयवार्थ है ] ।
'तत्र' इससे 'विष्कम्भक आदि पांच [अर्थोपक्षेपकों] के मध्यमेंसे [शुद्ध तथा संकीर्ण रूप] दो भेद वाला 'विष्कम्भक' अलग निर्धारण किया गया है [ यह बात 'तत्र' पदसे सूचित की है । 'सप्तम्यास्त्रल्' सूत्रसे सप्तमीके अर्थ में त्रल् प्रत्यय करके 'तत्र' शब्द बना है । शौर 'यतश्च निर्धारणम्' [जिससे किसी वस्तुको चुन कर अलग किया जाय उस निर्धारणमें सप्तमी
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प्रथमो विवेकः
का० २३-२४, सू० २० ] [ ५५ अङ्कार्थस्य सन्धायकः संसूचकः प्रथमाङ्कभावी । श्रङ्कयोरङ्कार्थयोः सन्धायकः पुन: रङ्कद्वयान्तरालभावी । शक्यं सन्धानमनुस्मरणं यस्यासौ शक्यसन्धानः । स चासावतीतकालो वृत्तोऽर्थस्तद्वान विष्कम्भको भवति । इह तावत् पुरुषप्रज्ञापेक्षया विष्कम्भ कार्य कालो निबध्यते । रामयुधिष्ठिरादयो हि चिरातीतमध्यर्थमनुसन्दधतीति स तथैव निवध्यते । ये तु प्राकृताः स्तोककालमेवार्थमनुसन्दधते तदर्थस्तथैव निषन्धनीयः । कामफले तु नाटके वर्षैकवृत्तमेव निबध्यते । परतः संस्कार विच्छेदात् । वयोऽतिवृत्तेश्चेति ।।२३-२४||
विभक्ति होती है । अतः यहाँ सप्तमी विभक्तिके द्वारा बने 'तत्र' पवसे निर्धारण - छांटना
लग करना सूचित होता है यह अभिप्राय है ] । श्रागे सङ्कीर्ण [ विष्कम्भकको] नीच [पात्र] का भी प्रवेश होनेसे [सङ्कीर्ण विष्कम्भक ] कहते हैं । नीच अर्थात् वास वासी प्रावि । 'अङ्कसन्धायक:' इससे [ दो अर्थ निकलते हैं। एक तो यह है कि] का अर्थात् एक अके अर्थका सन्धायक अर्थात् संसूचक । इस प्रकारका [ एक प्रङ्कका प्रर्थात् एक प्रजुसे सम्बद्ध saint सूचक जो faoकम्भक होता है वह ] प्रथम प्रङ्कके आरम्भमें ही होता है। ['असन्धायकः' का दूसरा अर्थ यह भी है कि] दो श्रङ्कोंका अर्थात् दो प्रङ्कोंके प्रथों का सन्धायक अर्थात् सम्बन्ध कराने वाला [जोड़ने वाला ] वह दो अङ्कोंके बीच में [अर्थात् उत्तरवर्ती प्रजूके प्रारम्भमें ] होता है । [श्रागे 'शक्यसन्धानातीतकालवान्' पदका अर्थ उसको दो भागों में विभक्त करते हैं । पहले 'शक्यसन्धान' इस भागका अर्थ करते हैं] जिसका सन्धान प्रर्थात् मनुस्मरण हो सकता है [ उतना प्रतीतकाल शक्यसन्धान हुआ ] । इस प्रकारका [ शक्यसन्धान] जो श्रतीतकाल अर्थात् श्रतीत कालमें हुम्रा कथाभाग उससे युक्त [अर्थात् उसको सूचित करने वाला ] विष्कम्भक [ 'शक्यसन्धानातीतकालधान्' विष्कम्भक हुआ ] । [ इसमें पुरुषोंकी स्मरणशक्ति [ प्रज्ञा ] की अपेक्षासे विष्कम्भकके [अर्थात् कथाभाग] के कालको [ शक्यसन्धान : जिसका स्मरण सम्भव हो सके इसके अनुसार ] निबद्ध किया गया है। राम युधिष्ठिर आदि [ प्रबल स्मरणशक्ति वाले उत्तम पात्र) बहुत पुराने प्रतीत अर्थको भी स्मरण कर सकते हैं इसलिए [विष्कम्भक में उनके स्मरणसे सम्बन्ध रखनेवाली दीर्घकालीन बात भी कही जाती है वहाँ ] उसको उसी प्रकारसे दिखलाया जाता है । और जो साधारण पुरुष थोड़ी देरकी ही बात स्मररण कर सकते हैं उनके लिए उसी प्रकारको रचना करनी चाहिए । कामप्रधान फलवाले नाटक में तो [ विष्कम्भकके रूपमें] एक ही वर्षके वृत्तको रचना की जाती है। उसके बाद [अर्थात् एक वर्षसे अधिककालके प्रेमके] संस्कारोंका विच्छेद हो जाता है औौर अवस्था बीत जानेसे भी । [शृङ्गार रसमें अधिक पुरानी बातोंका स्मरण व्यर्थ हो जाता है] 1
॥२३-२४॥
'fassम्भक' के इस लक्षणमें ग्रन्थकारने 'शक्यसन्धानातीतकालवान्' 'इस विशेषरण की व्याख्यापर विशेष बल दिया है। उतने दूरके प्रतीत कालके अर्थकाही वर्णन 'विष्कम्भक' द्वारा करना चाहिए, जिसका अनुसंधान अर्थात् स्मरण सम्भव हो । राम युधिष्ठिर मादि दीर्घकालीन को भी स्मरण कर सकते हैं, प्रतः उनके वृत्त में दीर्घकालीन घटना का भी वन किया जा सकता है । सामान्य पुरुष स्वरूप कालके अर्थको स्मरण कर सकते हैं, उनके प्रसङ्ग में उसीके अनुसार विष्कम्भक में वर्णन करना चाहिए। यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है ।
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नाट्यदर्पणम् [ का० २५, सू० २१ अथ विष्कम्भकलक्षणानुवादेन प्रवेशक लक्षयति-- [सूत्र २२/--एवं प्रवेशको नीचैः परार्थैः प्राकृतादिना ।
एतौ प्रभूतकार्यत्वान्नाटकादिचतुष्टये ॥२५॥ एवमिति 'अङ्कानहस्य' इत्यादि सर्व विष्कम्भकलक्षणमत्रातिदिश्यते । केवलमसौ नीचैरेव पात्रैः परार्थं मुख्यनायकादिकार्यनिष्ठेनं पुनः स्वकृत्यैकतत्परैः । यथा
"आणत्त म्हि भट्टदारियाए इत्यादि।
[श्राज्ञप्तास्मि भर्तृ दारिकया इत्यादि । इति संस्कृतम्]" प्रवेशकका लक्षण
अर्थोपक्षेपकोंमें विष्कम्भकके बाद दूसरा स्थान 'प्रवेशक' का प्राता है । विष्कम्भकके जो कार्य बतलाए गए हैं प्रायः वे ही सब कार्य 'प्रवेशक' के द्वारा भी सम्पन्न किए जाते हैं । फिर भी उन दोनोंको अलग-अलग माना गया है इसका कारण उनके स्वरूप में कुछ भेदका होना है। इनका पुख्य भेद यह है कि प्रवेशकमें केवल नीच पात्रोंका प्रयोग होता है। और विष्कम्भक में केवल मध्यम, या नीच मोर मध्यम दोनों प्रकारके पात्रोंका प्रयोग होता है । विष्कम्भक में केवल नीच पात्रों का प्रयोग नहीं होता है। इन भेदोंका परिचय आगे दिए जाने वाले लक्षण से ही मिलेगा। अतः ग्रन्थकार आगे प्रवेशकका लक्षण निम्न प्रकार करते हैं
अब विष्कम्भकके लक्षणका अनुवाद करते हुए प्रवेशकका लक्षण दिखलाते हैं
[सूत्र २१]--इस प्रकार [अर्थात् अङ्कानह प्रकोंमें न दिखलाने योग्य त्रिकालवर्ती प्रर्थको सूचित करने वाला] दूसरोंके लिए कार्य करने वाले [अर्थात् स्वामी आदिको प्राज्ञाके मनुसार कार्यमें नियुक्त] नीच पात्रों [दास-दासी प्रादि] के द्वारा संस्कृतसे भिन्न प्राकृत प्रावि [भाषामोंके प्रयोग से [शक्यसन्धानातीतकालके अर्थको सूचित करने वाला] 'प्रवेशक' होता है। [इतना प्रवेशकका लक्षण हुआ] अधिक कार्य के साधक] होनेके कारण नाटकादि चारमें अर्थात् नाटक, नाटिका, प्रकरण और प्रकरणी इन चारमें], अनावश्यक या अङ्कानह भागको संक्षिप्त करके सूचन करनेके लिए विष्कम्भक और प्रवेशक इन दोनों अर्थोपक्षेपकों का अवलम्बन किया जाता है ।२५॥
इस प्रकार 'एवं' इस पहसे 'अङ्कानहस्य' इत्यादि विष्कम्भकका सारा लक्षण यहाँ [प्रवेशकमें] सम्बद्ध होता है [अन्यधर्मस्यान्यत्राभिसम्बद्धो प्रतिवेशः। अन्यके धर्मका अन्यत्र सम्बन्ध दिखलाना 'प्रतिदेश' कहलाता है। विष्कम्भकके सारे धर्मोंका प्रवेशकके साथ सम्बन्ध प्रदर्शन रूप 'प्रतिवेश किगा गया है। उन दोनोंमें अन्तर केवल इतना है कि यह प्रवेशक] केवल नीच और दूसरोंके कार्यमें लगे हुए अर्थात मुख्य नायक प्रादिके कार्य में संलग्न, न कि स्वयं अपने कार्यमें लगे हुए पात्रोंके द्वारा [प्रयुक्त होता है] जैसे
बंसी कि स्वामिपुत्रीने प्राज्ञा दी है [तदनुसार मैं अमुक कार्य कर रही हूं] इत्यादि [पीच पात्र बेटी मावि द्वारा प्रयुक्त प्रवेशकका उदाहरण है।
इस प्रकार विष्कम्भकसे प्रवेशकका एक भेद तो यह हुमा कि विष्कम्भकमें मध्यम पात्रोंका उपयोग भी होता है और नीच पात्रों का भी प्रयोग हो सकता है। किन्तु प्रवेशक
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का० २५, सू० २१ ] प्रथमो विवेकः
[ ५७ नीचप्रयुक्तत्वादेव च ग्राम्यार्थप्रायेण प्राकृतेन, प्रादिशब्दात् शौरसेन्यादिना प्रवेशको भवति । अप्रत्यक्षानर्थान् सामाजिकहृदये प्रवेशयतीति प्रवेशकः । केचित् प्रवेशकं प्रथमांकस्यादौ नेच्छन्ति । एताविति विष्कम्भक-प्रवेशको । नाटकादिचतुष्टयं नाटक-प्रकरण-नाटिका-प्रकरण्यः । नाटकादौ हि परिमितोपायेन बहुषु मुख्यावान्तरकार्येषु नृपादीनां तत्सहायानां चामात्यादीनां व्युत्पत्तिः क्रियते इति अत्रैव प्रभूतकार्यव्युत्पादको विष्कम्भक-प्रवेशको। न व्यायोगादिषु एकांकेषु तावदल्पवृत्तत्वेनाल्पकार्यत्वात् । बहक्केष्वपि समवकारस्य परम्परासम्बद्धाङ्कत्वात् , अपरेषान्तु कतिपय. दिनवृत्तत्वादिति । अङ्कास्यादीनि तु स्वल्पसूच्यत्वेन यथासम्भव रूपकान्तरेष्वपि भवन्ति ॥२शा में निश्चित रूपसे नीच पात्रोंका ही प्रयोग होता है । इसीसे दूसरा भाषाविषयक भेद भी पा जाता है। विष्कम्भकमें संस्कृत भाषा मुख्य रहती है किन्तु प्रवेशकमें प्राकृतभाषाका ही प्रयोग होता है। इसी बातको आगे लिखते हैं
___ नीच [पात्रों के द्वारा प्रयुक्त होनेके कारण ही प्राम्य [अशिष्ट अर्थसे युक्त प्राकृतके द्वारा, प्रादि शब्दसे [उनमें भी] शौरसेनी प्रादिके द्वारा प्रवेशक [का प्रयोग होता है । [आगे प्रवेशक शब्दको व्युत्पसि दिखलाते हैं। अप्रत्यक्ष प्रोंको सामाजिकोंके हृदयमें प्रविष्ट कराता है इसलिए 'प्रवेशक' [कहलाता है। कुछ [नाट्याचार्य] लोग प्रथम ग्रंक प्रादिमें इस [प्रवेशक] का प्रयोग नहीं मानते हैं। [यह विष्कम्भकसे इसका तीसरा भेद हुआ। 'एतौ' अर्थात् विष्कम्भक और प्रवेशक । नाटकादि चारमें [रहते हैं । इसमें नाटकावि चार से] १ नाटक, २ प्रकरण, ३ नाटिका और ४ प्रकरणी [इन चारका ग्रहण करना चाहिए। नाटकादिमें [अंक रूप] परिमित साधनोंके द्वारा मुख्य तथा अवान्तर [गौण] बहुत-से कार्योका परिज्ञान राजा और उसके सहायक मन्त्री प्राविको कराना होता है इसलिए इनमें ही विस्तृत अवान्तर कार्योका परिचय करानेके लिए ये विष्कम्भ और प्रवेशक [प्रयुक्त होते हैं । 'व्यायोग' प्रादि एकांकी [रूपक] में थोड़ा-सा ही कथाभाग होनेसे कम कार्य होनेके कारण [इन विष्कम्भक और प्रवेशकोंका प्रयोग] नहीं होता है। और अनेक अंकों वालोंमें भी 'समवकार' के अंकोंके परस्पर सम्बद्ध न होनेसे, तथा अन्योंमें कुछ दिनका ही वृत्तान्त होने से [प्रवेशक तथा विष्कम्भककी अावश्यकता नहीं होती है] यह अभिप्राय है। अंकारयादि [शेष तीन अर्थोपक्षेपक] तो अल्प वृतके सूचन करने योग्य होनेके कारण यथासम्भव [श्रावश्यकतानुसार अन्य रूपकोंमें भी प्रयुक्त होते हैं ।
इस प्रकार इस लक्षण में प्रवेशकके विष्कम्भक तथा अन्य अर्थोपक्षेपकोंसे जो भेद दिखलाए गए हैं वे मुख्य रूपसे निम्न प्रकार हैं--
१. विष्कम्भक में मध्यमपात्र भी प्रयुक्त होते हैं इसलिए संस्कृत भाषाका भी प्राश्रय लिगा जाता है। किन्तु प्रवेशकमें केवल नीचपाय ही होते हैं इसलिए उस में केवल प्राकृत भाषाका ही उपयोग होता है।
२. विष्कम्भका प्रयोग अङ्कके आदिमें भी प्रस्तावनाके बाद किया जा सकता है किन्तु प्रवेशकका प्रयोग प्रथम अंकमें नहीं होता है।
३. प्रङ्कास्य प्रादि अन्य पर्थोपक्षेपकोंका प्रयोग नाटिकादिमें भी हो सकता है किन्तु
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दर्पणम्
५६ ]
अथ अङ्कास्य-चूलिके लक्षयति[ सूत्र २२ ] -- अङ्कास्यमन्तपात्रेण वस्तुनः सूचनं चूला
छिन्नाङ्कमुखयोजनम् । पात्रैर्नेपथ्य संस्थितैः ॥ २६॥
अन्तपात्रेणेति पूर्वस्याङ्कस्यान्ते स्त्री-पुरं सान्यतरेण पात्रेण । छिन्नस्य असम्बद्धस्य उत्तराङ्कमुखस्य योजनमुपक्षेपो यस्तत् 'अङ्कास्यम्' अंकमुखम् । यथा वीरचरिते द्वितीयाङ्कान्ते
“ प्रविश्य सुमन्त्रः - भगवन्तौ वसिष्ठ- विश्वामित्रौ भवतः सभार्गवान चाहयेते इति ।
इतरे तु क्व भगवन्तौ ?
सुमन्त्र: - महाराजदशरथस्यान्तिके । इतरे - तदनुरोधात् तत्रैव गच्छामः । इत्यङ्कममाप्तौ - ततः प्रविशन्ति
[ का० २६, सू० २२
वसिष्ठविश्वामित्र-शतानन्द जनक
परशुरामाः ।"
. इत्यत्र पूर्वाङ्कान्ते एव प्रविष्टेन सुमन्त्रपात्रेण शतानन्द जनक कथार्थविच्छेदे उत्तराङ्कमुखसूचनात् श्रङ्कास्यमिति ।
frostre मोर प्रवेशकका प्रयोग एकांकी व्यायोगादि और परस्परासम्बद्ध प्रङ्कों वाले सम कार तथा प्रल्पवृत्त वाले अन्य रूपकभेदों में नहीं किया जाता है ।
अब मागे 'अङ्कास्प' तथा 'चूलिका' दोनोंका लक्षरण [एक ही कारिकामें] करते हैं[सूत्र २२] - [प्रङ्कके प्रन्तमें ही प्रविष्ट होने वाले] अन्तिम पात्र के द्वारा [पूर्व असे असम्बद्ध] विच्छिन्न [ अगले उत्तरवर्ती] प्रङ्कके प्रारम्भका सम्बन्ध जोड़नेसे 'प्रङ्कास्थ' नामक प्रथपक्षेपक होता है] और नेपथ्य स्थित पात्रोंके द्वारा वस्तुको सूचना 'चूलिका' [कहलाती ] है । २६ । अन्तिम पात्र के द्वारा अर्थात् पूर्व के अन्तमें [ प्रविष्ट होने वाले ] स्त्री या पुरुष किसी भी पात्र के द्वारा छिन्न अर्थात् [ पूर्व प्रङ्कके साथ ] प्रसम्बद्ध अगले अङ्कके प्रारम्भ [ख] की जो योजना अर्थात् उपक्षेप [बीजारोपण ] करना वह 'श्रङ्कास्य' अर्थात् 'अङ्कमुख' [कहलाता ] है । जैसे महावीर चरितके द्वितीय अङ्क के अन्तमें
"प्रविष्ट होकर सुमन्त्र [ कहते हैं कि ] - महर्षि वसिष्ठ तथा विश्वामित्र, भार्गव
[परशुराम ] सहित प्राप दोनों [शतानन्द और जनक] को बुला रहे हैं ।
अन्य दोनों - [जनक और शतानन्व] वे दोनो कहाँ हैं [ यह पूछते हैं] ? सुमन्त्र -[उत्तर देते हैं ] - महाराज दशरथके समीप हैं ।
>
अन्य दोनों - उनकी इच्छा के अनुसार हम सब वहीं जाते हैं ।
यह [ द्वितीय] समाप्ति में [प्राया है] । उसके बाद [ अगले प्र afers feastfee शतानन्द जनक और परशुराम प्रविष्ट होते हैं ।"
इस उदाहरण में पूर्ववर्ती द्वितीय प्रङ्कके अन्तमें ही प्रविष्ट होने वा Tare और जनकके वार्तालाप रूप अर्थको विच्छिन्न करके [गले तृतीय में वसिष्ठ प्राविके साथ होने वाले जनक शतानन्दके वार्तालाप रूप] प्रकेारकी सूचना [लिए यह प्रङ्कास्यका उदाहरण है] ।
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का० २६, सू० २२ ]
प्रथमो विवेकः
[ ५६
'वस्तु' इति कस्यचिदर्थस्य सूचनमुपक्षेपः । 'पात्रैः' स्त्री-पुंसैः । 'नेपथ्यसंस्थितैः' यवनिकान्तर देशस्थायिभिः । सा चूडेव चूलिका । रङ्गाभिनेयार्थस्य नेपथ्यपात्रोक्तेः शिखाकल्पत्वात् । यथा 'उत्तररामचरिते' द्वितीयाङ्कस्यादौ"स्वागतं तपोधनायाः । ततः प्रविशति तपोधना ।"
1
अत्रे नेपथ्यपात्रेण स्त्रिया वासन्तिकया श्रात्रेयीवस्तुनः सूचनात् चूलिका | यथा वा 'नलविलासे' द्वितीयाङ्कस्यादौ
"स्वागतं सपरिच्छदाय कलहंसाय । ततः प्रविशति कलहंसो मकरिकाप्रभृतिकश्च परिवारः ।”
अत्र नेपथ्यपात्रेण पुंसा शेखरेण कलहंसादिवस्तुनः सूचनात् चूलेति । यथा वा रत्नावल्यां
"अस्तापास्तसमस्तभासि नभसः पारं प्रयाते रवौ
आस्थानों समये समं नृपजनः सायन्तने सम्पतन् । सम्प्रत्येष सरोरुह तिमुषः पादांस्तवासेवितु प्रीत्युत्कर्ष कृतो दशामुदयनस्येन्दोरिवोदीक्षते ॥"
us 'प्रङ्कास्य' का उदाहरण दिया है इसमें 'छिन्नाङ्क' पद विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है । इसी पदके द्वारा श्रङ्कास्य और श्रावतारका भेद होता है । प्रङ्कास्यमें अगला
पूर्व से सम्बद्ध रूपमें प्रारम्भ होता है और अङ्कावतार में पूर्व के अंग रूपमें ही नया प्रङ्क प्रारम्भ होता है। यहां इन दोनोंका भेद है ।
'वस्तुन:' प्रर्थात् किसी अर्थका 'सूचन' प्रर्थात् उपक्षेप करना । 'पात्रः' अर्थात् स्त्री-पुरुषोंके द्वारा । 'नेपथ्य संस्थितः' अर्थात् यवनिकाके भीतर स्थित 'चूडा' श्रर्थात् शिखाके समान होनेसे 'चूलिका' है। क्योंकि नेपथ्यको उक्ति रङ्गमें अभिनय किए जानेवाले श्रर्थकी शिलाके समान होती है । जैसे उत्तररामचरितके द्वितीय प्रके प्रादिमें
[नेपथ्यमें] तपोधनाका स्वागत है ।" इसके बाद तपोधना प्रवेश करती है ।"
इसमें नेपथ्य में स्थित वासन्तिकका रूप स्त्रीपात्रके द्वारा श्रात्रेयी रूप वस्तुके सूचित होनेसे यह 'चूलिका' [का उदाहरण] है ।
प्रथवा जैसे नलविलासके द्वितीय अङ्कके श्रादिमें [ भी चूलिका दी गई है ]- "सपरिवार कलहंसका स्वागत है । इसके बाद कलहंस और मकरिका आदि परिवार प्रविष्ट होता है ।" इसमें नेपथ्यवर्ती 'शेखर' नामक पुरुषपात्र के द्वारा कलहंसादि वस्तुके सूचित होने से 'धूलिका है ।
अथवा जैसे रस्नावलीमें - [प्रथम प्रङ्कमें ]
"अपनी समस्त प्रभाको प्रस्ताचलपर बिखेरकर, सूर्यके श्राकाशके पार चले जानेपर, सायंकाल के समय सभा मण्डप में एक साथ प्रविष्ट होते हुए सारे राजा कमलोंकी कान्तिका हरण करने वाले [श्रर्थात् कमलोंके समान सुन्दर ] और अत्यन्त आनन्द [ प्रत्युत्कर्ष ] को प्रदान करने वाले [चन्द्रमा की किरणोंके समान कमल-शोभापहारी और श्राह्लादकारक ] सतत उदयशील are पावोंके समान प्राप 'उदयन' के [पादोंकों] चरणोंको सेवा [उपासना ] करनेकेलिए बेल रहे हैं।
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६० ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० २७, सू० २३
इति नेपथ्य पात्रेण बन्दिना काननस्थस्योदयनवस्तुनः सागरिकां प्रति सूचनात् चूलिका ॥ २६ ॥
अथाङ्कावतारं लक्षयितुमाह-
[ सूत्र २३ ] - - मोऽङ्कावतारो यत् पात्रैरङ्कान्तरमसूचनम् ।
पात्रान्तराभावेन यस्यैवाङ्कस्य पात्रैरविच्छिन्नार्थतया सूचनीयार्थस्याभावात् प्रवेशक विष्कम्भक सूचनारहितमङ्कान्तरं भवति, स द्वितीयाङ्कस्यावतारणादृङ्कावतारः । यथा मालविकाग्निमित्रे प्रथमेऽङ्के --
"विदूषकः -- तेन हि दुवे वि देवीए पेक्खागि गइब संगीदोबकरणं गहिब तत्तभवदो दृदं विसज्जेथ । अथवा मुदंगसद्दो य्येव णं उत्थावइस्सदि ।
[तेन हि द्वावपि देव्याः प्रेक्षागृहं गत्वा सङ्गीतोपकरणं गृहीत्वा तत्रभवन्तौ दूर्त विसर्जयेताम् | अथवा मृदङ्गशब्द एव तमुत्थापयिष्यति इति । संस्कृतम् ] ।” इत्युपक्रमे मृदङ्गशब्दश्रवणानन्तरं तान्येव सर्वाणि पात्राणि द्वितीयाङ्कमारभन्ते इति ।
अन्ये तु यत्र अन्ाङ्कानां बीजलक्षणोऽर्थोऽवतार्यते तमङ्कावतारमामनन्ति । यथा रत्नावल्यां द्वितीयोऽङ्कः । तत्र हि --
यहाँ नेपथ्यवर्ती चारण रूप पात्र के द्वारा सागरिकाके प्रति उद्यानमें स्थित उदयन रूप वस्तुके सूचनसे चूलिका [ बनती] है ।
इस प्रकार इस एक ही कारिका में ग्रन्थकारने 'अङ्कमुख' श्रौर 'चूलिका' इन दो अर्थोपक्षेपकों के लक्षण सुन्दरता के साथ प्रस्तुत किए हैं ।। २६ ।।
श्रङ्कावतारका लक्षण --
Ma [थकार ] श्रङ्कावतारका लक्षरण करनेकेलिए कहते हैं
[ सूत्र २३ ] -- जो [पूर्वं श्रङ्कके] पात्रोंके द्वारा [ अन्य किन्हीं पात्रोंके प्रागमनकी foresee प्रादि श्रर्थोपक्षेपकोंके माध्यम से ] सूचना दिए बिना [ पूर्व श्रङ्कोंके पात्रोंसे ही ] दूसरे अङ्कका प्रारम्भ होता है उसको 'प्रङ्गावतार' कहते हैं ।
[नवीन में जानेवाले नए ] दूसरे पात्रोंके न होनेके कारण और सूचनीय अर्थकर प्रभाव होनेसे प्रवेशक, विष्कम्भक प्रादिके बिना ही जिस [पूर्ववर्ती] अङ्क के पात्रोंके द्वारा श्रविच्छिन्न रूपसे नए प्रङ्कका प्रारम्भ किया जाता है वह द्वितीय प्रङ्कका प्रवतारण कराने वाला होनेसे 'श्रङ्कावतार' कहलाता है। जैसे मालविकाग्निमित्र [नाटक] के प्रथम श्र [के अन्त] में [ निम्न वाक्य श्राता है ]--
"विदूषक - - इसलिए श्राप दोनों देवीको रङ्गशाला में जाकर और सङ्गीतके साजको सँभालकर [यहाँ हम लोगोंके पास ] दूत भेज दीजिएगा। प्रथवा [दूत भेजनेकी प्रावश्यकता नहीं होगी क्योंकि प्रापके] मृदङ्गका शब्द हो हम सबको उठा [कर सङ्गीत सुननेकेलिए आपके पास पहुँचा ] देगा ।"
[प्रथम
के अन्त में] इस प्रकारका उपक्रम करके मृदङ्ग शब्दके अवरणके बाद वे ही सब पात्र द्वितीय प्रङ्कका प्रारम्भ करते हैं ।
दूसरे प्राचार्य तो जिस
में श्रन्य [सब] प्रङ्कोंके बीजभूत अर्थको अवताररणा की
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प्रथमो विवेकः
[ ६१
"ईदिसम्स कन्नगारयणस्स ईदिये य्येव वरे अहिलासेण भोदव्वं । [ईदशस्य कन्यारत्नस्येदृश एव वरेऽभिलाषेण भवितव्यम् । इति संस्कृतम्]” इत्यादिकोऽनुरागलक्षणः सर्वाङ्कानामर्थ इति । श्रयं च गर्भाङ्कोऽप्युच्यते ।
का० २७, सू० २४ ]
यदाहु:
"अङ्कान्तरेव चाङ्को निपतति यस्मिन् प्रयोगमासाद्य । बीजार्थ युक्तियुक्तो गर्भाङ्को नाम विज्ञेयः ॥” इति अथ विष्कम्भकादीनां विषयव्यवस्थामाह
[ सूत्र २४ ] आद्यौ सूच्ये बहावन्ये क्रमादल्पे तरे तमे ॥ २७ ॥
तर-तम-प्रत्ययौ नान्तरीयकतया सन्निधानाच्चाल्पशब्दं प्रकृतिमाकर्षतः, तेनाल्पतरे अल्पतमे इत्यर्थः । छन्दोऽनुरोधाच्च प्रत्ययानुकरणनिर्देशः । 'श्रन्ये' अङ्कास्य- चूलिका अङ्कावताराः । क्रमादिति लक्षणक्रमेण । 'बहौ', बहुकाले च सूच्ये आविष्कम्भक प्रवेशकौ । 'अल्पे' अल्पकाले चाङ्कास्यम्, अल्पतरे अल्पतरकाले च चूलिका, अल्पतमे अल्पतमकाले चाङ्कावतार इति ॥ २७ ॥
जाती है उसको 'प्रङ्कावतार' मानते हैं । जैसे रत्नावलीमें दूसरा अङ्क [इनके मतसे श्रङ्कावतार का उदाहरण बनता है]। क्योंकि उसमें-- .
" इस प्रकारके कन्यारत्नका इस प्रकारके वरमें ही अभिलाष होना चाहिए" । इत्यादि सब श्रङ्कोंका [बीजभूत] अनुराग रूप अर्थ [ प्रदर्शित किया गया है] इस लिए [यह द्वितीयाङ्क ही श्रङ्कावतार माना जाता है] । इसीको [ वे लोग ] 'गर्भाङ्क' भी कहते हैं। जैसाकि [ गर्भाङ्कका लक्षण करते हुए ] लिखा है कि-
"जहाँ प्रयोग [के अवसर] को प्राप्त करके श्रङ्कके भीतर हो बीजार्थ और युक्ति सहित नवीन श्रङ्क [उससे अविच्छिन्न रूपसे प्रारम्भ हो जाता है उसको 'गर्भाङ्क' नामसे समझना चाहिए ।
विष्कम्भकादिकी विषय-व्यवस्था-
पिछली कारिकाओं में विष्कम्भक, प्रवेशक आदि पाँच प्रकारके अर्थोपक्षेपकों का वर्णन किया था उनके विषयका उपसंहार करते हुए २७वीं कारिकाके उत्तरार्द्ध-भाग में इनका प्रयोग कब-कब करना चाहिए इस विषयव्यवस्थाका निरूपण करते हुए ग्रन्थकार लिखते हैंta froster श्राविकी विषय-व्यवस्थाको कहते हैं
――――――
[ सूत्र २४ ] - बहुत और बहुकाल -व्यापी [अर्थके] सूचनीय होनेपर भाविके दो [प्रर्थात् विष्कम्भक औौर प्रवेशकका प्रयोग करना चाहिए] और अल्प, प्रल्पतर एवं अल्पतम [अर्थ सूचनीय] होने पर क्रमसे [प्रङ्कास्य, चूलिका और प्रङ्कावतार रूप ] अन्य [अर्थोपक्षेपकका प्रयोग करना चाहिए] । २७ ।
[कारिकामें दिए हुए ] तर, तम दोनों प्रत्यय [ प्रकृतिके बिना न रह सकने के कारण अविनाभूत होनेसे और सन्निहित होनेके कारण 'अल्प' शब्दको प्रकृति रूपमें प्राकर्षित कर लेते हैं। इसलिए अल्पतर और अल्पतम यह अर्थ हो जाता है । [मूल कारिकामें ] छन्दके अनुरोध के कारण [अल्पतर अल्पतम न कहकर केवल तर तम द्वारा) प्रत्ययके धनुकररणका निर्देश किया गया है । [कारिकामें प्राए हुए ] 'अन्य' [पद ] से प्रङ्कास्य, चूलिका और अङ्का
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यालाच ।
६२ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० २८, सू०२५ श्रथ अानन्तरोदिष्टमुपायं व्याचष्टे[सूत्र २५]--बीजं पताका प्रकरी बिन्दुः कार्य यथारूचि ।
फलस्य हेतवः पञ्च चेतनाचेतनात्मकाः ॥२८॥ ___ उपायस्वरूपापरिज्ञाने तद्विषयाणामारम्भादीनां स्वरूपपरिज्ञानासम्भव इति उपायस्वरूप. व्युत्पाद्यते । 'यथारुचि' इति नैषामौदेशिको निबन्धक्रमः, सर्वेषामवश्यम्भावित्वं वा ।. 'फलस्य' मुख्यसाध्यस्य 'हेतव' उपायाः। इह हेतुविधा अचेतनश्चेतनश्च । अचेतनोऽपि मुख्यामुख्य भेदाद द्विधा । मुख्यो बीजम्, तन्मूलत्वादितरेषाम् । अमुख्यस्तु कार्यम् । चेतनोऽपि द्विधा मुख्य उपकरणभृतश्च । मुख्यो वतार [का ग्रहण होता है । 'कमात्' इस परसे लक्षणके क्रमसे [प्रङ्कास्य चूलिका प्रशावतारका प्रहरण करना चाहिए। स्वेच्छया नहीं यह अभिप्राय है] । बहुत तथा बहुकाल व्यापी [मर्थक] सूचनीय होनेपर प्रादिके दो अर्थात् विष्कम्भक और प्रवेशक [प्रयुक्त होते हैं] । अल्प और अल्पकालीन [अर्थक सूचनीय] होनेपर अङ्कास्य, [उससे भी कम] अल्पतर और मल्पतर-कालीन [अर्थके सूचनीय] होनेपर चूलिका, तथा [उससे भी कम अल्पतम और अल्पतम-कालीन [अर्थक सूचनीय] होनेपर अलावतार का प्रयोग किया जाना चाहिए यह अभिप्राय है । २७ ॥
इस प्रकार इस कारिकाको समाप्तिके साथ पांचों पोंपक्षेपकोंका विषय-विवेचन समाप्त हो जाता है। पांचवीं कारिकामें नाटकका जो लक्षण किया गया था उसकी ही व्याख्या मागे चल रही है। इसमें 'मर' पद पाया था उसकी व्याख्याके प्रसङ्ग में इन विष्कम्भक मादि पर्थोपक्षेपकोंका निरूपण किया गया। उसके द्वारा नाटक के लक्षण में पाए हुए 'म' पदकी व्याख्या पूर्ण हो जाती है। नाटक-लक्षण वाली कारिका में 'मङ्क' पदके बाद 'उपाय' पदका प्रयोग किया गया है। प्रत एव अङ्क पदकी व्याख्याके बाद 'उपाय' पदकी व्याख्या क्रम-प्राप्त है । इस लिए अगली कारिकामें 'उपाय' पदकी व्याख्या प्रारम्भ करते हैं।
इस कारिकामें पांच प्रकारके उपाय बतलाए गए हैं। परन्तु पहिले उनके चेतन पौर मचेतन दो भेद किए हैं। उनमें से प्रचेतन उपायोंके भी मुख्य तथा प्रमुख्य दो भेद किए है। फिर चेतन उपायोंके भी मुख्य तथा उपकरणभूत दो भेद करके उनमेंसे उपकरण भूतके भी दो भेद कर दिए हैं। इस प्रकार उपायोंकी संख्या पांच हो जाती है। इन पांचों उपायों का वर्णन इस कारिकामें निम्न प्रकारसे किया है
___ अब [नाटक-लक्षणमें] अङ्कके बाद कहे हुए 'उपाय' [पद] की व्याख्या [प्रारम्भ]
[सूत्र २४]-१. बीज, २. पताका, ३. प्रकरी, ४. बिन्दु और ५. कार्य [पताका प्रकरी और बिन्दु ये तीन चेतन तथा बीज एवं कार्यको दो अचेतन इस प्रकार] ये चेतन और प्रचेतनारमक फलके हेतु पाँच ['उपाय' कहलाते हैं [उनका अपनी रुचिके अनुसार [प्रयुक्त] करे।२८॥
उपायोंके स्वरूपको जाने बिना उनके सम्बन्धमें प्रारम्भाविके स्वरूपका परिमान भी पसम्भव है, इस लिए 'उपायों के स्वरूपका परिचय करवाया जा रहा है । [कारिकामें पाए
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का० २६, सू० २६ ] प्रथमो विवेकः बिन्दुः, कार्यानुसन्धानरूपत्वात् । उपकरणभूतो द्विधा । (१) स्वार्थसिद्धियुतः परार्थसिद्धिपरः, (२) परार्थसिद्धिपरश्च । पूर्वः पताका, अन्यःप्रकरीति । अत्र चाचेतन. चेतनानां मध्ये बीजबिन्द्वोमुख्यत्वम्, सर्वव्यापित्वादिति ॥२८॥ अथ बीजमाह
सूत्र २६]-स्तोकोदिष्टः फलप्रान्तो हेतु/जं प्ररोहणात् ।
आदी गभीरत्वादल्पनिक्षिप्तो मुख्यफलावसानश्च यो हेतु मुख्यसाध्योपायः, स धान्यबीज व 'बीजभू' । 'प्ररोहणात्' उत्तरत्र शाखोपशाखादिभिविस्तरणात् । इदं च आमुखानन्तरं निबध्यते । बीजं हि नाटकादीनामितिवृत्तार्थस्योपायः। प्रामुखं तु रूपकप्रस्तावनार्थ नटस्यैव वृत्तम् । याः थुनरत्र नाटकार्थस्पृशो नटोक्तयस्ताः प्रयोगपातनिकाथेमेव । अत एव प्रामुखोक्ता अपि बीजोक्तयः प्रविष्टनाटकपाग पुनरुच्यन्ते । तथा च रत्नावल्याम्हुए] 'यथाधि' इस [पद से यह सूचित किया है कि कि प्रौद्देशिक [अर्थात जिस क्रमसे उनको यहां पढ़ा गया है उसी] क्रमसे [नाटकमें] उनका प्रयोग-क्रम [अपेक्षित नहीं है। और सब [पांचों उपायों] का अपरिहार्यत्व [अपेक्षिल] है। [अर्थात् कवि या नाटककार अपनी आवश्यकता और इच्छाके अनुसार उनमेंसे किन्हींका और किसी भी क्रमसे उपयोग कर सकता है] । 'फल' अर्थात् [नाटकके] मुख्य साध्यके 'हेतु' उपाय [कहलाते हैं। ये हेतु [उपाय] दो प्रकारके होते हैं। एक 'प्रचेतन' और दूसरे 'चेतन' । [उनमेंसे] अचेतन हेतु] भी मुख्य तथा अमुख्य भेदसे दो प्रकारका होता है। मुख्य [अचेतन हेतु] बीज' [कहलाता] है। क्योंकि अन्य सब उसके प्राश्रित होते हैं। प्रमुख्य [अचेतन हेतु) 'कार्य' कहलाता है। चेतन हेतु] भी मुख्य और उपकरणभूत दो प्रकारका होता है। मुख्य [चेतन हेतु] कार्यानुसन्धान रूप होनेसे 'बिन्दु' [कहलाता है। उपकरणभूत [चेतन हेतु भी] दो प्रकारका होता है। एफ स्वार्थसिद्धियुक्त होनेके साथ परार्थसिद्धिपर, और दूसरा [केवल परार्थसिद्धिमें तत्पर । [इनसे] पहिला अर्थात् स्वार्थसिद्धियुक्त होनेके साथ परार्थसिद्धिपर चेतन साधन 'पताका'। और [केवल परार्थसिद्धिपर] दूसरा [चेतन साधन] 'प्रकरी' कहलाता है। इनमें से भी अचेतन तथा चेतन [साधनों और उपायों मेंसे [क्रमशः] बीज और बिन्दुको [नाटक की पाख्यान-वस्तुमें] सर्वत्र व्यापक होनेसे मुख्यता है ॥२८॥
अब आगे [उपायोंमेंसे सर्वप्रथम] 'बीज' को कहते हैं
भूत्र २६]--[प्रारम्भमें] सूक्ष्मरूपसे कहा गया और [अन्तमें] फल रूपमें पर्यवसित होनेवाला मुख्य अचेतन हेतु [वृक्षके बीजके समान शाखा प्रावि रूपमें विस्तृत हो जानेसे 'बीज' [कहलाता है।
[नाटकके प्रारम्भमें, [गम्भीर दुय होनेसे सूक्ष्म रूपमें बोया और मुख्य फलमें समाप्त होनेवाला जो हेतु, मुख्य-साध्यका उपाय है वह धान्यके बीजके समान होनेसे 'बीज' [कहलाता है। कारिकामें आए हुए] 'प्ररोहणात्' [पदका अभिप्राय] 'शाखा-प्रशाखा रूपमें फैल जानेसे' यह है। [नाटकको रचनामें] प्रामुख [प्रस्तावना के बाद इस [बीज] को निबद्ध किया जाता है। बीज नाटकके इतिवृत्त [पाख्यान-वस्तु] का उपाय [होता है। [किन्तु] प्रामुख तो रूपकको प्रस्तुत करनेकेलिए नटका ही व्यापार [वृत्तम्] है। [अर्थात्
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नाट्यदर्पणम् [ का० २६, सू०१६ "द्वीपादन्यस्मादपि मध्यादपि जलनिधेर्दिशोऽप्यन्तात् ।
पानीय झटिति घट यति विधिरभिमतमभिमुखीभूतः ॥" इत्याद्यामुखोक्तं यौगन्धरायणः पठति । प्रामुख-भागका नाटकको मुल्य माल्यान-वस्तु या इतिवृत्त कथा आदिके साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता है । इस [प्रामुख] में जो नाटकके मुख्य कथा-भाग [अर्थ] को स्पर्श करनेवाली नटोंकी उक्तियां होती हैं वे प्रयोगकी अवतरणिकाकेलिए ही होती हैं [मुख्य नाटकका अङ्ग नहीं होती है । इसी लिए प्रामुखमें कही हुई बीजभूत उक्तियोंको [प्रामुखके बाद] प्रविष्ट हुमा नाटकका पात्र फिरसे दुहराता है । इसीलिए रत्नावलीमें----
"अनुकूलताको प्राप्त हुआ [अभिमुखीभूतः] वैव, अन्य द्वीपसे, सागरके बीचसे और विशाओंके छोरसे भी अपने अभीष्ट अर्थको लाकर मिला देता है।"
प्रामुखमें कहे हुए [नाटकके कथाभागको स्पर्श करनेवाले] इस श्लोक को प्रिामुख के बाद प्रविष्ट हुमा नाटकका पात्र] यौगन्धरायण फिर पढ़ता है।
___ रत्नावलीके प्रामुखमें नटीने नटसे यह कहा था कि मेरी एक ही लड़की है तुमने बड़े दूर देशमें उसका सम्बन्ध पक्का कर दिया है। पता नहीं इतनी दूरसे आकर वह कब मेरी लड़कीका पाणिग्रहण करेगा। मैं तो इसी चिन्तामें मरी जा रही हूँ। इसलिए मेरा मन गाने-वानेको नहीं करता है । इसके उत्तरमें नटने इस श्लोकको कहा है । उसका भाव यह है कि तुम चिन्ता क्यों करती हो । भगवान के अनुकूल होनेपर वे तो दूसरे द्वीपसे, समुद्रके मध्यसे मोर दिशामोंके छोरसे भी अभिमत प्रोंको लाकर मिला देते हैं। तब यह कार्य भी पूर्ण होगा ही। क्योंकि मैंने भी तो भगवानकी प्रेरणासे ही यह सम्बन्ध पक्का किया है।
इस प्रकार यह श्लोक मुख्य रूपसे नटीकी चिन्ताकी निवृत्तिके लिए नटके द्वारा कहा गया है । किन्तु वह प्रकृत नाटककी कथावस्तुको स्पर्श कर रहा है। इस नाटककी नायिका रत्नावली सिंहलेश्वरकी पुत्री है। किसी ज्योतिषीने इस नाटकके नायक राजा उदयन और उनके मन्त्री योगन्धरायणको बतलाया था कि सिंहलेश्वरकी पुत्री इस रत्नावलीके साथ जिसका विवाह होगा वह चक्रवर्ती सामाज्यको प्राप्त करेगा। इस लिए उदयनकी पोरसे योगन्धरायणने रत्नावलीका विवाह उदयनके साथ कर देनेका प्रस्ताव उसके पिता के सामने रखा। किन्तु उस समय उदयनकी रानी वासवदत्ता विद्यमान थी जो दूरके सम्बन्धमें रत्नावलीकी बहिन लगती थी। सिंहलेश्वरने यह सोचकर कि इस विवाहसे रत्नावलीकी बहिन वासवदत्ताको क्लेश होगा-उस प्रस्तावको अस्वीकार कर दिया। कुछ समय बाद यौगन्धरायणने वासवदतीक मर जानेका समाचार फैला देने के बाद वही प्रस्ताव फिर सिंहलेश्वरके सामने रखा। इस बार वे सम्बन्ध करने के लिए तैयार हो गए। उस प्रसङ्ग में रत्नावली सिंहलसे भारत पा रही थी। उसका जहाज डूब गया। वह जैसे-तैसे किसी काष्ठ के सहारे बचकर उधरसे पानेवाले व्यापारियोंके द्वारा योगन्धरायणको प्राप्त हुई । यौगन्धरायणने उसे अपनी बहिन बतलाकर रक्षाके लिए राजमहल में रानी वासवदत्ताके पास कुछ दिनोंके लिए रख दिया। यह केन्या सागरसे प्राप्त हुई थी इस लिए इसका नाम भी यौगन्धरायणने 'सागरिका' रख दिया था। कन्याको वासवदत्ताने अपने पास रख तो लिया किन्तु उसके अपूर्व रूप-लावण्यको देखकर वह बड़ी सशक हो गई कि कहीं राजाकी दृष्टि
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का० २६, सू० २६ ] प्रथमो विवेकः
[ ६५ यथा वा 'सत्यहरिश्चन्द्रे'
"सत्वैकत्तानवृत्तीनां प्रतिज्ञातार्थकारिणाम् ।
प्रभविष्णुर्न देवोऽपि किं पुनः प्राकृतो जनः॥" इत्यामुखोक्तं हरिश्चन्द्रः पठति । यथा वा अस्मदुपज्ञ एव 'यादवाभ्युदये'----
उदयाभिमुख्यभाजां सम्पत्त्यर्थं विपत्तयः पुंसाम ।
ज्वलितानले प्रपातः कनकस्य हि तेजसो वृद्धयै ।। इति नाटकपात्रं गुप्तमन्त्रः पठति । इस पर न पड़ जाय । इस लिए वह बड़े यत्न-पूर्वक राजा उदयनकी दृष्टिसे उसको बचाए रखने का यत्न करती थी। किन्तु राजमहल में रहकर यह कब तक सम्भव था । माखिर राजा के कानों तक उस के रूप-लावण्यकी चर्चा पहुँची ही। और फिर सब प्रकारके उपायोंका अवलम्बन करके राजाने उसका साक्षात्कार करने और भन्तमें उसके साथ विवाह करने में सफलता प्राप्त कर ही ली।
____ इस क्रमसे अनुकूल देवने सिंहल नामक दूसरे द्वीपसे, समुद्र के मध्यसे और दिशाओं छोरसे रत्नावलीको लाकर उदयनके साथ सम्बद्ध कर ही दिया। इस प्रकार प्रामुखमें जो यह श्लोक केवल नटीकी सान्त्वनाके लिए कहा गया था वह नाटककी मुख्य कथा वस्तुका स्पर्श कर रहा है। इसलिए प्रामुखकी समाप्तिके बाद जब नाटकके पात्रके रूपमें उदयनके मन्त्री योगन्धरायण रङ्गमञ्च पर प्रविष्ट होते हैं तो फिर वे इस श्लोकको दोहराते हैं । पामुख में पढ़ा हुअा यह श्लोक मुख्य कथाभागका स्पर्श करनेवाला होनेपर भी केवल नटोक्तिमात्र था, नाटकका भाग नहीं। इसी लिए मुख्य नाटकसे सम्बद्ध करने के लिए योगन्धरायणके द्वारा उसका पुनः पाठ दिखलाया गया है। इसी प्रकारके और उदाहरण भी मागे देते हैं।
अथवा जैसे 'सत्यहरिश्चन्द' [नाटक] में--
केवल सत्व-प्रधान वृत्तियों वालों और प्रतिज्ञात प्रर्यको [निश्चित रूपसे पूर्ण करने वालों के मार्ग में बाधा डालने के लिए बैंव भी समर्थ नहीं होता है फिर साधारण लोगोंकी तो बात ही क्या।
प्रामुखमें कहे हुए इस [इलोक] को [नाटक के पात्रके रूपमें प्रविष्ट हमा] हरिश्चन्द्र [फिर दुबारा] पढ़ता है।
अथवा. जैसे हमारे ही बनाए हए यादवाभ्युदय में
उन्नतिकी ओर प्रगतिशील पुरुषोंकी विपत्तियां भी उनके अभ्युदय [सम्पत्ति के लिए ही होती हैं । सोनेका प्रज्वलित अग्नि में पड़ना भी उसकी कान्तिको बढ़ानेवाला होता है।
[प्रामुखमें पाए हुए कथा-स्पर्शी इस बीजभूत श्लोकको] गुप्तमन्त्र [नामका पात्र फिर पढ़ता है।
ये तीनों श्लोक उस-उस नाटकके प्रामुखमें किसी अन्य रूपमें कहे गए हैं किन्तु उनके द्वारा मुख्य नाटकके पाख्यान वस्तुको बीज रूपसे सूचना मिलती है। सूत्रधार भी मुख्य नाटकके पाख्यान-वस्तुको संक्षिप्त रूपमें सूचित करनेकी दृष्टिसे ही उन श्लेषमय श्लोकोंका
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नाट्यदर्पणम्
[ का० २६, सू० २६
तत्र बाज क्वाचद् व्यापाररूपम् । यथा रत्नावल्यां वत्सराजस्य रत्नावलीप्राप्तिहेतुरनुकूलदेवः सागरिकान्तःपुर निक्षेपादि यौगन्धरायण व्यापारः । क्वचित्तु व्यसननिवृत्तिफले रूपके व्यसनोपक्षेपरूपम् । यथा 'मायापुष्पके' शापः प्रविश्य वचनक्रमेणाह -
६६
कैकेयी क्व पतिव्रता भगवती क्वैवंविधं वाग्विषं धर्मात्मा क्व रघूद्वहः क्व गमितोऽरण्यं सजायानुजः । क्व स्वच्छो भरतः क्व वा पितृबधान्मात्राधिकं दह्यते किं कृत्वेति कृतो मया दशरथे वध्ये कुलस्य क्षयः ॥
प्रयोग करता है । परन्तु यामुख भाग में प्रयुक्त इस प्रकारकी उक्तियों को बीज नहीं माना जाता है । प्रमुख के बाद बीजका ग्रारोपण होता है । इसी लिए प्रमुखकी समाप्ति के बाद मुख्य नाटकका जो पात्र रङ्गमञ्चपर आता है उसके द्वारा इस प्रकारकी उक्तियोंको पुनः कहलाकर नाटककार बीजका आरोपण करता है । यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है । यह बीज रूप उपाय, नाटकों के आख्यान वस्तुके अनुसार विभिन्न रूपका होता है । नाटकका अवसान जिस रूप में होना है उसीके अनुसार नाटकके आरम्भ में उसका बीजारोपण किया जाता है । इस प्रकारके चार उदाहरण ग्रन्थकार आगे प्रस्तुत करते हैं । इनमें से पहिला उदाहरण रत्नावली नाटिकासे दिया गया है । रत्नावली नाटिका में जैसाकि पहिले कहा जा चुका है सागर से प्राप्त हुई रत्नावलीको यौगन्धरायणने सागरिका नामकी अपनी बहिन कहकर उदयनके राजमहल में वासवदत्ताके पास रख दिया है । यही इसका बीज भाग है । इसीके द्वारा वत्सराज उदयनको श्रागे चलकर रत्नावलीकी प्राप्ति हो सकी है । यह बीज यौगन्धरायणका व्यापार रूप है । इसी बात को आगे लिखते हैं-
और वह बीज कहीं व्यापाररूप होता है । जैसे रत्नावली [नाटिका में] वत्सराज [उदयन] को रत्नावलीको प्राप्ति करानेवाला देवकी अनुकूलतासे युक्त सागरिकाका अन्तःपुर में [ वासवदत्ता के समीप ] रखने श्रादिका यौगन्धरायणका व्यापार ।
इस प्रकार रत्नावली में यौगन्धरायणका व्यापार बीजभूत उपायके रूपमें प्रयुक्त हुया है । इसमें रत्नावलीकी प्राप्ति नाटकका अन्तिम फल अभीष्ट हैं इस लिए रत्नावली का अन्तःपुर-निक्षेप उस का जनक होनेसे 'बीज' है । जिस नाटक में किसी विपत्तिकी निवृत्ति आख्यान वस्तुका चरम फल अभीष्ट होता है उसमें उस विपत्तिका प्रारम्भ हो 'बीज' रूप उपाय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसका उदाहरण आगे देते हैं ।
कहीं, जहाँकि [ नायकपर श्रानेवाली किसी] विपत्तिका निवारण ही [नाटकका मुख्य ] फल है। उस नाटकमें विपत्तिका प्रारम्भ [बीज रूपमें प्रस्तुत किया जाता है ] । जैसे 'मायाgote' [नाटक] में [ श्रवणकुमारके वध के बाद उसके अन्धे माता-पिता द्वारा दशरथको दिया हुआ ] शाप [ मानव रूपमें] प्रविष्ट होकर वचनक्रमसे [नाटकके भावी श्राख्यानं - वस्तुको ] कहता है
कहाँ तो पतिव्रता भगवती कैकेयी और कहाँ इस प्रकारका वारणीका विष [ उगलना ], कहाँ धर्मात्मा रामचन्द्र और कहाँ उसको स्त्री और भाईके माथ वनको भेजा जाना, कहाँ स्वच्छ हृदय भरत और कहाँ पिताके वधके कारण मात्रासे भी अधिक अपरिमित सन्तापको
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का० २६, सु० २६ ]
प्रथमो विवेकः
क्वचिद् व्यसनाभ्युदययोरुपक्षेपरूपम् । यथा 'तापसवत्सराजे' माणवकः "मच्चो वि एवं सामिणा अपणो पडिकूलमायरंतेरा दढं आयासिदो ! पत्थुदं च ण. रुमा मिस्सेहिं सह संपधारिये सामिभत्तीए मदिविहवस्स य गुरुवं" इत्यादि ।
[ श्रमात्योऽप्येवं स्वामिना आत्मनः प्रतिकूलमाचरता दृढमायासितः । प्रस्तुतं चानेन रुमण्वनमिश्रः सह सम्प्रधार्य स्वामिभक्त्या मतिविभवस्य चानुरूपम् । इति संस्कृतम् ] | क्वचिद् व्यसनोपनिपाते तन्निवृत्त्युपक्रमरूपम् । यथा मुद्राराक्षसे चाणक्य:"आः क एष मयि स्थिते चन्द्रगुप्तमभिभवितुमिच्छति । नन्दकुलकालभुजगीं कोपानलबद्दलधूमलताम् । अद्यापि बध्यमानां वध्यः को नेच्छति शिखां मे ॥ इत्यादि नायक प्रतिनायक - श्रमात्याद्याश्रयेण विचित्ररूपो बीजोपन्यास इति ।
[ श्रथवा माताके द्वारा दुःखको ] भोग रहा है । [ मुझ शापके द्वारा ] केवल दशरथके हो वध्य होने पर भी मैंने यह सारे कुलका विनाश क्यों कर डाला ।
कहीं व्यसन तथा अभ्युदय [अर्थात् पहले होनेवाले व्यसन या विपति और उसके बाद प्राप्त होनेवाले अभ्युदयका प्रदर्शन जिस नाटकको कथा वस्तुमें किया गया है उस प्रकार के नाटक] दोनोंका [बोज रूपमें] उपक्षेप [होता है] जैसे तापसवत्सराजचरितमें मारगवक [प्रविष्ट होकर कहता है कि ]
इस प्रकार स्वामीने [ वत्सराज उदयनने] स्वयं अपने प्रतिकूल श्राचरण करके श्रमात्य को भी अत्यन्त कष्ट दिया । किन्तु उस [अमात्य यौगन्धरायण] ने स्वामिभक्ति और अपने बुद्धिवैभवके अनुरूप [दूसरे मन्त्री] रुमण्वान् मित्रके साथ विचार कर [कार्यका] प्रारम्भ कर दिया । कहीं [प्रारम्भ नायकके ऊपर] विपत्तिके श्राने [की सम्भावना होने ] पर उसकी निवृत्तिका उपक्रम [बीज रूपमें प्रस्तुत किया जाता है] जैसे मुद्राराक्षसमें चारणक्य [कहता है ] - अरे मेरे रहते यह कौन चन्द्रगुप्तको बलपूर्वक अभिभूत करना चाहता है ।
[ ६७
यह कौन मृत्युका अभिलाषी [वध्यः कः ] नन्दकुल [ का विनाश करनेवाली, उस ] की काली नागिन रूप और [मेरे] प्रचण्ड कोपानलकी नीली धूमरेखा रूप मेरी शिखाको प्राज [ नन्दकुलका नाश हो जानेपर ] भी बंधने नहीं देना चाहता है ।
इत्यादि । [ इस प्रकार ] नायक- प्रतिनायक श्रमात्य आदिके श्राश्रयसे [नाटकके] बीजका प्रारोपण नाना प्रकारसे किया जा सकता है ।
मुद्राराक्षस में राक्षस और मलयकेतु मिलकर चन्द्रगुप्तको राज्यच्युत करने की योजना बना रहे हैं । नन्दकुलका विनाश कर चाणक्यने ही चन्द्रगुप्तको राजा बनाया है । इसलिए जब उसे यह मालूम होता है कि मलयकेतुके साथ मिलकर नन्दकुलका पुराना मन्त्री राक्षस चन्द्रगुप्तको राज्यच्युत करना चाहता है तब उसने यह श्लोक कहा है । यही श्लोक मुद्राराक्षस नाटकका बीजभूत है । इसीके शाखा प्रशाखात्रोंके रूपमें आगे कथाभागमें चारणक्य तथा राक्षस दोनोंके प्रयत्नोंका परिचय मिलता है । उसका परिणाम अन्त में राक्षसका चारणक्यको श्रात्मसमर्पण होता है ।
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नाट्यदर्पणम्
६५ ]
पताका-निरूपण
इस कारिका के पूर्वार्द्ध-भाग में बीजरूप प्रथम उपायका वर्णन उत्तरार्द्ध-भाग में पताका रूप दूसरे उपायका वर्णन प्रारम्भ करते हैं। जा चुका है, पाँच उपायोंको चेतन तथा प्रचेतन भेदसे दो भागों में विभक्त पाँचों, साधनों में से बीज तथा कार्यरूप रूप दो उपायोंको प्रचेतन साधनों में प्रकारी तथा बिन्दु रूप तीन उपायोंको चेतन साधनों में गिना जाता है । 'बीज' रूप प्रचेतन साधनका वर्णन किया था इस लिए सामान्यतः उसके बाद दूसरे प्रचेतन साधन 'कार्य' का वर्णन करना चाहिए था । किन्तु मूल कारिका में 'बीज' के बाद 'पताका' का नामतः कथन या उद्देश्य किया गया है । इसलिए उद्देश क्रमसे ही उनके लक्षरण करना उचित मानकर 'बीज' के बाद 'पताका' का लक्षण किया गया है- पाँचों उपायोंका नामतः कथन या उद्देश करने वाली कारिकामें जो बीजके बाद पताकाका नाम रखा गया है वह कदाचित् छन्दोअनुरोधसे ही रखा गया है ।
पताका शब्दका प्रसिद्ध अर्थ ध्वजा है । परन्तु यहाँ वह अर्थ अभिप्रेत नहीं है । ध्वजा रूप पताका प्रचेतन पदार्थ है । यहाँ पताका शब्द से वेतन अर्थका ग्रहण किया गया है। इस लिए पताका शब्दका मुख्य प्रसिद्ध अर्थ यहाँ सङ्गत नहीं होता है । यहाँ नायकके कार्यकी सिद्धि में सहायता देनेवाले किसी चेतन व्यक्तिके लिए 'पताका' शब्दका प्रयोग किया गया है । जैसे रामचन्द्र, के चरित्र में सीतानयन प्रादि रूप कार्यकी सिद्धि में उनके सहायक सुग्रीव रहे हैं। 'इस लिए वे 'पताका' या 'पताका नायक' कहलाते हैं। पताका जिस प्रकार प्रसिद्धि तथा प्राशस्त्य की सूचिका होती है । इसी प्रकार पताका नायक भी प्रधान नायककी प्रसिद्धि तथा प्राशस्त्य श्रादिका सूचक होता है। इस लिए पताका के सदृश होने से उसको भी 'पताका' या 'पताका नायक' कहा जाता है ।
पताका और प्रकरी
[ का० २६, सू० २६
'पताका' के साथ ही दूसरा शब्द 'प्रकरी' भी इन पाँचों उपायोंकी गणना में प्रयुक्त किया गया है । ये दोनों प्रधान नायकको कार्यसिद्धिमें उसके प्रधान सहायक होते हैं । इन दोनों में परस्पर यह अन्तर होता है कि 'पताका नायक' का अपना भी कुछ स्वार्थ होता है । भोर 'प्रकरी' का अपना कोई स्वार्थ नहीं होता है । 'पताका नायक' अपने स्वार्थको सिद्धिके साथ-साथ प्रधान नायकके कार्यकी सिद्धि में सहायक होता है । किन्तु 'प्रकरी' अपने किसी स्वार्थकी अपेक्षा न रखकर निरपेक्ष भावसे प्रधान - नायकका सहायक होता है । 'रामचरित' में सुग्रीव 'पताका नायक' है और जटायु 'प्रकरी' का उदाहरण है। सुग्रीव बालिसे अपने राज्य मौर अपनी पत्नीको वापिस दिलाने के स्वार्थको सिद्ध कर रामका सहायक बना है । प्रोर जटायु निरपेक्ष भावसे रामकी सहायता करता है। इस लिए स्वार्धसिद्धियुत होनेके कारण सुग्रीव 'पताका नायक' मोर केवल परार्थसिद्धि पर होने के कारण जटायु 'प्रकरी नायक' हैं । इसी अभिप्रायको लेकर आगे ग्रंथकार 'पताका' और 'प्रकरी' के लक्षण देते हैं । उनमें से भी पहिले वे पताकाका लक्षरण करते हैं ।
पताका और प्रकरी का दूसरा भेद
किया गया है। अब जैसा कि ऊपर कहा
किया गया है ।
और शेष पताका
पिछले प्रकरण में
पताका और प्रकरीका एक भेद तो यह हुआ कि पताका नायक के साथ स्वार्थका
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का० २६, सू. २६ ] प्रथमो विवेकः
[ ६६ सम्बन्ध भी रहता है और प्रकरौके साथ स्वार्थसिद्धिका कोई प्रश्न नहीं रहता है। इनका दूसरा भेद दोनोंके चरित्रकी व्यापकताकी दृष्टिसे है । 'प्रकरी' का चरित्र बिलकुल एकदेशी और सीमित होता है। पताका-नायकका चरित्र उसकी अपेक्षा पर्याप्त बड़ा और अधिक देश-व्यापी होता है। पताकाका लक्षण करते हुए जो 'मा-विमर्शात्' पद दिया गया है उससे पताका-नायकके चरित्रकी व्यापकता ही प्रदर्शित की गई है। नाटकके कथाभागको पांच भागोंमें बांटकर उसमें पांच प्रकारको सन्धियोंका प्रयोग करनेका विधान किया गया है। इन सन्धियों के नाम.-१. मुख-सन्धि, २. प्रतिमुख-सन्धि, ३. गर्भ-सन्धि, ४. विमर्श सन्धि और ५. निर्वहण-सन्धि रखे गए हैं। इनमें पताका-नायकका चरित्र मुख-सन्धिसे प्रारम्भ होकर 'मा-विमर्शात्' विमर्श सन्धितक व्याप्त हो सकता है । 'मा-विमर्शात्' पदमें पाए हुए प्राङ-उपसर्गके भी दो अर्थ हैं । एक 'मर्यादा' और दूसरा 'मभिविधि' । 'तेन विना मर्यादा' और 'तत्सहितो अभिविधिः। मा-विमर्शात् पदमें यदि प्राङ-उपसर्गको मर्यादार्थक मानें तो 'तेन विना' अर्थात् विमर्श सन्धिको छोड़कर अर्थात् गर्भ-सन्धि पर्यन्त पताका-नायक के चरित्रका क्षेत्र रहता है । और यदि माङ उपसर्गको 'अभिविधि' अर्थमें मानते हैं तो 'तेन सह अभिविधिः' इस लक्षण के अनुसार 'प्राविमर्शात' पदसे विमर्श-सन्धिको भी सम्मिलित करके मुख, प्रतिमुख, गर्भ और विमर्श इन चारों सन्धियों में पताका-नायकका चरित्र व्यापक हो सकता है । परन्तु 'प्रकरी' का चरित्र बिलकुल एकदेशी होती है । पताका अनिवार्य नहीं
. पताका और प्रकरी दोनों के विषयमें एक बात यह और ध्यान रखने की है कि इस दोनों में से किसीकी भी स्थिति नाटकमें अनिवार्य नहीं है। इन दोनोंके बिना भी नाटककी रचना हो सकती है। इनकी प्रावश्यकता उसी दशामें है जब मुख्य नायकको सहायकको मावश्यकता होती है। जिस नायकको इस प्रकारके सहायककी आवश्यकता नहीं होती उसके चरित्र को लेकर लिखे गए नाटक की रचना इनके बिना भी की जा सकती है। पताका और पताका स्थान
___ इस सम्बन्ध में एक बात मोर ध्यानमें रख लेनी चाहिए कि यह पताका शब्द कभीकभी भ्रम उत्पन्न कर देता है। यह जो यहाँ पताकाका लक्षण किया जा रहा है वह प्रधाननायकके सहायक पताका-नायकका लक्षण किया जा रहा है । इसके अतिरिक्त चार प्रकारके पताका-स्थानोंका वर्णन भी मागे मायेगा। वे 'पताका-स्थान' इस पताकासे बिलकुल भिन्न वस्तु है। जहां केवल 'पताका' शब्दका प्रयोग किया जाता है वहां उससे 'पताकानायक'का ही ग्रहण होता है। पताका-स्थानोंकी चर्चा जहाँ अभिप्रेत होती है वहाँ केवल पताका शब्दका प्रयोग न करके 'पताका-स्थान' शब्दका ही प्रयोग किया जाता है। इन दोनों के नामों में प्रत्यधिक साम्य होने के कारण ही ग्रन्थकारने पताका-लक्षणके बाद ही पताकास्थानोंका' भी वर्णन कर दिया है। वैसे साधारणतः इस स्थल पर उनके वर्णनका कोई प्रसङ्ग नहीं था।
इस विवरणको समझ लेने पर प्रागे कहे हुए पताका-लक्षण के समझने में सरलता होगी।
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so ]
नाट्यदर्पणम् [ का० २६, सू० २७ अथ पताका निरूपयति
[सूत्र २७]-प्राविमर्श पताका चेच्चेतनः स परार्थकृत् ॥२६॥
स्वार्थाय प्रवृत्तो यो हेतुश्चेतनः परस्य प्रधानस्य प्रयोजन सम्पादयति स प्रसिद्धि प्राशस्त्यहेतुत्वात् पतावे व 'पताका'। सुग्रीव-विभीपणादिहि रामादिनोपक्रेयमाणो रामादेरात्मनश्चोपकाराय भवन् , रामादेः प्रसिद्धि प्राशस्त्यं च सम्पादपति । 'चे' इति यदि फललाधने साहाय्यापेक्षाणां नायकानां वृत्तं निबध्यते, तदा पताका भवति। न तु स्वपराक्रमबहुमानिनामिति । एवं प्रकर्यपि। अविमर्शमिति यदा मर्यादायामाङ्, तदा मुख-प्रतिमुख-गर्भान् , यदा पुनरभिविधौ, तदा विमर्शमभिव्याप्य विरमति । तावत्येव पताकानायकस्य स्वफलसिद्धिनिबध्यते । निर्वहणसन्धावपि तत्फले निबध्यमाने तुल्यकालयोरुपकार्योपकारकत्वाभावात् , न तेन प्रधानस्योपकारः स्यात् । सिद्धफलस्त्वसौ प्रधानफल एव व्याप्रियमाणो भूतपूर्वगत्या पताकाशब्दवाच्य इति ||२६||
अब [स्वार्थसिद्धिके साथ-साथ परार्थसिद्धि-पर उपकरणभूत चेतनसाधन रूप] पताका का निरूपण करते हैं
[सूत्र २७]-पताकाका होना अपरिहार्य नहीं है किन्तु] यदि वह चेतन स्वार्थसिद्धिसहित] परार्थकारी हो तो [मुखसन्धिसे लेकर विमर्शसन्धि-पर्यन्त 'पताका' [नायक हो सकता है । निर्वहरणसन्धिमें उसकी स्थिति नहीं रहनी चाहिए ॥२६॥
जो चेतन हेतु अपने स्वार्थ के लिए प्रवृत्त होनेपर भी दूसरे अर्थात् प्रधान नायकके प्रयोजनको सिद्ध करता है वह [प्रधान-नायकको प्रसिद्धि एवं प्राशस्त्यका हेतु होनेसे पताका के समान [गोरण रूपसे] 'पताका' [कहलाता है। सुग्रीव विभीषणादि रामादिके द्वारा उपकृत होकर रामादिके और अपने दोनों के उपकारक होकर रामादिको प्रसिद्धि और प्राशस्त्य को सिद्ध करते हैं [इसलिए 'पताका' कहलाते हैं] । 'चेत्' इस पदसे [यह बात सूचित की है कि यदि फलसाइनमें सहायक की अपेक्षा रखने वाले नायकोंके चरित्रका वर्णन किया जाता है तब तो 'पताका' होता है किन्तु अपने ही पराक्रमको बहुत समझने वाले [नायकके चरित्र के वर्णन] में [पताका-नायक नहीं होता है। इसी प्रकार 'प्रकरी' में भी समझना चाहिए । 'प्रा-विमर्श' इस पदमें जब प्राङ् 'मर्यादा' अर्थमें है तब ['तेन विना मर्यादा' उस विमर्शसन्धिको छोड़कर मुख प्रतिमुख और गर्भसन्धियोंमें, और जब 'अभिविधि' में [प्राङ्का प्रयोग माने तो 'तेन सह अभिविधिः' उस विमर्श सन्धिको भी सम्मिलित करके] विमर्श-सन्धि पर्यन्त पताका [नायकका चरित्र] समाप्त होता है। [अधिकसे अधिक] वहाँ तक ही पताकानायक के अपने फलकी सिद्धि हो जाती है। यदि निर्वहण-सन्धिमें भी उस [पताका-नायक] के फल का वर्णन किया जाय तो समान काल तक रहने वाले [प्रधान-नायक और पताका-नायकके चरित्रोंमें] उपकार्य-उपकारक भार सम्भव न होनेसे उस [पताका-नायक के द्वारा प्रधाननायकका उपकार नहीं हो सकेगा। [विमर्श-सन्धि पर्यन्त हो] फलकी सिद्धि हो जानेपर तो [निर्वहरणसन्धिमें] वह प्रधान-नायकके फलके लिए ही यत्न करता हुआ [अब पताका न रहनेपर भी] भूतपूर्व गतिसे 'पताका' शब्दसे कहा जाता है ॥२६॥
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का० ३०, सू० २८ ] प्रथमो विवेकः अथ पताकाप्रस्तावात् पताकास्थानकानां सामान्यलक्षणं भेदांश्चाह-- [सूत्र २८]----चिन्तितार्थात्परप्राप्ति-कृते यत्रोपकारिणी।
पताकास्थानकं तत्त चतुर्दा मण्डनं क्वचित् ॥३०॥ 'अर्थः' कर्म-करणव्युत्पत्त्या प्रयोजनमुपायश्च । अध्यवसितात्प्रयोजनादुपायाच अन्यस्य प्रयोजनस्योपायस्य च प्राप्ति यतिवृत्ते उपकारिणी, प्रधानफलोपकारिका तदितिवृत्तं पताकास्थानकम् । उपकारित्वमात्रसाम्यात् पताकास्थानस्य तुल्यं पताका. स्थानकम् । न पुनः पताकास्थानमेव । अत एव तु-शब्दः पताकास्वरूपात् व्यतिरेक द्योतयति । मण्डनमिति एकमपि पताकास्थान नाट्य-काव्यालङ्करणं किं पुन? त्रीणि चत्वारि वा। एतद्विहीनं रूपकं न कार्यमित्यर्थः । क्वचिदिति अन्तरा. न्तरा, न तु पताकावन्निरन्तरम् । अत एव पताकातो भिद्यते ॥३०॥ पताकास्थान--
इस प्रकार पताकाका प्रकरण होनेसे [उससे मिलते हुए] पताका स्थानके सामान्य लक्षण और उसके भेदोंको कहते हैं
[सूत्र २८]-~सोचे हुए अर्थ [अर्थात् प्रयोजन तथा उपाय] से दूसरे [प्रयोजन या उपाय रूप] अर्थको [अनायास] प्राप्ति जहाँ इतिवृत्त [नाख्यान-वस्तु] में उपकारिणी हो जाती है वह [नाटकमें निरन्तर न रहकर] कहीं-कहीं होने वाला चार प्रकारका 'पताकास्थान' [नाट्य रूप काव्यका शोभाजनक] सौन्दर्याधायक होता है ।३०।।
'अर्थ' शब्दसे [अध्यंते इति अर्थः] इस प्रकारको कर्ममें व्युत्पत्तिसे प्रयोजन, तपा [अर्थ्यते येन स अर्थः] इस प्रकारको करण व्युत्पत्तिसे उपाय [दोनों 'अर्थ' कहलाते हैं। निश्चित किये हुए प्रयोजन तथा उपायसे भिन्न प्रयोजन तथा उपायकी प्राप्ति जहां कथाभाग की उपफारिणी अर्थात् प्रधान फलको [सिद्धि में] उपकारिणी होती है वह कथाभाग [इतिवृत्त) 'पताकास्थानक' कहलाता है। पहले कहे हुए पताका-नायकके समान प्रधानकै] उपकारकत्वमात्रको समानताके कारण पताकाकी अर्थात् पताका नायकके स्थान अर्थात् स्थितिके तुल्य होनेसे यह 'पताकास्थान' [कहलाता है। [पताका नायक की स्थिति रूप न होनेसे] 'पताकास्थानीय' ही नहीं है। [अर्थात् पताकास्थान पताका स्वरूप नहीं किन्तु प्रधानोपकारकत्वको समानताके कारण पताकाके तुल्य है। इसीलिए कारिकामें पाया हुआ] तु-शब्द पताकाके स्वरूपसे [पताकास्थानके भेदको सूचित करता है । 'मण्डनम्' इससे [एकवचन] से [यह सूचित किया है कि एक स्थानपर प्रयुक्त] । एक भी पताकास्थान नाट्यकाव्यका सौन्दर्याधायक हो जाता है फिर दो, तीन, चार [प्रकारके कहे जाने वाले अथवा अधिक स्थानोंपर प्रयुक्त हुए पताकास्थानों का तो कहना ही क्या है। [नाटकमें विशेष रूपसे पताकास्थानका प्रयोग अवश्य करना चाहिए इसके बिना रूपक [की रचना को नहीं करना चाहिए यह अभिप्राय है। [कारिकामें पार हुए] 'क्वचित्' इस [पद से [यह सूचित किया है कि नाटकमें] बीच-बीचमें [कहीं-कहीं ही पताकास्थानोंका प्रयोग करना चाहिए] पताका [नायक] के समान निरन्तर [उसकी उपस्थिति प्रावश्यक नहीं है इसीलिए [पताका स्थान] पताका [नायक से भिन्न [माना जाता है] ॥३०॥
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७२ ]
नाट्यदर्पणम्
का० ३१, सू०६२ अथ मायभेदम:
[त्र २६] -सहसेष्टार्थलाभश्च
'सहस' इत्याकस्मिकत्वेन सभ्यानां चमत्कार हेतुत्वमाह । यथा 'रत्नावल्यां' सागरिकायां पाशावलम्बनप्रवृत्तायां वासवदत्तेति मन्यमानो राजा पाशाद्विमोचयति, तदा तदुक्त्या सागरिकां प्रत्यभिज्ञायाह
"कयं मे प्रिया सागरिका ? अलमलमतिमात्रेण ।" इत्यादि । अत्रान्यत्प्रयोजनं चिन्तितं, वैचित्र्यकारि च प्रयोजनान्तरं सम्पन्नम्।
यथा वा 'नलविलासे', विदूषक-कापालिकनियुद्धनिवारणायोद्यतस्य राज्ञो दमयन्तीप्रतिकृतिलाभ इति ।।
अन्यस्मिन्नुपाये चिन्तिते सहसोपायान्तरप्राप्तिर्यथा नागानन्दे जीमूतवाहनस्य शंखचूडादप्राप्तवध्यपटस्य कञ्चुकिना वासोयुगलार्पणमिति ।
अब [चार प्रकारके पताकास्थानों से प्रथम भेदको कहते हैं
[सूत्र २६]-सहसा [माकस्मिक रूपसे प्राप्त होनेके कारण सम्योंके लिए चमत्कारअनक] इट वस्तुको प्राप्ति का वर्णन प्रथम प्रकारका पताकास्थान कहलाता है ।
'सहसा' इस [प] से माकस्मिक रूपसे प्राप्त होनेके कारण सभ्योंके चमत्कारका हेतुत्व सूचित किया है । जैसे रत्नावली में [तृतीय अंकमें] सागरिकाके [अपने गलेमें] फांसी लगानेमें प्रवृत्त होनेपर राजा उदयन उसको [अपनी मुख्य रानी] वासवदत्ता समझकर फांसी से छुड़ाते हैं । उस समय उसकी उक्तिको सुनकर सागरिकाको पहिचान कर कहते हैं कि___ "अरे यह तो मेरी प्रिया सागरिका है । हटो हटो यह प्रतिसाहस मत करो।" इत्यादि ।
यहाँ राजा उदयनने वासवदत्ताको पाशसे छुड़ाने रूपमें] कुछ दूसरा ही प्रयोजन सोचा था किन्तु [ सभ्यों के लिए और स्वयं राजाकेलिए भी ] चमत्कार-जनक [प्राकस्मिक मचिन्तित रूपसे सागरिकाकी प्राप्ति रूप] कुछ और ही [प्रयोजन अर्थात् कार्य हो गया।
अथवा जैसे नलविलासमें विदूषक और कापालिककी लड़ाईको बचानेकेलिए उद्यत [अर्थात् लड़ाई बचानेका प्रयत्न करते समय] राजा [नल] को [विदूषकके बगल में से निकल कर गिरी हुई] दमयन्तीकी तस्वीरकी प्राप्ति ।
___ इससे पूर्व कारिकामें पाए हुए 'अर्थ' शब्दकी व्याख्या करते समय कर्म और करण रूप दो प्रकारको व्युत्पत्ति मान कर 'अर्थ' शब्द के 'प्रयोजन' तथा 'उपाय' दो अर्थ किये थे। 'सहसेष्टार्थलाभश्च' इस प्रथम पताकास्थानके लक्षण में भी 'अर्थ' शब्दके ये दोनों प्रर्थ अभिप्रेत हैं । इनमें से 'प्रयोजन' रूप प्रर्थको लेकर दो उदाहरण दे दिए । अब प्रागे 'उपाय' रूप पर्थको लेकर भी एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं
अन्य उपायके सोचनेपर सहसा [अचिन्तित प्राकस्मिक रूपसे ] मन्य उपायकी प्राप्ति [का उदाहरण] जैसे नागानन्दमें जीमूतवाहनको शंखचूड़से वध्यके [धारण करने योग्य] वस्त्रोंकी प्राप्ति न होनेपर [अकस्मात् प्राकर] कंचुकीके द्वारा [लाल रंगके कपड़े के जोड़ोंका समर्पण [इर वस्तुको पूर्ति करता है ।
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का० ३१, सू०३० ] प्रथमो विवेकः अथ द्वितीयमाह
सूत्र ३०]-श्लिष्टसातिशया च वाक् । श्लिष्टा प्रकृतसम्बद्धा, सातिशया अत्यद्भुतार्था । यथा 'रामाभ्युदये' द्वितीयेऽके सीतां प्रति सुग्रीवस्य सन्देशोक्तिः
"बहुनात्र किमुक्तेन पारेऽपि जलधेः स्थिताम् ।
अचिरादेव देवि त्वामाहरिष्यति राघवः ॥" अत्र 'पारेऽपि जलधः' इत्यतिशयोक्तिरपि सीतां प्रति तथैव वृत्तत्वात् कृतसम्बद्धा । अत्र चातिशयोक्तिमात्राच्चिन्तितात् प्रयोजनादपरं तथैव सीताहरणं प्रयोजनं सम्पन्नमिति सामान्यलक्षणम् ।
इस प्रकार प्रथम प्रकारके पताकास्थानके तीन उदाहरण ग्रन्थकारने यहाँ प्रस्तुत किए हैं। इन तीनों उदाहरणोंमें नायकके द्वारा प्रचिन्तित, अत्यन्त आकस्मिक रूपसे इष्ट प्रयोजन या इष्ट उपाय रूप इष्ट अर्थकी प्राप्ति हो गई है। इसलिए ये तीनों उदाहरण प्रथम प्रकारके पताकास्थानके हुए। अब द्वितीय प्रकारके पताकास्थानका वर्णन प्रारम्भ करते हैं । द्वितीय पताकास्थानमें सहसा इष्ट की प्राप्ति नहीं होती है किन्तु प्रकृत प्रकरण से सम्बद्ध कोई ऐसी अद्भुत बात किसी पात्रके मुखसे निकल जाती है जिसका प्रागेके कथाभागमें अद्भुत प्रभाव दिखलाई देता है। इसीका वर्णन मागे करते हैं।
अब द्वितीय पताकास्थान को कहते हैं
[सूत्र ३०] -[श्लिष्टा] प्रकृत-सम्बद्ध और [सातिशया] अद्भुतार्थक वचन [द्वितीय प्रकारके पताकास्थान कहलाते हैं।
'ग्लिष्टा' प्रकृत [प्रकरण] से सम्बद्ध और 'सातिशया' अर्थात् अत्यन्त अद्भुत अर्थवाली [वारणीका आकस्मिक प्रयोग द्वितीय प्रकारका पताकास्थान कहलाता है] । जैसे रामाभ्युदयमें द्वितीय अङ्कमें सीताके प्रति सुग्रीवको [निम्नलिखित] सन्देशोक्ति [में पाया जाता है
"अधिक क्या कहा जाय, समुद्र के पार स्थित होनेपर भी हे देवी! रामचन्द्रजी आपको शीघ्र ही ले प्रावेंगे।"
यहाँ 'पारेऽपि जलधेः स्थिताम्' समुद्र-पार रहनेपर भी यह अतिशयोक्ति के रूपमें ही कहा गया] भी सीताके प्रति उसी प्रकार घटित होनेसे प्रकृतसे सम्बद्ध है। और यहाँ अतिशयोक्तिमात्रसे विचारित प्रयोजनसे भिन्न उसी प्रकार [समुद्रपारसे सीताका ग्राहरण रूप प्रयोजन हो गया। यह [पताकास्थानका] सामान्य लक्षण भी इसमें समन्वित हो जाता है।
इसी प्रकार की उक्ति भवभूतिके उरत्तरामचरित्र में भी पाई जाती है। वसिष्ठ का प्रजाको प्रसन्न रखनेका सन्देश पाकर रामचन्द्रजी अष्टावक्र मुनिसे कहते हैं
स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि ।
आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा ॥ __ अर्थात् लोकके पाराधन के लिए प्रजाकी प्रसन्नताके लिए मुझे स्नेह, दया, सौख्य और यहां तक कि स्वयं जानकीको भी छोड़ देने में कोई कष्ट नहीं होगा। यहां यह बात तो पति
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७४ ]
अथ तृतीयमाह
नाट्यदर्पणम्
[ सूत्र ३१] द्वयर्था च
1
'वाकू' इति इह, उत्तरत्र च सम्बध्यते । द्वयर्था श्लेषादिवशात् प्रस्तुतोपयोग्यर्थान्तरो पक्षेपिणी । यथा
[ का० ३१, सू० ३१
'प्रीत्युत्कर्षकृतो दशामुदयनस्येन्दोरिवो दीक्षते ।'
अत्र हि सन्ध्यावर्णनप्रयोजनेन काव्यं प्रयुक्तं, सागरिकां प्रति उदयनाभिव्यक्तिलक्षणं प्रयोजनान्तरं सम्पादयति । तथा च सागरिका
'अयं सो राया उदयणो, जस्स श्रहं ता देण दिरणा ।' इति । [श्रयं स राजा उदयनो यस्याहं तातेन दत्ता । इति संस्कृतम् ] | शयोक्ति रूपमें ही कही गई थी किन्तु उसके बाद शीघ्र हो रामचन्द्र ने अपने स्नेह, दया भौर सौख्य के साथ जानकीका भी परित्याग कर दिया है ।
इस द्वितीय पताकास्थानके लक्षरण में 'लिष्ट' पदका प्रयोग किया गया है किन्तु उसका अर्थ केवल 'प्रकृत से सम्बद्ध' इतना ही है । यहाँ 'लिष्ट' पद दो अर्थके वाचक शब्दका ग्राहक नहीं है । प्रगले तृतीय पताकास्थान में 'श्लिष्ट' श्रर्थात् द्वद्यथंक पदके प्रयोग द्वारा चिन्तित अर्थ से भिन्न प्रयोजन या उपाय रूप अन्य श्रर्थकी प्रतीति होती है । इस भेदके कारण तृतीय पताकास्थान पहिले और दूसरे दोनों पताकास्थानोंसे भिन्न है । पहिले और दूसरे किसी भी पताकास्थान में 'लिष्ट' अर्थात् द्वयर्थक पदका प्रयोग नहीं होता है। तृतीय पताकास्थानका आधार द्वघर्थक शब्द ही होता है। इसी कारण उसको प्रागे भिन्न रूप में कहते हैं ।
अब तीसरे पताकास्थानको कहते हैं
[सूत्र ३१] दो श्रथवाली [वारणीका प्रयोग करके चिन्तित अर्थसे अन्य अर्थकी प्रतीति जिसमें होती है वह तृतीय पताका स्थान कहलाता है ] ।
[द्वितीय पताकास्थानके लक्षरणमें कहा. हुआ] 'वाक्' यह पद यहां [तृतीय पताकास्थान के लक्षण में] और प्रागे [चतुर्थ पताकास्थानके लक्षरण में] भी सम्बद्ध होता है। 'दो भ्रयंवाली' अर्थात् श्लेषादिके कारण प्रस्तुतके उपयोगी दूसरे अर्थका बोध करनेवाली वाणी जैसे [रत्नावली नाटिका प्रथम श्रङ्कके प्रायः प्रन्तमें वैतालिक राजाकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि ] — "उदीयमान चन्द्रमाको नयनानन्ददायिनी किरणोंके समान [राजा लोग उदयन राजाके चरणोंकी ओर] देख रहे हैं।"
यहाँ संध्या-वर्णनके प्रयोजनसे काव्यका [लोकका ] प्रयोग किया गया है किन्तु वह सागरिका के प्रति उदयन [राजा रूप अर्थ] की अभिव्यक्ति रूप दूसरे प्रयोजनको सम्पादित, कर रहा है। इसी लिए [ इस इलोकको सुनने के बाद] सागरिका [ कहती है कि ]
[ अच्छा ] ये वे राजा उदयन हैं जिन्हें पिताजीने मुझे [ अपने संकल्प द्वारा ] दिया था ।
इस श्लोक में सन्ध्याका वर्णन प्रकृत है । उसमें 'उदयनस्य' यह पद श्लिष्ट अर्थात् दो प्रथका बोधक है । सामान्य रूपसे उसे नवोदित चन्द्रमाके लिए प्रयुक्त किया गया है किन्तु उससे उदयन राजाका भी बोध हुआ है । प्रतः यह तृतीय पताकास्थान है ।
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का० ३१, सू० ३२ ] प्रथमो विवेकः
[ ७५ अथ चतुर्थमाह
[सूत्र ३२] अप्रकटे श्लिष्ट-स्पष्ट-प्रत्यभिधापि च ॥३१॥
अप्रकटे प्रत्युत्तरकारकेणाविज्ञातेऽर्थे केचिदुपक्षिप्ते सति श्लिष्टमन्याभिप्रायप्रयुक्तमपि प्रस्तुतसम्बद्धं, स्पष्ट विशेषनिश्चयकारि, यत् प्रत्यभिधानं प्रत्युत्तरं, तद्रूपा च वागिति ।
यथा मुद्राराक्षसेचाणक्य:-अपि नाम दुरात्मा राक्षसो गृह्य त ? एवमस्फुटेऽर्थे उपक्षिप्ते[प्रविश्य] सिद्धार्थकः-अय्य गहितो। [आर्य गृहीतः । इति संस्कृतम् । ] इति प्रत्युत्तरं प्रस्तुतार्थसम्बद्धं विशेषनिश्चयकारि च । अत एव पुनः-- अब चतुर्थ [पताकास्थान] को कहते हैं ।
[सूत्र ३२]---अप्रकट [अर्थात् उत्तर देनेवाले व्यक्तियोंको भी अज्ञात] अर्थके उपस्थित होने पर [अन्य अभिप्रायसे कहा जानेपर भी प्रकृत प्रकरणमें] सुसम्बद्ध तथा [उस प्रस्तुत अप्रकट प्रर्थके विषयमें विशेष रूपसे निश्चय करानेवाला] स्पष्ट उत्तर भी [चतुर्थ प्रकारका पताकास्थान कहलाता है । ३१ ।
अप्रकट अर्थात् प्रत्युत्तर देनेवालेको अविदित अर्थको किसी [वक्ताके द्वारा] प्रस्तुत किए जानेपर श्लिष्ट अर्थात् अन्य अभिप्रायसे कथित होनेपर भी प्रकृत अर्थसे सम्बद्ध और स्पष्ट प्रर्थात् [उस प्रस्तुत अप्रकट अर्थ के विषय में] विशेष निश्क्य करानेवाला जो उत्तर उस रूपकी वाणी [चतुर्थ प्रकारका पताकास्थान कहलाती है ।
जैसे मुद्राराक्षसमें-- "चाणक्य--क्या दुरात्मा राक्षस पकड़ में आ सकेगा ?"
इस प्रकारके अप्रकट [अर्थात् उत्तर देनेवाले सिद्धार्थकको जिस बातका ज्ञान नहीं है, अर्थात् सिद्धार्थकने इस बातको नहीं सुना है उस प्रकारके] अर्थके प्रस्तुत होनेपर
[अन्य कार्यवश चाणक्यके पास प्राया हुआ] सिद्धार्थक [प्रविष्ट होकर कहता है] प्रार्य [पाका संदेश] ग्रहण कर लिया।"
सिद्धार्थकके प्रवेशके पहिले चारणक्यने स्वगत रूपमें 'अपि नाम दुरात्मा राक्षसो गृह्य त' यह वाक्य कहा था। सिद्धार्थकने उस वाक्यको नहीं सुना था। उसे इस बातका कोई ज्ञान नहीं था। किन्तु चाणक्य के इस वाक्यके उच्चारण करने के साथ ही अन्य कार्यवश चाणक्य के पास पाया हुमा सिद्धार्थक प्रविष्ट होकर कहता है 'पार्य गृहीतः' । तब इस वाक्य का चाणक्य के वाक्य के साथ सम्बन्ध बन जाता है और उससे चाणक्यको यह प्रतीत होता है कि 'आर्य दुरात्मा राक्षस पकड़ लिया गया समझो।'
इस प्रकार सिद्धार्थक द्वारा कहा गया ] यह प्रत्युत्तर प्रस्तुत [ राक्षस. ग्रहण रूप] प्रर्थसे सम्बद्ध AST विशेष रूपसे [राक्षसके पकड़े जानेका] निश्चय करनेवाला [हो जाता है।
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नाट्यदर्पणम्
[ का० ३२, सू० ३३
चाणक्य:- [ सहर्षमात्मगतम् ] हन्त गृहीतो दुरात्मा राक्षसः । इति । इदं प्रत्युत्तरं सन्देश - ग्रहणज्ञापनप्रयोजनेन प्रयुक्त, चाणक्यस्य राक्षसग्रहं निश्चाययति इति सामान्यलक्षणम् ।
प्रत्येकं चकारश्चतुर्णामपि नाटकं प्रति प्राधान्यख्यापनार्थ इति ||३१|| अथ प्रकरीलक्षणमाह
[ सूत्र ३३] - प्रकरी चेत् क्वचिद्भावी चेतनोऽन्यप्रयोजनः ।
'क्वचिद्भावी' वृत्तैकदेशव्यापी । अन्यस्य ' मुख्यनायकस्य [प्रयोजनमेव ] प्रयोजनं यस्य । स चेतनः सहकारी प्रकर्षेण स्वार्थानपेक्षया करोतीति प्रकरी । श्रणादिके इ-प्रत्यये संज्ञाशब्दत्वेन स्त्रीत्वम् । यथा रामप्रबन्धेषु जटायुः । 'चेत्' इत्यनेन पताकावदनवश्यम्भावित्वमाह । क्वचिद्भावित्वात् स्वार्थनिरपेक्षत्वाच्च पताकातो भेद इति ।
७६]
इसी लिए फिर [चाणक्य, सिद्धार्थक के इस कथनको अपने वाक्य के साथ जोड़कर और उसे राक्षसके पकड़ने में अपनी सफलताका निश्चयकारक मानकर अपने मनमें प्रसन्न होकर कहता है कि - ]
"चारणक्य - [ सहर्ष अपने मनमें कहता है] बड़ी प्रसन्नता की बात है कि राक्षस पकड़ में आ गया ।"
[यहाँ सिद्धार्थक द्वारा अन्य अर्थ में प्रयुक्त वाक्य रूप ] यह उत्तर [ चाणक्यके] संदेशको ग्रहण कर लेनेके सूचित करनेके प्रयोजन से [सिद्धार्थकने] प्रयुक्त किया था किन्तु [ वह ] चारणक्य को राक्षसके पकड़े जानेका निश्चय कराता है । इस लिए [ उसमें 'चिन्तितार्थ परप्राप्ति' यह पताकास्थानका] सामान्यलक्षरण [समन्वित हो जाता ] है ।
[पताकास्थानके पूर्वोक्त चारों लक्षणों में] प्रत्येक के साथ प्रयुक्त चकार नाटक के प्रति चारोंको प्रधानताको सूचित करनेकेलिए है ॥ ३१ ॥
अब प्रकरीका लक्षरण कहते हैं
[ सूत्र ३२] - यदि [ स्वार्थानपेक्ष रूपसे केवल ] अन्य [श्रर्थात् मुख्य नायक ] के प्रयोजन को सिद्ध करनेवाला चेतन [सहायक नाटक के अधिक भागमें व्यापक न होकर केवल ] किसी एक देश में होनेवाला ही हो तो उसे 'प्रकरी' कहा जाता है. ।
[कारिकामें श्राए हुए ] 'क्वचिद्भावी' [इसका अर्थ] कथाके एकदेशमें व्यापक [यह है ] । 'अन्यस्य' अर्थात् मुख्य नायकका प्रयोजन ही जिस [सहायकका] का प्रयोजन है वह ['अन्यप्रयोजनः' हुआ ] । वह चेतन सहकारी प्रकर्षेण अर्थात् स्वार्थको अपेक्षा न करता हुआ [निष्कामभावसे मुख्य नायकके कार्यको] करता है । इस लिए [अर्थात् प्रकर्षेण करोतीति प्रकरी इस व्युत्पत्ति के अनुसार ] 'प्रकरी' [ कहलाता ] है । प्र-उपसर्ग-पूर्वक कृ-धातुसे] श्रौणादिक इप्रत्यय करने पर संज्ञा शब्द होनेसे स्त्रीत्व [सूचक ङीप् प्रत्यय होकर प्रकरी पद बनता ] है । जैसे राम - [ चरितको लेकर लिखे गए ] प्रबन्धोंमें जटायु [स्वार्थानपेक्ष चेतन सहायक, वृत्तके केवल एकदेशमें स्थित होनेसे 'प्रकरी' कहा जाता है] । 'चेत' इस [पद] से पताकाके समान [ प्रकरीकी भी ] श्रवश्यम्भाविताका निषेध सूचित होता है । [श्रर्थात् नाटकमें पताका प्रौर १. अन्यस्य मुख्य नायकस्यैवं प्रयोजनं यस्य ।
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का० ३२, सू० ३४ ] प्रथमो विवेकः
[ ७७ अथ बिन्दुलक्षयति
[सूत्र ३४]--हेतोश्छेदेऽनुसन्धानं बहूनां बिन्दुराफलात् ॥३२॥
उपायानुष्ठानस्यावश्यकर्तव्यादिना व्यवधाने सति नायकप्रतिनायकामात्यादीनां यदनुसन्धान ज्ञान मसौ ज्ञानविचारणफललाभोपायत्वाद् बिन्दुः । सर्वव्यापिस्वाद्वा जले तेलबिन्दुरिव बिन्दुः । आफलादिति बीजवत्समरतेतिवृत्तव्यापकत्वमाह। केवल बीजं मुख सन्धेरेव प्रभृति निबध्यते, बिन्दुस्तु तदनन्तरमिति |
___ इह तावन्नायकसहाय-उभयेभ्यस्त्रिधा फलसिद्धिः। तत्र सर्वेषां स्वव्यापारविच्छित्तावनुसन्धानात्मा बिन्दुर्निबध्यते । यथा च नायकेन प्रतिपक्षेतिवृत्तमनुसन्धीयते, तथा प्रतिपक्षणापि नायकस्यतिवृत्तमनुसन्धीयते । अत एव बहूनामित्युपात्तम् । प्रकरी दोनोंका चरित्र अपरिहार्य नहीं है ] । केवल एक देशमें होनेके कारण [वचिद्भावित्वात्] और स्वार्थानपेक्ष होनेसे [प्रकरी-नायकका] पताका-नायकसे भेद है ।
पांच उपायों में से बीज, पताका और प्रकरी इन तीन उपायोंका वर्णन हो गया। अब चोथे उपाय 'बिन्दु' का बर्णन प्रसङ्ग-प्राप्त है। उपायोंका चेतन अचेतन रूपमें जो दो प्रकार का विभाग किया गया था। उसमें पताका, प्रकरी तथा बिन्दु इन तीनको चेतन साधनों के वर्गमें रखा था। उनमें से भी पताका और प्रकरी रूप दो चेतन साधनोंका वर्णन हो चुका अब तीसरे चेतन साधन 'बिन्दु' का वर्णन करते हैं।
अब बिन्दुका लक्षण करते हैं---
[सूत्र ३४] -[अन्य आवश्यक कार्योंके कारण हेतु [अर्थात् उपायानुष्ठान ] का विस्मरण हो जानेपर भी फिरसे स्मरण 'बिन्दु' कहलाता है। और वह [नायक प्रतिनायक अमात्य प्रादि रूप] बहुतोंका तथा फलप्राप्ति-पर्यन्त [सारे नाटकमें व्याप्त हो सकता है ।३२॥
श्रावश्यक कर्तव्य प्रादिके द्वारा उपायानुष्ठानका [व्यवधान] विच्छेद हो जानेपर नायक, प्रतिनायक, अमात्यादिके द्वारा जो उसका पुनः स्मरण [रूप ज्ञान] वह ज्ञान और विचारके फल-प्राप्तिका उपाय होनेसे 'बिन्दु' [कहलाता है । अथवा [नाटकमें] सर्वत्र व्यापक होनेसे [जलमें तेलका बिन्दु जैसे सारे जलमें फैल जाता है इस प्रकार सारे नाटकमें व्यापक होनेसे] जलमें तैल-बिन्दुके समान 'बिन्दु' [कहलाता है। 'ग्राफलात्' इस [पद से बीजके समान [बिन्दुकी भी] सारे कथाभाममें व्याप्तिको सूचित किया है। [अर्थात् बीजके समान ही बिन्दु भी सारे नाटकमें अन्त तक विद्यमान रहता है। अन्तर] केवल [इतना है कि बीज मुखसन्धिके प्रारम्भसे ही निबद्ध होता है और बिन्दु उसके बाद [प्रारम्भ होता है। किन्तु दोनों नाटकमें अन्त तक व्यापक रहते हैं यह दोनोंकी समानता है।
यहाँ [नाटकमें] नायक के द्वारा होने वाली]२ सहायक [क द्वारा तथा३ उन दोनों से मिलकर तीन प्रकारको फलसिद्धि होती है। [उनमें सबको ही अपने व्यापारका विच्छेद हो जाने पर पुनः स्मृति हो सकती है इसलिए नायक और उनके सहायक अमात्यादि] उन सब के ही [सम्बन्धसे अपने-अपने विस्मृत व्यापारको स्मृति रूप 'बिन्दु' को रचना होती है। [और न केवल नायक तथा उसके सहायकोंसे सम्बद्ध 'बिन्दु' की ही रचना होती है अपितु प्रतिनायकके सम्बन्धसे भी। क्योंकि जैसे नायक, प्रतिनायकके वृत्त [चरित्र का अनुसन्धान
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७]
नाट्यदर्पणम्
[ का० ३२, सू० ३४
नायक विन्दुर्यथा अस्मदुपज्ञे 'राघवाभ्युदये' पश्चमेऽङ्के सुग्रीवचरितश्रवणेनातिपतिते सीतापहारदुःखे सीतां स्मृत्वा रामः-
कलत्रमपि रक्षितु निजमशक्तमात्मान्वयप्रसूतमभिवीक्ष्य मामहद्द जातलज्जाज्वरः | प्रकाशयितुमक्षमः क्षणमपि स्वमास्यं जने । प्रयाति चरमोदधी 'पतितुमेप देवो रविः ॥ इत्यनेन पुनः सीतापहारदुःखमानुसंहितमिति ।
[ ध्यान] करता है इसी प्रकार प्रतिनायक भी नायकके चरित्रका ध्यान [अनुसन्धान] करता है [ इसलिए प्रतिनायककी दृष्टि भी बिन्दुका विन्यास नाटक में हो सकता है ] । इसी लिए [कारिका में] 'बहूनां' इस [पद] का ग्रहण किया गया है ।
'बिन्दु' का यह सामान्य लक्षण किया गया है। इस लक्षण के देखनेसे प्रतीत होता है। कि नायक या उसके सहायक अमात्यादि अथवा प्रतिनायक और उसके सहायक श्रमात्यादिके अन्य आवश्यक कार्यों में व्यापृत हो जाने से कुछ समय के लिए मुख्य बीज रूप उपायकी विस्मृति या विच्छेद हो जाने के बाद उसकी जो पुनः स्मृति होती है उसको 'बिन्दु' कहते हैं । इस स्मृति या अनुसन्धानके बिना नाटकका कार्य आगे नहीं बढ़ सकता है इसलिए इसका होना श्रावश्यक है । एक नाटकमें एक ही जगह नहीं अनेक बार इसका उपयोग किया जाता है । उपायोंका चेतन-अचेतन रूप जो द्विविध विभाग किया गया था उसमें इस बिन्दुको चेतन उपायों में गिना गया था । पर यह बिन्दु स्वयं तो चेतन रूप नहीं है । चेतनका व्यापार रूप है । परन्तु उस स्मरण या अनुसन्धान रूप अचेतन व्यापारको चेतन रूप में मानकर ही चेतन उपायोंके वर्ग में बिन्दुका अन्तर्भाव किया गया है। आगे बिन्दुके उदाहरण प्रस्तुत करते हैं ।
उनमें नायक बिन्दु [का उदाहरण] जैसे हमारे बनाए राघवाभ्युदय [नाटक] में पञ्चम में सुग्रीवके चरित्रके सुननेसे सीताके अपहरणके दुःखके [ कुछ समय के लिए ] विस्मृत हो जानेपर [ फिर दुबारा ] सीताको स्मरण करके राम [निम्न श्लोक कहते हैं ]"अपनी स्त्रीकी रक्षा करनेमें भी श्रसमर्थ मुझको अपने [सूर्यवंश ] वंशमें उत्पन्न हुआ देखकर लज्जासे सन्तप्त [ सूर्यदेव ] क्षरण भरको भी लोगोंको अपना मुख दिखलानेमें अक्षम हो जानेके कारण यह सूर्य देव पश्चिम सागर में डूबने जा रहे हैं ।
इस [ श्लोक ] के द्वारा [कुछ देर के लिए विस्मृत हुए ] सीतापहरणके दुःखको [रामचन्द्र ] पुनः स्मरण करते हैं।
इस प्रकार यह नायक के 'बिन्दु' का उदाहरण है। इसी प्रकारका दूसरा उदाहरण आगे 'तापसवत्सराज' चरितसे देते हैं। उसमें नाटकके नायक वत्सराज उदयन मृगया आदि व्यापारों में लग जाने से कुछ समय के लिए अपनी रानी वासवदत्ताको भूल जाते हैं । इसी बीच में राजा के मृगया - शिविर में जहाँ कि वासवदत्ता ठहरी हुई थी आग लग जाने और रानीके उसी शिविर के भीतर जल जानेका समाचार राजाको मिलता है । उस समाचारको सुनकर राजा को पुनः वासवदत्ताकी स्मृति हो आती है । उसी प्रसङ्ग में से तापसवत्सराजचरितका श्लोक ग्रन्थकारने यहाँ उद्धृत किया है ।
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का० ३२, सू० ३४
यथा वा 'तापसवत्सराजचरिते' मृगयादिभिरन्यैश्चामात्यव्यापारैर्वत्सराजस्य विच्छिन्नेऽपि प्रियासमागमौत्सुक्यरुपे प्रयोजने, द्वितीयेऽङ्के राजा वासवदत्तां दग्धामुपश्रुत्याह
प्रथमो विवेक:
रुमण्वन् ! मुञ्च मुख,
क्षुद्राग्ने स्मुतोऽपि धूमकलुषात् क्षिप्रस्थितेः सर्वतो ज्वाला ताण्डवकारिणः किमपरं भीतोऽस्मि भाग्यैर्मम । अन्तर्बद्धपदं न पश्यसि सखे शोकानलं तेन माम् एवं वारयसि प्रियानुसरणात् पापः करोम्यत्र किम् ।। इति वासवदत्तायामाग्रह विशेषात् तदेवानुसंहितम् । एवमत्रोत्तरेष्वप्यद्वेषु नायकस्य बिन्दुर्निबद्धोऽस्ति
1
[ ७६
एवं सहाय उभय-विपक्षाणामपि स्वव्यापारानुसन्धानात्मा बिन्दुर्द्रष्टव्यः ।
॥ ३२ ॥
अथवा जैसे तापसकासराजचरितमें मृगया श्रादि तथा प्रमात्योंके [द्वारा आयोजित ] अन्य व्यापारोंके कारण वत्सराज [ उदयन ] को प्रिया [ वासवदत्ता ] के समागमके औत्सुक्य रूप प्रयोजनके विस्मृत हो जानेपर भी द्वितीय में राजा [ वत्सराज उदयन शिविर में ] वासवदत्ता जल जाने [ के समाचार ] को सुनकर कहते हैं
"राजा --- रुमण्वन् छोड़ो ! मुझे [मत पकड़ो] छोड़ दो ।
वैसे भी घूमते कलुषित, क्षणिक स्थितिवाले और चारों ओर ज्वालानोंका ताण्डव करनेवाले इस क्षुद्र अग्निसे मैं अपने भाग्यके दोषसे ही डर गया हूँ। और क्या [ कहा जाय ] हे मित्र ! रुमण्वन् ] तुम मेरे हृदयके भीतर भरे हुए शोकानलको नहीं देख पा रहे हो इसी लिए [अग्नि में जलकर मरनेके द्वारा ] प्रियाका अनुसरण करने से मुझे रोक रहे हो। मैं प्रभागा श्रम क्या करूँ ।
वासवदत्ता प्रति विशेष प्राग्रह होनेसे [ उसके श्रग्निमें जलकर मर जानेका समाचार सुनकर राजाको] उसीका स्मरण हो श्राया है [ जिसको वे मृगया श्रादिके प्रसङ्गमें भूल गये थे ] | इसी प्रकार [ तापसवत्सराजके] अगले श्रङ्कोंसे भी नायकके 'बिन्दु' [अर्थात् अन्य आवश्यक कार्यो प्रसङ्गसे कुछ समय के लिए विस्मृत अर्थको स्मृति ] का निबन्धन किया गया है ।
यहाँ 'तदेवानुसंहितम्' में 'तत्' पदसे 'प्रियासमागमोत्सुक्य का ग्रहण करना चाहिए । 'तदेव' में 'तत्' पद नपुंसक -लिङ्ग है इस लिए उससे न तो वासवदत्ताका ग्रहण हो सकता है और न प्राग्रहका ग्रहण हो सकता है । इस लिए यहाँ वासवदत्त का स्मरण या आग्रहका स्मरण नहीं अपितु प्रिया के समागमके औत्सुक्यका स्मरण हुआ है ।
इसी भाँति [नायक ] सहाय, अथवा [नायक श्रौर सहाय ] दोनों और विपक्ष [श्रर्थात् प्रतिनायक और उसके सहायक ] का भी अपने [ विस्मृत] व्यापारका स्मरण एप 'बिन्दु' समझ लेना चाहिए। [ श्रर्थात् उनके उदाहरण नाटकोंमेंसे स्वयं ढूँढ लेने चाहिए] ।
ऊपर २८वीं कारिका में बीज, पताका, प्रकरी, बिन्दु तथा कार्य रूप पाँच उपाय कहे गए थे उनमें से बिन्दु- पर्यन्त चार उपायोंका विशेष विवेचन
क्रमशः "यहाँ तक कर दिया |
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]
अथ कार्य विवृणोति
८०
दम्
[ सूत्र ३५ ] -- साध्ये बीजसहकारी कार्यम् ।
प्रधाननायक - पताकानायक - प्रकरीनायकैः साध्ये प्रधानफलत्वेनाभिप्रेते, बीजस्य प्रारम्भावस्थोपक्षिप्तस्य प्रधानोपायस्य, सहकारी सम्पूर्णतादायी सैन्य-कोश दुर्गसामाद्युपायलक्षणो द्रव्य-गुण- क्रियाप्रभृतिः सर्वोऽर्थः, चेतनैः कार्यते फलमिति कार्यम् ।
अयमत्रोपायानां निबन्धसंक्षेपः ।
सहायानपेक्षाणां नायकानां वृत्ते बीज बिन्दु - कार्याणि त्रय एवोपायाः । सहायापेक्षाणां तु पताका प्रकारीभ्यां अन्यतरया वा सह पञ्च चत्वारो वेति ।
[ का० ३३, सू० ३५
अत्र अन्तिम उपाय 'कार्य' शेष रह जाता है इसका लक्षण आदि करते हैं । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है चेतन और अचेतन वर्ग में जो उपायोंका द्विविध विभाग किया गया है उसमें सबसे प्रथम उपाय बीज तथा सबसे अन्तिम उपाय कार्य इन दो उपायोंको श्रचेतन उपायोंके वर्ग में रखा गया था । वैसे कार्यका जो लक्षण आगे किया जा रहा है उसमें भी कार्यको बीज का सहकारी बतलाया गया है । इस लिए इन दोनोंका परस्पर विशेष सम्बन्ध है ।
ब कार्यकी व्याख्या करते हैं
[ सूत्र ३५ ] - साध्य [अर्थात् प्रधान फलकी सिद्धि] में बीजका सहकारी [ द्रव्य, गुरण श्रादि प्रचेतन साधन ] 'कार्य' [कहलाता ] है ।
प्रधान नायक, पताका नायक या प्रकरीनायकोंके द्वारा साध्य अर्थात् प्रधान फल रूप से अभिप्रेत [ विषय ] में [ बोजस्य प्रर्थात् ] प्रारम्भावस्था के रूपमें श्रारोपित बीज अर्थात् प्रधानोपाय रूप बीजका सहकारी श्रर्थात् [ उसको] पूर्णता तक पहुँचानेवाला सैन्य, कोश, दुर्ग, सामादि उपाय रूप द्रव्य, गुण, क्रिया श्रादि सारा ही [ श्रचेतन साधनभूत] अर्थ, चेतनों के द्वारा फल [ साध्यकी सिद्धिमें विशेष रूपसे प्रवृत्त अर्थात् उपयुक्त ] कराया जाता है । इस ['चेतनः कार्यते फलमिति कार्यम्' इस व्युत्पत्ति ] से 'कार्य' [कहलाता ] है ।
यह पाँचों प्रकार के उपायोंका संक्षिप्त रूपमें वर्णन हुआ।
ये पाँचों उपाय सर्वत्र अपरिहार्य नहीं हैं । किन्तु श्रावश्यकता के अनुसार ही उनका उपयोग किया जाता है। जिन नायकोंको सहायकोंकी विशेष प्रावश्यकता नहीं होती है और स्वयं अपने सामर्थ्य से हो जो सारे कार्यको सिद्ध कर लेते हैं उनके चरित्रको लेकर लिखे गये नाटकों में पताका' तथा 'प्रकरी' का कोई उपयोग न होने से उनकी रचना नहीं की जाती है । उस दशा में इन नाटकों में तीन ही उपायोंका प्रयोग होता है । सहायककी श्रावश्यकता जिनको पड़ती है उनके चरित्रमें श्रावश्यकतानुसार केवल पताका या केवल प्रकरी किसी एक का उपयोग होनेपर चार, श्रीर दोनोंका उपयोग होनेपर पांचों उपाय काममें भाते हैं । इसी बातको ग्रंथकार अगली पंक्ति में कहते हैं
सहायकको अपेक्षा न रखनेवाले नायकोंके चरित्र में होज. उपाय [प्रयुक्त] होते हैं । और सहायकों को अपेक्षा रखनेवाले पताका तथा प्रकरी दोनोंको मिलाकर पाँच, अथवा उन दोनोंमेंसे तीनके साथ ] मिलाकर चार [ उपायोंका प्रयुक्त किए जाते ] हैं।
दु श्रौर कार्य तीन ही को [ के चरित्रमें] में तो किसी [ एकको बीजादि
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का० ३३, सू० ३५ ]
प्रथमो विदेसः प्रथामीषां मुख्यत्वव्यवस्थायां हेतुमाइ--
[सूत्र ३५]-कार्यस्तु मुख्यता । कार्यैः फलं प्रत्युपकारविशेषैः ! पुनर्बीजादिनां मुख्यता बाहुल्यं प्राधान्यं वा निबन्धनीयम् । तत्र बीजबिन्द्वोस्तावन्मुख्यत्वमेव, सर्वव्यापित्वात् । पताका-प्रकरीकार्याणां तु मुख्यफलं प्रत्युपयोगापेक्षया एकस्य योन्त्रयाणां वा मुख्यत्वमन्येषां चामुख्यत्वम् ।
तत्र पताकाया मुख्यत्वं यथा श्रीशूद्रक-विरचितायां मृच्छकटिकायां पूर्वोपकारोपगृहीतस्य भार्यकस्य ।
प्रकर्या यथा--वीरनागनिबद्धार्या कुन्दमालायां सौतायास्तद पत्ययोश्च पालन-संयोजनाभ्यां स्वफलनिरपेक्षस्य बाल्मीकेः ।
उभयोयथा--रामप्रबन्धेषु सुग्रीव-विभीषण जटायु-हनूमदगन्दादीनां च । पताका-प्रकोरल्पत्वे अभावे वा सर्वत्र कार्यस्य मुख्यत्वम् ।
उपायोकी मुख्यता के नियायक हेतु--
[पांचों उपायोंके लक्षण प्रादि करनेके बाद अब इनकी मुख्यता [और गौणत्व] की व्यवस्थामें हेतु बतलाते हैं -
[सूत्र ३५]--[फलके प्रति उपकार विशेष रूप कायोंके अनुसार मुख्यता [निर्धारित] होती है।
कार्य प्रर्थात् फलोंके प्रति उपकार-विशेषके द्वारा बीजादि [उपायों] की मुख्यता अर्थात् बाहुल्य अथवा प्रधानत्वकी रचना करनी चाहिए । उन [पाँचों उपायों मेंसे [प्रचेतन उपाय बीज तथा [चेतन उपाय] बिन्दु इन दोनोंके [नाटकमें मादिसे अन्त तक] सर्वत्र व्यापक होनेसे मुख्यता ही होती है। पताका, प्रकरी पौर कार्य [इन तीनों उपायों की तो मुख्य फलके प्रति उपयोगिताको दृष्टिसे [कहीं] एकको [कहीं] दोको अथवा [कहीं] तीनोंकी मुख्यता और शेषकी गौणता [प्रमुख्यता होती है।
उनमेंसे पताकाको मुल्यता [का उदाहरण से भी शूद्रक [कवि विरचित मृच्छकटिक [नाटक] में पूर्व उपकारके कारण वशीभूत प्रार्यक [नामक पताकानायक को [मुल्यता पाई जाती है।
प्रकरी [ नायक] को [ मुख्यताका उदाहरण ] जैसे वीरनाग विरचित 'कुन्दमाला' [नाटक] में [रामद्वारा परित्यक्ता गभिणी] सीता और उसके [कुश लव दोनों] पुत्रोंका पालन तथा [उन दोनों पुत्रों सहित सीताका रामके साथ] संयोग कराने [रूप कार्य] के द्वारा अपने किसी फलको अपेक्षा न रखनेवाले [ इसलिए प्रकरी नायकके लक्षणसे युक्त ] बाल्मीकिकी [मुल्यता पाई जाती है।
[पताकानायक तथा प्रकरीनायक] दोनोंकी [मुख्यताका उदाहरण] जैसे राम-प्रबन्धों में [अर्थात् रामके चरित्रको लेकर लिखे गए नाटकोंमें] सुग्रीव, विभीषण, जटायु, हनुमान प्रङ्गदाविको [मुख्यता पाई जाती है।
पताका-नायक तथा प्रकरी-नायकके गौण होनेपर [अल्पत्वे] प्रथवा सर्वथा न होनेपर [प्रभावे वा] सदा कार्यको ही मुल्यता रहती है।
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८२ ]
नाट्यदर्पणम्
अथ पताकायाः प्रधानत्वे समर्थिते सन्धिप्रसङ्ग निरस्यति-
[ सूत्र ३६ ] - पताकायाः प्रधानत्वेऽनुसन्धिः सूचनादिभिः ||३३||
पताकावृत्तस्य प्राधान्यनिबन्धेऽपि अनुसन्धि-मुख्यवृत्तसन्ध्यनुगतः सन्धिभवति । गौणः सन्धिरित्यर्थः । यद्यपि पताकायाः प्रधानत्वे मुख्ये तिवृत्तवत् सन्धयः स्युस्तथापि तेऽनुसन्धयो मुख्यसन्ध्युपयोगित्वेन गौणत्वात् । श्रपरथा पताका वृतस्य प्रासङ्गिकत्वं न स्यात् । सन्धिसंख्यावृद्धिश्च स्यात् । श्रत एव ते सूचनादिभिर्भवन्ति । आदिशब्दात् क्वचिदूह्यन्ते, लेशतो निबध्यन्ते च । न च मुख्यसन्धिभ्यः पृथग् गण्यन्ते । अनुसन्धिरिति एकवचनमविवक्षितम् । मुख्य निर्वाहयोरवश्यम्भावित्वात् । तेन द्विप्रभृतयोऽनुसन्धयो भवन्ति । यथा 'मयापुष्पके'
दुर्ग भूमिमात्य भृत्य - सुहृदो दाराः शरीरं धनं, मानो वैरिविमर्द-सौख्यममरप्रख्येण सख्योन्नतिः । यस्मात् सर्वमिदं प्रियाविरहिणास्तस्याद्य शक्ता वयं, न स्वेच्छासुलभैः पथोऽपि घटने शैलाभखण्डैरपि ॥
[पाँचों साधनोंमेंसे पताकानायकका भी प्राधान्य कहीं हो सकता है यह बात अभी कही जा चुकी हैं। इस प्रकार ] पताकाके प्रधानत्वका समर्थन करनेपर [ उसके चरित्र में श्रागे कहे जानेवाले ] सन्धियोंकी भी प्राप्ति होती है, उसका निराकरण करते हैं
[ सूत्र ३६ ] - पताकाकी प्रधानता होनेपर [मुख्य सन्धि नहीं होते हैं किन्तु ] सूचना श्रादिके द्वारा अनुसंधि [गौरग संधि] होते हैं । ३३ ।
[ का० ३३, सू० ३६
पताका [tree] के प्राधान्यका वर्णन करनेपर भी [ मुख्य संधि नहीं होते है किन्तु ] 'प्रनुसंधि' अर्थात् मुख्य संधिके अनुगत संधि अर्थात् गौण संधि होते हैं यह अभिप्राय है । afrater [नायक ] के प्रधान होनेपर मुख्य [नायक] के चरित्र के समान [ उसमें भी मुख्य ] संधि होने चाहिए फिर भी वे [मुख्य संधि न होकर ] मुख्य संधिके उपयोगी [श्रङ्ग] होनेसे गौर होनेके कारण 'अनुसंधि' [कहलाते ] हैं । अन्यथा [ यदि पताका नायकके वृत्तमें प्रयुक्त संधिको मुख्य संधि ही माना जाय तो] पताका नायकके चरित्रकी गौरणता [प्रासङ्गिकत्व ] नहीं बनेगी । इसलिए [ गौरण संधि होनेके काररण ] वे [ अनुसंधि ] सूचना श्रादिके द्वारा प्रकाशित होते हैं। आदि शब्दसे [ यह भी सूचित होता है कि ] कहीं [उनकी] कल्पना की जाती है और कहीं अंशतः [ अनुसंधिके रूपमें ] रचना की जाती है । किन्तु मुख्य संघियों से अलग उनकी गणना नहीं की जाती है। 'अनुसंधि:' [पद में प्रयुक्त] एकवचन श्रविवक्षित है। क्योंकि [eater नायकके चरितमें भी] मुख और निर्वहरण रूप दो [ अनुसंधियों ] का होना श्रावश्यक है । इसलिए [एक संधि तो होता ही नहीं है] दोसे लेकर [ तीन-चार प्रादि] अनुसंधि होते हैं। जैसे माया- पुष्पकमें
जिन [ रामचन्द्रजी ] की कृपासे [हमको] दुर्ग, भूमि, श्रमात्य, मित्र, स्त्री, शरीर, धन, मान, शत्रुनाशका सुख और देव-कल्प [ रामचन्द्रजी ] के साथ मित्रता यह सब प्राप्त हुआ है, आज हम प्रियासे विरहित उनके लिए यथेष्ट रूपमें प्राप्त होनेवाले पर्वत के समान बड़े-बड़े शिलाखण्डों से [समुद्रके ऊपर पुल बनाकर ] मार्गका निर्मारण करनेमें भी समर्थ नहीं हो रहे हैं [ यह लज्जा और दुःखकी बात है ] ।
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का० ३३, सू० ३६ ] प्रथमो विवेकः
[ ८३ आत्र मुखादिसन्धिनिबन्धनीयं रामेण सह मैत्र्यादिकमभ्युह्यमुपकरुप्य सुग्रीववचनाद् रामशक्तिसम्पन्नाभ्युदयं निर्वहणस्यैव वृत्तमुपनिबद्धमिति । यथा वा राघवाभ्युदये
मित्रं दर्शनमात्रतोऽपि गणितः किष्किन्धमागत्य च, क्षुण्णः क्षुद्रमतिः स साहसगतिर्दत्ता सतारा मही। इत्थं तेन वितन्वता न विहितं देवेन रामेण किं,
तत् सत्यं मम तस्य कर्तुमुचितं प्राणैरपि प्रीणनम् ।। अत्र 'मित्रम्' इत्यादिना मुखं, 'किष्किन्ध' इत्यादिना प्रतिमुखं, 'क्षुएण:' इत्यादिना विमर्शः, 'दत्ता सतारा मही' इति निर्वहणं सुग्रीववचनात् प्रकाशितम् । उत्तरार्धेन तु मुख्य नायकानुयायित्वदर्शनादनुसन्धित्वं ख्यापितमिति ।
प्रकर्यास्तु प्राधान्येऽपि स्वल्पवृत्तत्वात् सन्ध्यनुसन्धिचिन्तैव नास्तीति ।।३।।
यहाँ [अर्थात् इस उदाहरणमें] मुखसंधिमें वर्णनीय रामचन्द्र के साथ मैत्री प्रावि कल्पनीय अर्थको सुग्रीवके वचनसे कल्पना करके, [अर्थात् उसका साक्षात् रूपसे वर्णन न करके रामचन्द्रको शक्तिसे प्राप्त प्रभ्युदरा रूप निर्वहरण [संधिमें वर्णन किए जाने योग्य] वृत्तका ही वर्णन किया है।
___ इस प्रकार इसमें मुखसन्धि तथा निर्वहण संधिके अर्थकोंका दो अनुसंधियोंके रूपमें समावेश किया गया है । इसलिए यह दो अनुसंधियों के समावेशका उदाहरण है। आगे चार अनुसंधियोंके प्रयोगका उदाहरण राघवाभ्युदयसे देते हैं।
अथवा जैसे 'राघवाभ्युदय' [नाटक] में [चार अनुसंधियोंका समावेश निम्न श्लोकमें पताका-नायक सुग्रीवके वृत्तांतमें पाया जाता है]
[जिन रामचन्द्रजीने मुझको देखते ही अपना मित्र मान लिया, [१ मुखसंधि], उसके बाद किष्किन्धामें प्राकर [२ प्रतिमुख संघि], क्षुद्रमति और साहसगति [अर्थात् सृष्टतापूर्वक परदारापहरण आदि कार्य करनेवाले] उस दुष्ट [बालि] का नाश किया [३ विमर्श संषि],
और [मेरी पत्नी] ताराके सहित पृथिवी [अर्थात् मेरा राज्य मुझको] प्रदान की [४ निर्वहरण संघि] । इस प्रकार [मेरे हितके समस्त कार्य] करते हुए भगवान् रामचन्द्रजीने [मेरे लिए क्या नहीं किया [अर्थात् सब कुछ किया, मेरे सारे मनोरथ पूर्ण कर दिए । इसलिए यह बिल्कुल सत्य है कि मुझे अपने प्राणों [के मूल्य] से भी [अर्थात् प्राणोंको देकर भी] उनकी प्रसन्नताका सम्पादन करना चाहिए।
यहां [अर्थात् इस उदाहरणमें] "मित्रम्' इत्यादिसे मुख [संधि], किष्किन्धामें प्राकर इत्यादिसे प्रतिमुख [संघि], 'क्षुण्णः' [बालिको मारा] इत्यादिसे विमर्श [संधि], तथा 'दत्ता सतारा मही' ताराके साथ मेरा राज्य मुझको प्रदान किया इससे निर्वहण [संघि] [इन चार अनुसंधियों को सुग्रीवके वचनसे प्रकाशित किया है। [श्लोकके] उत्तरार्द्धसे [अपना] मुख्य नायकका अनुयायित्व दिखलाकर [उन मुखादि संघियोंका] अनुसंधित्व [गौण संषित्व भी] सूचित किया है।
. प्रकरी [ नायक ] का तो प्राधान्य होनेपर भी [उसका] थोड़ासा ही वृत्त होनेके कारण [उसमें] संधि या अनुसंषि प्राविको चिन्ता ही नहीं होती है ॥ ३३ ॥
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ना
८४ ]
नाट्यदर्पणम् . [ का० ३४, सू० ३७ (३) अथ उपायानन्तरमुद्दिष्टां दशां लक्षयितु तदानुद्दिशति[सूत्र ३७] -प्रारम्भ-यत्न-प्राप्त्याशा-नियताप्ति-फलागमाः।
नेतुवृत्ते प्रधाने स्युः पश्चावस्था ध्रुवं क्रमात् ॥३४॥ 'नेतुः', मुख्यं फलं प्रति बीजाद्युपायान प्रयोक्तुः । 'अवस्थाः' प्रधानवृत्तविषये काय-वाङ्-मनसा व्यापाराः । 'ध्रुवम्' इति प्रधाने वृत्ते पञ्चानामवश्यम्भावमाह । तेन प्रासङ्गिके द्वयादयो अनुसन्धिवद् गौणाश्च भवन्ति । नाटकलक्षणप्रस्तावान्नाटके, नाट कलक्षणानुसारिषु प्रकरण-नाटिका-प्रकरणीषु चायं नियमः । तेन व्यायोगादी यथालक्षणं न्यूनावस्थत्वमपि न दोषाय । 'कमात्' इति उद्देशोक्तक्रमेणैव निबध्यन्ते, नापायवत् क्रमाक्रमाभ्याम् । प्रेक्षापूर्वकारिणां हि प्रथममारम्भः, ततः प्रयत्नः, ततः सम्भावना, ततो निश्चयः, ततः फल प्राप्तिरित्ययमेव क्रम इति ||४|| (३) पांच दशाओं का निरूपण
- पांचवीं कारिकामें नाटकका लक्षण करते समय १ अङ्क और २ उपायके अनन्तर तीसरे 'दशा' शब्दका प्रयोग किया गया था। 'दशा' भी नाटकका एक मुख्य भाग है। इसलिए उपायोंका निरूपण कर चुकनेके बाद 'दशा' का निरूपण प्रारम्भ करते हैं । विष्कम्भक आदि पाँच अर्थोपक्षेपकोंका वर्णन करने के बाद बीज आदि पाँच उपायोंका वर्णन किया गया था। उसी प्रकार अवस्थाओं और पागे कही जाने वाली सन्धियोंकी भी संख्या पांच-पांच है । इस समय पहले पाँच अवस्थानोंका वर्णन करते हैं।
अब उपायोंके बाद उद्दिष्ट 'दशा' का लक्षण करनेकेलिए उसके भेदोंको गिनाते हैं ['उद्दिशति' नाममात्रेण कथयति]
सूत्र ३७]-नायकके मुल्य चरित्र [वृत्त] में १ प्रारम्भ, २ यत्न, ३ प्राप्त्याशा, ४ नियताप्ति और ५ फलागम ये पांच अवस्थाएँ [इसी] क्रमसे मोर अवश्य होती हैं [इसमें पांच अवस्थानोंका उद्देशमात्र किया गया है। उनके लक्षण मागे करेंगे ॥३४॥
'नेता' अर्थात् मुख्य फल [को प्राप्ति के प्रति बोजादि उपायोंका प्रयोग करने वालोंके, [चरित्रमें पाँच अवस्थाएँ अवश्य होती हैं] । 'अवस्था' अर्थात् प्रधान चरित्रके विषयमें शरीर, वारणी तथा मनके व्यापार । 'ध्रुवम्' इस [पद] से प्रधान [नायक के चरित्रमें [वृत्ते पांचों [अवस्थामों की अपरिहार्यता सूचित की है। इसलिए प्रासङ्गिक [अर्थात् पताका प्रकरी प्रादिके चरित्रमें] अनुसन्धियोंके समान दो प्रादि [अवस्थाएँ] भी हो सकती हैं और वे गौरव हैं। नाटकके लक्षरणका प्रकरण होनेसे नाटकमें तथा नाटकके लक्षणका अनुसरण करने वाले प्रकरण नाटिका तथा प्रकरणी में भी यही नियम है [अर्थात् पाँचों प्रवस्थानोंका होना अनिवार्य है । इसलिए व्यायोग आदिमें उनके लक्षणोंके अनुसार [पाँचों प्रवस्थानोंका प्रयोग न करके] न्यूनत्व [अर्थात् दो-तीन-चार अवस्थानोंका प्रयोग] भी दोषाधायक नहीं होता है। 'कमात्' इस [पद] से [यह सूचित किया है कि पाँचों अवस्थाएँ] इसी क्रमसे निबद्ध करनी चाहिए उपायोंके समान कम या व्यतिक्रमसे नहीं । बुद्धिमान् पुरुषोंके कार्यमें पहले प्रारम्भ, फिर उसके बाद प्रयत्न, उसके बाद सम्भावना, उसके बाद निश्चय और अन्तमें फलप्राप्ति यही क्रम रहता है। [इसलिए नाटक में भी इसी क्रमसे अवस्थाओंका समावेश करना चाहिए] ॥३॥
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का० ३५, सू० ३८ ] प्रथमो विवेकः
[ ८५ (१) अथारम्भं व्युत्पादयति
सूत्र ३८]-फलायौत्सुक्यमारम्भः फलं मुख्यं साध्यम् । तदर्थमौत्सुक्यं उपायविषयं, अनेनोपायेन एतत सिध्यतीति । स्मरणोत्कण्ठादि कर्म, तदनुगुणो व्यापारश्चोभयमारम्भः। उपाविषयमोत्सुक्यं, औत्सुक्यानुगुणो व्यापारश्चारम्भावस्थेत्यर्थः ।
यथा वेणीसंहारे प्रथमेऽके सहदेवं प्रति"भीमः-अथ भगवान कृष्णः केन पणेन सुयोधनं प्रति मन्धिं कतु प्रहितः । सहदेवः-आर्य ननु पञ्चभिर्मामैः।" इत्यादि। यथा वा नलविलासे प्रथमेऽके--"नेपथ्ये तूर्यध्वनिः । . कलहंसः--देव युगादिदेव-देवातायतन-सन्ध्यावलिपटहध्वनिग्यम् ॥
राजा- [स्वगतम् ] अहो परमं शकुनम् । [पुनर्विमृश्य प्रेषयाम्येतं कलहंसं दमयन्त्याः पार्वे । एषा च मकरिका विदर्भभाषा-वेषाचारकुशला सहैव यातु।" इत्यादीति।
पिछली कारिकामें पांचों प्रवस्थानोंका 'उद्देश' अर्थात् नाममात्रसे कथन किया गया था । अब उनमेंसे एक-एक अवस्थाका क्रमसे लक्षण मादि करते हैं। उनमें सब पहले प्रारम्भ अवस्थाका लक्षण देते हैं। (१) भारम्भावस्था
अब प्रारम्भ [अवस्था] का विवेचन करते हैं[सूत्र ३८] --फल [की प्राप्ति केलिए प्रोत्सुक्य 'प्रारम्भ' [अवस्था कहलाती है।
फल [का पर्य] मुख्य साध्य [है। उसके लिए उपाय-विषयक औत्सुक्य अर्थात् इस उपाय [के करने से यह [फल] सिद्ध होगा इस प्रकारका स्मरण तथा उत्कण्ठादि कर्म, और उसके अनुकूल व्यापार दोनों प्रारम्भ [अवस्था होते हैं। प्रर्थात् उपाय-विषयक औत्सुक्य, और प्रौत्सुक्यके अनुरूप व्यापार [दोनों प्रारम्भावस्था है यह अभिप्राय है।
जैसे वेणीसंहारके प्रथम प्र सहदेवके प्रति [भीम कहते हैं कि]--
"भीम-अच्छा भगवान् कृष्णको किन शर्तोपर दुर्योधनके पास सन्धि करनेके लिए भेजा है ?
सहदेव-प्रायं पांच गांवोंके द्वारा।" इत्यादि । अथवा जैसे नलविलासके प्रथम अङ्क में"नेपथ्य में वाद्यध्वनि [सुनाई देता है ।
कलहंस --देव, युगादिदेवके मन्दिर [देवतायतन] के संध्याकालीन पूजनके समयके वाद्योंका यह ध्वनि है।
राजा---[स्वगत] अहो यह बड़ा अच्छा शकुन है। [फिर विचार कर] तब इस कलहंसको दमयन्तीके पास भेज दूं। और विदर्भ देशकी भाषा वेष तथा प्राचार प्रादिको जानने वाली यह मकरिका [दासी] भी उसके साथ ही भेज दी जाय ।" इत्यादि ।
___ यह सब मुख्य फलकी प्राप्तिके लिए उपाय विषयक प्रोत्सुक्य तथा तदनुरूप व्यापारके सूचक हैं । अतः ये प्रारम्भावस्थाका प्रदर्शन करते हैं।
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८६ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० ३५, सू० ३८
एतासु चावस्थासु नायक-सहाय प्रतिपक्ष दैवव्यापाराणां श्रन्यतमस्य, द्वयोत्रयाणां चतुर्णां च एकस्यां द्वयोस्तिसृषु चतसृषु पश्वस्वपि च यथायथमुन्मीलने वृत्तिः । फल योगस्तु मुख्य नायकस्यैव ।
न च दैवात् कर्मणः प्रारम्भानुन्मीलने मानुषकर्माभावान्नाटकस्याव्युत्पत्तिहेतुत्वम् । दैव मानुषव्यापारयोः परस्परापेक्षयैव शुभाशुभफलसाधकत्वात् । दैवादप्यर्थं पश्यन्तः पुण्यमुपचेतु मानुषे कर्मण प्रवर्तेरन । उपभोगाच्च क्षीयमाणमननुकूलं दैवं प्रति विहितप्राणात्ययाः प्रतीक्षेरन्निति सर्वत्र दैवस्य मानुषव्यापारापेक्षित्वात् देवायत्तफलान्यपि रूपकारिण सामाजिकानां बुद्धिसंस्काराय निबन्धनीयानि । यथा पुष्पदूतिकं मृच्छकटिका चेति ।
ये प्रारम्भावस्था के लक्षण और उदाहरण ऊपर के अनुच्छेदोंमें दिखलाए हैं । अब अगले अनुच्छेद में ग्रन्थकार यह दिखलाना चाहते हैं कि इन अवस्थाओं का प्रदर्शन नायकके व्यापार द्वारा भी हो सकता है और कहीं प्रतिनायक, सहायक तथा देव-व्यापारके द्वारा भी सकता है । और वह केवल श्रारम्भावस्था में ही नहीं अपितु सभी श्रवस्थानों में हो सकता है । कभी-कभी नायक, सहायक, प्रतिपक्ष मोर देव ब्यापारों में से दो, तीन या चारों मिलकर किसी अवस्था विशेषका उन्मीलन कराते हैं । कभी ये चारों या इनमें से एक, दो, या तीन किसी एक अवस्थाका अथवा एकसे अधिक दो, तीन, चार या पांचों अवस्थाओं का उन्मीलन कराते हैं । इसी बात को अगले अनुच्छेद में इस प्रकार दिया है
इन [पाँचों] प्रवस्थानोंमें १ नायक, २ सहायक [ पताका प्रकरी], ३ प्रतिनायक और ४ देव [इन चारों व्यापारोंके] मेंसे किसी एक या दो या तीन अथवा चारोंका, किसी एक [अवस्थाके उन्मीलन] में, अथवा दो या तीन प्रथवा चार या पाँचों [प्रवस्थानों] के उन्मीलन में श्रावश्यकतानुसार व्यापार होता है । [श्रवस्थाओं का प्रकाशन या उन्मीलन चाहे किसीके भी व्यापार से हो किन्तु ] फलको प्राप्ति [ सर्वव] मुख्य नायकको ही होती है ।
इन अवस्थाओं के प्रकाशन में देव व्यापार भी कारण हो सकता है यह बात अभी इस अनुच्छेद में कही है । देव व्यापार को पंचविध अवस्थाओं के प्रकाशन में कारण मानने पर यह प्रश्न उठ सकता है कि नाटकका उद्देश मनोरञ्जनके साथ कर्तव्या कर्तव्यकी शिक्षा देना ही है । जब देवको कारण मानेंगे तो उसपर मनुष्यका नियंत्रण न होने के कारण देवाश्रित कार्योंसे कोई शिक्षा नहीं मिलेगी । यह शङ्का उठाकर उसका समाधान अगले अनुच्छेद में करते हैंदेवके व्यापारसे प्रारम्भ श्रादि [ अवस्थाओं ] के उन्मीलन होनेपर उसमें मानुष व्यापारका प्रभाव होनेसे नाटकको शिक्षा प्रदानका हेतु नहीं कहा जा सकेगा। यह बात नहीं erent चाहिए । [ क्योंकि ] देव तथा मानुष-व्यापार दोनों एक-दूसरेकी सहायतासे हो शुभ और अशुभ फलके साधक होते हैं। [दूसरी बात यह भी है कि] भाग्यसे भी प्रर्थकी प्राति देखकर [देखने वाले ] पुण्यका सश्चय करनेके लिए मनुष्य साध्य कार्य में प्रवृत्त हो सकते हैं । और जीवन संकटमें पड़ जानेपर भी [विहितप्राणात्ययाः] प्रतिकूल दैवके उपभोग द्वारा नष्ट होनेकी प्रतीक्षा कर सकते हैं इसलिए वैवके सर्वत्र मानुष-व्यापारको अपेक्षा रखनेसे देवके अधीन ही जिनका फल है इस प्रकारके रूपक भी सामाजिकोंके बुद्धिको शुद्धिकेलिए बनाने ही चाहिए। जैसे 'पुष्पद्वतिक' तथा 'मृच्छकटिक' आदि [देवायत्त फल वाले रूपक हैं ] ।
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का० ३५, सू० ३६ ] प्रथमो विवेकः (२) अथ प्रयत्नमाह
[मूत्र ३६] -प्रयत्नो व्यापृतौ त्वरा ।
मुख्यफलोपायव्यापारणे त्वरा, अनेनोपायेन विना फलं न भवतीति निश्चयेन परमोत्सुक्य, प्रकर्षेण यत्नः प्रयत्नः । औत्सुक्यमात्रमारम्भः, परमोत्सुक्यं तु प्रयत्न इत्यर्थः।
यथा रत्नावल्याम्--
"तहा वि नस्थि अन्नो दसणोवाउ त्ति जहा तहा आलिहिय जधासमीहिदं करइस्सं।
[तथापि नास्त्यन्यो दर्शनोपाय इति यथा-तथा आलिख्य यथासमीहितं करिष्ये।" इति संस्कृतम् ] ।
इत्यादि। यथा वा नलविलासे तृतीयेऽङ्के-- "राजा-[ सत्वरम् ] मकरिके प्रभवसि राजपुत्रीमिह समानेतुम ? मकरिका-अहं दाव पर्यातस्सं । आगमणं उण दिव्वस्स बायत्तं । [अहं तावत् प्रयतिष्ये, आगमनं पुनर्देवस्यायत्तम् । इति संस्कृतम्] | राजा-तहि यतस्व ।"
इत्यादि। उनसे भी सामाजिकोंको शिक्षा मिलती ही है । (२) प्रयत्नावस्था
अब प्रयत्न [के लक्षण प्रादि] को कहते हैं[सूत्र ३६]- [फलके उपायोंके व्यापारमें शीघ्रता [करना] प्रयत्न कहलाता है।
मुख्य फल की प्राप्ति के उपायोंको लागू करनेमें शीघ्रता अर्थात् इस उपायके बिना यह फल सिद्ध नहीं हो सकता है। इस प्रकारके निश्चयके कारण [उपायको प्रयुक्त करनेके लिए] अत्यन्त उत्सुकता, प्रकर्षेण यत्न [प्रयत्न इस व्युत्पत्तिके अनुसार] 'प्रयत्न [कहलाता है। [इसका अभिप्राय यह हुआ कि केवल प्रोत्सुक्य प्रारम्भ [अवस्थामें], प्रौर परम प्रोत्सुक्य प्रयत्न [अवस्थामें परिगणित] होता है।
जैसे रत्नावलीमें
"फिर भी दर्शनका अन्य कोई उपाय नहीं है इसलिए जैसे-तैसे चित्र बनाकर ही अपनी इच्छाको पूर्ति करता हूँ।"
इत्यादि। अथवा जैसे नलविलासके तृतीय प्रमें"राजा-[शीघ्रतासे] मकरिके ! क्या तुम राजपुत्रीको यहां ला सकती हो ? मकरिका-मैं [अपनी प्रोरसे पूरा] प्रयत्न करूंगी। किन्तु माना भगवानके अधीन है। राजा--तो [शीघ्र ही] यत्न करो।" इत्यादि। ये दोनों उदाहरण मुख्य फलकी प्राप्तिके प्रति उपायोंका उपयोग करने के विषय में
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८८ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ३५, सू०४० (३) अब मास्याशा विपत्रायति[सूत्र ४०]-फलसम्भावना किञ्चित् प्राप्त्याशा हेतुमात्रतः ॥३॥
मात्रशब्देन फलान्तरयोगः प्रतिबन्धनिश्चयश्च व्यवहद्यते । पलान्तरासम्बन्धात् अनिश्चितबाधकाभावाच्चोपायादीषत् प्रधानफलस्य या सम्भावन!, न तु निश्चयः, सा प्राप्तेः प्रधानफललाभस्य आशा प्राप्त्याशा ।
यथा वेणीसंहारे तृतीयेऽथे। . "भीमा-कृष्टा येन शिरोरुहेषु पशुना पाश्चालराजात्मजा,
येनास्याः परिधानमप्यपहृतं राज्ञां गुरूणां पुरः । यस्योरः स्थलशोणितासवमहं पातु प्रतिज्ञातवान,
सोऽयं मभुजपञ्जरान्तर्गतः संरक्ष्यतां कौरवा ॥" इत्यत्र दुःशासनवधादशेषकौरवबधसम्भावनेन युधिष्ठिरस्य राज्यप्राप्तिसम्भवः।
यथा वा नलविलासे चतुर्थे स्वयम्बराङ्क"नलः-कलहंस ! मकरिके ! फलितः स एष वां प्रयास: ।
कलहंसः-देव नावयोः प्रयासः किन्तु देवस्य म्वप्नः ।। • त्वरा या परम प्रौत्सुक्यको प्रदर्शित कर रहे हैं। इसलिए ये प्रयत्नावस्था के उदाहरण के रूप में यहाँ प्रस्तुत किए गए हैं। (३) प्राप्त्याशावस्था--
अब प्राप्त्याशा [रूप तृतीयावस्था] को विवेचन करते हैं
[सूत्र ४०] -हेतुमात्रसे फलको [प्रातिको] कुछ सम्भावना [हो जाना] 'प्राप्त्याशा' [कहलाती है । ३५।
मात्र शब्दसे [मुख्य फलके अतिरिक्त या मुख्य फलसे भिन्न] अन्य फलका सम्बन्ध तथा प्रतिबन्धके निश्चयका निवारण किया है। [उस हेतुके साथ] अन्य फलका सम्बन्ध न होनेसे और किसी अनिश्चिम बाधकके अभावरूप उपायसे प्रधान फलको [प्राप्तिको] थोड़ी-सी सम्भावना, न कि निश्चय होना, प्राप्तिकी अर्थात् प्रधान फलकी प्राप्तिको प्राशा होनेसे 'प्राप्त्याशा' [कहलाती है।
जैसे वेणीसंहारके तीसरे अङ्कमें।
"भीम---जिस दुष्ट पशुना] ने पाञ्चालराजकी पुत्रीके केशोंको खींचा था और जिसने राजामों तथा गुरुयोंके सामने उसके वस्त्रोंका भी अपहरण [करनेका यत्न किया। जिसकी छातीका रक्त पीनेकी मैंने प्रतिज्ञा की थी वह [दुष्ट दुःशासन इस समय मेरी भुजाओंके शिकंजेमें प्रा गया है । हे कौरवो ! [तुम्हारी सामर्थ्य हो तो प्राकर अब] इसकी रक्षा कर लो।"
इसमें दुःशासनके वधसे समस्त कौरवोंके वधको सम्भावना हो जानेसे युधिष्ठिरको राज्यप्राप्तिको सम्भावना [प्राप्त्याशा] हो गई है।
अथवा जैसे नलविलासके स्वयम्बराडू नामक चतुर्थ अङ्कमें-- "नल-हे कलहंस ! हे मकरिके ! तुम दोनोंका यह प्रयास सफल हो गया। कलहंस-देव ! हम दोनोंका प्रयास नहीं किन्तु पापका स्वप्न [सफल हुमा ।
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[
८
का० ३६, सू०४१ ] प्रथमो विवेकः
नलः-समभूदिदानी स्वप्नार्थप्राप्याशा।" इति ॥ ३५ ॥ (४) अथ नियताप्तिं स्पष्टयति
[सत्र ४१]-नियताप्तिरुपायानां सामन्यात् कार्य निर्णयः।
प्रधानफलहेतूनां प्रतिबन्धकाभावेन सकलसहकारिसम्पत्या कार्यस्य प्रधानफलस्य निर्णयो भविष्यत्येवेति निश्चयो,नियता फलाव्यभिचारिणी प्राप्निनियताप्तिः । यथा वेणीसंहारे
"कर्ता द्यूतच्छलानां जतुमयशरणोद्दीपनः सोऽभिमानी, राजा दुःशासानादे-गुरुरनुजशतस्यागराजस्य मित्रम । कृष्णाकेशोत्तरीयव्यपनयनपटुः पाण्डवा यम्य दासाः,
क्वास्ते दुर्योधनोऽसौ कथयत न रुषा द्रष्टुमभ्यागतौ स्वः॥" इत्यादिना भीमार्जुनाभ्यामेकशेषदुर्योधनान्वेषणानियताप्तिदशिता।
नल-अब स्वप्नके अर्थको प्राप्तिको प्राशा हो गई है।" इत्यादि ॥३५॥ ४ नियताप्ति अवस्था
प्रारम्भ, यत्न, और प्राप्त्याशा रूप तीन अवस्थामोंका वर्णन कर चुकनेके बाद अब . 'नियताप्ति' रूप चतुर्थ अवस्थाके लक्षणादिका अवसर प्राप्त होता है। अतः प्रागे उसका वर्णन प्रारम्भ करते है।
अब नियताप्ति के लक्षण आदि] को स्पष्ट करते है
[सूत्र ४१]-उपायोंके सफल होजानेसे कार्य [की प्राप्ति का निर्णय 'नियताप्ति' कहलाती है।
प्रधान फलके हेतुओंके, प्रतिबन्धक [कारणों का नाश [प्रभाव हो जानेसे और [उसकी उत्पत्तिके] समस्त सहकारियोंके प्राप्त हो जानेके कारण कार्य अर्थात् प्रधान फलका निर्णय अर्थात् अवश्य होगा हो इस प्रकारका निश्चय, नियता अर्थात् फलको अव्यभिचारिणी निश्चित प्राप्ति होनेसे [इस व्युत्पत्ति के अनुसार] .नियताति [कहलाती है। .
जैसे वेणीसंहारमें--
"[हम पाण्डवोंके साथ] द्यूतका छल [करके हमारा राज्य अपहरण करने वाला, लाखके घर में बन्द करके हम सब] को जलाने वाला, दुःशासन प्रादिका वह अभिमानी राजा, सौ भाइयोंका गुरु [ज्येष्ठ भाई], अङ्गराज [करणं] का मित्र, द्रौपदीके केश और वमों का अपहरण कराने में पटु और [अधिक क्या कहें] पाण्डव जिसके 'दास' हैं वह दुर्योधन अब कहाँ है, बतलानो, हम दोनों [अर्थात् अर्जुन और भीम] क्रोधमे. [उसे मारनेके लिए] नहीं केवल मिलनेके लिए पाए हैं।"
इत्यादि [वचन] से भीम तथा अर्जुनके द्वारा प्रकले बचे हुए दुर्योधनका अन्वेषण किए जानेके कारण [पाण्डवोंको राज्यको प्राप्तिका निश्चय हो जाने से । यह नियताप्ति है।
वेणीसंहारके पञ्चम अङ्कमें कर्ण ग्रादि तक सब सेनापतियों का बंध हो जानेपर और दुर्योधनका जीवन भी सङ्कटमें पड़ जानेपर मूछित दुर्योधनको रथमें लेकर सारथि उसके रथ को भगा लाता है। ऐसी दशामें धृतराष्ट्र तथा गान्धारी दुर्योधनको समझा रहे हैं। उसी समय दुर्योधनको खोजते हुए भीम और अर्जुन उधर पा निकलते हैं। उसी प्रसङ्गमें यह
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१० ]
नाट्यदर्पणम्. [ का० ३६, सू० ४१ यथा वा राघवाभ्युदये षष्ठेऽङ्क ---
"सुग्रीवः- [जाम्बवन्तं प्रति] भवतु याहशस्तादृशो वा स पारदारिको राक्षसस्तथापि देवपादानां वध्यः।
रामः-[ सीतापहार स्मृत्वा सगर्वविशादम् ] कपिराज ! प्रतिराजविक्रमयामिनीतपनोदये भवति सहाये सति--
निहत्य दशकन्धरं सह विपक्षरक्षःकथा-- प्रथाभिरधिसङ्गरं जनकजा ग्रहीष्ये ध्रुवम् । शशाक नस रक्षितु रघुपतिः परेभ्य; प्रिया--
मयं तदपि सम्भवी चिरमकीतिकोलाहलः ॥" - इति। भीमकी उक्ति है। इसको सुनकर कौरवपक्षके मुख्य सेनानायकोंके मारे जाने और दुर्योधनके अकेले ही शेष रह जानेसे अब पाण्डवोंकी राज्य-प्राप्ति प्राय: निश्चित हो जाती है । इसलिए ग्रन्थकारने इसे कार्यकी 'नियताप्ति' रूप चतुर्थी अवस्था के उदाहरण के रूपमें यहाँ प्रस्तुत किया है।
इसी प्रकारका नियताप्तिका दूसरा उदाहरण मागे अपने बनाए राघवाभ्युदय नाटक मेंसे प्रस्तुत करते हैं।
अथवा जैसे राघवाम्युदयके षष्ठाडूमें___ सुप्रीव-[जाम्बवन्तके प्रति कहते हैं कि] हे अमात्य ! वह दूसरेको का अपहरण करने वाला राक्षस [रावण] चाहे कैसा भी [बलवान और विद्वान् हो किन्तु [दूसरेकी श्री का अपहरण करने वाला होनेके कारण वह पापी है प्रत एव] देव पाद [श्री रामचन्द्रजी] के लिए बध्य ही है।
राम-सीताके अपहरणके दुःखको स्मरण करके गर्व तथा विषादके सहित कहते हैं कि हे कपिराज ! शत्रुनो [प्रतिराज] के विक्रम रूप यामिनी [रात्रि के लिए सूर्यके .. समान अर्थात् शत्रुओंके पराक्रमको नष्ट करने वाले प्रापके सहायक होनेपर
शत्रु राक्षसोंकी कथानोंकी परम्पराओंके साथ रावणको युद्धभूमिमें मार कर निश्चय हो मैं [जनकजा] सीताको प्रात कर लूंगा। फिर भी वह रघुपति दूसरोंसे अपनी प्रियाको रक्षा करने में भी समर्थ नहीं हुश्री इस प्रकारका अपकीतिका कोलाहल सदाके लिए हो हो जायगा।
यह। ___ यहां भी फलसिद्धिके बाधकोंका निराकरण और फल-प्राप्ति अर्थात् सीताके उद्धारके अभीष्ट साधनोंके उपस्थित हो जानेसे रामचन्द्रको सीताके उद्धार रूप फलको प्राप्तिका निश्चय हो ही गया है। इसलिए यह भी 'नियताप्ति' रूप चतुर्थी अवस्थाकाके उदाहरण रूपमें प्रस्तुत क्यिा गया है।
इस प्रकार यहाँ तक कार्यकी प्रारम्भ आदि पांच अवस्थानों में से चार अवस्थामोंका लक्षण तथा उदाहरण प्रादि सहित विस्तार-पूर्वक विवेचन हो गया । अब एक 'फलागभ' रूप अन्तिम अवस्था शेष रह जाती है। उसका निरूपण अगले श्लोकार्ध द्वारा प्रस्तुत करते हैं ।
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का० ३६, सू० ४२ ] प्रथमो विवेकः (५) अथ फलागमं निरूपयति-- [सूत्र ४२] -साक्षादिष्टार्थसम्भूति- यकस्य फलागमः ॥३६॥
साक्षात् समनन्तरं, न तु दानादिभ्यः स्वर्गादिफमिव जन्मान्तरभाविनी। इष्टस्याभिप्रेतस्य, अर्थस्य प्रयोजनस्य, सम्यक् पूर्णत्वेन, भूतिरुत्पत्तिः, फलस्यागमः भागमारम्भो न पुनरागतत्वम् । इह फलस्योत्पत्त्यावेशः पश्चम्यवस्था । उत्पन्नस्य तु नायकेन यः सम्भोगस्तत् प्रबन्धस्य मुख्यं साध्यम् । अत एव फले साध्ये नायकस्य पश्वावस्थाः सङ्गच्छन्ते ।
'नायकस्य' इत्यनेन चावस्थान्तराणि सचिव-नायिका-विपक्ष-देवादिव्यापाररपि निबन्ध्यते इत्युक्त भवति । तानि तु तथा निबद्धान्याप फल तो नायक एव पर्यवस्यन्ति । अत एव रत्नावल्यां--प्रारम्भेऽस्मिन् स्वामिनो वृद्धिहेतौ' इत्यादि स्वामिगत्वेनैव यौगन्धरायणेनोक्तम् । फलागमः पुन यकस्यैव निबध्यते । (५) फलागम अवस्था---
अब फलागम [रूप पञ्चमी अवस्था का निरूपण करते हैं
[सूत्र ४२]---नायकको साक्षात् [जन्मान्तरभावी फलके रूपमें नहीं प्रपितु इसी जन्म में कार्यके बाद इष्ट अर्थको प्राप्ति 'फलागम [रूप पञ्चमी अवस्था कहलाती है ॥३६॥
[ कारिकामें पाया हुया ] साक्षात्' पद समन्तर] तुरन्त बादमें [ होनेवाली इार्थ प्रालिका सूचक है], न कि दानादिले प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि फलके समान दूसरे जन्ममें प्राप्त होनेवाली [इष्टार्थ प्राप्तिका ग्रहण उससे होता है] । 'इष्ट' अर्थात् अभिप्रेत [चाहे हुए] 'अर्थ' अर्थात् प्रयोजनका [सम्भूति अर्थातु] सम्यक् पूर्ण रूपसे [भली प्रकार भूति अर्थात् उत्पत्ति । 'फलागम' कहलाती है । फलागन इस पदमें] 'मागम' अर्थात् प्रारम्भ [का ग्रहण करना चाहिए, न कि [प्रागतत्व अर्थात् फलकी सिद्धि । अर्थात् फलको उत्पत्तिका प्रारम्भ पश्चमी [फलागम रूप] अवस्था |से अभिप्रेत है। और [पूर्ण रूपसे उत्पन्न [फल) का जो नायकद्वारा उपयोग है वह प्रबन्धका मुख्य साध्य है । [अवस्था रूप नहीं। इसलिए फलकी 'सिद्धि में नायककी पाँच अवस्थाएँ मानना युक्तिसङ्गत है।
_ 'नायकस्य' इस पद से यह सूचित किया है कि फतागम रूप अन्तिम अवस्थाको छोड़कर अन्य [चारों अवस्थाएँ सचिव, नायिका, प्रतिनायक या देव प्रादिके व्यापारोंके द्वारा भी प्रायोजित हो सकती हैं [किन्तु फलागम रूप अन्तिम अवस्था केवल नायकको ही प्राप्त होती है। यह अभिप्राय है। वे [प्रारम्भ आदि रूप चार अवस्थाएँ] उस प्रकारसे [अर्थात् नायकसे भिन्न सचिव, नायिका, प्रतिनायक तथा देवादि द्वारा निबद्ध होनेपर भी फल रूपमें [अन्तको] नायकमें ही पर्यवसित होती है [अर्थात् शेष चारों अवस्थाओंको प्रायोजना चाहे किसीके भी प्रयत्नसे हो किन्तु अन्तमें उसका फल नायकको ही प्राप्त होना है।। इसीलिए रत्नावली में--- 'स्वामिको वृद्धिके हेतुभूत इस कार्य में' इत्यादि स्वामिगत रूपसे ही [फलका निर्देश करते हुए] यौगन्धरायणने कहा है। [अर्थात् रत्नावलीके प्रारम्भमें प्रारम्भावस्थाका प्रायोजन यद्यपि अमात्य यौगंधरायणने किया है किंतु उसका फल स्वामिगत ही निर्दिष्ट किया है] । फलागम [पञ्चमी अवस्था केवल] नायकको हो वरिणत की जाती है ।
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१२]
यथा वेणीसंहारे षष्ठेऽङ्के
"भूमौ क्षिप्त्वा शरीरं निहितमिदमसृक् चन्दनाभं मयाङ्ग, लक्ष्मीरायें निषण्णा चतुरुदधिपयःसीमया सार्धमुर्व्या । भृत्या मित्राणि योधाः कुरुबल मनुजां दग्धमेतद् रणाग्नौ, नामैकं यद् ब्रवीषि क्षितिप ! तदधुना धार्तराष्ट्रस्य शेषम् ॥” इत्यनेन दुर्योधनं इत्वा भीमसेनेन युधिष्ठिर राज्यसमर्पणफलयोगो दर्शितः । यथा वा राघवाभ्युदये
नाट्यदर्पणम्
[ का० ३६, सू० ४२
"वैदेहीं हृतवांस्तदेष महतः संख्ये विषह्य क्लमान्, चक्रेोत्पाटितकन्धरो दशमुखः कीनाशदासीकृतः ।
फलागम रूप पञ्चमी अवस्था के लक्षणकी व्याख्या में 'साक्षात् ' तथा 'फलागम' इन दो शब्दोंकी व्याख्यापर ग्रन्थकारने विशेष बल दिया है । 'साक्षात् पदसे उन्होंने यह अर्थ लिया है कि इष्ट अर्थकी प्राप्ति दानादि कर्मोसे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि रूप फलके समान जन्मान्तरभाविनी न होकर 'साक्षात्' इसी जन्म में और कमों के अनन्तर ही होनी चाहिए । इसका कारण यह है कि यदि नाटकमें भी जन्मान्तरभाविनी फलप्राप्तिका वर्णन किया जाय तो फिर प्रेक्षकको कर्म और उसके फलका सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूपसे गृहीत न हो सकनेसे उसे नाटक से कर्तव्याकर्तव्यकी शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकेगी। इसलिए फलप्राप्ति साक्षात् रूपमें ही प्रति होनी चाहिए ।
दूसरा बल उन्होंने 'फलागम' पदकी व्याख्यापर दिया है । फलागम शब्दसे उन्होंने फलकी पूर्ण रूप से प्राप्ति नहीं अपितु केवल फलप्राप्तिका आरम्भ यह अर्थ लिया है। इसका कारण यह है कि फलकी पूर्ण रूपसे प्राप्ति तो अवस्थाके भीतर नहीं प्राती है । वह तो अन्तिम साध्य है । यहाँ अन्तिम साध्यका नहीं अपितु केवल अवस्थाओं का वर्णन चल रहा है । इसलिए फलागम शब्द से फलप्राप्तिका प्रारम्भ यह अर्थ ग्रन्थकारने लिया है । जो सर्वथा उचित है ।
आगे फलागम रूप पञ्चमी अवस्था के दो उदाहरण देते हैं ।
जैसे वेणीसंहारके छठे अजूमें [भीम कह रहे हैं ] -
[दुर्योधनके] शरीरको पृथिवीपर पटककर उसका यह रक्त मैंने चन्दनके समान अपने शरीरमें लगा लिया है। चारों समुद्रोंका जल जिसकी सीमा है इस प्रकार की पृथिवीकेसाथ लक्ष्मीको प्रार्य [यु षिष्ठिर] में स्थापित कर दिया है । [ कौरवोंके] भृत्य, मित्र, योधागरण, कुरुसेना और [ दुर्योधनके] भाई सब इस रखाग्निमें भस्म हो गए । हे राजन् [ युधिष्ठिर ] ! प्राप जिस नामको बोल रहे हैं. [ धृतराष्ट्रके पुत्र ] दुर्योधनका केवल एक वही [नाममात्र ही ] शेष रह गया है ।
इससे दुर्योधनको मारकर भीमसेनने युधिष्ठिरको राज्यापंग रूप फलको प्रदर्शित किया है । [ अतः यह फलागमका उदाहरण है ] ।
अथवा जैसे राघवाभ्युदयमें [ राम कह रहे हैं कि ] -
[राजगने] वैदेहीका अपहररण किया था इसलिए संग्राममें महान् कष्टोंको सहकर भी चक्रसे गर्दन काटकर उस रावणको यमराजके अर्पित कर दिया । किन्तु उस [ सीता ] के
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का० ३२, सू० ४२ ] प्रथमो विवेकः
[ ६३ प्राणान् यद्विरहेऽप्यहं विधृतवांस्तेन पासुन्दर,
वक्त्रं दर्शयितु तथापि न पुरस्तस्या विलक्षः क्षमः॥" इति ।
इह च तावन् पुरुषकारमात्राभिनिवेशिनां दैवमपाकुर्वतां नास्तिकानां देवबहुमानव्युत्पत्तये पुरुषकारोऽप्यफलस्तदभावोऽपि सफल इति दर्शनीयम् । ततो दैवायत्तफले दरिद्रचारुदत्तादिरूपके पुरुषयापारस्य गौणत्वात् कथं प्रारम्भादयः स्युः ?
न, तत्रापि नायकस्य फलाथित्वात् , फलम्य च प्रारम्भादिनान्तरीयकत्वात् । अनुमान्यपि हि सस्यानि वृष्टिसेकाप्यायितायां भुवि उच्छूनता-स्तम्बभवन-पुष्पोद्गमक्रमेणैव फलन्ति ।
यद्यपि हि सेवावशेषव्यापारविमुखः पुरुपो न व्याप्रियते, तथापि देवरितो राजादिव्यांप्रियत एव । स च राजादिगतो व्यापारः पुरुषगत एव । तद्वयापारसाध्यफलार्थित्वात् । अपरथा परत: प्राप्तमपि फलं नाङ्गीकुर्यादिति ॥३६॥ विरहमें भी जो मैं प्राणोंको धारण किए रहा इसलिए लज्जित हुआ मैं अपने लज्जासे युक्त [त्रपासुन्दरं मुखको उसके [सीताके सामने दिखलानेमें समर्थ नहीं हूँ।
इसमें कलागम रूप पञ्चमी अवस्थाका वर्णन है ।
ऊपर यह बतलाया था कि प्रारम्भादि अन्य अवस्थानोंकी योजना देवके व्यापार से भी हो सकती है। किन्तु उसका फल नायकको ही प्राप्त होगा। इसीका समर्थन करते हुए पागे उसकी विशेष उपयोगिताका प्रतिपादन करते हैं।
केवल पुरुषार्थको मानने वाले और देवका तिरस्कार करने वाले नास्तिकोंको भी दंवमें श्रद्धा करानेके लिए कहीं] पुरुषार्थ भी व्यर्थ हो जाता है और उसका प्रभाव [अर्थात् देव भी सफल हो जाता है यह बात यहां नाटकमें दिखलानी चाहिए । इसलिए केवल देवके अधीन फल वाले 'दरिद्र-चारुदत्त' प्रादि रूपकोंमें पुरुषके व्यापारके गौण हो जानेसे प्रारम्भ प्रादि [अवस्थाएँ] कैसे हो सकती हैं यह शङ्का यदि उठाई जाय तो]---
___ ठीक नहीं है। क्योंकि वहाँ भी नायकको फलको कामना होती ही है। और फल प्रारम्भादिके बिना नहीं हो सकता है। [इसलिए उसमें भी प्रारम्भादि अवस्थाओंका समावेश हो सकता है । बिना बोए हुए बीज भी [जब किसी प्रकार खेतमें पड़ जाते हैं तो वे] वर्षासे तर हुई भूमिमें फूलकर [अंकुर फूटकर] पौदा बन कर और फूल कर क्रमसे ही फलते हैं [इसी प्रकार बिना पुरुषार्थके केवल भाग्यके द्वारा बोए गए कर्म बीज भी प्रारम्भादि प्रवस्थानोंके द्वारा ही फलको उत्पन्न करते हैं।
____ यद्यपि सेवा प्रादि समस्त व्यापारोंसे रहित राजादि सदृश] पुरुष स्वयं] किसी कार्यको नहीं करता है किन्तु देवसे प्रेरित अथवा राजा प्रादि होनेपर [स्वयं भी वैव-प्रेरणाके अनुसार व्यापार करता ही है । और राजादिगत वह [देव प्रेरित व्यापार भी] पुरुषका ही व्यापार होता है । [क्योंकि उस देवी- व्यापार द्वारा होने वाले फलका प्रार्थी वह [राजावि] हो होता है । अन्यथा [यदि वह फलार्थो न हो तो] बादमें प्राप्त होनेवाले फलको भी स्वीकार न करें॥३६॥
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६४ ]
नाट्यदर्पणम्
(४) अथ दशानन्तरमुद्दिष्टान व्याख्यातु सन्धीनुपक्षिपति[ सूत्र ४३ ] - मुखं प्रतिमुखं गर्भाssमर्श - निवर्हणान्यमी । सन्धयो मुख्यवृत्तांशाः पञ्चावस्थानुगाः क्रमात् ||३७||
मुख्यस्य स्वतन्त्रस्य महावाक्यार्थस्यांशा भागाः परस्परं स्वरूपेण चान: सन्धीयन्ते इति सन्धयः । अवस्थाभिः प्रारम्भादिभिरनुगता, अवस्थासमाप्तौ समायन्त इत्यर्थः । अवस्थानां च ध्रुवभावित्वात् सन्धयोऽपि नाटक - प्रकरण-नाटिकाप्रकरणीषु पञ्चावश्यम्भाविनः । समवकारादौ तु विशेषोपादानादृनत्वेऽपि न दोषः । क्रमादिति मुखाद्युद्देशक्रमेण अवस्थाक्रमेण च निवध्यन्ते । इह तावत् प्रबन्धनिबन्धनीयोऽर्थोऽवस्थाभेदेन पञ्चभिर्भागेः परिकल्प्यते । एकैकशश्च भागो द्वादशत्रयोदशेत्यादिरूपया अङ्गसंख्यया विभज्यते । प्रासङ्गिकवृत्तसन्धयस्तु मुख्यसन्ध्यनुयायित्वादनुसन्धय एवेत्युक्तमेवेति ||३७|
[ का० ३७, सू० ४३
(४) सन्धि-निरूपण -
५वीं कारिका में निर्दिष्ट नाटक लक्षण में 'प्रङ्क' 'उपाय' और 'दशा' के बाद 'सन्धियों' का उल्लेख किया गया है । अत एव दशाओंका निरूपण कर चुकने के बाद अब सन्धियोंका निरूपण प्रारम्भ करते हैं । पाँच अर्थोपक्षेपक, पाँच अङ्ग र पाँच दशाओंके समान सन्धियों की संख्या भी पांच ही है । यहाँसे श्रागे उन पाँचों सन्धियोंका निरूपण किया जायगा । अब 'दशा' के अनन्तर कहे हुए [सन्धियों] की व्याख्या करनेके लिए 'सन्धियों' का प्रारम्भ करते हैं-
[ सूत्र ४३ ] - मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहरण ये [पूर्वोक्त ] पाँच अवस्थानों का क्रमशः अनुगमन करने वाले मुख्य कथाके पाँच भाग 'सन्धि' कहलाते हैं |३७|
मुख्य अर्थात् स्वतन्त्र महावाक्य [ नाटकके कथाभाग ] के अंश अर्थात् भाग, परस्पर अपने रूपसे और अङ्गोंके साथ मिलते हैं इसलिए 'सन्धि' [कहलाते हैं] । प्रारम्भ प्रावि [ पाँच ] अवस्था के साथ चलने वाले [ हैं इसलिए] अवस्थाकी समाझिपर [ सन्धि भी ] समाप्त हो जाते हैं । यह [' अवस्थानुगा:' पदका ] अभिप्राय है । [नाटकोंमें अवस्थाके लक्षण में कहे गए 'ध्रुव' पदसे] अवस्थाओं के अपरिहार्य होनेसे [ उनका अनुसरण करने वाले पाँचों] सन्धि भी नाटक, प्रकरण, नाटिका और प्रकरणी में अपरिहार्य हैं । समयकार प्रादि [रूपकोंके अन्य भेवों] में तो [सन्धियों की संख्याका ] विशेष रूपसे निर्देश होनेके कारण कम [ संख्या ] होने पर भी दोष नहीं है । [ कारिकामें प्राए हुए ] 'क्रमात्' इस [ पद ] से मुखादि रूपमें उद्देश के क्रमसे [अर्थात् जिस क्रमसे उनके नाम इस कारिकामें गिनाए गए हैं उसी क्रमसे] और वस्थाओं के क्रमसे ही [ सन्धियोंका ] समावेश किया जाता है । यहाँ [ नाटकमें] प्रबन्धमें वर्णनीय कथाभागको [ प्रारम्भ आदि ] श्रवस्थाओं के भेदसे पांच भागों में विभक्त किया जाता है । और उनमेंसे प्रत्येक भाग बारह-तेरह प्रादि रूप प्रङ्गोंकी संख्यामें बाँटा जाता है । [ये ही पाँच सन्धि और बारह तेरह श्रादि सन्ध्यङ्ग कहलाते हैं] । प्रासङ्गिक [ पताका प्रादि के] चरित्रके सन्धि तो मुख्य सन्धियोंके अनुगामी होनेके कारण 'अनुसन्धि' ही होते हैं यह मात पीछे कही जा चुकी है ॥ ३७ ॥
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का० ३८, सू० ४४ ] प्रथमो विवेकः
[ १५ (१) अथ मुखं लक्षयितुमाह
[सूत्र ४४]--मुखं प्रधानवृत्तांशो बीजोत्पत्ति-रसाश्रयः।
प्रारम्भावस्थाभावित्वात् प्रधानवृत्तस्य भागो मुखमिव मुखम । 'बीजोत्पत्तेः' मुख्योपायोपक्षेपस्य, 'रसानां' च शृङ्गारादीनामाभयोऽवतरणं यत्र । प्रारम्भोपयोगी यावानर्थराशिः प्रसक्तानुपसक्त्या विचित्ररससनिवेशस्तावान मुखसन्धिरित्यर्थः ।
__ यथा 'रत्नावल्यां' प्रथमो ऽङ्कः । अत्र हि सागरिकाराजदर्शनरूपे अमात्यप्रारम्भविषयीकृतेऽर्थराशी अमात्ययौगन्धरायणस्य पृथिवीसाम्राज्यविजगीषो-रिः, वत्सराजस्य वसन्तविभावः शृङ्गारः, पौरप्रमोदावलोकनादभुतः, । तत उद्यानगमनादारभ्य पुनः शृङ्गारः इति ।
___ यथा वा 'सत्य हरिश्चन्द्रे' प्रथमोऽङ्कः। तत्र हि कुलपतिप्रारम्भविषयीकृते पृथिवी-सुवर्णदानाभ्युपगमरूपे अर्थराशौ राज्ञः प्रथमं महावराहदर्शने अद्भुतः, प्रहतहरिणीदर्शने करुणः, पुनराश्रमदशेने अद्भुतः, हरिणीवधश्रवणक्रुद्धस्य कुलपते रौद्रः, ततः प्रथिवीसुवर्णदानाभ्युपगमे राज्ञो दानवीर इति । रसप्राणो नाट्यविधिरिति रमाश्रयत्वमुत्तरसन्धिष्वपि द्रष्टव्यमिति । (१) मुखमन्धि---
प्रथ मुख [संधि] का लक्षण करनेके लिए कहते हैं-----
[सूत्र ४४] नोटको उत्पत्ति तथा रसका प्राश्रयभूत मुल्य कथाभागका [मुखके समान सबसे पहिले दिखलाई देनेवाला अंश 'मुखसंधि' कहलाता है।
कथाभागको प्रारम्भावस्थाके साथ होनेके कारण प्रधान वृत्तका [प्रारम्भिक भाग मुखके समान [सबसे पहिले दृश्य होनेसे] 'मुख' [संधि कहलाता है। बीजकी उत्पत्ति अर्थात् मुख्य उपायके {उपक्षेप] प्रारम्भका और शृङ्गारादि रसोंका प्राधय अर्थात् प्रवतरण जिसमें होता है वह मुखसंधि कहलाता है] । अर्थात् [नाटकक] प्रारम्भका उपयोगी जितना अर्थराशि और प्रसक्तानुप्रसक्त अर्थात् परम्परित रूपसे विचित्र रसोंका [जितना सनिवेश (प्रारम्भके लिए उपयोगी है। वह सब मुखसंधि [के अंतर्गत है।
जैसे रत्नावलीमें प्रथम अङ्क [मुखसंधिका उदाहरण है। क्योंकि उसमें अमात्य यौगंधरायण के प्रारम्भ | व्यापार के विषयभूत सागरिकाके राजाके द्वारा देखे जाने रूप अर्थसमुदायमें पृथिवीके साम्राज्यको प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाले अमात्य योगंधरायणका वीररस, वसंत रूप [उद्दीपन] विभाव से युक्त वत्सराजका शृङ्गाररस, पुरवासियों के प्रमोदके अवलोकनसे अद्भुत और उसके बाद उद्यानमें प्रानेसे लेकर फिर शृङ्गार पाया जाता है। इस प्रकार [मुखसंधिमें विचित्र रसाश्रयत्व पाया जाता है ।
अथवा जैसे सत्यहरिश्चंद्र में प्रथम प्रामुखसंषिका उदाहरण है। उसमें कुलपति के प्रारम्भफे विषयभूत पृथिवी और सुवर्णदानके स्वीकार करने रूप अर्थसमुदायमें, राजाको प्रथम महावराहके दर्शन रूप अद्भुत, [उसके बाद मारी गई हरिणीको देखनेपर करुण, उसके बाद प्राश्रमके देखनेपर अद्भुत, फिर हरिणीयष [के समाचार को सुनकर बुरा हए फुलपतिका रौद्र और फिर पृथिवी और सुवर्ण का दान करनेपर राजाका दानवीर [रस पाया है। [इस प्रकार इस नाटकमेंभी मुखसंघिमें नाना रसोंका विचित्र सनिवेश किया गया
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६६ ]
नाट्यदर्पणम् का० ३८, सं० ४५ (२) अथ प्रतिमुखं व्याचष्टे---
[सूत्र ४५]-प्रतिमुखं कियलक्ष्यबीजोद्घाटसमन्वितः ॥३८॥
'प्रधानवृत्तांश' इहोत्तरेषु च स्मर्यते । कियल्लक्ष्यस्य मुखसन्धी गम्भीरत्वेन न्यस्तत्वादीषत् प्रकाशस्य बीजस्य प्रधानोपायस्य, उद्घाटेन प्रबलप्रकाशनेन, सम्यगनुगतः, प्रयत्नावस्थापरिच्छिन्नो यः प्रधानवृत्तांशः स मुखस्याभिमुख्येन वर्तत इति 'प्रतिमुखम'।
"द्वीपादन्यस्मादपि" इत्यादिना समात्येन सागरिकाचेष्टितरूपं बीज मुखसन्धौ न्यस्त, वसन्तोत्सवकामदेवपूजादिना तिरोहितत्वादीषल्लक्ष्यम् । तस्य च सुसङ्गतारचित राज-सागरिकासमागमेन द्वितीये अङ्के उद्घाट इति ॥३८॥ है। प्रत एव यहाँ भी मुखसंधि रसायः है] । नाव्यको रचनाका प्रारण ही रस है इसलिए [प्रतिमुख प्रादि] अगली संषियोंमें भी रसाभयत्व होना चाहिए । (२) प्रतिमुखसन्धि
अब प्रतिमुख [सन्धि] को व्याख्या करते हैं---
[सूत्र ४५]- [ मुखसन्धिमें ] सूक्ष्मरूपसे दिखलाई देने वाले [ कियलक्ष्य ] बीजके उद्घाटनसे युक्त प्रति-मुख [सन्धि] होता है।३८॥
[मुखसन्धिके लक्षणमेंसे] 'प्रधानवृत्तांशः' इस भागकी अनुवृत्ति यहाँ [इस प्रतिमुखके लक्षणमें] तथा प्रागे [गर्भ सन्धि प्राविक लक्षणमें ] भी पाती है । ['इह उत्तरेषु च स स्मर्यते इस वाक्यका यह अर्थ किया है] । "कियलक्ष्यस्य' [ पदका अभिप्राय यह है कि ] मुखसन्धिमें गूढ रूपसे प्रारोपित किए गए, इसलिए सूक्ष्म रूपसे दिखलाई देने वाले बीजके अर्थात् प्रधान उपायके, उद्घाटन अर्थात् प्रबल रूपसे प्रकाशनसे, सम्यक् अर्थात् स्पष्टरूपसे अनुगत, प्रयत्नावस्थामात्रमें व्याप्त, प्रधान वृत्तका जो भाग होता है वह मुखके सामने प्रागे विद्यमान होनेसे 'प्रतिमुख [प्रतिमुखसन्धि कहलाता है।
प्रतिमुखसन्धिके लक्षणकी इस व्याख्यामें तीन बातें कही गई हैं। पहली बात तो यह कही है कि 'प्रधानवृत्तांशः' इस भागका सम्बन्ध मुखसन्धिके लक्षणसे यहाँ भी लाना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मुखसन्धिमें बीजका सूक्ष्मरूपसे जो निवेश किया जाता है उसका प्रतिमुखसन्धिमें अधिक स्पष्ट रूपसे विकास उद्घाटन किया जाता है। और तीसरी बात यह है कि जैसे मुखसन्धि प्रारम्भावस्थाका अनुसरण करने वाला होता है । प्रारम्भावस्याके समाप्त होने के साथ ही मुखसन्धि समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार प्रतिमुखसन्धि प्रयत्न रूप द्वितीयावस्थाका अनुगामी होता है। द्वितीयावस्थाके समाप्त होने के साथ समाप्त हो जाता है। प्रागे इसीका उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। ..
__ जैसे [रत्नावलीमें] 'डोपादन्यस्मावपि इत्यादिसे अमात्य [यौगन्धरारण] के द्वारा सागरिकाका व्यापार रूप बीज [प्रथमाकुमें] मुखसन्धिमें [सूक्ष्मरूपसे स्थापित किया था। वह बसन्तोत्सव, कामदेव-पूजनाविके द्वारा तिरोहित होनेके कार । थोड़ा-सा दिखलाई देता था। उसका सुसङ्गताके द्वारा कराए गए राजा और सागरिकाके समके द्वारा द्वितीयांकमें उदघाटन [अधिक विस्तार किया गया है। [मत एव द्वितीयांक.. कथाभाग उस नाटकमें प्रतिमुखसन्धि कहलाता है] ॥३६॥
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का० ३६, सू० ४६ ]
गर्भ
व्याख्यातुमाह
[ सूत्र ४६ ] - बीजस्यौन्मुख्यवान् गर्भो लाभालाभगवेषणैः । उत्पत्ति-उद्घाटनदशाद्वयाविष्टस्य बीजस्य श्रन्मुख्यं फलजननाभिमुख्यं तद्वान् । प्राप्त्याशया तृतीयावस्थया परिच्छिन्नो लाभालाभगवेषणैः पुनः पुनः भवद्भिर्युक्तः प्रधानवृत्तांशो गर्भसन्धिः ।
अथ
प्रथमो विवेकः
यथा वेणीसंहारे तृतीय- चतुर्थ - पश्ञ्च मेध्वं केषु । फलसाधकानां पाण्डवानां वृत्ते नेपथ्ये भीमसेनेन -
'कृष्टा येन शिरोरुहेषु पशुना' । इत्यादिना प्रतिज्ञानिर्वहणोपक्रमात विजयानुगुण्यलाभेन बीजस्योन्मुख्यं दर्शितम् ।
तथा
[ ६७
'भगदत्तलुहिल कुम्भके' [भगदत्तरुधिरकुम्भकैः ] |
इत्यादिना राक्षसीमुखसूचितेन प्रधानयोधवधेन । 'एशे खुधिट्ठज्जु
केशेषु गिरिहय दोणे वावायीइदि ।' [' एष खलु धृष्टद्युम्नेन केशेषु गृहीत्वा द्रोणो व्यापाद्यते' । इति संस्कृतम् । ] त्यादिना राक्षसमुख सूचितेन च सेनापतिवघेन । स्वबलक्षोभकारिणा कर्ण३ गर्भसन्धि
अब गर्भ [ संधि] की व्याख्या करनेके लिए कहते हैं
[सू० ४६ ] - [मुख्य फलके] लाभ और प्रलाभ [ प्रर्थात् कभी प्राप्तिको प्राशा और कभी प्राप्तिको निराशा ] के अनुसंधानके द्वारा बीजकी फलोन्मुखतासे युक्त [कथाभाग ] गर्भ [ संधि कहलाता ] है ।
[पहिले मुख तथा प्रतिभुख संधिमें कही हुई] उत्पत्ति तथा उद्घाटन रूप दो अवस्था से 'युक्त बीजका जो फल-जननके उन्मुख होना, उससे युक्त [ तीसरा गर्भसंधि होता है । और वह ] प्राप्त्याशा रूप तृतीयावस्था से सीमित [अर्थात् तृतीयावस्थाके साथ प्रारम्भ और उसकी समाप्तिके साथ समाप्त होनेवाला ] होता है। बार-बार होनेवाले लाभ तथा अलाभके अनुसंधानोंसे युक्त प्रधान कथाका भाग गर्भसंधि [कहलाता ] है ।
जैसे वेणीसंहारमें तृतीय, चतुर्थ और पञ्चम प्रङ्कोंमें [गर्भसंधि निम्न प्रकार पाया जाता है] । फलके साधक पाण्डवोंके चरित्रमें नेपथ्य में भीमसेनके द्वारा
“कृष्टा येन शिरोवहेषु" [ तृतीय अजूके ४७वें श्लोकमें इसका अर्थ पीछे पृष्ठ पर
देलो] ।
इत्यादिसे [ भीमसेनके द्वारा अपनी ] प्रतिशाके पूर्ण करनेके उपक्रमसे विजयकी अनुकूलताकी प्राप्तिके द्वारा बीजकी फलोन्मुखताका प्रदर्शन किया है। और [ उसी तृतीय के प्रवेशक में ]
"भगवतके रुषिरसे भरा हुआ घड़ा" इत्यादिके द्वारा राक्षसीके मुखसे सूचित कराए गए प्रधान योषा [भगदत्त] के बबसे, और [उसी प्रवेशक में ]
"यह सृष्टद्युम्न बाल पकड़कर द्रोरणको मार रहा है" इसके द्वारा डाक्षसके मुलसे सूचित कराए गए सेनापतिके बबले तथा [उसी अमें] अपनी सेनामें प्रशांति पैदा करनेवाले क
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१८ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ३६, सू० ४६ श्वत्थाम्नोः कलहेन च दुर्योधनस्य विजयालाभलक्षणं पाण्डववृत्ते फलानुगुणं बीजस्योन्मुख्यम् । तथा
___ "श्राः शक्तिरस्ति वृकोदरस्य मयिं जीवति वत्सस्य छायामायाक्रमिनम्।" इति योद्ध निष्क्रान्तेन दुर्योधनेन विजयान्वेषणरूपं औन्मुख्यम् । तथा
"राज्ञो मानधनस्य कामुकभृतो दुर्योधनस्याग्रतः, प्रत्यक्षं कुरुबान्धवस्य मिषतः कर्णस्य शल्यस्य च । पीतं तस्य मयाय पाण्डववधूकेशाम्बराकर्षिणः,
कोष्णं जीवत एव तीक्ष्ण करजचण्णादसृग वक्षसः ॥" इत्यादिना भीमसेनेन दुःशासनवधात् विजयलाभरूपमौन्मुख्यम् । एवमत्र पुनःपुनर्लाभालाभगवेषणैर्बीजस्योन्मुख्यम् दर्शितम् । अत एव फलप्राप्तिसम्भावनारूपो गर्भसन्धिरुच्यते। तथा अश्वत्थामाके कलहसे, दुर्योधनको पराजय रूप और पाण्डवोंके पक्षमें फलके अनुकूल बोज का प्रोन्मुल्य [विखलाया गया है] । तथा [चतुर्थ प्रथमें]
'माः! मेरे जीते रहते भीम, वत्स दुःशासनकी छाया तक छूनेको शक्ति नहीं रखता है [यह कहकर ] युद्ध के लिए निकलते हुए दुर्योधनके द्वारा विजयान्वेषण रूप फलोन्मुखता [विखलाई गई हैं] तथा-- ___"अभिमानी और धनुर्धारी राजा दुर्योधनके सामने, कौरव बन्धुनोंके प्रागे, तथा कर्ण एवं शल्यके देखते-देखते प्राज मैंने पाण्डवोंकी बधू [द्रौपवीके] के केश तथा वस्त्रोंका अपहरण करनेवाले उस दुःशासनकी अपने तीक्ष्ण नाखूनों द्वारा फाड़ी गई छातीका गरम-गरम लहू उसके जीते हुए भी पी लिया।"
इत्यादि [वाक्य] से भीमसेनके द्वारा दुःशासनके वधसे [पाण्डवोंके] विजयलाभ स्प फलकी उन्मुखता [दिखलाई गई है। इस प्रकार यहाँ विरणीसंहारमें] बार-बार [विजयके] लाभ और अलाभके अनुसंधान द्वारा बोजको [फलके प्रति उन्मुखता दिखलाई गई है। प्रत एव [यह फलकी प्राप्तिको सम्भावना रूप गर्भसंधि कहलाता है।
वेणीसंहार वीररस-प्रधान नाटक है। उसमें पाण्डवोंका विजयलाभ मुख्य फल है । प्रथम अङ्कमें उसमें 'लाक्षागृहनलविषान्न' इत्यादि भीमसेनकी उक्तिसे जिस कौरववंशके नाश के बीजका प्रारोपण किया गया था उसका द्वितीय अङ्कमें अधिक उभेद होकर तृतीय चतुर्थ प्रक्षों में उसके प्राप्तिकी आशा हो जाती है। इन अङ्कों में अनेक स्थानोंपर कौरवोंके प्रधानपुरुषोंके वधकी सूचना मिलती है। यह पाण्डवोंकी विजयके अनुकूल जाती है। कहीं-कहीं दुर्योधन आदि कभी अपनी विजयके लिए प्रयत्नशील दिखलाई देते हैं । वह स्थल मुख्य फलकी प्राप्तिमें बाधक प्रतीत होते हैं। सब मिलकर लाभको आशा अधिक रहती है। इसलिए इस भागमें प्राप्त्याशा रूप तृतीयावस्था और गर्भसन्धि रूप तृतीय सन्धिको ही निबद्ध किया गया है। इसी दृष्टिसे ग्रन्थकारने गर्भसन्धिके उदाहरणरूपमें उस भागको प्रस्तुत किया है।
यह वीररस प्रधान नाटकमें गर्भसन्धिका प्रदर्शन कराया । इसी प्रकार शृङ्गार-प्रधान नाटकोंमें भी दिखलाया जा सकता है । इसी बातको पागे कहते हैं
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का० ३६, सू० ४७ ]
प्रथमो विवेकः
[
एवं शृङ्गारादिप्रधानेष्वपि रूपकेषु लाभालाभगवेषणानि दर्शनीयानि । इह गर्भसन्धौ अप्राप्त्यंशः प्रधानं फलसम्भावनात्मकत्वात् । अन्यथा फल- निश्चयात्मक एव स्यात् । अत्रमर्शसन्धौ तु प्राप्त्यंशः प्रधानं फलनिश्चयरूपत्वादिति विशेषः । इति ।
श्रथावमर्शमाह -
[ सूत्र ४७ ] - उद्भिन्नसाध्यविघ्नात्मा विमर्शो व्यसनादिभिः ॥ ३६ ॥
बीजस्य उत्पत्ति-उद्घाट- फलोन्मुख्यैरुद्भिन्न भवनाभिमुखं यत् साध्यं प्रधानफलं तद्विघ्नात्मा तत्प्रत्यूहसम्पातात्मा नियताप्तिचतुर्थ्यवस्थापरिच्छिन्नः प्रधानवृत्तांशः, विमृशति बलवदन्तरायहेतुसम्पात प्रत्यासन्नमपि साध्यं प्रति सन्देग्धि नेताऽस्मिन्निति 'विमर्शः' । नियतफलाप्त्यदस्थया व्याप्तत्वेऽप्यस्य सन्धेः सम्भावनानन्तरं सन्देहस्याप्राप्तावपि च फलं प्रति जनक विघातकयोस्तुल्यबलत्वात् सन्देहात्मकत्वम् । 'विघ्नैरपि हन्यमानाश्च महात्मानो विशेषतो यतन्ते' इति तत्त्वतो नियतइसी प्रकार शृङ्गार- प्रधान रूपकोंमें भी [ फलका] लाभालाभके अनुसन्धान दिखलाने
चाहिएं ।
इस गर्भसंधिमें, उसके फलसम्भावना रूप होनेसे प्रप्राप्तिका श्रंश प्रधान रहता है । अन्यथा [गर्भसंधि न रहकर ] फल- निश्चयात्मक [विमर्श-संधि] ही बन जाय । विमर्श -संघिमें प्राप्तिका अंश प्रधान रहता है । क्योंकि वह फल-निश्चय रूप होता है । यह [ गर्भसंधि तथा विमर्श -संघिका ] भेद है ।
४ विमर्श - सन्धि -
अब विमर्श [ सन्धि ] को कहते हैं
[ सूत्र ४७ ] - [ बीजकी उत्पत्ति, उद्घाटन और फलौन्मुख्यके द्वारा ] उभिन्न प्रर्थात् पूर्ण होनेके लिए प्रस्तुत जो साध्य, उसमें व्यसन प्रादिके द्वारा विघ्न-स्वरूप विमर्श [ संधि ] कहलाता है । ३६ ।
[मुख, प्रतिमुख तथा गर्भसंधियों में क्रमशः ] बीजकी उत्पत्ति, उद्घाटन तथा फलोन्मुखताके द्वारा उद्भिन्न अर्थात् [ सफल ] होनेवाला जो साध्य, अर्थात् प्रधान फल, उसका विघ्न-स्वरूप अर्थात् उसमें विघ्नोपनिपात रूपः नियताप्ति नामक चतुर्थी अवस्थासे परिच्छिन्न [ अर्थात् चतुर्थी अवस्थाके उदयके साथ उदय श्रौर उसकी समाप्तिके साथ समाप्त होनेबाला मुख्य कथाका भागको जिसमें कि 'विमृशति' अर्थात् बलवान् विघ्नोंके श्रा जानेसे प्रत्यासन्न फलके प्रति भी नायक सन्देह में पड़ जाता है। इसलिए [ इसी व्युत्पत्तिलभ्य अर्थके काररण] 'विमर्श' [ सन्धि कहा जाता ] है । इस [विमर्श ] सन्धिके नियताप्ति रूप [चतुर्थी] फलावस्थासे व्याप्त होनेपर भी और सम्भावना [प्रर्थात् उत्कट कोटिके निश्चय] के अनन्तर सन्देहका अवसर न होनेपर भी फलके प्रति जनक और उसके विघातक दोनोंके तुल्यबल होने के काररण [विमर्श - सन्धिको] सन्देहात्मकता होती है। और [सन्देहात्मकता होते हुए भी ] 'fबहनोंसे बार-बार बाधित होनेपर भी. महापुरुष और अधिक यत्न [ फल प्राप्तिके लिए ] करते हैं' इसलिए वास्तव में वह नियताप्ति रूप ही होता है । 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि भले कार्यों में अनेक विघ्न होते ही हैं। इसलिए विघ्नके काररणोंके उपस्थित होनेपर भी समीपवर्ती
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१०० ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० ३६, सू० ४७
फलाप्तिरूपत्वम् । 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति' इति विघ्नहेतुसम्पातेऽपि, प्रत्यासन्नवर्तिनि फले न निवर्तनीयमिति च व्युत्पादयितुमवश्यमत्र सन्धौ विघ्नtaat निबन्धनीयाः । 'व्यसनादिभिः' इति श्रादिशब्दात् शापादिपरिग्रहः । तत्र व्यसनाद्विघ्नो यथा रामाभ्युदये पञ्चमेऽङ्के । रामः"प्रत्याख्यानरुषः कृतं समुचितं क्रूरेण ते रक्षसा, सोढं तच्च तथा त्वया कुलजनो धत्ते यथोच्चैः शिरः । व्यर्थं सम्प्रति विभ्रता धनुरिदं त्वव्यापदः साक्षिणा, रामेण प्रियजीवितेन तु कृतं प्रेम्णः प्रिये ! नोचितम् ॥” अत्र रावणेन यन्मायारूपसीताव्यापादनं तद्रूपेण व्यसनेन सीताप्राप्तिविघ्नजो विमर्शः ।
यथा वा रघुविलासे षष्ठेऽङ्के । लक्ष्मणः
"नाकीर्णा दशकन्धरी पलभुजां पत्युः शितैः पत्रिभिः, दत्ता नापि विभीषणाय सुहृदे लङ्काधिपत्यस्थितिः । वैदेही विरहाग्निमग्नमनसो नार्यस्य सन्दर्शिता, जात जन्म वृथा हद्दा ! रणधुराधौरेय दोष्णो मम ।।"
[ फल] की प्राप्तिसे निवृत्त नहीं होना चाहिए [कितने ही विघ्न प्रायें अपने प्रयत्नको नहीं छोड़ना चाहिए] इस बातकी शिक्षा [ सामाजिकोंको] वेनेकेलिए [विमशं] सन्धिमें विघ्नोंके कारणोंको अवश्य प्रदर्शित करना चाहिए। [ कारिकामें पर हुए ] 'व्यसनाविभि:' में आदि शब्दसे शापादिका ग्रहण करना चाहिए । [अर्थात् प्रत्यासन्न फलको सिद्धिमें जो विघ्न-बाधाएँ उपस्थित होती हैं उसके व्यसन अर्थात् क्लेश या शापादि अनेक कारण हो सकते हैं। उनमें किसी भी कारणसे विघ्नोंकी उपस्थिति दिखलाई जा सकती है] ।
उनमें से संकट [ व्यसन] के कारण विघ्न [की उपस्थितिका उदाहरण] जैसे रामाम्युदयमें पञ्चम में । राम [कहते हैं कि ] -
'निर्वयो राक्षस [रावरण] ने प्रत्याख्यान [अर्थात् उसकी प्रार्थनाको अस्वीकार ] कर वेनेसे उत्पन्न क्रोधके कारण तुम्हारे साथ उचित ही [व्यवहार] किया [श्रर्थात् रावणने तुम्हारे इन्कार कर देनेपर तुम्हारे साथ जो व्यवहार किया वह उसके क्रोधके अनुरूप ही था ] | और तुमने भी उस [ अत्याचार] को इस प्रकारसे सहन किया जिससे उच्च कुलकी स्त्रियाँ प्राज भी गर्वसे मस्तक ऊँचा करती हैं । किन्तु तुम्हारी विपत्तियोंको साक्षीरूपसे देखनेवाले [ और उसका प्रतिकार न करनेके काररण] व्यर्थ ही धनुर्धारण करनेवाले अपने जीवनके लोभी रामने हे प्रिये ! अपने प्रमके अनुरूप कार्य नहीं किया ।
यहाँ रावणके द्वारा बनावटी सीताको जो मार डाला गया था उस व्यसनसे सीताकी प्राप्ति में विघ्न प्रा पड़नेसे यह व्यसन जन्य विमर्श [ संधि ] है ।
प्रथवा जैसे रघुविलासके छठे प्रमे । लक्ष्मण [ कह रहे हैं ]
" [ मैं लक्ष्मरण] राक्षसराज [पलभुजां पत्युः ] के दश शिरोंके समुदायको तीक्ष्ण वारणोंके द्वारा काटकर गिरा नहीं पाया, न मित्रवर विभीषरणको लङ्काके राजाका पद दिला पाया और न विरहाग्निसे संतप्त मनवाले प्रार्य रामचन्द्रको वैदेहीका दर्शन ही करा
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का० ३६, सू० ४७ ] प्रथमो विवेकः
[ १०१ अत्र लक्ष्मणस्य शक्तिभेदव्यसनेन फलप्राप्तिविघ्नजन्मा विमर्शः।
शापाद्यथा अभिज्ञानशाकुन्तले पञ्चमेऽङ्के दुर्वासःशापविमोहितत्वेन त्यक्तायां शकुन्तलायामहितायां च, षष्टेऽङ्के अंगुलीयकदर्शनेन समुपजातस्मृती राजनि दुर्वासःशापविघ्नजो विमर्शः।
दैवतो यथा विधिविलसिते पंचमेऽङ्के"कंचुकी-हा धिक कष्टम् , नैव्रोल्लंघ्यः प्राक्तनः कर्मविपाकः ।
वार्तापि नैव यदिहास्ति स राजचन्द्रः, तेनोज्झिता विधिविमोहितचेतनेन । देवा वने त्रिदशनाथविलासिनीभिः,
कतु गता जगति सख्यमिति प्रवादः।। अत्र सूदाचा रावलम्बिनि नले देवत्यक्तदमयन्ती-राज्यप्राप्तिविघ्नजो विमर्शः।
क्रोधाद्यथा वेणीसंहारे पष्ठेऽङ्के सिद्धकल्पेऽपि कार्ये क्रोधातिशयादपर्युषितां पाया। इस लिए रणको धुराको धारण करनेवाली मेरी भुजाओंका जन्म ही व्यर्थ हो गया।
यहाँ लक्ष्मणके शक्ति लग जानेके कारण उपस्थित व्यसनसे फलप्राप्तिमें विघ्न प्रा पड़नेसे उत्पन्न [व्यसन-जन्य] विमर्श [संधि] है ।
इस प्रकार इन दोनों श्लोकों द्वारा ग्रंथकारने प्रत्यासन्न फलकी सिद्धि में किसी आकस्मिक विघ्नके आ जाने से व्यसन-जन्य संशय या विमर्श के उपस्थित हो जाने के उदाहरण दिए हैं।
शापसे उत्पन्न [विमर्श सन्धिका उदाहरण] जैसे अभिज्ञान शाकुन्तल [नाटक के पञ्चम अङ्कमें दुर्वासाके शापसे बेसुध होनेके कारण [ दुष्यन्तके द्वारा ] शकुन्तला का परित्याग कर देने और उसके अन्तहित हो जानेके बाद, षष्ठ अङ्गमें अंगूठीको देखकर राजाको उसका स्मरण पानेपर, दुर्वासाके शापरूप विघ्नसे उत्पन्न विघ्नजन्य विमर्श सन्धि है।
दैववश [ विमर्शका उदाहरण ] जैसे 'विधि-विलसित' [ नाटकके ]. पंचमाङ्कमकञ्चुकी-हा धिक, बड़े दुःखकी बात है कि पूर्व जन्मके कर्मोके फलसे बच नहीं सकते हैं।
जिस [के राजा बनने की कोई बात [सम्भावना] भी नहीं थी वह अब [वैववशात प्राज] राजराजेश्वर बन रहा है और [जो राज-राजेश्वर था] उसने भाग्यके कारण बुद्धिभ्रष्ट हो जानेसे [जुए में राजपाटको हारकर अन्तमें अपनी प्रियतमा दमयन्तीको] वनमें छोड़ दिया। फिर देवता लोग अप्सराओंके सहित वनमें उससे मित्रता प्राप्त करनेके लिए संसारमें [भूतलपर] पहुंचे, इस प्रकारका [नल-दमयन्तीका] कथानक लोकमें प्रसिद्ध है।
इसमें पाचकका काम करनेवाले नलके भीतर देववश छोड़ी हुई दमयन्ती तथा राज्यप्राप्तिके मार्गमें पानेवाले विघ्नोंके कारण उत्पन्न विमर्श दिखलाया है।
क्रोधसे उत्पन्न [विमर्श का उदाहरण] जैसे वेणीसंहारके छठे अडूमें [कौरव-विजय रूप] कार्यके प्रायः सम्पूर्ण हो चुकनेपर भी भीमसेनके [अाज यदि मैं दुर्योधनको नहीं मार लंगा तो स्वयं प्राणत्याग कर दूंगा इस प्रकारको] बासी न होनेवाली [मर्थात दूसरे दिन
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१०२ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० ४०, सु० ४८
प्रतिज्ञामास्थित..ते भीमसेने, दुर्योधने चान्तर्जल निमग्ने यत्नान्वेषणैरप्यनुपलभ्यमाने युधिष्ठिरो निर्वेदाद् विमृशन्नाह
तीर्णे भीष्ममहोदधौ कथमपि द्रोणानले निवृते, कर्णाशीविषभोगिनि प्रशमिते शल्ये च याते दिवम् । भीमेन प्रियसाहसेन रभसात् स्वल्पावशेषे जये, सर्वे जीवितसंशयं वयममी वाचा समारोपिताः ॥ अत्र भीमक्रोधात् कार्यविनिपाते सति जात इति क्रोधजप्रतिज्ञाविघ्नात्मा
विमर्शः ।
एवमनेकहेतुजो विमर्शसन्धिः ॥३॥
अथ निर्वहणसन्धिं निरूपयति
[ सूत्र ४८ ] - सवीजविकृतावस्थाः, नानाभावा मुखादयः । फलसंयोगिनो यस्मिन् असौ निर्वहणो ध्रुवम् ॥४०॥
बीजtय विकृतं विकार उत्पत्ति उद्घाट- फलौन्मुख्यादिकः सह बीजविकृतैः
तक न टिकनेवाली, उसी दिन पूर्ण होनेवाली] प्रतिज्ञा कर लेनेपर, और दुर्योधनके जलके भीतर छिप जाने तथा प्रयत्न- पूर्वक खोज करनेसे भी न मिलनेपर प्रत्यन्त दुःखी होकर 'विमर्श' करते हुए युधिष्ठिर कहते हैं-
“भीष्म रूप महासागरको पार कर लेनेपर, जैसे-तैसे करके द्रोणाचार्य रूप श्रग्निको शान्त करनेके बाद, और कर्ण रूप भयंकर नागराजको नाश करने तथा शल्यके स्वर्ग सिधार जानेके बाद जबकि विजयका थोड़ा-सा ही काम शेष रह गया था ऐसे समय साहस हो जिसको प्रिय है इस प्रकारके भीमसेनने केवल [अपनी प्रतिज्ञा रूप] वारणीसे हम सबको संशयमें डाल दिया है । [श्रर्थात् यदि प्राज दुर्योधनका पता नहीं लग पाता है तो भीमसेन अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार अपना प्राण त्याग कर देंगे । उस दशामें हम सबकी भी वही गति होगी ] ।
यह [विमर्श ] भीमके क्रोधके कारण कामके बिगड़ जानेपर उत्पन्न हुआ है, इसलिए कोष -जन्य प्रतिज्ञासे उत्पन्न विघ्न रूप विमर्श है ।
इस प्रकार अनेक प्रकारके हेतुनोंसे 'विमर्श' उत्पन्न होता है | ॥३६॥ ५ निर्वहण सन्धि
अब मागे 'निर्वहरण' सन्धिका निरूपण करते हैं
[ सूत्र ४८ ] - बीज और उसके [ उद्घाटन फलोन्मुखता श्रादि] विकारों एवं [प्रारम्भ प्रावि रूप] अवस्थानोंके सहित [बिन्दु पताका श्रादि ] नाना प्रकार के भाव [अर्थात् स्थायिभाव व्यभिचारिभाव श्रादि प्रथवा बिन्दु प्रादि उपाय ] तथा मुख आदि [ सन्धियाँ] जहाँ पहुँच कर [मुख्य ] फलसे युक्त होते हैं वह 'निर्वहरण' [नामक पंचम सन्धि कहलाता ] है । और वह [रूपकोंके समस्त भेदप्रभेदोंमें ध्रुव अर्थात् ] अपरिहार्य है |४०|
बीजको विकृति प्रर्थात् उत्पत्ति उद्घाटन, फलोन्मुखता प्रादि। बीज [ उसकी ] विकृति तथा प्रारम्भ आदि अवस्थानोंके सहित जो विद्यमान हों । [ यह कारिकाके 'सबीज
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का०४०, सू०४८ ] प्रथमो विवेकः अवस्थाभिश्च प्रारम्भादिभिवर्तन्ते । नाना विचित्रा भावाः स्थायि-व्यभिचारिसात्त्विकाः, अथवा भावयन्ति फलं साधयन्ति भावा, उपाया बिन्दु-पताका-प्रकरीकार्याणि यत्र । सुखप्राप्तौ च फले रति-हास-उत्साह-विस्मय-स्थायिभावबाहुल्यं, धृति-गव-प्रोत्सुक्य-मदादि-व्यभिचारिबाहुल्यं च मुखादीनाम् । दुःखहानौ तु फले क्रोध-शोक-भय-जुगुप्सा-स्थायिभावबाहुल्यं, आलस्योग्र्यादि-व्यभिचारिबाहुल्यं च द्रष्टव्यम् । मुखादयो मुख-प्रतिमुख-गर्भ-विमर्शाः। फलेन मुखसाध्येन नायक-प्रतिनायक-नायिका-अमात्यादिव्यापाराः, सम्यगौचित्येन युज्यन्त सम्बध्यन्ते यस्मिन् प्रधानवृत्तांशे स फलागमावस्थया परिच्छिन्नो निर्वहणसन्धिः । ध्रुवमिति प्रारम्भस्य निर्वाहाविनाभावित्वात् सवरूपकेष्वस्यावश्यम्भावमाह । यथा रत्नावल्यामैन्द्रजालिकप्रवेशात् प्रभृत्यासमाप्तेरिति ।
केचित् तु मुखादयः सन्धयो, अवस्थाश्च यत्र पृथक-पृथक् संक्षेपतः पुनरुल्लिङ्ग्यन्ते त निर्वहणसन्धिमाहुः । यथा सत्यहरिश्चन्द्रे षष्ठेऽङ्के । देवःविकृतावस्थाः' पदका अर्थ हुआ। प्रागे कारिकाके 'नानाभावाः' पदका प्रर्य करते हैं।] नाना प्रकारके अर्थात् विचित्र भाव अर्थात् स्थायि, व्यभिचारि तथा सात्त्विक [रूप भाव । अथवा 'भावयन्ति' अर्थात् फलको सिद्ध करते हैं [इस व्युत्पत्तिके अनुसार फलोत्पत्तिके जो साधन होते हैं] वे 'भाव' कहलाते हैं। और वे] बिन्दु, पताका, प्रकरी तथा कार्य रूप उपाय ['भाव' कहलाते हैं। वे] जिसमें विद्यमान हों [वह निर्वहरण-सन्धि होता है। यह कारिकामें पाये हुए 'नानाभावाः' पदका अभिप्राय है] सुख प्राप्ति रूप [फल वाले नाटक में रति, हास, उत्साह, विस्मय प्रादि स्थायिभावोंका बाहुल्य रहता है। धृति, गर्व, प्रोत्सुक्य, मद प्रादि व्यभिचारिभावोंका बाहुल्य मुखादि [ सन्धियों ] में रहता है। पौर दुःख-हानि रूप फल [वाले रूपकों] में क्रोध, शोक, भय, जुगुप्सा रूप स्थायिभावोंका बाहुल्य, तथा प्रालस्य, उग्रता, प्रादि व्यभिचारिभावोंका बाहुल्य [होता है ऐसा] समझना चाहिए। [कारिकामें प्राए हुए मुखादि पदका अर्थ करते हैं। मुखादि अर्थात् मुख, प्रतिमुख, गर्भ तथा विमर्श [रूप चार सन्धियाँ] । फलके साथ अर्थात् मुखसन्धिके साध्यके साथ, नायक, 'प्रतिनायक, नायिका, अमात्य प्रादिके व्यापार 'सम्यक्' अर्थात् उचित प्रकारसे जिसमें पुक्त होते हैं, अर्थात् मुख्य कथांशके साथ सम्बद्ध होते हैं, फलागम रूप अवस्थासे युक्त वह निर्वहरण-सन्धि कहलाता है। [कारिकामें पाए हुए] 'ध्र वं" इस पदसे प्रारम्भ किए हए कार्यको समाप्ति अवश्य होनी चाहिए, इसलिए समस्त रूपकोंमें इसकी [निर्वहण-सन्धिकी] सत्ता अवश्य होनी चाहिए यह सूचित किया। निर्वहरण-सन्धिका उदाहरण] जैसे रत्नावलीमें ऐन्द्रजालिकके प्रवेशसे लेकर समाप्तिपर्यन्त [का भाग निर्वहरण-सन्धिका सदाहरण है। निर्वहण सन्धिका द्वितीय लक्षण
कुछ लोग तो [निर्वहरण-सन्धिका लक्षण इस प्रकार करते हैं कि मुख पारि सन्धियां और अवस्थाएँ जिसमें संक्षेपसे अलग-अलग दुबारा कही जाती हैं उसको निर्वहरणसन्धि कहते हैं। जैसे सत्यहरिश्चन्द्र [नाटक के छठे महमें ['माटो मुनिकन्यका' इत्यादि अगले इलोकमें मुख-सन्धि माविका दुबारा उल्लेख इस प्रकार किया गया है]
सत्यहरिश्चन्द्र नाटककी रचना ६ पड़ों में समाप्त हुई है । नाटकके प्रारम्भमें ही
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१०४ ]
नाट्यदर्पणम् ! का० ४०, सू० ४८ आखेटो मुनिकन्यका कुलपतिः कीरः शृङ्गालोऽध्वगाः, विप्रो म्लेच्छ पतिर्मनुष्यमरणं लम्बस्तनी मान्त्रिकः । उद्वद्धः पुरुषो वियच्चरवधूर्गोमायुनादः फणी,
सर्व सत्त्वपरीक्षणोत्सुकरसैरस्माभिरेतत् कृतम् ।।
आखेट इत्यादिना मुखसन्धिनिबद्धाः, कीर इत्यादिना प्रतिमुखसन्धिभाविनः, अश्वगेत्यादिना गर्भसन्धिग्रथिताः, मनुष्येत्यादिना च विमर्शसन्धिसूत्रिताः, यथासंख्य प्रारम्भाद्यवस्थानुगताः फलवन्तोऽर्था निर्वहणसन्धावेकवाक्यताऽऽपादनार्थ संक्षेपतः पुनरुपात्ता इति ॥४॥ कुन्तल और कपिजलके साथ राजा हरिश्चन्द्र घोड़ेपर चढ़े हुए वराहका पाखेट करते हुए प्रविष्ट होते हैं, इसी मृगया-प्रसंगमें एक तपोवनके समीप में राजाके वारणसे एक गर्भिणी हरिणी की हत्या हो जाती है। यह हरिणी प्राश्रमके कुलपतिकी कन्याकी पालतू हरिणी थी। राजा को उस हरिणीके वधसे बड़ा दुःख होता है । वे अपने साथियों के साथ प्राश्रम में प्रवेश करते हैं। वहाँ कुलपति उनका स्वागत करते हैं। किन्तु इसी बीचमें कुलपतिको मालूम होता है कि उनकी कन्या अपनी प्रिय हरिणीके मारे जानेके कारण अनशन करके मरने के लिए तैयार हो रही है। और उसके साथ उसकी माता भी अनशन करने जा रही है। कन्याका नाम वंचना और उसकी माताका नाम निकृति है। कन्या और पत्नीके अनशन तथा हरिणी के वधका समाचार जानकर कुलपति अत्यन्त क्रुद्ध हो उठते हैं, और राजाको बहुत खरीखोटी सुनाते हैं । अन्तमें वे कहते हैं कि यह राजा अपना सर्वस्व दान करनेपर ही इस पापसे मुक्त हो सकता है । और राजा उसी समय अपना सर्वस्व दान कर देते हैं । यह मुख-सन्धि का कथाभाग है। प्रागे की राजा हरिश्चन्द्रके अपने बेचने आदिको कथा अगले अङ्कोंमें चलती है, उस सारे कथाभाग का स्पर्श करनेवाले शब्दों द्वारा कथांशका निर्देश अगले श्लोक में 'पाखेटो मुनिकन्यका कुलपतिः' शब्दों से किया गया है।
इसी प्रकार श्लोक में आए हुए कीरः शृगालो, अध्वगा मादि प्रत्येक शब्द नाटकके प्रगले प्रकोंमें वरिणत कथानक तथा विशिष्ट पात्रोंसे सम्बन्ध रखता है । इन शब्दोंके द्वारा सारे नाटकके कथाभागकी संक्षेपमें बड़ी सुन्दरताके साथ एक तरहसे पुनरावृत्ति कर दी गई है। इसलिए यह दूसरे लक्षण के अनुसार निर्वहण सन्धिका उदाहरण है । श्लोकका अर्थ निम्न प्रकार है
(१) वह शिकार, मुनिकी पुत्री, फुलपात, (२) वह तोता और शृगाल, (३) वह पथिका, ब्राह्मण और म्लेच्छराज, (४) वह मनुष्यका मरण, लम्बस्तनी, मांत्रिक, उखत पुरुष, पक्षियोंका शम्द, शृगालोंकी आवाज, और सर्प यह सब प्रापको [हरिश्चन्द्रकी] शक्तिकी परीक्षाके लिए हमने ही किया था। .
इसमें] पाखेट इत्यादिसे मुखसन्धिमें निबद्ध [अर्थ], कीर इत्यादिसे प्रतिमुख सन्धिमें निबद्ध [मयं], अध्वगा इत्यादिसे गर्भ सन्धिमें अथित [अर्थ] और मनुष्य इत्यादिसे विमर्श सन्धिमें वरिणत [अथ] क्रमशः प्रारम्भ प्रादि अवस्थामोंसे युक्त फलवान अर्थ एकवाक्यता सम्पादनके लिए निर्वहण सन्धिमें संक्षेपसे फिर कहे गए हैं। [इसलिए निर्वहण सन्धिके दूसरे लक्षणके अनुसार राज उसका उदाहरण है] ॥४०॥
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का० ४१-४२, सू० ४६ ] प्रथमो विवेकः
[ १०५ अथ 'दिव्याङ्गम' इत्यत्र अङ्ग-शब्दोपात्तानि उपक्षेपादीनि अङ्गानि विपञ्चयितु प्रथमं (१) मुखसन्धिगतान्युद्दिशतिसूत्र ४६] ---उपक्षेपः परिकरः परिन्यासः समाहितिः ।
उभेदः करणं चैतान्यत्रैवाथ विलोभनम् ॥४१॥ भेदनं प्रापणं युक्ति-विधानं परिभावना ।
सर्वसन्धिष्वमूनि स्युः, द्वादशाङ्गं मुखं ध्रुवम् ॥४२॥ 'अत्रैव' इति उपक्षेपादीनि करणान्तानि मुखसन्धावेव भवन्ति । तत्रापि उपक्षे र-परिकर-परिन्यालानां यथोद्देशक्रममादावेव, समाधानस्य तु रचनावशान्मध्यैकदेश एव, उभेद-करणयोस्तु उपान्त्ये निबन्धः । मुखसन्धिके द्वादश अङ्ग
पांचवीं कारिका में ग्रन्थकारने नाटकका लक्षण करते समय उसमें पञ्च-सन्धियोंकी चर्चा की थी। उन पञ्च-सन्धियों का निवेचन यहाँ तक समाप्त हो गया। अब आगे उन सन्धियों के अङ्गोंका वर्णन प्रारम्भ करते हैं । इन अङ्गोंकी संख्या प्रत्येक सन्धिमें अलग-अलग निर्धारित की गई है । मुखसन्धिमें १२ अङ्ग होते हैं। प्रतिमुखसन्धि, गर्भसन्धि तथा विमर्श सन्धि इन तीनों सन्धियों में तेरह-तेरह तथा निर्वहरण सन्धिमें १४ अङ्ग माने गए हैं। इस प्रकार पांचों सन्धियों में कुल मिलाकर अङ्गोंको संख्या पैसठ हो जाती है। प्रागे अन्थकार क्रमशः पाँचों सन्धियोंके इन पैंसठ अङ्गोंका वर्णन करेंगे। उनमें सबसे पहिले मुखसन्धिके बारह भेदोंका उद्देश अर्थात् नाम मात्रेण कथन करते हैं।
अब [पाँचवीं कारिकामें नाटकके लक्षणमें पाए हुए] दिव्याङ्गम् इसमें अङ्ग शब्दसे गृहीत होने वाले 'उपक्षेप' प्रादि [पांचों सन्धियोंको मिलाकर ६५] प्रङ्गोंका विवेचन करनेके लिए पहिले मुखसन्धिके [बारह] अङ्कोंका उद्देश [अर्थात् नाममात्रसे कथन करते हैं
[सूत्र ४६]--(१) उपक्षेप, (२) परिकर, (३) परिन्यास, (४) समाधान, (५) उपभेद, (६) करण, ये छः अङ्ग] इसमें ही [अर्थात् मुखसन्धिमें ही होते हैं [अन्य सन्धियों में नहीं होते हैं ।
. सूत्र ४६]----ौर (७) विलोभन, (८) भेदन, (९) प्रापरण, (१०) युक्ति, (११) विधान तथा (१२) परिभावना ये [सात मङ्ग] सब सन्धियोंमें हो सकते हैं। इस प्रकार] बारह प्रङ्गोंवाला मुखसन्धि [रूपकके समस्त भेदोंमें 'ध्रव' अर्थात् प्रवक्ष्य होता है।
___'अत्रैव' इसका अभिप्राय यह है कि उपक्षेपसे लेकर करण पन्त [ प] मुखसन्धिमें ही होते हैं [अन्य सन्धियों में नहीं होते हैं। उनमें भी उपोष, परिकर तथा परिन्यास [इन तीनों अङ्गों] का इस [उद्देशके] क्रमसे [सम्बिके प्रारम्भमें ही सन्निवेश किया जाता है। समाधानका रचनाके अनुसार मध्यके [किसी] एक भागमें ही तथा उद्भेद एवं करणका [मुखसन्धिके प्रायः अन्तमें [उपान्त्ये ही सन्निवेश किया जाता है।
कारिका में आए हुए 'अत्रव' पदसे यह कहा था कि उपक्षेपसे लेकर करण पर्यन्त छः प्रङ्ग मुखसन्धिमें ही होते हैं, अन्य सन्धियोंमें नहीं होते हैं। इनमें से करण नामक भङ्ग पन्य सन्धियों में तो होता ही नहीं है किन्तु मुखसन्धिमें भी उसका होना मावश्यक
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नाट्यदर्पणम् . [ का० ४१-४२, स० ४६ उपक्षेपादीनि करणरहितानि युक्तिसहितानि षट अनावश्यं भवन्ति | विलोभनादीनि तु सर्वसन्धिष्वपि भवन्ति । संविधानकवशात् तदर्थस्यान्यत्रापि सम्भवात्। बाहुल्यनिबन्धनापेक्षया त्वत्रोपादानम्। एवमन्यसन्धिष्वपि ज्ञेयम् ।
__ भेदस्तु सवेसन्धिष्वङ्कान्ते, प्रवेशक-विष्कम्भकान्ते च अवश्यं निबन्धनीयः। पात्रभेदरूपत्वात् तस्य । उपक्षप-परिकर-परिन्यासभ्योऽपराण्यङ्गानि वृत्तानुगुण्याउद्देशकमातिक्रमेणापि निबध्यन्ते । आमुखस्य च नटवृत्तत्वेन इतिवृत्तानङ्गत्वात् तदनन्तरमङ्गानां निबन्धः। द्वादशाङ्गमिति सन्धिः। संविधानखण्डान्यङ्गानि सन्धिरूपस्य अङ्गिनोऽवयवत्वेन निष्पादकत्वात् । नहीं है। उस करणको हटाकर उसके स्थानपर युक्तिको जोड़ देनेपर जो उपक्षेप आदि छः अङ्ग बनते हैं उनका मुखसन्धिमें होना अनिवार्य है इस बात को अगले अनुच्छेदमें कहते हैं
करणको छोड़कर और युक्तिको मिलाकर उपक्षेपादि छः [अर्थात् (१) उपक्षेप, (२) परिकर, (३) परिन्यास, (४) समाधान, (५) उद्भेद तथा (६) युक्ति ये छः अङ्ग] यहां [अर्थात् मुखसन्धिमें] अवश्य होते हैं। विलोभनादि [शेष छः अङ्ग] तो सब ही सन्धियोंमें होते हैं। क्योंकि रचनाके अनुसार उनका कार्य 'अन्यत्र' [अर्थात् अन्य सन्धियोंमें भी हो सकता है। [सब सान्धयोंमें सम्भव होनेपर भी] यहाँ [अर्थात् मुखसन्धिमें] उन [विलोभनादि शेष छः अङ्गों का ग्रहण बाहुल्यके कारणसे [अर्थात् मुखसन्धिमें विलोभनादि अङ्गों का अधिकतर प्रयोग होनेके कारण किया गया है। इसी प्रकार अन्य सन्धियों [के अगोंके विषय] में भी मझना चाहिए।
। अर्थात् प्रतिमुखादि अन्य सन्धियोंमें कहे हुए अङ्गोंका प्रयोग भी उस-उस सन्धिसे भिन्न अन्य सन्धियोंमें भी हो सकता है। किन्तु अधिकतर प्रयोग उस-उस सन्धिमें ही होता है, इसलिए उनका ग्रहण उस-उस सन्धिमें विशेष रूपसे किया गया है।
भेद [नामक पाठवें अङ्ग] को सब सन्धियोंमें, अङ्कके अन्तमें, प्रवेशक तथा विष्कम्भकों के अन्तमें अवश्य प्रयुक्त करना चाहिए। क्योंकि वह पात्र-परिवर्तन रूप होता है। उपक्षेप, परिकर तथा परिन्यास [इन तीन अङ्गों को छोड़कर अन्य अङ्ग तो कथावस्तुकी अनुकूलताके अनुसार उद्देश-क्रमका परित्याग करके भी प्रयुक्त किए जा सकते हैं । प्रामुखके नटवृत्तान्त-रूप होनेसे कथावस्तुका भाग न होनेके कारण [उसके बीच में अङ्गोंका प्रयोग न करके] उसके बाद अङ्गोंका प्रयोग किया जाता हैं। 'द्वादशाङ्ग' इससे बारह अङ्गवाला सन्धि गृहीत होता है। सन्धिरूप अवयवीके अवयव रूपसे निर्माण करनेवाले होनेके कारण [उपक्षेपादि अङ्ग] रचना [संविधानक] के प्रङ्ग कहलाते हैं।
ऊपर जो हमने यह दिखलाया था कि मुखसन्धिके बारह अङ्ग, प्रतिमुख, गर्भ तथा विमर्शसन्धियोंमें से प्रत्येकमें तेरह-तेरह अङ्ग तथा निर्वहरणसन्धिमें चौदह अङ्ग माने गए हैं। यह अङ्गसंख्या केवल उन-उन सन्धियोंमें बतलाए गए अङ्गोंकी दृष्टिसे कही गई है। किन्तु उन सन्धियोंमें, कहे हुए अपने अङ्गोंके अतिरिक्त अन्य सन्धियों के अङ्गोंका प्रयोग भी हो सकता है। उनको मिला देनेपर यह संख्या वाला नियम नहीं रहता है । इसी बातको ग्रन्थकार अगले अनुच्छेदमें लिखते हैं
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का० ४१-४२, सू० ४६ ] प्रथमो विवेकः
- अङ्गसंख्यानियमश्च सन्धिषूपात्ताङ्गापेक्षया। सन्ध्यन्तरङ्गानुप्रवेशे तु न संख्यानियमः। संख्यासंक्षेपश्चाङ्गानां परस्परान्तर्भावेन प्रतिसन्धिसुकरोऽपि प्राचीनैरकृतत्वात् , भणितिभंगिबाहुल्यस्य च चमत्कारकारित्वादस्माभिर्न कृतः। 'ध्र वम्' इति मुखसन्धिः सर्वरूपकेष्ववश्यं भवति । निर्वहणमप्येवम् । श्रारम्भनिर्वाहयोरवश्यम्भावित्वात् । प्रतिमुखादयस्तु व्यायोगादिषु यथालक्षणं भवन्ति, न भवन्ति च ।
. अङ्गानि च वृत्तविस्तरकारित्वादवश्यं निबन्धनीयानि । अपरथा 'रामस्य पत्नी रावणेन वनान्तादपहृता। रामेण च जटायुषः समुपलभ्य, सुग्रीवं सहायं वानराधिराज्यप्रतिपादनादधिगम्य, समुद्रसेतुबन्धमाधाय, निहत्य च रावणं प्रत्यानीता इत्यत्र प्रारम्भाद्यवस्थानिबन्धनीयैः पञ्चभिरपि सन्धिभिर्बीजाशुपाययुक्तैनिबद्ध रूपके वृत्तसंक्षेपः स्यात् । तथा च न चमत्कारः। किं चारञ्जकमपि वृत्तं अङ्गवैचित्र्येण निबध्यमानं परां रक्तिमावहति । कार्यवशाच्च पुनरुच्यमानमपि वृत्त अङ्गभङ्गया निबद्धमपुनरुक्तमिवाभाति । अयःशलाकाकल्पता च अङ्गसम्बद्धाय वृत्तस्य न भवति । प्रत्येकशश्चाङ्गानां प्रयोजन यथावसरं लक्षणे दर्शयिष्यामः ॥४१
अङ्गोंको संख्याका नियम [उन-उन] सन्धियोंमें गृहीत अङ्गोंकी दृष्टिसे ही होता है। अन्य सन्धियोंके अङ्गोका अनुप्रवेश हो जानेपर तो यह संख्या-नियम नहीं रहता है। और प्रत्येक सन्धिमें [कुछ अङ्गोंका] एक-दूसरे में अन्तर्भाव करके अगोंको संख्याका संक्षेप सम्भव होनेपर भी प्राचीन प्राचार्योंके द्वारा न किए जानेके कारण तथा कथन-शैलियोंके बाहुल्यके चमत्कारजनक होनेके कारण हमने नहीं किया है । 'ध्र वम्' इस [पद]से [यह सूचित किया है कि] मुखसन्धि समस्त रूपकोंमें अवश्य होता है । इसी प्रकार निर्वहरणसन्धि भी [रूपकके समस्त भेदोंमें अवश्य होता है । [प्रत्येक रूपक अथवा प्रत्येक कार्य में प्रारम्भ और समाप्तिके अवश्यम्भावी होनेसे [प्रत्येक रूपकमें मुखसन्धि तथा निर्वहरणसन्धिका होना अपरिहार्य है । अन्य सन्धियोंका सब रूपक भेदोंमें होना अपरिहार्य नहीं है] प्रतिमुख प्रादि [अन्य सन्धियाँ] तो लक्षणोंके अनुसार व्यायोग आदि [रूपक भेदोंमें होती भी हैं और नहीं भी होती हैं।
[प्रत्येक सन्धिमें वरिणत] अङ्गोंके, कथावस्तुके विस्तारकारी होनेसे अङ्गोंकी रचना (रूपकोंमें] अवश्य करनी चाहिए । अन्यथा [रूपकको कथावस्तु बहुत संक्षेपमें समाप्त हो जानेके कारण चमत्कार-शून्य हो जावेगी। जैसे] (१) रामको पत्नीको रावणने हरण कर लिया। (२) रामचन्द्रने जटायुसे [इस समाचारको] जानकर, (३) वानरोंके अधिराजपदको प्रदान करनेके द्वारा सुग्रीवको अपना सहायक बनाकर, (४) समुद्रपर सेतुबन्ध बनाकर और रावरणको मारकर, (५) उसको लौटा लिया इस [रामायणको कथा में प्रारम्भावि प्रवस्थानों के द्वारा विरचित तथा बीजादि उपायोंसे युक्त पाँचों सन्धियों [के प्रयोग] से [युक्त] रूपकको रचना करनेपर [भी] कथावस्तुका [अत्यन्त] संक्षेप हो जाता है। इसीलिए उसमें कोई चनत्कार नहीं रहता है । [इसके विपरीत] अरञ्जक [नीरस] कथावरतु भी विभिन्न अङ्गों द्वारा [विस्तार-पूर्वक वणित होनेपर अत्यन्त मनोरञ्जक बन जाती है । और कार्यवश [कहींकहीं] कथाभाग पुनरुक्त होनेपर भी प्रङ्गोंको शैलीसे निबद्ध होनेपर पुनरुक्त-सी प्रतीत नहीं
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१०८ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ४३, सू० ५० अथ सकल काव्यार्थः, प्रधानरसलक्षणं प्रयोजनं च, संक्षेपेणोपक्षिप्यत इति प्रथम (१) 'उपक्षेपं लक्षति
[सूत्र ५०]-बीजस्योप्तिरुपक्षेपः-- विस्तारिणः काव्याथस्य मूलभूतो भागो बीजमिव 'बीजम'। तस्य उप्तिरावापमानं 'उपक्षेः' । यथा रत्नावल्यां नेपथ्ये
द्वीपादन्यस्मादपि मध्यादपि जलनिधेर्दिशोऽप्यन्तात् ।
आनीय झटिति घट यति विधिरभिमतमभिमुखीभूतः ।। इत्यादिना यौगन्धरायणेन वत्सराजस्य रत्नावलीप्राप्तिहेतुः स्वव्यापारानुकूलदैवो बीजमुप्तम् ॥ होता है। और अगसे सम्बद्ध [अर्थात् अङ्गोंको शैलीसे निबद्ध] कथावस्तु लोहेको शलाकाके समान [एकदम सीधा अपरिवर्तनीय नहीं रहता है [उसमें लचकोलापन आ जाता है जिससे कवि सौन्दर्याधानके लिए उसे प्रावश्यकतानुसार मोड़माड़ सकता है। प्रत्येक अङ्गका अलगअलग प्रयोजन उनके लक्षणमें यथावसर दिखलावेंगे।
इस अनुच्छेद में ग्रन्थकारने पश्च-सन्धियोंमें कहे जानेवाले मङ्गोंकी उपयोगिताके विषय में सामान्यरूपसे प्रकाश डाला है । उसके अनुसार अङ्गोंका प्रयोजन कथावस्तुमें चमत्कार को उत्पन्न करना है । अङ्गोंके प्रयोगके बिना अत्यन्त सरस कथावस्तु भी नीरस बन जाती है । और अङ्गोंके यथोचित प्रयोगके द्वारा नीरस कथावस्तुमें भी चमत्कार उत्पन्न किया जा सकता है। इसलिए ग्रन्थकारने रूपकोंमें अङ्गोंके प्रयोगको अपरिहार्य माना है। उन्हीं के द्वारा कथाका विस्तार और लचकीलापन पाता है। और पुनरुक्ति प्रादि दोषोंका परिहार होता है । प्रत एव अङ्गोंका प्रयोग अत्यन्त आवश्यक है ॥४१-४२।।
इन दो कारिकाओं में मुखसन्धिके अङ्गोंका उद्देश अर्थात् नाममात्रसे कथन करनेके बाद अब ग्रन्थकार मुखसन्धि के बारहों अङ्गोंका अलग-अलग-अलग लक्षणादि आगे करेंगे । इनमें सबसे पहिले उपक्षेप रूप प्रथम अङ्गका लक्षण करते हैं -- (१) उपक्षेप
[उपक्षेप रूप प्रथम मनके द्वारा समस्त काव्यका अर्थ और प्रधान रस रूप प्रयोजन संक्षेपमें बीज रूपसे उपक्षिप्त किया जाता है, इसलिए ['उपक्षिप्यतेऽनेन इति उपक्षेपः' इस व्युत्पत्तिके अनुसार सबसे पहिले 'उपक्षेप' का लक्षण करते हैं
[सूत्र ५०]- [कथावस्तुके बीजका वपन करना 'उपक्षेप' कहलाता है ।
[मागे चलकर विस्तृत होनेवाले कथावस्तुका मूलभूत भाग धान्यके] बोजके समान [होनेसे 'बीज' [कहलाता है। उसको डालना अर्थात् बोना जिस अङ्गके द्वारा किया जाता है वह] 'उपक्षेप' [कहलाता है।
जैसे रत्नावलीमें नेपथ्यमें [बीजका 'उपक्षेप' इस प्रकार किया गया है
दूसरे द्वीपसे भी, समुद्रके बीचसे भी और दिशाके छोरसे भी अनुकूल हुआ वैव अभिइत वस्तुको लाकर मिला देता है।
इत्यादि [कथन के द्वारा [वत्सरांज उदयनके मंत्री] यौगन्धरायणने वत्सराज उदयन] को रस्नावली [नाधिका] की प्राप्ति करानेवाले अपने व्यापारके अनुकूल देव रूप
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का० ४३, सू० ५१-५२ । प्रथमो विवेकः
[ १०६ (२) अथ परिकरः
[सूत्र ५१]---स्वल्पव्यासः परिक्रिया । उपक्षिप्तस्यार्थस्य सुष्ठु विशेषवचनैरल्पं विस्तारणं 'परिकरः'। यथा वेणीसंहारे भीमसेनः सहदेवमाह
प्रवृद्धं यद्वैरं मम खलु शिशोरेव कुरुभिः,. न तत्रार्या हेतुर्भवति न किरीटी न च युवाम् । जरासन्धस्योरःस्थलमिव विरूढं पुनरपि,
क्रुधा भीमः सन्धिं विघटयति यूयं घटयत ॥ इति । (३) अथ परिन्यासः
[सूत्र ५२]--विनिश्चयः परिन्यासः---
उपक्षिप्य, विस्तारितस्यार्थस्य विशेषेण निश्चयः सिद्धतया हृदयेऽवस्थापन परितो न्यसने 'परिन्यासः' । यथा राघवाभ्युदये
___ "मतिसागर:---देव मा शतिष्ठाः। प्रलयेऽपि हि किं विपरियन्ति मुनिभाषितानि ? बीजका प्राधान किया है। (२) परिकर
'परिकर [नामक मुखसन्धिके दूसरे प्रकको कहते हैं]--
[सूत्र ५१]--[बीज रूपमें उपक्षिप्त अर्थका] स्वल्प विस्तार 'परिफर' [नामक, मुखसन्धिका कहलाता है।
[बीज रूपमें उपक्षिप्त प्रर्थका [स्वल्पव्यासः अर्थात भली प्रकारसे विशेष वचनों द्वारा तनिक-सा विस्तार करना परिकर' [कहलाता है। जैसे वेणीसंहारमें भीमसेन सहदेव से कहते हैं...
'मेरा कौरयोंके साथ बचपनसे ही जो बैर बन गया है उसमें न प्रार्य [अर्थात् युधिष्ठिर कारण हैं, न अर्जुन और न तुम दोनों [अर्थात् नकुल और सहदेव ही कारण हैं । क्रोधके कारण भीमसेन [अर्थात् मैं स्वयं] जरासंधके उरःस्थलके समान परिपक्व संधिको भी अङ्ग करने जा रहा है तुम लोग उसे भले हो जोड़ते रहो।" (३) परिन्यास
सूत्र ५२]--[उपक्षिप्त प्रौर तनिक विस्तारित अर्थका] विशेष रूपसे निश्चय परिन कहलाता है।
बीज रूपमें उपक्षिप्त करके फिर [परिकर अङ्ग द्वारा] विस्फारित अर्थका विशेष रूपसे निश्चय अर्थात् सिद्ध मानकर हृदयमें धारण करना [परितः] पूर्ण रूपसे हृदयमें] स्थापित करना परितो न्यसनं परिग्यास: इस विग्रहके अनुसार] 'परिन्यास' [कहलाता) है। जैसे 'राधवाभ्युदय' में
मतिसागर--हे राजन् ! आप शङ्का न करें। क्या मुनियोंके वचन कभी प्रलयमें भी मिथ्या हो सकते हैं ?
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११० ]
नाट्यदर्पणम [ का० ४३, सू० ५२ . जनकः-तन् किं भुजदण्डविक्रमाक्रान्तभारतखण्ड अन्यस्य तस्यापि पराजयः सम्भाव्यते?
मतिसागरः- [स्वगतम्] अहो दुरात्मनो राक्षसस्याश्वियं, यदयं रहोऽपि देवस्त इभिधानमुच्चारयन् बिभेति । (प्रकाशम्] देव सम्भाव्यत इति किमुच्यते ? सिद्ध एव किं नाभिधीयते देवेन ।" इति । यथा वा वेणीसंहारे
"चश्चद्-भुजभ्रमित-चण्डगदाभिघातसञ्चूर्णितोरुयुगलस्य सुयोधनस्य । स्त्थानापविद्ध-घनशोणिनशोणपाणि
रुत्तयिष्यति कचांस्तव देवि भीमः ॥” इति । यथा वास्मदुपटे रोहिणीमृगाङ्काभिधाने प्रकरणे प्रथमऽङ्के मृगात प्रति"वसन्तः-कुमार मा शङ्किष्ठाः
__उन्मत्तप्रेमसंरम्भादारभन्ते यदङ्गनाः।
तत्र प्रत्यूहमाधातु ब्रह्मापि खलु कातरः॥" अनुपक्षिप्तोऽर्थो न विस्तायेते, अविस्तारितश्च न निश्चीयते इति त्रयाणामप्येषां उद्देशक्रमेणैव निबन्धः ।
· जनक - तो क्या अपने भुजदण्डके विकमके ही जिसने भारतके तीन खण्डोंको माक्रांत कर लिया है उस [रावरण] की भी कभी पराजय हो सकती है ?
मतिसागर--[अपने मनमें 'स्वगत' कहते हैं] अहो दुष्ट राक्षसराजके शासनका कैसा प्रभाव है कि ये महाराज एकांतमें भी उसका नाम लेने में डरते हैं। [प्रकाशम्] हे राजन् [उसको पराजय] सम्भव है ऐसा क्यों कहते हैं, सिद्ध हो है ऐसा प्राप क्यों नहीं कहते हैं। इसमें [विस्तारित अर्थका 'विशेषेण निश्चयः' अर्थात् सिद्धतया कथन होनेसे यह 'परिन्यास' नामक तीसरे अङ्गका उदाहरण है।
अथवा जैसे वेणीसंहारमें--
हे देवि ! अपनी चञ्चल भुजाभोंसे घुमाई हुई भयङ्कर गवाके प्रहारसे तोड़ी हुई दुर्योधन की दोनों जवानोंके गाढ़े जमे हुए प्रचुर रक्तसे रंगे हुए हाथोंसे ही यह भीम तुम्हारे बालोंको बाँधेगा। इसमें [विस्तारित अर्थका सिद्धवत् कथन होनेसे यह 'परिन्यास' का उदाहरण है ।
अथवा जैसे हमारे बनाए हुए 'रोहिणीमृगाङ्क नामक प्रकरणमें प्रथमाङ्कमें मृगाके प्रति वसन्त कहता है]
वसंत कुमार ! पाप [किसी प्रकारको शङ्का न करें।
उन्मत्त प्रेमके आवेगमें स्त्रियाँ जो [प्रणय-व्यापार] प्रारम्भ करती हैं उसमें विघ्न डालनेका साहस ब्रह्मा भी नहीं कर सकता है।
संक्षिप्त रूपमें बीजके समान] उपक्षिप्त किए बिना अर्थका विस्तार नहीं किया जा सकता है और विस्तार किए बिना निश्चय नहीं किया जा सका है इस लिए [उपक्षेप परिकर तथा परिन्यास] इन तीनों [अङ्गों] का उद्देशकमसे [अर्थात् इसी क्रमसे सन्निवेश करना चाहिए।
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का० ४३, सू०५३ ] प्रथमो विवेकः
[ १११ (४) अथ समाहितिः
[सूत्र ५३]--पुनासः समाहितिः ॥४३॥
संक्षिप्योपक्षिप्तस्य बीजस्य स्पष्टताप्रतिपादनार्थ पुनासो भणितिवैचित्र्यं, सम्यग् अासमन्तात् धानं पोषणं 'समाहितिः'।
यथा वेणीसंहारे--
"[नेपथ्ये)-भो भो द्रुपद विराट-वृष्ण्यन्धक-सह देवप्रभृतयोऽस्मदक्षौहिणीपतयः कौरवचमूप्रधानाश्च यो: श्रूयताम्---
यत् सत्यवतभङ्गभीरुमनसा यत्नेन मन्दीकृतं, यद्विस्मर्तुमपीहितं शमवता शान्तिं कुलस्येच्छता। तद् द्यूतारणिसम्भृतं नृपसुताकेशाम्बराकर्षणैः,
क्रोधज्योतिरिदं महत् कुरुवने यौधिष्ठिरं जम्भते ॥” इति । 'स्वस्था भवन्ति' इति यद्वीजं, तदिदानी प्रधाननायकतगतत्वेन सम्यक् पोष नीतिमिति ॥४३॥ (४) समाधान
अब [चतुर्थ अङ्ग] 'समाधान' [का लक्षण करते हैं]--
[सूत्र ५३]- [संक्षेपमें उपक्षिप्त बीजका) दुबारा [अधिक स्पष्ट रूपसे प्राधान 'समाधान' [कहलाता है। ४३ ।
[उपक्षेप रूप प्रथम अङ्गमें] संक्षेपसे उपक्षिप्त बीजको और अधिक स्पष्ट रूपसे प्रतिपादन करनेके लिए फिरसे कथन करना अर्थात् विचित्र भाषणशैलीसे [दुबारा कथन करना, 'सम्यग्' भली प्रकारसे और 'पा समन्तात् पूर्ण रूपसे स्थापित करना [इस विग्रहके अनुसार 'समाधान' [समाहिति कहलाता है।
जैसे वेणीसंहारमें--
"नेपथ्यमें-हे द्रुपद, विराट्, वृष्णी, अन्धक और सहदेव प्रादि हमारी प्रक्षौहिणी सेनाके सेनापतियो ! और कौरवोंको सेनाके प्रधानाधिकारियो ! [पाप सब लोग कान खोलकर सुनलें कि-~
बारह वर्ष वनवास तथा एक वर्षके अज्ञातवासका जो व्रत हम पाण्डवोंने लिया है वह कहीं भङ्ग न हो जाय इस प्रकार] सत्यव्रतके भङ्गसे डरनेवाले [युधिष्ठिर ने [अब तक अपनी] जिस [क्रोधाग्नि] को यत्न-पूर्वक दबाए रखा था और शान्त-स्वभाव वाले [युधिष्ठिर] ने फुलकी शान्तिको कामनासे जिसको भूलनेका भी यत्न किया, द्यूतको अररिणयोंसे उत्पन्न और द्रौपदीके केश तथा वस्त्रोंके खींचे जानेसे नरपशु [दुःशासन के द्वारा उद्दीप्त किया हुमा युधिष्ठिरकी वह भयानक क्रोधाग्नि प्राज कुरुकुल रूप वनमें [उसको भस्म कर देनेके लिए] प्रदीत हो रहा है।
इसमें ['स्वस्था भवन्तु मयि जीवति धार्तराष्ट्राः' मेरे जीवित रहते कौरव कहीं] 'स्वस्थ हो सकते हैं' [अथवा कौरव स्वर्गको भावें] इस रूपमें जिस बीजका प्राधान किया गया था वह इस समय प्रधान नायक [युधिष्ठिर गत रूपसे पूर्ण रूपसे परिपुष्ट हो गया है। [इस लिए यह 'परिन्यास'का उदाहरण है] ॥४३॥
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११२]
(५) अथोदभेदः -
नाट्यदर्पणम्
[ सूत्र ५४ ] स्वल्पप्ररोह उद्भेद:
श्रीमुखानन्तरमुप्तस्य बीजस्य स्वल्पप्ररोहः, किञ्चित् फलानुष्ठानानुकूल्यप्रदर्शनं धान्यस्योच्छूनतेव 'उभेद:' । बीजस्योद्घाटन मं कुरवल्पम्, उद्भेदः पुनरंकुर कल्पादुद्घाटनाद भूमिन्यस्तधान्योच्छूनते व प्राचीनावस्था इत्ययं मुखसन्धेरेवाङ्गम् । न पुनरुदुघाट रूपत्वात् प्रतिमुखसन्धेः । यथा वेणीसंहारे-" नाव पुणो वि तए आगच्छिय अहं समासासइदव्वा ।" [नाथ पुनरपि त्वयागत्याहं समाश्वसयितव्या । इति संस्कृतम् ]
इस प्रकार यहाँ तक मुखसन्धिके उपक्षेप, परिकर परिन्यास तथा समाधान रूप चार जोंका वर्णन हो चुका है । अब उदुभेद नामक पश्चम श्रङ्गका वर्णन प्रारम्भ करते हैं । उपभेद - शब्द से मिलता-जुलता दूसरा उद्घाट-शब्द है । इस शब्दका प्रयोग प्रतिमुखसन्धि के लक्षण के प्रसङ्ग में पहिले किया जा चुका हैं । " प्रतिमुखं कियल्लक्ष्यबीजोद्घाटसमन्वितः " प्रतिमुखसंधि के इस लक्षण में 'बीजोद्घाट' की चर्चा की गई थी । यहाँ मुखसंधि के पञ्चम भेद का नाम 'उभेद' है । इसमें भी बीजके 'स्वल्पप्ररोह' की चर्चा की गई है । इससे कभी यह प्रश्न हो सकता है कि इस 'उद्भेद' और 'उद्घाट' में क्या अन्तर है । इस लिए इस 'उद्भेद' रूप मुखसंधि के अङ्गकी व्यवस्था के प्रसङ्गमें ही ग्रंथकारने प्रतिमुखसंधि के 'उद्घाट' से 'उद्भेद' का यह अन्तर दिखलाया है कि जैसे बीजको भूमिमें बोनेके बाद पहिले बीज फूलता है तब उसके बाद बीज फूटकर उसमें से अंकुर निकलता है । उसी प्रकार बीजको फूलनेवाली अवस्था के समान यहाँ नाट्य बीजका जो स्वल्प विस्तार होता है वह 'उद्भेद' कहलाता हैं । और धान्य बीजकी अंकुरावस्था के समान जो और अधिक विस्तार होता है वह 'उदूघाट' कहलाता है। इस प्रकार 'उद्भेद' प्रङ्ग, 'उद्घाट' की अपेक्षा पूर्ववर्ती श्रङ्ग है । इसी लिए वह मुखसन्धिका अङ्ग है। और 'उद्घाट' उसके बादकी अंकुर कल्प अवस्था है। इस लिए वह 'उद्भेद' के बादकी श्रौर प्रतिमुखसन्धि की अवस्था है। 'उद्भेद' श्रौर 'उद्घाट' के इस भेदको ग्रन्थकार 'उद्भेद' को व्याख्या में आगे दिखलाते हैं । (५) उभेद
+
[ का० ४४, सू० ५.४
अब उभेव [नामक मुखसन्धिके पञ्चम अङ्गका लक्षण कहते हैं ] -
[ सूत्र ५४ ] - [ बीजका ] थोड़ा-सा विस्तार उभेद [नामक श्रङ्ग कहलाता ] है । श्रामुखके बाद बोए गए [कथावस्तुके] बीजका तनिक-सा विस्तार प्रर्थात् थोड़ी-सी फलको धनुकूलताका प्रदर्शन, धान्यकी उच्छूनता [ फूलने] के समान [ होनेसे ] 'उभेव' [कहलाता ] है । [ प्रतिमुख सन्धिमें कहा जानेवाला ] बीजका 'उद्घाट' [धान्यबीजके ] अंकुर के समान हैं। और उद्भेद अंकुर कल्प उद्घाटसे पूर्ववर्ती धान्यके फूलनेके समान उससे पहिली अवस्था है । इस लिए यह [ उद्भेद] मुखसंधिका ही प्रङ्ग है । न कि 'उद्घाट' रूप होनेसे प्रतिमुखसंधिका । [ अर्थात् प्रतिमुखसंधिके 'उद्घाट' से सुखसंघिका 'उद्भेद' श्रङ्ग बिलकुल भिन्न तथा उससे पूर्ववर्ती श्रवस्था रूप है ।]
जैसे वेरणीसंहार में -
" हे नाथ ! श्राप फिर भी प्राकर मुझे भाश्वासन देवें ।
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का० ४३, सू० ५४ ] प्रथमो विवेकः
[ ११३ इति द्रौपद्याभिहितो भीमः प्रत्याह-- "अयि किमद्यायलीकाश्वासनाभिः ?
भूयः परिभवक्षान्तिलज्जाविधुरिताननम् ।
अनिःशेषितकौरव्यं न पश्यसि वृकोदरम् ॥" इति कुरुनिधनारम्भरूपस्य बीजार्थस्यायमुभेदः । इति ।
अन्ये तु गृढभेदनमुभेदनमामनन्ति । यथा रत्नावल्यां वत्सराजस्य कुसुमायुव-व्यपदेश-निगूढस्य 'अस्तापास्त' इत्यादिना वैतालिकवचसा सागरिका प्रत्युभेदः।
यथा वा राघवाभ्युदये___ "सीता-[समन्तादवलोक्य रामं च सविशेष निर्वर्ण्य स्वगतम् ] कथमयमनङ्गोऽप्यङ्गमास्थाय चापारोपणं द्रष्टुमायातः । प्रसीद भगक्ननङ्ग ! प्रसीद । तथा कुयों यथा राम एव चापारोपणाय प्रभवति ।
लवङ्गिका-[अंगुल्या रामं दर्शयन्ती] जं भट्टिदारिया इत्तियं कालं मरणोरहगोबरं कयवदी तं संपयं दिहिगोयरं करेदु ।
[यं भदारिका इयन्तं कालं मनोरथगोचरं कृतवती, तं साम्प्रतं दृष्टिगोचरं करोतु । इति संस्कृतम्] ।
द्रौपदीके इस प्रकार कहनेपर भीमने उत्तर दिया कि"अरे अब भी और मिथ्या पाश्वासन देनेसे क्या लाभ [मैं तो यही कहता हूँ कि]--
तिरस्कार सहन करनेको लज्जाके कारण मलिनमुख भीमको तुम अब कौरवोंका नाश किए बिना दुबारा नहीं देखोगी [अर्थात् अब मैं कौरवोंका समूल विनाश करनेके बाद ही दुबारा तुम्हारे पास पाऊँगा । उससे पहले नहीं] "
इसमें कौरवोंके विनाशके प्रारम्भ रुप बीजका 'उभेद' [स्वल्पप्ररोह] है ।
इस प्रकार ग्रन्थकारने मुखसन्धिके 'उद्भेद' नामक पञ्चम अङ्गका लक्षण प्रस्तुत किया। किन्तु अन्य व्याख्याकार 'उभेद'का लक्षण अन्य प्रकारसे करते हैं। उनके मतमें किसी गूढ अर्थका प्रकट होना 'उभेद' कहलाता है । इस मतको ग्रन्थकार भागे दिखलाते हैं ।
दूसरे [प्राचार्य] तो [किसी] गूढ [रहस्य के प्रकट होनेको 'उद्भेदन' कहते हैं। जैसे रत्नावलीमें [अनङ्ग पूजनके अवसरपर] कुसुमायुधके नामसे छिपे हुए वत्सराज [उदयन] का 'प्रस्तापास्त' इत्यादि [इलोक] से वैतालिकाके वचनसे सागरिकाके प्रति [उदयनके रूपमें वत्सराजका] प्रकट होना। [उभेद कहा जा सकता है ।
अथवा जैसे राघवाम्युक्यमें
"सीता--[चारों प्रोर देखकर और रामचन्द्रकी ओर विशेष रूपसे देखती हुई अपने मनमें स्वगत कहती है] अच्छा यह [अनङ्ग] कामदेव भी शरीर धारण करके धनुषके प्रारोपणको देखने के लिए पा गया है । कृपा करो, भगवन् मनङ्ग ! कृपा करो, जिससे रामचन्द्र ही धनुषके चढ़ानेमें समर्थ हो सके [अन्य कोई समर्थ न हो सके ।
'लवङ्गिका---[अगुलीसे रामको दिखलाती हुई] हे स्वामिपुत्रि ! जिनको पाप प्रम तक मनोरथका विषय बनाए हुए थीं उनको अब दृष्टिका विषय बना लो [अर्थात् बेख लो] ।
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१.४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ४४, सू० ५५ __ सीता--[ ससम्भ्रमं स्वगतम् ] कथमहं राममेव अनङ्गमज्ञासिषम् ?"
इत्यनङ्गभ्रान्त्या निगूढस्य रामस्य लवङ्गिकावचसा उद्भेदः ।। (६) अथ करणम
[सूत्र ५५]-करणं प्रस्तुतक्रिया । अवसरानुगुणस्यार्थस्य प्रारम्भः करणम् । यथा वेणीसंहारे"सहदेवः-आर्य गच्छामो वयं गुरुजनानुज्ञाता विक्रमानुरूपमाचरितुम् । भीमः--एते च वयमुद्यता एवार्यस्याज्ञामनुष्ठातुम।" इत्यनेन अनन्तराङ्कप्रस्तूयमान-संग्रामारम्भणात् 'करणम् । यथा वा यादवाभ्युदये द्वितीयाङ्कोपान्त्ये
"कसः--[ सप्रसादम् ] साधु अमात्य साधु । अयमेव संग्रहोपायो नान्यः । तत् तर्हि व्रज त्वं सामग्रीकरणाय ।",
इत्यनेन अनन्तराङ्कप्रस्तूयमान-मल्लरङ्गभूमिप्रारम्भात् करणमिति । अन्ये तु विपदां शमनं करणमाहुः। शमनं चाशीर्वादवशेन अन्यथा वा।
सीता-[ पावर-पूर्वक अपने मनमें ] अच्छा मैं रामचन्द्रजीको हो कामदेव समझ रही थीं !"
. इस प्रकार कामदेवके भ्रममें छिपे हुए रामचन्द्रका लङ्गिकाके वचनसे [सीताके प्रति प्रकट होना] उद्भव है।
उभेदके दूसरे लक्षणके अनुसार ये दो उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किए गए हैं। (६) करण
प्रब करण [नामक मुखसन्धिके षष्ठ अङ्गका लक्षरण करते हैं][सूत्र ५५]-प्रस्तुत [कार्यका अनुष्ठान करण [कहलाता है। अवसरके अनुकूल अर्थका प्रारम्भ करना 'करण' [कहलाता है। जैसे घेणीसंहारमें--
"सहदेव-हे प्रार्य. हम गुरुजनोंकी अनुमतिसे अपने पराक्रमके अनुसार [युर] करनेके लिए जा रहे हैं।
भीम--और ये हम भी प्रार्यको प्राज्ञाका पालन करनेके लिए तैयार हो हैं।"
इस [संवाद] से अगले अङ्कमें प्रस्तुत किए जाने वाले संग्रामका प्रारम्भ करनेसे यह 'करण' [का उदाहरण है। __ अथवा असे यादवाभ्युदयमें द्वितीय अङ्गके प्रायः अन्तमें उपान्त्ये]--
"कंस--[प्रसन्न होकर शाबाश मन्त्रिवर शाबाश, यही [कृष्णक] पकड़नेका उपाय है दूसरा नहीं। इस लिए सामग्री तैयार करनेके लिए जानो।"
इस [कथन से अगले परमें प्रस्तुत किए जानेवाले मल्लयुगका मलाड़ा बनानेका प्रारम्भ करनेसे यह 'करण' [नामक मुखसंषिका षष्ठ पङ्ग है।
पन्य [माचार्य] तो विपत्तियोंके शमनको 'करण' कहते हैं। वह शमन मानीरिक रूपमें अथवा अन्य प्रकारसे दोनों प्रकारसे हो सकता है।
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का० ४४, सू० ५६ ] प्रथमो विवेकः
[ ११५ यथा वेणीसंहारे भीमं प्रति द्रौपदी
"जं असुरसमराभिमुहस्स हरिणो मङ्गल, तं तुम्हाणं भोदु । इति ।
[यदसुरसमराभिमुखस्य हरेमङ्गलं, तद् युष्माकं, भवतु । इति संस्कृतम् । (७) अथ विलोभनम्-- -
[सूत्र ५६]-विलोभनं स्तुतेर्गाय॑म्
स्तुते-गुणवदेतदिति श्लाघातः प्रस्तुते कृत्ये गाय-अभिलाषस्थिरीकरण विलोभनम् । .. यथा वेणीसंहारे 'चश्वभुज' इत्यादि श्लोकानन्तरं
"द्रौपदी-नाध किं दुक्करं तए परिकुविएण ? ता अणुगिएहंतु एदं वसिदं देवदाउ ।
[नाथ ! किं दुष्करं त्वया परिकुपितेन ? तदनुगृह्णन्तु एतद् व्यवसितं देवताः । ' इति संस्कृतम]
इत्यनेन सुयोधन वधस्य गुणवत्त्वख्यापनाद् भीमस्य गाय पदं विलोभनम् । इदं च परिन्यासानन्तरमेव निबध्यते । सन्ध्यन्तर साधारण्याय चोक्तक्रमेणोशः॥
जैसे 'वेणीसंहार' में भीमके प्रति द्रौपदी कहती है]
असुरोंसे युद्ध के लिए जाते हुए विष्णुको जो मङ्गल प्राप्त हुआ था वह तुमको भी [प्राप्त हो। (७) विलोभन
विलोभन-अब विलोभन [नामक सत्तम अङ्गको कहते हैं][सूत्र ५६]-- स्तुतिके द्वारा [वस्तुके प्रति] अभिलाष विलोभन [कहलाता है।
स्तुतिसे अर्थात यह [वस्तु] गुरगवान है इस प्रकारको प्रशंसाके कारण प्रस्तुत कार्य के विषय में अभिलाषका स्थिर हो जाना 'विलोभन' [कहलाता है।
जैसे 'वेणीसंहार' में 'चञ्चद्भुजभ्रमित' इत्यादि श्लोकके बाव द्रौपदी [कहती है] ----
"हे नाथ आपके प्रकुपित होनेपर क्या दुष्कर है ? [अर्थात् सब कुछ सहज साध्य है । इसलिए देवतागण तुम्हारे इस निश्चयको अनुगृहीत करें।"
इससे सुयोधनके वधको गुणवत्ताको सूचित करके भीमसेनके [उसके प्रति] अभिलाष को पुष्ट करना 'विलोभन' है।
इसका सन्निधेश [मुखसन्धिके चतुर्थ प्रङ्ग] 'परिन्यास' के अनन्तर [पञ्चम अङ्गके रूपमें] ही होता है। परन्तु उद्देशवालो कारिकामें इसे परिन्यासके बाद नहीं रखा है। ६ मङ्गोंके बाद सातवें अंगके रूपमें रखा गया है। इसका यह कारण है कि ] अन्य सन्धियोंमें भी होनेके कारण उक्त क्रमसे [ अर्थात् अन्य सन्धियोंमें होनेवाले अङ्गोंके प्रारम्भमें ] कथन किया गया है।
इसका यह अभिप्राय है कि यह जो 'विलोभन' अङ्ग यहाँ दिखलाया है इसका स्थान साधारणतः मुखसन्धिके परिन्यास अङ्गके बाद होता है । इसलिए मुखसन्धिके अङ्गोंमें 'परिन्यास' अङ्गके बाद इसको गिनाना चाहिए था। किन्तु ४१वीं कारिकामें परिन्यासके बाद
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११६ ]
(८) अथ भेदनम् -
नाट्यदर्पणम
[ सूत्र ५७ ] - भेदनं पात्रनिर्गमः ॥ ४४ ॥
रङ्गप्रविष्टानां पात्राणां निर्गमो रङ्गान्निःसरणं येन तद् भेदनम् । पात्राणां यथास्वं प्रयोजनवशादितश्च इतश्च गन्तुमन्यार्थोऽप्यभिप्राय उद्यमो वा रङ्गान्निर्गममापादयन् भेदनमुच्यते । यथा 'वेणीसंहारे' भीमो द्रौपद्या संग्रामापायशङ्किन्या शरीरानपेक्षे पराक्रमे निषिद्धः प्रत्याह---
"भीमः - सुक्षत्रिये -
[ का० ४४, सू० ५७
अन्योऽन्यास्फालभिन्न-द्विपरुधिर- वसा-सान्द्रमस्तिष्क पङ्के,
मग्नानां स्यन्दनानामुपरिकृत पदन्यासविक्रान्तपत्तौ । स्फीतास+पानगोष्ठी र सदशिवशिवा तूर्य - नृत्यत्क बन्धे,
संग्रामैकार्णवान्तःपर्यास विचरितु पण्डिताः पाण्डुपुत्राः ||" इति ।। एतेन हि संग्रामविचरणे पाण्डवानां पाण्डित्यख्यापनेन संग्रामावतरणाभिप्रायः सहदेवस्य, आत्मनश्च संघात भेदनार्थ एवोपदर्शित इति भेदोऽङ्गम् ।
इसको न कराके करण के अनन्तर उसकी गणना कराई है। इसका कारण यह है कि करण तक के ६ ग्रङ्ग केवल मुखसन्धिमें ही होते हैं। आगे गिनाए गए शेष छः अङ्ग मुखसन्धिके अतिरिक्त अन्य सन्धियों में भी होते हैं । यह बात पीछे कह चुके हैं। यह विलोभन श्रङ्ग मुखसन्धि के प्रतिरिक्त अन्य सन्धियों में भी हो सकता है । इसलिए उसका नाम परिन्यासके बाद न रखकर अन्य सन्धियों में भी होनेवाले ग्रङ्गों के साथ रखा गया है। (८) भेदन --
ब भेदन [नामक मुखसन्धिके प्रष्टम अङ्गका लक्षरण करते हैं]--
[सूत्र ५७ ] पात्रोंका [रंङ्गभूमिसे] बाहर जाना 'भेदन' [कहलाता ] है १४४॥
रङ्गभूमि में प्रविष्ट हुए पात्रोंका निर्गम अर्थात् रङ्गभूमिसे बाहर जाना जिससे होता है वह 'भेदन' कहलाता है । किसी प्रयोजनवश पात्रोंका इधर-उधर जानेका अभिप्राय या उद्योग भी रङ्गभूमि निर्गमका हेतु होनेसे 'भेदन' कहलाता है। जैसे 'वेणीसंहार' में युद्ध में श्रनिष्टको आशङ्का करनेवाली द्रौपदीके द्वारा शरीरचिन्ताको छोड़कर पराक्रम करनेके लिए मना किए जानेपर भीमसेन कहते हैं
"भीम- हे सुक्षत्रिये !
एक-दूसरे के साथ संघर्ष में कटे हुए और हाथियोंके रुधिर एवं वसा [ चर्बी] से भरे हुए सिरोंको कीचड़ में डूबे हुए रथोंके ऊपर होकर पदाति सैनिक जिसमें पराक्रम दिखला रहे हैं, गरम-गरम रुधिरके पानकी गोष्ठीमें श्रृंगाल तथा शृगालियोंकी श्रमङ्गल ध्वनिका वाद्य [तुर्य] जिसमें बज रहा है और [कबन्ध अर्थात् सिर कटे हुए ] रुण्ड जिसमें नाच रहे हैं। इस प्रकारके अनोखे संग्राम सागरके जलके भीतर घुसकर विचरण करनेमें पाण्डव लोग निपुण हैं । [ इसलिए इस विषय में तुम किसी प्रकारको चिन्ता मत करो] "
इसके द्वारा संग्रामके भीतर विचरण करनेमें पाण्डवोंके पाण्डित्यको सूचित करके सहदेव के संग्राम में श्रवतीर्ण होनेके अभिप्रायको और [शत्रुनोंके] संघातको भेदन करनेके अपने
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का० ४५, सू० ५८ ] प्रथमो विवेकः
[ ११७ अन्ये तु भेई प्रोत्साहनमाहुः । यथा 'वेणीसंहारे'
"द्रौपदी-नधि ! मा खु जएणसेणीपरिभवुद्दीविदकोवा अणवेक्खिदसरीग परिककमिस्सध, यदो अपमत्तसंचरणोयाई रिउबलाई सुणीयति ।
[नाथ मा खलु याज्ञसेनीपरिभवोद्दीपितकोपा अनपेक्षितशरीराः परिक्रमिष्यथ यतोऽप्रमत्तसञ्चरणोयानि रिपुबलानि श्रूयन्ते । इति संस्कृतम् ।]
"भीमः-अयि सुक्षत्रिये ! 'अन्योऽन्यास्फालभिन्न-' ___ इत्यादिना विषएणाया द्रौपद्याः क्रोधोत्साहबीजानुगुण्येनैव प्रोत्साहना भेदः इति ।
अन्ये तु संहतानां प्रतिपक्षाणां बीजफलोत्पत्तिनिरोधकानां विश्लेषकं भेद- . रूपमुपायं 'भेदने' मन्वते इति ॥४४॥ (8) अथ प्रापणम्--
[सूत्र ५८]-~प्रापणं सुखसम्प्राप्तिः सुग्वस्य सुवहे तोश्च सम्यगन्वेषणादाप्तिःप्रापणम् । यथा वेणीसंहारे
"कञ्चुकी-[प्रविश्य] कुमार एष खलु भगवान् वासुदेवः पाण्डवपक्षपातामर्षितेन कुरुराजेन संयमितुमारब्धः । ततः स महात्मा दर्शितविश्वरूपतेजःसम्पातमूछितमवधूय कुरु बलमस्मत्सेनासन्निवेशमनुप्राप्तः । अतो देवः कुमारमविलम्बितं अभिप्रायको प्रदर्शित किया है इसलिए यह 'भेवन' नामक अङ्ग है।
अन्य [प्राचार्य] तो प्रोत्साहनको भेद' कहते हैं । जैसे वेणीसंहारमें
"द्रौपदी-नाथ याज्ञसेनीके अपमानसे उद्दीप्तक्रोध होकर कहीं अपने शरीर [को रक्षाको] पोरसे असावधान होकर युद्धभूमिमें न घूमने लगना । क्योंकि शत्रु-सेनामें सावधान होकर ही जाना चाहिए ऐसा सुनते हैं।
भीम---हे सुभत्रिये ! [तुम डरती क्यों हो] 'अन्योऽन्यास्फाल' [इत्यादि पिछले श्लोकमें कहे हुए संग्रामके भीतर विचरण करने में पाण्डव लोग बहुत निपुण हैं। इसलिए तुम चिन्ता न करो ।
इत्यादि [कथन] से, विषण्ण मनवाली द्रौपदीको क्रोध तथा उत्साहके बीजके अनुरूप ही प्रोत्साहन किए जानेसे यह 'भेद' नामक अङ्ग] है।
अन्य [प्राचार्य] तो बीजकी फलोत्पत्तिका अवरोध करनेवाले संहत शत्रुनोंके फोड़ने वाले भेदरूप उपायको ही 'भेदन' [नामक सन्ध्यङ्ग] मानते हैं ॥४४॥ ।
__इस प्रकार 'भेदन' नामक अष्टम अङ्गकी चार प्रकारको व्याख्या उपस्थित की है। अब आगे मुखसन्धिके नवम अङ्ग 'प्रापण'का लक्षण प्रादि करते हैं। (E) प्रापण
अब प्रापण [नामक, मुखसन्धिके नवम अङ्गका लक्षण करते हैं][सूत्र ५८]-सुखकी सम्प्राप्ति प्रापण [नामक अङ्ग कहलाती है।
सुख तथा सुखके कारणको भली प्रकार अन्वेषणसे होनेवाली प्राप्तिको 'प्रापरण' [नामक सन्ध्यङ्ग कहा जाता है। जैसे वेणीसंहारमें
"कञ्चुकी-[प्रविष्ट होकर कुमार पाण्डवोंके प्रति पक्षपातके कारण कुछ होकर कुरुराजने इन भगवान वासुदेवको पकड़ना चाहा। तब वे महात्मा अपने विश्वरूपके प्रदर्शित
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११८ ]
नाट्यदर्पणम्
द्रष्टुमिच्छति ।"
अयं ह्यर्थो भोमसेनस्य कुरुभिः सह सन्धिभेदमापादयश्चान्तः सुखयतीति । तथा भरिणतिवैचित्र्यार्थमङ्गानि कवय एकस्मिन्नपि सन्धावावर्तयन्ति । यथा वेणीसंहारे इदमेवाङ्ग पुनर्निबद्धम् । तथाहि
"बेटी - [ द्रौपदीमुद्दिश्य सानन्दम् ] भट्टिणि ! परिकुविदो विश्र कुमारो लक्खीयदि ।
[भत्रि ! परिकुपित इव कुमारो लक्ष्यते । इति संस्कृतम् ] |
द्रौपदी - एवं ता अवधीरणा वि में एसा समासादि । ता इध य्येव उवविसि सुखामो दाव नाधस्स ववसिदं ।
[एवं तावदवधीरणापि मामेषा समाश्वासयति । तदत्रैवोपविश्य श्रुणुमः तावत् नाथस्य व्यवसितम् । इति संस्कृतम् ] । भीमः -
मथ्नमि कौरवशतं समरे न कोपाद, दुःशासनस्य रुधिरं न पित्राम्युरस्तः । सचूर्णयामि गदया न सुयोधनो सन्धिं करोतु भवतां नृपतिः पणेन ॥ द्रौपदी - [ सहर्षम् ] असुदपुरवं ईदिसं वयणं, ता पुणो विभा । [ अश्रुतपूर्वं ईदृग् वचनम् । तत् पुनरपि भरण । इति संस्कृतम् ] ।" करनेके तेजसे मूछित कौरव बलको छोड़कर अपनी सेनाके शिविर में चले आए। इसलिए देव प्रापको [ कुमारको] तुरन्त देखना चाहते हैं । [प्रर्थात् प्रापको तुरन्त बुला रहे हैं ] ।"
कौरवोंके साथ सन्धि [के प्रयत्न] को समाप्त करनेवाला यह अर्थ भीमसेनके अन्तःकररणको प्रसन्न करता है [ इसलिए यह प्रापरण नामक अङ्ग है] ।
उक्ति- वैचित्र्य सम्पादनार्थ कविगण एक ही सन्धिमें भी श्रङ्गों को दुहरा देते हैं । जैसे वेरणीसंहार में [मुखसन्धिमें ही] इस [प्रापरण नामक] अङ्गको ही दुबारा [ इस प्रकार से ] निबद्ध किया गया है। जैसे कि
[ का० १५, सू० ५८
"चेटी -- [ द्रौपदीको लक्ष्य करके श्रानन्दपूर्वक कहती है] हे स्वामिनि ! कुमार [भीमसेन ] कुपितसे दिखलाई देते हैं ।
द्रौपदी - यदि यह बात है तो [मेरे प्रति उनकी ] यह उपेक्षा भी मुझको सान्त्वना प्रदान करती है । इसलिए हम दोनों यहीं बैठकर नाथके निश्चयको सुनें ।
भीम - -यदि श्राप [सहदेव प्रावि] के राजा साहब [ युधिष्ठिर] किसी शर्त पर [कौरवों के साथ ] सन्धि कर लें तो क्या मैं क्रुद्ध होकर युद्ध भमिमें सौ कौरवोंका नाश नहीं करूँगा । अथवा दुःशासनकी छातीका रक्त पीना छोड़ दूँगा । या गदासे दुर्योधनकी जंधानोंको चूर्ण नहीं करूँगा । [ अर्थात् युधिष्टिर भले ही कौरवोंके साथ सन्धि कर लें, पर मैंने तो जो कुछ प्रतिज्ञा कर ली है उसको पूरा करके ही रहूँगा । सन्धिके कारण अपनी प्रतिज्ञाको कभी भी न छोड़ गा] ।
द्रौपदी - [ सहर्ष ] इस प्रकारका [श्रानन्ददायक ] वचन पहिले कभी नहीं सुना था इसलिए [ इसको ] फिर-फिर कहिए ।"
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का० ४५, सू० ५६ ] प्रथमो विवेकः
___ इति द्रौपद्या अभिप्रेतार्थप्राप्तिरिति ।। (१०) अथ. युक्ति:
[सूत्र ५६]--युक्तिः कृत्यविचारणा। विचारणा गुणदोषविवेकतः कार्यपर्यालोचनम् । यथोदात्तराघवे"लक्ष्मण:
कि लोभेन विलडिन्तः स भरतो येनैतदेवं कृतं, मात्रा स्त्रीलघुतां गता किमथवा मातैव मे मध्यमा ? मिथ्यैतन्मम चिन्तितं द्वितयमप्यार्यानुजोऽसौ गुरु,
माता तातकलत्रमित्यनुचितं मन्ये विधात्रा कृतम् ।" इयं च युक्ति स्थानान्तरभाविन्यपि तापसवत्सराजे उपक्षेप-परिकरान्तरे निबद्धा दृष्टेति । राघवाभ्युदये तथैवास्माभिर्ग्रथिता। तत्र हि
"मतिसागर:~यन् पुरा भट्टारकेण सागरबुद्धिना विभीपणाय कथितं यथा
इससे द्रौपदीके अभिप्रेत अर्थको प्राप्ति कही है [इसलिए यह 'प्रापरण' नामक सन्ध्यङ्ग का उदाहरण है। (१०) युक्ति --
अब युक्ति [नामक, मुखसन्धिके वशम अङ्गका लक्षण करते हैं][सूत्र ५६]-कार्यका विचार करना युक्ति [नामक दशम अङ्ग कहलाता है। विचारणा अर्थात् गुण-दोषके विवेचन द्वारा कार्यका पर्यालोचन करमा । जैसे 'उदात्तराधव' में"लक्ष्मरण [कहते हैं
क्या वह भरत [राज्यके] लोभसे पराभूत हो गए जिससे [रामको वनवास दिलानेका] यह कार्य किया है । अथवा क्या मेरी मझली माता [कैकेयी] ही मानमें स्त्री के समान लघुता को प्राप्त हो गई थीं। [जिसके कारण उन्होंने यह नीच कार्य करवाया]। अथवा मेरी सोची हुई ये दोनों ही बातें मिथ्या हैं क्योंकि ये मेरे बड़े भाई [गुरु अर्थात् भरत प्रार्यके [अर्थात् रामचन्द्र के अनुज हैं। [अर्थात् रामचन्द्रजीके अनुज और मेरे गुरु भरत कभी ऐसा अनुचित कार्य नहीं कर सकते हैं और माता [कैकेयी] पिताजीकी पत्नी हैं [इस लिए वे कभी इस गहित पापको नहीं कर सकती हैं । इस लिए इन दोनोंके विषय में सोचना अनुचित है। तब फिर यह कार्य हुआ कैसे, इसका समाधान करते हैं कि मालूम होता है कि यह अनुचित कार्य देवने ही किया है ।"
इस प्रकार कार्यकी विचारणरूप होने से यह 'युक्ति' नामक अङ्गका उदाहरण है।
यह युक्ति [नामक अङ्ग मुखसंधिमें] अन्य स्थानपर होनेवाली [अर्थात् दशम स्थानपर पठित होनेपर भी 'तापसवत्सराजचरित' में 'उपक्षेप' तथा 'परिकर' के बीच में [द्वितीय स्थानपर निबद्ध किया हुआ देखा जाता है । इसलिए 'राघवाभ्युदय' में हमने भी उसी प्रकार [उपक्षेप तथा परिकरके बीच में अथित कर दिया है। वहाँपर -1
"मतिसागर-स्वामी सागरबुद्धिने जो पहले कभी विभीषणसे कहा था कि
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२२० ]
नाट्यदर्पणम् । का० ४५, सू० ६० 'सीतानिमित्तको दाशरथितो रावणक्य' इति । तस्यार्थस्य तदेतच्चापारोपणं बीजमुपस्थितम् । कथितं च मे करइकनाम्ना लङ्काचारिणा चरेण यथा-'भूमण्डलस्येव रावणस्यापि सीतायां प्रेम अस्त्येव, किन्तु दोर्दोच्चापारोणे नायातः' । [विमृश्य] तन्नूनमसौ पश्चादपि सीतामपहरिष्यति ।” इति । (११) अथ विधानम्
[सूत्र ६०]--विधानं सुख-दुःखाप्तिः द्वयोः सुख-दुःखयोरेकत्र अनेकत्र वा पात्रे प्राप्तिः । एकस्यैव वा सुखस्य दुःखस्य वा प्राप्तिः, विधानम् । एकत्रपात्रे सुख-दुःखयोः प्राप्तिर्यथा-मालतीमाधवे"माधवः- यद्विस्मयस्तिमितमस्तमितान्यभावम् ,
आनन्दमन्दममृतप्लवनादिवाभूत। तत्सन्निधौ तदधुना हृदयं मदीयं,
___ अङ्गारचुम्बितमिव व्यथमानमारते ।। इत्यनेन सानुरागमालत्यवलोकनान्माधवस्य सुख-दुःखाप्तिः ।
अनेकत्र यथा तापसवत्सराजे काञ्चनमालया ज्ञातिगृह वार्ताविशेषापदेशात् वासवदत्ताया वियोगदुःखेऽपह्न ते राजा स्मित्वाऽऽह--..
'सीताके कारण दशरथ-पुत्रके द्वारा रावणका वध होगा' । उस बातका बीजरूप यह चापारोपण [का प्रसङ्ग पा गया है । और लङ्कामें विचरण करनेवाले करइक नामक गुप्तचर ने मुझसे कहा भी है कि--'भूमण्डलके [अन्य सब राजानोंके] समान रावण भी सीताको चाहता ही है किन्तु अपनी भुजाओंके दर्पके कारण चापारोपणमें नहीं पाया है। [कुछ सोचकर] तो निश्चय ही यह बादको सीताका अपहरण करेगा। यह [भी कार्यको विचारणा रूप होनेसे युक्ति नामक अङ्गका उदाहरण है] । (११) विधान
अब विधान [नामक, मुखसन्धिके ग्यारहवें अङ्गका लक्षण करते हैं]-- [सूत्र ६०]--सुख-दुःखको प्राप्ति 'विधान' [कहलाती है।
सुख तथा दुःख दोनोंकी एक पात्रमें अथवा अनेक पात्रोंमें प्राप्ति । अथवा सुख और दुःखमेंसे किसी एकको ही प्राप्ति [दोनों ही] विधान [नामक अङ्गके भीतर समाविष्ट हो जाते हैं। एक ही पात्र में सुख-दुःख दोनोंको प्राति [का उदाहरएप जैसे 'मालतीमाधव' में माधव [कहता है]
__ "माधव-जो [मेरा हृदय मालतीको उपस्थितिमें] विस्मयसे.. कुण्ठित, अन्य समस्त भावोंसे शून्य, अमृतमें डुबकी लगानेसे प्रानन्दःनिमग्न-सा हो रहा था वही मेरा हृदय इस समय [मालतीके वियोगकालमें] अङ्गारोंसे जला हुआ-सा वेदनामय हो रहा हैं ।"
इससे अनुरक्ता मालतीको देखकर माधवको सुख और [उसके वियोगमें] दुःखको प्रालि [एक ही पात्रमें पाई जाती है।
_ भिन्न-भिन्न पात्रोंमें [सुख और दुःखकी प्राप्तिका उदाहरण] जैसे 'तापसवत्सराज' में पितगृहके समाचार विशेषके बहानेसे काञ्चनमाला द्वारा वासवदत्ताके वियोग दुःखको छिपाने पर राजा मुस्कराकर कहते हैं
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का० ४५, सू० ६० ] प्रथमो विवेकः
[ १२१ "दृष्टि' प्रेमभरालसां मयि मुहुविन्यस्य लज्जावती, कालस्याहमिहासहेत्यविरत प्रत्यर्पयन्ती मनः । जाता देवि तदा ममापनयने हेतुस्त्वमेवाधुना।
कि सन्देशनवीभवत्कुलगृहोत्कण्ठाधिकं ताम्यसि ॥" अत्र च वासवदत्तायाः प्रवासाभ्युपगमाद् दुःखम । वत्सराजस्य चाविदितप्रवासवृत्तान्तस्य सुखम् । एकस्य सुखस्य प्राप्तिर्यथा रत्नावल्याम्--
"कश्त्रणमाले पइट्ठावेहि असोयमूले भयवंतं पज्जुन्नं । [इत्युपक्रमे] [काश्चनमाले प्रतिष्ठापयाशोकमूले भगवन्तं प्रद्युम्नम् । इति संस्कृतम्] राजा-कुसुमसुकुमारमूर्ति-दधती नियमेंन तनुतरं मध्यम् ।
आभासि मकरकेतोः पावस्था. चापयष्टिरिव ॥ इत्यारभ्य, 'वासवदत्ता राजानं पूजयति' इति यावत् ।। एकस्य दुःखस्य यथास्मदुपज्ञे निर्भयभीम-नाम्नि व्यायोगे"भीमः--
अन्यायैकजुषः शठव्रतजुषो येऽस्माकमत्र द्विषः,
ते नन्दन्ति मद वहन्ति महतीं गच्छन्ति च श्लाध्यताम् । "मेरी मोर बार-बार प्रेमभरी दृष्टि डालती हुई, लज्जायुक्त, और 'मैं अधिक विलम्बको सहन नहीं कर सकती हूं' इस प्रकार [अपना] मन समर्पित करती हुई, हे देवि ! उस समय तुम हो मेरे हटानेका कारण बनी तो फिर संदेशसे पितृगृहको उत्कण्ठाके नवीन हो जानेसे इस समय क्यों दुःखी हो रही हो ?"
यहाँ वासवदत्ताके प्रवास स्वीकार करनेके कारण दुःख है । और प्रवासका वृत्तांत न विदित होनेके कारण वत्सराजको सुख है । [इस प्रकार भिन्न-भिन्न पात्रों में अलग-अलग सुखदुःखको प्रातिरूप विधानका यह उदाहरण है।
एक सुखको प्राप्ति का उदाहरण] जैसे रत्नावलीमें---
"काञ्चनमाले ! अशोकके नीचे भगवान् कामदेव [प्रद्युम्न] को स्थापित करो। [इसके प्रसङ्गमें]
राजा-कुसमोंके समान सुकुमार देहवाली और व्रत-पालनके कारण और भी अधिक क्षीण मध्यसे युक्त तुम मकरकेतु [कामदेव के पास रखी हुई चापष्टिके समान प्रतीत होती हो [शोभित होती हो।
__ यहाँसे लेकर 'वासवदत्ता राजाको पूजा करती हैं। यहां तक केवल एक सुखकी प्राप्ति का वर्णन होनेसे यह विधान नामक अङ्गका उदाहरण है।
केवल दुःखकी प्राप्ति [ का उदाहरण ] जैसे हमारे बनाये : 'निर्भयभीमसेन' नामक ध्यायोगमें [भीम कहते हैं]--
भीम-केवल अन्यायपर प्रारूढ़, दुष्टताका व्रत धारण किए हुए, यहाँ हमारे को शत्रु है, मानन्द कर रहे हैं, गर्व धारण किए फिरते हैं और सब जगह प्रशंसा प्राप्त कर रहे हैं। और हम] जो न्यायका अवलम्बन कर रहे हैं और प्रत्यन्त सरलताको धारण
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१२२ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ४५, सू० ६१ ये तु न्यायपराः परार्जवधरास्ते पश्यतामी वय
नीचैः कर्मकृतः पराभवभृतस्तप्ताश्च वर्तामहे ।।" सुखस्य सुखहेतोश्च अन्वेषणरूपा 'प्राप्तिः' । सन्निहितसुखात्मकं च एकपात्रगतसुखात्मकं च विधानमिति भेदः । (११) अथ परिभावना--
सूत्र ६१]--विस्मयः परिभावना ॥ ४५ ॥ जिज्ञासातिशयेन किमेतदिति कौतुकानुबन्धो विस्मयः, परिभावना ! यथा नागानन्दे__ "[मलयवतीं दृष्ट्वा ] नायकः
स्वर्गस्त्री यदि ताकृतार्थमभवच्चक्षुःसहस्र हरेः, नागी चेन्न रसातलं शशभृता शून्यं मुखेऽस्याः स्थिते । जातिनः सकलान्यजातिजयिनी विद्याधरी चेदिय,
स्यात् सिद्धान्वयजा यदि त्रिभुवने सिद्धाः प्रसिद्धास्ततः ॥" . किए हैं सो वे हम देखो [रसोइया प्रादिके] नीच कर्मको कर रहे हैं और तिरस्कार प्राप्त कर रहे हैं।
मुखसन्धिके 'प्रापण' नामक अङ्गकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। उसमें भी 'प्रापणं सुखसम्प्राप्तिः' सुख-सम्प्राप्तिको ही उसका लक्षण बतलाया गया था। यहाँ 'विधान' अङ्गमें सुखप्राप्तिको विधान अङ्गका लक्षण बतलाया है। तब इन दोनों में परस्पर क्या भेद है यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है। इस लिए ग्रन्थकारने अगली पंक्ति में इन दोनोंके भेदको इस प्रकार प्रदर्शित किया है कि
सुख और सुखके कारणका अन्वेषण जिसमें किया जाय वह 'प्राप्ति' [अर्थात् प्रापरण नामक अङ्ग] है । और [अन्वेषण रूप नहीं किन्तु] सन्निहित सुख स्वरूप तथा एक पात्र गत 'सुखात्मक' विषान होता है यह ['प्रापरण' तथा विधान इन दोनों प्रङ्गाका] भेद है। (१२) परिभावना
अब परिभावना [नामक, मुखसन्धिके बारहवें अङ्गका लक्षण करते हैं[सूत्र ६१]-विस्मय [का नाम] 'परिभावना' है।
जिज्ञासाके अतिशयके कारण 'यह क्या है इस प्रकारका प्राग्रह, विस्मय [कहलाता) है । वही 'परिभावना' [नामक अङ्ग कहा जाता है। जैसे नागानन्दमें
"[मलयवतीको देखकर] नायक [जीमूतवाहन कहता है कि]
[यह मलयवती] यदि स्वर्गको स्त्री है तो इन्द्रके सहस्रों नेत्र कृतार्थ हो गए [समझो], यदि यह नाग जातिको स्त्री है तो इसके मुखके विद्यमान रहते पाताललोक चन्द्रमासे शून्य नहीं [कहा जा सकता है । यदि यह विद्याधरी है तो निश्चय ही हमारी [विद्यापर] जाति अन्य जातियोंसे श्रेष्ठ है । और यदि यह सिद्धवंशमें उत्पन्न हुई है तो अब सिद्ध लोग त्रिभुवन में प्रसिद्ध हो जायेंगे [यह समझो] ।
इसमें मलयवतीके सौन्दर्यातिशयको देखकर जीमूतवाहन अपने विस्मयको प्रकट कर रहा है पतः यह 'परिभावना' नामक अङ्गका उदाहरण है।
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का० ४६-४७, सू० ६२ ] प्रथमो विवेक:
[ १२३ यथा वा रोहिणीमृगाकाभिधाने प्रकरणे प्रथमेऽङ्के"मृगाङ्कः [सोत्कण्ठम्]
सा स्वर्गलोकललनाजनवर्णिका वा, दिव्या पयोधिदुहितुः प्रतियातना वा । शिल्पश्रियामथ विधेः पदमन्तिमं वा,
विश्वत्रयीनयनसङ्घटनाफलं वा॥ एतानि मुखसन्धेर्द्वादशाङ्गानि ।। ४५॥ [२] अथ प्रतिमुख सन्ध्यङ्गान्युद्दिशति[सूत्र ६२]---विलासो धूननं रोधः सान्त्वनं वर्णसंहतिः ।
नर्म नर्मद्युतिस्तापः स्युरेतानि यथारूचि ॥४६॥ पुष्पं प्रगमनं वज्रमुपन्यासोपसर्पणम् ।
पञ्चावश्यमथाङ्गानि प्रतिमुखे त्रयोदश ॥४७॥ अथवा जैसे रोहिणीमृगाङ्क नामक प्रकरणके प्रथम अङ्कमें"मगाङ्क उत्कण्ठापूर्वक कहता है
वह [रोहिणी] क्या स्वर्ग लोककी स्त्रियोंकी [वरिणका] चित्रित करनेवाली लेखनी [या 'वर्णका' कस्तूरी है । अथवा सागरकी पुत्री लक्ष्मीको दिव्य प्रतिकृति [प्रतियातना तस्वीर] है। अथवा विधाताके रचना-कौशलको चरम सीमा है अथवा तीनों लोकोंके [समस्त प्राणियोंके] नेत्रोंकी रचनाका फल है।"
इसमें रोहिणीके सौन्दर्यातिशयके कारण उत्पन्न विस्मयको मृगाङ्कने प्रकट किया है । इसलिए यह मुख सन्धिके 'परिभावना' नामक बारहवें अङ्गका उदाहरण है ।
इस प्रकार यहाँ तक ग्रन्थकारने मुखसन्धिके बारह अङ्गों के लक्षण तथा उदाहरण दिखलाकर उनका विस्तारपूर्वक विवेचन कर दिया है। इसलिए अब इसका उपसंहार करते हुए अगली पंक्ति लिखते हैं
ये बारह मुखसन्धि प्रङ्ग होते हैं ॥४५॥
[२] प्रतिमुखसन्धिके तेरह अङ्ग--- ___ अब इसके आगे प्रतिमुखसन्धिके तिरह] अङ्गोंका उद्देश [नाममात्रेण कथन] करते हैं
[सूत्र ६२]-(१) विलास, (२) घूनन, (३) रोध, (४) सान्त्वन, (५) वर्णसंहार, (६) नर्म, (७) नर्मद्युति और (८) ताप ये [पाठ अङ्ग प्रतिमुखसन्धिमें] यथारुचि रखे जा सकते हैं। अर्थात् उनका रखा जाना अपरिहार्य नहीं है। कथावस्तुको उपयोगिताके अनुसार उनको रखा भी जा सकता है और नहीं भी रखा जा सकता है] ॥४६॥
[सूत्र ६२]-(९) पुष्प, (१०) प्रगमन, (११) वन, (१२) उपन्यास और (१३) उपसर्पण ये पांच [प्रङ्ग प्रतिमुखसन्थिमें] प्रावश्यक हैं । इस प्रकार प्रतिमुखसन्धिमें कुल तेरह जंग होते हैं।४७॥
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१२४ ]
नाट्यदर्पणम्ं
[ का० ४८, सू० ६३
'यथारुचि इति वृत्तवैचित्र्यानुरोधेनात्र भवन्ति, न भवन्ति च । पुष्पादीनि पुनः पचावश्यं प्रतिमुखसन्धौ भवन्त्येव । त्रयोदशाप्येतानि प्रतिमुख एव सुतरां निर्बन्धमर्हन्ति । उद्देशक्रमश्च निबन्धेषु नापेक्षणीय इति ।।४६-४७|| (१) अथ विलासः
[ सूत्र ६३ ] -- विलासो नृ-स्त्रियोरीहा, मृ-स्त्रियोः परस्परमीहा रत्यभिलाषः ।
यथाभिज्ञानशाकुन्तले मुखसन्धावुपलब्धायां नायिकायां प्रतिमुखे तद्विषयो राज्ञो विलासः । तत्र हि राजा आह
"कामं प्रिया न सुलभा मनस्तु तद्भावदर्शनाश्वासि । अकृतार्थेऽपि मनसिजे रतिमुभयप्रार्थना कुरुते ॥ [स्मितं कृत्वा ] एवमात्माभिप्रायसम्भावितेष्टजनचित्तवृत्तिः प्रार्थयता विप्रलभ्यते । कुतः -
'यथारुचि' इसका यह अभिप्राय है कि कथावस्तुकी विचित्रता के अनुसार [ये पाठ भङ्ग प्रतिमुखसन्धिमें] होते भी हैं और नहीं भी हो सकते हैं। [अर्थात् उनकी स्थिति अपरिहार्य नहीं है] । शेष पुष्प आदि पाँच - [भ] तो प्रतिमुखसन्धिमें प्रवश्य होते ही हैं। ये तेरहों प्रङ्ग प्रतिमुखसन्धिमें हो सन्निविष्ट होते हैं [अन्य सन्धियोंमें प्रयुक्त नहीं होते हैं] । इनकी रचनायें उद्देशक्रम अपेक्षित नहीं होता है । [प्रर्थात् जिस क्रमसे यहाँ गिनाए गए हैं उसी क्रमसे इनकी रचना हो यह प्रावश्यक नहीं है ] ॥४६-४७॥ इस प्रकार ४६-४७ दो कारिकानों में प्रतिमुख सन्धिके तेरह श्रङ्गोंके नाम गिनाकर तथा उनमें से पाँचकी अनिवार्य स्थिति एवं प्राठको ऐच्छिक स्थितिका उल्लेख करके प्रब उनके लक्षण प्रादि क्रमशः प्रारम्भ करेंगे। इनमें सबसे प्रथम प्रङ्ग 'विलास' है । इसलिए सबसे पहिले उसीका लक्षण करते हैं । (१) विलास -
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अब [ प्रतिमुखसन्धिके श्रङ्गोंमेंसे प्रथम प्रङ्ग] 'विलास' [का लक्षरण करते हैं ][ सूत्र ६३ ] — स्त्री और पुरुषकी [ परस्पर सम्मिलनको ] इच्छा 'विलास' [नामक, प्रतिमुखसन्धिका प्रथम अंग कहलाती ] है ।
पुरुष तथा स्त्रीको परस्पर [ सम्मिलनकी] इच्छा प्रर्थात् रतिको कामना [ विलास नामक प्रङ्गके रूपमें कही जाती ] है ।
जैसे प्रभिज्ञानशाकुन्तल में मुखसन्धिमें [ प्रथम अङ्कमें नायिका ] शकुन्तला प्राप्त हो जानेपर प्रतिमुखसन्धिमें [द्वितीय में] उसके विषयमें राजाका [रति विषयक ] श्रभिलाष विलास । उसमें राजा [दुष्यन्त अपने इस अभिलाषको व्यक्त करते हुए ] कहते हैं-
"प्रिया [ शकुन्तला इस समय ] भले ही प्राप्त न हो किन्तु मेरा मन तो उसके भावको देखकर विश्वस्त है [कि वह मुझे प्रेम करती है इसलिए जल्दी या देरसे वह मुझको प्रवश्य प्राप्त होगी ] । क्योंकि कामदेवके कृतार्थ न होनेपर भी [अर्थात् सम्भोगाभिलाषके पूर्ण न होने पर भी ] दोनों ओोरका प्रेम स्वयं रति [ एक अपूर्व आनन्द ] को प्रदान करता है ।
[फिर मुस्कराकर राजा कहता है] — इस
प्रकार अपने मनके अभिप्रायके अनुसार
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का० ४८, सू० ६३ ] प्रथमो विवेकः
[ १२५ स्निग्धं वीक्षितमन्यतोऽपि नयने यत् प्रेरयन्त्या तया, यातं यच्च नितम्बयोगुरुतया मन्दं विलासादिव । मा गा इत्युपरुद्धया यदपि तत् सासूयमुक्ता सखी,
सर्व किल तत् मत्परायणमहो कामः स्वतां पश्यति ॥" इत्यादिना राज्ञो रतिसमीहा । यथा वा नलविलासे तृतीयाले
"दमयन्ती-[राजानमवलोक्य स्वगतम] कहमेस सयं भयवं पंचबाणो? अहवा वरायस्स अणंगरस कुदो ईदिसो अंगसोहग्गप्पन्भारो ? ता कदत्थो दमयन्द्रीयाए अंगचंगिमा।" इति ।
[कथमेष स्वयं भगवान पञ्चबाण: ? अथवा वराकस्यानङ्गस्य कुत ईडशोऽङ्गसौभाग्यप्राग्भारः ? तत् कृतार्था दमन्त्या अंगचङ्गिमा । इति संस्कृतम्] ।
यथा वास्मदुपझे कौमुदीमित्राणन्दनाम्नि प्रकरणे तृतीयेऽङ्के"मित्राणन्द:---प्रिये !
वक्त्रं शीतरुचिर्वचांसि च सुधा दृष्टिश्च कादम्बरी,
बिम्बोष्ठः पुनरेष कौस्तुभमणिः मूर्तिश्च लक्ष्मीस्तव । इष्टजनकी चित्तवृत्तिको कल्पना करके प्रेमी जन स्वयं अपनेको धोखा देते हैं। क्योंकि अपने मनको भावनाके अनुसार वे यह समझने लगते हैं। कि
[उनकी प्रेमपात्रने दूसरी ओर दृष्टि डालते हुए भी जो मधुरताके साथ देखा [वह शायद मेरी प्रोर ही देखा था], नितम्बोंके भारके कारण जो विलासपूर्वक धीरे-धीरे गमन किया, और [सखोके द्वारा] जानी नहीं इस प्रकार रोके जानेपर जो नाराज होकर [उस सखी को] फटकारा था कहा था वह सब मेरे ही कारण था । पाश्चर्य है कि काम [या कामी पुरुष अपने प्रेम पात्रके सारे कार्यों में अपना सम्बन्ध ही देखता है।"
इत्यादिसे राजा [दुष्यन्त] की रतिको इच्छा प्रदर्शित की गई है। अतः यह प्रतिमुखसन्धिके विलास नामक प्रथम प्रङ्गका उदाहरण है।
अथवा जैसे नवविलासके तृतीय अङ्कमें
"दमयन्ती-[राजाको देखकर स्वगत अपने मनमें कहती है]-अच्छा यह तो स्वयं भगवान् कामदेव [मा गए] हैं । अथवा [वह कामदेव तो शरीर रहित अनङ्ग है] उस विचारे अनङ्ग के पास इतने देहसौभाग्यको सम्पत्ति कहाँ हो सकती है। [इसलिए यह कामदेव नहीं है] । इसलिए निश्चय ही ये राजा नल हैं] तब तो दमयन्तीका अर्थात् मेरा] अङ्ग-सौन्दर्य कृतार्थ हो गया।
__ इसमें राजा नलके प्रति दमयन्तीकी रतिका प्रदर्शन होने से यह भी 'विलास' नामक प्रतिमुखसन्धिके प्रथम अङ्गका उदाहरण है।
अथवा जैसे हमारे बनाये हुए 'कौमुदी-मित्राणन्द' नामक प्रकरणमें तृतीय प्रमेंमित्राणन्द-प्रिये !
[तुम्हारा] मुख चन्द्रमा, [तुम्हारी] वाणी अमृत, [तुम्हारी दृष्टि कावम्बरी [मदिरा], [तुम्हारा] अषरोष्ठ कौस्तुभमरिण और तुम्हारी मूर्ति लक्ष्मी रूप है। [इस सबको देखकर ऐसा
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१२६ ]
नाट्यदर्पणम् । का०४८, ० ६३ श्रद्धालुयुगपद् विलोकितुमयं स्वापत्यजातं विगत ,
एकम्थं विरचय्य कुन्दरदने त्वामर्णवः सूतवान् । प्रनिमुखस्य चादावेवेदमङ्ग निबन्धनीयम। य एक मुखे रस उपक्षिप्यते नम्यैव स्थाया, विभावानुभावव्यभिचारिभिः पोषणीयः। कामपाले च रूपके मुखमन्धावुपक्रान्तः शृङ्गारःप्रतिमुखे विलासेन स एव विस्तार्यते । विलासप्रकाशकान्येव चेतराण्यङ्गानि निबन्धनीयानि । प्रतीत होता है कि अपनी सारी सन्तानोंको एक साथ देखने के लिए उत्सुक [श्रद्धालु] सागर ने बहुत दिनों के बाद उन सबको एक साथ मिलाकर तुमको उत्पन्न किया है।
इस श्लोकमें मित्राणन्दकी कौमुदीके प्रति रतिका वर्णन किया गया है। इसलिए यह भी प्रतिमुखसन्धिके विलास नामक प्रथम अङ्ग का उदाहरण है।
इस [विलास नामक अङ्गको प्रतिमुख-सन्धिके प्रारम्भमें ही निबद्ध करना चाहिए। [इसके साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस रसका मुखसन्धिमें उपक्षेप किया गया है उसीके स्थायिभावको [प्रतिमुखसन्धिमें] विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभावोंके द्वारा सम्पुष्ट किया जाना चाहिए। कामफलवाले रूपक में मुखसन्धिमें शृङ्गार-रसका उपक्षेप होता है । इसलिए प्रतिमुखसन्धिमें विलासके द्वारा उसीका विस्तार किया जाता है । और विलासके प्रकाशक ही [प्रतिमुख-सन्धिके] अन्य अङ्गोंकी रचना करनी चाहिए।
___ विलासो नृ-स्त्रियोरीहा' इस लक्षणके अनुसार पुरुष और स्त्रीको इच्छा या रतिका प्रदर्शित करना 'विलास' कहलाता है । यह "विलास' नामक अङ्ग प्रतिमुखसन्धिका प्रथम अङ्ग है। इसलिए प्रति मुख सन्धिके प्रारम्भमें उसको निबद्ध करना चाहिए। वेणीसंहार नाटकके रचयिता भट्टनारायणने अपने नाटककी रचना करते समय नाट्यके नियमोंका पालन कठोरताके साथ करने का यत्न किया है । इसलिए उन्होंने अपने नाटकके द्वितीय अङ्कमें प्रतिमुखसन्धिके प्रारम्भ में दुर्योधन तथा भानुमतीके विलासका वर्णन बहुत विस्तारके साथ किया है। किन्तु उत्तरवर्ती सभी आलोचकोंने भट्टनारायणके इस कार्यको अनुचित ठहराया है। इसका कारण यह है कि वेणीसंहार वीररस-प्रधान नाटक है । उस में इतने अधिक विस्तारके साय शृङ्गाररसका प्रदर्शन उचित नहीं है। इससिए 'प्रकाण्डे प्रथनम्' नामक रसदोष के उदाहरण के रूपमें सर्वत्र वेणीसंहारका यह प्रकरण ही प्रस्तुत किया गया है। यहां भी ग्रन्थकारने उसके अनौचित्यकी ओर सङ्कत किया है। उन्होंने इस अनौचित्यका कारण यह बतलाया है कि मुखसन्धिमें जिस रसका उपक्षेप किया जाय, उसीका पोषण प्रतिमुखसन्धिमें विलास प्रादि अङ्गों के द्वारा किया जाना चाहिए। शृङ्गाररस-प्रधान नाटकोंमें मुखसन्धिमें शृङ्गाररसका उपक्षेप किया जाता है, इसलिए प्रतिमुखसन्धिमें विलास नामक अङ्गके द्वारा उसका ही पोषण किया जाना उचित है। किन्तु वीररस प्रधान नाटक में, मुखसन्धिमें जब वीररसका उपक्षेप किया गया है तब प्रतिमुख-सन्धिमें विलास नाममाङ्गके द्वारा उसका ही पोषण होना चाहिए । वीरसरस-प्रधान नाटकके प्रतिमुखसन्धिमें शृङ्ग सका पोषण प्रधान रसके विपरीत हो जाता है अतः दोषाधायक है । इसलिए वेणीसंहार। यह प्रकरण अनुचित है । ग्रंथकारका यह भी कहना है कि यद्यपि प्रतिमुखसंधिके विलास अङ्गका लक्षण 'नृ-स्त्रियोरीहा' किया गया है किन्तु उसका अभिप्राय केवल सम्भोगकी इच्छा या शृङ्गार-भावना ही
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का० ४८, सू० ६४. ] प्रथमो विवेकः
[ १२० वीरादिरसप्रधानेष्वर्थफलेषु रूपेषु पुनरुत्साहादिसम्पद्विषयो नृ-स्त्रियोरीहाव्यापारो विलासः। यस्तु वेणीसंहारे भानुमत्या सह दुर्योधनस्य दर्शितो रत्यभिलाषरूपो विलासः, स नायकस्य तादृशेऽवसरे ऽनुचितः । यदाह
सन्धि-सन्ध्यङ्गघटनं रसबन्धव्यपेक्षया।
न तु केवलशास्त्रार्थस्थितिसम्पादनेच्छया ।।इति । (२) अथ धूननम्
[सूत्र ६४]-धूननं साम्यनादरः। साम्नि अनुनये अनादरो मनागनातिः । नमोऽल्पार्थत्वात् । यथा पार्थविजये. चित्रसेनेन संयते दुर्योधने सतियुधिष्ठिरः- "वत्स भीमसेन !
अयस कालः शूराणां खिन्नानां यत्र बन्धुषु।
__ आपद्गतपरित्राणम, अपूर्वोऽनुनयक्रमः ।। नहीं अपितु प्रकृत रसके अनुकूल स्त्री-पुरुषको इच्छा यह अर्थ करना चाहिए । वीररस-प्रधान नाटक में 'विलास' अङ्ग में वीररसके अनुकूल स्त्री-पुरुषोंकी इच्छाका वर्णन कर वीररसको सम्पुष्ट करना चाहिए। और उसीके अनुकूल ग्रन्थ मङ्गोंकी भी रचना करना चाहिए । भट्टनारायणने इस सिद्धान्तको नहीं समझा है, इसीलिए वे इस प्रकारको भूल कर बैठे हैं। इसी बातको ग्रंथकार अगले अनुच्छेदमें निम्न प्रकार लिखते हैं
वीर प्रादि रसप्रधान अर्थवाले रूपकोंमें तो उत्साह प्रादिका पोषण करनेवाला स्त्रीपुरुषका इच्छा रूप व्यापार विलास [पदसे गृहीत] होता है। इसलिए 'वेणीसंहार' में जो सुयोधनके साथ भानुमतीका रत्यभिलाष दिखलाया है वह उस प्रकारके [युटकी तैयारी करने योग्य] समयमें नायकके लिए अनुचित है । जैसाकि [ध्वन्यालोककारने] कहा है कि--
__ संधि तथा संधियोंके मङ्गोंको रचना रसप्रयोगके अनुसार करनी चाहिए। केवल शास्त्रको मर्यादाकी रक्षाको इच्छासे हो नहीं करनी चाहिए।
इस वचनसे ऐसा भ्रम हो सकता है कि शास्त्र-स्थिति और रस-स्थितिमें विरोष हो सकता है । वेणीसंहारकारने शास्त्र-स्थितिका पालन करनेकी इच्छासे ही दुर्योधन भोर भानुमतीके रत्यभिलाषका वर्णन प्रतिमुखसन्धि के विलास प्रङ्गमें किया है । किन्तु यहाँ अन्धकारने यह दिखलाया है कि वेणीसंहारकारने शास्त्र-स्थितिको ही नहीं समझा है । उन्होंने जो रस्यभिलाषका वर्णन किया है वह शास्त्रीय मर्यादाके अनुकूल नहीं प्रनिकूल किया गया है। (२) धूनन
प्रबधूनन [नामक प्रतिमुखसन्धिके द्वितीय मङ्गका लक्षण करते हैं]-- [सूत्र ६४] -शांति-वचनोंका अनादर करना धूनन [कहलाता है।
साम अर्थात् अनुनय [वचनों] में मनावर अर्थात् पोड़ी-सी मनास्था [पूनन कहलाता है] । मके प्रल्पार्थक होनेसे [मनागनाहतिः यह मर्च किया है।
जैसे 'पार्षविजय' में चित्रसेनके द्वारा दुर्योधनके पकड़ लिए जानेपरयुधिष्ठिर [कहते हैं]-हे बस्स भीमसेन! यह वह समय [मा गया है जबकि अपने मोंते नाराज हुए रोका मापत्ति पड़े
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१२८ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ४८, सू० ६५ भीमसेनोऽपि दुर्योधन प्रति युधिष्ठिरस्यानुनयमगृहन्नाह"कोऽयमनेकविधापकारकारिणः कौरवानुद्दिश्या स्याभावः" इति ।
केचिद् धूननमरतिमाहुः। तच्च रोधेनैव संगृहीतमिति । (३) अथ रोधः
[सूत्र ६५] रोधोऽतिःअतिः खेदो व्यसनमिष्टरोधाद् रोधः । यथा देवीचन्द्रगुप्त - "राजा [चन्द्रगुप्तमाह]
त्वदुःखस्यापनेतु सा शतांशेनापि न क्षमा । ध्रुवदेवी-[सूत्रधारीमाह]
- हज्जे इय सा ईदिसी अज्ज उत्तस्स करुणापराहीदा। [हजे ! इय सा ईदशी आर्य पुत्रस्य करुणापराधीनता । इति संस्कृतम्] सूत्रधारी-देवि पंडति चंदमंडलाउ वि चुडुलीउ किं पतु करिम्ह ।। [देवि ! पतन्ति चन्द्रमण्डलादपि उल्काः। किमत्र कुर्मः। इति संस्कृतम] राजा-त्वय्युपारोपितप्रेम्णा त्वदर्थे यशसा सह ।
परित्यक्ता मया देवी जनोऽय जन एव मे ॥ हुए [बंधुनों की रक्षा करने रूप [उनको मनानेका कोई अपूर्व अनुनय प्रकार [प्रवशित किया जाता है।"
[ युधिष्ठिर के द्वारा इस प्रकार दुर्योधनको छुड़ानेके लिए प्रेरित किए जाने पर ] भीमसेन भी दुर्योधनके प्रति युधिष्ठिर के अनुनयको अस्वीकार करते हुए कहते हैं -
अनेक प्रकारसे अपकार करनेवाले कौरवोंके प्रति प्रापको यह दया कैसी है ?"
इसमें भीमसेन युधिष्ठिरके शान्तिवचन या अनुनयका तनिक अनादर-सा करते हैं अतः यह धूनन' नायक अङ्गका उदाहरण है।
कोई [प्राचार्य] अरति खेद या दुःख को 'धूनम' कहते हैं। [किन्तु यह उचित नहीं है। क्योंकि वह तो रोध [नामक अगले अङ्ग] में ही संगृहीत हो जाता है। (३) रोध
अब रोध [नामक प्रतिमुखसंधिके तृतीय प्रङ्गका लक्षण करते हैं][सूत्र ६५]-परति [का नाम] 'रोध' है।
प्ररति अर्थात् खेद या दुःख [प्रकट करना] इष्टके प्रवरोधके कारण रोध' [कहलाता] है । जैसे देवीचन्द्रगुप्तमें राजा [चंद्रगुप्तसे कहता है]
"वह तुम्हारे दुःखको शतांशमें भी दूर करने में समर्थ नहीं है। ध्र वदेवी [सूत्रधारीसे कहती है]--- अरे ! आर्यपुत्रको यह कैसी करुणा-पराधीनता है। सूत्रधारी--देवि ! चन्द्रमण्डलसे भी उल्कापात होता है । इसमें हम क्या करें।
राजा--तुममें अपने प्रेमको स्थिर करनेवाले मैंने तुम्हारे लिए यशके साथ-साथ देवी का भी परित्याग कर दिया। और यह प्रजा] जन तो मेरे [प्रजा] जन ही हैं [उनके परिस्यागको तो बात ही क्या है।
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का० ४८, सू० ६५ ] प्रथमो विवेकः
[ १२६ ध्रुवदेवी-अहं पि जीविदं परिच्चयंती पढमयरं य्येव तुम परिच इस्स।" अहमपि जीवित परित्यजन्ती प्रथमतरमेव त्वां परित्यक्ष्यामि।।
इति संस्कृतम्] अत्र स्त्रीवेषनिह ते चन्द्रगुप्त प्रियवचनैः स्त्रीप्रत्ययात् ध्रुवदेव्या गुरुमन्यु. सन्तापरूपस्य व्यसनस्य सम्प्राप्तिः ।
यथा वा सत्यहरिश्चन्द्रे--
"राजा--देवि ! अवलम्बस्व मद्वचनम् । अत्रैव तिष्ठ । अशिक्षित पादचारा न शक्ष्यति भवती क्रमितुदर्भाङ्करविधुरासु वनवसुन्धरासु ।
सुतारा--जं भोदि तं भोदु । अहं गमिस्सं । [यद् भवति तद् भवतु । अहं गमिष्यामि । इति संस्कृतम् ] राजा-[कुलपति प्रति] भगवन् !
त्यजत् हेम्नो लक्षं चतुरुदधिकाठची च वसुधां, सुधाम्भोभिः स्नानादपि समधिकां प्रीतिमभजम् । सवत्सामेतां तु प्रवसनपरां वीक्ष्य दयितां,
इदानीं मन्येऽहं ज्वलदनललीढं वपुर दः ॥ इति । ध्र वदेवी-मैं भी अपने जीवनका परित्याग करती हुई उससे पहले ही तुमको छोड़ दूंगी।
यहाँ चंद्रगुप्तके स्त्री-वेषमें छिपे होनेसे ध्र वदेवीको [उसमें वास्तविक स्त्री होनेके विश्वासके कारण [अपनेसे अन्य स्त्रीके प्रति राजाकी प्रासक्तिको देखकर ] अत्यंत दुःख और संताप रूप व्यसनकी प्राप्ति हो रही है [इस लिए रोष नामक अंगका उदाहरण है] ।
ध्रुव स्वामिनी मगध नरेश रामगुप्त की पत्नी हैं। रामगुप्त बड़ा कापुरुष है। शत्रुके दबावसे वह अपनी प्रियतमाको शत्रुको देने के लिए तैयार हो गया था। चन्द्रगुप्त इस अपमान को सहन नहीं कर सका । उसने स्वयं स्त्रीका वेष धारणकरके शत्रुके पास जाकर अपमानका बदला लेने का निश्चय किया। इस प्रसङ्गमें स्त्री-वेषमें उपस्थित उसी चन्द्रगुप्तके साथ राजा रामगुप्तका वार्तालाप हो रहा है । ध्रुव स्वामिनी को यह रहस्य पता नहीं है। इसलिए वह स्त्री बेषधारी चन्द्रगुप्तको दूसरी स्त्री समझकर दुःखी हो रही है। इसीलिए इसे रोधके उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया गया है।
अथवा जैसे सत्यहरिश्चंद्र' में--
राजा--देवि ! मेरी बात मान जायो । तुम यहीं रहो । [माज तक कभी पैदल न चलनेके कारण तुम कुश-अंकुरोंसे भरी हुई वनभूमियोंमें नहीं चल सकोगी।
सुतारा-चाहे जो हो मैं तो [अवश्य] चलूगी । राजा--[कुलपतिके प्रति भगवन् !
लाखों स्वर्ण-मुद्रानों, और चारों समुद्र रूप काञ्चीको धारण करनेवाली वसुन्धरा का परित्याग करते हुए मैंने सुधा-सलिलसे स्नान करनेकी अपेक्षा भी अधिक प्रानन्दका अनुभव किया था। किंतु बच्चेके सहित इस प्रियतमा रानीको [वनमें पैदल चलनेको उद्यत देखकर इस समय मुझे ऐसा लग रहा है मानो मेरा यह सारा शरीर प्रागसे प्रालिगित हो रहा है। . इस श्लोकमें राजा हरिश्चन्द्र जब अपना राज-पाट सब-कुछ देकर जा रहे हैं उस
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१३० ]
(४) अथ सान्त्वनम् -
नाट्यदर्पणम्
[ सूत्र ६६ ] - सान्त्वनं साम क्रुद्धस्यानुकूलम् । यथा रामाभ्युदये द्वितीयेऽङ्केमारीचः - नाय मनुवृत्तिवचसामवसरः । परिस्फुटं विज्ञाप्यते--- दाराणां व्रतिनां च रक्षणविधौ वीरोनुयोज्यानुज, वीराणां खर-दूषण-त्रिशिरसा मेको वधं यो व्यधात् । तस्याखण्डिततेजसः कुलजने न्यक्कार आविष्कृतः, कुण्ठः सङ्गरदुर्मदस्य भवतः स्याच्चन्द्रहासोऽप्यसिः ॥ रावणः - आः प्रतिपक्ष पक्षपातिन क्षुद्र राक्षसापसद किं बहुना - तवैव रुधिराम्बुभिः क्षतकठोर कण्ठस्रुतैः, रिपुस्तुतिभवो मम प्रशममेतु क्रोधानलः | सुरद्विपशिर:- स्थलीदलनदष्टमुक्ताफलः, स्वसुः परिभवोचितं पुनरसौ विधास्यत्यसिः ॥ (इति खङ्गमाकर्षति ।)
(४) सान्त्वन
समय रानी सुतारा और पुत्रको भी साथ चलने के लिए उद्यत देखकर जिस दुःख श्रीर सङ्कट में पड़ गए थे उसका चित्रण किया गया है। इस लिए यह प्रतिमुखसन्धि के 'रोध' नामक तृतीय अङ्गका उदाहरण है । 'रोध' का लक्षण 'प्रति' है । अर्थात् खेद या व्यसन, दुःख, सङ्कट को रोध कहा गया है ।
[ का० ४८, सू० ६६
अब 'सान्त्वन' [ नामक प्रतिमुख संधिके चतुर्थ अङ्गका लक्षण करते हैं ]
[ सूत्र ६६ ] - शान्ति वचन [का नाम ] ' सान्त्वन' है ।
क्रुद्धको मनाना [ साम कहलाता है] जैसे रामाभ्युदयमें द्वितीय श्रङ्कमें
" मारीच -- यह खुशामद करनेका अवसर नहीं है । [ मैं तो ] स्पष्ट रूप से बतलाए देता हूँ कि -
जिस वीर [ रामचन्द्र ] ने स्त्री [ सीता] और तपस्वियोंकी रक्षाका भार छोटे भाई [ लक्ष्मरण] को सौंपकर खर दूषरण और त्रिशिरा आदि वीरोंका अकेले ही वध कर डाला था । उसकी पत्नीके अपमान या मारनेके लिए निकला हुआ तुम्हारा चंद्रहास नामक खङ्ग भी कुण्ठित हो जायगा ।
रावण -- श्ररे शत्रुके पक्षपाती नीच, दुष्ट राक्षस अधिक क्या कहूँ --
[ रामको मारनेकी बात तो जाने दे पहिले] तेरे ही कठोर कण्ठसे निकले हुए रुधिर जलसे [तेरे द्वारा की गई ] शत्रुकी स्तुतिसे उत्पन्न मेरा क्रोधानल शांत हो ले। देवतानोंके हाथी [ ऐरावत ] के गण्डस्थलके विदारणके कारण जिसमें मुक्ताफल लग गए हैं इस प्रकारको [ मेरी] यह तलवार, बहिन [ शूर्पणखा ] के अपमानके अनुरूप [ रामचंद्र के वध रूप कार्य को] बादको करेगी [श्रर्थात् पहिले तुझ मारीचको, जो शत्रु की स्तुति कर रहा है समाप्त कर लूँ तब फिर रामचंद्र को मारनेका कार्य बादको कर लूँगा ] ।
ऐसा कहकर [रावर मारीचके मारनेके लिए अपनी] तलवारको खींचता है ।
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का० ४८, सू० ३६०:
प्रथमो विवेक:
[ १३१
प्रहस्तः-- [पादयोर्निपत्य] प्रसीदतु प्रसीदतु महाराजः । नेदमनुरूपं स्वामिनः ।
देव !
-लोकत्रयक्षयोद्वत्तप्रकोपामेसरस्य ते ।
ईशचन्द्रहासस्य भृत्येष्वनुचिनः क्रमः ॥
[पुनः क्रमादाह] देव प्रसीद प्रायादतिक्रमोऽयं न वामतया । इति मारीचं प्रति क्रुद्धस्य रावणस्य प्रहस्तविहितोऽयमनुनयः सान्त्वनम् । वज्रमप्यत्र प्रसङ्गात् प्रयुक्तम् | "कुष्ठः सङ्कर दुर्मद्रव्य भवतः स्याञ्चन्द्रहासो ऽप्यसिः, इत्यस्य प्रत्यक्षनिष्ठुरत्वात् ।
(५) अथ वर्ण संहृति:
[ सूत्र ६७ ] पात्रोधो वसंहति ॥ ४८ ॥
पृथक् स्थितानां पात्राणामोघः कार्यार्थ मीलनम्। वर्ण्यन्ते इति वर्षा, तेषां नायक प्रतिनायक-नायिका - सद्दायादिपात्राणां संहतिरेकत्रकरणम् । यथा रत्ना
वल्याम-
राजा-राजा सुनङ्गते ! क्वासों, क्वासौ [ इत्यत आरभ्य ] -
इस प्रकार यहाँ तक रावण के कोपका वर्णन किया है। इसके अगले भाग में प्रहस्त, मारीचके प्रति रावणके इस कोपका शमन करनेका यत्न करते हुए कहता है-
प्रहस्त - [पैरों में गिरकर ] प्रसन्न हों महाराज, प्रसन्न हों ! यह कार्य प्रापके अनुरूप नहीं है । देव !
तीनों लोकोंका नाश करने में समर्थ प्रकोपवालोंमें अग्रगण्य ! इस प्रकारका श्रापके चंद्रहास [तलवार ] का भृत्योंपर प्रहार उचित नहीं है ।
[ उसके आगे फिर कहता है] देव ! प्रसन्न हों । प्रेमके कारण ही यह [ मर्यादाका ] प्रतिक्रमण [ मारीचने] किया है, विरोधी होकर नहीं ।
इस प्रकार मारोचके प्रति क्रुद्ध हुए रावरण के प्रति प्रहस्तका अनुनय सान्त्वन [अङ्गका उदाहरण] है । इसमें प्रसङ्गतः [अगले श्रङ्ग] 'वज्र' का भी प्रयोग किया गया है । [ प्रत्यक्ष निष्ठुर वचनका प्रयोग 'वज्र' कहलाता है । सो इस प्रसंगमें] युद्धके दुरभिमानी तुम्हारी चन्द्रहास [ नामक ] तलवार भी कुण्ठित हो जायगी. इस [ मारीचके कथन ] के प्रत्यक्ष हो निष्ठुर होनेसे [ यह 'वज्र' का भी उदाहरण है । (५) वर्ण संहार -
'व संहृति' [नामक प्रतिमुखसंधि के पञ्चम श्रङ्गका लक्षण करते हैं][सूत्र ६७ ] -- [ श्रनेक] पात्रोंका समुदाय [ इकट्ठा हो जाना ] 'वहुति' [नाम श्रङ्ग कहलाता ] है ।
अलग-अलग स्थित पात्रों का 'प्रोघ' अर्थात् किसी कार्यकेलिए एक साथ सम्मिलित [वसंहृति कहलाता है]। जिनका वर्णन किया जाय वे [पात्र ] 'वस हैं। उन 'वर्णों' अर्थात् नायक, प्रतिनायक, नायिका सहाय श्रादि पात्रोंका, संहृति अर्थात् इकट्ठा होना [वर्णसंहृति कहलाता है ] है । जैसे रत्नावली में -
राजा -- सुसंगते वह कहाँ है, कहाँ है । [ यहाँसे लेकर ]
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१३२ ]
नाट्यदर्पगाम् .
का०४८, सू०६७ श्रीरेषा पाणिरप्यस्याः पारिजातस्य पल्लवः ।।
कुतोऽन्यथा स्रवत्येष म्वेदच्छद्मामृतद्रवम् ॥ इति यावत्। अत्र राज-सागरिका-विदूषक-सुसङ्गतानामेकत्र योजनम् ।
अन्ये तु वर्णानां ब्राह्मणादीनां यथासम्भवं द्वयोस्त्रयाणां चतुर्णा वा एकत्र मीलनं वर्णसंहारमाचक्षते । यथा वीरचरिते तृतीयेऽङ्के
परिषदियमृषीणामेष वृद्धो युधाजित सह नृपतिभिरन्यैर्लोमपादश्च वृद्धः । अयमविरतयज्ञो ब्रह्मवादी पुराणः
प्रभुरपि जनकानामद्रहो याचकस्ते ।। इति । एके तु वर्णितार्थतिरस्कारं वर्णसंहारमामनन्ति । उदाहरन्ति च यथा वेणीसंहारे कचुकिना रथकेतनपतने निवेदिते भानुमती
"अंतरीयदु दाव एदं समस्थबंभणाणं वेयज्मुणि-मंगलुग्घोसेण । इति"
[अन्तरीयतां तावदेतत् समस्त ब्राह्मणानां वेदध्वनिमंगलोद्घोषेण । इति संस्कृतम्] ॥४॥
यह [साक्षात्] लक्ष्मी है और इसका हाथ पारिजातका पल्लव है। अन्यथा [इससे] रवेदके बहानेसे अमृतद्रव कैसे टपक रहा है।
इस [सारे प्रसंग] में राजा, सागरिका, विदूषक तथा सुसंगता [प्रादि अनेक पात्रों] का एक साथ सम्मिलन हो गया है [अतः यह वर्णसंहृति नामक अंगका उदाहरण है] ।
अन्य [व्याख्याकार] तो वर्णो अर्थात् ब्राह्मणादिका यथासम्भव दो-तीन या चार [वों] के एक साथ इकट्ठे होनेको 'वर्णसंहृति' कहते हैं । जैसे महावीरचरितके तृतीय अङ्कमें
सीता-स्वयम्वरमें रामचन्द्रजी के द्वारा धनुष तोड़ दिए जाने के बाद परशुरामजीके प्रा जानेपर उनके साथ संघर्षका प्रसङ्ग चल रहा है। परशुरामजी रामचन्द्रपर अत्यन्त अप्रसन्न हैं और उनको मार देने का भय दिखला रहे हैं। उस समय अन्य सब लोग इकट्ठे होकर परशरामजीको मनाने का यत्न कर रहे हैं । इसी प्रसङ्ग मेंसे यह श्लोक यहाँ उद्धृत किया गया है। उसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय मादि अनेक वर्गों के प्रयोजनवश एकत्र हो जानेसे यह वर्णसंहारका उदाहरण है। श्लोकका अर्थ निम्न प्रकार है--
यह ऋषियोंका समुदाय, यह [भरतके मामा केकय देशके राजा] वृद्ध युधाजित्, और अन्य राजाओंके साथ ये बूढ़े लोमपाद तथा निरन्तर यज्ञ करने वाले एवं पुराने ब्रह्मवादी जनकोंके राजा [सीरध्वज] ये सब आपके प्रविरोधी होकर प्रापसे याचना कर रहे हैं [प्रतः अबकी बार पाप रामचन्द्रको क्षमा करदें] ।
अन्य लोग गित प्रर्थके तिरस्कारको 'वरगसंहार' मानते हैं। और उसके उदाहरण रूपमें वेणीसंहार [के द्वितीय अङ्क] में कञ्चुकीके द्वारा [दुर्योधन के] रथकी ध्वजा के पतन [रूप अशकुन] की सूचना मिलनेपर भानुमती प्राके निम्न वचनको उदाहरण रूयमें प्रस्तुत करते हैं
भानुमती- इस [अपशकुन] को समस्त ब्राह्मणोंके [द्वारा किए जाने वाले] वेद-ध्वनि के घोषद्वारा शमन कर दो ॥४८॥
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का० ४६, सू० ६८ ] प्रथमो विवेकः
[ १३३ (६) अथ नर्म--
[सूत्र ६८]-क्रीडायै हसनं नर्म यथा रत्नावल्याम
"विदूषकः-- [कर्णं दत्वा ससम्भ्रमं राजानं हस्ते गृहीत्वा] भो वयस्स ! पला. यम्ह । एदस्मिं लकुचपायवे कि पि महाभदं परिवसदि। यदि मे न पत्तियसि ता अम्गदो भविय सयं य्येव श्रायन्नेहि ।
[भो वयस्य ! पलायामहे । एतस्मिन् लकुचपादपेकिमपि महाभूतं परिवति । यदि मां न प्रत्येषि तदातो भूत्वा स्वयमेवाकर्णय । इति संस्कृतम] । राजा--[आकये क्यस्य सारिकेयम् । इति ।"
तथा“विदूषक :-भो मा पंडिच्चगठवमुव्वहह । एदं देह वक्खाणइस्सं जा एसा आलिहिदा, सा करणगा दसणीया य ।
[भो मा पाण्डित्यगर्वमुबह । इद देवाय व्याख्यास्यामि या एषाऽऽलिखिता सा कन्यका दर्शनीया च ! इति संस्कृतम्] | राजा-वयस्य यद्येवं अवहितैः श्रोतव्यम् । अस्त्यवकाशो न कुतूहलस्य ।'
तथा-- "सुसङ्गता--सहि जस्स कए तुवं आगदा सो अयं पुरदो चिट्ठदि ।
[सखि यस्य कृते त्वमागता सोऽयं पुरतस्तिष्ठति । इति संस्कृतम्] । (६) नर्म
इस प्रकार यहाँ तक प्रतिमुख-सन्धिके पांच अङ्गोंका वर्णन हो गया। अब प्रागे प्रतिमुख-सन्धिके छठे अङ्ग 'नमं' का वर्णन प्रारम्भ करते हैं।
अब 'नर्म' [नामक छठे अंगका लक्षण करते हैं][सूत्र ६८] ---मनोरञ्जन [क्रोडायै] केलिए हास्य करना 'नर्म' [कहलाता है। जैसे रत्नावलीमें
विदूषक-[कान लगाकर सुनते हुए और भयके मारे राजाका हाथ पकड़कर विदूषक राजासे कहता है कि- हे मित्र, चलो यहाँसे भाग चलें क्योंकि इस कटहलके पेड़पर कोई भयङ्कर महाभूत रहता है। यदि तुम मेरे ऊपर विश्वास नहीं करते हो तो अपने आप मागे बढ़कर सुन लो [देखो इसपर भूत बोल रहा है कि नहीं] ।
राजा -[सुनकर अरे मित्र ! यह तो मैना बोल रही] [भूत कहाँ] है।
यहाँ विदूषकका वचन मनोरञ्जन मात्रके लिए है इसलिए यह 'नर्म' या हास्य मजाक का उदाहरण है । रत्नावलीसे इसी प्रकारका एक और उदाहरण प्रागे देते हैं
विदूषक-अरे मित्र, पाडित्यका गर्व मत करो। मैं तो इसकी ऐसी व्याख्या करता हूँ कि यह जो चित्र अङ्कित है वह कन्या है और वर्शनीया है।
राजा-यदि ऐसी बात है तो तनिक सावधान होकर सुनना चाहिए [कि यह क्या कहती है । क्योंकि इस कन्याकेलिए] हमें उत्सुकता होना स्वाभाविक है।
सुसङ्गता--सखि ! जिसके लिए तुम पाई हो वह सामने ही उपस्थित है।
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१३४ ]
নাহয়
[ का० ४६, सू०६% सागरिका--[ सासूयम् ] सुसंगदे ! कस्स कए अहं आगदा ? [सुसंगते ! कस्य कृते अहमागता ? इति संस्कृतम] । सुसंगता---अयि अप्पसंकिदे ! णं चित्तफल हयस्स, ता गिराह एदं।" इति । [अयि आत्मशङ्किते ! ननु चित्रफलकस्य । तद् गृहाणैनम् । इति संस्कृतम्] ।
एता विदूषक-सुसङ्गत या राज-सागरिकाकोडार्थ हासोक्तयः । अनेकशोऽप्येकमेवाङ्ग निबद्धथत इति त्रिधोदाहृतम् ।
यथा वा नलविलासे। “विदूषकः-- [लम्बम्तनीं विलोक्य सभय कम्पम् ] भो रायं अहं एदाउ हाणा उहिस्सं । [भो राजन् ! अहमेतस्मात् स्थानादुत्थास्यामि । इति संस्कृतम्] ।
राजा-किमिति ।
विदूषकः--जइ एसा थूलमहिसी कडिअडं नचाती ममोरि पडेदि, ता धुवं मं मारेदि॥
[यद्येषा स्थूलमहिषी कटितटं नर्तयन्ती ममोपरि पतेत , तथा ध्रुवं मां मारयेत् । इति संस्कृतम्] ।”
तथा-- "राजा-लम्बस्तानि इदमासनमास्यताम् ।
विदूषकः-मोदी लंबत्थरणीए दुलं खु एदं पासणं । ता तुम साबहाणाए उवविसिदव्वं । [भवति ! लम्बस्तन्यै दुर्बलं खल्वेतदासनम् । तत् त्वया सावधानयोपवेश्यम । इति संस्कृतम]।"
सागरिका-[क्रोध-पूर्वक सुसङ्गते ! मैं किसके लिए आई हूँ।
सुसङ्गता-अरे अपने प्राप शङ्का कर लेने वाली, चित्रफलके लिए [माई हो न इस [चित्र] को पकड़ो [यह तुम्हारे सामने ही रखा है।"
ये सब विदूषक तथा सुसङ्गताको [क्रमशः] राजा तथा सागरिकाके मनोरञ्जनके लिए हास्योक्तियाँ हैं [अत: 'नर्म' नामक' अङ्गके उदाहरण हैं] एक ही अङ्गका अनेक बार भी प्रयोग किया जा सकता है । इसके लिए तीन उदाहरण दिए हैं।
अथवा जैसे नलविलासमें
"विदूषक-[लम्बस्तनीको देखकर भयसे कांपते हुए] हे राजन् ! मैं तो इस स्थानसे उठता हूँ।
राजा-क्यों किसलिए [उठते हो ?
विदूषक-यदि यह मोटी भैस कमर नचाती हुई मेरे ऊपर गिर पड़ी तो मुझको मार ही रालेगी।"
तथा"गजा--हे लम्बस्तनि ! इस प्रासन [कुर्सी पर बैठो।
विदूषक---भगवति ! लम्बस्तनोके लिए यह प्रासन दुर्बल है इसलिए तुम इसपर साब. . धान होकर बैठना।
ये मब हाम्योक्तियां नर्म नामक अङ्गके उदाहरण रूप में प्रस्तुत की गई हैं।
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का० ४६, सू० ६६ ] प्रथमो विवेकः
। १३५ तथा"विदूषक :---भोदि ! किं अइदुब्बला सि ।
भवति ! किमतिदुर्बलासि । इति संस्कृतम] । लम्बस्तनो---मग्गपरिस्समेण । [मार्गपरिश्रमेण । इति संस्कृतम्] । विदूषक : ---भो कलहंसा कित्तिएहिं गोणेहि मुदेहिं एसा इध संपत्ता ? [भो कलहंस ! कियद्भि-गोभि-म तैरेषात्र सम्प्राप्ता । इति संस्कृतम] ।
[कलहंसो विहस्याधोमुखस्तिष्ठति ॥” इति । (७) अथ नर्मद्यति :
सूत्र ६६]-दोषावृत्तौ तु तद्युतिः । दोषावृत्ये दोषाच्छादनाय यत् पुनर्हसनं हास्यहेतुर्वाक्यं सा तस्य नर्मणो द्योतनं नर्मद्युतिः । यथा रत्नावल्याम्
"विदूषकः--भोः ! अज्ज वि एसा चउव्वेई विय बंभणो रियाउ पडिउपयत्ता । [भो ! अद्याप्येषा चतुर्वेदीव ब्राह्मण ऋचः पठितु प्रवृत्ता । इति संस्कृतम्] । राजा-वयस्य किमप्यन्यचेतसा मया नावधारितम् । तत् किमनयोक्तम् ? विदूषक :-भो ! एद एदाए पढिदं
दुल्लहजणाणुराओ लज्जा गरूई परव्वसो आप्पा।
पियसहि ! विसमं पिम्म मरणं सरणं नु वरमेकम् ॥ [भोः ! इदमेतया पठितम्[दुर्लभजनानुरागो लज्जा गुर्वी परवश आत्मा। प्रियसखि ! विषमं प्रेम मरणं शरणं नु वरमेकम् ॥ इति संस्कृतम्]।
तथा"विदूषक-भगवति ! [कहिए] प्राप दुर्बल कैसे हो रही हैं ? लम्बस्तानी-मार्गकी थकावटसे। विदूषक-अरे कलहंस [रास्तेमें कितनी गौएं मार कर ये यहां तक पाई हैं।
[कलहंस हंसते हुए मुख नीचा कर लेता है।" यह सब हास्य-परक वचन हैं। इसलिए यह भी नर्मका उदाहरण है। (७) नर्मद्युति
अब 'नर्मधुति' [नामक प्रतिमुख-सन्धिके सक्षम अंगका लक्षण करते हैं]
मित्र ६९]-दोषके छिपानेके लिए [हास्य वचनोंका प्रयोग होने पर तश्रुति अर्थात्] नर्मद्युतिः नामक अंग माना जाता है। जैसे रत्नावली में--
1 षक-अरे यह [मारिका] तो अब भी चतुर्वेदी ब्राह्मणके समान प्रचामोंका पाठ करे जा रह है।
राजा-हे मित्र मेरा ध्यान दूसरी ओर था, मैं समझा नहीं कि इसने क्या कहा। विदूषक-परे इसने यह कहा है कि
दुर्लभ जनके साथ प्रेम हो गया है, भारी लब्जा हो रही है किन्तु प्रात्मा भी परवक्ष है। प्रिय सखि ! प्रेम बड़ा कठिन है अब तो केवल मरण हो एक शरण है।
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१३६ ]
नाट्यदर्पणम् । का० ४६, सू० ७० राजा-भो महाब्राह्मण ! कोऽन्य एवं ऋचामभिज्ञः ?
अत्र मौर्स दोष छादयितु यद् विदूषकेणोक्त तद् राज्ञो हास्यहेतुत्वान्जर्मद्युतिः ।
अन्ये तु नर्मजां धृतिं नर्मधु तिमाहुः । यथा रत्नावल्याम्--- ___ सुसंगता-सहि ! अदक्खिन्ना दाणि सि तुवं जा एवं भट्टिणो हत्थावलंबिया वि को न मुचसि ।
सखि ! अदाक्षिण्या इदानीं त्वमसि या एवं भतुर्हस्तावलम्बितापि कोप न मुञ्चसि । इति संस्कृतम् ] ।
सागरिका-[सभ्रूभंगमीषद्विहस्य] सुसंगदे ! इयाणि पि न विरमसि ।" इति । [सुसंगते ! इदानीमपि न विरमसि । इति संस्कृतम्]।
एते च नर्म-नमा ती अङ्ग कामप्रधानेष्वेव रूपकेषु निबन्धमहतः । कैशिकीप्राधान्येन तेषां हास्योचितत्वादिति । () अथ तापः
[सूत्र ७०]-अपायदर्शनम् तापः यथा पार्थविजये"कचुकी--भो भो लोकपाला: परित्रायध्वम् ।
--.
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-
राजा-हे महाब्राह्मण [तुमको छोड़कर और कौन इन ऋचारोंको समझ सकता है।
यहाँ [अपनो] मूर्खताके दोषको छिपानेकेलिए विदूषकने जो-कुछ कहा है वह राजाके हास्यका हेतु होता है । [इसलिए नर्मद्युति अंगका उदाहरण है] ।
अन्य लोग तो नर्म [मजाक से उत्पन्न ति [अानन्द को नर्मद्युति कहते हैं। जैसे रत्नावलीमें
___ सुसंगता-सखि ! तुम बड़ी दाक्षिण्य-रहित हो जो स्वामी के इस प्रकार हाथ पकड़ने पर भी क्रोध नहीं छोड़ती हो।
सागरिका-[भौहें टेढ़ी करके तनिक हंसकर सुसंगते ! तू अब भी नहीं मानती है ।
यह नर्मद्युतिका उदाहरगा है । क्योंकि इसमें मुमंगताके हास्यवचनमे मागरिकाको एक प्रकारके विशेष प्रानन्द या धर्य की प्राप्ति हो रही है। इसलिए जो लोग नभेजा धृतिको 'नर्मद्युति' कहते हैं उनकी दृष्टिसे यह नर्मद्युतिका उदाहरण होता है।
ये नर्म तया नर्मति नामक दोनों अंग काम-प्रधान रूपों में ही निबद्ध किए जा सकते हैं। क्योंकि उन [काम-प्रधान रूपों के कंशिकी-प्रधान होने से उनमें हास्य उचित हो सकता है। () ताप
अब 'ता' [नामक प्रतिमुखमविके अष्टम अंगका लक्षण करते है .
[मूत्र ७०] किसी इष्टजनके [अपाय अर्थात विनाका दर्शन तापजनक होनेमे] 'ताप' [कहलाता है । बसे पाविजयमें
कन्चुको-हे हे मोकपासो ! रक्षा करो।
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का० ४६, सू०७० ] प्रथमो विवेकः
[ १३७ एषा वधू भरतराजकुलस्य साध्वी, दुर्योधनस्य महिषी प्रियसङ्गरस्य । विस्मृत्य पाण्डु-धृतराष्ट्र-पितामहादीन् ,
गन्धर्ववीरपशुभिः परिभूयते स्म ॥ युधिष्ठिरः--[ श्रुत्वा दुर्योधनान्त:पुरे महतीमपायशंकामाविष्कुर्वन्नाह ] वत्स ! स्वगोत्रपरिभवाविष्कारनिष्ठुरः शब्दः। अद्याप्यभ्रान्त ५वासि । कः कोऽत्र, चापम । [इति चापारोपणमभिनयन सम्भ्रमादुत्तिष्ठति] इति ।
के चित्तु स्थानेऽस्य अनुनयात्यो ग्रह-निग्रहरूपं 'शमनं' पठन्ति । यथा पार्थविजये--
"भीमः-प्राः क एष मयि स्थिते भरतकुलं परिभवति ? अतः परं न मर्षयामि" इति ।
अत्र 'अयि वत्स ! स्वगोत्र' इत्यादि पूर्वदशितेन युधिष्ठिरसंरम्भेण भीमस्यानुनयग्रहणम् ।
अरतिनिग्रहो यथा वेणी संहारे
यह भारतके राजवंशको साध्वी वध, और युद्धप्रेमी दुर्योधनकी रानी, पाण्डु तराष्ट्र और पितामह [भीष्म] प्राविको भुलाकर [अर्थात् उनको शक्ति प्रादिकी ओर ध्यान न देकर] दुष्ट गन्धर्व वीरों द्वारा अपमानित की जा रही है।
युधिष्ठिर-[ सुनकर, और दुर्योधनके अन्तःपुरमें किसी भारी विनाशको शंका समझकर कहते हैं कि ] हे वरस [भीम] ! अपने वंशके अपमानका कठोर अप्रिय शब्द [सुनाई दे रहा है। तुम अब तक स्थिर बैठे हुए हो। कौन, यहाँ कौन है ? धनुष-धनुष [जल्दी धनुष माओ] इस प्रकार [कहते हुए और] धनुष चढ़ानेका अभिनय करते हुए जल्दीसे उठते हैं ।
इसमें दुर्योधन के अंतःपुर में होनेवाले विनाशको देखकर युधिष्ठिरकी व्य प्रता का वर्णन दिया गया है । अतः यह 'ताप' नामक अङ्गका उदाहरण है।
कुछ लोग इस ['ताप' नामक अंग] के स्थानपर अनुनयके ग्रहण और अरतिके निग्रह रूप 'शमन' को प्रतिमुख संधिके अंगों में पढ़ते हैं।
इसका अभिप्राय यह है कि वे लोग 'ताप' को प्रतिमुखसन्धिका अङ्ग न मानकर 'शमन' को उसका अङ्ग मानते हैं । और इस शमनकी व्याख्या दो प्रकारकी करते हैं । एक अनुनयका ग्रहण, और दूसरी अरतिका निग्रह, इन दोनोंको वे 'शम:' कहते हैं।
जैसे पार्थविजयमें [अनुनयग्रहणका उहाहरण
"भीम--अरे, यह कौन है जो मेरे रहते भरतकुलका अपमान करना चाहता है। इससे अधिक मैं सहन नहीं करूंगा।
___ इस [उदाहरण] में "हे वत्स ! अपने गोत्रके पराभवका-सा अप्रिय शब्द सुनाई दे रहा है" इत्यादि पूर्वशित [ वाक्यमें दिखलाए हुए ] युधिष्ठिरके क्रोधको देखकर भीम [युधिष्ठिरके] अनुनयका ग्रहण करते हैं [इसलिए यह अनुनय ग्रहण रूप शमनके प्रथम भेदका उदाहरण है।
प्ररति-निग्रह [नामक शमनके दूसरे भेवका उदाहरण] जैसे वेण संहारमें =
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१३८ ]
नाट्यदर्पणम्
का० ४६, सू० ७१ - "सखी--जइ एवं ता कहेहिं जेण म्हे पडिहावयंतीउ पसंसाए देवदाणं संकित्तणेण दुवादिपरिग्रहेण पडिहणिस्सामो!"
[यद्यावं तदा कथय येन वयं प्रतिष्ठापयन्त्यः प्रशंसया देवतानां संकीर्तनेन दुर्वादिपरिग्रहेण प्रतिहनिष्यामः । इति संस्कृतम्] ।
पुनः स्वावसरे ___ "भानुमती--[अर्घपात्रं गृहीत्वा सूर्याभिमुखं स्थित्वा] भयवं अम्बरमहासरेक्कसहस्सवत्त ! दिसाबहुमुखमंडण कुंकुमविसेसय ! सयसभुवणरयणप्पईव ! ज्ज इह सिविणयदसणे किंचि अच्चाहिद,तं भयवदो पणामेण सभादुणो अय्यउत्तस्स कुसल परिणाम भोदु ति।"
[भगवन् ! अम्बरमहासरैकसहस्रपत्र ! दिग्वधूमुखमण्डलकुकुम विशेषक ! सकलभुवनरत्नप्रदीप! अद्यह स्वप्नदर्शने यत् किञ्चिदत्याहितं, तद् भगवतः प्रणामेन सभ्रातुरार्यपुत्रस्य कुशलपरिणामं भवतु।" इति संकृतम् ।
अत्र दुःस्वप्नोद्भुताया अरतेनिर्ग्रहः । इति । (६) अथ पुष्पम्
[सूत्र ७१]-पुष्पं वाक्यं विशेषवत् ।। ४६ ॥ पूर्व स्वयमन्येन वा केनचित् प्रयुक्तं वचनमपेक्ष्य यदु विशेषयुक्तं वचनं प्रयुज्यते तेन अन्येन वा, तत् पूर्वस्माद्विशेषवत् । तब वाक्यं पुष्पमिव पुष्पम् । केशरचनायाः पुष्पमिव पूर्ववाक्यालंकारकारित्वात् । यथा 'विलक्षदुर्योधने'
"सखी-यदि ऐसी बात है तो कहो, जिससे हम लोग प्रतिष्ठापना, प्रशंसा, देवतामोंके संकीर्तन तथा दूर्वादिके पहरणके द्वारा [उस दुःस्वप्न] का प्रतिविधान करें।
वेणीसंहारके द्वितीय प्रङ्को भानुमतीके मुखसे दु स्वप्नकी बात सुनकर उसकी सखी उस परतिके शमनकी चर्चा कर रही है । प्रतः यह प्रति निग्रहका उदाहरण है । भागे स्वयं भानुमती द्वारा किए जानेवाले परति-निग्रहका उल्लेख करते हैं।
फिर अपना अवसर प्रानेपर __ "भानुमती-[अर्धपात्र लेकर और सूर्यके सामने खड़े होकर] हे भगवन् ! माकाश रूप महासरोवरके अद्वितीय कमल ! दिग्वधूके मुख-मण्डलके कुंकुम-बिन्दु ! और समस्त भुवनोंके [प्रकाशित करनेवाले] रत्नदीप ! माज स्वप्न-दर्शनमें जो-कुछ महाभय [प्रत्याहितं महाभौतिः] उपस्थित हुना वह आपको प्रणाम करनेसे, भाइयों सहित पार्यपुत्रके लिए कुशल परिणामका जनक हो।
इसमें दुःस्वप्नसे उत्पन्न प्ररतिका निग्रह [स्वयं भानुमती कर रही है । प्रतः शमनका उदाहरण है। (६) पुष्प
अब 'पुष्प' [नामक प्रतिमुखसंधिके नवम अंगका लक्षण करते हैं][सूत्र ७१]-विशेषतासे युक्त वाक्य 'पुष्प' [नामक अंग होता है
पहिले स्वयं ही, अथवा किसी दूसरेके द्वारा कहे.गए वाक्यको अपेक्षासे जो विशेषता युक्त बच्चन [बादको] उसोके द्वारा अथवा अन्य [वक्ता] के द्वारा प्रयुक्त किया जाता है। पूर्व
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का० ४६, सू०७१ ] प्रथमो विवेकः
[ १३६ "भीष्मः
एतत् ते हृदयं स्पृशामि र्याद वा साक्षी तवैवात्मजः, सम्प्रत्येव तु गोग्रहे यदभवत् तत् तावदाकर्त्यताम् । एकः पूर्वमुदायुधैः स बहुभिदृष्टस्ततोऽनन्तरं,
यावन्तो वयमाहवप्रणयिनस्तावन्त एवार्जुनाः।" अत्रीनगधं विशेषवद्वाक्यम। यथा वा सत्यहरिश्चन्द्र--- "वसुभूति:-[सरोष राजानं प्रति]
न नाम स्युः स्वर्ण-क्षिति-सुत-कलत्राणि यतिनां, तदस्मै यहत्तं तदिह निखिलं भस्मनि हुतम् । विहाय व्यामोहं विमृश विमृशाद्यापि नृपते !
तपोव्याजच्छन्न किमपि नियतं देवमिदम ।। कुल पतिः-[सोपहामम] अरे मुखर ! सचिवापसद ! चिराद् यथार्थमभिहितवानसि । दुस्तप-तपःकर कलि तस्वर्गापवर्गशर्मणो मापदेशेन दैवतान्येव मुनयः।" वाक्यको अपेक्षा विशेषता-युक्त वह वाक्य पुष्पके समान [होनेसे] 'पुष्प' कहलाता है। पुष्प जिस प्रकार केशरचनाका अलङ्कार होता है इसी प्रकार विशेषवत् उत्तर वाफ्य] पूर्व-वाक्य का शोभा-धायक होता है। जैसे 'विलक्षदुर्योधन' में--- ___ "भीष्म [दुर्योधनसे कह रहे हैं]--
यह मैं तुम्हारे हृदयका स्पर्श करके [ तुम्हारी शपथ खाकर कह रहा हूँ ] अथवा तुम्हारा ही पुत्र इसका साक्षी हो सकता है। कि अभी गौमोंको पकड़ते समय जो-कुछ हुमा उसको पहिले सुन लो। पहिले [युद्ध के प्रारम्भ होते समय] शस्त्र उठाए हुए हम] बहुतसे लोगोंने उस अकेले [अर्जुन] को देखा था और उसके बाद [जब युद्ध में गर्मी प्राई तो हम लोग जितने ही [उसके साथ] युद्ध करनेको इच्छा करनेवाले थे [उनमेंसे प्रत्येकके साथ युद्ध करने के लिए प्रस्तुत] उतने ही अर्जुन दिखलाई देते थे।"
इसमें श्लिोकका] उत्तरार्द्ध [पूर्वार्द्ध का विशेषक होनेसे] 'विशेषवत्' है । अथवा जसे सत्यहरिश्चन्द्रमें"वसुभूति [क्रोधमें श्राकर राजाके प्रति कहते हैं]--
संन्यासियों के पास सोना, पृथिवी, पुत्र, कलत्रादि नहीं होने चाहिए इसलिए मापने इस [कुलपति साधु] को जो कुछ [अपना राज्य और स्वर्ण प्रादि] दिया है वह सब भस्ममें डाली पाहुतिके समान व्यर्थ है। इसलिए मेरी प्रार्थना है कि इस व्यामोहको तोड़कर [कि यह कोई महात्मा है] हे राजन् ! आप अब भी विचार कीजिए [इसके चक्कर में मत पड़िए] यह तो तपस्वीके वेषमें छिपा हुमा निश्चय ही कोई देवता है जो आपको परीक्षा लेनेकेलिए आया हुआ प्रतीत होता है।
कुलपति-उपहास करते हुए] अरे वाचाल ! नीच मन्त्री ! बहुत देर बाद तूने ठीक बात कही है । दुष्कर तपरूपी हाथके द्वारा स्वर्ग और अपवर्ग सुखको प्राप्त करनेवाले मुनिगण [सचमुच] देवता ही होते हैं ।
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१४० ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ५०, सू०७२ . अत्र वसुभूतिवाक्यादुत्तरवाक्यं समर्थकत्वेन विशेषदिति ॥ ४६ ।। (१०) अथ प्रगमनम्
. [सूत्र ७२] -प्रगमः प्रतिवाक्-श्रेणिः
प्रश्नप्रतिपन्थिनी वाक प्रतिवाक् । तस्याः श्रेणिः । अपकर्षितो वे प्रतिवचने, उत्कर्षतो बहून्यपि । यथा वेणीसंहारे
"भानुमती-अय्यउत्त ! अदिमित्तं मे संका बाधाद। ता अणुमन्नेदु मं अज्ज उत्तो। [आर्यपुत्र ! अतिमात्रं मी शंका बाधते । तदनुमन्यतामामार्यपुत्रः । इति संस्कृतम्] राजा-अयि देवि !
किं नो व्याप्तदिशां प्रकम्पितभुवामक्षौहिणीनां फलं, कि द्रोणेन किमंगराजविशिखैरेवं यदि क्लाम्यसि । भीरु ! भ्रातृशतस्य मे भुजवनच्छायासुखापाश्रिता,
त्वं दुर्योधन केसरीन्द्रगृहिणी शंकास्पदं किं तव ।। इसमें वसुभूतिके वाक्यके बादका [कुलपतिका वाक्य [पूर्व वाक्यके अर्थका] समर्थक होनेसे "विशेषवत्' है [इसलिए यह भी 'पुष्प' नामक अंगका उदाहरण है ।
पहिले उदाहरण में पूर्व वाक्य तथा उत्तर वाक्य दोनों के वक्ता भीष्म-थे। इसमें दोनों के वक्ता अलग-अलग हैं यह भेद है । (१०) प्रगमन---
अब 'प्रगमन' [नामक प्रतिमुख सन्धि के दशम अंगका लक्षण करते हैं][सूत्र ७२]--प्रश्नोत्तर-परम्परा [का नाम] 'प्रगम' है ।
प्रश्नको विरोधिनी [अर्थात प्रश्नको समाप्त करने वाली उत्तर रूप] वाणो 'प्रतिवाक्' [कहलाती है। उसकी श्रेणी [अर्थात् परम्परा प्रतिवाक्-श्रेणि' हुई । उसोको प्रगमन प्रङ्ग के नामसे कहते हैं। उस परम्परामें] कम-से-कम दो प्रतिवचन हों। अधिक तो बहुत भी हो सकते हैं। [उसका उदाहरण] जैसे वेणीसंहारमें----
___भानुमती-आर्यपुत्र ! [स्वप्न दर्शन के कारण] मुझे [अनिष्टको] शंका बहुत सता रही है। इसलिए आप मुझे [वतोपवासादि द्वारा उस अनर्थके प्रतिविधान करनेके लिए] अनुमति प्रदान करें।
राजा-अयि देवि !
[यदि तनिकसे अशुभ स्वप्नके दीख जानेसे तुम इस प्रकार उर जाती हो तो फिर] चारों दिशात्रोंमें व्यास, और पृथिवीको कम्पित कर सकने वाली हमारी प्रक्षौहिणी सेनाओं का क्या फल है ? यदि तुम इस प्रकार दुःखी हो रही हो तो [हमारे महारथी प्राचार्य] ब्रोण [के रहने से क्या लाभ हुमा ? और अंगराज [कर्ण] के [शक्तिशाली] बारणोंका क्या उपयोग हुआ ? [अर्थात् इन लोगोंके रहते हमारा कोई किसी प्रकारका भी अनिष्ट सम्भव नहीं है इसलिए तुमको घबड़ाने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है] हे भीर ! तुम मेरे सौ भाइयों के भुज-समूहको छायामें बैठी हुई दुर्योधन रूप मृगराजकी पत्नी हो, तुम्हारे लिए रनेका क्या कारण हो सकता है। [इसलिए तुम बिल्कुल मत डरो। हमारा कोई अनिष्ट नहीं होगा ।
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का० ५०, सू० ७३ ] प्रथमो विवेकः
[ १४१ भानुमती-अय्याउत्त ! न हु मे किंचि संका तुम्हेसु सन्निहिदेसु । इति ।
[आर्यपुत्र ! न हि मे काचिच्छंका युष्मासु सन्निहितेषु । इति संस्कृतम्] यथा वा नलविलासे तृतीयेऽङ्के--
"दमयन्ती-[भुजमवलम्बिते राजनि क्रमादाह-] जई एवं मुंच मे पाणिं | [यद्येवं मुंच मे पाणिम् । इति संस्कृतम्] । राजा--कथमपराधकारी मुच्यते ? दमयन्ती-किं एदिणा अवरद्धं । [किमेतेनापराद्धम । इति संस्कृतम्] । राजा--एतेन मत्प्रतिकृतिमालिख्य अहमियति विरहानले पातितः ।
दमयन्ती---[मत्वा] जइ एवं ता अहं पि ते पाणिं गहिस्सं । तव पाणिलिहिदेन पडेण अहं पि एतावत्थसरीरा जादा । इति ।
[यदि एवं तदाहमपि ते पाणिं ग्रहीष्ये । तव पाणिलिखितेन पटन अहमेतदवस्थशरीरा जाता । इति संस्कृतम्] । (११) अथ वज्रम्
[सूत्र ७३]-वज्रं प्रत्यक्षकर्कशम् । यनिष्ठुरत्वात् प्रत्यक्षरूक्षं वाक्यं यच्च पूर्वप्रयुक्तस्यान्यवाक्यस्य अनुष्ठानस्य वा प्रध्वंसकं तद् वज्रमिव वज्रम् । यथा वेणीसंहारे--
भानुमती-हे प्रार्यपुत्र [सचमुच हो] आपके समीप रहने पर मेरे लिए कोई शंका [का स्थान नहीं है।"
इसमें दुर्योधन तथा भानुमती के प्रश्नोत्तरके रूप में प्रतिवाक्-श्रेरिण दिखलाई गई है ! इसलिए यह 'प्रगम' नामक अङ्गका उदाहरण है ।
अथवा जैसे नलविलासमें तृतीय अंकमें"दमयन्ती-यदि ऐसी बात है तो मेरा हाथ छोड़ दो। राजा-अपराधीको कैसे छोड़ा जा सकता है ? दमयन्ती--इसने क्या अपराध किया है ? राजा---इसने मेरी तस्वीर बनाकर मुझे इस प्रकारके विरहानल में डाल दिया है।
दमयन्ती--तो फिर मैं भी तुम्हारा हाथ पकड़ेंगी। तुम्हारे हाथके द्वारा लिखे गए पटके कारण मेरे शरीरकी यह हालत हो गई है।
इसमें नल-दमयन्तीके उत्तर-प्रत्युत्तरकी परम्परा होने से यह भी 'प्रगम' अङ्गका उदाहरण है। (११) 'वज्र'
अब 'वज्र' [नामक प्रतिमुख सन्धिके ग्यारहवें अंगका लक्षण आदि कहते हैं]--- प्रत्यक्ष रूपसे कर्कश [प्रतीत होने वाला वचन] 'वज्र' [कहलाता है।
जो वाक्य कठोर होनेके कारण स्पष्ट रूपसे ही रूक्ष है और पूर्व कहे हुए वाक्य अथवा [पूर्व किए हुए] कार्यका विनाश कर देता है वह वज्रके समान कठोर और कार्य-विध्वंसक होनेसे 'वज्र' [कहलाता है। जैसे बेणीसंहारमें
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नाट्यदर्पणम्
"अश्वत्थामा -- [कर्ण] मुद्दिश्य ] रे रे राधागर्भभारभूत सूतापसद ! कथमपि न निषिद्धो दुःखिना भीरुरणा वा, द्रुपदतनयपाणिस्तेन पित्रा तव भुजबलदर्पाध्यायमानस्य वामः, शिरसि चरण एष न्यस्यते वारयैनम् ॥ "
ममाद्य ।
१४२ ]
यथा वा कृत्याराव द्वितीयेऽङ्के"रावण - विदेह राजपुत्रि !
विक्रमेण मया लोकाः, त्वया रूपेण निजिताः । सब्रह्मचारिणमतो भजमानं भजस्व माम ॥
सीता --हदास ! अप्पा दाव तए न निज्जिदो, का गणणा लोपसु ।"
[हताश आत्मा तावत् त्वया न निर्जितः, का गणना लोकेषु । इति संस्कृतम् ] अनेन प्रत्यक्ष कर्कशेन वाक्येन रावणवचनं प्रध्वस्तम् ।
यथा वा रघुविलासे-
"रामः -- [ विराधवेशं रावणं प्रति साक्षेपम] -
[ का० ५०, सू० ७३
युद्धश्राद्धमयाः सकुट्टिम तटीशाणा निशाताश्रयाः, देवीमप्यनलम्भविष्णव इमे त्रातु पृषत्का यदि । मनन्तः पृथुपुखपत्र पवनैर्धम्मिल्लमाल्य श्रियं निभिद्यः कथमिद्धको कशघनां पौलस्त्यकण्ठाटवीम् ॥”
" श्रश्वत्थामा - [कको लक्ष्य करके] अरे राधाके गर्भके भारभूत नीच सूत !
[ यह ठीक है कि ] दुःखी अथवा [तेरे कहनेके अनुसार ] भीरू मेरे उन पिता [ द्रोणा
चार्य ] ने किसी काररणसे श्राज द्रुपदतनय [ ष्टष्टद्युम्न ] के [ अपना शिरको काटनेके लिए उद्यत ] हाथको नहीं रोका, [ उसे जाने दे] पर ले भुजबल के दर्पसे फूलने वाले तेरे सिरपर यह मैं अपना बांया पैर रखता हूँ [तेरे भीतर सामर्थ्य हो तो ] इसको रोक [के दिखला ] ।
यह वज्र के समान प्रत्यक्ष कर्कश वचन 'वज्र' नामक अङ्गका उदाहरण है । अथवा जैसे 'कृत्यारावरण' के द्वितीय
में
रावण - हे जानकि !
मैंने अपने पराक्रमसे, और तुमने अपने रूपसे लोकोंको जीत लिया है [इसलिए हम दोनों सहाध्यायी है ] इसलिए अपने चाहने वाले अपने सब्रह्मचारी [सहाध्यायी मुझ रावण] को [तुम भी] प्रेम करो ।
सोता -- श्ररे नीच ! तूने तो अपने [ श्रात्मा ] आपको ही नहीं जीत पाया है, लोकों [के जीतने] की तो बात ही कहाँ हैं ?
इस प्रत्यक्ष कर्कश वाक्यसे रावणका वचन [ प्रध्वस्त] कट जाता है । [ इसलिए यह 'व' नामक के दूसरे भेदका उदाहरण हुआ । ] ।
प्रथवा जैसे रघुविलासमें [ कार्य-विध्वंस रूप वज्ज्र के तृतीय भेदका उदाहरण ] - [विराधवेष धारी रावरणके प्रति राम कहते हैं ]
युद्धकी श्रद्धासे भरे हुए पक्के फर्श वाली पहाड़ की तटी रूप शारण [ पर घिसने ]
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का० ५०, सू०७४ ]
यथा वात्रैव-
वैनतेयः - [ रामं प्रति] अजितेन्द्रियः खलु दुरात्मा रावणो न क्षाम्यति कलितसौभाग्यसाराणां परदाराणाम् । तदियमार्या वैदेही क्वचिदपि गोप्रयितुमुचिता ।
प्रथमो विवेकः
लक्ष्मणः - अजितेन्द्रियः खलु दुरात्मा सूर्यहासो न क्षाम्यति पापीयसां पुंसाम् । तदियमा वैदेहीन क्वचिदपि गोपायितुमुचिता ।" इति । अनेन वैनतेयवचनं प्रध्वस्तमिति ।
(१२) अथोपन्यास :----
[ १४३
[ सूत्र ७४ ] - उपपत्तिरुपन्यास:
कंचिदर्थं विधातु या उपपत्ति-युक्तिःस उपन्यासः । यथा कृत्यांरादणे"रामः सीते आतां पुष्पकम् ।
सीता - इतास ! अवि मरिस्सं न पुरण आरुहिस्सं ।
[ हताश ! अपि मरिष्यामि न पुनरारोक्ष्यामि । इति संस्कृतम् ] | रावणः --- आः ! किं बहुना यावत् करेण दृढपीडितमुष्टियन्त्रमुत्खाय चन्द्रकिरणद्युतिचन्द्रहासेन त्वत्पुरो बटुशिरःकमलोपहार आरभ्यते । समधिरोह शिवाय तावत् ।
से तीव्र धार वाले यदि मेरे ये बारण देवी [ सीता] की रक्षा करनेमें समर्थ नहीं हो सकें तो अपने दीर्घ पुख पत्रोंकी हवासे [ रावणके] केशोंकी शोभा को नष्ट करते हुए अत्यन्त कठोर एवं सघन रावरणके शिरोंके झुण्डको ये बारण कैसे काटेंगे ।
(१२) उपन्यास -
श्रथवा जैसे यहाँ [ रघुविलासमें] ही [ इसका एक और उदाहरण ] - [ प्रजितेन्द्रिय ] ''वैनेतय-- [ रामके प्रति ] दुष्ट रावण बड़ा कामी है वह दूसरोंकी सुन्दर स्त्रियों को सहन नहीं करता है । इसलिए इन प्रार्या वैदेहीको कहीं छिपाकर रखना ही उचित है । लक्ष्मरण-- [ तो फिर हमारा या चन्द्रहास नहीं अपितु] सूर्यहास [ खड्ग ] भी बड़ा दुष्ट और [ श्रजितेन्द्रिय अपने ] वशमें न रहने वाला है । वह पापी पुरुषों को क्षमा नहीं करता है । इसलिए इन श्रार्या वैदेहीको कहीं छिपानेको श्रावश्यकता नहीं है ।
इस [ लक्ष्मण वचन ] से वैनतेयके वचनका काट हो जाता है ।
अब 'उपन्यास ' [ नामक प्रतिमुख सन्धिके १२वें अङ्गका लक्षरण आदि कहते हैं ][ सूत्र ७४ ] - [ किसी कार्यके लिए ] युक्तिको प्रस्तुत करना 'उपन्यास' [ कहलाता है] । fret कार्य करनेके लिए जो युक्ति वह 'उपन्यास' है । जैसे कृत्यारावरणमें--- रावण -- हे सीते ! पुष्पक विमानपर चढ़ जाओ ।
सोता -- श्ररे नीच, मैं मर भले ही जाऊँ पर चढ़ेंगी नहीं ।
रावस -- प्रच्छा, अधिक कहनेकी आवश्यकता नहीं तो ले मैं जोरसे मूठको पकड़ कर चन्द्र-किरणोंके समान द्युति वाली तलवारको निकालकर तेरे सामने इन बटुनों [ तपस्वी ब्रह्मचारियों के शिरों-रूपी कमलों को काट कर ] उपहार देना प्रारम्भ करता हूँ । भला चाहो तो चढ़ नाश्रो ,
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१४४ ]
नाट्यदर्पणम् । का०५०, सू० ७५ सीता-वरं अत्तणो सरीरस्स अच्चाहिद, न उण नवोधणाणं । इय अधिरुहामि मंदभाइणी । हा अज्जपुत्त ! [इति रुदता आरोहं नाटति] इति ।
वरमात्मनः शरीरस्य अत्याहितं, न पुनस्तपोधनानाम । इयमधिरोहामि मन्दागिनी । हा आर्यपुत्र ! इति संस्कृतम्] यथा वा रघुविलासै--
विराधवेषो रावण:--[रामं प्रति] आगन्तवो यूयं, अहं पुनराकलितविपिनकुहरो वने चरदेशीयः । प्रभूतान्तरायं सम्परायं च रावणप्रमुखेभ्यो रक्षाभ्यः सम्भावयामि भवताम् । वधूवागुरानियन्त्रितमनसश्च कुत एव योद्धमलम्भविष्णवः। तदियमार्या वैदेही किमपि वनकुहरमलंकुरुताम् ।”
___ इयमपहारार्थिना रावणेन सीतामेकांकिनी कतु युक्तिर्दशिता । इति । (१३) अथानुसर्पणम् -
सूत्र ७५]-नष्टेष्टेहा ऽनुसर्पणम् ॥ ५० ॥ पूर्वमुपलब्धस्य पुनरन्तरितस्य इतिवृत्तवशादभिलषितस्याथस्य ईहा अन्वेषणं अनुसर्पणम् । यथा पार्थविजये द्वितीयेऽङ्क द्रौपदी युधिष्ठिरमुद्दिश्याह
"द्रौपदी-महाराय इमाहिं य्येव दिवसपरिवत्तण गणणाहि किणीभदपाय - भकुवे यदुक्खम्स मे हिय यस्स पम्हुट्ठो विय अणज्जदुस्सासणण अत्तणो केसग्गहावमाणवुत्तंतो।
सीता- अपने शरीरको भयमें डाल देना अच्छा है किन्तु तपस्वियोंको [संकट में डालना उचित नहीं। अच्छा मैं मंदभागिनी चढ़ती हूँ। हा प्रार्यपुत्र ! [ऐसा कहकर रोती हुई वैदेही पुष्पक विमानपर प्रारोहणका अभिनय करती है।"
__ अथवा जैसे रघुविलासमें [उपन्यासका दूसरा उदाहरण]--
___ "विराध वेषधारी रावरण [रामके प्रति कहता है] पाप लोग [बाहरसे प्राए हुए हैं। और मैं इस वनको कुहरोंको छाना हुआ लगभग वनचर हूँ। इसलिए मैं रावण प्रादि राक्षसों के द्वारा [आपके मार्गमें] अनेक विघ्नों तथा युद्धोंकी सम्भावना करता हूँ। [उस समय स्त्री के झंझटमें आपका मन उलझा होनेसे पाप उनके साथ लड़नेमें कैसे सफल हो सकेंगे । इसलिए इन प्रार्या वैदेहीको वनकी किसी गुफामें रख दीजिए।
सीताके अपहरणके चाहनेवाले रावणने सीताको अकेला करनेके लिए यह युक्ति दिखलाई है [अतः यह भी 'उपन्यास' अङ्गका उहाहरण है] । (१३) अनुसर्पण--
अब 'अनुसर्पण' [नामक प्रतिमुखसंधिके तेरहवें अङ्गका क्षरण पावि कहते हैं[सूत्र ७४]-विस्मृत हुए इष्ट अर्थका पुनः अनुसंधान 'अनुस[कहलाता है ।५०।
पहिले [एक बारके अनुभव द्वारा प्राप्त हुए, फिर [किर. कारणसे विस्मृति द्वारा लुप्त हुए, अभिलषित अर्थका कथाप्रसंगके वशसे फिर दुबारा अनुसंधान [या स्मृति] अनुसर्पण [नामक प्रङ्ग कहलाता है।
असे पार्थविजयके द्वितीय अङ्कमें द्रौपदी युधिष्ठिरसे कहती है...
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का० ५१-५३, सू० ७६-७७ ] प्रथ बैंक:
[ १४५
[महाराज श्रभिरेव दिवसपरिवर्तनगणनाभिः किणीभूत परिभवोद्वेगदुःखस्य में हृदयस्य प्रस्मृत एवानार्यदुःशासनेन स्वात्मनः केशमहापमानवृत्तान्तः । इति संस्कृतम् ] !
निष्प्रतीकार- कालहरणात् प्रभ्मृतं नष्टमिति ब्रुवती
अथ प्रागनुभव पुनस्तमनुस्मरतीति ॥ ५० ॥
एतानि प्रतिमुखसन्धेरंगानि त्रयोदशेति || [३] अथ गर्भसन्धे रंगानि व्याख्यातुमुहिराति----
[ सूत्र ७६ ] - संग्रहो रूपमनुमा प्रार्थनोदाहृतिः क्रमः । उद्वेगो विप्लवश्येतद् गुतः कार्यष्टकम् ॥५१॥ आक्षेपावलं मार्गो सत्याहरण- तोटके | पञ्चैतानि प्रधानानि गर्भेऽङ्गानि त्रयोदश ॥ ५२||
'गुणत:' इति गुणभावेन, गुणमुपकारमपेस्य वा । तेन फलोद्भेददर्शनार्थं संग्रsोऽवश्यं निबन्धनीयः । नेपादीनि तु सुख्यानीति ।।५१-५२ (१) अथ संग्रहः
[ सूत्र ७७] - संग्रहः साम-दानादिः
साम-दाने दण्ड-भेदयोरुपलक्षणम् | आदिशब्देन सायेन्द्रजालादिसंग्रहः ।
यथा रत्नावल्याम---
हे महाराज ! इन्हीं दिनोंके परिवर्तनों को गिनते हुए मैं, हृदयमें गाँठ-सी डाल देने वाले [घाव या बार-बारकी रगड़से शरीर के किसी स्थानपर जो कडो गाँठ-सी बन जाती है उसको किरण कहते हैं.] दुःशासनके द्वारा किए गए अपने बालोंके खींचे जानेके अपमानके वृत्तांतको भूल गई थी ।
यहाँ [इस कथन में ] पहिले [केशग्रहरणके कालमें] अनुभव द्वारा प्राप्त और प्रतिकार के बिना हो कालके व्यतीत होनेके कारण भूले हुए [दुःख ] को इस प्रकार कहती हुई [ द्रौपदी ] उसको फिर स्मरण करती है । [ अतः यह 'अनुसर्पण' का उदाहरण है ] । ये प्रतिमुखसंधिके तेरह श्रङ्ग हैं |
(३) गर्भ सन्धिके तेरह अङ्ग
अब गर्भसन्धिके अंगोंकी व्याख्या करनेके लिए उनके
नाम गिनाते हैं।
[ ७६ ]- १. संग्रह, २. रूप ३. अनुमा, ४ प्रार्थना, ५. उदाहृति, ६. क्रम, ७. उग, ८. और ९. विप्लव । ये म्राठ [प्रंग] गौरण रूपमें [मा विशेष प्रयोजनवश प्रयुक्त ] करने चाहिए । ५१ ।
९. प्राक्षेप, १०. अधिवल, ११. मार्ग, १२. प्रत्याहरण और १३. तोटक । ये पाँच अंग गर्भसंधिमैं प्रधान [अंग] हैं। इस प्रकार [गर्भसंधिके] तेरह श्रंग [होते] हैं । ५२ । (१) संग्रह
[ सूत्र ७७] - [ सबसे पहिले] 'संग्रह' नामक गर्भसंधिके अंगका लक्षण करते हैं ]साम वान प्रादि [के प्रयोगको] 'संग्रह' [ कहा जाता ] है । जैसे रत्नावलीमें
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- १४६ ]
नाट्यदर्पणम्
"राजा - वयस्य न खलु किश्चित् त्वयि न सम्भाव्यते ।" इति साम । संकेतादिवार्ता श्रुत्वा कटकवितरणं तु दानम् ।
[भेदो] यथा रघुविलासे पञ्चमेऽङ्क क्रमात् पवनवेषो राक्षसः प्राह" राक्षसः - प्रसीदतु देवः ।
रावण --गृहाण प्रसादम् | [पुनः प्रतीहारं प्रति ] बराहतुण्ड ! समादिश कुमार कुम्भकर्णं यथा पवनं किष्किन्धाराज्ये त्वरितमभिषिञ्च । "
एष दोत्यार्थमागतवतो बालितनयस्य चोभार्थं कृतको हनुमत्पितुः सुग्रीवाद भेदः प्रयुक्तः । यथा वा
चतुर्थेऽङ्के रावणः---
[ का० ५३, सू० ७७
"यायावरे
किमनेन वनेचरे, मां स्थावरं वरमुपास्व कुरङ्गकाक्षिं । किं वा स्तुवे तव पुरश्चतुरस्थितीनां वैदग्ध्य सौरभवती भवती प्रकाण्डम ||
सीताको वा जाजावरों को वा थावरु त्तिविवेगं लक्ग्वणनारायपद्धई वाविकरिस्सर । [को वा यायावरः को वा स्थावर इति विवेकं लक्ष्मणनाराचपद्धतिराविष्करिष्यति । इति संस्कृतम् ] |
रावणः [सरोषं चन्द्रहासं परामृश्य ]
"राजा - हे मित्र ! तुम्हारे लिए कोई बात असम्भव नहीं है ।" यह साम है । [ उसके बाद उसी द्वितीयामें] संकेतादिकी बात सुनकर कटकका देना, दान [अंगका
प्रयोग ] है ।
[भेद-प्रयोगका उदाहररण] जैसे रघुविलास में पअमाङ्क में [वार्तालापके] क्रमसे हनुमान के पिता ] पवनका वेष धारण किए हुए [मायावी] राक्षस कहता है
"राक्षस - हे महाराज ! श्राप प्रसन्न हों।
रावण -- [ हमारे] प्रसादको ग्रहण करो। [फिर प्रतिहारसे] हे वराहतुण्ड ! कुमार कुम्भकको [मेरी प्रोरसे ] श्राज्ञा दो कि पवनकुमारको शीघ्र [ जाकर ] किष्किन्धाके राज्यपर अभिषिक्त करे ।"
इसमें [रामको श्रोरसे] दूत बन कर लाए हुए अंगदके क्षोभके लिए हनुमानके पिता [ पवनकुमार] का सुग्रीवसे यह बनावटी भेद दिखलाया गया है।
श्रथवा जैसे यहीं [अर्थात् रघुविलासमें हो] चतुर्थ प्रङ्कमें रावण [कहता है] - "रावरण - हे मृगके समान नेत्रों वाली सीते । सर्वदा मारे-मारे फिरने वाले [ श्रतिशयेन यति इति यायावर: ] इस [ रामचन्द्रके पास रहने] से क्या लाभ है । सदा स्थिर एक स्थान पर] रहने वाले मुझको अपना वर बना लो। तुम्हारे सामने मैं [अपनी ] क्या बड़ाई करू. तुम तो स्वयं चतुरोकी स्थिति में प्रत्यन्त समभवार प्रसिद्ध हो ।
सीता - कौन मारा-मारा फिरने वाला या कौन स्थिर रहने वाला है इस बातको तो लक्ष्मणके बाणोंकी पंक्ति ही प्रकट करेगी ।
रावरण -- [ क्रोधपूर्वक तलवारको पकड़ता हुआ ]
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का० ५३, सू०७८ ] प्रथमो विवेकः
[ १४७ प्रेमावनद्धहृदयःसर्व लेकेश्वरः सुदति ! सोढा ।
सोढा न चन्द्रहासः पुनर यमुल्लुण्ठवृत्तानाम।" / एष सीताक्षोभार्थ रावणेन दण्डः प्रयुक्तः । .
मायाप्रयोगश्चात्रैव कृतकलदमण सुग्रीवानयन-रावणसीताघटनादिको निबद्ध इति। (२) अथ रूपम्
[सूत्र ७८].-रूपं नानांथेसंशयः । नानारूपाणामर्थानां संशयोऽनवधारणं रूपमिव स्पम । अनियतो हयाकारो रूपमुच्यते। मुम्बसन्ध्यंगाद् युक्तेः कृत्यविचार रूपत्वेन नियताकाराया अस्य भेदः । यथा कृत्यारावणे रामो जटायुषमप्रत्यभिजानन्नाह---
"गिरिरयम्मरेन्द्रेणाद्य निलून पक्षः, कतरिपुरसुरेशैः शातितो वैनतेयः । अपरमिह मनो मे नः पितुः प्राणभूतः,
किमुत बत स एष व्यपेतायुर्जटायुः ॥” इति । अन्ये त्वधीयते-'रून वितर्कवद् वाक्यम्' इति ।
हे सुन्दर दाँतों वाली सीते ! प्रेमसे प्राबद्ध हृदय होनेके कारण लंकेश्वर [अर्थात् मैं रावण] तो सब कुछ [अर्थात् तुम्हारी उचित-अनुचित सब बातें] सह लेगा किन्तु [यह ध्यान रखो कि लुटेरों [अर्थात् राम लक्ष्मण के आचरणोंको यह तलवार सहन नहीं करेगी।"
सीताकी उरानेके लिए रावणने यह दण्डका प्रयोग किया है।
और इसी [रघुबिलासमें] में लक्ष्मण सुग्रीव प्रादिके बनावटी प्रानयन और सीता रावणके बनावटी सम्मिलनके वर्णनं द्वारा मायाका प्रयोग किया गया है। (२) रूप
अब 'रूप' [नामक गर्भसन्धिके द्वितीय अङ्गका लक्षण प्रादि कहते हैं]-- अनेक प्रकारके अर्थोका संशय [वर्णन करता] 'रूप' [कहलाता है।
अनेक प्रकारके अर्थोंका [एक जगह] संशव अर्थात् किसी एकका निश्चय न कर सकना रूप [अर्थात अनियताकार] के समान होनेसे 'रूप' कहलाता है । अनियत प्राकारको 'रूप' कहा जाता है। कार्यके विचार-रूप और नियत प्राकार बाले 'युक्ति.' नामक] मुखसन्धिके अङ्गसे [अनियत प्राकार होनेके कारण इस [गर्भसन्धिके 'रूप' नामक अंग] का भेद [स्पष्ट है। [इस 'रूप' नामक अंगका उदाहरण] जैसे कृत्यारावरणमें [रावरणके द्वारा मारे गए] जटायुको न पहिचान सकने पर राम कहते हैं- . . .
- क्या माज देवराज इन्द्रने इस पर्वतके पंख काट डाले हैं ? अथवा दैत्योंके राजाने बरके कारण गरुडको काट कर डाल दिया है। मेरे मन में एक और बात भी आती है कि प्रथवा ये हमारे पिताजीका प्राणभूत [घनिष्ट मित्र मरे हुए जटायु हैं। .
इसमें मृत जटायुको देखकर नाना प्रकारके अर्थोका संशय दिखलाया गया है इसलिए यह 'रूप' नामक अङ्गका उदाहरण है।
दूसरे लोग-वितर्क युक्त वाक्य 'रूप' है' इस प्रकार ['रूप' का लक्षण] पढ़ते हैं।
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१४८ ]
नाट्यदर्पणम
का० ५३, सू० ७६ यथा रत्नावल्यां राजा क्रमादाह
"प्रणयविशदां दृष्टि वक्त्रे ददाति न शंकिता, घट यति धनं कण्ठाश्लेपे रसान्न पयोधरौ । वदति बहुशो गच्छामीति प्रयत्नधृताप्यहो,
रमयतितरां संकेतस्था,तथापि हि कामिनी ॥ कथं चिरयति वसन्तकः ? किं खलु विदितः स्यादयं वृत्तान्तो देव्याः।" इत्यनेन रत्नावलीसमागमप्राप्त्यानुगुण्येनैव देवीशंकया वितर्काद् रूपमिति। अन्ये तु-चित्रार्थे रूपकं वचः' इति पठन्ति ।
यथा वेणीसंहारे सुन्दरकेण चित्रसंग्रामवर्णनमिति । (३) अथ अनुमानम्
[सूत्र ७६]-अनुमा निश्चयो लिंगात् । लिंगाद्धेतोर्नान्तरीयकस्य लिंगिनो निश्चयोऽनुमानम । निश्चयरूपत्वेन च ऊहरूपाया युक्तभिद्यते । यथा भासकृते स्वप्नवासवदत्ते शेफालिकामण्डपशिलातलमवलोक्य वत्सराजः
[उसका उदाहरण] जैसे रत्नावलीमें क्रमसे राजा कहता है
भयभीत होनेके कारण मुखकी भोर प्रेमपूर्वक [निर्भय होकर] देख नहीं पाती है गले में प्रालिंगन करती हुई भी प्रानन्दमग्न होकर जोरसे स्तनोंको नहीं चिपटाती है । प्रयत्नपूर्वक पकड़ने पर भी बार-बार मैं जाती हूँ यह कहती है। फिर मी संकेतवश माई हुई कामिनी अत्यन्त प्रानन्द प्रदान करती है।
वसन्तक [विदूषक न जाने देर क्यों कर रहा है [अभी तक प्राया नहीं] ? कहीं यह समाचार देवी [वासवदत्ता] को मालूम तो नहीं हो गया।" ।
इस [कथन] से रत्नावलीके साथ समागमके अनुकूल ही देवी [वासवदत्ता] को शंका से वितर्क होनेके कारण 'रूप' [अङ्गका यह उदाहरण है।
अन्य [प्राचार्य] तो-- 'विचित्र प्रर्थ वाला रूप [कहलाता है।' यह ['रूप'का लक्षण] बतलाते हैं [पठन्ति ।
जैसे वेणीसंहारमें [पंचम प्रमें] सुन्दरके संग्रामका विचित्र रूपसे वर्णन करता है [वह 'रूप' नामक अङ्गका उदाहरण है] । (३) अनुमान
अब 'अनुमान' [नामक गर्भसन्धिके तृतीय अंगका लक्षण प्रावि कहते हैं][सूत्र ७६]-लिंगके द्वारा [लिंगीका] निश्चय 'अनुमान' [कहलाता है।
लिंग प्रर्थात् हेतुके द्वारा उससे अविनाभूत [नित्य सम्बन] लिगी [अर्थात् साध्य] का निश्चय करना 'मनुमान' कहलाता है। निश्चय रूप होनेके कारण ही कह रूप 'युक्ति' [नामक मुखसन्धिके प्रङ्ग से इसका भेद है।
___ जैसे भास-विरचित स्वप्न वासवदत्तमें शेफालिका-मण्डपके शिलातलको देखकर वत्सराज [उदयन कहते हैं]
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का ५३, सू०८० ] प्रथमो विवेकः
[ १४६ "पादाक्रान्तानि पुष्पाणि सोष्म चेदं शिलातलम् ।
नूनं काचिदिहासीना मां दृष्ट्वा सहसा गता।" पूर्वाद्धं लिंगम् । उत्तरार्द्धमनुमानम् । यथा वा यादवाभ्युदये षष्ठे गर्भावे रुक्मिणीमवलोक्य कृष्णाः
"अस्यां मृगीशि दृशोरमृतच्छटायां, देवः स्मरोऽपि नियतं वितताभिलाषः । एतत् समागममहोत्सवबद्धतृष्णाम्
आइन्ति मामपरथा विशिखैः कथं सः॥" इति (४) अथ प्रार्थना
[सूत्र ८.]-प्रार्थना भावयाचनम् ॥५३॥ भावानां साध्यफलोचितानां रति-हर्ष-उत्सवादीनां याचनं प्रार्थना । यथा देवीचन्द्रगुप्ते चतुर्थऽङ्के चन्द्रगुप्तः"प्रिये माधवसेने ! त्वमिदानी मे बन्धमाज्ञापय ।
कण्ठे किन्नरकण्ठि ! बाहुलतिकापाशः समासज्यतां, हारस्ते स्तनबान्धवो मम बलाद् बध्नातु पाणिद्वयम् । पादौ त्वज्जघनस्थलप्रणयिनी सन्दानयेन्मेखला,
व त्वद्-गुणबद्धमेव हृदयं बन्धं पुनर्नार्हति ।।" "फूल पैरोंसे कुचले हुए हैं और यह शिलातल गर्म हो रहा है। [इससे प्रतीत होता है कि निश्चय ही यहां कोई [स्त्री] बैठी हुई थी जो मुझको देखकर सहसा चली गई है।"
इसमें पूर्वार्ड [भाग लिग है, और उत्तराई [भाग अनुमान है। अथवा जैसे यादवाभ्युदयके छठे [अजूके] गर्भामें कृष्ण कहते हैं]
नेत्रोंके लिए अमृतके समान [पाल्हाद-दायिनी] इस मृगनयनीके विषयमें निश्चय हो कामदेवका उत्कट अभिलाष है। अन्यथा इसके समागमके महोत्सवके लिए उत्सुक मुझको [अपना प्रतिद्वन्दी और बाधक समझकर] यह अपने बाणों से क्यों मार रहा है ?"
इसमें कामदेवके बाणोंके प्रहार रूप लिंगसे कामदेवके नायिकाके प्रति अभिलाष रूप लिंगीका अनुमान किए जाने से यह 'मनुमान' रूप अङ्गका उदाहरण है। (४) प्रार्थना
अब प्रार्थना [नामक गर्भसन्धिके चतुर्ष अंगका लक्षणमादि करते हैं][सूत्र ८०] भावोंकी याचना प्रार्थना [कहलाती है। साध्य फलके अनुरूप रति, हर्ष, उत्सव प्रादि भावोंको याचना प्रार्थना [कहलाती है। जैसे देवीचन्द्रगुप्तके चतुर्थ अङ्कमें चन्द्रगुप्त [कहता है]- . [प्रिये माषवसेने ! तुम अब मेरे बन्धनको प्रामा [अपने मङ्गोंको इस प्रकार] दो
हे किन्नरके समान [मधुर] कण्ठ वाली [प्रिये] ! अपनी बाहुलताका पाश मेरे गले में डालो। तुम्हारे स्तनोंका बान्धव [स्तनोंके साथ रहने वाला] हार जबरदस्ती मेरे दोनो हाथोंको बांध ले। तुम्हारे जघनस्थलका मालिंगन करने वाली मेखला मेरे पैरोंको अकर ले। किन्त पहिले की तम्हारे गणोंसे बंधे हुए हत्यको बारा बांधनेकी प्रावश्यकता नहीं ,
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१५० ]
नाट्यदर्पणम् . [ का०५४, सू०८१ अत्र रते प्रार्थना ..
तथा कृत्यारावणे चतुर्थेऽङ्के सीताहरण-भातृदुःखाच्च दुःखितो विफलान्वेषणो लक्ष्मणः--
"तदपि नामायमम्मवृत्तान्तस्य प्रतिक्षणमुपचीयमान-नायकव्यसनभाजोऽभ्युदयावसानः संहारो नाटकस्येव भवेत्।"
अत्राभ्युदयात्मक उत्सवो लक्ष्मणेनार्थितः ।
केचिदभ्यर्थनामात्रं प्रार्थनामाहुः । यया रघुविलासे कृतकहनमपितृवेषो राक्षसः [रावणं प्रति--
"वद् भग्नं विपिनं. धनुर्धरकलादक्षो यदक्षो इतः, शिक्षा लंघयतः क्षपाचरपते यन्मूनिदत्तं पदम् । यद् वेश्मानि परःशनानि शिशुना क्षुण्णानि कापेयतः,
तत् क्षन्तव्यमशेषमेष पुरतस्ते देव ! बद्धोऽलिः ।। इति । केचित् तु प्राक्तनमिदं चाङ्ग न मन्यन्ते ॥ ५३॥ (५) अथोदाहृतिः
इसमें रमणको प्रार्थना है।
और कृत्यारावणके चतुर्थ अंकमें सीताहरण तथा भाईके दुःखसे दुःखित [सीताके] अन्वेषरणमें असफल लक्ष्मण [कहते हैं]---
... "फिर भी क्या प्रतिक्षण बढ़ने वाली विपत्तियोंसे युक्त नायक वाले नाटकके उपसंहार के समान हमारा भी अभ्युदयमें पर्यवसान होगा।"
यहाँ लक्ष्मणने अभ्युदयात्मक उत्कर्षकी कामना-प्रार्थना की है। [प्रतः यह 'प्रार्थना' नामक अंगका उदाहरण है।
कुछ लोग अभ्यर्थनामात्र [अर्थात् प्रत्येक प्रकारकी याचना को 'प्रार्थना' कहते हैं । जैसे रघुक्लिासमें हनुमानके पिता [अर्थात् पवनकुमार का बनावटी वेष धारण करनेवाला राक्षस [रावरणके प्रति कहता है]
- [मेरे पुत्र हनुमानने लंकामें आकर] जो उद्यान उजाड़ा, और धनुर्घरोंको कलामें दक्ष प्रक्षकुमारोंको मारा, और शिक्षाका उल्लंघन करनेवाले राक्षसराजके सिरपर जो पैर रखा, तथा वानरभावके कारण [कापेयतः] मेरे बच्चेने जो संकड़ों घर जला डाले, हे देव ! . उस सबको क्षमा करें। मैं [ उसका पिता ] अापके सामने यह मैं हाथ जोड़ता हूँ।
____ इसमें पवनकुमारका वेष धारण किए हुए मायावी राक्षस, जो रावणसे हनुमानको "क्षमा करनेकी याचना कर रहा है उसको भी 'प्रार्थना' अङ्ग कहा जा सकता है।
___ कोई [प्राचार्य] तो इससे पहिले [अर्थात् अनुमानको] पोर इसको [अर्थात् प्रार्थना] को जंग नहीं मानते हैं। (५) उदाहृति
अब 'उदाहृति' नामक गर्भसंधिके पञ्चम अंगका लक्षण प्रादि करते हैं][सूत्र ८१}---[किसीके] समुत्कर्ष [का वर्णन] 'उवाहति' [कहलाता है
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का० ५४, सू०८२ ] प्रथमो विवेकः
[ १५१ लोकप्रसिद्धवस्त्वपेक्षया यः समुत्कर्षः सगुत्कृष्टोऽर्थः स उत्कर्षाहरणादुदाहृतिः । यथा रत्नावल्या... "राजा---अहो महदाश्चर्यम् -
मनः प्रकृत्यैव चलं दुर्लक्षं च तथापि मे।
___ कामेनेदं कथं विद्धं समं सर्वैः शिलीमुस्वैः ।। अत्रेतरधन्विभ्यो मन्मथस्य युगपत् सर्वैः शरैः स्वभावचपल-दुर्लक्षमनोवेधेन समुत्कर्षः। (६) अथ क्रमः--
सूत्र ८२]-क्रमो भावस्य निर्णयः । भावस्य पराभिप्रायस्य, अथवा भाग्यमानस्यार्थस्य ऊह-प्रतिभादिवशानिर्णयो यथावस्थितरूपनिश्चयः 'क्रम' । वुद्धिस्तत्र क्रमते, न प्रतिहन्यसे इत्यर्थः।
यथा देवीचन्द्रगुप्ते"चन्द्रगुप्त:---ध्रुवदेवीं दृष्ट्वा स्वगतमाह] इयमपि देवी तिष्ठति । यैषा
रम्यां चारतिकारिणी च करूणां शोफेन नीता दशां, तत्कालोपगतेन राहुशिरमा गुप्तेव चान्द्री कला। पत्युः क्लीबजनोचितेन चरितेनानेन एस: सती,
लज्जा-कोप-विषाद-भीत्यरतिभिः क्षेत्रीकृता ताम्यति ॥" मोकप्रसिद्ध [सामान्य] वस्तुनोंकी अपेक्षा [किसी वस्तुका] जो समुत्कर्ष है वह उत्कर्ष का प्राहरण [करनेवाला होनेसे 'उदाहृति' [कहलाता है। जैसे रत्नावलीमें
"राजा-अरे ! अहो ! बड़े प्राश्चर्यकी बात है कि
मन तो स्वभावतः ही घञ्चल और न दिखलाई देनेवाला है। फिर भी कामदेवने मेरे उस मनको एक साथ ही अपने सारे वारणोंसे विद्ध कर दिया है।"
यहाँ स्वभावतः चञ्चल और ने दिखलाई देनेवाले मनको एक साथ ही सारे वारणोंसे वेध देनेके कारण अन्य धनुर्धारियोंको अपेक्षा 'कामदेवका उत्कर्ष वरिणत होनेसे यह 'समुत्कर्ष' नामक अंगका उदाहरण है। (६) क्रम--
अब 'क्रम' [नामक गर्भसंधिके षष्ठ अंगका लक्षण करते हैं[सूत्र ८२]-भावका निश्चय 'क्रम [कहलाता है
भाव अर्थात् दूसरेके अभिप्रायका, अथवा ऊहा, प्रतिभा पाबिके द्वारा भाग्यमान [विचार प्रादिमें निमग्न अर्यके यथावस्थित रूप माविका निश्चय 'कम' [कहलाता है। उसके विषयमें बुद्धि क्रमण करती है [चलती है।] प्रतिहत नहीं होती है इसलिए उसको 'क्रम' कहते हैं । जैसे देवो चन्द्रगुप्त में
"चन्द्रगुप्त - [ध्रवदेवीकी मोर देखकर] यह देवी भी बैठी है मो--
तत्काल पाए हुए राहुके शिरके द्वारा कवलितकी हुई चन्द्रमाको कलाके समान शोक के कारण रम्य होने पर भी दु लदायिनी करुण अवस्थाको प्रास, पतिके पुरुष होने पर भी नपुंसकों-जैसे इस प्राचरणसे लज्जा, कोप, विषाद, भय परतिसे मस्त दुःखी हो रही है।
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१५२ ]
नाट्यदपम्
अत्र ध्रुवदेव्यभिप्रायस्य चन्द्रगुप्तेन निश्चयः । तथा रत्नावल्याम् -
हिया सर्वस्यासौ हरति विदितास्मीति वदनं द्वयोर्दष्टवालापं कलयति कथामात्मविषयाम् । सखीषु स्मेरासु प्रकटयति वैलक्ष्यमधिकं, प्रिया प्रायेणास्ते हृदयनिहितातंक विधुरा ॥ श्रत्र राज्ञा भाव्यमानायाः सागरिकायाः स्वरूपावस्थानिर्णयः कृतः । अन्ये तु - ' क्रमः सश्चिन्त्यमानाप्तिः' इत्याहुः । यथा रत्नावल्यामवत्सराजस्य सागरिकासमागममभिलषतो विदूषकेणोपवने योजनम् । अन्ये तु भविष्यदर्थतत्त्वोपलब्धिं क्रममिच्छन्ति । यथा वेणीसंहारे"कृपः - राजन दुर्योधन ! महान् खलु द्रोणपुत्रेण वोदुमध्यवसितः समरभारः । भवता च कृतपरिकरोऽयमुच्छेत्तु लोकत्रयमपि समर्थः । किं पुनरेतद् युधिष्ठिरबलम् ।" इति । (७) अथोद्वेग:
[ सूत्र ८३ ] - उद्वेगो भीः
चौर नृप अरि-नायिकादिभ्यो भयमुद्वेगः । यथा श्रमात्यशंकुकविरचिते चित्रोत्पलावलम्बित के प्रकरणे पश्र्चमेऽङ्के
[ का० ५४, सू० ८३
यहाँ ध्रुवदेवीके अभिप्रायका चन्द्रगुप्तके द्वारा निश्चय [होनेसे 'क्रम' का उदाहरण ] है । इसी प्रकार रत्नावलीमें
"सब लोगोंको [मेरा वत्सराजके प्रति प्रेम] विदित हो गया है ऐसा समझ कर [ सागfrer] सबसे मुख छिपाती है, [कहीं] दो जनोंको बात करते देखकर यह समझती है कि ये लोग मेरे विषयमें ही बात कर रहे हैं । सखियोंके मुस्करानेपर और भी अधिक शर्मा जाती है । इस प्रकार प्रिया [ सागरिका ] प्रायः हृदय में बैठे हुए भयसे पीड़ित रहती है ।"
इसमें राजाने भाव्यमान सागरिकाके स्वरूप तथा श्रवस्थाका निर्णय किया है [ इस लिए यह भी 'क्रम' नामक श्रङ्गका उदाहरण है ] ।
अन्य लोग तो 'सञ्चिन्त्यमान अर्थकी प्राप्तिको 'क्रम' कहते हैं। जंके रत्नावलीमें सागरिका समागमको चाहने वाले वत्सराजको उपवन में विदूषक के द्वारा [ सागरिकाके साथ ] मिला देना । [ योजना सचिन्त्यमान श्रर्थकी प्राप्ति रूप होने से 'क्रम' अङ्ग हैं) ।
अन्य लोग श्रागे होने वाले अर्थतत्त्वके ज्ञानको 'क्रम' कहते हैं । जैसे वेणीसंहार में"कृप - हे राजन् दुर्योधन ! द्रोणके पुत्र [ अश्वत्थामा] ने महान् युद्धके भारको ग्रहरण करनेका निश्चय किया | आपके द्वारा [सेनापति पदपर] प्रभिषिक्त किए जानेपर वह तीनों लोकों का नाश करनेमें भी समर्थ हो सकता है। इस युधिष्ठिरकी सेनाकी तो बात ही क्या है । (७) उद्वेग
अब 'उद्वेग' [नामक गर्भसन्धिके सप्तम श्रङ्गका लक्षण प्रादि करते हैं।]--
[ सूत्र ८३ [ --भय [ का नाम ] 'उद्वेग' है ।
चौर, राजा, शत्रु प्रथवा नायिका श्रादिसे भय 'उद्वेग' [कहलाता ] है । जैसे प्रमात्य
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का० ५४, सू० ८३]
प्रथम विवेकः
[ १५३
" [नेपथ्ये सचीत्कारम् ] गिरहेध ले गिरहेध वेढेध ले वेढेध । [सर्वे सभयमवलोकयन्ति ] |
[गृह्णीत रे गृह्णीत वेष्टध्वं रे वेब्रुध्वम् । इति संस्कृतम् ] ।
स्थविर :- हा धिक् कष्टं, दस्यवः सम्पतन्ति । किमत्र शरणं प्रपद्येमहि । " अत्र नायिका-सखी-स्थविरादीनां राजगृह मङ्ग ेन विद्रुतानां दस्युभ्यो भयम् ॥ तथा मृच्छकट्यां सार्थवाहचारुदत्तस्य चौर्याभिशापजं नृपाद् भयम् । तथा वेणीसंहारे पञ्चमेऽङ्के [नेपथ्ये कलकलानन्तरम] -
"भो भो दुर्योधनानुजीविनः कौरवभटाः किमिदमस्मद् भयाद्यथायथं सञ्चरन्ति भवन्तः ।
धृतराष्ट्र : - [ साशंक्रम् ] सञ्जय ! ज्ञायतां किमेतदिति ।
सञ्जय : – [ उत्थाय नेपथ्याभिमुखमवलोक्य ] तात ! महाराज ! प्राप्तावेकरथारूढौ पृच्छन्तौ त्वामितस्ततः ।
सर्वे - (साशंकम् ) कश्च कश्च -- सञ्जय:-- स कर्णारिः स च क्रूरो वृककर्मा वृकोदरः ।। गान्धारी - जाद किं संपदं अवलंवणं इति ।
[जात किं साम्प्रतमवलम्बनम् । इति संस्कृतम् ]
एतदरिभयम् । तथा रत्नावल्याम्-
शंकुक विरचित 'चित्रोत्पलाचलम्बितक' नामक प्रकररण के पचमांक ---
" [नेपथ्यमें चीत्कार करते हुए ] पकड़ो रे पकड़ो, बांधो रे बांधो। [सब लोग भयभीत हाकर देखने लगते हैं] ।
वृद्ध - हाय डाकू श्रा रहे हैं। यहाँ किसकी शरण में जाय ।"
इसमें राजगृह के भंग हो जानेसे भागे हुए नायिका, सखी तथा स्थविर आदि को डाकुनों भय [वरिणत हुआ है अतः यह 'उद्वेग' नामक अङ्गका उदाहरण ] है ।
इसी प्रकार मृच्छकटिकमें सार्थवाह चारुदत्तको चौके श्रभिशाप से उत्पन्न राजासे भय [उद्वेगका उदाहरण है ] ।
इसी प्रकार वेणीसंहारमें पश्वम श्रङ्कमें
" [नेपथ्य में कोलाहलके प्रनन्तर] अरे रे दुर्योधनके अनुयायी कौरव वीरो ! हमारे भयके मारे तुम इधर-उधर क्यों भाग रहे हो ?
धृतराष्ट्र - [सशंक शोकर ] सञ्जय ! देखो तो क्या बात है ।
सञ्जय - [ उठ कर और नेपथ्यकी श्रोर देख कर ] तात महाराज !
चापको इधर-उधर पूछते हुए एक रथपर बैठे हुए दोनों आ गए हैं ।
सब लोग - [भयभीत होकर ] कौन कौन ?
सञ्जय - - वह कर्णका शत्रु [अर्जुन] और वह भेड़ियाके समान कर्म वाला भीम । गान्धारी -- अरे बेटा ! अब क्या सहारा हो सकता है ?
यह शत्रुभय [का उदाहरण ] है । इसी प्रकार रत्नावलीमें-
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१५४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का०५४, सु०८४ सागरिका-वर दाणिं अहं सयं य्येव अत्ताणयं उबधैय उवरदा। न उण जाणिसंकेदबुसंताए देवीए सुसंगदा विय परिभूद म्हि । ता जाव इध असोए गदन जहासमीहिदं करिस्सं।"
[परमिदानीमहं स्वयमेवात्मानमुद्वध्योपरता । न पुनतिसंकेतवृत्तान्तया देव्या सुसंगतव परिभूतास्मि । तद् यावत्राशोके गत्वा यथासमीहितं करिष्ये। इति संस्कृतम्]।
अत्र नायिकातो भयम् । (6) अथ विद्रव :
भित्र ८४]--द्रवः शंका भय-त्रासकारिणो वस्तुनो या शंकाऽपायकारकत्वसम्भावना सा द्रवति रनथीभवति हृदयमनयेति 'द्रवः' । उपनतं भयमुद्वेगः । तत्सम्भावना तु विद्रवः ।
यथा कृत्यारावण षष्ठेऽङ्के शान्तिगृहस्थे रावणे-- "[नेपथ्ये हा अज्जउत्त ! परित्तायाहि परित्तायाहि । [हा आर्यपुत्र ! परित्रायम्व, परित्रायस्व । इति संस्कृतम् ] ।
प्रतिहारी-श्रुत्वा ससम्भ्रममात्मगतम्] अम्मो भट्टिणी चिकंदहि । [प्रकाशम् ] भट्टा अंतेउरे महतो कलय कलो मणीयदि ।
[अहो भी एवाक्रन्दति । भर्तः ! अन्तःपुरे महान् कलकलः श्रूयते । इति संस्कृतम्]। __ रावणः-ज्ञायतां किमेतत् ।" इति ।
सागरिका-प्रच्छा हो कि अब मैं स्वयं अपने-आप फांसी लगा कर मर जाऊँ ताकि संकेत [मिलन के समाचारको जान, जाने वाली रानी [वासवदत्ता] के द्वारा सुसंगताके समान अपमानित न होना पड़े। इसलिए इस शोक के पास जाकर अपनी इसहाकी पूर्ति करती हूँ।
यह नायिकासे भय [का उदाहरण है। (८) विद्रव
अब 'विद्रव' [नामक गर्भसन्धिके अष्टम अङ्गका लक्षण प्रादि करते हैं]--- [सूत्र ८४]--शंका 'द्रव' [नामसे कही जाती है।
भय या त्रास उत्पन्न करने वाली वस्तुसे जो शंका अर्थात् विनाश या अनिष्ट करने को सम्भावना, वह, जिससे हृदय द्रवित अर्थात् शिथिल होता है [इस व्युत्पत्ति अनुसार] 'व' कहलाती है। [प्रागे 'उद्वेग' नामफ पूर्वोक्त ङ्गसे इस 'द्रव' का भेद दिखलाते हैं । श्रा जाने वाला भय 'उद्वेग' कहलाता है और [भागे आने वाले भयकी] सम्भावना द्रव [नामसे कही जाती है। [यह उद्वेग' तथा 'द्रव' इन दोनों अङ्गोका लेड है।
जैसे कृत्यारावरण में षष्ठांकमें रावणके शान्तिगृहमें बैठे होनेपर --- "नेपथ्यम] हा आर्यपुत्र ! बचानो बचानो।
प्रतीहारी--[सुनकर भयभीत होकर अपने मनमें] अरे यह तो स्वामिनी ही चिल्ला रही है। [प्रकाशमें] हे स्वामिन् ! अन्तःपुर में बड़ा कोलाहल सुनाई दे रहा है।
रावरण---[जाकर देखो यह क्या बात है ।
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का०५४, सू० ८५ ] प्रथमो विवेकः
[ १५५ ___ अत्र रावणस्य शंका।
ये त्वत्र शंका त्रासरूपं ससम्भ्रममंगमाहुः तद् विद्रव-उद्वेगाभ्यां गतामिति । (8) अथाक्षेपः
[सूत्र ८५]--आक्षेपो बीजप्रकाशनम् ॥ ५४ ।। प्राप्त्याशावस्थानिबद्धस्य बीजस्य मुखकार्योपायस्य प्रकाशन प्रकर्षण! विर्भानं आक्षेपः। यथा वेणीसंहारे सूतः
"दत्त्वा द्रोणेन पार्थादभयमपि न संरक्षित: सिन्धुराज, क्रूरंदुःशासनेऽस्मिन इंरिण इव कृतं भीमसेनेन कर्म । दुःसाध्यामप्यरीणां लघुमिव समरे पूरयित्वा प्रतिज्ञां,
नाहं मन्ये सकामं कुरुकुल विमुखं देवमेतावतापि ॥" अत्र पाण्डवान राज्यप्राप्तिरूपकार्योपायस्योन्मुख्याविष्कर गां कृतम । यहाँ रावरणको [भयको शंका है [इसलिए यह निद्रव' नामक अङ्गका उदाहरण है।
जो लोग यहाँ त्रास रूप शंकाको संसम्भ्रम गर्भसन्धिको १४वां] अङ्ग कहते हैं [वह उचित नहीं है क्योंकि वह 'विद्व' प्रभवा 'उद्वेग' के ही अन्तर्गत हो जाता है।
इसका अभिप्राय यह है कि किहीं प्राचार्योने मर्भसन्धिके इन तेरह अङ्गों के प्रतिरिक्त 'सम्भ्रम' को भी गर्भसन्धिका चोव्हवाँ अंग माना है। किन्तु प्रत्यकार उनके इस मतसे सहमत नहीं है । 'सम्भ्रम' को गर्भसन्धिका प्रग मानने वालोंने उसका लक्षरंग, त्रास रूप शंका को 'सम्भ्रम' कहते हैं इस प्रकार किया है.। ग्रन्थकारका कहना यह है कि यदि त्रास अर्थात भयको 'सम्भ्रम' माना जाय तो वह तो 'उद्वेगो भी: इस लक्षण वाले उद्वेगके अन्तर्गत हो जाता है। और यदि शंकाको 'ससम्भ्रम' कहा जाय तो वह 'विद्रवः शंका' इस लक्षण वाले 'विद्रव' अङ्गके अन्तर्गत हो जाता है । इन दोनोंसे. अतिरिल उसको अलग कोई अस्तित्व नहीं बनता है । अतः सम्भ्रम' को अलग चौदहवाँ अङ्ग मानना उचित नहीं है। (E) आक्षेप--
अव 'प्राक्षेप [नामक गर्भसन्धिके नवम अङ्गके लक्षण आदि कहते हैं]----- [सूत्र ८५]---बीजके प्रकाशन करने को 'आक्षेप' बहते हैं । ५४ ।
[गर्भसन्धिके अन्तर्गत प्राप्त्याशाको अवस्थामें निबद्ध, मुख्यकार्यके उपायभूत बीजका प्रकाशन अर्थात् प्रकरण अच्छी. प्रकारसे प्राविर्भावन 'प्राक्षेप' [कहलाता है। जैसे वेणीसंहार में सूत कहता है]--
द्रोणाचार्यने अभय-दान करके भी अर्जुनसे सिन्धुराज [जयद्रथ] की रक्षा नहीं कर पाई। इस दु.शासनके विषय में भी [सिंहसदृश] भीमसेनने हरिणके समान क्रूर कर्म कर डाला [अर्थात् सिंह जिस प्रकार हरिणको अनायास ही मार डालता है इसी प्रकार भीमसेनने दुःशासनको समाप्त कर दिया] । इस प्रकार शत्रुओं [अर्थात् पाण्डवों] की दुःसाध्ये प्रतिज्ञाओं को भी युद्धभूमि में झटपट पूर्ण करके भी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि कुरुकुलका विरोधी देव अभी पूर्ण मनोरथ नहीं हो पाया है [अभी वह कुछ और भी खेल दिखलावेगा] ।
यहाँ पाण्डवोंके राज्य-प्राप्ति रूप कार्यके उपाय [शत्रुके प्रमुख पुरुषोंके वध का मुख्य रूपसे प्रकाशन [ किया गया ] है [ अतः यह प्रक्षेप' नामक नवम अङ्गका उदाहरण है ।
गनी..
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नाट्यदर्पणम् . [ का० ५५, सू०८६ अथवा बीजस्य हृदयभूमिनिगूढत्वादभिप्रायस्य बहिष्करणमाक्षेपः। यथा रत्नावल्यां, वासवदत्तायामेव सागरिकेति राज्ञा विदूषकेण च परिगृहीतायां तदुक्तिषु"प्रिये सागरिके!
शीतांशुमुखमुत्पले तव दृशौ पद्मानुकारौ करो, रम्भागर्भनिभं तवोरुयुग्लं बाहू मृणालोपमो। इत्याह्लादकराखिलाङ्गि ! रभसा निःशंकमालिङ्गय माम् ,
अङ्गानि त्वमनङ्गतापविधुराण्येाहि निर्वापय ।।" - इत्यादिषुराज्ञा स्वाभिप्रायबहिष्प्रकाशनम्। केचिदेतदङ्गन मन्यन्ते इति।।५४|| (१०) अथाधिबलम
[सूत्र ८६]-अधिबलं बलाधिक्यम् । परस्परवश्वनप्रवृत्तयोर्यस्य बुद्धिसाहायादिघलाधिक्येन यत्कर्म इतरमभिसन्धातु समर्थ तत्कर्म बलविषये अधिकबलयोगादधिबलम् । यथा रत्नावल्याम्
"किं पद्मस्य रुचि न हन्ति नयनानन्दं विधत्ते न वा, वृद्धिं वा झषकेतनस्य कुरुते नालोकमात्रेण किम् ? वक्त्रेन्दौ तव सत्ययं यदपरः शीतांशुरभ्युद्गतो,
दर्पः स्यादमृतेन चेदिह तदप्य स्त्येव बिम्बाधरे ।।" अथवा बीज अर्थात् हृदय रूप भूमिसे छिपे हुए अभिप्रायका बाहर प्रकाशित करना 'पाक्षेप' [कहलाता है। जैसे रत्नावसीमें राजा तथा विदूषकके द्वारा वासवदत्ताको ही सागरिका समझ लेनेपर उनकी उक्तियों में [राजा कहता है]---
"प्रिये सागरिके !
तुम्हारा मुख चन्द्रमा के समान], तुम्हारे नेत्र नील-कमल रूप, तुम्हारे हाथ कमलके सदृश, तुम्हारी दोनों जाँघे कदलीके भीतरी भागके समान, तुम्हारी बाहुएँ मृणालके तुल्य हैं। इस प्रकार सर्वाङ्गोंसे पालादकारिणि [हे प्रिये] ! प्रायो, प्रायो, जल्दीसे निशङ्क भावसे गाढ़ालिङ्गन द्वारा कामावेगसे सन्तप्त हुए मेरे अङ्गोंको शान्त करो।"
इत्यादिमें राजा द्वारा अपने अभिप्रायका प्रकाशन किया गया है। (१०) अधिबल
अब [गर्भसन्धिके] 'अधिबल' [नामक दशम अङ्गका निरूपण करते हैं][सूत्र ८६]-बलके प्राधिक्यको 'अधिबल' कहते हैं ।
एक-दूसरेको धोखा देनेमें लगे हुए दो व्यक्तियोंमें बुद्धि अथवा सहायकों ग्रादिके बलके प्राधिक्यके कारण जिसका कार्य दूसरेको धोखा देने में समर्थ हो जाता है उसका वह कार्य बलादिके विषयमें अधिक बल सम्पन्न होनेसे 'अधिबल' [नामक अङ्ग कहलाता है ।
जैसे रत्नावलीमें
क्या [तुम्हारा मुख चन्द्रमाके समान कमलोंको कान्तिको नष्ट नहीं करता है ? अथवा क्या [चन्द्रमाके समान हो] नेत्रोंको प्रानन्द प्रदान नहीं करता है ? अथवा दर्शनमात्रसे ही [चन्द्रमाके समान तुम्हारा मुख झषकेतन प्रर्थात् ] कामको नहीं बढ़ाता है जो यह दूसरा
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का० ५५, सू०८६ ] प्रथमो विवेकः
[ १५७ ___ इति पाठानन्तरं राज्ञा वासवदत्ताया मुखोद्घाटने प्रत्यभिज्ञानम् । अत्र सागरिकावेष धारयन्ती विदूषकबुद्धिदौर्बल्याद् वासवदत्ता राजानमभिसन्धत्ते ।
कपटस्यान्थाभावमन्ये अधिबलमाहुः । यथा रत्नावल्याम्"राजा-एवमपि प्रत्यक्षदृष्टव्यलीकः किञ्चिद्विज्ञापयामि
आताम्रतामपनयामि विलक्ष एषः, लाक्षाकृतां चरणयोस्तव देवि ! मूर्ना । कोपोपरागजनितां तु मुखेन्दुबिम्बे
हतुक्षमो यदि परं करुणा मयि स्यात् ।। इति । अत्र वासवदत्तां प्रति राज्ञो वञ्चनं विफलं जातम् ।
एके तु सोपालम्भं वाक्यमधिबलमिच्छन्ति । यथा वेणीसंहारे पञ्चमेऽङ्क धृतराष्ट्रमुद्दिश्य "भीमसेनः-अलमिदानी मन्युना।
कृष्टा केशेषु कृष्णा नृपसदसि वधूः पाण्डवानां नृपैयः
सर्वे ते क्रोधवह्नौ कृशशलभकुलावज्ञया येन दग्धाः । चन्द्रमा [माकाशमें] उदय हो रहा है। यदि [उसको] अमृतका गर्व हो [और उसीके कारण तुम्हारे मुखके सामने उदय होनेका दुस्साहस कर रहा हो तो वह [अमृत] भी तो तुम्हारे प्रधर-बिम्बमें विद्यमान ही है।
इस पाठके बाव राजाके द्वारा [सागरिका समझी हुई] वासवदत्ताके मुखको खोलनेपर वासवदत्ताका पहिचानना। यहां सागरिकाका वेष धारण किए हुए वासवदत्ता विदूषककी मूर्खता [बुद्धिदौर्बल्यात] से राजाको धोखेमें डाल देती है।
दूसरे लोग कपटके अन्यथाभाव [ अर्थात परिवर्तन ] को 'अधिबल' कहते हैं। जैसे रत्नावलीमें [इस ऊपरवाली घटनाके बाद हो
__ "राजा—इस प्रकार अपराधके प्रत्यक्ष देख लिए जानेपर भी कुछ प्रार्थना करना चाहता हूँ [और रह प्रार्थना यह है कि].
हे देवि ! [अपने सागरिका-प्रेम रूप इस अपराधके कारण] लज्जित मैं लाक्षा द्वारा सम्पादितको हुई तुम्हारे चरणोंको रक्तताको अपने सिरसे दूर कर ही रहा हूँ [अर्थात तुम्हारे चरणोंपर सिर रखकर अपने इस अपराधकी क्षमा मांग रहा हूँ किन्तु] यदि मेरे ऊपर अत्यन्त दया हो जाय तो कोपके कारण उत्पन्न हुई मुख-रूप चन्द्रमाको रक्तताको भी [चुम्बनादि द्वारा दूर करने में समर्थ हो सकता हूँ।"
यहाँ वासवदत्ताके प्रति [खुशामद द्वारा] धोखा देनेका राजाका प्रयत्न विफल हो गया। [अर्थात् वासवदत्ता उसकी बातोंसे प्रसन्न नहीं हुई ।
कुछ लोग उपालम्भ युक्त वाक्यको 'अधिबल' कहते हैं । जैसे वेणीसंहारके पांचवें प्रथमें धृतराष्ट्रको लक्ष्यमें रखकर भीमसेन [कहते हैं कि]--
भीमसेन-प्रब दुःख करनेकी मावश्यकता नहीं है।
जिन राजामोंने पाण्डवोंकी वधू वौपदीके बालोंको पकड़कर राज-सभामें घसीटा था उन सबको क्षुद्र पतङ्गके समान जिसने अपनी क्रोधाग्निमें भस्मसात् कर दिया वह मैं [यह
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१५८ ]
नाट्यदर्पणम् . का० ५५, सू० ८७ तात ! त्वां श्रावयेऽहं न खलु भुजबलश्लाघया नापि दर्पात्
पुत्रैः पौत्रैश्च कर्मण्यतिगुरुणि कृते तात ! साक्षी त्वमेव ॥” इति । (११) अथ मार्गः
[सूत्र ८७]--मार्गस्तचार्थशंसनम् । परमार्थस्य वचनं सामान्ये नोच्यमानं प्रकतार्थेन यत् सम्बध्यते तन्मार्गः। यथा मुद्राराक्षसे
"राजा-[प्रविश्य स्वगतमाह] राज्यं हि नाम राजधर्मानुवृत्तिदुःखितस्य • नृपतेर्महदप्रीतिस्थानम् । कुतः--
परार्थानुष्ठाने जड़यति नृपं स्वार्थपरता, परित्यक्तस्वार्थी नियतमयथार्थः क्षितिपतिः । परार्थश्चेत् स्वार्थादभिमततरो हन्त बलवान,
परायत्तः प्रीतेः कथमिव रसं वेत्ति पुरुषः ।। अपि च दुराराध्या लक्ष्मीरात्मवद्भी राजभिः । कुतः
तिक्तादुद्विजते मृदो परिभवत्रामान सन्तिष्ठते, मूर्ख द्वेष्टि न गच्छति प्रणयितामत्यन्त विद्वत्स्वपि । शूरेभ्योऽभ्यधिक बिभेत्युपहसत्येकान्त भीरूर हो,
श्रीलब्धप्रमरेव वेशवनिता दुःखोपचर्या भृशम् ॥” इति । सब समाचार प्रापको इसलिए सुना रहा हूँ कि हे तात ! पुत्रों और पौत्रों के द्वारा किए जाने वाले किसी भी बड़े कार्य में आप ही साक्षी हो सकते हैं इसलिए यह सब समाचार प्रापको सुनाया है] अपने भुजबलकी प्रशंसाकेलिए अथवा अभिमानवश होकर नहीं [सुनाया है ।
भीमसेनका यह सोपालम्भ वचन इस लक्षणसे 'अधिबल' अङ्गका उदाहरण होता है। (११) मार्ग
अब 'मार्ग' [नामक गर्भसन्धिके ग्यारहवें अंगका निरूपण करते हैं][सूत्र ८६]-तत्त्वार्थको कथन करना.'मार्ग' [कहलाता है।
दास्तविक बातका सामान्य रूपसे कथन होनेपर भी प्रकृत प्रकरणके साथ [उसके विशेष रूपसे सम्बद्ध होनेपर 'मार्ग' नामक अंग कहलाता है। जैसे मुद्राराक्षसमें
"राजा-[प्रविष्ट होकर स्वगत कहते हैं] राजधर्मका पालन करनेके कारण राजाके लिए राज्य शासनका सञ्चालन] बड़े सङ्कटका कारण होता है । क्योंकि----
[यदि राजा अपने स्वार्थको प्रधानता देता है तो रवार्थपरता राजाको दूसरोंका कार्य करनेसे रोकती है। [यदि दूसरेके लिए] अपने रवार्थको छोड़ देता है तो निश्चय ही राजा [अयथार्थः] राजा नहीं रहता है। और यदि स्वार्थको अपेक्षा परार्थताको प्रधानता दी जाय तो दूसरेके अधीन हो जानेपर बलवान् [राजा भी आनन्द का भोग कैसे कर सकता है।
और जितेन्द्रिय राजाओं के द्वारा भी लक्ष्मीको पाराधना बड़ी कठिन है। क्योंकि
[अत्यन्त तीक्षण प्रकृति के राजा] से [लक्ष्मी] घबड़ाती है और कोमल प्रकृतिके पास [दूसरों के द्वारा] अपमानित होनेके भयसे नहीं टिकती है । मूल्से द्वेष करती है, और अधिक विद्वानोंके पास भी नहीं रहती है। शूरोंसे भी बड़ा डरती है, और अत्यन्त भीरुषोंका भी उपहास
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का० ५५, सू०८८ ] प्रथमो विवेकः
[ १५६ यथा वा रघुविलासे चतुर्थेऽङ्क ----रावण:---[सविषादम् ] "लंकेश्वरे त्रिदशदर्पहरे विरागो, रागरंतु. काननचरे जनकात्मजायाः।।
सौन्दर्य-विक्रम-कला-विभवानपेक्षः म्यां विचारविमुखः खलु कोऽपि पन्धाः ॥"
एतत् तत्त्वार्थकथनं सामान्येनोक्तमपि प्रकृतेन सम्बध्यत इति । (१२) अथ असत्याहरणम्
[सूत्र ८८]--असत्याहरणं छन । यथा मालविकाग्निमित्रे यज्ञोपवीतमद्धांगुष्ठो विदृषकः। "विदूपक:---[प्रविश्य ससम्भ्रममाह ! परित्तायदु परित्तायदु भवं ।
[परित्रायतां परित्रायतां भवान । इति संस्कृतम् । राजा-किमेतत ? विपक:-भो! सापेग म्हि दलो।
[भो ! मर्पणाम्मि दृष्टः । इनि संस्कृतम ] ।
[मर्व विदूषकं दृष्ट्वा विषण्णाः ।] राजा-कष्ट क्व भवान् परिभ्रान्तः ?
विदूषकः-देवं पेक्खिस्सं ति प्राचारपुप्फरस कारणा पमदवणं गदु म्हि । तहिं च असोयत्थवगरस पसारिदे अम्गहत्थे कोडरविरिणग्गदेण सापरूपेण कालेण मिइ लंभिदो। इमाणि दुवेदाढावणाणि। करती है । इस प्रकार लब्ध-प्रसरा प्रौढ़ा वेश्याके समान लक्ष्मी बड़ी कठिनतासे वशमें आती है।
यहाँ तत्त्वार्थका प्रकृतसे सम्बद्ध रूपमें कथन किया गया है इसलिए यह 'मार्ग' नामक अंगका उदाहरण है । अथवां जैसे रघुविलासके चतुर्थ अङ्क में रावण विषाद-पूर्वक [कहता है] -
देवताओंके भी दर्पका अपहरण करनेवाले लङ्काके अधीश्वर [मुझ रावण के प्रति सीताका वैराग्य है [अर्थात् मुझ रावणको तो नहीं चाहती है और वन-वनमें भटकनेवाले [रामचन्द्र के प्रति राग है। निश्चय ही प्रेमका मार्ग सौन्दर्य, विक्रम, कला और वैभवकी उपेक्षा करनेवाला और अविचारशील होता होता है।
यह यथार्थ बातका कथन सामान्य रूपसे उक्त होनेपर भी प्रकृतसे सम्बद्ध है । (१२) असत्या हरण
अब असत्याहरण [नामक गर्भसन्धिके ग्यारहवें अङ्गका निरूपण करते हैं--- [सूत्र ८७]-छल 'असत्याहरण' कहलाता है।
जसे मालविकाग्निमित्र यज्ञोपवीतसे अंगूठे को बांधे हुए विदुषक [आकर घबड़ाते हुए कहता है ---] बचाइए आप मुझे बचाइए । राजा---अरे यह क्या हुया ?
विदूषकः-अरे साँपने डस लिया है। [सब विदूषकको देखकर खिन्न हो जाते हैं । राजा---तुम कहाँ घूस रहे थे ?
विदूषक -- तुम्हारे पास ला रहा था इसलिए प्राचारार्थ पुष्प लेने के लिए प्रमववनमें गया था। वहाँ अशोकका गुच्छा लेने के लिए हाथ बढ़ाते ही कालके समान आपने पकड़ लिया। दे दो दाँत [लगे] हैं।
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१६० ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ५५, सू०८ [देवं प्रेक्षिष्ये इत्याचारपुष्पस्य कारणात् प्रमदवनं गतोऽस्मि। तत्र चाशोकस्तबकस्य प्रसारित हस्ताने कोटरविनिर्गतेन सर्परूपेण कालेनास्मि लब्धः। इमो द्वौ दंष्ट्रावणौ ॥ [इति संस्कृतम]।"
-- अत्र राजप्रसादपरीक्षार्थ विदृषकेण केतकीकण्टक क्षतस्य असत्या सर्पदंशता प्रकाशितेति । (१३) अथ तोटकम्
सूत्र ८६]-तोटकं गर्भितं वचः ॥५॥ क्रोध-हर्षादिसम्भूतावेगगर्भितं वचनं तोटयति भिनत्ति हृदयमिति तोटकम् । यथा रामाभ्युदये चतुर्थेऽके
"इन्द्रजित्-तात ! किमिदमनुचितमारब्धं तातेन, यदयमकाण्ड एव कुम्भकर्णः प्रतिवोध्यते । किमत्र न कश्चित् क्षुद्रतापसोपमर्दाय सम्भावितस्तातेन । अपि च
रक्षोवीराः दृढोरःप्रतिफलनदलत्कालदण्डप्रचण्डाः, दोर्दण्डाकाण्डकण्डूविषमनिकषणत्रासितक्ष्माधरेन्द्राः । याताः कामं न नाम स्मृतिपथमपथप्रस्थितेन्द्रानुसारी, स्वर्वासिक्लिष्टदृष्टः कथमहमपि ते विस्मृतो मेघनादः ।।
एतत् क्रोधा दावेग वचनम् । यथा वा रघुविलासे चतुर्थेऽङ्के रावण:
इसमें राजाके प्रेमको परीक्षा लेनेके लिए विदूषकने केतकीके कांटोंके चिह्नोंको झूठमूठ सर्पदंशके रूप में प्रकाशित किया है [अतः यह 'असत्याहरण' का उदाहरण है] । (१३) तोटक
अब तोटक [नामक गर्भसन्धिके तेरहवें अङ्गका निरूपरण करते हैं][सूत्र ८८] [किसी विशेष भावसे] गभित वचन 'तोटक'. (कहलाता है ।५५॥
क्रोध, हर्ष, प्रादिसे उत्पन्न प्रावेग युक्त वचन, हृदयका तोटन अर्थात् भेदन करता है इसलिए 'तोटक' [कहलाता है।
[तोटकका उदाहरण] जैसे रामाभ्युदयमें चतुर्थ अङ्कमें
"इन्द्रजितहे तात् ! आपने यह क्या अनुचित काम प्रारम्भ कर दिया कि बिना बात के ही कुम्भकर्णको जगा रहे हैं। क्या आपने यहां किसी औरको क्षुद्र तापसका उपमर्दन करनेके लिए समर्थ नहीं समझा । पौर--
जिनके पुष्ट वक्षःस्थलोंपर पड़कर कालका दण्ड भी खण्ड-खण्ड हो जाता है इस प्रकारके प्रचण्ड, और भुजदण्डोंमें अचानक उठी हुई खुजलीके निवारण के लिए खुजलाकर जो पर्वतोंको भी हिला डालते हैं इस प्रकारके [शक्तिशाली] राक्षस वीरों की ओर प्रापका ध्यान नहीं गया तो कोई बात नहीं है, किन्तु [अपथप्रस्थित अर्थात् भागते हुए इन्द्रका भी पीछा करने वाले और स्वर्गलोकके रहने वाले जिसको भयभीत होकर देखते है इस प्रकारके मेघनाद को प्राप कैसे भूल गए [जो इस कुम्भकर्णको जगाने लगे] ?
यह [मेघनादका] क्रोधके कारण पावेगमय वचन है। अथवा जैसे रघुविलासमें चतुर्थ अंकमें, रावण
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का०५६-५७, सू. ६०-६१ ] प्रथमो विवेकः
[ १६१ 'वक्त्राणि हे ! हसत गायत तारतारं, नेत्राणि ! चुम्बत विहस्य च कर्णपालीः । दोर्वल्लयः ! कुरुत ताण्डवडम्बरं च, श्रीरावणं ननु विदेहसुता रिरंसुः॥"
इदं हर्षादावेगगर्भ वचनम् । एतानि गर्भसन्धेस्त्रयोदशाङ्गानि ॥५५।। [४] अथामर्शसन्धेरंगानि व्याख्यातुमुद्दिशति[सूत्र ६०]-द्रवः प्रसंगः सम्फेटोऽपवादश्छादनं द्युतिः ।
खेदो निरोधः संरम्भो भवेयुर्गुणतो नव ॥५६॥ शक्ति-प्ररोचना-दान-व्यवसायास्तु मुख्यतः।।
त्रयोदशांगान्यामर्श द्रवादीनि नव प्रयोजनमपेक्ष्य गौणतया बध्यन्ते । शक्त्यादीनि चत्वारि पुनः प्राधान्येन। (१) अथ द्रवः
[छत्र ६१]-द्रवः पूज्यव्यतिक्रमः ॥५७॥ व्यतिक्रमो मार्गाच्चलनम्। यथा रत्नावल्यां सन्निहितं भर्तारमवगणय्य विदूषकस्य सागरिकायाश्च वासवदत्तया बन्धनमिति ॥५॥
"रावरण-प्ररे [मेरे दश] मुखो ! तुम लोग [प्रसन्न होकर खूब हँसो और गानो । हे नेत्रो ! तुम प्रसन्नतासे [फल-फेल कर] कानोंका चुम्बन करो [कानों तक फैल जाओ] । हे भुजवल्लियो ! तुम खूब नाहो क्योंकि प्राज वैदेही रावणके साथ रमण करना चाहती है।"
यह [रावरणका] हर्षसे आवेगमय वचन है। ये गर्भसन्धिके तेरह अङ्ग हुए ॥५॥ [४] भामर्श सन्धिके तेरह अङ्गअब मामर्श सन्धिके अङ्गोंको व्याख्या करनेके लिए उनके नाम गिनाते हैं--
[सूत्र ८६]-१ द्रव, २ प्रसंग, ३ सम्फेट, ४ अपवाद, ५ छादन, ६ द्युति, ७ खेद, ८ निरोष, और ६ संरम्भ ये नौ [विमर्शसन्धिके] गौण अङ्ग हैं ।५६।।
[सूत्र ८९-१० शक्ति, ११ प्ररोचना, १२ दान और १३ व्यवसाय ये चार मुख्य मङ्ग है । इस प्रकार भामर्श सन्धिमें तेरह अंग होते हैं ।
द्रव मावि नौ अंग प्रयोजनके अनुसार गौण रूपसे निबट किए जाते हैं, मौर शक्ति मावि भार मुख्य रूपसे निबद्ध होते हैं।
(१) प्रम 'द्रव' [नामक विमर्शसन्धिके प्रथम अङ्गका निरूपण करते हैं][सूत्र ९०]-पूज्योंको व्यतिक्रम करना 'व' [कहलाता है।
व्यतिक्रम अर्थात् मार्गसे हट जाना। जैसे रत्नावलीमें सामने उपस्थित भर्ता [बत्सराव उदयन ] को उपेक्षा करके वासवदत्ताके द्वारा विदूषक तथा सागरिकाको बंधवाना १५७
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१६२ ]
नाट्यदयणम् । का०५८, सू० ६२ (२) अथ प्रसंग :---
[सूत्र ६२]--प्रसंगो महतां कीर्तिः कीर्तिः संशब्दनम् । यथा वेणीसंहारे पष्ठेऽङ्के--
युधिष्ठिर :--[मुखं प्रक्षाल्य उपस्पृश्य च एष तावनलाञ्जलि-र्गाङ्ग याय गुरवे प्रपितामहाय शान्तनवे। अयमपि पितामहाय विचित्रवीर्याय। [सास्त्रम् । तातस्य अधुनावसरः। अयमपि तत्रभवते स्वर्गस्थिताय गुरवे सुगृहीतनाम्ने पित्रे देवाय पाण्डवे ।" इत्यादि ।
केचिदप्रस्तुत तार्थवचनं प्रसंगमिच्छन्ति । यथा वेणीसंहारे षष्टेऽङ्के."युधिष्ठिर :--[द्रौपदी प्रति]
स कीचकनिपूदनो बक-हिडिम्ब-किर्मीरहः, मदान्धमगधाधिपद्विरदसन्धिभंगाशनिः । गदा-परिघशोभिना भुजयुगेन तेनान्वितः ।
प्रियस्तव ममानुजोऽर्जुनगुरुर्गतोऽस्तं किल ॥" अत्र मायात पस्विना राक्षसेन व्यलीकभीमबधंकथनात् युधिष्ठिरस्याप्रस्तुतः शोकः ।
(२) अब प्रसंग नामक विमर्श सन्धिके द्वितीय प्रङ्गका निरूपण करते हैं]-- [सूत्र ६१]-महान [पूर्वज] लोगोंका कीर्तन करना 'प्रसंग' [नामक प्रङ्ग कहलाता है। कीति अर्थात् कथन करना । जैसे देरणीसंहारके छठे अङ्कमें--
"युधिष्ठिर-मुखको धोकर और प्राचमन करके अपने पूर्वजोंको जलाअलि देते हुए क्रमशः उनका कीर्तन करते हुए कहते हैं] सबसे पहले यह जलाअलि गंगातनय पूज्य प्रपितामह शान्तनुकेलिए है। यह दूसरी प्रमाअलि पितामह विचित्रवीर्यकेलिए है। [रोते हुए] अब पिताजीकी बारी पाती है। अच्छा यह तीसरी जलाअलि] स्वर्गलोकवासी पूज्य और मुगृहीतनामा पिता पाण्डुकेलिए है ।" इत्यादि।
इस वचन में जलाञ्जलि देते समय युधिष्ठिर द्वारा अपने पूर्वज महापुरुषोंके नामोंका कोलन किया गया है अतः यह 'प्रसंग' नामक मामर्शसन्धिके द्वितीय अङ्गका उदाहरण है।
कोई लोग प्रस्तुत प्रर्थके कथनको 'प्रसंग' मानते हैं। जैसे वेणीसंहारके छठे अंकमें"युधिष्ठिर-[द्रौपदीके प्रति]- .
कीचकको मारने वाला, बकासुर, हिडिम्ब और किर्रर [प्रावि राक्षसोंका नाश करने वाला, मदमत्त मगषराज [जरासन्ध] रूप हाथीकी सन्षियोंको भग्न करने वाला, बोर गया तप परिघ [नामक प्रस्त्रों से शोभित उन [अपूर्व शक्तिशाली भुजानोंसे युक्त, तुम्हारा प्रिय, मेरा छोटा भाई और अर्जुनका ज्येष्ठ भ्राता [अर्थात भीमसेन, इन मुनिजी महाराज कथनके अनुसार समाप्त हो गया है।
यहां भावटी तपस्वी [दुर्योधनके पक्षपाती] रामसने, झूठ-मूठ भीमके मारे जानेकी बात कहकर युषित करको अप्रासंगिक शोकमें गल दिया है [मतः यह प्रसंग नामक मङ्गका उदाहरण है।
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का० ५८, सू० ६३ ] प्रथमो विवेकः
[ १६३ (३) अथ सम्फेट:--
[सूत्र ६३]-सम्फेटः क्रोधजं वचः। परस्परं क्रोधजन्मोत्तर-प्रत्युत्तररूपः संलापः सम्फेटः । यथा वेणीसंहारे
"भीमः-भो कौरवराज ! कृतं बन्धुनाशदर्शनमन्युना । मैवं विषादं कृथाः पर्याप्ताः पाण्डवाः समराय अहमसहाय इति ।
पञ्चानां मन्यसे ऽस्माकं यं सुयोधं सुयोधन !
दंशितस्यात्तशस्त्रस्य तेन तेऽस्तु रणोत्सवः ॥ इत्थं श्रुत्वा असूयात्मिकां निक्षिप्य कुमारे दृष्टिं उक्तवान् धार्तराष्ट्र:
कर्ण-दुःशासनबधात् तुल्यावेव युवां मम ।
अप्रियोऽपि प्रियो योद्ध त्वमेव प्रियसाहसः॥" इत्येतद् भीम-दुर्योधनयोरन्योन्यं रोषभाषणम् । यथा वा यादवाभ्युदये सप्तमेऽङ्के"बलभद्रः-[स्वगतम] कथमुपहसति नारदः । भवतु [प्रकाशम् ]
वृद्धोक्षस्य नृपस्य तस्य नियतं को नाम मल्लो युधि,
व्याधत्त किल यम्य विक्रमचण: पक्षं मुनिनारदः । (३) अब सम्फेट [नामक विमर्शसंधिके तृतीय अङ्गका लक्षण प्रादि कहते हैं] - [सूत्र ६२]-क्रोषपूर्ण भाषण 'सम्फेट' [कहलाता है। जैसे वेणीसंहारमें
"भीम-हे कौरवराज [दुर्योधन] ! बन्धुनोंके नाशको देखकर दुःखी होनेकी प्रावश्यकता नहीं है । तुम यह दुःख मत करो कि पाण्डव लोग युद्ध करनेके लिए [पर्याप्त] बहुत से हैं और मैं अकेला हूँ।
हम पांचोंमेंसे जिसके साथ युद्ध करना तुम सहज समझो कवचादि धारण करके और शस्त्र लेकर उसीके साथ तुम युद्धका प्रानन्द ले सकते हो।
ऐसा सुनकर [भीम तथा अर्जुन] दोनों कुमारोंको मोर प्रसूयापूर्वक देखकर दुर्योधन कहता है कि
[अर्जुनने कर्णका और तुमने दुःशासनका वध किया है। ये दोनों ही मेरे प्रिय थे इसलिए] कर्ण और दुःशासनका वष करनेवाले होनेके कारण तुम दोनों ही मेरे लिए एकजैसे [अप्रिय हो, फिर भी, अप्रिय होनेपर भी साहसो तुम ही युद्धके लिए मुझे प्रिय मालूम पड़ते हो।"
____ यह भीम तथा दुर्योधनका एक-दूसरेके प्रति रोष-भाषण है [मतः यह 'सम्फेट'नामक मङ्गका उदाहरण है।
अथवा जैसे यादवाभ्युदय में सक्षम प्रकृमेंबलभद्र-[अपने मन में अच्छा नारद हमारी हंसी उड़ा रहे हैं। [प्रकाशम्]
बूढ़े सांडके समान उस राजाके साथ पुट करनेवाला प्रतिमल्ल कौन हो सकता है जिसका पक्ष स्वयं नास्व मुनि ले रहे हैं यह व्यङ्गयोक्ति है। फिर भी कंसका विनान करने में
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१६४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का०५८, सू०६४ कंसध्वंसकृतश्रमौ मधुरिपोर्याहू तथाप्याहवे,
क्षामस्थामलवानुरूपमचिरादाधास्यतः किश्चन ।। नारदः [सरोषमिव]--
कंसांसभित्तिमदमर्दनकेलिचश्चोश्चक्रस्फुलिङ्गगणसंगपिशंगबाहुः । सम्पूरयिष्यति हरेरपि गाढरूढ
संग्रामदोहदमसौ मगधाधिनाथः ।। इति । (४) अथापवादः
[सूत्र ६४]-अपवादः परीवादः। परीवादः स्वपरदोषोद्घट्टनम् । यथा पुष्पदृति के पश्चमेऽङ्के"ब्राह्मणः-माजिता हि ब्राह्मणस्य मुखमधुरः कालपाशः । तथाहि
हतः पुत्रो हतो भ्राता हतो मार्जितया पिता।
तथाप्येतां स्वगोत्रघ्नीं निन्दामि च पिबामि च ।।" इति । परिश्रम कर चुकनेवाले मधुरिपु कृष्णके दोनों बाहु दुर्बल या प्रबल जो कुछ हैं उसके अनुरूप युटमें कुछ-न-कुछ शीघ्र ही दिखलायेंगे।
नारद [क्रोषपूर्वक]
कंसके स्कंधोंकी भित्तिका मर्दन करनेमें चतुर, चक्रकी चिनगारियोंके संसर्गसे [समुदायसे] पोतबाह [अर्थात् कृष्णका सुदर्शन चक्र भी जिसके हाथों में केवल चिनगारियां उत्पन्न कर सकता है अधिक उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता इस प्रकारका] यह मगधराज, कृष्णको भी प्रबल युद्ध-कामनाको पूरा कर देगा।
यह नारद तथा बलभद्रके रोष-वाक्य एक-दूसरेके प्रति कहे गये हैं अतएव यह भी 'सम्फेट'का दूसरा उदाहरण है।
(४) अब अपवाद [विमर्शसन्धिके चतुर्थ अङ्गका निरूपण करते हैं]-- [सूत्र ९३]--[किसीको निन्दा करना 'अपवाद' [कहलाता है।
निन्दा करना अर्थात् अपने या दूसरेके दोषका प्रकट करना। जैसे पुष्पदूतिकके पञ्चम अङ्कमें
"ब्राह्मण-माजिता [अर्थात् शकर मिला हुआ वही] ब्राह्मणके लिए मुखमें मधुर लगने वाला कालपाश है । इसलिए--
इस माजिता [शकर मिले हुए वही] ने यद्यपि अपने पुत्र [धृत] को मार डाला [अर्थात् वही से घी उत्पन्न होता है इसलिए घी दहीका पुत्र है। किन्तु जब दहीको शकर मिलाकर खानेके काममें ले लिया जाय तो उससे घी कैसे निकल सकता है इसलिए 'माजिता शकर मिले वहोने अपने पुत्रको नष्ट कर दिया यह कहा है] भ्राता [तक मठे] को भी मार दिया है और पिता [दूध] को भी नष्ट कर दिया है फिर भी अपने वंशका नाश करने वाली इस 'माजिता' की निन्दा करता हुआ भी मैं उसको पी रहा हूँ।
इसमें माजिता शकर मिले दहीको निन्दा होनेसे यह 'अपवाद' नामक अङ्गका उदाहरण है।
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का० ५८, सू० ६४ ] प्रथमो विवेकः
[ १६५ अत्र स्वदोषोद्घट्टनम् । तथा रघुविलासे सप्तमेऽङ्क रावणं प्रति मारीचः
"खण्डय न्यायतेजोभिः शूर ! कोलीनदुर्दिनम् ।
अनीति-धूमरी हन्ति यशश्चूताग्रमजरीः॥" अत्र परदोषोद्घट्टनमिति । (५) अथ छादनम्
[सूत्र ६५]--छादनं मन्युमार्जनम् ॥५॥ मन्युरपमानो येन माय॑ते तत् छादनम् । यथा रत्नावल्याम
"सागरिका-दिठ्ठया पज्जलिदो भयवं हुयासण अज्ज करिस्सदि मे सयलदुक्खवसाणं त्ति।
[दिष्ट्या प्रज्वलितो भगवान हुताशनोऽद्य करिष्यति मे सकलदुःखावसानमिति । इति संस्कृतम्]"
__ अन्ये तु --कार्यार्थमसह्यस्याप्यर्थस्य सहनं छादनमामनन्ति । यथा श्रीशुक्तिवासकुमारविरचिते अनंगसेना-हरिनन्दिनि प्रकरणे नवमेऽङ्के, राजपुत्रचन्द्रकेतुना दत्तं कर्णालंकारयुगलं नायिकया माधव्या नायकस्य प्रेषितम् । नायकेन हरिनन्दिना पुष्पलकनामानं ब्राह्मणं राजबन्धनान्मोर्चायतु तन्मात्रेऽतिसृष्टम् ।
___ इसमें [वक्ताने] अपने दोषका [अर्थात् निन्दा करते हुए भी पानेका] उद्घाटन किया है। ___ और रघुविलासके सातवें अङ्क में रावणके प्रति मारीच [कहता है]
"हे शूर [रावरण] ! न्यायके तेजोंके द्वारा अयश रूपी दुदिन [मेघाच्छन्नं तु दुर्दिनम्] का नाश करो [अर्थात् सीताको मुक्त करके अपने न्यायका परिचय देकर तुम्हारा जो अपयश सीताहरणके कारण हो रहा है उसको दूर करो] अनीतिकी धूमरी यशो रूप पाम्रकी उत्तम मारीका नाश कर देती है । [इसलिए अनीतिके मार्गको छोड़ दो।
इसमें [वक्ता] दूसरेके दोषका उद्घाटन [कर रहा है । (५) अब 'छादन' [नामक विमर्श सन्धिके पञ्चम अङ्गका निरूपण करते हैं[सूत्र ६४]-अपमानका परिमार्जन 'छावन' कहलाता है ॥५८॥
मन्यु अर्थात् अपमानका मार्जन जिसके द्वारा किया जाय वह 'छादन' नामक प्रङ्ग कहलाता है।
जैसे रत्नावली में
"सागरिका-सौभाग्यसे प्रज्वलित हया अग्नि आज मेरे सारे दुःखोंको समाप्त कर देगा।"
अन्य लोग तो विशेष प्रयोजनके कारण असह्य अर्थको भी सह लेनेको 'छादन' मानते हैं।
जैसे-श्री शुक्तिवासकुमारके बनाए हुए 'अनंगसेना हरिनन्दी नामक प्रकरणके नवम अङ्क में, राजपुत्र चन्द्रकेतुके द्वारा दिए हुए कानोंके अलंकारके जोड़ेको नायिका माधवीने नायकके पास भेजा था । नायक हरिनन्दीने पुष्पलक नामक ब्राह्मणको राजबन्धनसे मुक्त करानेके लिए उसे उसकी [पुष्कलक ब्राह्मरणको] माताको दान कर दिया। उस [कर्णाभरण
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नाट्यदर्पणम् [ का०५८, सू० ६५ तत्प्रत्यभिज्ञाय च स ब्राह्मणः पौरेषु प्रकाशितचौर्यो राजाज्ञया वध्यस्थानं नेतुमारब्धः। तन्मात्रा चागत्य हरिनन्दिने निवेदितम् । हरिनन्दिना च ब्राह्मणरक्षार्थ चौर्यमात्मनोऽङ्गीकृत्य अयशो विसोढमिति ।
अन्ये त्वस्य स्थाने च्छलनमवमाननरूपमाहुः । यथा रामाभ्युदये सीतायाः परित्यागेनावमानं च्छलनम्।
अपरे तु छलनं सम्मोह मिच्छन्ति । यथा वेणीसंहारे षष्ठेऽङ्के"युधिष्ठिरः- [अश्रूणि मुश्चन् चार्वाकमाह]
सर्वथा कथय ब्रह्मन् संक्षेपाद् विस्तरेण वा ।
वत्सम्य किमपि श्रोतुमेतद् दत्तमुरो मया ।। राक्षस:-श्रयताम
तस्मिन कौरव-पार्थयोर्गुरुगदाघोरध्वनी संयुगे। द्रोपदी-[लब्धसंज्ञा] अयि तदो किम ? [अयि ततः किम् ? इति संस्कृतम्] । राक्षस:-[आत्मगतम्] कथं पुनरनया लब्धा संज्ञा । अपहराम्यस्याःप्राणान। [प्रकाशम् ] -
सीरी तत्क्षणमागतश्चिरमभूत तस्याग्रतः संगरः । कञ्चुकी-नूनं तत्कृतोऽत्र कश्चिदपचारो भविष्यति । का उपयोग किए जानेपर उस] को पहिचान कर नगरवासियोंमें चोरीका अारोप घोषित कर राजाकी प्राज्ञासे ब्राह्मरणको वध्य स्थानकी ओर ले जाया जाने लगा। तब ब्राह्मणकी मासाने प्राकर हरिनन्दीसे कहा। हरिनन्दीने ब्राह्मणको रक्षाके लिए स्वयं चोरी करनेके अपराधको स्वीकृत कर अपयशको सहन किया। यह [छादन' नामक अङ्गका उदाहरण है।]
। अन्य लोग इस [छादनके] के स्थानपर अवमान रूप 'छलन' [अङ्ग] को मानते हैं [छादनको अंग नहीं मानते हैं] । जैसे राम भ्युदयमें सीताके परित्यागसे किए गए अपमानको ['छलन' नामक अंग कहते हैं।
अन्य लोग सम्मोहको छलन कहते हैं । जैसे वेणीसंहारके छठे अङ्कमें- "युधिष्ठिर---[रोते हुए चार्वाकसे कहते हैं ] -----
हे ब्रह्मन् ! संक्षेपसे या विस्तारसे जैसे चाहें प्राप कहिए । वत्स [भीम] के किसी भी समाचारको सुननेके लिए मैंने अपना हृदय तैयार कर लिया है ।
राक्षस-अच्छा सुनिए। द्रौपदी-होशमें आकर अच्छा तब फिर क्या हुआ ?
राक्षस-[स्वगत] अच्छा यह तो फिर होशमें आ गई। अभी इसके प्राणोंका प्रपहरण करता हूं। [प्रकाशम् कहता है
उसी समय बलरामजी वहाँ पा गए और उनके सामने बहुत देर तक [भीम तथा दुर्योधनका] युद्ध होता रहा।
कञ्चुकी---निश्चय ही उनके द्वारा किया गया कोई अनिष्ट इसमें उपस्थित होगा।
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का० ५६, सू० ६६-६७ ]
राक्षसः
(६) अथ द्युतिः
प्रथमो विवेकः
आलम्ब्य प्रियशिष्यतां तु इलिना संज्ञा रद्दः सा कृता यामासाद्य कुरूत्तमः प्रतिकृतं दुःशासनारौ गतः ॥ इति अत्र तापसेन व्यामोहः कृतः ||५||
[ सूत्र ६६ ] -- तिरस्कारो द्युतिः यथा कृत्यारावणे मन्दोदरी प्रति अंगदः
" मा गानिष्ट पुन जगामिनी गत्वा पुनः स्थीयतां, यत्रास्ते भुजवीर्यदपिनमदी विद्रावणो रावणः । - मद्वाहुद्रयपञ्जगन्नग्गता मृडे किमाक्रन्दसि सिंहस्यांकमुपागतामित्र मृगी कस्वां परित्राम्यते ॥" तर्जनीद्वेजने यति केचिदिच्छन्ति । अपरे तु नर्जनाद्युतिं मन्यन्ते । नदेतन्मतद्वयमध्यश्रीभेदान संगृहीनम् । एवमन्यदपि माज्ञान पारम्पर्येण वा न्यक्कारपरं वाक्यं द्युतिरेव |
(७) अथ वेद:
[ सूत्र ६७ ] - - खेदः श्रमः काय मनोद्भवः ।
यथा विक्रमोर्वश्यां पुरूरवाः
-
[ १६७
राक्षस -
-बलरामजीने श्रपने प्रिय शिष्य [ दुर्योधन] का पक्ष लेकर चुपचाप कोई ऐसा संकेत किया जिसको प्राप्त कर कुरुराज [दुर्योधन ] ने दुःशासनको भारने वाले [भीमसेन] से [दुःशासनके वका] बदला ले लिया [ श्रर्थात् भीमसेनको मार डाला ] ।”
यहाँ तापस [वेषधारी राक्षस ] ने व्यामोह उत्पन्न कर दिया है।
(६) अब 'ति' [ नामक ग्रामर्श सन्धिके छटे अङ्गका निरूपण करते हैं ] -
[ सूत्र ६५ ] - तिरस्कार करना 'द्य ुति' [कहलाता ] है ]--
जैसे कृत्यारावरणके में मन्दोदरीके प्रति श्रङ्गद [ कहता है ]
" मत जाओ, ठहरो, अच्छा फिर चलो, तनिक इधर चल कर खड़ी हो जानो, जहाँ पर भुजाओं के पराक्रम के अभिमान से चूर यह [ शत्रुनोंको] भयभीत करने वाला रावरण [ खड़ा ] है । श्ररी मूर्ख ! मेरी दोनों भुजानोंके पञ्जरमें पड़ी हुई तू चिल्ला किस लिए रही है । सिंहके पजे में फंसी हुई हरिरणीके समान श्रब कौन तुझको बचा सकता है ?"
कोई लोग डाटने-फटकारने [तर्जन उद्वेजन] को 'द्युति' कहते हैं । दूसरे लोग डाटने और घसीटनेको 'द्युति' कहते हैं। इन दोनों मतोंमें अर्थका भेद न होनेसे [ इसी द्युति-लक्षरके: भीतर ] संग्रह हो गया है । इसी प्रकार साक्षात् या परम्परासे अन्य अपमान-परक वाक्य भी 'धुति' ही माने जाते हैं ।
(७) खेद
अब 'खेद' [नामक अमर्श सन्धिके सप्तम श्रङ्गका लक्षरण श्रादि करते हैं] [ सूत्र ६६ ] - शारीरिक या मानसिक श्रम 'खेद' [कहलाता ] है । जैसे विक्रमोर्वशीमें पुरूरवा कहते हैं
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१६८ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ५६, सू०६८ "अहो शान्तोऽस्मि । भवतु अस्यास्तावद् गिरिनद्यास्तीरे स्थितस्तरंगवातं सेनिष्ये ।" इत्याद । अत्र कायिकः । तथा रघुविलासे सप्तमेऽङ्के रावण:-[सखेदम् ]
"हुं शक्रः स जितो जितो धृत-घृतः कैलासशैलोऽप्यरे ! क्रान्त क्रान्तमिदं जगत् 'प्रतिभुजग्रस्तासिकैर्बाहुभिः । । यारब्धा प्रति बन्धुबन्धनकथा लंकापतेर्जीवतः,
कर्णेषु प्रथते किमन्तमनया नीतं न विस्फूर्जितम् ॥" अत्र मानसः। तथा कृत्यारावणे लक्ष्मण:
"मार्गाः कण्टकिनः प्रतप्तसिकतापांशूकरा लंधिताः, क्रान्ताः शृङ्गवतां निकामपरुषाः स्थूलोपला भूमयः । भ्रान्तं दृप्तमृगेन्द्रनादजनितत्रासैः समं दन्तिभिः ?
पीतं च द्विपदानराजिकतुषव्यासंगतिक्तं पयः ।।" अत्रोभयजः। यद्यपि श्रमोद्वेगवितर्कादयो व्यभिचारिमध्ये लक्षयिष्यन्ते, तथापि रसविशेषपुष्टयर्थ सन्ध्यंगावसरे लक्ष्यन्ते । इति । (८) अथ विरोधः
[सूत्र ६८]-विरोधः प्रस्तुतज्यानिः ''अरे बड़ा थक गया हूँ। अच्छा चलो इस पहाड़ी नवीके किनारे बैठकर तरंगोंकी वायुका सेवन करूं।" इत्यादि । इसमें शारीरिक श्रम दिखलाया गया है ।
और रघुविलासके सप्तम अङ्क में रावण [खेदपूर्वक कहता है]--
"हो उस इन्द्रको तो बार-बार जीता था। अरे ! उस कैलास पर्वतको भी बार-बार उठाया हो था । और प्रत्येक भुजामें तलवार पकड़कर इस सारे जगत्को अनेक बार पाक्रान्त किया ही है किन्तु प्राज रावणके जीते-जी उसके बन्धनों को पकड़नेका जो यह प्रसंग प्रारम्भ हुआ है और कानों में पहुंच रहा है उसने क्या उस सारे दर्पका नाश नहीं कर दिया है।
इसमें [रावरणके मानसिक [खेदका वर्णन है । और कृत्यारावरणमें लक्ष्मण [कहते हैं]
“काँटो और जलती हुई बालू तथा धूल कूड़ा-करकटसे भरे हुए मार्गोमें चलना पड़ा। पहाड़ोंको अत्यन्त कठोर और बड़े-बड़े पत्थरोंसे भरी हुई भूमियोंको पार करना पड़ा। मत्त सिंहोंके गर्जनसे भयभीत हुए हाथियोंके साथ वनोंमें धूमना पड़ा और हाथियोंके मदके कलुषित सम्पर्कके कारण तिक्त पानी पीना पड़ा।" इसमें [शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकारका खेद पाया जाता है ।
यद्यपि श्रम-उद्वेग वितर्क आदिके लक्षण व्यभिचारिभावोंके प्रसंगमें किए जावेंगे फिर भी रसको विशेष पुष्टिके लिए सन्धियोंके अङ्गोंके प्रसंगमें यहां भी उनके लक्षण कर दिए गए हैं।
(८) अब विरोध [नामक विमर्शसन्धिके अष्टम अङ्गका लक्षण आदि करते हैं]
[सूत्र ६७]-प्रस्तुत अर्थको हानि 'विरोध' [कहलाता है। १. प्रतिभट।
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का० ५६, सू०१८ ] प्रथमो विवेकः
[ १६६ प्रस्तुतस्य कार्यस्य ज्यानिः अत्ययो विरोध इव 'विरोधः' । यथा कृत्यारावणे सप्तमेऽङ्क
"कञ्चुकी-[लक्ष्मण-विभीषणौ प्रति] कुमार ! एतत् । उभौ-किम् । कन्चुकी-श्राः इदम् । उभौ-आर्य ! कथय कथय ।
कञ्चुकी-का गतिः ? श्रयताम् । आर्या खलु सीता रावणाज्ञया किंकरोपनीतं भतु याशिरोऽवलोक्य सखीभिराश्वास्यमानापि निवृत्तप्रयोजना 'नाहमात्मानं क्लेशयामि' इत्युक्त्वा
सर्वे-किं कृतवती ? कन्चुकी-यन्न शक्यते वक्तुम् ।
शशिन इव कला निशावसान' कमलवनोदरमुत्सुके व हंसी।
पतिमरणरसेन राजपुत्री स्फुरितकरालशिखं विवेश वह्निम् ॥" अत्र सीताप्रत्यानयनस्य प्रस्तुतस्य विरोधः ।
अन्ये तु खेद-विरोधौ न मन्यन्ते । विद्रव-विचलने तु पठन्ति । तत्र विद्रवो बन्ध-बधाध्यवसायादिः। यथा छलितरामे
प्रस्तुत कार्यकी हानि अर्थात् नाश विरोधके समान होनेसे 'विरोध' [कहलाता है । जैसे कृत्यारावणके सक्षम अङ्कमें
"कञ्चुकी-लक्ष्मरण तथा विभीषणके प्रति कहता है] -कुमार ! यह । दोनों-क्या ? कञ्चुकी-अरे यह। दोनों-आर्य ! कहिए-कहिए [क्या बात है] ।
कञ्चुकी--क्या करू । अच्छा सुनो। प्रार्या सीताने रावणको प्राज्ञासे नौकर द्वारा लाए गए [स्वामी रामचन्द्रके [कटे हुए] बनावटी सिरको देखकर, सखियोंके द्वारा प्राश्वासन दिए जानेपर भी 'अब मरे] जीनेका प्रयोजन समाप्त हो गया' ऐसा कहकर
सब लोग-क्या किया ? कञ्चुकी-जिसको कहा नहीं जा सकता है।
रात्रिकी समाप्तिपर चन्द्रमाको कलाके समान हो जानेके] समान, उत्सुका हंसीके कमल वनोंके भीतर [समा जाने के समान, पतिके मरणके रससे राजपुत्री सीता भयंकर ज्वालाएँ जिनमेंसे निकल रही हैं इस प्रकारको अग्निमें प्रविष्ट हो गई।"
इसमें सीताके प्रत्यानयन रूप प्रस्तुत कार्यका विरोष है। [इसलिए यह मामर्श सन्धिके 'विरोध' नामक अष्टम अंगका उदाहरण है] ।
अन्य लोग तो खेद और विरोध इन दोनों प्रङ्गों को नहीं मानते हैं [उनके स्थान पर] "विद्र' तथा 'विचलन' [अगों को मानते हैं। उनमें से बध अथवा बन्धनके निश्चयको 'विद्रव' कहते हैं । जैसे 'छलितराम' में१. विनावसाने।
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नाट्यदर्पणम्
[ का० ५६, सू० १८
"येनावृत्य मुखानि साम पठतामत्यन्तमायासितं, बाल्याद् येन हृताक्षसूत्रवलयप्रत्यर्पणैः क्रीडितम् । युष्माकं हृदयं स एष विशिखैरापूरितांसस्थलो, मूर्च्छाघोरतमः प्रवेशविवशो बध्वा लवो नीयते ॥” इति । बधाध्यवसायस्तु मृच्छकटिकायां चारुदत्तविषयः । तथा रत्नावल्याम्"पुनर्वासवदत्ता - श्रज्जउत्त ! गंखु अत्तणो कारणा भणामि एसा मए निग्विणश्रियाए संपदा सागरिया विवज्जदि । इति ।
[ श्रार्यपुत्र ! ननु खल्वात्मनः कारणात् भरणाम्येषा मम निघृ हृदययाः सम्पत् सागरिका विपद्यते । इति संस्कृतम् ] ।”
अत्र सागरिकाया बन्ध-वधाग्निभिर्विद्रवः । तथा वेणीसंहारे
१७० ]
"युधिष्ठिरः - कः कोऽत्र । सनिषङ्गः धनुरुपनीयताम् । कथं न कश्चित् परिजनः । भवतु वा, बाहुयुद्धसम्भावनाविहस्तमेनं दुरात्मानं गाढमालिङ्गन्य ज्वलितंज्वलननमभिपतामि ।" इति ।
अत्र सम्भ्रमात्मको विद्रवः । इति ।
शौर्य-कुल- विद्या-रूप-सौभाग्यादिसम्भवमात्मविकत्थनं तु विचलनम् । यथा वेणीसंहारे पचमेऽङ्के
"तात ! अम्ब !
-
"जिस [व] ने सामवेदका पाठ करते हुए [ब्रह्मचारियोंका ] मुख बन्द करके उनको बड़ा संग किया। जिसने बचपनके काररण उनके प्रक्षसूत्र और वलय प्राविको छीनकर फिर बेकर क्रीड़ाएँ कीं, तुम्हारे हृदयके समान [ अत्यन्त प्रिय] बालोंसे जिसका कन्धा भरा हुआ है और मूर्च्छासे गहन अन्धकारमें पहुँच जानेके कारण विवश उस लवको [तुम्हारे सैनिक ] बांधकर लिए जा रहे हैं ।"
[ यह बन्धनाध्यवसायका उदाहरण हैं] बषके प्रध्यवसायका [ उदाहरण] जैसे 'मृच्छकटिक' में चारुदत्त के विषयमें [पाया जाता है] । और जैसे 'रत्नावली' में
[ वासवदत्ता फिर कहती है ।] श्रार्यपुत्र ! मैं अपने कारण ही कहती हूँ कि मुझ निर्दयाकी सम्पत्ति सागरिका [इस श्रग्निमें जलकर ] मरी जा रही है।
इसमें सागरिका बन्ध तथा बध श्रादि [दोनों] के होनेके कारण 'विद्रव' [श्रङ्ग पाया जाता ] है । और 'वैरणीसंहार' में-
"युधिष्ठिर -- अरे ! यहाँ कौन है ? तूणीर सहित धनुष लानो । श्ररे, कोई नौकर नहीं जान पड़ता है। अच्छा रहने दो। बाहुयुद्धकी सम्भावनाके कारण [स्त्रसे रहित] खाली हाथ वाले इसको जोरसे पकड़कर प्रज्वलित अग्निमें कूदा पड़ता हूँ ।"
इसमें सम्भ्रम रूप 'विद्रव' है ।
शौर्य, कुल, विद्या रूप, सौन्दर्य श्रादिके कारण अपनी प्रशंसा करना 'विचलन'
[ कहलाता ] है । जैसे 'वेणीसंहार' के पञ्चम् प्रङ्क
"हे तात ! हे मातः !
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का०५६, सू० ६६ ] प्रथमो विवेकः
[ १७१ सकलरिपुजयाशा यत्र बद्धा सुतैस्ते, तृणमिव परिभूतो यस्य गर्वण लोकः । रणशिरसि निहन्ता तस्य राधासुतस्य,
प्रणमति चरणौ वां मध्यमः पाण्डवोऽयम् ॥ आप-च तात!
चूर्णिताशेषकौरव्यः क्षीबो दुःशासनासृजा ।
भक्तवा सुयोधनस्योरू भीमोऽयं शिरसार्चति ॥” इति । पत्र स्वगुणाविष्करणात् विचलनमिति । (E) अथ संरम्भः
[सूत्र 86]-संरम्भः शक्तिकीर्तनम् ॥५६॥ संरब्धानामुत्तर-प्रत्युत्तरेण श्रात्मशक्तिभाषणं संरम्भः । यथा वेणीसंहारे दुर्योधनं प्रति क्रमाद्"भीमः-अन्यच्च मूढ !
शोक स्त्रीवन्नयनसलिलैर्यत् परित्याजितोऽसि, भ्रातुर्वक्षःस्थलविघटने यश्च साक्षीकृतोऽसि ।
आसीदेतत् तव कुनृपतेः कारणं जीवितस्य;
क्रुद्धे युष्मत्कुल कमलिनी-कुञ्जरे भीमसेने ॥ __ तुम्हारे पुत्रोंने जिसके ऊपर सारे शत्रुओंको विजय करनेकी प्राशा लगाई हुई थी, और जिसके अभिमानके कारण सारे संसारको तुणके समान तिरस्कृत किया था, उस राषासुत [कर्ण] को युद्धभूमिमें मारनेवाला यह मध्यम पाण्डव [अर्जुन] आपके दोनोंके चरणों में प्रणाम करता है।
हे तात ! और भी [सुनिए]
समस्त कौरवोंका नाश कर डालनेवाला, दुःशासनके रक्तसे मत्त हुन्मा एवं दुर्योधनको अंधात्रोंको तोड़कर यह भीम [भी] प्रापको शिरसे नमस्कार करता है।"
इसमें अपने गुणोंके प्रकट करनेके कारण यह 'विचलन' [अङ्गका उदाहरण है। (९)-प्रद संरम्भ [नामक प्रामर्शसन्धिके नवम अङ्गके लक्षण प्रादि कहते हैं][सूत्र ९८]-[अपनी] शक्तिका कथन करना 'संरम्भ' [नामक अङ्ग कहलाता है।५६।
प्रावेश भरे दो जनोंका उत्तर-प्रत्युत्तर द्वारा अपनी-अपनी शक्तिका कथन करना 'संरम्भ' [कहलाता है । जैसे 'वेणीसंहार में दुर्योधनके प्रति भीम क्रमसे कहते हैं]--
"मूर्ख ! और भी [सुन]--
स्त्रियोंके समान [अपने सम्बन्धियोंका नाश देखकर तुझे जो रुलाया गया, और भाई [दुःशासन] की छातीको फाड़ने और उसका रक्तपान करने में जो तुझको साक्षी बनाया गया। तेरे कुल रूप कमलिनीके लिए हाथोके समान [विनाशक भीमसेनके क्रुद्ध होनेपर भी तेरे अब तक सीवित रहनेका यही कारण था. [अन्यथा तुझे न जाने कबका मार दिया
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१७२ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ६०, सू० १०० राजा-दुरात्मन् ! भरतकुलापसद ! पाण्डवपशो! नाहं भवानिव विकत्थनाप्रगल्भः । किन्तु
द्रक्ष्यन्ति न चिरात् सुप्त बान्धवास्त्वां रणाङ्गणे ।
मदुगदाभिन्नवक्षोऽस्थिवेणीकाभीमभूषणम् ॥" इत्यादीति । असंरब्धस्यापि दृश्यते । यथा वेणीसंहारे युधिष्ठिरः
"नूनं तेनाद्य वीरेण प्रतिज्ञाभङ्गभीरुणा।
बध्यतां केशपाशस्ते स चास्याकर्षणक्षमः॥” इति ।। सम्फेटे क्रोधेन भाषणमात्रं संरम्भे तु बलकीर्तनमित्यनयोर्भेद इति ॥५६ (१०) अथ शक्तिः
_[स्वत्र १००]-क्रुद्धप्रसादनं शक्तिः
क्रुद्धस्य प्रसादनं अनुकूलनं बुद्धि-विभवादिशक्तिकार्यत्वेन सा शक्तिः । यदि वा क्रुद्धस्य द्विषतः प्रकर्षण सादनं विनाशनं शक्तिः । यथा रत्नंवल्याम्
राजा--
राजा-अरे नीच ! भरतकुलकलंक! पाण्डवपशो ! मैं तेरे समान प्रात्मश्लाघामें निपुण तो नहीं हूँ किन्तु
तेरे बान्धव लोग शीघ्र ही, मेरी गदासे लूटी हुई छातीकी अस्थियोंको मालासे भयंकर भूषणोंसे युक्त तुझको युद्धभूमिमें सोता हुआ देखेंगे।
इत्यादिमें [संरब्धोंके शक्ति-कीर्तनके कारण 'संरम्भ' का उदाहरण है। क्रोधावेशके बिना भी [शक्ति-ख्यापन] देखा जाता है। जैसे वेणीसंहारमें--
“युधिष्ठिर–प्रतिज्ञाके अङ्ग भंग होनेके भयसे वह [भीमसेन] आज तुम्हारे केशपाश को और जिसने उसका प्राकषंण किया था उन दोनोंको [क्रमशः] बाँधे तथा मारेगा। इसमें 'बध्यता' पद बधार्थक तथा बन्धनार्थक दोनों धातुनोंसे समान रूपमें ही बनता है। प्रतः उसके दोनों अर्थ लगते हैं।
यह वचन युधिष्ठिरने क्रोधावेशके बिना ही कहा है। प्रतः दूसरे प्रकारके 'संरम्भ मङ्गका उदाहरण है। प्रागे इसी अामर्श सन्धिके सम्फेट नामक तृतीय अङ्गके साथ इस 'संरम्भ' नामक नवम अङ्गका भेद दिखलाते हैं।
'सम्फेट' [अङ्ग] में केवल क्रोषसे भाषण मात्र होता है और 'संरम्भ में शक्तिका कीर्तन होता है यह इन दोनोंका भेद है ॥५६॥
(१०) अब 'शक्ति' [नामक अमर्श सन्धिके दशम अङ्गका लक्षण प्रादि करते हैं][सूत्र १००] क्रुद्धको प्रसन्न करना 'शक्ति' [कहलाता है।
कुद्धको प्रसन्न करना अर्थात् अनुकूल करना, बुद्धि या वैभव प्रावि शक्तिका कार्य होनेसे वह [क्रुद्ध प्रसादन] 'शक्ति' [कहलाता है। अथवा क्रुद्ध हुए शत्रुका [प्रसादन अर्थात प्रकरण सादन] अत्यन्त विनाश 'शक्ति' [कहलाता है।
[पहले प्रकारका उदाहरण] जैसे रत्नावलीमें-राजा
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का० ६०, सू० १०० ] प्रथमो विवेकः
[ १७३ , "सव्याजैः शपथैः प्रियेण वचसा चित्तानुवृत्त्या भृशं, वैलक्ष्येण परेण पादपतनैर्वाक्यैः सखीनां मुहुः । प्रत्यासत्तिमुपागता मम तथा देवी रुदत्या यथा,
प्रक्षाल्येव तयैव वाष्पसलिलैः कोपोऽपनीतो यथा ।" तथा कत्यारावणे सप्तमांकस्य पूर्वार्द्ध--- "कष्टं भोः कष्टम्--
रामेण प्रलये नेव महासत्त्वेन लीलया।
पातितोऽयं दशशिराः शृङ्गवानिव पर्वतः ॥” इति । अत्र विरोधिनो रावणस्य विनाशनमिति । एके तु निरोधप्रशमनं शक्तिमामनन्ति । यथोत्तरचरिते - "लवः-विरोधो विश्रान्तः प्रसरति रसो निर्वृतिघनः,
तदौद्धत्यं क्वापि व्रजति विनयः प्रह्वयति माम् । झगित्यस्मिन् दृष्टे किमपि परवानस्मि यदि वा,
महाघस्तीर्थानामिव हि महतां कोऽप्यतिशयः ।।" इति । एतदप्यत्रैवान्तर्भूतम् । प्रसादने प्रसत्तेरपि भावात् । अस्ति चात्र लवस्य क्रुद्धस्य मनःप्रसत्तिरिति ।
"बहाने बनाकर शपथोंके द्वारा, प्रिय वचनोंके द्वारा, सर्वथा चित्तके अनुसार अनुगमन करनेके द्वारा, अत्यन्त लज्जाके [अनुभव या प्रकाशन] द्वारा, पैरोंपर पड़कर और बार-बार सखियोंके कहनेपर भी प्रिया [वासवदत्ता] उस प्रकार प्रसन्नताको प्राप्त नहीं हुई जैसी कि स्वयं रोती हुई उसने आंसुओंसे मानो क्रोधको धोकर बहा दिया हो [अर्थात् वासवदत्ताके इन मासुभोंने मानो उसका सारा क्रोध बहा दिया हो।"
यह प्रथम प्रकारके प्रसादन रूप शक्ति अङ्गका उदाहरण है । दूसरे लक्षणके अनुसार शक्ति प्रङ्गका उदाहरण मागे देते हैं
और जैसे 'कृत्यारावरण के सप्तमांकके पूर्वाद्ध में"अरे ! बड़े दुःखकी बात है कि
प्रलयके समान महा-शक्तिशाली रामचन्द्रने भृङ्गोंसे युक्त पर्वतके समान इस दश शिरोंवाले रावणको अनायास ही गिरा दिया।"
इसमें विरोधी रावणका विनाश कहा गया है [अतः यह दूसरे लक्षणके अनुसार शक्ति नामक अङ्गका उदाहरण है] ।
कुछ लोग विरोषके प्रशम को 'शक्ति' कहते हैं । जैसे 'उत्तरचरित'में--
"लव--[रामचन्द्रजीके माजानेसे चन्द्रकेतुके साथ होनेवाले युद्ध में हम दोनों अर्थात लव और चन्द्रकेतुका] विरोध शान्त हो गया और आनन्द प्रदान करने वाला प्रेम [रस] उत्पन्न हो रहा है । वह उद्दण्डता [जो मेरे अब भीतर थो] न जाने कहाँ चली गई, और विनय मुझे [उसके सामने] विनम्र बना रही है । इनको देखकर न जाने क्यों मैं तुरन्त ही परवश-सा हो गया हूँ अथवा तीर्थोकें समान महापुरुषोंका कुछ अनिर्वचनीय प्रभाव होता है। . , इसमें यह [विरोष-विश्रान्ति भी इसी [क्रुद्ध-प्रसादन] में अन्तर्भूत हो जाती है। प्रसादन
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१७४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का०६०, सू० १०० प्रकृताभिप्रायविरुद्धाचरणहेतुरभिप्रायो भावान्तरमङ्ग अत्रान्य मन्यन्ते ।
यथा तापसवत्सराजे षष्ठेऽङ्क-यौगन्धरायणस्य वासवदत्तां मरणाध्यवसायानिवर्तयितु भावः । तद्विरद्धा चिताविरचनक्रिया अभिप्रायान्तरात् कृतेति भावान्तरम् । तत्र हि--
"यौगन्धरायणः--भद्र विनीतक ! रचय चिताम् ।" इति ।
अन्ये तु शक्तेः स्थाने आज्ञां पठन्ति । युक्तायुक्तमविचार्य क्रोधाद् यदाज्ञापनं सा आज्ञा । यथा कृत्यारावणे त्रिजटया दारुणिकभिधाना राक्षसी पृष्टा-- त्रिजटा-दारुणिए किं तुम भणासि ।
[दारुणिके ! किं त्वं भणसि । इति संस्कृतम् ] । दारुणिका--अय्ये तियडे ! अवि नाम अप्पडिहदा आणा मम सरीरे निवडिस्सइ न उण ईदिसं अकज्जं करइस्सं ।
[अयि त्रिजटे ! अपि नाम अप्रतिहता आज्ञा मम शरीरे निपतिष्यति न पुनरीदृशमकार्य करिष्यामि । इति संस्कृतम्] । त्रिजटा--तहा वि तुमं दारुणि त्ति वुच्चसि । [तथापि त्वं दारुणिका इत्युच्यसे । इति संस्कृतम् ]
(पुनः क्रमान्नेपथ्ये-)
में [प्रसत्ति] प्रसन्नताके भी पा जानेसे । और यहाँ कुद्ध लवके मनको प्रसत्ति अर्थात् प्रसन्नता हैं। [अतः यह क्रुद्ध प्रसादन रूप शक्तिके भीतर ही पा जाता है। उसका अलग लक्षण करने को प्रावश्यकता नहीं है।
अन्य लोग प्रकृत अभिप्रायके विरुद्ध प्राचरणके हेतुभूत अभिप्राय-रूप भावान्तरको इसके स्थान पर अङ्ग मानते हैं। जैसे तापसवत्सराजके षष्ठ अङ्कमें यौगन्धरायणका वासघदत्ताको मरणसे बचाने का अभिप्राय है। किन्तु उसके विपरीत चिता बनानेकी क्रिया दूसरे अभिप्रायसे कराई है। इसलिए वह भावान्तर [अङ्ग का उदाहरण है। जैसे कि
वहाँ यौगन्ध रूपण कहते हैं]
"यौगन्धरायण--हे भद्र विनीतक ! चिता बना दो। यह [यौगन्धरायणका वचन उनके प्रकृत अभिप्रायके विपरीत होनेसे भावान्तरका उदाहरण है ] ।
___अन्य लोग शक्तिके स्थानपर प्राज्ञा [नामक अङ्ग] को रखते हैं। उचित-अनुचितका विचार किए बिना क्रोधसे जो प्राग दे देना है उसको प्राज्ञा [अङ्ग] कहते हैं। जैसे कृत्यारावरणमें त्रिजटा दारुरिणका नामको राक्षसीसे पूछती है ।
त्रिजटा--हे दारुणिके ! तुम क्या कह रही हो ?
दारुरिणका--हे पायें त्रिजटे ! [रावरणको] अप्रतिहत प्राज्ञा मेरे शरीरपर भले ही गिरे [अर्थात् रावण भले ही मुझे जान से मरवा डाले किन्तु मैं इस प्रकारका अनुचित कार्य नहीं करूंगी। त्रिजटा-फिर भी लोग तुमको दारुणिका [नामसे कहते हैं।
फिर क्रमसे नेयथ्यमें
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का० ६०, सू० ६६ ]
प्रथमो विवेकः
[ १७५
“द्दा तियडे ! एसा दे पियसही सीदा भत्तणो मायासिर दस गुप्पत्ती मरणनिच्छया अग्गिं पविसिउकामा । [हा त्रिजटे एषा ते प्रियसखी सीता भर्तुर्मायाशिरोदर्शनोत्पत्तिमरणनिश्चया अग्निं प्रवेष्टुकामा ] |
त्रिजटा - हा हदम्म मंदभाइणी मा दाणि दिव्वेण भत्तुणो आणा संपादीयदि । [ हा हतास्मि मन्दभागिनी । मा इदानीं दैवेन भतु राज्ञा सम्पाद्यते ] | एतस्मादवसीयते सीताव्यापादनाय क्रोधाद रावणेन दारुणिकायै प्राज्ञा
दत्तेति ।
सर्वसन्धिष्वपि मतान्तराणि वृद्धोक्तवात् भणितिभेदाद वैचित्र्यस्य रञ्जकस्वाच्च प्रमाणान्येव । अत एव सर्वसन्धिष्वप्यंग संख्याकरणमुदाइरणपरमिति मन्तव्यमिति । अथ प्ररोचना
[ सूत्र १०० ] - भावसिद्धिः प्ररोचना ।
निर्वहणसन्धी भाविनोऽर्थस्य सिद्धिः सिद्धत्वेनोपक्रमणं प्रकर्षेण रोच्यते दीप्यतेऽनया रूपकार्थं इति प्ररोचना । यथा वेणीसंहारे
पाञ्चालकः - [ 'अहं च देवेन चक्रपाणिना' इत्युपक्रम्य ] कृतं सन्देहेन - पूर्यन्तां सलिलेन रत्नकलशा राज्याभिषेकाय ते कृष्णात्यन्तचिरोज्झिते च कबरीबन्धे करोतु क्षणम् ।
हा त्रिजटे ! तुम्हारी यह प्रिय सखी सीता स्वामी [ रामचन्द्रके] बनावटी शिरको देखनेके कारण देनेके निश्चय करके अग्निमें प्रविष्ट होना चाहती है ।
त्रिजटा - अरे में प्रभागिनी मरी । भगवान् करे इस समय स्वामी [रावरण] की श्राशापूर्ण न हो सके ।
इस [संवाद] से प्रतीत होता है कि रावणने दादरिकाको सीताको मार डालने की आज्ञा दी थी । [ इसलिए यह 'प्राज्ञा' नामक अङ्गका उदाहरण है। क्योंकि वह प्राज्ञा क्रोधावेशमें ही दी गई है।
सभी संधियोंमें [प्रोंके विषयमें] अन्य-अन्य [ लक्षरण प्रस्तुत करनेवाले ] मत वृद्धों द्वारा कथित होनेसे और वर्णन शैली के भेदसे उत्पन्न वैचित्र्यके मनोरञ्जक होनेके कारण प्रमाणभूत [मान्य] ही है । इसीलिए सभी संधियोंमें श्रङ्गोंकी गणना केवल उदाहररण-परक समझनी चाहिए । [अर्थात् उसी प्रकारके अन्य अङ्ग भी हो सकते हैं। वह संख्या निश्चित नहीं है यह समझना चाहिए] ।
अब 'प्ररोचना' [नामक विमर्शसंधिके दशम श्रङ्गके लक्षरण श्रादि करते हैं ] — आगे होनेवाली सिद्धि [ का कथन ] 'प्ररोचना' [कहलाती ] 1
निर्वहण संधिमें आगे होनेवाले अर्थकी सिद्धि, अर्थ या उसको सिद्ध ही मानकर कंथन
करना जिसके द्वारा रूपकका विषय प्रकर्षसे प्रकाशित या दीप्त होता है [ इस व्युत्पत्तिके धनुसारी 'प्ररोचना' [कहलाती] है । जैसे 'वेणीसंहार' में -
पाञ्चालक --- - [ मुझे देव चक्रमाणि कृष्ण ने यहाँसे लेकर ] संदेहकी कोई प्रावश्यकता नहीं है [इस लिए ]
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१७६ ]
नाट्यदर्पणम्
का ६०, सू० १०० रामे शातकुठारभासुरकरे क्षबमोच्छे दिनि
क्रोधान्धे च वृकोदरे परिपतत्याजी कुतः संशयः।।। __ अत्र युधिष्ठिरराज्याभिषेकस्य द्रोपदीकेशसंयमनस्य च भाविनोऽपि सिद्धत्वेन कल्पनम् । __ यथा वा राघवाभ्युदये सप्तमेऽके
सीताया वदनं विकाशमयता रामस्य शोकानलः शान्ति यातु सगीतयश्च जभुजैनृत्यन्तु शाखामृगाः। सन्धानाय विभीषणः प्रयततां लंकाधिपत्यश्रियः
सौमित्रेदेशकण्ठ-कण्ठविपिनं कालः कियांश्छिन्दतः ॥ इति । अन्ये तु सत्कारा देशन प्ररोचनामाहुः । यथा वेणीसंहारे
युधिष्ठिरः- [पुरुषभवलोक्य ] भद्र उच्यतां सहदेवः क्रद्धस्य वृकोदरस्यापयुषितां दारुणां प्रतिज्ञामुपलभ्य प्रणष्टस्य मानिनः कौरवनाथस्य पदवीमवेक्षितुमतिनिपुणमतयः, तेषु तेषु स्थानेषु परात्मवेदिनचारा, मन्त्रिणः सचिवाश्च भक्तिमन्तः पटुपट हव्यक्तघोषणाः सुयोधनसञ्चारवेदिनः प्रतिश्रुतधन-पूजा-प्रत्युपक्रियाः सञ्चरन्तु समन्तपञ्चकमिति । धन-पूजाप्रतिश्रवणप्रचोदिताः प्रत्युपकारे वतिष्यन्ते दुर्योधनप्रतिलम्भवार्तायै । इति ।
आप [अर्थात् युधिष्ठिर अपने राज्याभिषेकके लिए पाप रत्नोंके कलशोंको जलसे भरवावें, और द्रौपदीके बहुत दिनोंसे खुले हुए केशपाशको बाँधनेका उत्सव करे। क्योंकि तीक्ष्ण कुठारसे दीप्त करवाले क्षत्रिय रूप वृक्षोंको काटनेवाले परशुराम और क्रोधान्ध भीम के संग्राम में श्रा जाने पर [विजयमें ] क्या संदेह है ?
__ इस [पाञ्चालकके कथन में प्रागे होनेवाले युधिष्ठिरके राज्याभिषेक तथा द्रौपदीके केशबंधन रूप अर्थको सिद्ध-सा मान लिया गया है। [अतएव यह 'प्ररोचना' नामक अङ्गका उदाहरण है।
अथवा जैसे राघवाभ्युदयके सप्तम् अङ्कमें
सीताका मुख प्रसन्नतासे खिल उठे, रामचंदजीकी शोकानल शांत हो जाय, वानर लोग गीत गाते हुए और हाथ हिलाते हुए नाचें, और विभीषण लङ्काकी राज्यलक्ष्मीको प्राप्त करने का प्रयत्न प्रारम्भ कर दे, क्योंकि लक्ष्मणको रावणके कण्ठोंके वनको काटनेमें कितनी देर लगनी है [तनिक देरमें काट डालेंगे।
इसमें आगे होनेवाली बातोंको सिद्धवत् वर्णन किया गया है। इसलिए यह 'प्ररोचना' अङ्गका उदाहरण है।
अन्य लोग सत्कारको प्राज्ञाको 'प्ररोचना' कहते हैं । जैसे 'वेणीसंहार'में
युधिष्ठिर-[पुरुषकी मोर देखकर] भद्र सहदेवसे कह कि क्रुद्ध भीमकी बासी न होनेवाली [अर्थात् आज ही पूरी होनेवाली दुर्योधनके वधको] : तिरको सुनकर छिप गए हुए अभिमानी कौरवराजके स्थानका पता लगानेके लिए उन-उन स्थानोंपर अपने और शत्रुपक्षके पहिचाननेवाले गुप्तचर, मंत्री और भक्तिमान सचिव और तीव्र पटह वाद्य द्वारा स्पष्ट रूपसे घोषणा धन पूजा प्रावि पुरस्कारको सूचना प्राप्त, दुर्योधनके गमनागमन [के स्थानों को
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का० ६०, सू० १०१-१०२ ]
प्रथमो विवेकः
[ १७७
अन्ये त्वस्य स्थाने युक्ति पठन्ति । युक्ति सविच्छेदोक्तिः । यथा पुष्प
दूतिके --
"समुद्रदत्तः-
(१२) अथादानम् -
भर्ता तवाहमिति कष्टदशाविरु पुत्रस्तवैष कुत इत्यनुहारना । शस्त्रं पुरः पतति किं करवाहिन् व्यक्तं विरौमि यदि साभ्युपत्स्यते माम् ॥” इति ।
[ सूत्र १०१] - फलसामीप्यमादानम् | मुख्य फलस्य दर्शनमादानम् । यथा नागानन्दे - [नायकमुद्दिश्य ] गरुडः ---
नागानां रक्षिता भाति गुरुरेष यथा मम । तथा सर्पानाकांक्षा व्यक्तमयापनेध्यति ॥
अत्र नागरक्षालक्षणस्य मुख्यफलस्य सामीप्यनिबन्ध इति । (१३) अथ व्यवसायः
[ सूत्र १०२ ] - व्यवसायोऽर्थ्य हेतुयुक् ।। ६० ।।
हैं ] -
जाननेवाले लोगोंको समंत पञ्चकके चारों श्रोर भेज दें । बदलेमें धन पूजा प्रादिके श्राश्वासन से प्रेरित होकर दुर्योधनको पकड़वानेके [लिए] समाचार देनेको तैयार हो जायेंगे ।
इसमें दुर्योधनका पता लगानेवालोंको सत्कार धन आदिका प्रलोभन देनेका जो वचन दिया गया है वही 'प्ररोचना' है ।
अन्य लोग
इस [प्ररोचना ] के स्थानपर युक्ति [अङ्ग ] को पढ़ते हैं । जैसे पुष्पहूतिक समुद्रदत्त [ कहता है ] -
में
"मैं तुम्हारा स्वामी हूँ यह [कहना इस ] कष्टदशाके विपरीत है । यह तुम्हारा पुत्र है [ यह कहा जाय ] तो फिर यह अनुदारता क्यों ? शस्त्रका प्रहार होनेवाला है अब क्या करू,
यदि स्पष्ट रूपसे रोता-चिल्लाता हूँ तो वह मुझको जान लेगी ।"
(१२) अब 'श्रववान' [ नामक विमर्शसंधिके बारहवें प्रङ्गका लक्षण श्रादि करते हैं ] - [ सूत्र १०१] फलका समीप दीखना 'आदान' कहलाता है ।
मुख्य फलका [ समीप ] दीखना 'श्रादान' कहलाता है। जैसे नागानन्दमें नायकको लक्ष्य करके गरुड़ [ कहते हैं ]
"नागोंके रक्षक ये [ जीमूतवाहन] मेरे गुरुसे प्रतीत होते हैं इसलिए अब साँपोंको खाने की [मेरी ] इच्छा निश्चय ही समाप्त हो जायगी ।"
इसमें नागों की रक्षा रूप मुख्य कार्यके सामीप्यका वर्णन किया गया है। [अत एव यह 'आदान' नामक इस अङ्गका उदाहरण है]
(१३) अब 'व्यवसाय' [ नामक विमर्शसंधिके तेरहवें श्रृङ्गका लक्षरण श्रादि करते
[सूत्र १०२ ] – प्रर्थनीय फलके हेतुका योग 'व्यवसाय' [कहलाता ] है ।६०|
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१७८ ]
'युगिति' योजन'
युक् ।
वल्याम्
"ऐन्द्रजालिकप्रवेशादारम्य - 'एको उण खेडओ तए अवस्सं पेक्खिदव्वो' [एकः पुनः खेलकस्त्वयावश्यं प्रेक्षितव्यः ] इति यावत् । अत्र हि यौगन्धरायण्न यदगीकृतं तन्निष्पादक हेतुसमागमः ।
सन्धिमपीति ।
नाट्यदर्पणम्
[ का० ६०, सू० १०२
श्रर्थनीय फलस्य हेतुस्तद्योगो व्यवसायः । यथा रत्ना
अन्ये तु 'व्यवसायः स्वशक्त्युक्तिः' इति पठन्ति । यथा वेणीसंहारेनून' तेनाद्य वीरेण प्रतिज्ञाभंगभीरुणा ।
बध्यते केशपाशस्ते स चास्याकर्षण क्षमः ॥ इति ।
एतच्च ‘संरम्भः शक्तिकीर्तनम्' इत्यनेनैव संगृहीतमिति । केचिदन्यतमाङ्गानङ्गीकारेण द्वादशाङ्गमेवैतं सन्धिमिच्छन्ति । एवं गर्भ
एतान्यवमर्श सन्धेस्त्रयोदशाङ्गानि ।
अथ निर्वहणमन्धेरङ्गानि लक्षयितुमुद्दिशति-
[सूत्र १०३ ] - सन्धि-निरोधो ग्रथनं निर्णयः परिभाषणम् । उपास्तिः कृतिरानन्दः समयः परिगूहनम् ॥ ६१ ॥
'युक' अर्थात् योजन। श्रर्थनीय फलका जो हेतु उसका योग 'व्यवसाय' [ कहलाता ] है । जैसे रत्नावली में - ऐन्द्रजालिकके प्रवेश से लेकर 'मेरा एक खेल श्रापको श्रवश्य देखना चाहिए' यहाँ तक [प्रर्थनीय फलका योग होनेसे व्यवसाय श्रङ्गका उदाहरण है ] । इसमें यौगंधरायणने [ उदयन तथा वासवदत्ताका सम्बंध करानेका ] जो निश्चय किया था उसके सम्पादक हेतुका समागम हो रहा है [श्रत एव यह 'व्यवसाय' नामक प्रङ्गका उदाहरण है ] ।
अन्य लोग तो " अपनी शक्तिका कथन करना 'व्यवसाय' [कहलाता ] है" ऐसा लक्षण करते हैं । जैसे वेरणीसंहार में-
"प्रतिज्ञाका भङ्ग न होने पावे इस भयसे वह वीर [भीमसेन ] निश्चय ही प्राज तुम्हारे केशपाशको बाँधेगा और जिस [दुःशासन] ने इसको खींचा था उसको मारेगा ।"
यहाँ 'बध्यते' यह पद बधार्थक तथा बंधार्थक दोनों धातुनोंसे समान रूपमें ही बनता है इसलिए उसका एक पक्षमें बाँधना और दूसरे पक्षमें मारना दोनों ही अर्थ होते हैं ।
[कुछ लोग 'व्यवसाय' का 'व्यवसायः स्वशक्त्युक्तिः' ऐसा लक्षण करते हैं] किन्तु यह "शक्तिका कथन करना संरम्भ [ श्रङ्ग कहलाता ] है" इस [ संरम्भ प्रङ्ग ] के भीतर ही श्रा जाता है [ श्रतः व्यवसायका यह लक्षरण उचित नहीं है ] ।
कुछ लोग [विमर्शसंधिके तेरह अङ्गों में से ] किसी प्रङ्गको न मानकर इस संधिके बारह अङ्ग ही मानते हैं । इसी प्रकार गर्भसंधि में भी [बारह प्रङ्ग हो मानते हैं ] । ये श्रवमर्शसंधिके तेरह अङ्ग हैं ॥ ६० ॥
निर्वहण सन्धि के चौदह अङ्ग
अब निर्वहणसंधि के प्रङ्गोंके लक्षरण करने के लिए उनके नाम गिनाते हैं
[ सूत्र १०३ क ] ( १ ) संधि, (२) निरोध, (३) प्रथन, (४) निर्णय, (५) परिभाषण, (६) उपासना, (७) कृति, (८) श्रानन्द, (६) समय, (१०) परिग्रहन | ६१ |
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का० ६२-६३, सू० १०४-१०५ ] प्रथमो विवेकः
[ १७६ भाषणं काव्यसंहार-पूर्वाभाव-प्रशस्तयः । चतुर्दशाङ्गो निर्वाहः,
विशेषानुपादानात् सर्वाण्यप्येतानि प्रधानानि ॥६१॥ (१) अथ सन्धिः
[सूत्र १०४]-सन्धि/जफलागमः ॥६२॥ मुखसन्धौ न्यस्तस्य प्रारम्भावस्थाविषयीकृतस्य बीजस्य उद्घाटोन्मुख्याधैविकारैः फले फलागमावस्थायामागमन ढौकनं सन्धिः । यथा रत्नावल्याम--
__ वसुभूतिः-[ अग्निविद्रवानन्तरं सागरिकां निर्वर्ण्य ] बाभ्रव्य ! सुसहशीयं राजपुत्र्याः ।
बाभ्रव्यः--ममाप्येवमेव मनसि । इति ।
अत्र मुखे यदुप्त बीजं तन्निकटीभूतमिति । इदमङ्गमवश्यं निबन्धनीयम ॥६२।। (२) अथ निरोधः
[सूत्र १०५]-निरोधः कार्य मीमांसा । नष्टस्य कार्यस्य युक्तये यदन्वेषणं तनिरुद्धवस्तुविषयत्वान्निरोधः। यथा लितरामे लदमणेन बद्ध्वा पानीतो लवो यज्ञार्थं सीताप्रतिकृतिमुपकल्पितां रामसदसि दृष्ट वा स्वगतमाह
[सूत्र १०३ ख]-(११) भाषण, (१२) काव्योपसंहार, (१३) पूर्वभाव तथा (१४) प्रशंसा, निर्वहण [संधि] के ये चौदह अङ्ग होते हैं।
[अन्य संधियोंके समान इनमें गौण और मुख्यका] भेद न किए जानेसे ये सभी मुख्य प्रङ्ग हैं [इनमें कोई भी अङ्ग गौरण नहीं है] । ६१ ।
(१) अब 'संधि' [नामक निर्वहरणसंधिके प्रथम अङ्गका लक्षण प्रादि करते हैं][सूत्र १०४]-बीजका फल रूप तक पहुंचना ‘संधि' [नामक प्रङ्ग कहलाता है । ६२॥
मुखसंधिमें आरोपित प्रारम्भावस्था बीजरूपका, उद्घाटन-पोन्मुख्य प्रादि विकारों के द्वारा फल अर्थात् फल-प्राप्तिको अवस्थामें आ जाना अर्थात् पहुँच जाना 'संधि' [नामक अङ्ग कहलाता है। जैसे रत्नावलीमें
_ "वसुभूति-[अग्निदाहके उपद्रवादिके बाद सागरिकाको देखकर हे बाभ्रव्य ! यह तो राजपुत्रीके समान मालूम होती है। .
बाभ्रव्य-मेरे मन में भी यही बात है।
यहाँ मुखसंधिमें जिस [सागरिका प्राप्ति रूप] बोजका वपन किया गया था वह [प्राप्तिके अत्यन्त निकट पहुंच गया है । इस अङ्गकी रचना अवश्य ही करनी चाहिए।६२॥
(२) अब 'निरोध' [नामक निर्वहरणसंधिके द्वितीय अंगका लक्षण प्रादि कहते हैं]-- [सूत्र १०५]-कार्यका विचार करना 'निरोध' [कहलाता है।
विनष्ट कार्यके बनानेके लिए जो अनुसंधान करना वह निरुद्ध [विनष्ट] वस्तु-विषयक होनेसे 'निरोध' [कहलाता है। जैसे छलितराममें [अश्वमेधयज्ञका घोड़ा पकड़नेके कारण लक्ष्मण द्वारा बांधकर लाया हुआ लव. रामके सभा-भवनमें यज्ञके लिए बनाई हुई सीताकी सुवर्णमयी प्रतिमाको देखकर अपने मनमें कहता है
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१८० ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ६३, सू० १०६ "लव:--अये कमियमम्बा राजद्वारमागता । [उत्थाय सहसोपसृत्याञ्जलि बद्धवा] अम्ब ! अभिवादये। [निरूप्य] कथमियं काञ्चनमयी। [अपमृत्योपविशति, सर्वे परस्परमवलोकयन्ति] ।
रामः--[दृष्ट वा] वत्स ! किमियं तव माता। लवः-राजन् ! ज्ञायते सैवेयमस्मज्जननी, किन्त्वेषा देवी भूषणोज्ज्वला ।
[रामः सवाष्पं हस्ते गृहीत्वा समीपे उपवेशयति] । लक्ष्मण:--[सास्त्रम् ] आयुष्मन् ! किन्नामधेया सा देवानां प्रियस्य जननी।
लवः-तां खलु मातामहो अस्माकमभिधत्ते सीतेति । . लक्ष्मणः--[सवाष्पं रामस्य पादयोर्निपत्य] आर्य ! दिष्ट्या वर्धसे, सपुत्रा जीवत्यार्या ।"
अत्र नष्टय सीताजीवनकार्यस्य युक्त्या मीमांसेति । (३) अथ प्रथनम्
[सूत्र १०६]-ग्रथनं कार्यदर्शनम् । कायें मुख्यफलम् । अथ्यते सम्बध्यते व्यापारेण मुख्यफलमनेनेति प्रथनम् । यथा वेणीसंहारे
"भीमसेनः-पाञ्चालि ! न खलु मयि जीवति संहतेच्या दुःशासनविलुलिता वेणिरात्मपाणिना । तिष्ठतु तिष्ठतु स्वयमेवाहं संहगमि ।" इति ।
"लव-अरे, ये माताजी राजाके द्वारपर कैसे प्राई ? [उठकर और सहसा पास जाकर और हाथ जोड़कर-हे माताजी ! नमस्ते ! [देखकर] अरे यह तो सोनेकी है। [हटकर बैठ जाता है। सब लोग एक-दूसरेको देखने लगते हैं।
राम---[देखकर] हे वत्स ! क्या ये तुम्हारी माताजी हैं।
लव-हे राजन् ! ऐसा मालूम होता है कि ये हमारी वे माता ही हैं । किन्तु यह देवी तो भूषण धारण किए हुए है।
[रामचंद्र रोते हुए हाथ पकड़कर लवको पास बिठालते हैं। लक्ष्मण-[रोते हुए] प्रायुष्मन् ! तुम्हारी माताजीका क्या नाम है ? लव-उनको हमारे नानाजी सीता कहते हैं।
लक्ष्मण-[ रोते हुए रामचंद्रके पैरोंपर गिरकर ] पार्य, भाग्यसे प्रापकी वृद्धि है। मार्या [सीता] पुत्र सहित जीवित हैं।" -
यहाँ सीताके जीवनरूप विनष्ट हुए कार्यकी युक्ति द्वारा मीमांसा की है। [अतः यह निरोध नामक अङ्गका उदाहरण है] ।
(३) अब 'प्रथन' नामक निर्वहण संधिके तृतीय अङ्गका लक्षण आदि करते हैं]सूत्र १०६]-कार्यका दिखलाई देना 'प्रथन' कहलाता है।
कार्य अर्थात् मुख्य फल । जिस व्यापारके द्वारा मुख्य फल प्रथित.अर्थात् सम्बद्ध होता है वह 'प्रथन' [अङ्ग] है । जैसे वेणीसंहारमें
___ "भीमसेन हे पाञ्चालि ! मेरे जीवित रहते दुःशासनके द्वारा खींचे गए केशोंको अपने हाथसे मत बांधना । ठहरो-ठहरो, मैं स्वयं अभी बाँधता हूँ।"
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का० ६३, सू० १०७ ]
प्रथमो विवेकः
यत्र द्रौपदीकेशसंयमनकार्यस्य व्यापारेण ग्रथनमिति । (४) अथ निर्णय: .....
[स] १०७] - निर्णयोऽनुभवख्यातिः !
ज्ञेयेऽर्थे सन्दिद्दानं अप्रतिययमानं वा प्रति यदनुभवस्यानुभूतस्यार्थस्य निर्णयार्थ कथन तत् ज्ञेयार्थनिर्णयात् निर्णयः । यथा यादवाभ्युदये समुद्रविजयं प्रति"वसुदेवः -- [सप्रमोदम् ] देव ! मया कंसप्रतिभयेन कृष्णं गोकुले गोपयता यो महान क्लेशोऽनुभूतस्तस्य फलमिदानीमभूत् । किन्तु लोकपरिज्ञानभयेन यन्मया देवपादानामपि न विज्ञप्त तत्र देवेन क्षन्तव्यम् ।"
अत्र वसुदेवेन स्वानुभूतं कृष्णगोपनक्लेशं समुद्रविजयो बोधितः । यथा वा पुष्पदूतिके प्रकरणे
'किन्नामनक्षत्रोऽयं बालकः' इति समुद्रदत्तेन पृष्ठः सेनापतिः 'विशाखा नक्षत्रो ऽयं बालकः' इत्याह ।
समुद्रदत्तः श्रुत्वा पूर्वानुभूतं नन्दयन्तीसमागमं स्मरन्नाह - 'तदा किल नन्दयन्त्या पुष्टेन मया कथितं यथा-
एतौ तौ प्रतिदृश्येते चारुचन्द्रसमप्रभौ । ख्यातौ कल्याणनामानौ उभौ तिष्यपुनर्वसू |
तदाधानाद् दशमं जन्म नक्षत्रमिति ज्योतिःशास्त्रसमर्याविदो यद् ब्रुवते तदुपपन्नमेवेति ।
इसमें द्रौपदीके केशोंके बाँधनेक रूप कार्यका व्यापार द्वारा ग्रथन किया है ।
(४) अब 'निर्णय ' [ नामक निर्वहरणसंधिके चतुर्थ अङ्गका लक्षरण आदि करते हैं ] - [सूत्र १०७ ] - अनुभवका कथन करना 'निर्णय' [ कहलाता ] है ।
जानने योग्य अर्थके विषय में संदेहयुक्त या प्रज्ञानयुक्त व्यक्ति के प्रति जो निर्णयके लिए अनुभूत अर्थका कथन करना है वह, ज्ञेय अर्थका निर्णय करनेवाला होनेसे 'निर्णय' [कहलाता ] है । जैसे यादवाभ्युदयमें समुद्रविजयके प्रति वसुदेव कहते हैं
"वसुदेव -- [श्रानन्दके साथ ] देव कंसके भयके कारण कृष्णको गोकुलमें छिपाकर रखने में मैंने जो कष्ट उठाए उनका फल श्राज प्राप्त हो गया । किन्तु लोगोंको मालूम हो जानेके भय से जो मैंने श्रापको भी नहीं बतलाया उसके लिए श्राप क्षमा करें ।"
यहाँ वसुदेवने अपने अनुभूत कृष्णके छिपानेके क्लेशको समुद्र विजयको सूचना दी। श्रथवा जैसे पुष्पवृतिक [नामक ] प्रकरण में -- “ यह बालक किस नक्षत्र में उत्पन्न हुआ है" इस प्रकार समुद्रदत्त के द्वारा पूछे जानेपर सेनापति - "यह बालक विशाखा नक्षत्रमेका हैं" यह कहते हैं । इसको सुनकर समुद्रदत्त पूर्वानुभूत नन्दयंती के समागमको स्मरण करते हुए कहते हैं कि "उस समय नंदयंतीके द्वारा पूछे जानेपर मैंने उससे कहा था कि
चन्द्रमाके समान सुन्दर कांति वाले और प्रसिद्ध सुन्दर नामवाले ये दोनों तिष्य और पुनर्वसू के समान दिखलाई देते हैं ।
उसको ध्यान में रखनेसे ज्योतिःशास्त्र के पण्डित जो यह कहते हैं कि इनका जन्म-नक्षत्र दशम है सो ठीक ही है ।"
[ १८१
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१८२ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ६३, सू० १०८ (५) अथ परिभाषा
[सूत्र १०८] - परिभाषा स्वनिन्दनम् ॥ ६३ ॥ . स्वापराधोघट्टनं परिभाषा । यथा तापसवत्सराजचरिते वासवदत्तां प्रति"राजा-[ सास्रम् ] देवि ! किं ब्रवीषि
यथा तथा धृतप्राणं निःस्नेहं निरपत्रपम् ।
आनन्दामृतवर्षिण्या दृष्टयाप्यनुगृहाण माम् ।। यथा वा नलविलासे दमयन्ती प्रति नलः
"न प्रेम निहितं चित्त न चाचारः सतां स्मृतः ।
त्यजता त्वां वने देवि ! मया दारुणमाहितम् ।।" यथा वा राघवाभ्युदये रामः [स्वगतम् ]
"वैदेही हृतवांस्तदेष महत: संख्ये विषय क्लमान , चक्रोत्पाटितकन्धरो दशमुखः कीनाशदासीकृतः। प्राणान् यद्विरहेऽप्यहं विधृतवांस्तेन त्रपापांसुरं,
वक्त्रं दर्शयितु तथापि न पुरस्तस्या विलक्षः क्षमः ।।" एषु वत्सराज-नल-रामचन्द्राणां स्वापराधोद्घट्टनमिति । एतदङ्ग रजकत्वा. दत्रावश्यं निबन्धनीयम् ।
(५) अब 'परिभाषण' [नामक निर्वहरण संधिके पञ्चम अङ्गका लक्षण प्राविकहते हैं]--- अपनी निन्दा करना 'परिभाषण' [कहलाता है । ६३ ।
[सूत्र १०८]-अपने अपराधको प्रकाशित करना 'परिभाषा' [प्रङ्ग कहलाता है। जैसे तापसवत्सराज चरितमें वासवदत्ताके प्रति [राजा उदयन कहते हैं]
"राजा-रोते हुए] देवि ? क्या कहती हो
स्नेहरहित और निर्लज्ज, जैसे-तैसे अपने प्राण धारण करनेवाले मुझको तुम अपनी मानंदामृतको बरसानेवाली दृष्टिसे अनुगृहीत करो।"
अथवा जैसे नलविलासमें नल दमयंतीके प्रति [कहते हैं]
"मैंने [तुमको वनमें सोता छोड़कर जाते समय न तुम्हारे प्रेमका मनमें विचार किया पोर न सज्जन-पुरुषोंके प्राचारका। हे देवि ! तुमको वनमें छोड़कर मैंने अत्यंत निष्ठुरताका कार्य किया था।"
अथवा जैसे रामाभ्युदयमें राम [स्वगत कहते हैं] --
"इस [रावण ने वैदेहीका अपहरण किया था इसलिए युद्धमें नाना प्रकार के क्लेशोंको उठाकर चक्रसे गले काटकर उस रावणको यमराजका दास बना दिया। किन्तु तुम्हारे वियोग में भी जो मैं प्राण धारण किए रहा इस लज्जाके कारण मैं अपने मलिन मुखको तुम्हारे सामने दिखला नहीं पाता हूँ।"
इन [तीनों उदाहरणों] में [क्रमशः] वत्सराज, नल और रामचंद्र अपने-अपने अपराधों को प्रकाशित करते हैं [इसलिए ये 'परिभाषण' नामक प्रङ्गका उदाहरण हैं।
मनोरअंक होने के कारण इस अङ्गकी रचना अवश्य ही करनी चाहिए। कुछ लोग 'प्रापसमें बातचीतको परिभाषरण' कहते हैं। इसमें भी यही [वत्सराज,
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का०६४, सू० १८६ ] प्रथमो विवेकः
[ १८३ एके तु 'परिभाषा मिथो जल्प.' इति पठन्ति ।
अत्रापीदमेवोदाहरणमिति ॥६॥ (5) अथोपारित:
__ [सूत्र १०६]-सेवोपास्तिः । सेवा पर-प्रसत्तिहेतुर्व्यापारः । यथा वेणीसंहारे
"भीमः-[द्रौपदीमपुसृत्य] देवि पाञ्चालतनये ! दिष्ट चा वर्धसे रिपुकुलक्षयेण।"
अनेन, भीमेन द्रौपद्याः प्रसादितत्वात् पर्युपास्तिः । यथा वा रघुविलासे"रामः सविनयं सीतां प्रति]--
प्राणान यद्विरहेऽप्यहं विधृतवान् देवि ! प्रियप्राणितस्तत् क्षन्तव्यमशेषमेष समयः स्मेराक्षि ! नैव क्रुधाम् । सौमित्रेः कपिभर्तुरस्य च मनःप्रीत्यै तदेहि प्रिये,
हस्तिस्कन्धमलं कुरुष्व ननु ते पूर्ण प्रतिज्ञावधिः।" ___ अत्र रामस्य सीताप्रसत्तिहेतुापार:।
अन्ये त्वस्य स्थाने प्रियहिताचरणजनितां प्रसत्ति प्रसाद मङ्गमाहुः । यथा तापस वत्सराजे गृहीतपन्चालाधिपति रुमण्वन्तं यौगन्धरायणं च प्रति--- नल तथा रामचंद्र तीनोंकी उक्तियाँ] उदाहरण हैं । ६३ ।
(६). अब 'उपास्ति' [नामक निर्वहरणसंधिके षष्ठ अङ्गका लक्षण प्रादि कहते हैं[सूत्र १०६]-सेवा [का ही नाम] 'उपास्ति' [उपासना] है।
सेवा अर्थात् दूसरेको प्रसन्न करनेवाला व्यापार [उपासना उपास्ति कहलाता है जैसे वेणीसंहारमें
''भीम---[द्रौपदीके पास जाकर] हे देवि पाञ्चालतनये ! सौभाग्यसे शत्रुकुलके नाशसे तुम्हारी वृद्धि हो रही है।"
इसके द्वारा भीमके द्रौपदीको प्रसन्न करनेसे यह पर्युपासन [का उदाहरण] है । प्रथवा जैसे रघुविलासमें"राम [विनयपूर्वक सीताके प्रति]
हे देवि ! तुम्हारे विरहमें भी अपने जीवनका प्रेमी मैं जो प्रारण धारण किए रहा उस सबको क्षमा करो। हे स्मेराक्षि ! यह समय क्रोधका नहीं है । लक्ष्मण और इस वानरराज [सुग्रीव के मनको प्रसन्न करनेके लिए प्रानो हाथोकी पीठको अलंकृत करो। तुम्हारी प्रतिज्ञा को अवधि समाप्त हो चुकी है।"
यहाँ सीताको प्रसन्न करनेवाला रामका व्यापार है [अतः यह भी 'उपास्ति' नामक अङ्गका उदाहरण है।
___ अन्य लोग तो इस [उपास्ति] के स्थानपर प्रिय तथा हितके किए जानेके कारण [होनेवाली मनको] प्रसन्नता रूप 'प्रसाद' को अङ्ग कहते हैं । जैसे तापसवत्सराजमें पाञ्चालाधिपतिके पकड़ लिए जानेके बाद रुमण्वान और यौगंधरायणके प्रति --
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१८४ ।
नाट्यदपेणम् । का० ६४, सू० ११० "राजा--साधु सचिवाग्रेसर ! साधुः
श्लाघ्या धीर्धिषणस्य रावणवश यातः सुराणां पतिः, सर्व वेत्त्युशना रसातलमहाकालान्धकारे बलिः । इत्यस्माननपेक्ष्य वैरिविजयप्राप्तीजसोः के वयं,
स्तोतारः स्वयमेव वेत्तु युवयोर्लोकस्तयोश्चान्तरम् ॥" अत्र वत्सराजस्यामात्याभ्यां प्रियहिताचरण जनिता प्रसत्तिरिति । (७) अथ कृतिः
. [सूत्र ११०]-कृतिः क्षेमम् । लब्धस्य परिपालन क्षेमः । यथा रत्नावल्याम्
"वासवदत्ता-अय्यउत्त दूरे से णादिउलं । ता तधा करेसि जधा बंधुअरणं न सुमरेदि। [आर्यपुत्र दूरेऽस्या ज्ञातिकुलम् । तत् तथा कुर्याः यथा बन्धुजन न
स्मरति । इति संस्कृतम् ] ।" अनेन लब्धाया रत्नावल्याः स्थिरीकरणम् ।। अन्ये पुनरस्य स्थाने प्राप्तस्य प्रातिकूल्यशमन द्युतिमाहुः । यथा मुद्राराक्षसे"चाणक्यः-अमात्य राक्षस ! अपीष्यते चन्दनदासस्य जोवितम् ? राजा-साधु [शाबाश] सचिवोंमें अग्रगण्य साधु [शाबाश] -
वृहस्पतिकी बुद्धि बड़ी श्लाघनीय मानी जाती है किन्तु [वे जिन इंद्र के मंत्री हैं वह] इन्द्र [अपने शत्रु] रावणके वशमें फंस गया। [लोग कहते हैं] शुक्राचार्य सब-कुछ जानते हैं किन्तु वि जिनके मंत्री हैं वह] बलि पातालके महाअंधकारमें पड़ा है । इसलिए हमारी अपेक्षा के बिना ही वैरी [पाञ्चालराज] पर विजय प्राप्त कर लेनेके कारण अपरिमित पराक्रमशील प्राप दोनोंकी प्रशंसा करनेवाला मैं कौन होता हूँ, संसार स्वयं ही तुम्हारा और उन दोनों [अर्थात् वृहस्पति तथा शुक्राचार्य] के अंतरको समझले । [अर्थात् तुम दोनोंकी प्रतिभा बृहस्पति तथा उशना से कहीं अधिक है इसमें कोई संशय नहीं है।"
___इसमें [रुमण्वान तथा यौगंधरायण] दोनों अमात्योंके द्वारा किए गए [वैरिविजय तथा सागरिका संयोजन रूप] प्रिय तथा हितके कारण वत्सराजकी प्रसन्नता [का वर्णन है [प्रतः यह प्रसाद रूप अङ्गका उदाहरण है] ।
(७) अब 'कृति' [नामक निर्वहरणसंधिके सप्तम अङ्गके लक्षण प्रादि कहते हैं][सूत्र ११०]-क्षेमको कृति कहते हैं। प्राप्तकी रक्षा करना 'क्षेम' [कहलाता है। जैसे रत्नावलीमें
"वासवदत्ता--आर्यपुत्र ! इस [सागरिका के घरके लोग [माता-पिता] बहुत दूर रहते है। इसलिए प्राप ऐसा यत्न करें जिससे इसको बंधुजनोंकी याद न आवे ।"
इस [कथन] से प्राप्त रत्नावलीको स्थिर किया जा रहा है। [अतः यह लब्ध-परिपालन रूप 'क्षेम' अङ्गका उदाहरण है।
अन्य लोग तो इस [लब्ध-रिपालन रूप क्षेम] के स्थानपर प्राप्तके प्रतिकूलताके शमन रूप युतिको [अङ्ग मानते हैं । जैसे मुद्राराक्षसमें
"चाणक्य-अमात्य राक्षस ! क्या आप चंदनदासके जीवन की रक्षा को चाहते हैं ?
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का०६४, सू० ११० ] प्रथमो विवेकः
[ १८५ राक्षसः-मो विष्णुगुप्त.! कुतः सन्देहः । ___ चाणक्यः-अगृहीतशस्त्रेण भवता नानुगृह्यते वृषल इत्यतः सन्देहः । तद्यदि सत्यमेव चन्दनदासस्य जीवितमिष्यते गृह्यतामिदं शस्त्रम् ।
राक्षस:-विष्णुगुप्त ! मा मैवम्। अयोग्या वयमस्य । विशेषतस्त्वया गृहीतस्य ग्रहणे।
पुनर्बहु प्रशस्य राक्षसं चाणक्य आहचाणक्यः--किमनेन ? भवतः शस्त्रग्रहणमन्तरेण न चन्दनदासस्य जीवित
मस्ति ।
राक्षस:-नमः सर्वकार्यप्रतिपत्तिहेतवे सुहृत्स्नेहाय । न का गतिः । एष
गृह्णामि ।"
एतल्लब्धस्य राक्षसस्य साचिव्यग्रहणवामताप्रशमनाद् ा तिः । अपरे तु क्रोधादेः प्राप्तस्य शमन द्युतिमामनन्ति । यथा वेणीसंहारे"भीमसेनः-राजपुत्रि ! अलं मामवलोक्य त्रासेन
कृष्टा येनासि राज्ञां सदसि नृपशुना तेन दुःशासनेन |
स्त्यानान्येतानि तस्य स्पृश मम करयोः पीतशेषाण्य सृजि । राक्षस---हे विष्णुगुप्त ! [इसमें] क्या संदेह है ?
चाणक्य-शस्त्रको [मंत्रिपद को ग्रहण करके पाप वृषल [चंद्रगुप्त को अनुगृहीत नहीं कर रहे हैं इसलिए संदेह है। इसलिए यदि सचमुच ही चंदनदासके जीवनको [बचाना] चाहते हैं तो इस शस्त्र [मंत्रिपद को स्वीकार करो।
राक्षस-हे विष्णुगुप्त ! न-न, ऐसी बात मत करो। हम इसके योग्य नहीं हैं । और विशेषकर तुम्हारे द्वारा ग्रहण किए शिस्त्र या मंत्रिपद] के ग्रहण में । हम बिलकुल ही अयोग्य है।
फिर अनेक प्रकारसे राक्षसकी अत्यंत प्रशंसा करके चाणक्य कहता है---
चाणक्य----इस सबसे क्या लाभ ? [सीधी-सी बात यह है कि तुम्हारे शस्त्र ग्रहण [मंत्रिपदको स्वीकार किए बिना चंदनदासका जीयन नहीं बच सकता है।
राक्षस--[मित्रको रक्षाके लिए अनिष्ट कार्य भी स्वीकार ही करना पड़ता है इसलिए] सब कार्योंको स्वीकार करनेके हेतुभूत मित्र-स्नेहको नमस्कार है। और कोई मार्ग नहीं है । इसलिए इस [मंत्रिपद] को स्वीकार करता हूँ।
यह प्राप्त हुए राक्षसके सचिव पदके स्वीकार करने में विरोधका शमन है इसलिए पति [नामक ग्रंगका उदाहरण है।
अन्य लोग तो प्राप्त होनेवाले क्रोध प्रादिके शमनको 'द्युति' कहते हैं । जैसे वेणीसंहारमें-- "भीमसेन- हे देवि ! मुझको देखकर डरो मत ।
जिस नरपशु दुःशासनने राजाओंकी सभाके बीच तुमको [बाल पकड़कर] लींचा था, उसके पीनेसे बचे हए और हाथोंमें जमे हुए इस रक्तको कर देखो! और हे प्रिये ! मेरी गदासे जिसको जंघाएँ तोड़ गली गई हैं उस प्रकारके कौरवोंके राजा [बुर्योधन ] के
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१८६ ]
नाट्यदर्पणम् [ का०६४, सू० १११ कान्ते राज्ञः कुरूणामतिसरसमिदं मगदाचूर्णितोरोः, __ अङ्गाऽमृङ् निषिक्तं तव परिभवजस्यानलस्यास्तु शान्त्यै ॥" अत्र भीमेन द्रौपद्याः क्रोधोपशमः । तथा रत्नावल्याम
"देव श्रूयताम । इयं सिंहलेश्वरदुहिता सिद्धेनादिष्टा। योऽस्याः पाणि ग्रहीव्यति स सार्वभौमो राजा भविष्यति ।" इत्यादेरारभ्य
परिझातायाः स्वभगिन्याः सम्प्रति करणीये देवी प्रमाणम् ।" इति यावत् ।
अनेन स्वाजन्यावगमात् वासवदत्तायाः सागरिकां प्रति ईर्ष्या-कोपरय शमनमिति । (4) अथानन्दः
[सूत्र १११]-आनन्दो वाञ्छितागमः । प्रकारशतैर्वाग्छितम्यार्थस्य सामस्त्येन आगमः प्राप्तिः, आनन्दहेतुत्वात् प्रानन्दः।
यथा रत्नावश्याम"वासवदत्ता-[राजानमुपेत्य] अज्जउत्त पडिच्छ एदं ।
[आर्यपुत्र ! प्रतीच्छताम् । इति संस्कृतम् ] । राजा-[हस्तौ प्रसार्य] को देव्याः प्रसादं न बहु मन्यते ?
विदूषकः-ही ही भो जयदु भवं । णं पुहवी इदाणिं हत्थे भूद व्येव पियबिलकुल ताले रक्तको मैंने अपने प्रत्येक अंगमें मला हुआ है उससे तुम्हारे अपमानसे अन्य ताप को शांति होगी।"
इसमें भीम के द्वारा द्रौपदीके कोषका शमन है [प्रतः चुति का उदाहरण है] । पौर रत्नावलीमें
"हे देव ! सुनिए। इस सिंहलेश्वरकी पुत्रीके विषयमें सिद्धने कहा था कि जो कोई इसका पाणिग्रहण करेगा वह सार्वभौम राजा बनेगा।" यहाँसे लेकर
"अब पहिचानी हुई अपनी बहिनके विषयमें क्या करना चाहिए इस विषय में पाप ही प्रमाण है।" यहाँ तक।
इस प्रसंग] से [रत्नावलीको] अपनी बहिन जानकर सागरिकाके प्रति वासवदताको ईर्ष्या तथा कोषका शमन पाया जाता है [इसलिए यह चुतिका उदाहरण है] ।
(6) अब प्रानन्द [नामक निर्वहणसंषिके प्रष्ट अंगका लक्षण प्रादि करते हैं][सूत्र १११]-वाञ्छित अर्थको प्राप्ति 'मानन्द' [नामक अंग कहलाता है।
संकड़ों प्रकारोंसे वाञ्छित अर्थात् चाहे हुए प्रर्थका सम्पूर्ण रूपसे मागम मर्यात प्रालि मानन्दका कारण होनेसे 'मानन्द' [कहलाता है । जैसे रत्नावलीमें
"वासवरता-[राजाके पास जाकर आर्यपुत्र! इस [रत्नावली] को ग्रहण कीजिए।
राबा-हाथ फैलाकर देवीके प्रसादका कौन पावर नहीं करता है ? [इसलिए मैं देवीका प्रसाद समझकर रलावलीको स्वीकार करता हूँ।
विदूषक -ही-ही परे पापको विजय हो । ज्योतिषियोंके कपनके अनुसार रत्नावती
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का० ६४, सू० ११२-११३ ] प्रथमो विवेकः
[ १८७ वयस्सस्स इति । [ही ही भो । जयतु भवान् ननु पृथिवीदानी हस्ते भूतैव प्रियवयस्यस्य ।
इति संस्कृतम्।]" (8) अथ समयः
[सूत्र ११२]--समयो दुःखनिर्वासः । दुश्खनिर्गमयुक्तः कालः समयः । यथा मृच्छकट्यां चारुदत्तं, पालकस्य राज्ञ आज्ञया बध्यत्वेन चाण्डालगोचरगतं, तत्क्षणप्राप्तराज्यस्य आर्यकस्याज्ञया शालिक आइ
"शालिक:--अपयात अपयात जाल्माः ।[दृष्ट वा सहर्षम्] ध्रियते चारुदत्तः सह वसन्तसेनया । सम्पूर्णाः खल्वस्मत् स्वामिनो मनोरथाः ।
दिष्ट्या भो ! व्यसनमहार्णवादगाधादुत्तीर्णे गुणवृत्तया सुशीलवत्या। त्वामेव प्रियतमया युतं समीक्षे,
ज्योत्त्नाढ्य शशिनमिवोपरागमुक्तम् ।" अत्र चारुदत्तस्य दुःखापगम इति । (१०) अथ परिगृहनम्
[सूत्र ११३]-अद्भुताप्तिः परिगृहनम् ॥६४॥ का पाणिग्रहण कर लेनेके कारण] अब समझो कि सारी पृथिवी ही प्रिय वयस्कके हाथ में प्रा गई।
इसमें सागरिका रूप वाञ्छित अर्थको प्राप्ति हो जानेसे राजाको प्रत्यंत प्रानन्य हुमा। इस प्रकार यह मानन्द नामक अंगका उदाहरण है।
(९) अब 'समय' [नामक निर्वहरणसंधिके नवम अंगका लक्षण प्रादि करते हैं][सूत्र ११२]-दुःख [के विनों का निकल जाना 'समय कहलाता है।
दुःखके निकल जानेवाला काल 'समय' [नामक अंग कहलाता है। जैसे मृच्छकटिकमें राजा पालककी प्राज्ञासे वध किए जाने योग्य चारुदत्तके चाण्डालोंके हाथ में पहुँच जानेपर [सहसा हुई राज्यकांतिमें 'पालक' को हटाकर 'प्रार्यक' के राजा बन जाने पर उसी समय राज्यके ऐश्वर्य [अर्थात् राजसिंहासन को प्राप्त करनेकाले 'पार्यक' की माज्ञासे 'शालिक' कहता है--
"शालिक हटो चाण्डालो हटो। [देखकर हर्षपूर्वक] सौभाग्यसे वसंतसेनाके सहित चारुदत्त जीवित हैं । अब हमारे स्वामीके सब मनोरथ पूर्ण हो गए।
सौभाग्यवश गुणों से परिपूर्ण तथा सुन्दर शील स्वभाववाली [अपनी प्रियतमा वसंतसेना] के सहित [मार्य चारुवत्त] अपार दुःखसागरको पार कर चुके हैं अब मैं ग्रहणसे मुक्त चंद्रिकायुक्त चंद्रमाके समान तुमको भी अपनी] प्रियतमासे युक्त देखना चाहता हूँ।"
यहाँ चारुदत्तके दुःखकी समाप्ति हो जानेसे [यह 'समय' अंगका उदाहरण है। (१०) अब 'परिगृहन' [नायक निर्वहरणसंधिके दशम अंगका लक्षण प्राधिकरते है] । [सूत्र ११३]-~अद्भुत प्रर्थकी प्राप्ति परिगृहन' [कहलाता है।
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१८८]
नाट्यदर्पणम्
[ का० ६४, सू० ११३
विस्मयस्थायिभावात्मकस्य श्रद्भुतरसस्य प्राप्तिरुपगूह्नम् । यथा रामाभ्युदये रामेण प्रत्याख्याता सीता ज्वलनं प्रविष्टा । तदनन्तरं -
नेपथ्ये कलकलः -
धूमव्रात वितानीकृतमुपरि शिखादोर्भिरभ्रंलिहायैः, विद् भ्राजिष्णु रत्नं ततमुरसि तथा चर्म चामूरखं च । भूयस्तेजः प्रतानैर्विरह मलिनतां चालयन्नङ्कभाजो, देव्याः सप्तर्चिराविर्भवति विफलयन् वाच्छितान्यन्तकस्य ॥" ततः प्रविशति पटाक्षेपेण सीतामादाय वह्निः । सर्वे दष्ट वा संसम्भ्रममुत्थाय वयं श्रचर्यम् । नमो भगवते हुताशनाय इति प्रणमन्ति । " अत्राग्निप्रविष्टसीताप्रत्युज्जीवनात् अद्भुतप्राप्तिः । यथा वा रघुविलासे
T
" मध्येऽम्भोधि बभूव विंशतिभुजं रक्षो दशास्यं पुनस्तत् पाताल-मही-त्रिविष्टपभटांश्चक्राम दोर्विक्रमैः । मर्त्यस्तस्य पुनर्मृणालतुलया चिच्छेद कण्ठाटवीं, वैराग्यस्य च विस्मयस्य च पदं रामायणं वर्तते ॥
विस्मय जिसका स्थायीभाव है इस प्रकारके अद्भुत रसकी प्राप्ति 'परिग्रहन' [ कहलाता ] है । जैसे रामाभ्युदयमें रामके द्वारा [ प्रत्याख्यान अर्थात् ] अस्वीकार कर दिए जानेके बाद सीता प्रग्निमें प्रविष्ट हो जाती है। उसके बाद-
"नेपथ्य में कोलाहल [ और उसके साथ निम्न वचन सुनाई देते हैं ] --
प्रकाशको चुम्बन करनेवाली ज्वालारूप बाहुनोंसे धूमसमूहको वितान बनाकर, छाती पर चमकते हुए रत्नको तथा मृगचर्मको धाररण किए हुए अपने तेजः समुदायके द्वारा सीतादेवीके विरहको मलिनताकी दूर करते हुए से गोद में बैठी हुई सीतादेवीकी विरहजन्य मलिनताको दूर करते हुए बह्निदेव कालके मनोरथको विफल करके [सीता सहित ] प्रकट हो रहे हैं ।
उसके बाद सीताको लिए हुए, पटाक्षेपसे वह्निदेव प्रविष्ट होते हैं । सब लोग देखकर श्रादरपूर्वक खड़े होकर -- श्राश्चर्य है, श्राश्चर्य है । भगवान् श्रग्निदेवको नमस्कार है । यह कहकर प्रणाम करते हैं
13
यहाँ अग्नि में प्रविष्ट हुई सीताके फिर जीवित हो जानेसे श्रद्भुत रसकी प्राप्ति है [ अतः यह 'परिगृहन' नामक अंगका उदाहरण है ] ।
श्रथवा जैसे रघुविलासमें-
"बीस भुजाओं और दश शिरों वाला राक्षस [रावरण] समुद्रके बोचमें था किन्तु उसने भुजानोंके बलसे पाताल, पृथिवी और स्वर्ग सबको आक्रांत कर लिया था । फिर एक मनुष्यने उसके कण्ठोंके समुदाय को मृणालके समान [अनायास ही ] काट डाला। इस प्रकार रामायण [संसारके बल-वैभव आदि की व्यर्थताको दिखलानेके कारण] वैराग्य और विस्मय स्थान है ।"
[ यहाँ भी श्रद्भुत रसका वर्णन होनेसे 'परिगृहन' श्रङ्ग माना जाता है] ।
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का० ६४, सू० ११३ ]
प्रथमो विवेकः
[ १८६
पुष्पदूतिके तु निर्णयवर्जितानि सन्ध्यादीन्यंगानि परिगूहनान्तानि एकस्मिन्नेव श्लोके दृश्यन्ते । तथाहि"समुद्रदत्तः -- स्वप्नोऽयं । सेनापतिः न हि !
समुद्रदत्तः - विभ्रमो नु मनसः ? [१ सन्धिः ] 1. सेनापतिः -- शान्तम् !
समुद्रदत्तः —तदेषा त्रपा । [२ निरोधः ]
सेनापतिः -- जाया ते । [ ३ प्रथनम् ]
समुद्रदत्तः -- कथमङ्कबालतनया ? [४ परिभाषणम् ] सेनापतिः -- पुत्रस्तवायं ।
समुद्रदत्तः - मृषा । [५ द्युतिः]
सेनापतिः -- आलम्बाय न एष वेत्ति नियतं सम्बन्धमेतद्गतम् । [६ प्रसादः ] समुद्रदत्तः -- केनैतद् घटितं विसन्धि [७ आनन्दः ] सेनापतिः - - विधिना । [८ समयः ]
समुद्रदत्त:- [सुतरूपं दृष्ट्वा ] सर्वं समायुज्यते । [६ परिगृहनम् ] इति । ६४ |
पुष्पदृतिक में तो [निर्वहरणसंधिके अब तक वरिंगत इन दस श्रङ्गों मेंसे ] एक निर्णय को छोड़कर संधिसे लेकर परिगूहन पर्यन्त [ नौ प्रङ्ग ] एक ही इलोकमें दिखलाई देते हैं । जैसे-
'समुद्रदत्त - क्या यह स्वप्न है ?
सेनापति नहीं |
समुद्रदत्त तो क्या मनका भ्रम है ? [यहाँ तक संधि नामक प्रथम श्रङ्ग हुग्रा ] सेनापति-- नहीं नहीं [शांतम् ] ।
समुद्रदत्त तो क्या यह लज्जा है ? [यह निरोध नामक द्वितीय श्रङ्ग हुआ ] सेनापति - यह आपकी स्त्री है। [यह प्रथन नामक तृतीय श्रङ्ग हुआ ] समुद्रदत्त- तो इसकी गोद में छोटा बच्चा कैसे है ?
[ यह परिभाषरण नामक चतुर्थ हुआ ]
1
सेनापति - यह आपका पुत्र है समुद्रदत्त झूठ ! [ यह पाँचवाँ द्युति नामक ग्रङ्ग हुग्रा ]
सेनापति - [ इस पुत्रके] ग्रहरण करनेके लिए यह निश्चय ही इसके साथ अपने सम्बंध को नहीं जानता है । [यह छठा प्रसाद अङ्ग हुप्रा ]
समुद्रदत्त --इस टूटे सम्बन्धको किसने जोड़ दिया ? [ यह सातवाँ आनन्द श्रङ्ग है ]
सेनानति - देवने । [ यह आठवाँ अंग समय हुआ ]
समुद्रदत्त --- [पुत्रके रूपको देखकर ] सब कुछ हो सकता है ।
[यह 'परिगृहन' नामक नवम अंग हुआ ] इस प्रकार एक ही श्लोक में निर्वहरण संधिके नौ अंगोंका इकट्ठा समावेश इस श्लोक में दिखलाया गया है । इलोकके रूपमें इस संवादको इस प्रकार लिखा जायगा --
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१६० ]
(११) अथ भाषणम्
गृह्यते ।
नाट्यदर्पणम्
[ सूत्र ११४ ] - भाषणं सामदानोक्तिः ।
साम्नो वचन ददतश्च वचनम् । श्रभ्यामुपलक्षणपरस्वात् प्रियं हितं च
“यथा मृच्छकट्याम्-- आर्यकराजाज्ञया शार्बलिकश्चारुदत्तमाह-
त्वद्यानं त्र्यः समारुह्य गतस्ते शरणं पुरा ।
पशुवद् वितते यज्ञे इतस्तेनाद्य पालकः ॥
चारुदत्तः -- शार्बलिक ! किं योऽसौ राज्ञा पालकेन घोषादानीय निष्कारणं कूदागारे बन्धने बद्ध आर्यकनामा त्वया मोचितः ?
शार्वलिकः - सत्यम् । सिंहासनाधिरोहे अनुष्ठितमात्रे च तेन तब सुहृदा राज्ञा श्रर्यकेण उज्जयिन्यां च वेलातटे तुभ्यं राज्यमतिसृष्टम् । तत् प्रतिमान्यतां प्रथमः सुहृत्- प्रणयः । [पुनवेंसन्तसेनामाह] आर्ये वसन्तसेने ! राजा तवोपरि तुष्टो भवर्ती वधूशब्देन अनुगृह्णाति ।
वसन्तसेना -- श्रज्ज सव्वलिय कयत्थ हि ।
I
[ श्रार्य शालिक ! कृतार्थास्मि । इति संस्कृतम् ] । [पुनश्चारुदत्तमाह-आर्य ! किमस्य भिक्षोः क्रियताम् ?
"जो तुम्हारे रथपर चढ़कर प्राया था उस [ श्रार्यक] ने [पहिले
डाला ।
[ का० ६५, सू० ११४
स्वप्नोऽयं, न हि विभ्रमो नु मनसः, शान्तं, तदेषा त्रपा जाया ते, कथमंकबालतनया, पुत्रस्तवायं, मृषा । आलम्बायन एष वेत्ति नियतं सम्बन्धमेतद्गतम् केनैतद् घटित विसन्धि, विधिना, सर्वं समायुज्यते ||६४|| (११) अब 'भाषण' [नामक निर्वहरणसंधिके ग्यारहवें अंगका लक्षरण श्रादि करते हैं ][सूत्र ११४] साम-दानके वचन 'भाषण' [कहलाते ] हैं ।
सामका वचन श्रौर देते हुए [दान ] का वचन [ भावरण कहलाता है] । इनके उपलक्षरणमात्र होनेसे इनसे प्रिय तथा हित [ वचनका ग्रहण होता है । जैसे मृच्छकटिक में प्राक राजाकी प्राज्ञासे शालिक चारुदत्तसे कहता है
[राजा बननेसे पहिले छिपनेके लिए ] तुम्हारी शरणमें राजा ] पालकको विस्तृत यज्ञमें पशुके समान मार
चारुदत्त - शालिक ! क्या जिसको राजा पालकने प्रहीरों की बस्ती से लाकर बिना कारण ही तहखाने में कैद कर दिया था उस श्रार्यकको तुमने छुड़ा दिया ।
शालिक - - हाँ [ ठीक है । और सिंहासन पर बैठनेके साथ ही तुम्हारे उस मित्र राजा श्रार्यकने उज्जयिनी में वेलाके किनारे तुम्हें राज्य प्रदान किया है। इसलिए मित्रको इस प्रथम इच्छाको स्वीकार करो ।
ऊपर प्रसन्न होकर
[फिर वसंतसेनासे कहता है] प्रायें वसंतसेने ! राजा म् तुमको वधू पद [ अर्थात् चारुदत्तकी वधू पद] से सम्बोधित करते हैं । वासवदत्ता - प्रार्य शार्बलिक ! मैं अनुगृहीत हूँ ।
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का० ६५, सू० ११५ | प्रथमो विवेकः
[ १६१ चारुदत्तः-भिक्षो ! किं तव बहुमतम् ? भितु:--अणिच्चत्तणं पेक्खिय पव्वजा बहुमाणे संवुत्ते ।
[अनित्यत्वं प्रेक्ष्य प्रव्रज्याबहुमानः संवृत्तः । चारुदत्तः--सखे दृढोऽस्य निश्चयः। तत् पृथिव्यां सर्वविहारेषु कुलपतिः क्रियताम् ।
शालिकः--एवमेतत्। चारुदत्त.--प्रियं नः। वसन्तसेना--संपद जीविद मिह ।
[साम्प्रतं जीवितास्मि । इति संस्कृतम्] । शालिक:- स्थावरकस्य किं क्रियताम् ? चारुदत्तः--सुभृत्योऽयमदासोऽस्तु ।' शालिक:-एवं, यथा आह आर्यः।" अत्र साम्ना दानेन अन्यैश्च प्रियहितैरुक्तिः । अनयोः पृथगप्युक्तिनिबध्यते ।
इदप्यगमवश्यं निबन्धनीयमिति । (१२) अथ पूर्वभाव:---
[सूत्र ११५]–प्राग्भावः कृत्यदर्शनम् । यथा रत्नावल्याम्-- "योगन्धरायणः-एवं विज्ञाय भगिन्याः सम्प्रति करणीये. देवी प्रमाण । [शालिक]-[फिर चारुदत्तसे कहता है] प्रार्य ! इस भिक्षुका क्या किया आय ? चारुवत्त-हे भिक्षो ! कहिए पाप क्या चाहते हैं ? भिक्षु--[संसारको] अनित्यताको देखकर मुझे वैराग्य हो गया है।
चारुदत्त-हे मित्र ! इसका यह निश्चय दृढ़ है। इसलिए पृथिवीके सब बिहारोंका इनको कुलपति बना दो।
शालिक---यह ठीक है ऐसा ही होगा। चारुदत्त-यही हमें प्रिय है। वसंतसेना--अब मैं जीवित हुई [अब मेरी जानमें जान पाई] । शालिक--स्थावरकका क्या किया जाय ? खारुवत्त-- इस उत्तम सेवकको दासतासे मुक्त कर दो। शार्वलिक--जैसा आर्य कहते हैं वैसा ही होगा।
इसमें सामसे, दानसे और अन्य प्रकारोंसे प्रिय उक्तियां हैं। इन दोनोंका अलग-अलग कथन भी किया जाता है । इस अंगको भी अवश्य ही निवड करना चाहिए।
(१२) अब 'पूर्वभाव' [नामक निर्वहरणसंधिके बारहवें प्रङ्गका लक्षण मावि करते हैं]
[सूत्र ११५]--कार्य [अर्थात् मुख्य फल] का दर्शन करना या कराना] प्राग्भाव [या पूर्वभाव कहलाता है । जैसे रस्नावली में
"यौगंधरायण--इस सबको जानकर प्रब अपनी बहिनके लिए क्या करना चाहिए इसमें पाप ही प्रमारण हैं।
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१५२ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ६५, सु० ११५ वासवदत्ता-फुडं य्येव किन्न भणासि पडिवाहेदि से रयणमालं ति । [स्फुट मेव किन्न भणसि प्रतिपादयास्मै रत्नावलीमिति ।
__ इति संस्कृतम् ]।" अत्र 'वत्सराजाय रत्नावली दीयताम्' इति कार्यस्य यौगन्धरायणाभिप्रायानुप्रविष्टस्य वासवदत्तया दर्शनम् ।
यथा वा यादवाभ्युदये
"युधिष्ठिरः-देव ! कृष्णोऽयं भारतार्धचक्रवर्ती नवमो वासुदेव इति मुनयः सन्ति ।
समुद्रविजयः-जाने भारतार्धराज्ये - कृष्णमभिषेक्तु मामुत्साह यति महाराजः।
युधिष्ठिरः--एतदेव देवस्य जरासन्धवधप्रयासफलम् ।" इति । अत्र युधिष्ठिराभिमतं कृष्णराज्याभिषेककार्य समुद्रविजयेन दर्शितम् ।
मुखसन्ध्याधु क्तवाक्यसदृशवाक्यदर्शनम् पूर्ववाक्यं अंगमस्य स्थाने केचिदामनन्ति ।
यथा मुद्राराक्षसे
"चाणक्यः [पुरुषं प्रति]-इदं च वक्तव्यो विजयो दुर्गपालः । अमात्यराक्षसदर्शनप्रीतो देवश्चन्द्रगुप्तः समाज्ञापति, विना हस्तिभ्यः क्रियतां सर्वबन्धनमोक्ष इति। अथवा अमात्यराक्षसे नेतरि किं हस्तिभिः प्रयोजनम् ?
वासवदत्ता-स्पष्ट रूपसे क्यों नहीं कहते हो कि रत्नावली इन [उदयन] को दे दो।"
यहाँ यौगंधरायणके अभिप्रायके भीतर अनुप्रविष्ट 'रत्नावलीको वत्सराजको दे दो' इस [मुख्य कार्यका वासवदत्ताके द्वारा वर्शन है [अतः यह पूर्वभावका उदाहरण है] ।
अथवा जैसे यादवाभ्युदयमें---
"युधिष्ठिर--देव ! मुनि लोग कहते हैं कि वसुदेवके नवम पुत्र यह कृष्ण भारतके प्राधे भागके चक्रवर्ती राजा होंगे।
___ समुद्रविजय-जान पड़ता है कि कृष्णको प्राधे भारतके राज्यपर अभिषिक्त करनेके लिए महाराज मुझको उत्साहित कर रहे हैं।
युधिष्ठिर--यही अापके जरासंधके वध करानेके प्रयासका फल है।"
यहां युधिष्ठिरके अभिमत कृष्णके राज्याभिषेक कार्यको समुद्रविजयने दिखलाया है [इसलिए यह पूर्वभाव अङ्गका उदाहरण है।
कुछ लोग इस [पूर्वभाव अङ्ग] के स्थानपर मुखसंधि आदिमें कहे गए वाक्यके सदृश वाक्यके [पुनः] दर्शन रूप पूर्ववाक्य नामक प्रङ्गको मानते हैं।
जैसे मुद्राराक्षसमें
"चाणक्य--[पुरुषके प्रति] पौर दुर्गपाल विजयसे यह भी कहो कि अमात्य राक्षसके दर्शनसे प्रसन्न हुए देश चन्द्रगुप्त प्राज्ञा देते हैं कि हाथियोंको छोड़कर शेष सभी बंधन वालों को मुक्त कर दो। प्रयया अमात्य रामसके नेता हो जाने पर प्रव हाथियोंको भी क्या प्रावश्यकता है?
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प्रथमो विवेकः
विना वाहनपोताभ्यां मुच्यतां सर्वबन्धनम् । पूर्णप्रतिज्ञेन मया केवलं बध्यते शिखा ॥”
अत्रमुखे यदुपक्षिप्तम्- 'बध्यः को नेच्छति शिखां मे' इति तदेव भंग्यन्तरे उपन्यस्तमिति ।
उद्देशोक्तसंज्ञातः संज्ञान्तरेण यल्लक्षणविधानं सर्वत्र तच्छन्दोनुरोधादिति । (१३) अथ काव्यसंहारः
[ सूत्र ११५ ] - वरेच्छा काव्य संहारः ।
--
का० ६५, सू० ११५ ]
ईप्सितं दातुमभिलाषो वरेच्छा । तज्जनितो 'भूयः किं ते प्रियमुपकरोमि ' इति प्रश्न इत्यर्थः । स च ग्रहीतरि अप्रतीच्छति, प्रतीच्छति च सम्पादयितुभूयसीमिच्छां दर्शयितुं निबध्यते । तत्र सति सर्वस्मिन्नेवेप्सिते सम्पन्ने प्रस्तुतं काव्यमेव संह्रियते इति ' काव्यसंहारः' ।
यथा 'कृत्यारावणे' सीतारक्षणे रामस्य प्रिये हिते च महति कर्मणि कृतेऽपि - असन्तुष्यन् अग्निंराह
[ १६३
वाहन तथा पोत [ जहाज ] को छोड़कर अन्य सबके बंधनोंको खोल दिया जाय । प्रतिज्ञापूर्ण हो जानेके काररण केवल मैं अब अपनी चोटी को बाँधता हूँ ।"
इसमें मुखसंधिमें जो यह जो कहा था कि 'बधके योग्य कौन व्यक्ति मेरी शिखाको बंधने नहीं देना चाहता है उसीको प्रकारान्तरसे फिर कहा गया है [ इसलिए यह पूर्ववाक्य रूप श्रङ्गका उदाहररण है ] ।
निर्वहरण - सन्धिके चौदह अंगोंके नाम गिनाते समय पूर्वभाव नामसे बारहवें अंगका निर्देश किया गया था। 'प्राग्भाव' नामके किसी अंगका उल्लेख उद्देश - कारिकाओं में नहीं किया गया था । किन्तु यहाँ लक्षरण करते समय 'पूर्वभाव' का लक्षण न करके 'प्राग्भाव' का लक्षण किया गया है । यह 'प्राग्भाव' 'पूर्वभाव' का ही दूसरा नाम है । श्लोक में 'पूर्वभाव' शब्दका प्रयोग छंदकी दृष्टिसे ठीक नहीं बैठता था इसलिए ग्रंथकारने उनके स्थानपर 'प्राग्भाव' शब्दका प्रयोग कर दिया है । इसी बातको ग्रंथकार अगली पंक्ति में लिखते हैं-
उद्देश [काल ] की संज्ञाको छोड़कर अन्य नामसे लक्षरणका कथन करना सर्वत्र छन्दके अनुरोधसे किया गया है।
(१३) अब 'काव्य संहार' नामक निर्वहलसंधिके तेरहवें श्रृङ्गका लक्षण प्रादि कहते हैं ][सूत्र ११५] वर [ प्रदान करने] की इच्छा काव्यका उपसंहार [कहलाता ] है ।
प्रभीष्ट वरको प्रदान करनेका प्रभिलाष वरेच्छा [ कहलाता ] है । उससे उत्पन्न 'तुम्हारा और कौनसा प्रिय कार्य करू" इस प्रकारका प्रश्न [काव्यसंहार कहलाता है ] यह अभिप्राय है । वह (१) गृहीताके द्वारा ग्रहण न करनेपर और (२) प्रथमा स्वीकार करने पर देनेवालेकी और अधिक इच्छाको दिखलानेके लिए [दो कारणोंसे] निबद्ध किया जाता है। उस [बर प्रदानके] होनेके बाद समस्त कामनाओंके पूर्ण हो जानेसे काव्य ही समाप्त हो जाता है इसलिए [ इसको ] 'काव्यसंहार' [ कहा जाता ] है ।
जैसे कृत्यारावरण में रामके प्रिय तथा हित सीतारक्षरण रूप महान कार्यके कर चुकने पर
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१६४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ६५, सू० ११५ "अग्निः--वत्स ! उच्यतां किं ते भूयः प्रियमुपकरोमि ? रामः-भगवन् ! अतः परमपि प्रियमस्ति ? इति ।" यथा वा 'यादवाभ्युदये"युधिष्ठिरः—देव ! किमतःपरं प्रार्थ्यते यदूनाम् ? समुद्रविजयः-[साश्चम् ] किमतः परमपि प्रार्थनीयमस्ति ?
त्रातो घोषभुवां विधृत्य मधुजित् , कंसः क्षयं लम्भितः, सम्प्रत्येव विनिर्मितं मगधभूभतु: कबन्धं वपुः । पादाक्रान्तमजायतार्धभरत तद् ब्रूहि नः किं परं ?
श्रेयोऽस्मादपि पाण्डवेश ! पुनरप्याशास्महे यद्वयम्॥" अनयोरप्रनिगृहीते वरे काव्यसंहारः । तथा इन्दुले खायां नाटिकायां राज्ञी नायिकामिन्दुलेखामाह
"ईदिसीए तुह इमाए कुलाणुसरिसीए सीलसंपत्तीए संमुहीकदस्स मे हिदयस्स उववन्नो य्येव समुचिदाए पडिवत्तीए अयं अवसरो, ता मम य्येव पियं करिती वरेसु जं ते समी हिदं।
[ईदृश्या तवानया कुलानुसदृश्या शीलसम्पत्त्या सम्मुखीकृतस्य मे हृदयस्य उपपन्न एव समुचितया प्रतिपत्त्या अयमवसरस्तत् ममैव प्रियं कुर्वन्ती वृणुष्व यत् ते समीहितम् । इति संस्कृतम् ] ।
नायिका-ईदिसस्स देवीपसायस्स न दाव अधियं सरिसं किं पि भविस्सदि, जं वरइस्सं । तधा वि को देवीए पसादाणं पज्जतकामो? ता पियदसणं मे पसादीकरेदु देवी। भी संतुष्ट न होकर अग्नि [रामसे] कहता है
"अग्नि-वस्स ! कहो तुम्हारा और क्या प्रिय करू? राम-भगवन् ! क्या इससे भी अधिक प्रिय हो सकता है।" [यह वरको स्वीकार न करनेके रूपमें 'काव्यसंहार की रचना की गई है। अथवा जैसे यादवाभ्युदयमें-- "युधिष्ठिर-देव ! यदुवंशियोंकेलिए इससे अधिक और क्या चाहते हैं ? समुद्रविजय [प्राश्चर्य-सहित] क्या इससे भी अधिक प्रार्थनीय हो सकता है ?
अहीरोंके यहां रखकर कृष्णकी रक्षा कर ली, कंसका नाश कर दिया और अभी मगधराज [जरासंध] के शरीरको [सिर काटकर] कबंध [धड़मात्र बना दिया, भाषा भारत देश अपने अधीन हो गया, तो हे पाण्डवराज ! बतलाइए कि इससे अधिक और क्या कल्याण हो सकता है जिसकी हम कामना करें ?"
इन दोनों [उदाहरणों] में वरके स्वीकार न करने में 'काव्यसंहार' हुमा हैं। और इन्दुलेखा नाटिकामें रानी नायिका इन्दुलेखासे कहती है
"रानी-तुम्हारी अपने कुलके अनुरूप इस प्रकारको शील-सम्पत्तिसे प्रसन्न हुए मेरे हृदयमें उपयुक्त विश्वाससे यह अवसर प्राप्त हुआ है इसलिए मेरे ही प्रिय कार्यको करती हुई जो तुम्हारी इच्छा हो वह वर मांग लो।
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का० ६५, सू० ११५ ) प्रथमो विवेकः
[ १९५ ईशस्य देवीप्रसादम्य न तावदधिक सदृशं किमपि भविष्यात यद्वरिष्यामि। तथापि को देव्याः प्रसादानां पर्याप्तकामः ? तत् प्रियदर्शनां मे प्रसादीकरोतु देवी। इति संस्कृतम् ] । राज्ञी-बाढं पडिवादिदा।
बाढ प्रतिपादिता । इति संस्कृतम्] । नायिका-महंतो पसादो। [स्वगतम् ] संपदं पमज्जिय भुजि सभावं पियदंसणाए इच्छा-गुरूव-नेहस्स अणुसरिसं ववहरिरसं ।
[महान् प्रसादः । साम्प्रतं प्रमाय॑ भुजिष्यभावं प्रियदर्शनाया इच्छा-गौरवस्नेहस्यानुसदृशं व्यवहरिष्ये । इति संस्कृतम् ] ]
अत्र वरस्य प्रतिग्रहः । इति ।
इदमङ्गमवश्यं निबन्धनीय प्रशस्तिनान्तरीयकत्वादिति । (१४) अथ प्रशस्ति:--
[सूत्र ११६]-प्रशस्तिः शुभशंसना ॥६५॥ जगतः कल्याणशंसना प्रशस्तिः। तच नायकस्तदात्यो वा पठति । यथा कृत्यारावण--- "रामः-तथापीदमस्तु
यथायं मम सम्पूर्णश्चिन्तितार्थो मनोरथः । एवमभ्यागतो रङ्गः सर्वपापैः प्रमुच्यताम् ॥
अपि च-- नायिका- इस प्रकारके देवीके प्रसादसे अधिक और कुछ नहीं हो सकता है जिसका मैं सरण करू । फिर भी देवीके प्रसादसे किसको तृप्ति होती है इसलिए [मैं यह वर मांगती हूँ कि देवी प्रियदर्शनाको मुझे प्रसाद रूपमें प्रदान करें।
रानी-अच्छा दे दी।
नायिका-बड़ी कृपा है । [अपने मनमें] अब प्रियदर्शनाके दासीभावको दूर करके उसके साथ उसकी इच्छा, गौरव और स्नेहके अनुरूप [इसके साथ] व्यवहार करूंगी।"
इसमें वरको स्वीकार किया गया है।
इस [काव्यसंहार रूप] अङ्गको [अगले] प्रशस्ति नामक प्रङ्ग] से अविनाभूत होनेके कारण अवश्य ग्रथित करना चाहिए।
(१४) अब 'प्रशस्ति' [नामक निर्वहरणसंधिके चौदहवें प्रङ्गका लक्षण प्रादि करते हैं] - [सूत्र ११६]--कल्याणको कामना प्रशस्ति [कहलाती है ।
संसारके कल्याणको कामना 'प्रशस्ति' [कहलाती है। उसको नायक प्रथवा कोई अन्य [पात्र] पढ़ता है । जैसे कृत्यारावरणमें--
"राम-फिर भी येह हो कि
जिस प्रकार विचारित अर्थ के विषय में मेरा यह मनोरथ पूर्ण हुमा इसी प्रकार [नाट्यावलोकनार्थ] पाए हुए सब सामाजिक सब प्रकारके दुःखों [पापैः] से मुक्त हो जावे ।
पौर भी
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१६६ ]
नाट्यदर्पणम्
का० ६५, सू० ११६ निरीतयः प्रजाः सन्तु सन्तः सन्तु चिरायुपः ।
प्रथन्तां कवयः काव्यः सम्यग् नन्दन्तु मातरः।" यथा वा यादवाभ्युदये"युधिष्ठिरः-तथाप किमपि मो वयम--
कल्याणं भूर्भुवः स्वः प्रसरतु, विपदः प्रक्षयं यान्तु सर्वाः, सन्तः श्लाघां भजन्तामपचयमयतां दुर्मतिदुर्जनानाम् । धर्मः पुष्णातु वृद्धि सकल यदुमनः कैरवा रामचन्द्रः,
प्राप्य स्वातन्त्र्यलक्ष्मी मुदमथ वहतां शाश्वती यादवेन्द्रः।।" इयं चावश्यं निवन्धनीया । तथा इतिवृत्तान्तभूता चेयम् । तेनारयाः पृथगगणने चतुःपपिरपि अङ्गसंख्या भवति ।।
सन्धि निध-ग्रथन - पूर्वभाव - काव्यसंहार - प्रशस्तिभ्योऽन्यांगानां शेषसन्धिष्वपि कार्यवशतो निबन्धः । अत्रापि च स्वेच्छया नियोगः । एतानि निर्वहणसन्धेश्चतुर्दशाङ्गानि ।
सर्वसन्धीनां चांगानि इतिवृत्ताविच्छेदार्थमुपादीयन्ते । इतिवृत्तस्याविच्छेदश्व रसपुष्टयर्थः । विच्छे दे हि स्थाय्यादेस्त्रांट तत्वात कुतम्त्यो रसास्वादः ? ततो रसविधानकतानचेतसः कवेः प्रयत्नान्तरानपेक्षं यदंगमुज्जम्भते, तदेवोपनिबद्धं सहृदयानां
प्रजागरण [अतिवृष्टिरनावृष्टिः मूषकाः शलभाः शुकाः। प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः ॥ इन छः प्रकार को] ईतियोंसे रहित हो, सज्जन लोग चिरायु हों और कविगणोंके काव्योंकी अभिवृद्धि हो, तथा माताएँ पूर्णरूपसे प्रानन्दित हों। [यह जगतकी कल्याण कामना प्रशस्ति कहलाती है।"
अथवा जैसे यादवाभ्युदयमें-- "युधिष्ठिर-फिर भी हम कुछ कहते हैं कि
भूः भुवः स्वः [सब लोकों में कल्याणका प्रसार हो, सारी विपत्तियोंका विनाश हो, सज्जन पुरुषोंकी प्रशंसा हो, और दुर्जनोंकी दुर्मतिका ह्रास हो, धर्म वृद्धि को प्राप्त हो, सब यादवोंके मनोरूप करवोंको आह्लादित करनेवाले चन्द्र के समान यादवेन्द्र स्वातन्त्र्य लक्ष्मीको प्राप्त कर चिरस्थायी आनन्दको प्राप्त हों।"
. इस [प्रशस्ति नामक अङ्ग] को रचना अवश्य ही करनी चाहिए। और यह कथावस्तु के अन्तर्गत भी होती है इसलिए इसकी गणना न करनेपर [ पूर्वोक्त ६५ अङ्गोंके स्थानपर केवल ] अङ्गों की संख्या केवल चौंसठ रह जाती है ।
_ [निर्वहरणसंधिके १. संधि, २. निरोध, ३. ग्रथन, ४. पूर्वभाव, ५. काव्यसंहार और ६. प्रशस्ति, इन [छ ] अङ्गों को छोड़कर अन्य अङ्गोंका कार्यवशसे शेष संधियों में भी प्रयोग हो सकता है । और यहाँ [अर्थात् निर्वहण संधिमें भी अपनी इच्छाके अनुसार प्रयोग हो सकता है। ये चौदह निर्वहरणसंधिके अङ्ग हैं।
सभी संधियों के अङ्ग कथाभागके अविच्छेद के लिए ही निबद्ध किए जाते हैं। और कथावस्तुका अविच्छेद रसको परिपुष्टि के लिए होता है। [कथावस्तुका] विच्छेद हो जानेपर तो स्थायिभाव आदिका भी विच्छेद हो जानेसे रसका प्रास्वादन कैसे हो सकेगा? इसलिए
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का० ६५, सू० ११६ ] प्रथमो विवेकः
[ १६७ हृदयमानन्दयति । अङ्गानि च स्थायि-विभावानुभाव-व्यभिचारिरूपाणि द्रष्टव्यानि । अमीषां च स्वसन्धी सन्ध्यन्तरे च योग्यतया निबन्धः। योग्यतां च रसनिवेशैकव्यवसायिनः प्रबन्धकवयो विदन्ति, न पुनः शब्दार्थग्रथनवैचित्र्यमानोन्मदिष्णवो मुक्तकवयः।
तेन एकमप्यंगं रसपोषकत्वादेकस्मिन्नपि सन्धौ द्विस्त्रिा निबध्यते । यथा वेणीसंहारे सम्फेट-विद्रवी पुनः-पुनर्दर्शितौ वीर-रौद्ररसावुद्दीपयतः । रत्नावल्यां च विलासः पुनः-पुनरुक्तः शृङ्गारमुल्लासयति । अतः परमपि निबन्धस्तु वैरस्यमावह तीति ।
तथांगद्वयेन साध्यं यदा एकनैव सिद्धयति तदेकमेव निबध्यते । यथा श्रीभीमदेवसूनोः वसुनागस्य कृती प्रतिमानिरुद्ध परिकरांर्थस्य उपक्षेपेणैव गतत्वात् न तन्निबन्धः।
एवमंगत्रयेणापि । यथा भेज्जलविरचिते राधाविलम्भे रासकांके परिकर. परिन्यासयोरुपक्षेपेणैव गतत्वान्न तन्नियन्धः । एवं परस्परान्तर्भावे चतुरङ्गोऽपि कापि सन्धिर्भवति । रसके विधानमें ही सर्वात्मना लगे हुए कविके अन्य प्रयत्नकी अपेक्षाके बिना [स्वाभाविक रूप से] जो अङ्ग उद्भूत होता है उसकी रचना ही सहवयोंको आनन्द प्रदान करती है [कृत्रिम रूपसे प्रयत्नपूर्वक सन्निविष्ट अङ्गोंको रचना उस प्रकार पाहावदायिनी नहीं होती है] मङ्ग स्थायिभाव, विभाव, अनुभाव, व्यभिचारिभाव प्रावि रूप होते हैं। इनका अपनी सन्धिमें [अर्थात् जिस-जिस सन्धिमें उनके नाम गिनाए गए हैं उस-उस सन्धिमें] तथा अन्य संधियोंमें योग्यताके कारण हो सन्निवेश किया जाता है, और उनकी योग्यताको केवल रसका सन्निवेश करनेमें तत्पर प्रबन्ध-काग्योंके निर्माता कवि ही समझते हैं। केवल शब्द और प्रर्थकी रचना-वैचित्र्यसे ही उन्मत्त हो जानेवाले मुक्तक [निर्माता] कवि नहीं समझ सकते हैं ।
इसलिए [अर्थात् योग्यता के प्राधारपर हो] रसका परिपोषक होनेपर एक ही प्रङ्ग एक ही सन्धिमें दो या तीन बार भी निबद्ध किया जाता है। जैसे वेणीसंहारमें सम्फेट तथा विद्रव अङ्गके बार-बार प्रदर्शित किए जाकर वीर तथा रौद्र रसको पुष्ट कर रहे हैं। पौर रत्नावलीमें विलास नामक प्रङ्ग बार-बार निबद्ध होकर श्रृंगाररसको परिपुष्ट करता है। इससे अधिक [अर्थात् जहाँ तक उससे रसका परिपोष होता है उससे अधिक या दो-तीन बार से अधिक रखनेपर तो विरसताको प्रकट करनेवाला हो जाता है [इसलिए किसी अङ्गका प्रत्यधिक सन्निवेश नहीं करना चाहिए ।
[इसके विपरीत] जब वो अङ्गोंके द्वारा साध्य कार्य एक ही अङ्गाके द्वारा हो सकता हो तब एक हीकी रचना की जाती है। जैसे श्री भीमदेवके पुत्र वसुनागको प्रतिमानिरुद्ध रचनामें [मुखसंधिके] परिकर [अंगके] के कार्यको उपक्षेप [अंग] के द्वारा ही सिद्धि हो जाने से उस [परिकर] को अलग रचना नहीं की गई है।
इसी प्रकार तीन अंगोंके द्वारा [साध्य कार्य जब एक ही अंगके द्वारा सिद्ध हो सकता है तब उस अंगके अतिरिक्त शेष दो अंगोंकी रचना नहीं की जाती है । जैसे भेज्जल विरचित राधाविप्रलम्भ नामक रासकांकमें परिकर तथा परिन्यास [इन दो अंगों के उपक्षेपके द्वाराही
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१६८ ]
नाट्यदपणम् । का० ६५, सू० ११६ अत्रान्तरे च केचिदेकविंशति सन्ध्यन्तराणि स्मरन्ति
साम भेदस्तथा दण्डो दानं च वध एव च । प्रत्युत्पन्नमतित्वं च गोत्रस्खलितमेव च ॥ साहसं च भयं चैव भी- या क्रोध एव च ।
ओजः संवरणं भ्रान्तिस्तथा हेत्वधारणम् ॥
दूतो लेखस्तथा स्वप्नश्चित्रं मद इति स्मृतः । इति । एषु च केषांचित् सामादीनां स्वयमंगरूपत्वात् , केषांचिन्मत्यादीनां व्यभि. चारिरूपत्वात् , दूत-लेखादीनामितिवृत्तरूपत्वात् , अन्येषामुपक्षेपाद्यन्तर्भावाच्च न पृथग लक्षण-प्रयासः। तथाहि गर्भसन्धौ साम-दानादिरूपसंग्रहोऽङ्गम् । मत्यादयो व्यभिचारिषु लक्षयिष्यन्ते । दूत-लेखादीनामितिवृत्तरूपता दृश्यते । तया उदात्तराघवे हेत्वधारणात्मा उपक्षेपः । प्रतिमानिरुद्ध स्वप्नरूपः । रामाभ्युदये भयात्मा । वेणीसंहारे क्रोधात्मा। एवमन्येष्वप्यंगेष्वन्तर्भावः कीर्तनीय इति ॥६॥
इति श्रीरामचन्द्र-गुणचन्द्रविरचितायां स्वोपशनाट्यदर्पणविवृतौ नाटकनिर्णयः प्रथमो विवेकः ॥ १॥ गतार्थ हो जानेसे उन दोनोंकी रचना नहीं की गई है। इस प्रकार एक-दूसरेके भीतर प्रङ्गोंका समावेश हो जानेपर [ कभी-कभी ] केवल चार प्रङ्गोंका भी [कोई ] सन्धि हो जाता है।
अन्य प्राचार्योके मतका खण्डन
इस प्रसंगमें [हमारे प्रतिपादित पांच संधियोंके अतिरिक्त ] कुछ लोग २१ संधियों और मानते हैं। [उनके नाम निम्न प्रकार हैं
१. साम, २. भेव, ३. वण्ड, ४. वान, ५. बष, ६. प्रत्युत्पन्नमतित्व, ७. गोत्रस्खलित ८. साहस, ६. भय, १०.धी अर्थात् बुद्धि, ११. माया, १२. कोष, १३. मोज, १४. संवरण, १५. भ्रान्ति, १६. हेत्ववधारण, १७. दूत, १५. लेख, १६. स्वप्न, २० चित्र तथा २१ मद।
[इन २१ संषियोंको भी कुछ लोग मानते है किन्तु इनमेंसे साम प्रादि कुछके स्वयं अंग रूप होनेसे, मति मावि किन्हींके व्यभिचारिभावरूप होनेसे, दूत लेख प्राविक कथावस्तु रूप होनेसे, और अन्योंके उपक्षेप प्रादि रूप होनेसे उनके प्रलग लक्षण करनेका प्रयत्न हमने नहीं किया है। जैसेकि गर्भसंधिमें साम, दान रूप संग्रह नामक अंग माया है। मति मादिके लक्षण व्यभिचारिभावोंमें किए जावेंगे। दूत लेख प्रादि कथा-भाग रूप ही होते हैं। और उदात्त राघवमें उपक्षेप [अंग] हेत्वषारण रूप है। प्रतिमानिल्डमें [उपक्षेप.अग] स्वप्न रूप है । रामाभ्युदयमें [उपक्षेप] भय रूप है। और वेणीसंहारमें क्रोषरूप [उपोप है।[प्रतएव इन अनेक संषियोंके उपक्षेपमें अन्तर्भूत हो जानेसे उनको भी अलग कहनेकी मावश्यकता नहीं है] इसी प्रकार अन्य प्रगों में भी [इन २१ संषियोंका] अन्तर्भाव समझ लेना चाहिए। [अतः इन संषियोंको मानना उचित नहीं है ।
श्री रामचन्द्र गुणचन्द्रविरचित स्वनिर्मित नाट्यदर्पण की विवृतिमें नाटक-निर्णय-नामक प्रथम विवेक पूर्ण हुभा ॥१॥
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अथ द्वितीयो विवेकः
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अथ द्वितीयो विवेकः
अथ 'नाटक' प्रकरणं च' इत्यतो नाटक' लक्षयित्वा प्रकरणं लक्ष्यतेअथ नाट्यदर्पण - दीपिकायां द्वितीयो विवेकः ।
विवेक - सङ्गति
प्रथम विवेकके प्रारम्भमें तीसरी तथा चौथी कारिकामें ग्रन्थकारने बारह प्रकार के रूपकों का उद्देश्य अर्थात् नाममात्रेण कथन किया था। उनमें सबसे पहिला स्थान 'नाटक' का और उसके बाद दूसरा स्थान 'प्रकरण' का था । इसलिए प्रथम विवेकके शेष भाग में नाटकके लक्षरण श्रादिका विस्तारपूर्वक विवेचन किया था। मुख्यरूपसे नाटकका ही विवेचन होने से प्रथम विवेकका नाम ग्रन्थकारने 'नाटक-निर्णय' रखा है । रूपकोंमें नाटक ही सबसे मुख्य है इसलिए उसके लक्षण प्रादिका विस्तारपूर्वक विवेचन करनेमें एक पूरा विवेक (अध्याय) लगाया गया है । अब इस द्वितीय विवेकमें प्रकरण प्रादि शेष ग्यारह प्रकार के रूपक भेदों का विवेचन किया जाएगा। इसलिए ग्रन्थकारने इस 'विवेक' का नाम 'प्रकरणाचेकादशरूपकनिर्णय:' रखा है । इन शेष एकादश रूपकों में प्रथम और सबसे मुख्य स्थान 'प्रकरण' का है । इसलिए इस विवेकका आरम्भ प्रकरण के निरूपण से ही करते हैं । [सूत्र ११७] 'नाटकं प्रकरणं च' इस [रूपक भेवोंका उद्देश्य अर्थात् नाममात्रसे करने वाली कारिकामें गिनाए हुए रूपकभेदों] मेंसे [प्रथम विवेकमें प्रथम रूपक भेद ] नाटकका लक्षरण करके [ द्वितीय रूपक भेव] अब 'प्रकरण' का लक्षरण करते हैं
'प्रकरण' का लक्षण
'प्रकरण' का लक्षण करते हुए ग्रन्थकार मुख्य रूपसे 'नाटक' से उसके भेदों का प्रदर्शन करेंगे । 'समानासमानजातीयव्यवच्छेदो हि लक्षणार्थ:' इस नियमके अनुसार समान जातीय तथा असमान जातीयसे भेद करना ही 'लक्षण' का प्रयोजन है । इसलिए 'प्रकरण' का लक्षरण करते समय उनके समान जातीय 'नाटक' से भेद दिखलाना श्रावश्यक है । इस भेदप्रदर्शनके द्वारा ही 'प्रकरण' का लक्षण पूर्ण बनता है । अतः 'प्रकरण' का लक्षरण करने वाली इन दो कारिकाओं में 'नाटक' से उसका भेद दिखलाते हुए ही 'प्रकरण' का लक्षण किया गया है ।
'नाटक' से 'प्रकरण' का मुख्य भेद कथावस्तुके स्वरूपके विषय में है । 'नाटक' की आख्यानवस्तु इतिहास प्रसिद्ध होती है । किन्तु 'प्रकरण' की श्राख्यान वस्तुमें कल्पनाकी प्रधानता रहती है । नाटक 'ख्याताद्यराजचरितं पूर्ववर्ती इतिहास प्रसिद्ध राजानोंके चरित को प्रस्तुत करता है किन्तु 'प्रकररण' 'कल्प्यनेतृ-फल- वस्तूनां' कल्पित नेता, फल तथा वस्तु के प्राधारपर स्थित होता है । इनका दूसरा भेद यह है कि 'नाटक' राजचरितपर भवसम्बित होता है तो 'प्रकरण' वणिक्, विप्र, अथवा सचिव चरित्रोंके प्राधारपर निर्मित
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२०२ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ६६-६७, सू० ११७ [सूत्र ११७] प्रकरणं वरिणग्-विप्र-सचिवस्वाम्यसकरात् ।
मन्दगोत्राङ्गानं दिव्यानाश्रितं मध्यचेष्टितम् ॥ १[६६]॥ दास-श्रेष्ठि-विटयुक्तं क्लेशाढतच्च सप्तधा।
कल्प्येन - फल-वस्तूनामेक-द्वि-त्रि-विधानतः ॥२ [६७]॥ होता है। परिणक, विप्र अथवा सचिवमेंसे कोई भी 'प्रकरण' का नायक हो सकता है । किन्तु एक 'प्रकरण' में इनमेंसे एक ही नायक होगा। इन तीनोंमेंसे 'सचिव' पदका अर्थ 'राज्यचिन्तक' किया गया है। राज्यचिन्तकमें मुख्य रूपसे 'ममात्य' प्राता है किन्तु मुख्य अमात्यके अधीन ही. सेनाविभाग भी रहता है और सेनापति भी राज्यकी चिन्ता करने वाला प्रमुख अधिकारी है इसलिए उसका भी ग्रहण इस पदसे किया जा सकता है। इस प्रकार सेनापति तथा अमात्य दोनोंका ग्रहण 'सचिव' पदसे होता है। इनमें से सेनापति तथा अमात्य ये दोनों धीरोदात्त नायक माने जाते हैं। पौर विप्र तथा वणिक ये दोनों धीरप्रशान्त नायक माने जाते हैं। प्रर्थात् 'प्रकरण में मुख्य रूपसे धीरोदात्त तथा धोरप्रशान्त नायक ही होते हैं। धीरोद्धत प्रादि नहीं। कोई-कोई प्राचीन माचार्य अमात्यको धीरप्रशान्त नायक मानते हैं। और 'प्रकरण' को धीरप्रशान्त-नायक वाला रूपक मानते हैं। किन्तु अन्धकार इस सिद्धान्तसे सहमत नहीं है । उनके मतमें प्रमात्य धीरोदात्तनायक होता है। विप्र पौर वणिक् धीरप्रशान्त नायक होते हैं। इसलिए 'प्रकरण' का नायकं धीरोदात्त भी हो सकता है और धोरप्रशान्त भी।
'नाटक' और 'प्रकरण' का. तीसरा भेद यह है कि 'नाटक में दिव्य पात्र भी नायकके सहायक-रूपमें उपस्थित हो सकते हैं। किन्तु 'प्रकरण' में दिव्य पात्रोंका प्रवेश नहीं हो सकता है । नाटक 'दिव्याङ्गम्' और 'प्रकरण' 'दिव्यानाश्रितम्' है । अर्थात् 'नाटक' में अंगरूपमें, नायकके सहायक रूपमें, दिव्य पात्रोंका उपयोग हो सकता है। प्रकरण' में नहीं। इसका मुख्य कारण 'प्रकरण' का 'क्लेशाढ्यम्' क्लेश-प्रधान होना है। दिव्य पात्र सुख-प्रधान होते हैं । और 'प्रकरण' के पात्र दु:खाढ्य होते हैं । इसलिए 'प्रकरण' में दिव्य पात्रोंका प्रवेश उचित नहीं माना गया है । 'नाटक' और 'प्रकरण' के इन मुख्य भेदोंको ध्यानमें रखते हुए ही ग्रन्धकार दो कारिकामों में 'प्रकरण' का लक्षण इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं
वणिक, विप्र तथा सचिव इनमेंसे अलग-अलग किसी एक नायकसे पुक्त, मन्द [मध्यम] कुलकी नायिका बाला, विध्य पात्रोंका माश्रय न लेनेवाला, मन्द-बेष्टामोंसे युक्त-॥१[१६] ॥
दास, श्रेष्ठी और विटोंसे परिपूर्ण, एवं क्लेश-प्रधान [रूपक 'प्रकरण' [कहलाता है। और वह नेता, फल, तथा वस्तुप्रोंमेंसे एक-दो प्रथवा तीनके कल्पित होनेके विधान के अनुसार सात प्रकारका होता है ।। २ [६७] ॥
__इस ६४ वीं कारिकाके अन्त में ग्रंथकारने नेता, फल तथा वस्तुके कल्पित होनेके माधारपर 'प्रकरण' के सात भेद दिखलाए हैं। नायक, फल तथा वस्तु इन तीनके कल्पित होनेके आधारपर 'प्रकरण' के जो सात भेद बनाए गए हैं वे, उनमें एक, दो, या तीनोंकी कल्पनाके कारण बन जाते हैं। तीनों में से किसी एकके कल्पित होने के कारण तीन भेद होंगे। फिर दो-दो के कल्पित होनेपर भी तीन भेद बनेंगे । इस प्रकार छः भेद हुए । मोर
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का० ६६-६७, सू० ११७ ] द्वितीयो विवेक :
[ २०३ प्रकर्षेण क्रियते कल्प्यते नेता फलं वस्तु वा समस्त-व्यस्ततयाऽत्रेति 'प्रकरणम्। प्रसिद्धत्वात् लक्ष्यमनूय लक्षणं विधीयते । वाणिजः क्रय-विक्रयकृतः । विप्राः षट्कर्माणः । सचिवो राज्यचिन्तकः । अयं वणिग-विप्रयोर्मध्यपात्यपि धीरोदात्त-धीरप्रशान्तौ प्रकरणे नेतारौ भक्त इति प्रतिपादनार्थ पृथगुपात्तः । यस्त्वमात्यं नेतारमभ्युपगम्य धीरप्रशान्तनायकमिति 'प्रकरणं' विशेषयति स वृद्धसम्प्रदाय-वन्ध्यः । सातवां भेद उन तीनोंके कल्पित होनेपर बनेगा। इस प्रकार 'प्रकरण' के सात भेद हो जाते हैं। इसको और अधिक स्पष्ट करने के लिए इन भेदोंको निम्न प्रकार दिखलाया जा सकता है:
एकके कल्पित होनेपर तीन भेद : १. केवल नायकके कल्पित होनेपर प्रथम भेद । २. केवल फलके कल्पित होनेपर द्वितीय भेद । ३. केवल पाख्यान-वस्तुके कल्पित होनेपर तृतीय भेद । दो-दो के कल्पित होनेपर तीन भेद : ४. नायक और फलके कल्पित होनेपर चतुर्थ भेद । ५. नायक और वस्तुके कल्पित होनेपर पञ्चम भेद । ६. फल और वस्तुके कल्पित होनेपर षष्ठ भेद । तीनोंके कल्पित होनेपर एक भेद : नायक, फल, तथा वस्तु तीनोंके कल्पित होनेपर सप्तम भेद ।
इस प्रकार 'प्रकरण' के सात भेद दिखलाए माने गए हैं। इनमें से जहाँ नायक, फल, तथा भाख्यान-वस्तु तीनों कल्पित होते हैं वह 'प्रकरण' सर्वथा कल्पित होता है। जहां एक या दोकी कल्पना की जाती है वहाँ शेष दो या एक भाग इतिहासाश्रित होते हैं यह समझना चाहिए । कवि जिस भागकी कल्पना करता है वही 'प्रकरण' का मुख्य भाग होता है । 'प्रकरण' का चमत्कार उसी भागमें निहित होता है । 'प्रकरण' की इसी कल्पनाकी प्रधानताको दिखलानेकेलिए ग्रन्थकार 'प्रकरण' पदका निर्वचन करते हुए इन कारिकाओं की व्याख्या प्रारम्भ करते हैं
जिसमें नायक, फल, अथवा पाख्यानवस्तु अलग-अलग [एक-एक अथवा दो-दो) अथवा सब [अर्थात् तीनों प्रकृष्ट रूपसे किए जाते अर्थात् कल्पित किए जाते हैं वह 'प्रकरण' [कहलाता है। [यह प्रकरण' शब्दका निर्वचन होता है। उससे हो 'प्रकरण' की कल्पनाप्रधानता सूचित होती है । लक्ष्य [अर्थात् 'प्रकरण]' के प्रसिद्ध होनेसे [कारिकाके प्रारम्भ में सबसे पहले प्रयुक्त 'प्रकरण' इस पदसे] उसका अनुवाद करके [कारिकामोंके शेष भाग में] लक्षण किया गया है। [भागे लक्षणभागमें पाए हए वरिण मादि पदोंकी व्याख्या करते हैं] क्रय-विक्रय करने वाले वाणिक कहलाते हैं। [१ अध्ययन २ अध्यापन, ३ यमन, ४ याजन, ५ दान देना और ६ प्रतिग्रह अर्थात् बान लेना इन] छः कोको करने वाले 'विप्र' कहलाते हैं। राज्यको चिन्ता करने वाला 'सचिव' [कहलाता है। यह [सचिव वरिपक तथा विपके अन्तर्गत हो जानेपर भी [मर्थात क्षत्रिय राजा होता है और शूद्र सेवक । वे दोनों सचिव नही होते हैं। इसलिए वणिक या विप्रमेंसे ही सचिव होता है अतः उन दोनोंके मध्यंपाती होनेपर भी], धीरोदात्त [सचिव अथवा धीरप्रशांत [विप्र]
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२०४ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० ६६-६७, सू० ११७
यदाहु:
'सेनापतिरमात्यश्च धीरोदात्तौ प्रकीर्तितौ' इति ।
'संकरात्' इति व्यक्तिभेदेन वणिगादयो नेतारः । न पुनरेकस्यामेव प्रकव्यक्तौ समवकारादिवत् त्रयोऽपि ।
'प्रकरण' के नेता होते हैं इस बात के प्रतिपादनके लिए अलग कहा गया है। जो 'प्रमात्य' को नायक मानकर धीरप्रशांत-नायक वाला रूपक 'प्रकरण' होता है इस प्रकार [' प्रकरण' को ] विशेषित करते हैं वे वृद्ध-सम्प्रदायको नहीं समझते हैं। [प्रर्थात् वे प्राचीन प्राचायोंकी परम्परा के विपरीत बात करते हैं। क्योंकि प्राचीन प्राचार्योंके मतानुसार श्रमात्य या सचिव धीरप्रशांत नहीं अपितु धीरोदात नायक होता ] है ।"
जैसा कि कहा भी है
सेनापति और श्रमात्य धीरोदात्त [ नायक ] माने जाते हैं ।
इस अनुच्छेद में 'विप्राः षट्कर्माणः 1' यह जो लिखा गया है वह मनु आदि स्मृतिकारोंकी व्यवस्था के आधारपर लिखा गया है । 'मनुःस्मृति' में ब्राह्मणों के छः कर्म निम्न प्रकार गिनाए गए हैं
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ मनुः
कारिका में आए हुए 'असंकरात्' पदकी व्याख्या करते हैं । उसका प्राशय
तीनों नायक हो सकते हैं किन्तु
यह है कि यद्यपि 'प्रकरण' में विप्र, अमात्य तथा वरिण उनका संकर नहीं होना चाहिए। अर्थात् एक 'प्रकरण' में इनमें से एक ही नायक होना चाहिए। एक ही 'प्रकरण' में तीनों नायक नहीं हो सकते हैं । 'समवकार' आदिमें तो एक ही 'समवकार' में अनेक नायक भी हो सकते हैं । किन्तु एक 'प्रकरण' में अनेक नायक नहीं हो सकते हैं यह बात ग्रन्थकारने 'असंकरात्' पदसे सूचित की है। इसी बातको भगली पंक्ति में लिखते हैं
'असंकरात्' इस [प] से [ यह सूचित किया है कि 'प्रकररण' में] व्यक्तिभेद से [अर्थात् अलग-अलग 'प्रकररंग' में अलग-अलग ] वणिक् प्रादि नायक हो सकते हैं। 'समयकारदि के समान एक ही 'प्रकररण' [रूप व्यक्ति ] में तीनों [नायक] नहीं [हो सकते हैं] ।
आगे कारिका के 'मन्दगोत्राङ्गनम्' पदका अर्थ करते हैं । इस पदको दो प्रकारकी व्याख्या की गई है । पहली व्याख्या में 'मन्द' पदको 'गोत्र' पदका विशेषण मान कर 'मन्द गोत्रा' अर्थात् नीचकुलोत्पन्ना वेश्यादि 'प्रकरण' की नायिका होती है यह प्रथं किया है । और दूसरी व्याख्या में पहले 'गोत्र' पदका 'अंगना' पदके साथ समास करके, फिर 'मन्द' पद को 'गोत्रांगना' पदका विशेषरण बनाया है । इस प्रक्रिया से 'मन्दा' अर्थात् निकृष्ट श्राचरण वाली 'गोत्रांगना' अर्थात् 'स्ववंशोत्पन्ना' अर्थात् नायकके समान गोत्रकी नायिका 'प्रकरण' में होती है यह अर्थ किया है । अर्थात् 'प्रकरण' में कहीं नीचकुलजा वेश्या आदि और कहीं स्वकुलोत्पन्ना, और कहीं दोनों प्रकारकी नायिकाएँ होती हैं । इसीलिए साहित्यदर्पणकार ने 'प्रकरण' के लक्षण में लिखा है :
'नायिका कुलजा क्वापि, वेश्या क्वापि, द्वयं क्वचित्' । सा० द० ६-२२६ ।
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का० ६६-६७, सू० ११७ ]
द्वितीयो विवेकः
[ २०५
'मन्दगोत्रा' मन्दकुला, अंगना नायिका यत्र । यद्वा 'मन्दा' मन्दवृत्ता, गोत्रांगना यत्र । अत एवात्र नायिकौचित्येन नायकोऽपि मन्दगोत्र एव । एवं च पुष्पदूतिके अशोक दत्तादिशब्दाकर्णनेन समुद्रदत्तस्य नन्दयन्त्यां या व्यलीकशंकोपनिबद्धा, सा न दोषाय । परपुरुषसम्भावनाया निर्वहणं यावदत्रोपयोगात् । अपरथा उत्तमप्रकृतीनां श्वशुरेण वध्वाः, पुत्रे दूरे स्थिते निर्वासन, निर्वासितायाश्च शबरसेनापतिगृहेsaस्थानमनुचितमेव ।
'मन्दगोत्रा' अर्थात् मध्यम कुलकी 'अंगना' अर्थात् नायिका जिसमें हो । अथवा 'मन्दा' अर्थात् मध्यम श्राचरण वाली 'गोत्राङ्गना' प्रर्थात् कुलजा नायिका जिसमें हो [ वह 'प्रकरण' कहलाता है]। इसीलिए नायिकाकी अनुरूपता के कारण नायक भी मध्यम कुल का ही होता है । इसलिए 'पुष्पदूतिक' में 'प्रशोकदत्त' आदिके शब्दको सुन कर 'समुद्रदत्त' की 'नन्दयन्ती' के चरित्रके विषय में जो शंका वरिणत की गई है वह दोषाधायक नहीं है । क्योंकि यहाँ निर्वहण सन्धि- पर्यन्त परपुरुष [ के साथ 'नन्दयन्ती' के सम्बन्ध ] की सम्भावनाका उपयोग [दिखलाई देता ] है । प्रन्यथा उत्तमप्रकृति वाले लोगों में पुत्रके बाहर दूर गए होने पर श्वशुरके द्वारा पुत्रबधूका घरसे निष्कासन, और निकाल दिए जानेपर [ पुत्रबधू er] शर-सेनापति घरमें रहना [जो कि इस 'पुष्पदृतिक' 'प्रकररण' में दिखलाया गया है वह ] अनुचित ही हो जाएगा [ उसकी संगति तब ही लगती है जब उसके नायक तथा नायिका प्रादिको उत्तम प्रकृतिका न मान कर मध्यम- प्रकृति माना जाए ] ॥
इसका अभिप्राय यह है कि उत्तम प्रकृतिकी नायिकाके प्रति कभी परपुरुष सम्बन्ध की शंका आदि नहीं की जा सकती है । 'पुष्पद्वतिक' की नायिका 'नन्दयन्ती' के प्रति उसके श्वशुरको परपुरुष सम्बन्धको शंका उत्पन्न हो गई थी इसलिए उसने पुत्रबधूको घर से निकाल दिया था । इसपर यह शंका होती है कि जैसे 'पुष्पदूतिक' की नायिकाके चरित्र के विषय में शंका हो गई थी, इसी प्रकार 'वेणीसंहार' में दुर्योधनको भी अपनी पत्नी भानुमती के चरित्रके विषय में शंका हो गई थी। तो क्या भानुमती और दुर्योधनकी गणना भी मध्यम प्रकृति के नायक नायिकामें की जानी चाहिए ? श्रथवा उनको उत्तम वर्गके नायकनायिका में ही गिनना चाहिए। इस शंकाका ग्रन्थकार यह समाधान करते हैं कि 'वेणीसंहार' में जो भानुमती के प्रति शंकाका वर्णन किया गया है वह अनुचित है । वे दोनों उत्तम प्रकृति के नायक-नायिका हैं । प्रत एव भानुमतीके चरित्रके प्रति शंकाका वर्णन नाटककारको नहीं करना चाहिए था ।
किया गया है । दुर्योधनकी
वेणीसंहारके द्वितीय अंक में इस घटनाका उल्लेख रानी भानुमतीने युद्ध के प्रारम्भ होनेके पूर्व एक दिन रातको एक बहुत बुरा स्वप्न देखा था । उसकी शान्तिकी व्यवस्था करानेकेलिए वह एकान्त में आनी सखियोंको उस स्वप्न को सुना रही है । इसी बीचमें दुर्योधन उस स्थानपर पहुँच जाता है और छिपकर उनकी बातें सुनने लगता हैं | स्वप्न में भानुमतीने यह देखा था कि किसी नेवलेने सौ साँपों को मार डाला है । यह सौ संख्या कौरवोंके साथ सम्बद्ध हो जाती है इसलिए उसे सौ भाइयों सहित दुर्योधन के प्रनिष्टको शंका हो गई थी। इसी स्वप्नको वह सखियोंको सुना रही है । उसमें नेवले के लिए 'नकुल' शब्दका प्रयोग किया गया है । इसको सुन कर दुर्योधनको माद्रीपुत्र
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२०६ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ६६-६७, सू० ११७ उत्तमप्रकृतीनां राज्ञां तु कुलस्त्रियां व्यलीकसम्भावना दुर्योधनस्येव भानुमत्यामनुचितैव ।
वणिगमात्य विप्राश्च स्ववर्गापेक्षयैवोत्तमाः, न राजापेक्षया। एतदर्थमेव च मन्दशब्देन गोत्रं विशेषितम् । प्रकरणे हि नायको व्युत्पाद्यश्च मध्यमप्रकृतिरेव । नकुल के साथ भानुमतीके अनुचित सम्बन्धकी आशंका हो गई है । उस प्रसंगके शब्द जिन्होंने दुर्योधनके मनमें इस प्रकारकी शंकाको उत्पन्न किया निम्न प्रकार है
"भानुमती-ततोऽहं तस्यातिशयितदिव्यरूपिणो नकुलस्य दर्शनेनोत्सुका जाता हतहदया च । तदुझित्वा तदासनस्थान लतामंडपं प्रवेष्टुमारब्धा ।
दुर्योधनः--[सवैलक्ष्यमात्मगतम् ] किं नामातिशयितदिव्यरूपिणो नकुलस्य दर्शनेनोत्सुका जाता हतहृदया च । तत्किमनया पापया माद्रीसुतानुरक्तया वयमेवं विप्रलब्धाः । [सोत्प्रेक्षम् इयमस्मत् २-१० इति पठित्वा] मूढ दुर्योधन ! कुलटाविप्रलभ्यमात्मानं बहुमन्यमानोऽधुना किं वक्ष्यसि । [किं कराठे २-६ इति पठित्वा दिशोऽवलोक्य] अहो एतदर्थमेवास्याः प्रातरेव विविक्तस्थानाभिलाष: सखीजनकथासु च पक्षपातः । दुर्योधनस्तु मोहादविज्ञातबन्धकीह्रदयसारः क्वापि परिभ्रान्तः। प्राः पापे! मत्परिग्रहपांसुले
तद् भीरुत्वं तव मम पुरः साहसानीदृशानि, श्लाघा सास्मद्वपुषि विनयव्युत्क्रमेऽप्येष रागः । तच्चौदार्य मयि जडमतौ चापले कोऽपि पन्थाः,
ख्याते तस्मिन् वितमसि कुलेऽजन्यकौलीनमेतत् ॥ २-११ सखी-ततस्ततः ? भानुमती-ततः सोऽपि मामनुसरन्नेव लतागृहं प्रविष्टः । उभे-ततस्ततः? भानुमती-ततस्तेन सप्रगल्भप्रसारितकरेणापहृतं मे स्तनांशुकम् । उभे-ततस्ततः ?
भानुमती-तत आर्यपुत्रस्य प्रभातमंगलतूर्यरवमिश्रेण वारविलासिनीजनसंगीतरवेण प्रतिबोधितास्मि ।
इस प्रकरणमें भानुमतीके स्वप्न-दर्शनके वृत्तान्तका जो वर्णन किया गया है उससे दुर्योधनको भानुमतीके चरित्रके विषयमें शंका हो जाना स्वाभाविक था। किन्तु अन्तमें जब उसको यह मालूम हुआ कि यह स्वप्नका वर्णन है तब स्वयं ही उसकी शंका का निवारण भी हो गया। किन्तु ग्रन्थकारका कहना यह है कि उस उत्तम प्रकृतिके नायकनायिकाके विषयमें इस प्रकारकी शंकाका होना भी उचित नहीं है। इसलिए कविका यह वर्णन मनुचित है। इसी बातको वे प्रागे लिखते हैं
उत्तम प्रकृतिके राजानोंमें तो, कुलस्त्रीके प्रति भानुमतीके विषयमें दुर्योधन द्वाराको गई शंकाके समान, दुश्चरित्रताको सम्भावना का वर्णन] भी अनुचित ही है। [प्रत एव 'वेणीसंहार' का यह प्रसंग अनुचित ही है।
वरिणग् अमात्य और विप्र अपने-अपने वर्गको दृष्टिसे ही उत्तम हो सकते हैं । राजाको
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का० ६६-६७, सू० ११७ ] द्वितीयो विवेकः
[ २०७ . 'दिव्यानाश्रितम्' इति दिव्यैरनाश्रितम् । नाटके हि अंगत्वेन दिव्यो भवति । प्रकरणे तु तथाभावोऽपि नेष्टः । तस्य सुखबाहुल्येनाल्पदुःखत्वात् । अपरथा दिव्यत्वमेव हीयते ।
मध्यं सर्वोत्तम-हीनप्रकृत्ययोग्यं चेष्टितं विहार-व्याहार-वेष-सम्भोगादिको व्यापारो यत्र । तेन कल्पितवृत्तत्वेऽप्यस्य न राजोचितान्तःपुरादिसम्भोगः । कन्चुकिप्रभृतिभृत्यवर्गो वा । न चाधमपात्रसम्भोगादिर्वा निबन्धनीयः । तथा च वेश्यायां नायिकायां विनयरहितमपि चेष्टितं निबध्यते । यथा विशाखदेवकृते 'देवीचन्द्रगुप्ते' माधवसेनां समुद्दिश्य कुमारचन्द्रगुप्तग्योक्तिः
आनन्दाश्रुजलं सितोत्पलमचोराबध्नता नेत्रयोः, प्रत्यंगेपु वरानने पुलकिषु स्वेदं समातन्वता । कुर्वाणेन नितम्बयोरुपचयं सम्पूर्णयोरप्यसौ,
केनाप्यस्पृशताऽप्यधोनिवसनग्रन्थिस्तवोच्छ.वासितः ॥ इति ॥ अपेक्षासे नहीं। इसके लिए भी 'मन्द' शब्बसे 'गोत्र'को विशेषित किया है। अर्थात् 'मन्दगोत्राङ्गन' पदमें जो 'मन्द' पदको 'गोत्र' पदका विशेषण बनाया गया है उसका यह भी अभिप्राय है कि परिणक अमात्य विप्र प्रावि, राजाको अपेक्षासे मन्द गोत्र वाले ही होते हैं] । 'प्रकरण में नायक पौर [व्युत्पाद्यः अर्थात् जिनको शिक्षाके लिए 'प्रकरण' को रचना की गई है वे] सामाजिक दोनों मध्यम श्रेणीके ही होते हैं। __ भागे कारिकामें पाए हुए 'दिव्यानाश्रितं' पदकी व्याख्या करते हैं
"दिव्यानाश्रितम्' इसका यह अर्थ है कि विव्यपात्रोंसे रहित । 'नाटक में तो अंग रूपसे [अर्थात् नायकके सहायक रूपमें] दिव्य पात्र [उपस्थित होता है किन्तु 'प्रकरण में तो उस प्रकारको [अर्थात् नायकके अंगरूपमें] स्थिति भी इष्ट नहीं है। उस [दिव्यपात्र के सुखप्रधान होनेके और अल्पदुःखयुक्त होनेके कारण [क्लेशाज्य अर्थात् दुःखप्रधान 'प्रकरण में उनकी स्थिति संगत नहीं बनती है। अन्यथा [अर्थात् यदि दिव्य पात्रोंको सुखप्रधान और प्रल्प दुःखवाला न माना जाय तो उनकी दिव्यता ही नष्ट हो जावेगी।
मागे कारिका में पाए हुए 'मन्दचेष्टितम्' पदकी व्याख्या करते हैं
मध्य अर्थात् सर्वोत्तम अथवा सबसे निकृष्ट प्रकृतिके अयोग्य, चेष्टित अर्थात् विहार, [च्याहार अर्थात्] भाषरण, वेष और सम्भोगादि व्यापार जिसमें हो [वह मध्यचेष्टित 'प्रकरण' होता है। इसलिए पाख्यान-वस्तुके कल्पित होनेपर भी इसमें राजाओंके समान अन्तःपुर प्रादिका भोग, कञ्चुकी प्रभृति भृत्त्यवर्ग, अथवा अधमपात्रोंका-सा सम्भोगादिका वर्णन नहीं करना चाहिए । [अपितु सब कुछ मध्य स्थितिके अनुरूप ही होना चाहिए ] । इसीलिए वेश्या के नायिका होनेपर शिष्टता-रहित बातोंका भी वर्णन हो जाता है। जैसे विशाखदेवके बनाए हुए 'देवीचन्द्रगुप्त में माधवसेना [वेश्या को लक्ष्यमें रखकर कुमार चन्द्रगुतको [शिष्टतासे रहित निम्नलिखित उक्ति है -
शुभ्र-कमलके समान कान्ति वाली आँखोंमें, आनन्दाश्रुनोंको उत्पन्न करने वाले, और हे वराङ्गने ! तुम्हारे रोमाञ्च-युक्त सारे अंगों में स्वेदोत्पादन करदेनेवाले, एवं भरे हुए नितम्बोंकी वृद्धि करा देने वाले, किसी [प्रेमी ने स्पर्श किए बिना ही तुम्हारे नीचे पहननेके वस्त्रकी नारेकी गांठको खुलवा डाला है।
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. २०८ ]
नाट्यदर्पणम [ का० ६६-६७, सू० ११७ व्युत्पाद्योऽपि च प्रकरणे मध्यमप्रकृतिरेव । नेतृचरितस्यापि तथाभूतत्वादिति ।
___ 'दास-श्रेष्ठि-विटैर्यक्तम्' इति । 'दासो' जीवितावधि वेतनक्रीतो, बाल्यात् प्रभृति पोषितो वा । 'श्रेष्ठी' वणिक्प्रधानम् । 'विटो' धूर्तः । तत्र कन्चुकिस्थाने दासः। अमात्यस्थाने श्रेष्ठी । विदूषकस्थाने विटः । उपलक्षणं चैतत् , तेनापरमपि चाटुकार-सहायादिकं वणिगाद्यौचित्येन निबन्धनीयम् ।२ 'क्लेशाध्यम्' इति दुखदीप्तम् । अपायशतान्तरितफलत्वादिति एतावल्लक्षणम् ।
तच्चेति, उक्तलक्षणं 'प्रकरणं' सप्तभेदम् । 'इनो' नायकः । 'फलं' मुख्यसाध्यम् । 'वस्तु' फलसाधका उपायाः। एतेषां एक-द्वि-त्रिविधानेन सप्तभेदं 'प्रकरणम' । तत्र नेतुः प्रकल्पने तदितरयोश्चाकल्पने एको भंगः। एवं फल-वस्तुनोरपि । एवमेककल्पविधाने त्रयो भंगाः । तथा नायक-फलयोः, नायक-वस्तुनोः, फलवस्तुनोर्वा कल्पने शेषस्यैकस्य चाकल्पने त्रयो द्विकभंगाः। नायक-फल-वस्तूनां त्रयाणामपि समुदितानामपि कल्पने एको भंगः । एवं सर्वमेलनेन' सप्तधा प्रकरणमिति ॥ १-२ [६६-६७] ।।
यह कुमारचन्द्रगुप्तका वचन विनय-रहित या शिष्टता-रहित है। उत्तम प्रकृतिके पात्रों में इस प्रकारके वचनोंका प्रयोग उपयुक्त नहीं होता है। किन्तु यहाँ वेश्या माधवसेनाके नायिका होने के कारण ही इस प्रकारके वचनके प्रयोगकी संगति लगाई जा सकती है । यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है ।
नायकके चरित्रके भी [उस प्रकारके अर्थात्] मध्यम-प्रकृतिका होनेके कारण 'प्रकरण'में [व्युत्पाद्य अर्थात् सामाजिक भी मध्यम-प्रकृतिके ही होते हैं।
आगे कारिकामें पाए हुए 'दास-श्रेष्ठि-विटयुक्तम्' की व्याख्या करते हैं___ 'वास-श्रेष्ठि-विटयुक्तम्' [इसका यह अभिप्राय है कि] जीवन-पर्यन्तके लिए वेतनसे क्रय किया हुआ अथवा बचपनसे पाला हुमा 'दास' होता है । वरिणकोंका प्रधान, अथवा प्रधान वरिणक 'श्रेष्ठी' कहलाता है । 'विट' [का अर्थ] धूर्त है। उनमेंसे [नाटकके] कञ्चुकीके स्थानपर [प्रकरणमें] 'दास' [को समझना चाहिए] । अमात्यके स्थानपर श्रेष्ठी और विदूषकके स्थानपर विट [का उपयोग होता है । [दास-श्रेष्ठि-विटयुक्तं] यह [वचन] उपलक्षण रूप है । इसलिए वरिणक् प्रादि [नायकों] के औचित्यके अनुसार चाटुकार [चापलूस] सहायक प्रावि अन्य [पात्रों का भी वर्णन करना चाहिए । 'क्लेशाव्यम्' इसका 'दुःख-प्रधान' यह अर्थ है। क्योंकि उसका फल सैकड़ों कष्ट भोगनेके बाद प्राप्त होता है। [इसलिए 'प्रकरण' दुःखप्रधान रूपक होता है। यहां तक [अर्थात ६७वीं कारिकाके पूर्वाद्ध भाग तक प्रकरणका] लक्षरण कहा है [मागे उसके भेद दिखलाते हैं।
___ आगे ६७वीं कारिकाके उत्तरार्ध भागकी व्याख्या करते हैं। इसमें 'कल्प्येन-फलवस्तूनां' इस पदमें 'कल्प्येन' का पदच्छेद 'कल्प्य+इन' यह किया जाना चाहिए । इस प्रकार का पदच्छेद करके ही उसका अर्थ आगे दिखलाते हैं
और 'वह' अर्थात् पूर्वोक्त लक्षणवाला 'प्रकरण' सात प्रकारका होता है । 'इन' [शब्दका अर्थ] नायक है। फल [शब्दका अर्थ] मुख्य साध्य है। और फलके साधक उपाय 'वस्तु' [कहलाते हैं। इनमेंसे एक, दो, या तीनके [कल्पित होनेके विधानसे 'प्रकरण'के सात १. परिणगायौ विधव प्र०। २. क्लेशाद्यप्र०। ३. सर्वमीलनेन ।
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का०६८, सू० ११८ ] द्वितीयो विवेकः
[ २०६ अथ नायिकायोगद्वारेण भेदसंख्यानमप्याह[सूत्र ११८]-कुलस्त्रो गृहवार्तायां पण्यस्त्री तु विपर्यये ।
विटे पत्यौ द्वयं तस्मादेकत्रिशतिधाऽप्यदः ॥ ॥ [३]६८॥ गृहवार्तायां गार्हस्थ्योचितपुरुषार्थसाधके वृत्ते कुलजैव स्त्री नायिकात्वेन वणिगादीनां निबन्धनीया । यथा 'पुष्पदूतिके'। विपर्यये तु गाईस्थ्योचितपुरुषार्थावर्णने वेश्यैव नायिकात्वेन निबन्धनीया यथा 'तरङ्गदत्ते । उभययोगस्य विट एव विधानादनयोरप्यवधारणम् । विटे गीत-नृत्य-वाद्यविचक्षणे द्यूत-पान-वेश्यादिषु प्रसक्ते कलाकुशले मूलदेवादी पत्यो नायकत्वेन' विवक्षिते वेश्या कुलस्त्री चेति द्वयं तदुचितगाईस्थ्यपुरुषार्थापेक्षया निबन्धनीयम् । अस्य तु विटत्वादेव पण्यस्त्रोप्रधानम्। कुलस्त्री तु पितृ-पितामहाद्यनुरोधाद् गौणम् । विटस्य पतित्वानुवादाद् वणिगाद्यन्तभूतोऽपि 'प्रकरणे' विटो नेता लभ्यते । वेश्या-कुलजाभ्यां संकीर्णत्वादयं भेदोऽशुद्धः । पूर्वी तु शुद्धौ स्त्रीसंकराभावात् । शुद्धभेदयोरपि विटः ससहाय एकः । संकीर्णे तु बहवः । केचित् तु वणिग्नेतृकमपि धूर्तसंकुलत्वान्मृच्छकटिकादिकं संकीर्णं मन्यन्ते। भेव हो जाते हैं। उनमेंसे नायकके कल्पित, और शेष दोनों [अर्थात् फल और वस्तु के कल्पित न होनेपर एक भेद होता है। इसी प्रकार फल और वस्तुमें भी [एकके कल्पित और शेष दोके कल्पित न होनेपर एक-एक भेद होता है । इस प्रकार एकको कल्पनाके विधानसे तीन भेव बनते हैं। इसी प्रकार (१) नायक और फल, (२) नायक और वस्तु तथा (३) फल मौर वस्तु इन दो-दो के कल्पित, और शेष एकके भकल्पित होनेपर दो-दो वाले तीन भेद होते हैं। नायक, फल और वस्तु तीनोंके एक साथ कल्पित होनेपर एक भेद बनता है। इस प्रकार सबको मिलाकर 'प्रकरण' के सात भेद हो जाते हैं। [१-२] ६६-६७ ॥ . इस प्रकार ६७ वीं कारिकाके उत्तरार्द्ध में नायक मादिके कल्पित होनेके माधारपर 'प्रकरण' के सात भेद दिखलाए हैं। मागे कुलस्त्री, वेश्या तथा दोनों प्रकारकी नायिकानों के वरिणत होनेपर इन सातों प्रकारके 'प्रकरणों के तीन-तीन भेद और भी बन सकते हैं। इसलिए 'प्रकरण' के २१ भेद हो जाते हैं। इन भेदोंको अगली कारिकामें दिखलाते हैं
अब नायिकाके भेदोंके द्वारा [प्रकरण' के भेदोंको संख्याको भी कहते हैं
[सूत्र ११८]-गृहस्थोचित वृत्तमें कुलस्त्री, इसके विपरीत वृत्तमें वेश्या और बिट [धूतं] के, पति [रूपमें वरिणत होनेपर [कुलस्त्री और वेश्या] दोनों [नायिकाएं हो सकती हैं। इसलिए ['प्रकरण' के पूर्वोक्त सात भेदों से प्रत्येकके तीन-तीन भेव हो जानेसे सब मिलकर यह इक्कीस प्रकारका भी हो सकता है [३] ६८ ।
गृहवार्ता अर्थात् गृहस्थोचित पुरुषार्थ के साधक वृत [कथा] में परिणम् प्रादि [नायकों की कुलजा स्त्री ही नायिका रूपमें रखनी चाहिए। जैसे 'पुष्पतिक' में। इसके विपरीत अर्थात् गृहस्थ धर्मके उचित पुरुषार्थका वर्णन न होनेपर वेश्याको ही नायिका रूपमें प्रस्तुत करना चाहिए। जैसे 'तरंगवत' में। [कुलजा मोर पेश्या] बोनोंके योग का विटके साथ ही [अर्थात् विटके पति होनेपर ही विधान होनेसे इन [कुलबा तपा १. विवक्षते।
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२१० ]
नाट्यदर्पणम् [ का०६८, सू० ११६ एषु च भेदेषु नायकवृत्तानुरूप एव व्युत्पाद्यः। अत्र हि वणिगमात्यविप्राद्युचिता त्रिवर्गप्राप्तिः, तदर्जने स्थैर्य-धैर्यादि,व्यापदि मूढता, कुलस्त्रीवृत्तं, वेश्यासुसम्भोगचातुर्य, विट-दूतयोः स्वरूप, नायिकारागापरागलिगानि, हृदयग्रहणप्रयोगश्च, नायकयोरपरागकारणानि, चतुरोत्तममध्यमप्रकृतेनायकस्य, उत्तामध्यमप्रकृतेनायिकायाश्च स्वरूपम् , सामाद्युपायप्रयोगश्च व्युत्पाद्यानामुपदिश्यते । 'तस्मादिति' यतः शुद्धसंकीर्णाभेदत्रयरूपं सप्तभेद 'प्रकरणं', 'तस्मादेकविशतिधाप्यदः' एतत् 'प्रकरणम् । चतुर्दश शुद्धाः, सप्त संकीर्णाः प्रकरणभेदाः । नायिकायाः कल्पिताकल्पितत्वेनान्येऽपि भेदाः संभवन्ति । परमदृष्टत्वादुपेक्षिताः ॥ [३] ६८ ॥ वेश्या] दोनोंका भी अवधारण [अर्थात् गृहवामि केवल कुलजा ही, और उससे भिन्नमें केवल वेश्या ही नायिका हो सकती है इस प्रकारका नियम है। 'विट' अर्थात् गीत-नृत्य और वाद्यमें निपुण द्यूत, पान और वेश्यादिके सेवनमें तत्पर कला-कुशल मूलदेवादि जैसे पतियोंके नायक रूपमें विवक्षित होनेपर वेश्या और कुलजा दोनों अपने-अपने योग्य गृहस्थोचित पुरुषार्थकी [और उससे भिन्न पुरुषार्थको] अपेक्षासे [नायिका रूपमें] वेश्या और कुलजा दोनोंकी रचना करनी चाहिए। इस [विट रूप पति के धूर्त होनेके कारण हो वेश्या प्रधान है और कुलस्त्री तो पिता पितामह प्राविरे अनुरोषसे [रखी हुई होनेके कारण] गौण होती है। विटके पति रूपमें कथन करनेसे वरिणग प्राधिके अन्तर्गत होने पर भी विट नायक हो सकता है यह बात निकलती है। [अर्थात् विट 'प्रकरण' का नेता तो हो सकता है किन्तु वह पूर्वोक्त वरिणग् अमात्य या विप्रोंमेंसे ही कोई होगा। उनसे अलग नहीं] । वेश्या तथा कुलजा [दोनों प्रकारको नायिकाओं से संकीर्ण होनेके कारण यह भेद अशुद्ध भेद है। पहले दोनों [अर्थात् जिसमें केवल कुलजा अथवा केवल वेश्या ही नायिका हो बे] स्त्रीके संकर न होनेके कारण शुद्ध भेद हैं। शुद्ध भेदोंमें भी सहायकोंके सहित एक विट होता है। संकीर्णमें तो अनेक होते हैं। कोई लोग वरिपक् जिसका नायक है इस प्रकार के 'प्रकरण' को भी धूतोंसे व्याप्त होनेके कारण संकीर्ण मानते हैं । जैसे मृच्छकटिक मादि।
इन भेदोंमें नायकके वृसके अनुसार ही सामाजिक [व्युत्पाद्य] होते हैं। इसमें वरिणक, अमात्य, विप्र प्रादिके उचित [धर्म अर्थ काम रूप] १ त्रिवर्गको प्राप्ति, २ उसके प्राप्त करनेकेलिए अपेक्षित स्थिरता, धैर्य प्रावि, ३ मापत्तिकालमें मूढता, ४ कुल-स्त्रियोंका माचार, ५ वेश्यामोंके भली प्रकार सम्भोगका चातुर्य, ६ विट तथा विदूषकके स्वरूप ७ नायिकाके अनुराग तथा अपरागके लिंग, ६ हृदयको वशमें करनेके प्रयोग, १० नायकनायिका दोनों के परस्पर अपरागके कारण, ११ चतुर उत्तम मध्यम प्रकृतिके नायक, तथा उत्तम मध्यम प्रथम प्रकृतिकी नायिकाके स्वरूपोंका और १२ सामादि उपायोंके प्रयोग का उपदेश सामाजिकोंको दिया जाता है। 'तस्मात्' इससे [यह अभिप्राय है कि क्योंकि [पूर्वोक्त] सात भेजोंसे युक्त 'प्रकरण' के [एक केवल कुल स्त्रीके नायिका होनेपर और दूसरा केवल पण्यस्त्रीके नायिका होनेपर] दो शुद्ध और एक संकीर्ण [अर्थात् जिसमें दोनों प्रकारकी नायिकाएँ हों इस प्रकार तीन भेद हो सकते हैं । इसलिए यह 'प्रकरण' ७४३= २१ प्रकारका भी हो सकता है। उनमेंसे बौवह शुद्ध और सात संकीर्ण भेव होंगे। नायि
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का०६६, सू० १२० ] द्वितीयो विवेकः
[ २११ अथाकल्प्यस्वरूपम्' निरूपयति[सूत्र ११६]-प्रत्राकल्प्य पुरा क्लुप्तं यद्वाऽनार्षमसद्गुणम् ।
अत्र 'प्रकरणे' अकल्प्यं अनुत्पाद्यं यत् तत् पूर्वकविकृतकाव्यादौ क्लुप्तं सत् समुद्रदत्ततच्चेष्टितादिवद् ग्राह्यम् । अथवा यदत्राकल्प्य तत् पूर्वर्षिप्रणीतशास्त्रव्यतिरिक्तबृहत्कथायुपनिबर्द्ध मूलदेव-तच्चरितादिवदुपादेयम् । 'सद्गुणम्' इति । यदत्राकल्प्यं पूर्वकविकल्पितं बृहत्कथाद्युपनिबद्धं वा चरित्रमपि तदसद्गुणं, पूर्वकविकाव्ये बृहत्कथादी चासन्तो गुणाः रसपुष्टिहेतवो भणितिविशेषादयो यत्र । यदप्यत्र प्राक्तनं निबद्धयते तत्रापि कविना रसपुष्टिहेतुरधिकावापो विधेय इत्यर्थः । अत एवार्षस्य वर्जनम् । तत्र ह्यभूतगुणावापे श्राद्धलोकस्य जुगुप्सा स्यादिति ॥
अपवादभूतं कृत्यमुक्त्वा उत्सर्गमतिदिशतिकानोंके कल्पित और अकल्पित होनेसे और भी अधिक भेद हो सकते हैं । परन्तु [लक्ष्यग्रन्थोंमें] न पाए जानेसे उनका यहाँ वर्णन नहीं किया है [उनकी उपेक्षा कर दी है] ॥ [३]६८ ॥
अब 'प्रकल्प्य' [अर्थात् जिसमें नायिकादिको कल्पना नहीं की जाती है उन] के स्वरूपको कहते हैं
[सूत्र ११६]—जिसकी कल्पना पहिले [अन्य काव्योंमें] की जा चुकी है अथवा अनार्ष अन्थों में वरिणत किन्तु [प्रसद्गुणम् अर्थात्]. नवीन गुणोंसे युक्त [नायकादि यहां 'प्रकरण' में] प्रकल्पित हो सकते हैं।
यहाँ अर्थात् 'प्रकरण' में जो प्रकल्पित अर्थात [कविके द्वारा स्वयं] अनुत्पादित होता है वह पूर्व कवियोंके बनाए काय?में कल्पित समुद्रवसादिके चरित्रके समान [यहाँ 'प्रकरण' में] ग्रहण किया जाता है। प्रथवा जो यहां अकल्पित होता है वह पूर्ववर्ती ऋषि-प्रणीत शास्त्रादिसे भिन्न गृहत्कथादि [प्रनार्ष ग्रन्यों] में उपनिबद्ध मूलदेवचरित्र प्राविके समान उपादेय होता है। [किन्तु विशेषता यह होती है कि वह 'असद्गुण' अर्थात् पूर्वकवि-कल्पित अथवा वृहत्कथादिमें वरिणत, जो चरित्र यहां [प्रकरण में] अकल्पित रूपमें लिया जाता है वह भी, उसमें जो गुण वहाँ [पूर्व कविके पात्रमें] नहीं होते हैं उस प्रकारके अपूर्व गुणों से युक्त होता है। अर्थात् पूर्व कवियोंके काव्योंमें और बृहत्कथादिमें जो गुण उसमें नहीं विसलाए गए हैं इस प्रकारके रसके परिपोषक अपूर्व वचन-विशेषादि रूप गुण जिसमें हों इस प्रकारका ['प्रकरण' होना चाहिए] इसमें जो कुछ पुरानी बात कही जाए उसमें भी रस की परिपुष्टिकेलिए कविको नई बात और बढ़ा देनी चाहिए। यह अभिप्राय है। इसीलिए यहां [प्रनार्ष पदसे] पार्ष [चरित्रों का निषेष किया गया है। क्योंकि उन [प्रार्ष चरित्रों में नवीन गुणोंका वर्णन होनेपर प्रक्षालु लोगोंको घृणा हो जाएगी।
[इस प्रकार 'प्रकरण' के लक्षणमें नाटकसे भिन्न अपवादभूत कार्योको कह कर अब [नाटकके समान ही जो-जो बातें 'प्रकरण में भी पाई जाती है उन] उत्सर्गभूत [सामान्य बातों का ['प्रकरण' में] प्रतिवेश करते हैं१. कल्पस्वक।
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२१२ ]
नाट्यदर्पणम् । का० ७०, सू० १२१ [सूत्र १२०] शेषं नाटकवत् सर्व कैशिकीपूर्णतां विना ॥ [४] ६६॥
___ उक्ताद् वणिक-विप्र-सचिव-स्वाम्यादिकाल्लक्षणाच्छेषं अपरमभिनेयप्रबन्धोचितं फल-श्रत-उपाय-दशा-संधि-संध्यंग-प्रवेशक-विष्कभक-अंकावतार-अंकमुख-चूलिकावृत्तिभेद-रसादिकं यथा नाटके लक्षितं तथात्रापि सर्वमौचित्यानतिक्रमेणायोज्यम् । वृत्तिचतुष्टयस्यातिदेशेऽपि कैशिकीबाहुल्यं न निबन्धनीयम् । क्लेशप्राचुर्येण शृङ्गारहास्ययोरल्पत्वात् । यथा मृच्छकटी-पुष्पदूतिक-तरंगदत्तादिषु । यत्पुन-र्भवभूतिना मालतीमाधवे कैशिकीवाहुल्यमुपनिबद्धं, 'तन्न वृद्धाभिप्रायमनुरुणद्धीति ।
तदयं संक्षेपः-यस्य पूर्वप्रसिद्ध एवार्थे कुतूहलं असौ मुनिप्रणीतशास्त्रप्रसिद्धचरितेन नाटकेन राजादिरुत्तमप्रकृतिव्युत्पाद्यते । यस्य पुनरुत्पाद्येऽर्थे कुतूहलमसौ वणिगादिभिर्मध्यमप्रकृतिः ‘प्रकरणेन' । दुर्मेधसां हि न्याय्ये वर्त्म नि प्रवृत्यर्थ कवयोऽभिनेयप्रबन्धान प्रथ्नन्तीति ॥ [४] ६६ ॥
अथ प्रकरणानन्तरोद्दिष्टां नाटिकां लक्षयितुमाह
[सूत्र १२०]-कैशिकीकी पूर्णताको छोड़कर शेष सब नाटकके समान 'प्रकरण' में भी होता है। [४] ६६ ।
[प्रकरणके लक्षणमें विशेष रूपसे कहे हुए] परिणक विप्र, अथवा अमात्यके नायकत्वादि रूप विशेष लक्षणके अतिरिक्त अभिनय प्रबन्धके योग्य अन्य १ फल, २ अंक, ३ उपाय, ४ दशा, ५ सन्धि, ६ सन्ध्यंग, ७ प्रवेशक, ८ विष्कम्भक, ९ अंकावतार, १० अंकमुख, ११ चूलिका, १२ वृत्तिभेद और १३ रसादिक सब अंसे नाटकोंमें कहे गए है उसी प्रकार पौचित्यका प्रतिक्रमण न करते हुए यहां [प्रकरण' में भी प्रयुक्त करने चाहिए । [स] सामान्य नियमसे साम्स्वती प्रारभटी कंशिको भारती प्रावि चारों वृत्तियोंकी प्राप्ति होनेपर भी ['प्रकरण' में कैशिकीके बाहुल्यका प्रयोग नहीं करना चाहिए। क्योंकि उसमें क्लेशका प्राषिषय होनेसे भृङ्गार और हास्यका अवसर कम होता है इसलिए 'प्रकरण' में कैशिकी वृत्तिका अधिक प्रयोग उचित नहीं होता है। जैसे मृच्छकटिक, पुष्पतिक मोर तरंगदत्त मादि [प्रकरणों में [कंशिकी वृतिका अधिक प्रयोग नहीं किया गया है। भवभूतिने जो अपने मालती माधव ['प्रकरण'] में कैशिकीका प्रचुर प्रयोग किया है वह वृद्ध-सम्प्रदाय [अर्थात् पूर्व आचार्योंके मत] के अनुकूल नहीं है।
इसका सारांश यह हुमा कि-जिनको पूर्वप्रसिद्ध चरित प्राबिमें ही अभिरुचि होती है उन राजादि उत्तम प्रकृतिके लोगोंको मुनियोंके बनाए हुए शास्त्रारिमें प्रसिक परित वाले नाटकादिके द्वारा ही ध्युत्पत्ति कराई जाती है। और जिनको कल्पित में अभिनधि होती है उन मध्यम प्रकृति वाले वणिक माविको 'प्रकरण' के द्वारा व्युत्पत्ति कराई जाती है। क्योंकि मन्दबुखियोंको उचित मार्गमें प्रवृत्त कराने के लिए ही कविजन अभिनय [नाटकारि] प्रबन्धोंकी रचना करते है ॥ [v] ६६॥
३. तृतीय रूपक भेद 'नाटिका' का लक्षण अब 'प्रकरण' में अन्तर कही हुई 'नाटिका' का लक्षण करनेकेलिए कहते हैं१. तत्र । २. मुत्पाद्यते ।
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का० ७०, सू० १२१ ]
द्वितीयो विवेकः
[ २१३
[ सूत्र १२१ ] - चतुरंका बहुस्त्रीका नृपेशा स्त्री-मही-फला । कल्य्यार्था कैशिकमुख्या पूर्वरूपद्वयोत्थिता । [५] ७० ।। प्रख्याति ख्यातितः कन्या- देव्योर्नाटी चतुर्विधा ।
'चतुरंक' इति अवस्थात्रयसमाप्तिपरिच्छिन्नास्त्रयोऽङ्काः । कस्याश्चिदवस्थायाः प्रभूतरसेऽवस्थान्तरे समावेशेन युगपदवस्थाद्वयसमाप्त्या कविच्छेदे चत्वारोऽङ्काः । अल्पं हि वृत्तं नाटिकायामतो वृत्तसंक्षेपार्थमवस्थायाः समावेशः ।
बहुस्त्रीकता च कैशिकमुख्यत्वेन शृङ्गाररसबाहुल्यात् । अत एव ललिताभिनयात्मिकाः । स्त्रियश्च देवी - दूती-सखी-बेटी-कन्यकादयः । नृपः कैशिकीप्रथानत्वाद धीरललितो राजा ईशो नेता यस्याम् । अत एवात्र प्रकरणो भवत्वेऽपि सर्वो राजोचितो व्यवहारः । नायकानुसारित्वात् सर्वव्यवहारस्य । 'स्त्री - महीफला' इति स्त्रीलाभपुर:राज्यप्राफिला । 'कल्य्यार्था' इति कर्म-करणव्युत्पत्तिभ्यां 'अर्थ' फलमुपायाश्च ।
[सूत्र १२१ क ] -चार घंकों वाली, अनेक स्त्री पात्रों, राजा रूप नायक, और स्त्री प्रथवा पृथिवी [की प्राप्ति रूप] फल वाली, कल्पित प्रयं प्रधान, कैशिकी बहुल, पूर्वकथित दोनों रूपकों [अर्थात् 'नाटक' और 'प्रकरण'] से उत्पन्न, 'नाटिका' होती है। [यह 'नाटिका' का लक्षण हुआ ] । [५] ७० ।।
[ क्षेत्र १२१ ] - कन्या और देवी [दो प्रकारको इसकी नायिकाएं होती हैं उन दोनों] के [भी] मप्रसिद्ध तथा प्रसिद्ध होनेसे [बो-दो भेद हो जाते हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर] 'नाटिका'के चार भेद होते हैं ।
['नाटक' में साधारणत: 'कार्य' की पाँच 'अवस्थाएं' बतलाई गई हैं और उनमेंसे प्रत्येक 'अवस्था' का वर्णन एक-एक अंक में पूरा होनेके कारण 'नाटक' में कम-से-कम पाँच अंक भावश्यक माने गए हैं किन्तु 'नाटिका' में चार ही अंक बतलाए हैं। इसका उपपादन करते हुए ग्रन्थकार लिखते हैं कि
'चतुरंक' इससे तीन अवस्थाओंोंकी समाप्तिसे युक्त तीन अंक और किसी एक अवस्था का प्रधानभूत अन्य अवस्था में समावेश कर एक साथ दो अवस्थानोंकी समाप्ति वाला एक [ चौer] अंक, इस प्रकार चार अंक होते हैं । 'नाटिका' में कथावस्तु कम होने के कारण कथावस्तुके संक्षेपकेलिए ही एक अवस्थाका [किसी दूसरी अवस्थामें] समावेश कहा गया है । [नाटिकामें] कैशिकोको प्रधानताके कारण श्रृंगाररसको प्रमुखता होनेसे बहुत स्त्रियाँ [श्रावश्यक ] होती हैं। इसी कारण [ वे स्त्रियां] ललित प्रभिनय बाली होती हैं । [नाटिकाको] स्त्रियाँ देवो, दूती, सखी, चेटो, और कन्या आदि होती हैं। ['नृपेशा' में] ग्रुप [शब्द] से धीरललित राजा, [का प्रहरण होता है] वह जिसमें स्वामी अर्थात् नायक हो [वह 'नृपेश' नाटिका होती है ] । इसीलिए [नाटिकाके] 'प्रकररण' से उद्भूत होनेपर भी उसमें सारा व्यवहार राजाके योग्य हो होता है। क्योंकि सारा व्यवहार नायकके अनुरूप ही उचित होता है । "स्त्री-महीफला" इससे [ यह बात सूचित की है कि ] स्त्रीलाभ पुरःसर राज्यप्राति [नाटिकाका ] फल होता है । 'कल्प्ग्रार्या' इसमें [ 'अभ्यंते इति अर्थ:' इस प्रकारको कर्मपरक
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२१४ ]
नाट्यदर्पणम्
तेन द्वावप्यत्रोत्पाद्यौ ।
'कैशिकी' वक्ष्यमाणलक्षणा, सा 'मुख्या' प्रधानं यस्याम् । मुख्यत्वं च शेषवृत्त्यपेक्षया बाहुल्यम् । तत एव गीत-नृत्त वाद्य- हास्यादीनां शृङ्गाराङ्गानां प्राचुर्यम् । पूर्वरूपद्रयं 'नाटक' 'प्रकरणं' च । तस्मादुत्थितमुत्थानं यम्याम् । कैशिकीप्राधान्याच्च यत् स्त्रीप्रायं कामफलं 'नाटक', 'प्रकरणं' च किश्चिन, तदिह ग्राह्यम् । अन्येषामनुरूपत्वाभावात् । एतद्वयोत्थितत्वेन चावस्था- सन्धि-सन्ध्यंग-बीज-बिन्दु-पताका-प्रकरी-पताकास्थानक अंक प्रवेशक विष्कम्भक इतिवृत्तभेदादीनि, उभय भेदसाधारणानि लभ्यन्ते । तत्र 'नृपेशा' इति नाटकधर्मः । तत एव नायकोऽकल्पितः । 'कल्प्यार्था' इति प्रकरणधर्मः । एतावल्लक्षणम् ॥ [ ५ ] ७८ ।।
'अख्याति ख्यातितः' इति । इह नाटिकायां नायिकाया द्वयं कन्या देवी चेति युगपत् । अपरिणीता कन्या । अन्तःपुरसंगीतक भेदभिन्ना । परिणीता तु देवी । तयोः व्युत्पत्ति तथा श्रर्थ्यते श्रनेनेति अर्थ' इस प्रकारकी कररण-परक व्युत्पत्ति हो सकती है । इसलिए ] कर्म और करण - परक [ द्विविध] व्युत्पत्तियोंके काररण फल और उपाय दोनों ''अर्थ' होते हैं [अर्थात् कर्म व्युत्पत्ति के अनुसार फलको 'अर्थ' कहा जाता है और कररण व्युत्पत्तिके अनुसार 'उपाय' को 'अर्थ' कहा जा सकता है ।
[ का० ७१, सू० १२१
इसलिए [नाटिका में फल और उपाय ] ये दोनों कल्पित होते हैं। [यह अभिप्राय है ] । 'केशिकी' का लक्षण श्रागे किया जायगा । वह जिसमें मुख्य अर्थात् प्रधान हो [ यह 'कैशिकमुख्या' का अर्थ है ] । अन्य [ भारती प्रारभटी और सात्त्वती ] वृत्तियोंको अपेक्षा [कैशिकीका] बाहुल्य ही [ उसकी] मुख्यता है । इसीलिए [ नाटिकामें ] गीत, नृत्त, वाद्य और हास्य प्रादि शृंगारके अंगोंकी प्रचुरता रहती है । पहिले कहे हुए जो दो रूपकभेद प्रर्थात् नाटक और प्रकररण उनसे जिसकी उत्पत्ति होती है [ वह नाटिका होती है यह 'पूर्वरूपदोत्थिता' पदका अर्थ है ] । कैशिकीको प्रधानता होनेके काररण जो कोई नाटक अथवा प्रकरण स्त्री- बहुल और कामफल वाला हो उसका ही [नाटिकाकी प्रकृतिके रूपमें] ग्रहरण करना चाहिए । अन्य [ नाटक या प्रकररण] के [ नाटिकाके स्वरूप के] अनुकूल न होनेसे [ अन्य प्रकार के नाटकादिको नाटिकाकी प्रकृति नहीं माना जा सकता है ] । इन [नाटक तथा प्रकरण] दोनों उत्थित होने के कारण अवस्था, सन्धि, सन्ध्यंग, बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी, पताकास्थानक, अंक, प्रवेशक, विष्कम्भक, और कथावस्तुका भेव श्रादि 'नाटक' तथा 'प्रकरण' दोनोंसे मिलते-जुलते ही [नाटिका में] लिए जाते हैं । नाटिका में 'नृपेशा' [अर्थात् राजा नायक होता है] यह नाटकका धर्म है । इसीलिए नायक कल्पित नहीं होता है । और 'कल्प्यार्था' यह 'प्रकरण' का धर्म है । [ 'अर्थ' शब्द से व्युत्पत्तिभेव द्वारा फल और उपाय दोनोंका ग्रहण होता है यह बात भी कह चुके हैं । इस कारण नाटिकामें फल और उपाय दोनों कल्पित होते हैं । यह 'कल्पयार्या' पदका अभिप्राय है । इस प्रकार नाटिका में 'नाटक' तथा 'प्रकरण दोनोंके धर्म पाए जाते हैं इसलिए नाटिकाको 'पूर्वरूपद्वयोत्थिता' कहा है ] इतना ही [नाटिकाका] लक्षरण है [ प्रागे उसके भेद कहे हैं। लक्षणभाग यहाँ समाप्त हो गया है ] ।। [५] ७० ॥ 'प्रख्याति ख्यातित' इसका यह अभिप्राय है कि---इस नाटिका में कन्या श्रौर देवी दोनों एक साथ नायिकाएँ होती हैं । प्रपरिणीता [स्त्री] 'कन्या' होती है । और वह अन्तःपुरके
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का० ७, सू० १२२ । द्वितीयो विवेकः
[ २१५ प्रत्येक प्रसिद्धि-अप्रसिद्धियां चतुर्भेदत्वान्नाटिकापि चतुर्विधा। तत्र' 'देव्यप्रसिद्धा कन्या प्रसिद्धः इत्येकः । देव्यप्रसिद्धा कन्यकाप्यप्रसिद्वेति द्वितीयः । देवी प्रसिद्धा कन्या त्वप्रसिद्धति नृतीयः रवी प्रसिद्धा कन्यापि प्रसिद्धति चतुर्थः । उभयोः प्रसिद्धत्वेऽपि च कल्पितायत्वं नातिकात्राः । अन्यथा संविधानकरचनात् । नाटयति नर्तयति व्युत्पाद्यमनाभीति अचि, गैरादेराकृतिगगत्वाच्च डन्यां 'नाटी'। अल्पवृत्तत्वादल्पार्थे 'कपि' नाटिका इत्यपाति । श्रीप्रधानावात सुकुमारातिशयत्वाच्च स्त्रीलिंगसंज्ञानिर्देशः। एवं प्रकरण्यामपोति ।
अथ नाटिकागतं कर्तव्यमुपदिशति[सूत्र १२२]---अत्र मुख्याकृतो योगः पर्यन्ते नेतुरन्यथा ॥ [६] ७१॥
प्रेमाद्रो वर्ततेऽन्यस्यां नेता मुख्याभिशंकितः ।। संगीत प्रादि भेदोंके कारण अनेक प्रकारको होती है । विवाहिता [स्त्री] 'देवी' होती है। उन दोनोंकी प्रसिद्धि तथा अप्रसिद्धि के कारण नायिकाके चार भेद हो जानेसे नाटिका भी चार प्रकारको होती है । उनमेंसे (१) देवी अप्रसिद्ध हो और कन्या प्रसिद्ध हो यह पहला भेद हुना। (२) देवो अप्रसिद्ध हो और कन्या भी अप्रसिद्ध हो यह दूसरा भेद हुआ। (३) देवी प्रसिद्ध हो किन्तु कन्या अप्रसिद्ध हो यह तीसरा में हुआ। (४) देवी प्रसिद्ध हो और कन्या भी प्रसिद्ध हो यह चौथा भेद हुआ। [देवी और कन्या] दोनोंके प्रसिद्ध होनेपर भी [नाटिकामें उनके चरित्र प्रादि रूप] संविधानकको रचना प्रसिद्ध कथाकी अपेक्षा] कुछ अन्य ही प्रकार से कर देनेसे नाटिका 'कल्प्यार्था' हो जाती है। [आगे नाटिका शब्दको व्युत्पत्ति दिखलाते हैं। यह शब्द नट नर्तने धातुसे बना है। उसके अनुसार जो सामाजिकों [व्युत्पाद्यों के मनोंको नचाती है [आह्लादित करती है] इस विग्रहमें अच्-प्रत्यय करके [षिद्गौरादिभ्यश्च सूत्रमें] गौरादि गणके प्राकृति गण होनेसे डीप प्रत्यय होनेपर 'नाटी' [यह पद सिद्ध होता है । [यह नाटी पद नाटिकाका पर्यायवाचक शब्द हो है । नाटी पदसे अल्पार्थमें कप्-प्रत्यय करके 'नाटिका' पद बन जाता है। इस बातको आगे कहते हैं ] अल्प कथावस्तु होने के कारण अल्पार्थमें कपप्रत्यय होकर 'नाटिका' यह भी | रूप बनता है। नाटिका और नाटी पदोंमें जो स्त्रीलिंगका प्रयोग किया गया है उसका उपपादन करते हैं] स्त्री-प्रधान होनेके कारण और सौकुमार्यका अतिशय होनेके कारण स्त्रीलिंगको संज्ञाके द्वारा निर्देश किया गया है । इसी प्रकार 'प्रकरणी' [इस पद] में भी [स्त्रीलिंगके पदका प्रयोग समझ लेना चाहिए।
अब नाटिकामें [पाख्यान-वस्तुको रचना किस प्रकार करनी चाहिए इस] कर्तव्यका उपदेश करते हैं
[ सूत्र १२२ ]-उस [नाटिका] में, अन्त में [अर्थात् निर्वहण-सन्धिमें] नायकका मुख्य नायिका द्वारा अन्य [कन्या के साथ योग कराया जाना चाहिए। [और उसके पूर्व] नायक प्रेमासक्त होकर भी मुख्य नायिकासे डरता हुग्रा-सा अन्य [कन्याके साथ प्रणयव्यापार में प्रवृत्त होता है।
१. देख्यचसिप्र।
२. सुकुमारातिनयत्वाच्च ।
३. नायकागत प्र।
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२१६ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ७३, सू० १२३ 'अत्र' नाटिकायां 'मुख्या' नृपवंशजत्व-गम्भीरत्व-परिणीतत्वादिभिः प्रधानं नायिका, तद्वशादन्तःपुरसंगीतकसम्बन्धेन श्रुति-दर्शनाभ्यामासन्नया 'अन्यया' 'कन्यया' 'योगः' सम्बन्धो नायकस्य 'पर्यन्ते' निर्वहणसन्धौ दर्शयितव्यः ॥ [६] ७१ ।
- नेता च तल्लाभादर्वाक् प्रवर्धमानानुरागो मुख्यातश्चकितहृदयः कन्यायामुपवनादिषु संकेतस्थानेषु संघटते। .
__ कृत्यान्तरमपि दर्शयति[सूत्र १२३] —देवी दक्षाऽपरा मुग्धा समा धर्मा द्वयोः पुनः ॥[७] ७२॥
क्रोध-प्रसाद-प्रत्यूह-रति-च्छमादि भूरिशः। देवी दक्षा चतुरा निबन्धनीया । अपरा तु कन्या मुग्धा चातुर्यवर्जिता। धर्माः पुनः क्षत्रियवंशजत्व-नय-विनय-लज्जा-महत्त्व-गाम्भीर्यादयः, तुल्या द्वयोः देवी-कन्ययोर्निबन्धनीयाः ॥ [७] ७२ ॥
तथा कन्यानुरागपरिज्ञाने देव्या राजनि क्रोधः। राज्ञा च तस्याः प्रसादनम् । देव्या च राज्ञः कन्यासमागमे विघ्नः । राज-कन्ययोः परस्परं रतिः । सर्वेषामान्योन्यं वचनम् । आदि शब्दादन्यदपि श्रृगारांगं भूयो भूयो निबन्धनीयमिति ।।
इस नाटिकामें राजवंशमें उत्पन्न होनेके कारण, गम्भीरत्वके कारण और परिणीता होनेके कारण, मुख्या नायिका ही प्रधान होती है। उसके द्वारा अन्तःपुरके संगीत प्रादिके सम्बन्धसे श्रवण या दर्शन द्वारा प्रास दूसरी कन्याके साथ नायकका सम्बन्ध अन्तमें अर्थात् निर्वहण सन्धिमें दिखलाना चाहिए। ॥ [६] ७१॥
और उसके [अर्थात् निर्वहरण सन्धिके] पहिले तो नायक [अन्य कन्याके प्रति क्रमशः] अनुरागको वृद्धि होनेपर भी मुख्य नायिकासे डरता हुआ-सा ही उपवन प्रादिमें कन्यासे मिलता है।
प्रब [नाटिकामें] करने योग्य अन्य बात भी दिखलाते हैं
[सूत्र १२३]-देवीको चतुरा रूपमें, और [अन्य अर्थात] कन्याको मुग्धा रूपमें [दिखलाना चाहिए । दोनोंके [कुलजत्वादि] धर्म समान [दिखलाने चाहिए । ७ [७२] ॥
__ [और नाटिकाको पाख्यानवस्तुके बीच में] कोष, प्रसाद, विध्न, रति और छल प्रादिका प्रचुर-प्रयोग दिखलाना चाहिए।
देवी दक्षा प्रर्थात् चतुरा रूपमें प्रदर्शित करनी चाहिए। और दूसरी कन्या तो मुग्धा प्रर्थात् चातुर्यरहित [दिखलानी चाहिए। क्षत्रियवंशजत्व, नय, विनय, लज्जा, महत्त्व, गाम्भीर्य मावि धर्म दोनों अर्थात् देवी तथा कन्यामें समान रूपसे दिखलाने चाहिए।
कन्याके [ प्रति राजाके ] अनुरागका ज्ञान होनेपर राजाके प्रति देवीका क्रोध, और राजाके द्वारा उस [देवों को प्रसन्न करनेका यत्न [दिखलाना चाहिए । देवीके द्वारा राजा कन्याके साथ समागममें विघ्न उपस्थित करना, राजा और कन्याका परस्पर अनुराग, और सबका एक दूसरेको धोखा [ देकर कार्य सिद्ध करनेका प्रयत्न नाटिकामें दिखलाना चाहिए । आदि शब्दसे श्रृंगारके अंगभूत अन्य धर्मोको भी बार-बार ग्रथित करना चाहिए।
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का० ७३, सू० १२४ ] द्वितीयो विवेकः
[ २१७ अथ नाटिकालक्षणातिदेशेन 'प्रकरणी' लक्षयति[सूत्र १२४]-एवं प्रकरणी किन्तु नेता प्रकरणोदितः ॥ [८] ७३ ॥
___ एवं नाटिकोक्त-चतुरंकत्वादिलक्षणानुसारेण 'प्रकरणी' ग्रथनीया। किन्तु नेता प्रकरणोक्तो वणिगादिः । तेन वणिगााचित एव वेष-संभोगादिः सर्वोऽप्यत्र व्यवहारः। त्यपि तज्जात्यनुरूपव। फलमपि महीलाभस्य वणिगादेरनुचितत्वात् स्त्रीप्राप्तिपुरःसरं द्रव्यलाभादिकं द्रष्टव्यम् ।
कैशिकीबहुलत्वं च नाटकधर्मः। प्रकरणस्याल्पकैशिकीत्वात् । कल्प्यार्थत्वं वरिणगादिनायकत्वं च प्रकरणधर्मः। तथा नाटकप्रकरणोत्थितत्वेऽपि नाटिका-प्रकरणिकयोः नाटकोक्तनायकानुसारेण' नायिकाव्यपदेशः । नायकानुसारित्वात् सर्वव्यवहाराणाम्। प्रकर्षेण क्रियते कल्प्यते अस्यामर्थः इति 'प्रकरणी'। अल्पार्थे कपि 'प्रकरणिका' । एते च द्वे अपि मुख्यरूपकद्वयसंकरनिष्पन्नत्वात् संकीर्णभेदरूपे । एवमन्येऽपि संकरभेदा रूपकद्वय-त्रयादि-सांकर्येण सम्भवन्ति परमदृष्टत्वादरजकत्वाच्च न ते लक्ष्यन्ते इति । नाटिकायां च राज्ञां, प्रकरणिकायान्तु वणिगादीनां विलासप्रधानं धर्मार्थाविरोधि वृत्तं नाटक-प्रकरणयोरिव व्युत्पाद्यम् ॥८७३॥
४. चतुर्थ रूपक भेद "प्रकरणी' का निरूपण इस प्रकार यहाँ तक नाटिकाके लक्षणका निरूपण कर अब आगे ग्रन्थकार 'प्रकरणी', के लक्षणका निरूपण प्रारम्भ करते हैं ।
___ाब 'नाटिका' के लक्षणके 'अतिदेश' द्वारा [अन्यके धर्मका प्रन्यके साथ सम्बन्ध दिखलाना 'मतिदेश' कहलाता हैं] 'प्रकरणी' का लक्षण करते हैं
[सूत्र १२४]-इसी प्रकार [अर्थात् नाटिकाको रचनाके समान हो] 'प्रकरणी' [को रचना करनी चाहिए] किन्तु उसमें, 'प्रकरण' में कथित [वणिक् प्रादि ही] नायक होना चाहिए। [८] ७३ ॥
इसी प्रकार अर्थात् नाटिकामें कहे चतुरंकत्वादि लक्षणोंके अनुसार 'प्रकरणी' को रचना करनी चाहिए। किन्तु [इस बातका ध्यान रखना चाहिए कि प्रकरणीमें] 'प्रकरण' में कहे हुए वणिक् प्रादिमेंसे ही [कोई] नायक होना चाहिए। इसलिए वरिणक् आदिके योग्य ही वेष और सम्भोग प्रादि सारा व्यवहार यहाँ दिखलाना चाहिए। स्त्री नायिका भी उसी जातिके अनुरूप होनी चाहिए। पृथिवीलाभ रूप फलके वरिपक प्राविकेलिए अनुचित होनेसे स्त्रीप्राप्ति सहित द्रव्यलाभादि फल भी ['प्रकरण' के समान ही होना चाहिए।
['नाटिका' के समान 'प्रकरणी' में भी नाटक और 'प्रकरण' दोनोंके धर्मोका समावेश होता है जिनमेंसे] कैशिकीका बाहुल्य नाटकका धर्म है। क्योंकि 'प्रकरण' में कैशिकी की न्यूनता होती है। ['प्रकरणी' में कैशिकी-बाहुल्य रहता है वह धर्म नाटकसे लिया जाता है 'प्रकरण' से नहीं] कल्पित अर्थका होना और वरिणगादिका नायकत्व ये दोनों 'प्रकरण' के धर्म [प्रकरणी में आते हैं। नाटक और 'प्रकरण' से उत्थित होनेपर भी 'नाटिका' और 'प्रकरणी' दोनोंमें, नाटक [और प्रकरण में कहे हुए नायकों के अनुसार ही नायिकाका व्यवहार होना चाहिए। क्योंकि सारे व्यवहार नायक के अनुसार ही उचित होते हैं। १. नायिकानुसारेम नायक व्यपदेशः
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२१८ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ७४-७५, सू० १२५ अथ पूर्णदशा-संधीनि रूपकाणि लक्षयित्वा न्यूनदशा-सधीनि निरूप्यन्ते । तत्रापि मनुष्यनायकप्रत्यासत्त्या प्रथम 'व्यायोग' लक्षयति[सूत्र १२५]-एकाहचरितकांको गर्भामर्शविजितः ।।
अस्त्रीनिमित्तसंग्रामो नियुद्धस्पर्धनोद्धतः ॥ [९] ७४ ॥ स्वल्पयोषिज्जनः ख्यातवस्तुर्दीप्तरसाश्रयः ।
अदिव्यभूपतिस्वामी व्यायोगो नायिका विना ॥[१०]७५॥ एकदिवसनिवर्तनीयकार्य एक एव अङ्को यत्र। एकाहचरितत्वाच्चैकाङ्कत्व['प्रकरण' के समान ही 'प्रकरणी' का निर्वचन मागे दिखलाते हैं जिसमें [पाख्यान-वस्तुरूप] अर्थ भली प्रकारसे किया अर्थात् कल्पित किया जाता है वह 'प्रकरणी' कहलाती है [यह 'प्रकरणी' शब्दका अवयवार्थ हुआ] । अल्पार्थमें कप-प्रत्यय करके 'प्रकरणिका' [पद भी बन जाता है] । [नाटिका और प्रकरणी] ये दोनों ही [नाटक तथा प्रकरण रूप] मुख्य दो रूपकों के संकरसे उत्पन्न होनेके कारण संकीर्णभेद रूप हैं। इसी प्रकार दो रूपकों या तीन रूपकों के संकरसे उत्पन्न अन्य संकर भेद भी हो सकते हैं। किन्तु लक्ष्य ग्रन्थोंके रूपमें] न पाए जानेसे और मनोरञ्जक न होनेसे हमने उनके लक्षण नहीं किए हैं । 'नाटक' और 'प्रकरण' के समान ही नाटिकामें राजामोंके और 'प्रकरणिका' में वरिणगादिके, धर्म एवं अर्थके प्रविरोधी विलास-प्रधान वृत्तका वर्णन करना चाहिए ॥ [८] ७३ ॥
५. पञ्चम रूपकभेद 'व्यायोग' का निरूपण इस प्रकार नाटक, प्रकरण, नाटिका और प्रकरणी इन चार रूपक भेदोंका निरूपण कर चुकने के बाद अब पञ्चम भेद 'व्यायोग'के लक्षणका अवसर प्राता है। यहां तक जिन चार रूपका भेदोंका निरूपण किया गया है उन सबमें सम्पूर्ण दशाओं और सन्धियों. का वर्णन था। किन्तु यहाँसे आगे जिन रूपकभेदोंका वर्णन किया जाएगा उनमें दशा तथा सन्धि दोनों न्यून संख्यामें रहेंगी। इसी भेदको दिखलाते हुए ग्रन्थकारागे 'व्यायोग'का लक्षण प्रादि करते हैं।
पूर्ण दशाओं और पूर्ण सन्धियोंसे युक्त [१ नाटक, २ प्रकरण, ३ नाटिका और ४ प्रकरणी इन चार] रूपकोंके लक्षण कर चुकने के बाद अब न्यून दशा और सन्धियोंसे युक्त [रूपक भेदों का निरूपण [प्रारम्भ करते हैं। उनमें से भी ['च्यायोग' में नाटकादि पूर्वोक्त चार रूपकभेदोंके समान मनुष्य नायकका सम्बन्ध होनेसे पहले च्यायोग'का निरूपण करते हैं-----
[सूत्र १२५ क] - एक दिनके वृत्तान्तको दिखलाने वाले और एक ही अंक से युका, गर्भ तथा विमर्श सन्धियोंसे रहित, स्त्रीसे भिन्न निमित्तसे संग्राम जिसमें दिखलाया गया हो, मल्लयुद्ध और स्पर्धासे दीप्त ।- [६] ७४ ।
सूत्र १२५ ख]-बहुत कम स्त्री पात्रों वाला, प्रसिद्ध कथा-वस्तु तथा दीप्त रसोंसे सम्पन्न, अदिव्य [देवता तथा राजा आदिसे भिन्न सेनापति अमात्यादि रूप नायकसे युक्त रूपक 'ज्यायोग' [कहलाता है। किन्तु उसमें नायिका नहीं होती है। [१०] ७ ।
एक दिन में ही कार्यकी समाप्तिको प्रदर्शित करने वाला, एक ही अंक जिस में हो [वह एकमेव 'व्यायोग' कहलाता है। यह व्यायोगका मुख्य लक्षण है] । एक ही दिनके
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का०७४-७५, सू० १२५ ] द्वितीयो विवेकः .
[ २१६ मस्य । दीप्तरस-नायकयुक्तत्वात् गर्भविमर्शविवर्जनम् । दीप्तरसो हि कालक्षेपासहिष्णुतया विनिपातानां शंकया च प्रारम्भ-प्रयत्नानन्तरं फलागम एवं यतते। ..
एवमीहामृगनायका' अपि । डिम-समवकारनायकास्तु बहुतरफलार्थित्वेन प्राप्त्याशायुक्ता दीप्तरसत्वेन च विनिपाताशङ्किनो निर्विमर्शकाः । भाण-प्रहसनयो
यकस्याधमत्वाद्, उत्सृष्टिकाङ्के शोकार्थत्वाद्, वीथ्यां चासहायत्वान्, सर्वेषामल्पवृत्तत्वाच्च प्रारम्भानन्तरं फलागमनिबन्धः । नाटकादिनायकस्य तु प्रेक्षापूर्वकारित्वेनार्तिसहत्वात् हित-बहुफलकर्तव्यारम्भित्वेन विनिपातप्रत्ययापाकरणाच्च सवोवस्थासम्भवेन पञ्चापि सन्धयो भवन्त्येव । वृत्तान्तका वर्णन होनेसे इसमें केवल एक ही अंक होता है। दीप्तरस [रौद्र वीर प्रादि रसप्रधान] नायकसे युक्त होनेके कारण ही गर्भ तथा अवमर्श सन्धियोंका निषेध किया गया है। दोप्तरस वाला [नायक] कालक्षेपको [अर्थात् कार्यसिद्धि में विलम्बको सहन नहीं कर सकता है [जल्दबाज होता है, और काम बिगड़ जानेके डरसे [कालक्षेप किए बिना प्रारम्भ और प्रयत्न रूप दो अवस्थानों के अनन्तर ही फलको प्राप्त करनेका यत्न करता है । [इसलिए इसमें गर्भ तथा विमर्श सन्धियोंका अवसर नहीं पाता है ।
सन्धि तथा अवस्थाओंकी न्यूनताका उपपादन इसी प्रकार 'ईहामृग' नामक रूपकभेद] के नायक भी [कालक्षेपको सहन नहीं कर सकते हैं इसलिए उसमें भी गर्भ और विमर्श सन्धियां नहीं होती हैं] । 'डिम' और 'समवकार' के नायक तो प्रचुर फलको कामना वाले होनेसे 'प्राप्त्याशा' [अवस्थावाली 'गर्भ सन्धि] से युक्त तो होते हैं किन्तु दीप्तरस [जल्दबाज] होनेसे विनिपात [कार्य विनाश] को शंकासे युक्त होनेके कारण विमर्श' रहित होते हैं । [इसलिए 'डिम', 'समवकार' प्रादि पकभेदों में 'गर्भसन्धि' होता है किन्तु विमर्शसन्धि' नहीं होता है । 'भारण' और 'प्रहसन' नामक रूपकभेदों के नायकोंके अधम होनेसे, और 'उत्सृष्टिकांक' में शोकका प्राधान्य होनेसे, तथा 'वीथी' प्रादि [भएकभेदोंमें नायकके] सहायक-विहीन होनेसे, और इन सभीके स्वल्पवृत्तवाला होनेसे प्रारम्भ [मवस्था] के बाद हो [बीच की यत्न, प्राप्त्याशा आदि तीन अवस्थानों को छोड़कर] फलप्राप्ति [रूप पञ्चमावस्था का वर्णन किया जाता है। नाटकादिके नायक तो विचारपूर्वक कार्य करने वाले, कष्टसहिष्णु, हितकर और बहुफल वाले कार्यके प्रारम्भ होनेसे, और विनिपातके कारणों [अर्थात् बाधाओं] के निराकरणमें समर्थ होनेसे [नाटकादिमें] सारी अवस्थानोंका सम्भव होनेसे पांचों सन्धि होते ही हैं।
इस प्रकार इस अनुच्छेदमें ग्रन्थकारने विभिन्न रूपक भेदोंके नायकोंकी मनोवृत्ति का विश्लेषण करते हुए दीप्त स्वभाव वाले नायक जल्दबाज होते हैं और कार्य में कोई विघ्न न पा जाय इस दृष्टि से तुरन्त ही फल प्राप्तिका यत्न करते हैं इसलिए उस प्रकारके नायकों से युक्त 'व्यायोग' आदि रूपक भेदोंमें एक, दो या तीन- अवस्थाओंको छोड़कर शेष दो तीन या चार अवस्थाओं और उसीके अनुसार दो, तीन या चार सन्धियोंका प्रयोग किया जाता है। नाटकादि प्रारम्भिक चार रूपक भेदों में ही पांचों अवस्थाओं तथा पांचों सन्धियों का उपयोग होता है। अन्तके शेष रूपक भेदों में सारे सन्धियों और सारी अवस्थानोंका १. नायिका।
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२२० ]
[ का० ७६, सू० १२६
अत्र च गर्भावमर्श सन्धिप्रतिषेधे एतत्सन्धिपरिच्छेदिके प्राप्त्याशा- नियताप्ती अवस्थे अपि प्रतिषिद्धे एव । एवमपरेष्वपि रूपकेषु तत्तत्सन्धिनिषेधे तत्तत्सन्धिपरिच्छेदिकावस्थापि निषिद्धैव द्रष्टव्येति ।
अस्त्रीति अस्त्र्यर्थसंग्रामसंयुक्तश्च । यथा जामदग्न्यजये परशुरामेण सहस्रार्जुनवधः कृतः । नियुद्धं बाहुयुद्धम् । स्पर्धनं शौर्य - विद्या-कुल-धन-रूपादिकृतः संहर्षः । ताभ्यामुद्धृतो दीप्तः ।
प्रयोग नहीं होता है । इनमें से 'व्यायोग' में 'गर्भ' और 'विमर्श' को छोड़कर केवल तीन सन्धियों और तीन अवस्थाओं का ही प्रयोग होता है । 'डिम', 'समवकार' आदि में विमर्श सन्धिको छोड़कर शेष चार सन्धियों और चार अवस्थाओं का उपयोग होता है । 'भाग' तथा 'प्रहसन' 'उत्सृष्टिकांक' तथा 'वोथी' इन चारोंमें केवल प्रादि और अन्तकी दो अवस्थानों और दो सन्धियों का ही उपयोग होता है । बीच की तीन अवस्थाओं तथा तीन सन्धियों का उपयोग नहीं होता है । इन बारह प्रकारके रूपक भेदोंकी सन्धि तथा अवस्था दृष्टिसे स्थिति निम्न प्रकार बनती है
श्रादिके प्रयोगकी
रूपक भेद
१. नाटक
२. प्रकरण
३. नाटिका
४. प्रकरणी
५. व्यायोग
६. ईहामृग
७. समवकार
नाट्यदर्पणम्
८. डिम
६. भोरण
१०. प्रहसन ११. उत्सृष्टिकांक
१२. वीथी
केवल चार अंकों में
केवल चार अंकों में
गर्भ, विमर्श रहित
गर्भ, विमर्श रहित
विमर्श वर्जित
विमर्श वर्जित
प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श रहित
भारणवत्
भोरणवत्
भाणवत्
भागवत्
भारणवत्
भागवत्
यहाँ [अर्थात् व्यायोगमें] गर्भ तथा विमर्श सन्धिका निषेध होनेसे इन सन्धियों को व्याप्त करने वाली 'प्राप्तयाशा' प्रर 'नियताप्ति' रूप प्रवस्थानोंका भी निषेध समझना चाहिए । इसी प्रकार अन्य रूपकोंमें भी उस उस सन्धिका निषेध होनेपर उस उस सन्धि को व्याप्त करने वाली अवस्थाको भी निषिद्ध ही समझना चाहिए ।
'स्त्री' इत्यादिसे स्त्रीको छोड़कर अन्य निमित्तसे संग्रामयुक्त हो [यह सूचित किया है] जैसे 'जामदग्न्यजय' [नामक व्यायोगमें] परशुरामने सहस्त्रार्जुनका वध किया है। 'नियुद्ध' का बाहुयुद्ध है । शौर्य, विद्या, कुल, धन और रूपादिके कारण होनेवाला संहर्ष 'स्पर्धा' [कह[लाता ] है । उन दोनों [अर्थात् नियुद्ध तथा स्पर्धा ] से उद्धत अर्थात् दीप्त [ व्यायोग होता है ] । १. मुरत्वपि ।
प्रयुक्त अवस्था सन्धि
पाँचों अवस्था तथा सन्धियाँ
पाँचों अवस्था तथा सन्धियाँ
पाँचों अवस्था तथा सन्धियाँ
पाँचों अवस्था तथा सन्धियाँ
तीन अवस्था तथा सन्धियाँ
तीन अवस्था तथा सन्धियाँ
चार अवस्था तथा सन्धियाँ
चार अवस्था तथा सन्धियाँ श्रादि श्रन्त की दो सन्धि-अवस्था
वर्जित अवस्था सन्धि
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का० ७६, सू० १२६ ] द्वितीयो विवेकः
[ २२१ स्वल्पस्त्रीपात्रत्वं च कैशिकीरहितत्वात् । एतेन पुरुषपात्रबाहुल्यं लभ्यते । ‘ख्यातं प्रसिद्ध वस्तु नायकोपायलक्षणं यस्य । दीप्तानां वीर-रौद्रादीनां रसानामाश्रयः। अत-एवात्र गद्यं पद्यं चौजोगुणयुक्तम् । तथा दिव्यभूपतिवर्जितं सेनापत्यमात्यादिदीप्तरसनायकसम्पन्नः । केचिदस्य द्वादशनेतृकत्वमाम्नासिषुः । विशेषेण आ समन्ताद् युज्यन्ते कार्यार्थ संरभन्तेऽत्रेति 'व्यायोगः' । 'नायिकां विना' इत्यनेन नायिकायास्तदुचितस्य च दूत्यादेः परिजनस्य निषेधः । तेन नायकपरिच्छदभूताश्चेट्यादयो भवन्त्येव । अत्र च मन्त्रि-सेनापत्यादीनां युद्धादिबहुलं वृत्तं व्युत्पाद्यमिति ॥ [६-१०] ७४-७५ ॥
अथ क्रमप्राप्त समवकारं लक्षयति[सूत्र १२६] -विज्ञेयः समवकारः ख्याताओं निविमर्शकः।।
उदात्तदेव-दैत्येशो वीथ्यङ्गी वीर-रौद्रवान् ॥[११]७६॥ संगतैरवकीर्णैश्चाथैः त्रिवर्गोपायैः पूर्वप्रसिद्धैरेव क्रियते निबध्यते इति 'समवकारः ।' ख्यातार्थ इति बृहत्कथादिप्रसिद्धनायक-उपाय-त्रिवर्गफलो विमर्शसन्धिविवर्जितश्च ।
[व्यायोगमें] स्त्री पात्रोंको मल्पता कैशिको रहित होनेके कारण होती है। इससे पुरुष पात्रोंका प्राधिक्य सूचित होता है। जिसमें नायक तथा उपाय रूप 'वस्तु' ख्यात अर्थात् प्रसिद्ध हो। वीर रौद्र प्रादि वोप्त रसोंका प्राश्रय हो। इसीलिए इसमें गद्य और पद्य दोनों मोज गुणसे युक्त होने चाहिए। और [घ्यायोग] दिव्य [अर्थात् देवता रूप नायक और राजाओं [रूप नायकों] से भिन्न, दीप्त रसोंके अनुरूप सेनापति अमात्यादि नायकोंसे युक्त होना चाहिए। कोई लोग इसमें बारह प्रकारके नायक बतलाते हैं। [मागे 'व्यायोग' शव का निर्वचन कर उसका अवयवार्थ दिखलाते हैं जिसमें विशेष रूपसे 'पा समन्तात्' अर्थात् सब प्रोरसे युक्त होते हैं अर्थात् कार्यकेलिए प्रयत्न करते हैं। वह 'व्यायोग' [कहलाता] है [यह 'व्यायोग' पदका अवयवार्थ या निर्वचन है] । 'नायिकां विना' इस पदसे नायिका
और उसके योग्य दूती प्रादि परिजनोंका निषेध किया गया है। इसलिए नायकके सेवकादि के रूपमें चेटो प्रादि होती ही हैं [उनका निषेध नहीं समझना चाहिए। इस सबका फलितार्थ यह हुआ कि इसमें [अर्थात् व्यायोगमें] सेनापति अमात्य प्रादिका युद्ध-प्रधान चरित्र प्रदर्शित करना चाहिए ॥ [९-१०] ७४-७५ ।।
६. पष्ठ रूपकभेद 'समवकार' का निरूपण ['व्यायोग' नामक पञ्चम रूपकभेदके निरूपणके बाव] अब 'समवकार' [नामक षष्ठ रूपकभेद] का अवसर प्राप्त होनेसे उसका निरूपण करते हैं
[सूत्र १२६]---प्रसिद्ध पाख्यान वस्तुके आधारपर प्रथित, विमर्श-सन्धिसे रहित उदात्त प्रकृतिके देव-दैत्य प्रावि नायकों वाला, वीर या रौद्ररस प्रधान, वीथोके अंगोंसे युक्त [रूपकभेदको] 'समवकार' समझना चाहिए । [अर्थात् 'समवकार' के लक्षणमें इन सब बातोंका समावेश होता है] ॥ [११] ७६ ॥
[कारिकाको घ्याल्या प्रारम्भ करते हुए प्रन्थकार सबसे पहले 'समवकार' पदका निर्वचन कर उसका अवयवार्थ दिखलाते हैं । कहीं मिले हुए और कहीं बिखरे हुए त्रिवर्ग
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२२२ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० ७६, सू० १२६
'उदात्त' इति उदात्तत्वं महत्त्व - गाम्भीर्यादि । दैव-दैत्यानां हि धीरोद्धतत्वं मयपेक्षयैव, स्वजात्यपेक्षया तु धीरोदात्तत्वमपि ।
अत्र च तत्तदेव-दैत्यभक्तानां इष्टदेवतादि-कर्मप्रभावादिकीर्तनात् महती प्रीतिर्यात्राजागरादि-प्रेक्षाकरण- तदनुष्ठितोपायादिषु प्रवृत्तिश्च भवतीति देव-दैत्यौ नेतारौ । एवमन्येष्वपि मनुष्यनेतृकेषु वाच्यम् । वीथ्यङ्गानि व्याहारादीनि वक्ष्यमाणानि । तद्वान । वीर - रौद्रवान् इत्यतिशायने मतुः । तेनात्र' त्रिशृङ्गारत्वेऽपि वीर-रौद्रौ प्रधानम् । देव-दैत्यानामुद्धतत्वेन शृङ्गारस्य च्छायामात्रत्वेन निबन्धनादिति || [ ११ ] ७६ ॥
के पूर्व प्रसिद्ध उपायोंके द्वारा जिसको किया अर्थात् बनाया जाता है वह 'समवकार' कहलाता है । [श्रर्थात् समवकार शब्द सम श्रव उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से निष्पन्न होता है ] । 'ख्यातार्थ ' से [ यह अभिप्राय है कि] बृहत्कथा आदिमें प्रसिद्ध नायक, उपाय तथा त्रिवर्ग-रूप फलसे युक्त, तथा विमर्श-सन्धिसे रहित होना चाहिए ।
['उदात्तदेव-दैत्येशो' में] 'उदात्त' इससे महत्त्व गाम्भीर्यादिको उदात्तत्व समझना चाहिए। देवों और दैत्योंका धीरोद्धतत्व मनुष्यों की अपेक्षासे होता है। अपनी-अपनी जाति की अपेक्षासे तो [देवों तथा दैत्यों दोनोंमें] धीरोदात्तत्व भी होता है। यहां [संसार में या समवकारमें] उन-उन देवों तथा दैत्योंके भक्तोंमें अपने-अपने इष्टदेव प्रावि, उनके कर्म तथा प्रभाव प्रादिके कीर्तनसे प्रत्यन्त प्रानन्द [ प्रीति ] यात्रा, जागरण, [प्रेक्षाकरण अर्थात् ] दर्शन या झांकी बनाना श्रादि और उनके द्वारा किए गए उपायोंके अनुष्ठान श्रादिमें प्रवृत्ति होती है इसलिए देव और दैत्योंको यहाँ [अर्थात् समवकार में] नायक माना गया है । इस प्रकार मनुष्यों से भिन्न नायकों वाले अन्य रूपकभेदोंमेंके विषय में भी समझना चाहिए। ['वीथ्यङ्गवानू' इस पदमें निर्दिष्ट] 'वोथी' के 'व्याहारादि' अंग जो श्रागे कहे जाने वाले हैं उनसे युक्त [ होना चाहिए ] । 'वीर-रौद्रवान्' इसमें प्रतिशायन अर्थमें मतु प्रत्यय है । इसलिए [समयकारमें अगली ७७ वीं कारिकामें कहे हुए (१) धर्मफलक, (२) अर्थफलक, तथा ( ३ ) कामफलक ] तीनों प्रकारके शृङ्गार के होनेपर भो, वीर और रौद्र प्रधान [ रस] होते हैं । rate da और दैत्योंके उद्धत होनेके कारण उनके शृङ्गारका [ समवकार में] छायामात्र रूपसे ही वर्णन होता है । [ इसलिए शृङ्गाररस उसमें प्रधान नहीं होता है। वीर या रौद्ररस ही समवकार में प्रधान रस होते हैं ] ॥ [११] ७६ ॥
इस प्रकार 'समवकार' का सामान्य लक्षरण इस कारिका में दिया है । ७७ से ८० तक अगली चार कारिकानों में उसके सम्बन्ध में अन्य अनेक बातों का वर्णन करेंगे। इनमें 'समवकार' के द्वादश नायक और तीन अंक बतलाए गए हैं। द्वादश नायकोंकी संख्याका उपपादन दो प्रकार किया गया है । एक मत तो यह है कि समयकारके जो तीन अंक होते हैं इनमें से प्रत्येक में चार-चार नायक होते हैं। इस प्रकार तीनों अंकों में मिलाकर बारह नायक हो जाते हैं । प्रत्येक अंक में जो चार-चार नायक कहे गए हैं उनमें नायक - प्रतिनायक और उन दोनोंके सहायक ये चारों नायक माने जाते हैं। तभी चार नायक बनते हैं । दूसरे मत में 'समवकार' के प्रत्येक अंकमें बारह-बारह नायक होते हैं । यह बारह संख्या भी इसी प्रकार नायक प्रतिनायक और उनके अनुरूप सहायकों कों मिलाकर पूरी होगी ।
१. श्रङ्गारत्वेऽपि ।
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का० ७७-७८, सू० १२७ ] द्वितीयो विवेकः
[ २२३ अथ कृत्यान्तरमुपदिशति[सूत्र १२७] -अत्र द्वादश नेतारः फलं तेषां पृथक् पृथक् ।
अंकास्त्रयः त्रिशृंगाराः त्रिकपटा त्रिविद्रवाः॥ [१२]७७ ॥ षड्-युग्मैकमुहूर्ताः स्युः निष्ठितार्थाः स्वकार्यतः।
महावाक्ये च सम्बद्धाः क्रमाद् द्वि-एकैकसन्धयः॥[१३]७८॥ 'अत्र' समवकारे नायका द्वादश । तत्र' प्रत्यकं द्वादश । यदि वा' प्रत्यकं नायक
'समककार को अगली कारिकामें 'त्रिशृंगार' तीन प्रकारके शृंगारोंसे युक्त कहा गया है। वैसे तो इसके प्रसंगमें शृंगारके सम्भोगशृंगार और विप्रलम्भशृंगार केवल ये दोनों ही भेद किए गए हैं। किन्तु यहाँ तीन प्रकारके शृंगाररमोंकी चर्चा की गई हैं। यहाँ शृंगार के ये तीन भेद फल की दृष्टि से किए गए हैं। (१) धर्मप्रधान शृंगार (२) अर्थप्रधान श्रृंगार और (३) कामप्रधान शृंगार । इस प्रकार शृंगारके तीन भेद करके 'समवकार'को 'त्रिशृंगारः' कहा गया है। शृंगारके ये तीनों भेद 'समवकार' के तीनों अंकोंमेंसे प्रत्येक अंकमें होने चाहिए। एक-एक अंक में एक-एक भेदका निबन्ध नहीं करना चाहिए यह बात भी आगे कहेंगे।
__ 'समवकार के तीनों अंकोंकी रचनाके विषयमें भी यह बात विशेष रूपसे निर्दिष्ट की गई है कि उनकी रचना इस प्रकारसे होनी चाहिए कि उनमें से प्रत्येक अक अपनेमें परिपूर्ण हो। उसको अपने अर्थ की पूर्णताके लिए दूसरे अंकके सहारेकी आवश्यकता न हो । इसके साथ ही अन्त में तीनों अंकोंकी एकवाक्यता या परस्पर सम्बन्ध भी प्रतीत हो सके। इसके लिए यह मार्ग बतलाया गया है कि प्रथम अंकके प्रारम्भमें भामुखके बाद तीनों अंकोंके अर्थके उपक्षेपक बीजका निबन्धन करना चाहिए। उसके बाद तीनों अंकोंको इस प्रकारसे बनावें कि उनका आख्यानवस्तु उसी अकमें समाप्त हो जाय । किन्तु अन्तमें तृतीय अंकमें फिर इस प्रकारकी रचना करनी चाहिए कि जिससे उसका आख्यानभाग अपने में परिपूर्ण हो किन्तु साय हो तीनों अंकों के अर्थका परस्पर सम्बन्ध बन सके। इन्हीं सब बातोंको ७७-७८ प्रगली दो कारिका प्रों में इस प्रकार कहा गया है
अब आगे [समवकारमें] किए जाने वाले अन्य कार्योंका उपदेश करते हैं
[सूत्र १२७ क]-इस [समवकार) में बारह नायक होते हैं। उनका फल अलगअलग होता है। तीन प्रकारके शृंगार, तीन प्रकारके कपट और तीन प्रकारके विद्रवसे युक्त तीन प्रङ्क होते हैं । [१२] ७७ ।।
[सूत्र १२७ ख]--[समवकारके तीनों अंक क्रमशः] छः मुहूर्त, दो मुहूर्त और एक मुहूर्त वाले [अर्थात् इतने समय में जिनका अभिनय हो सके इस प्रकारके] । स्वयंमें परिपूर्ण अर्थवाले, और महावाक्य [अर्थात स्वयंमें परिपूर्ण होनेपर. भी एकवाक्यतायुक्त अर्थात् परस्पर] में सम्बद्ध, तथा क्रमशः दो. एक और एक सन्धि वाले होने चाहिए [अर्थात् प्रथम अंकमें मुख प्रतिमुख रूप दो सन्धियां, द्वितीय अंकमें केवल एक गर्मसन्धि तथा तृतीय अंकमें केवल एक निर्वहण सन्धिकी रचना होनी चाहिए । [१३] ७८ ।
___ इस 'समयकार में बारह नायक होते हैं। उनमें से प्रत्येक अंकमें बारह [नायक] होते १. प्रत्येकं।
२. प्रत्येक
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२२४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ७७-७८ सू० १२७
प्रतिनायकौ तत्सहायौ चेति चत्वारश्चत्वारः । ततः सर्वसंख्यया द्वादश द्वादश इति मध्यमा वृत्तिः । तेन क्वचिन्न्यूनाधिक्येऽपि न दोषः । 'तेपाम्' इति द्वादशानां नायकानां पृथग्भूतानि फलानि बध्यन्ते । यथा ' पयोधिमन्थने' हरिवलिप्रभृतीनां लक्ष्म्यादिलाभाः । श्रत एव सहायका आणि सुग्रीवादिवन्नायकत्वेन व्यपदिश्यन्ते । 'त्र्य' इति त्रयोऽङ्का भवन्ति शृङ्गारत्र्यादिविशिष्टाः न त्वेकैक एकस्मिन्नके शृङ्गारादीनामेकैकभावादिति । मुहूर्तो चदिकाद्वयम् । तत्र प्रथमः परमुहूर्तः । द्वितीयो द्विमुहूर्तः । तृतीय एकमुहूर्तः । एके तु प्रत्यकं यथोदितद्विगुणं कालमानमाहुः ।
I
'निष्ठितार्थाः' कार्थ साध्यफलस्य कान्तरार्थासम्बद्धत्वेन खस्मिन्नेव परिसमाप्रार्थाः । महावाक्ये च परिपूर्ण प्रबन्धार्थ साध्ये फले सम्बद्धाः । सकलप्रबन्धसाध्यफलोपायभूतार्थास्त्रयोऽङ्का इत्यर्थः ।
इह तावदामुखानन्तरं संक्षेपेणांकत्रयार्थोपक्षेपकं बीजं निबन्धनीयम् । तदनन्तरमंकद्वयं श्रवान्तरवाक्यार्थेन परस्परविच्छिनमायोज्यम् । तृतीयस्त्वं करतथा हैं [ यह एक मत है ] । अथवा प्रत्येक अंतमें १ नायक, २ प्रतिनायक, और उन दोनों के सहायक इस प्रकार चार-चार, और फिर [ तीनों श्रंकोंके चार-चार नायकोंको ] सब मिलाकर बारह [नायक ] होते हैं यह मध्यम मार्ग है । इसलिए किसी अंकमें कम और अधिक [ नायकोंकी संख्या ] होनेपर भी दोष नहीं होता है । 'तेषाम्' अर्थात् उन बारहों नायकोंके फल अलगलग वरिणत होते हैं। जैसे 'पयोधिमन्थन' में विष्णु और बलि आदि [ नायकों] के लक्ष्मी प्रादिकी प्राप्ति प्रादि रूप [ अलग-अलग ] फल [ दिखलाए गए ] हैं । इसलिए [सब नायकोंके अलग-अलग फलोंका निबन्धन होनेसे] सुग्रीव श्रादिके समान सहायक भी नायक रूपसे कहे जाते हैं । 'त्रय' तीन, इससे तीनों प्रकारके शृंगारोंसे विशिष्ट तीन अंक होते हैं यह प्रभिप्राय है । न कि एक-एक अंक में एक-एक शृंगारादि होता है [ इसका अर्थ यह हुआ कि 'समवकार' के प्रत्येक अंकमें तीनों प्रकार के शृंगार, तीनों प्रकारके कपट, और तीनों प्रकारके विद्रव, दिखलाए जाने चाहिए। एक-एक अंक में एक-एक प्रकार के श्रृंगार, कपट और विद्रवका प्रदर्शन नहीं करना चाहिए ] | मुहूर्तसे दो घड़ी [कालका ग्रहण होता ] है । उन [' समवकार' के तीन अंकों से प्रथम [क] छः मुहूर्तका, द्वितीय [अंक ] दो मुहूर्तका और तृतीय [ अंक ] एक मुहूर्तका होना चाहिए [ यह कारिकामें आए हुए षड्युग्म एकमुहूर्ता: स्यु:' इसका अर्थ है ] । इसका अभिप्राय यह है कि इतने कालमें तीनों अंकोंका प्रभिनयादि रूप अर्थ समाप्त हो जाना चाहिए। कोई [ व्याख्याकार ] तो प्रत्येक अंक में इस कालसे दुगना कालका परिमाण मानते हैं। [कारिकामें प्राए हुए ] 'निष्ठितार्था:' इससे उस अंककी कथा में साध्य फलका दूसरे अंक से सम्बन्ध न होनेसे अपनेमें ही अर्थ की समाप्ति हो जाय यह अभिप्राय है । [श्रर्थात् 'समवकार के तीनों अंकोंमेंसे प्रत्येक अंकके कथाभागकी समाप्ति उसमें हो जानी चाहिए] फिर भी महावाक्य में [अर्थात् सम्पूर्ण समवकार में] पूर्ण प्रबन्धके कथासे साध्य फलमें परस्पर सम्बद्ध होने चाहिए । प्रर्थात् सम्पूर्ण प्रबन्धसे साध्य फलके उपायभूत अर्थ वाले तीनों प्रङ्क होने चाहिए यह अभिप्राय है ।
[ इस प्रयोजनकी सिद्धिके लिए समवकारके प्रङ्कोंकी रजा इस प्रकारसे करनी चाहिए कि ] सबसे पहले प्रामुखके अनन्तर संक्षेपमें तीनों श्रोंके अर्थका उपक्षेण करने
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का० ७६-८०, सू० १२८ ] द्वितीयो विवेकः
[ २२५ निबन्धनीयो यथा अवान्तरवाक्यार्थविच्छिन्नः सर्वाङ्कार्थसम्बद्धार्थश्च भवति । एवं हि पूर्वापरानुसन्धानावधेयधियो व्यवहितार्थानुसन्धानावहितबुद्धयश्च त्रिवर्गसिद्ध युपायव्युत्पत्त्याऽनुगृहीता भवन्ति।
अङ्कान्तरार्थानुसन्धायी च परस्परासम्बद्धासत्वादत्र न बिन्दुर्निबध्यते । 'क्रमाद्' इति प्रथम-द्वितीय-तृतीयक्रमेण अङ्का द्वि-एक-एकसन्धयः । तत्र प्रथमेऽङ्के मुखप्रतिमुखे, द्वितीये गर्भः, तृतीये निर्वहणमिति ।[१२-१३ ] ७७-७८ ॥
अथ शृङ्गारादीनि व्याख्यातुमाह-- [सूत्र १२८]-शृङ्गारस्त्रिविधो धर्मकामार्थफलहेतुकः ।
वञ्च्य-वञ्चक-दैवेभ्यः, सम्भवी कपटस्त्रिधा।[१४] ७६॥ जीवाजीवोभयोत्थः स्याद् विद्रवखिरमीषु तु।
प्रत्येकमकेष्वेककः पद्यं च स्रग्धरादिकम् ॥ [१५] ८०॥ वाले बीजकी रचना करनी चाहिए। उसके बाद [प्रथम तथा द्वितीय] दोनों अङ्गोंको [स्वयंमें समाप्त हो जाने वाले अवान्तर वाक्याके रूपमें एक-दूसरेसे विच्छिन्न रूपमें ग्रथित करना चाहिए। [उसके बाद] तृतीय अङ्कको रचना इस प्रकार करनी चाहिए कि [प्रथम और द्वितीय प्रङ्क रूप] अवान्तर वाक्योंके अर्थमें विच्छिन्न होनेपर भी सब अङ्कोंके अर्थसे सम्बद्ध अर्थ वाला हो जाय । इस प्रकार पूर्वापर अर्थरूपको ग्रहण करने में और व्यवहित पर्वके अनुसन्धान करने में समर्थ बुद्धिवाले [सामाजिक, धर्म प्रथं काम रूप] त्रिवर्गकी सिद्धिके उपायोंके परिज्ञानके द्वारा अनुगृहीत होते हैं।
__ यहाँ [समवकारमें अके] परस्पर असम्बद्ध होनेके कारण, दूसरे प्रडके श्योको जोड़नेवाले 'बिन्दु' की रचना इसमें नहीं की जाती है। 'कमात्' [द्वि-एक-एकसषयः इस कारिका भागमें] क्रमते, इससे प्रथम द्वितीय तृतीयके कमसे पक, क्रमशः दो एक और एक सन्धि वाले होते हैं । उनमें से प्रथम मङ्कमें मुख और प्रतिमुल[दो सन्धि], द्वितीयमें गर्भसन्धि, मोर तृतीय [अ] में निर्वहरण सन्धि होता है। [इस प्रकार तीनों पड़ों में क्रमशः से एक तया फिर एक सन्धि होता है। विमर्श सन्धि समवकारमें नहीं होता है यह बात ७६वीं कारिकामें ही निविमर्श' पदसे कही जा चुकी है। [१२-१३] ७७-७८ ॥
___इन दोनों कारिकामोंमेंसे ७७वीं कारिकामें समयकारके तीनों मकोंको त्रिशृङ्गार, त्रिकपट और त्रिविद्रवसे युक्त कहा गया था। किन्तु इन पदोंका पर्थ वहां स्पष्ट नहीं किया गया था। इसलिए अगली दो कारिकाकोंमें इन तीनों शन्दोंके अर्थको स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया गया है । इसमें 'त्रिशृङ्गार' पदसे धर्म, मथं और काम हेतुक तथा तत्फलक तीन प्रकारके शृङ्गारोंका, त्रिकपट पदसे वञ्चयोत्थ, वञ्चकोत्थ तथा देवोत्थ तीन प्रकारके कपटोंका, तथा जीव अजीव और उभयसे उत्थित तीन प्रकारके विद्रवोंका ग्रहण होता है इसी बातको ग्रन्थकार अगली दोनों कारिकामों में दिखलाते हैं
[सूत्र १२६ क]-धर्म काम और मयं जिसके (१) फल तथा (२) हेतु है वह [विभङ्गार] तीन प्रकारका भङ्गार होता है। [इसी प्रकार साप, म तवावसे सत्तल होने वाला कपट [भो] तीन प्रकारका होता है। [१४] ७६ ।
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२२६ . ]
नाट्यदर्पणम् । का० ७६-८०, सृ० १२८ धर्म-काम-अर्थाः फलं हेतवश्च यस्य । नत्र पत्नीसंयोगरूपस्य शृङ्गारस्य परदारवर्जनादिको धर्मः फलम् । दानादिकम्तु धर्मः स्यादिलाभस्य हेतुः । काम-शृङ्गारशब्दाभ्यां स्त्री-पुसयो रतिः, तद्ध तुश्च स्त्री-पुसादिगुह्यते । तत्र स्त्री-पुसादिरूपशृङ्गारस्य रतिरूपः कामः फलम् । रतिरूपम्य शृङ्गारस्य स्त्री-पुसादिरूपः कामो हेनुः । अत्र च कामशृङ्गारे स्त्री परस्त्री कन्या च ग्राह्या । न पुनः वदारा वेश्या वा । यथा शक्रस्याहल्या । स्वदाराऽऽदौ हि धर्मस्याप्यनुप्रवेशेन केवलस्यैव कामस्य फल-हंतुभावो न ग्यात् ।
अर्थो राज्य-सुवणे-धन-धान्य-वस्त्रादिः । तत्र पण्यादियोषितां, कपांचित सुभगानां पुसा चार्थफलः शृङ्गारः। वेश्यादिषु च पुसामर्थ हेतुकः शृङ्गारः । देवादीनामपि गन्धर्व-यक्षादिरूपाणां राज्याद्यर्थसमोहा भवत्येव । तदाराधकानां चार्थप्राप्तिः । अत्र च पक्षे कारणे कार्योपचाराद् देवानामर्थशृङ्गारो द्रष्टव्यः । अथवा अर्थो अर्थनीयं परोपकार-प्रातज्ञानिर्वाहादिकम् । तच्च देवादीनामपि भवत्यवेति ।
[सूत्र १२६ ख]----जीव अजीव और जीवाजीव उभयसे उत्पन्न होने वाला विद्रव [भी] तीन प्रकारका होता है। इनमेसे प्रत्येक अमें एक-एक अर्थात् एक शृङ्गार, एक कपट और एक विद्रव की रचना करनी चाहिए । और [समवकारमें स्रग्धरादिक वृत्त होना चाहिए। [१५] ८०।
धर्म, काम और अर्थ जिसके फल [अर्थात् साध्य] तथा हेतु [अर्थात् साधक हैं [वह धर्म-कामार्थफलहेतुकः हुना। उनमेंसे पत्नी-संयोग रूप शृंगारका परदारवर्जन रूप धर्मफल होता है। और दानादि रूप धर्म उस स्त्री [स्वपत्नी के लाभका हेतु होता है। [इस प्रकार स्वपत्नी-संयोग रूप श्रृंगारका फल भी धर्म होता है, और उसका हेतु भी धर्म होता है] । काम और शृंगार शब्दोंसे स्त्र:-पुरुषको रति [रूप फल और उसके हेतु स्त्री और पुरुष दोनोंका ग्रहण होता है। उनमेंसे स्त्री-पुरुष रूप शृंगारका रति रूप काम फल है। और रति रूप शृंगारका स्त्री-पुरुषादि रूप काम हेतु है। और इस काम-शृंगारमें 'स्त्री' पदसे पर स्त्री अथवा कन्याका ही ग्रहण करना चाहिए। अपनी पत्नी अथवा वेश्याका ग्रहण नहीं करना चाहिए। जैसे इन्द्रं की अहल्या। अपनी स्त्री प्रादिमें तो धर्मका भी सम्बन्ध होनेसे केवल कामका फलभाव या हेतुभाव नहीं बन सकता है। [इसलिए काम-शृंगारमें 'स्त्री'से परस्त्री या कन्याका ही ग्रहण करना चाहिए यह अभिप्राय है ।
[अर्थ-श्रृंगार शब्द में] 'अर्ध' से राज्य, सुवर्ण, धन, धान्य वस्त्रादि [का ग्रहण होता है] । यहाँ वेश्याओं और किन्हीं सुन्दर पुरुषोंका अर्थफलक शृंगार होता है। और वेश्यादिके विषयमें पुरुषोंका अर्थहेतुक श्रृंगार होता है। अर्थात् वेश्यादिको श्रृंगारके द्वारा अर्थ-रूप फलको प्राप्ति होती है इसलिए उनका श्रृंगार अर्थफलक होता है। और पुरुषोंको अर्थ द्वारा शृंगारकी प्राप्ति होती है अतः उनका वेश्या विषयक श्रृंगार अर्थहेतुक शृंगार होता है] गन्धर्व यक्षादि रूप देवताओंको भी राज्य प्रादि अर्थको इच्छा होती है। और उनके पाराषकोंको अर्थको प्राप्ति होती है। इस पक्षमें कारणमें कार्यका उपचार मानकर देवतामोंका अर्थ-भंगार समझना चाहिए । अथवा परोपकार प्रतिज्ञा निर्वाह प्रावि अर्थनीय 'अर्थ' कहलाता है। और वह वेवाविकोंमें भी होता है। [इसलिए उनका श्रृंगार अर्थ-शृंगार कहलाता है । ___सरय-सा प्रतीत होने वाला मिथ्या प्रकल्पित प्रपञ्च कपट [कहलाता है। वह
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का० ७६-८०, सू० १२८ ] द्वितीयो विवेकः
[ २२७ मिथ्याप्रकल्पितः सत्यानुकारी प्रपञ्चः कपटः । स च यत्र वञ्चनीयः सापराधः स वच्च्योत्थो वश्चकस्य वञ्चनेच्छायां सत्यां कपटः। वश्चकबुद्धयभावे सापराधेऽपि वञ्चये वञ्चनायाः सम्पत्ययोगात् । तेन वञ्च्य त्थः कपटों वश्चकाविनाभाव्येव । अत एव उभयजश्चतुर्थो न भवति ।
यत्र तु वञ्च्यापराधं विना वञ्चकबुद्ध यैव केवलया कपटो भवति स वञ्चकसम्भवी । यत्र तु द्वयोस्तुल्यफलाभिधानवतोः काकतालीयन्यायेन एक उपचीयते ऽपरोऽपचीयते सवञ्च्यापराधाभावेन वश्चकस्य च वञ्चनाबुद्ध ययोगेन च दैवसम्भवीति ।
विद्रवन्ति त्रस्यन्ति जना यस्मादिति विद्रवोऽनर्थः। 'त्रिः' इति प्रकारत्रययुक्तः । तत्र जीवोत्थो हस्त्यादिजः । अजीवोत्थः शस्त्रादिजः । जीवाजीवोत्थो नगरोपरोधजः । तत्र हस्त्यादेः शस्त्रादेश्च व्यापारादिति ।
अमीषु तु शृङ्गार-कपट-विद्रवाणां त्रिषु भेदेषु मध्ये एकैको भेदोऽङ्केषु पृथक पृथग निबन्धनीयः । तत्र प्रथमेऽङ्केऽन्यतमः कपट उपाये, विद्रवो व्यापत्तिसम्भावनायां, शृङ्गारः फलांशे । एवं द्वितीये तृतीये च । प्रथमे चाङ्क शृङ्गारः कामशृङ्गार एव । रञ्जनायां साधकतमस्य प्रथममुपादानात् । अत एव प्रहासोऽप्यत्र निबध्यते। ‘पद्य (१) जहाँ वञ्चनीय [पुरुष] अपराधी होता है और वञ्चकको धोखा देने की इच्छा होती है वहाँ वञ्च्योत्थ कपट कहलाता है। (२) वञ्च्य [पुरुष] के अपराधी होनेपर भी वञ्चक को उस प्रकारका ज्ञान न होनेपर वञ्चना बन ही नहीं सकती है इसलिए वञ्च्योत्थ कपट वञ्चक [में वञ्चन करनेकी बुद्धि का अविनाभावी है। इस कारण [वञ्च्य-वञ्चक दोनों से उत्पन्न चतुर्थ भेद नहीं होता हैं ।
यहाँ तक वञ्च्योत्थ कपटका वर्णन किया। अब आगे वञ्चकोत्थ कपटका वर्णन करते हैं---
__ जहाँ वञ्च्य [जिसको धोखा दिया जा रहा है उस] के अपराधके बिना ही केवल वंचकको [वञ्चना] बुद्धिसे ही कपट होता है वह वञ्चकोत्थ कपट कहलाता है। [प्रागें देवोत्थ कपटका लक्षण करते हैं ] जहाँ तुल्य फल और तुल्य कारण [मभिधान] होनेपर भी काकतालीय-न्यायसे अकस्मात् एककी वृद्धि हो जाती है और एकका ह्रास होता है वहाँ वञ्ज्य ह्रिास वाले] का अपराध न होने और वञ्चक [वृद्धि वाले] में वञ्चनाबुद्धि न होनेके कारण वह देवोत्थ कपट होता है।
[प्रागे कारिकामें प्राए हुए तीन प्रकारके विद्रवोंका वर्णन करते हैं । जिससे लोग विद्वत होते हैं अर्थात् भयभीत होते हैं उस अनर्थको 'विद्रव' कहते है । वह तीन प्रकारका होता है । [१ जीवोत्थ, २ अजीवोत्थ और ३ जीवाजीवोस्थ] । उनमेंसे हस्ती प्रादिके द्वारा उत्पन्न होने वाला [अनर्थ] जीवोत्थ है । शस्त्रादिसे होने वाला अजीवोत्थ है। और नगरोपरोध प्रादिसे उत्पन्न जीवाजीवोत्थ है। उस [नगरोपरोधजन्य अनर्थ] में हस्ती प्रादि और शस्त्रादि दोनोंका व्यापार होनेसे [उस प्रकारके अनर्थको जीवाजीवोत्थ अनर्थ कहा जाता है।
[अमीषु तु] इससे शृङ्गार, कपट और विद्रवोंके तीन-तीन भेवोंमेंसे एक-एक भेद पड़ों में अलग-अलग निबद्ध करना चाहिए । उनमेंसे प्रथम अङ्कमें [तीनों प्रकारके कपटोंमेसे] १. सम्भवायोगात्। २. उपाये। ३. तनस्य ।
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२२८ ]
नाट्यदपणम् । का० ७६-८०, सू० १२८ च स्रग्धरादिकम् । श्रादिशब्दाद् बक्षरं शार्दू लाद्योजोगुणयुक्तं गृह्यते, न पुनर्गायत्र्यादि । तेन हि बह्वर्थाभिधाने क्लिष्टता स्यात् । केचित् पुनरल्पाक्षरं गायत्र्यादिकं अर्धसम-विषमादिकं चात्र पर्व मन्यन्ते । अनेन च गद्यस्यात्र न निषेधः पद्यवैशिष्टयविधानार्थत्वादिति। .
___ समवकारे च संक्षिप्तः सहास्यः शृङ्गारः, कपटो विद्रवो देवासुरवैरनिमित्तं, सम्प्रहारादिकं च दिव्यप्रभावसाध्यम् । लौकिकीभिरुपपत्तिभिहीनं माया-इन्द्रजाल-प्लुतलंघन-उच्छेद्य-पुस्तावपातादिबहुलया प्रारभट या वृत्त्या सर्वमपि प्रहसन-कपट-विद्रवादि कुतूहलिनां परां तुष्टिमुत्पादयितुं व्युत्पाद्यते । यदाहु :
शूरास्तु वीर-रौद्रषु नियुद्धेष्वाहवेषु च।
बाला मूखोः स्त्रियश्चैव हास्य-शोक-भयदिषु॥ 'परितुष्यन्तीति वाक्यशेष इति ॥ [१४-१५] ७६-८०॥ कोई एक कपट उपाय [के रूप में, [कार्यमें] अापत्तिको सम्भावना रूपमें एक विज्ञव, और फल रूपमें [कोई एक शृङ्गार दिखलाना चाहिए । इसी प्रकार द्वितीयं तथा तृतीय अडरों में [भी एक कपट उपाय रूपमें, आपत्तिको सम्भावना रूपमें एक-एक प्रकारका विद्रय, और फल रूपमें एक-एक प्रकारके शृङ्गारका वर्णन करना चाहिए। किन्तु इस बातका विशेष रूपसे ध्यान रखना चाहिए कि] प्रथम अङ्क में काम-भृङ्गार ही रखा जाय । मनोरञ्जनामें उस [काम-शृङ्गार] के साधकतम होनेसे उसका प्रथम प्रहण किया जाता है। इसी कारण इसमें प्रहासको रचना भी की जाती है । पद्यमें स्रग्धरा प्रादि [लम्बे पद्य ही समयकार में प्रयुक्त करने चाहिए] प्रादि शब्दसे अधिक प्रक्षरों वाले और प्रोजो गुणयुक्त शार्दूलविक्रीडित प्रादि [वृत्तों का ग्रहण होता है । [अल्प अक्षरोंवाले] गायत्री प्रादि [छन्दों] का ग्रहण नहीं होता है। उस [गायत्री प्रादि अल्पाक्षर छन्दों) के ग्रहण करनेसे लम्बे अर्थका वर्णन करने में कठिनाई होगी। [इसलिए स्वल्पाक्षर छन्दोंका ग्रहण समवकारमें नहीं करना चाहिए। कोई लोग स्वल्पाक्षर गायत्री प्रादि और अर्धसम तथा विषम प्रादि छन्दोंका इसमें ग्रहण मानते हैं । इस [पद्योंका विशेष रूपसे नाम लेने से यहाँ गद्यका निषेध [अभिप्रेत] नहीं है । पद्योंके प्राषिक्यका विधान करनेके लिए ही [स्रग्धरादिका] विधान होनेसे ।।
समवकारमें हास्य सहित संक्षिप्त शृङ्गार, और देवों तथा असुरोंके वरके कारण होने वाला कपट, विद्रव तथा विध्य प्रभावसे साध्य युद्धादिक [ला वर्णन पाया जाता है। लौकिक युक्तियोंसे रहित [अर्थात् लौकिक उपायोंसे सिद्ध न होने वाला] माया, इन्द्रजाल, उछलना-कूदना [उच्छेद्य अर्थात् नष्ट करने योग्य] शत्रुके पुतले प्रादिका गिराना प्रादि, जिसमें मुख्य रूपसे किया जाता है इस प्रकारको प्रारभटो वृत्तिसे सम्पादित प्रहसन, कपट, विद्रय प्रादि सभी कुछ कोतूहलोत्सुक जनताको प्रत्यन्त आनन्द प्रदान करते हैं [इसलिए उनका वर्णन किया जाता है] । जैसा कि कहा भी है कि
शूर लोग वीर रौद्र रसोंमें, मल्लयुद्ध और युद्धोंमें [मानन्द अनुभव करते हैं] और बालक, मूर्ख तथा स्त्रियाँ हास्य, शोक, भय आदिमें [प्रानन्दका अनुभव करते हैं।
'प्रसन्न होते हैं यह वाक्य शेष है [अर्थात् इस वाक्यको ऊपरसे जोड़ लेना चाहिए ॥[१४-१५] ७९-८० ॥
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का० ८१, सू० १२६ ] द्वितीयो विवेकः
[ २२६ अथ भाणस्य क्रमप्राप्तो लक्षणावसरः[सूत्र १२६]-भारणः प्रधानशृङ्गार-वीरो मुख-निर्वाहवान् ।
एकाङ्को दशलास्याङ्गः प्रायो लोकानुरञ्जकः ॥ [१६] ८१॥
भण्यते व्योमोक्त्या नायकेन स्वपरवृत्तं प्रकाश्यतेऽत्रेति 'भाणः' । शौर्य-सौभाग्यवर्णना बाहुल्येनात्र वीरशृङ्गारयोः प्राधान्यम् । शृङ्गाराङ्गत्वाद् हास्योऽप्यत्राङ्गतया वर्णनीयः। तथा मुख-निर्वहणसन्धिसम्पूर्ण एकाहनिवर्तनीयत्वादेकाङ्कः । दश चात्र लास्याङ्गानि निबध्यन्ते । तानि चैतानि यथा च
गेयपदं स्थितं पाठ्यमासीनं पुष्पगण्डिका । प्रच्छेदकं त्रिगूढं च सैन्धवाख्यं द्विगूढकम् ।।
उत्तमोत्तमकं चैवमुक्त-प्रत्युक्तमेव च । इति । प्रायेण लोकस्य पृथग्जनस्य विट-वेश्यादिवृत्तात्मकत्वाद् रञ्जनात्मकः । विटधूर्त-कुट्टन्यादिचेष्टितं राजपुत्रादीनामपि चातुर्यार्थं ज्ञेयमेवेति प्रायोग्रहणमिति ।।..
[१६] ८१॥ ७. सप्तम रूपक भेद 'भाण' का लक्षण
अब क्रमसे भारणका लक्षण करनेका अवसर प्राता है [इसलिए भारणका लक्षण करते हैं।
__ [सूत्र १२६] शृङ्गार या वीर रस प्रधान, मुख सन्धि तथा निर्वहण [दो हो सन्धियों से युक्त, दश लास्याङ्गोंसे पूर्ण, एक प्रङ्क वाला, और प्रायः साधारण जनोंका मनोरञ्जन करनेवाला [रूपकभेद] 'भारण' [कहलाता है ॥ [१६] ८१॥
जिसमें नायक [अन्य किसी पात्रके रङ्गभूमिमें उपस्थित न होनेसे] अाकाशोक्ति द्वारा अपने और दूसरेके वृत्तको कहता या प्रकाशित करता है। वह [भव्यते यत्रेति भागः' इस ग्युत्पत्ति के अनुसार] 'भारण' कहलाता है। इसमें शौर्य या सौभाग्यका अधिक वर्णन होनेके कारण वीर तथा शृङ्गारका प्राधान्य होता है। शृङ्गारका अङ्ग, होनेसे हास्यरसका भी इसमें प्रङ्ग रूपसे वर्णन होना चाहिए। और एक ही दिन में पूर्ण होनेवाले कथाभागसे युक्त होनेसे एक अङ्क वाला, तथा मुख और निर्वहरण [दो हो] सन्धियोंसे युक्त ['भारण' होता है । इसमें दश लास्याङ्गोंका भी वर्णन होता है । वे [दस लास्यांग] निम्न प्रकार कहे गए हैं
१ गेयपद, २ स्थित, ३ पाट्य, ४ पुष्पगण्डिका, ५ प्रच्छेदक, ६ त्रिगढ, ७ सैन्धव नामक द्विगूडक, ८ उत्तमोत्तमक, ६ उक्त प्रौर १० प्रत्युक्त [ये दा लास्याङ्ग कहे गए हैं । [इन सबका प्रयोग भारणमें होता है ।
[कारिकामें पाए हुए 'प्रायो लोकानुरञ्जकः' इस भागको व्याख्या करते हैं] प्रायः लोकका अर्थात् चिट् धूर्त, और वेश्या आदिके वृत्तसे युक्त साधारण लोगोंके मनोरञ्जनका कारण होता है [उच्च कोटिके लोगोके मनोरञ्जनका कारण नहीं होता है] । विट, धूर्त कुट्टिनी प्रादिका चरित्र चातुर्यको शिक्षाके लिए राजपुत्रादिको भी जानना चाहिए इसलिए [कारिकामें ] 'प्रायः' पदका ग्रहण किया गया है ॥ [१६] ८१ ॥ १. एक त्रिमूढं । २ द्विमूढकं ।
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२३० ]
_ नाट्यदर्पणम् [ का०८२-८३, सू० १३०-१३१ अथ कर्तव्योपदेशेन नायकमुद्दिशति[सूत्र १३०]-एको विटो वा धूर्तो वा वेश्यादेः स्वस्य वा स्थितिम् ।
___ व्योमोक्त्या वर्णयेदत्र वृत्तिर्मुख्या च भारती ॥ [१७]८२॥
एको द्वितीयपात्ररहितः। विटः पल्लवकः, धूर्तश्चौरः द्यूतकारादिः, वेश्यादेः पण्यस्त्री-कुलटा-शम्भल्यादेः । स्वस्यात्मनो वा स्थितिं चरितं व्योमोक्त्या रङ्गाप्रविष्टद्वितीयपात्रसम्बन्धिवचनानुवादेन वर्णयेदङ्गविकारैः सामाजिकानवगमयेत् । अत्र भाणे । भारती चात्र वृत्तिः प्रभूततया प्रधानम् । वीर-शृङ्गारयोः प्रधानत्वेऽपि व्योमोक्त्या वाचिक एवात्राभिनयो न सात्त्विकाङ्गकाविति, न सात्त्वती कैशिकी वा प्रधानम् । अत्र विटादीनां परवचनात्मक वृत्तं प्रेक्षकाणामवचनीयत्वापादनार्थं व्युत्पाद्यत इति । अत्र केचित् विटाकल्पितं वृत्तं, नायकं च विटमेव मन्यन्ते ॥ [१७] ८२ ॥
• अथ प्रहसनस्य समय :[सू० १३१]-वैमुख्यकार्य वीङ्गि ख्यातकौलीनदम्भवत् ।
हास्याङ्गि भाणसन्ध्यङ्क-वृत्ति प्रहसनं द्विधा ॥[१८] ८३॥ अब [नायकके कर्तव्यके प्रदर्शन द्वारा नायकका वर्णन करते हैं
[सूत्र १३०]--एक विट या धूर्त [नायक] वेश्यादिको अथवा अपना स्थितिको 'आकाशभाषित' के द्वारा इसमें वर्णन करता है और इसमें भारती वृत्तिको प्रधानता होती है ॥ [१६] ८२॥
___एक अर्थात् दूसरे पात्रसे रहित विट अर्थात् [पल्लवक अर्थात्] वेश्यासक्त और धूर्त चोर जुमारी आदि [ भारणका नायक होता है ] । वेश्यादि अर्थात् बाजारू औरत, कुलटा [छिनाल, व्यभिचारिणी स्त्री.] और [शम्भली अर्थात्] कुट्टिनी, दूती आदिके (चरितको], अथवा अपनी स्थितिको या चरितको रंगमें प्रविष्ट न होने वाले द्वितीय पात्रके वचनोंका अनुवाद करके [अर्थात् रंगमें अनुपस्थित किसी अन्य पात्रके साथ वार्तालापके रूपमें किए जाने वाले अाकाशभाषितके द्वारा वर्णन करे, और अङ्ग विकारोंके द्वारा सामाजिकोंको उसे समझावे । 'अत्र' इसमें अर्थात् भारत में। और प्रचुरमात्रामें होनेसे इस [ भारण ] में भारती वृत्ति प्रधान होती है। वीर और शृङ्गार रसोंकी प्रधानता होनेपर भी आकाशभाषित [के रूपमें अथित होनेसे वाचिक ही अभिनय होता है । सात्त्विक या आङ्गिक नहीं। इसलिए सात्वती अथवा कैशिको वृत्तिको प्रधानता [भारणमें नहीं होती है । इसमें विट प्रादि का दूसरोंको ठगने वाला चरित्र भी, प्रेक्षक ठगे न जा सकें इस प्रकारकी शिक्षा देनेकेलिए. दिखलाया जाता है । कुछ लोग इस [भारण] में कथाभागको [सर्वथा] विट द्वारा कल्पित तथा नायक [सदा] विट ही होना चाहिए ऐसा मानते हैं ।[१७]८२॥ अष्टम रूपक भेद-प्रहसनका लक्षण
अब 'प्रहसन' का [लक्षर करनेका अवसर प्राता है
[सूत्र १३१] - [पाखण्डियों प्रादिके प्रति उदासीनताको उत्पन्न करानेवाला, वीथीके अङ्गोंसे युक्त, प्रसिद्ध जनापवाद और मिथ्या दम्भसे युक्त, और भागके समान [मुख निर्वहरण १. रतिः ।
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का०८४, सू० १३२ ] द्वितीयो विवेकः
[ २३१ वैमुख्यं बहुमानाभावः कार्य प्रयोजनं यस्य । प्रहसनेन हि पाखण्डिप्रभृतीनां चरितं विज्ञाय विमुखः पुरुषो न भूयस्तान् वञ्चकानुपसर्पति । वीथ्यङ्गाहौरादिभिर्यथायोगं संयुक्तं च विधेयम् । कोलीनं जनवादः तत् ख्यातं प्रसिद्धम् । दम्भश्च आत्मन्यतथ्यसाधुत्वारोपणम्प: स्यातोऽत्र विधेयः । यथा शाक्यानां स्त्रीसम्पर्को गर्हणीयो न चौर्यम् । एवं दम्भोऽपि । हास्यो रसो अङ्गी मुख्यो यत्र । भाणवच्च सन्धी मुखनिर्वहणे । एकोऽङ्कः भारती वृत्तिश्च निबन्धनीया। हास्यरसप्राधान्येऽप्यत्र न कैशिकी वृत्तिः । निन्धपाखण्डि-प्रभृतीनां शृङ्गारस्यानौचित्येनाभावात् केवलहास्यविषयत्वमेव । अत एव लास्याङ्गान्यन अल्पान्येवेति । 'द्विधा' द्विप्रकारकं शुद्धं सङ्कीर्णं चेति ।। [१८] ८३॥
अथ नायककथनद्वारेण शुद्धमाह[सूत्र १३२]-निन्द्यपाखण्डि-विप्रादेरश्लीलासभ्यवजितम् ।
परिहासवचःप्रायशुद्धमेकस्य चेष्टितम् ॥[१६] ८४॥ निन्द्याः शीलादिना गर्हणीयाः, पाखण्डिनः शाक्य-भगवत्तापसादयः, विप्रा रूप दो] संधियों [एक] अङ्क, तथा [भारती] वृत्ति वाला हास्यप्रधान [रूपकभेद] 'प्रहसन' [शुद्ध तथा संकीर्ण भेदसे दो प्रकारका होता है। [१८] ८३ ।
[पाखण्डियों आदिके प्रति वैमुख्य अर्थात् आदरका अभाव [उसका उत्पादन] जिसका कार्य अर्थात् प्रयोजन है । प्रहसनके द्वारा पाखण्डी आदिके चरितको समझकर, मनुष्य उन ठगोंके पास फिर नहीं जाता है [इसलिए प्रहसनको पाखण्डियोंके प्रति वैमुख्यकारी कहा गया है] । व्यवहारादि वीथ्यङ्गोंसे युक्त [प्रहसनको] बनाना चाहिए । कोलीन अर्थात् लोकापवाद । वह जिसमें ख्यात अर्थात् प्रसिद्ध हो। और अपने में झूठे साधुत्वके प्रदर्शन रूप दम्भको इसमें प्रकाशित करना चाहिए। जैसे बौद्धोंमें स्त्री-सम्पर्क निन्दनीय है चोरी नहीं [इस प्रकार का जनापवाद रूप कोलीन प्रसिद्ध है। इस प्रकार [अतथ्य साधुत्व प्रदर्शन रूप] दम्भ भी [प्रसिद्ध करना चाहिए] । हास्यरस जिसमें अङ्गी अर्थात् मुख्य हो [इस प्रकारका प्रहसन होता है] । भारणके समान मुख तथा निर्वहरण नामक दो ही संधि [इस प्रहसनमें भी होते हैं । एक ही अंक, और भारती वृत्ति [भी भागके समान ही निबद्ध करनी चाहिए। हास्य रसकी प्रधानता होनेपर भी इसमें कैशिको वृत्ति नहीं होती है। क्योंकि निन्दनीय पाखण्डी आदिमें शृङ्गाररसका अनौचित्य होनेसे उनमें केवल हास्य-विषयत्व ही होता है। इसीलिए प्रहसनमें शृङ्गारकी प्रधानता न होने के कारण इसमें थोड़े ही लास्यांगोंका वर्णन होता है । वह दो प्रकारका अर्थात् शुद्ध और सङ्कीर्ण दो प्रकारका होता है ।[१८]८३॥
अब नायकके कथन द्वारा शुद्ध [प्रहसन को कहते हैं---
[सूत्र १३२] - निन्दा योग्य पाखण्डी ब्राह्मण आदि किसी एकका अश्लीलता तथा असभ्यतासे रहित परिहास वचनोंसे पूर्ण चेष्टित [जिसमें हो वह शुद्ध प्रहसन कहलाता है । [१६] ८४ ।
निन्दनीय अर्थात् गहित प्राचार वाले, पाखण्डी अर्थात् बौद्ध और ब्राह्मरण तपस्वी प्रादि [ग्रंथकार जैन हैं इसलिए उन्होंने बौद्ध तथा भगवत्तापस अर्थात् ब्राह्मण तापस प्रादि १. म्पको।
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नाट्यदर्पणम्
२३२ ] [ का० ८५, सू० १३३ जातिमात्रोपजवनो द्विजन्मानः । श्रादिशब्दादन्यस्याप्येवंविधस्य दुष्टस्यैकस्यैव कस्यचिच्चेष्टितं वृत्तं, अश्लीलेन प्राम्येण जुगुप्सा- श्रमङ्गलहेतुना च, असभ्येन च व्रीड | कारिणा रहितम् । परिहासप्रधानवचनबहुलं च । एतदभिधायि रूपकमपि चोपचाराद् शुद्धं प्रहसनम् । द्वितीयवेश्या' दिचरितसाङ्कर्य रहितत्वादिति || [१६] ८४|| अथ सङ्कीर्णम्
[ सूत्र १३३ ] —— सङ्कीर्णमुद्धताकल्प-भाषाचार - परिच्छदम् ।
बहूनां बन्धकी- चेट-वेश्यादीनां विचेष्टितम् ॥ [२०] ८५ ॥
बहूनां चरितैः सङ्कीर्णत्वात् सङ्कीर्णम् । ऋत्युल्बणवेत्रव्यवहाराचारपरिजनम् । उद्धतत्वं च सतामनुचितत्वात् । बन्धकी स्वैरिणी, चेटो दासः, वेश्या पण्यस्त्री । आदिशब्दात् शम्भली-धूर्त - वृद्ध - षण्ढ - पाखण्डि विप्र-भुजग चार-भटादयो विकृतवेष. भाषाचारा गृह्यन्ते । विगर्हणीयं हास्यजनकं चेष्टितमनुष्ठानम् । एकस्य बन्धक्यादेः कस्यचित् द्वारेण यत्रानेक एवंविध एव प्रकर्षेण हस्यते तत् सङ्कीर्णचरितविषयत्वात् सङ्कीर्णम् । शुद्धे तु पाखण्ड्या देरेकस्यैव चरितं प्रहस्यते इति पूर्वस्माद् भेदः ।
airat fror पाखण्डी कहा है] विप्र [विद्यादि ब्राह्मणोचित गुणोंसे रहित होनेपर भी ] केवल जातिले जीविका - निर्वाह करने वाले द्विज । 'प्रादि' शब्दसे इस प्रकारके किसी अन्य एक ही दुष्टके जुगुप्सा और श्रमङ्गल जनक अश्लीलता अर्थात् ग्राम्यतासे और व्रीडाजनक असभ्यता [रूप अश्लीलता] से रहित व्यापारका वर्णन [ प्रहसन में होना चाहिए] । परिहास प्रधान वचन अधिक मात्रामें पाए जाते हैं। इस लिए इस [ इस परिहास प्रधानवचन ] को कहने वाला रूपक भी उपचारसे 'शुद्ध' 'प्रहसन' कहलाता है । वेश्यादि किसी द्वितीयके चरित का सङ्कर न होनेसे [ इस प्रकारका प्रहसन 'शुद्ध' कहलाता है |[१६] ८४॥
ta संकीर्ण प्रहसनका लक्षरण करते हैं—
[ सूत्र १३३ ] -- प्रत्यन्त उद्धत वेष, भाषा, प्राचार और परिजनोंसे युक्त, वेश्या तथा front [eयभिचारिणी स्त्री] श्रादि बहुतों के चरित्रसे युक्त [ प्रहसन ] सङ्कीर्ण [ प्रहसन कहलाता ] है । [२०] ८५ ।
बहुतों के चरितसे व्याप्त होनेके कारण [ इस प्रकारका प्रहसन ] संकीर्ण कहलाता है । [वेष, भाषा, प्राधार आदिका] उद्धतत्व [ उस प्रकारके वेष ग्रादिके] सज्जनोचित न होने के काररण [ कहा जाता ] है । बन्धकी अर्थात् स्वंरिणी, चेट अर्थात् दास, वेश्या, बाजारू स्त्री । 'आदि' शब्द से शम्भली [छिनाल ], धूर्त, वृद्ध, हिजड़ा, पाखण्डी, ब्राह्मण, भुजग, [ वेश्याओं के सेवक ], चार तथा भाट प्रादि विकृत वेष, भाषा और प्राचार वालोंका ग्रहण होता है । [आगे 'विचेष्टितं' शब्दका अर्थ करते हैं] विशेष रूपसे गर्हणीय श्रर्थात् हास्यजनक चेष्टितं अर्थात् व्यापार [ अनुष्ठान]। बन्धकी प्रादिमेंसे किसी एकके द्वारा जहाँ इस प्रकारके अन्य अनेक लोगोंका उपहास किया जाता है वह सङ्कीर्ण चरितोका विषय होनेसे सङ्की [ प्रहसन कहलाता ] है । शुद्ध [प्रहसन] में तो पाखण्डी आदि किसी एकके ही चरितका उपहास किया जाता है यह पिछले [ शुद्ध प्रहसन ] से [ संकीर्णरूप प्रहसनका ] भेद है ।
१. आसान ।
२. चारबुद्ध ।
३.
पिचारत ।
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का०८६, सू० १३४ ] द्वितीयो विवेकः
[ २३३ अन्ये तु–स्वभावशुद्ध-पाखण्ड्यादेश्वरित प्रहस्यते तत् सङ्कीर्णचरितविषयत्वात् सङ्कीर्णमित्याहुः । सङ्कीर्णमनेकाङ्क केचिद्नुस्मरन्ति । अत्र च प्रथमेन श्लोकेन सामान्यलक्षणम् । द्वितीयेन शुद्धस्य, तृतीयेन च सङ्कीर्णस्य लक्षणम् । उभयत्र तु विट-चेट्यादेः परिजनस्य भूयस्त्वमिति । प्रहसनेन च बाल-स्त्री-मृर्खाणां हास्यप्रदर्शनेन नाटये प्ररोचना क्रियते । ततः सञ्जातनाट्यरुचयः शेषरूपकै-धर्मार्थकामेषु व्युत्पाद्यन्ते । तथा वृत्तच्युतस्य पाखण्डिप्रभृतेर्वत्तं शुद्धं, बन्धक्यादेश्व, धूर्तादिसंकुलं संकीर्णं वृत्तं त्याज्यतया व्युत्पाद्यते इति ॥ [२०] ८५॥
अथ डिमस्य लक्षणक्रमः[सूत्र १३४]-प्रशान्त-हास्य-शृङ्गार-विमर्शः ख्यातवस्तुकः । - रौद्रमुख्यश्चतुरङ्कः सेन्द्रजाल-रणो डिमः ॥ [२१] ८६ ॥
शान्त-हास्य-शृगाररूपरसत्रयेण विमर्शाख्यचतुर्थसन्धिना च रहितत्वात् शेषरसैरन्यसन्धिभिश्च युक्तः । शान्तस्य करुणहेतुकत्वेनोपलक्षणत्वात् करुणोऽपि निषिध्यते दुःखप्रकर्षात्मकत्वात् ।
सङ्कीर्ण प्रहसनका दूसरा लक्षण
अन्य लोग तो-स्वविशुद्ध [अर्थात् पवित्र आचारवाले होनेपर भी पाखण्डी प्रावि [अर्थात् अन्य धर्मोके अनुयायी ब्राह्मणादि] के चरितका जिसमें उपहास किया जाता है वह चरितका सङ्कर [शुद्ध चरितमें अशुद्धता का विषय होनेसे संकीर्ण [प्रहसन] होता है यह कहते हैं । कुछ लोगोंका कहना यह है कि संकोणं [प्रहसन] अनेक अडों वाला होता है । [और शुद्ध प्रहसनमें केवल एक अङ्क होता है यह उन दोनोंका भेद है । प्रहसनके लक्षरणमें ८३-८५ तक तीन श्लोक पाए हैं] इनमें से प्रथम श्लोकसे [प्रहसनका] सामान्य लक्षण, द्वितीयसे शुद्धका लक्षण, तथा तृतीय श्लोकसे संकीर्ण. [प्रहसन का लक्षण किया गया है। शुद्ध तथा संकीर्ण] दोनोंमें विट, चेट प्रावि परिजनोंका बाहुल्य रहता है। प्रहसनके द्वारा हास्य प्रदर्शित करके मूों और स्त्रियोंकी नाध्यके विषय में अभिरुचि उत्पन्न की जाती है। उससे नाटकके विषयमें रुचि हो जानेपर शेष रूपकभेदोंके द्वारा उनको धर्म, अर्थ और काम की शिक्षा प्रदान की जाती है। और साथ ही प्राचारहीन पाखण्डी मावि [किसी एक का शुद्ध वृत्त तथा धूर्तादिसे व्याप्त बन्धकी प्रादिका संकीर्ण चरित त्याज्य रूपसे दिखलाया जाता है। [वह प्रहसनकी उपयोगिता है] ॥ [२०] ८५॥
६ नवम रूपक भेद 'डिम' का लक्षण
[प्रहसनके लक्षणके बाद प्रागे] अब 'डिम' के लक्षणका अवसर प्राप्त है-[प्रतः 'डिम' का लक्षरण करते हैं] [सूत्र १३४] —शान्त, शृङ्गार और हास्य रसों सहित, विमर्श सन्धि-विहीन, प्रसिद्ध पाख्यानवस्तु वाला, तथा रौद्र रस-प्रधान, इन्द्रजाल एवं युद्धादिसे परिपूर्ण चार अंकों वाला [रूपकभेव] 'डिम' [कहलाता है । [२१] ८६ ॥
शान्त, शृङ्गार और हास्य रूप तीन रसोंसे, तथा विमर्श नामक चतुर्थ सन्धिसे रहित होनेसे अन्य रसों तथा सन्धियोंसे सुक्त [डिम होता है] । शान्त रसके [यहाँ] कवरण-जन्य
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२३४ ]
नाट्यदर्पणम् । का०८६, सू० १३४ इह च करुण-रौद्र-भयानक-बीभत्साश्चत्वारो रसा दुःखात्मानः । शृङ्गार-हास्यवीर-अद्भुत-शान्ताः पञ्च सुखात्मकाः। दिव्यानां च सुखबाहुल्येनाल्पदुःखत्वादन्यथा दिव्यत्वमेव न स्यादित्येषां तत्प्रभावानानुगृहीतानामन्येषां च दुःखात्मानोरसा अप्रयोज्या एव । समवकारादौ तु यद् रौद्रादिवर्णनं तद् दिव्यहेतुकस्वाभाविकसुखाबाधकत्वाददुष्टमेव । माधवज्ञादिसमुत्थो हि रौद्रः। स्वाधिकक्रोधादिसम्भवो भयानकः । माद्यशुचिशरीराधवलोकनाद् बीभत्सश्च दिव्यानामागन्तुक एव। करुणः पुनरिष्टवियोगप्रभवशोकप्रकर्षरूपत्वात् स्वाभाविकसुखपरिपन्थी सर्वदेषामवर्णनीय एव । शान्तोऽपि विषयासक्तिमत्त्वादसम्भव्येव ।।
__अत्र च डिमे हास्य-शृङ्गारवर्जनमिन्द्रजालादिबहुलत्वादुचितमेवेति । ख्यातं रूपसे उपलक्षण होनेके कारण [शान्त परसे हो] कतरणरसका भी निषेध किया गया है [यह समझना चाहिए । [कतरणरसके दुःखप्रकर्षात्मक होनेसे।
रसोंकी सुख दुःखात्मकता
करुणरसकी दुःखात्मताके कथनके प्रसंगसे रसोंके सुःखात्मक तथा दुखात्मक द्विविध विभागको दिखलाते हैं
यहाँ कहरण, रौद्र, भयानक और बीभत्स ये चार रस दुःखात्मक रस हैं। शृङ्गार, हास्य, वीर, अद्भुत और शान्त ये पांच रस सुखात्मक रस है। दिव्य पात्रोंमें सुखप्रधान होनेके कारण उनमें दुःखको न्यूनता होनेसे, अन्यथा [अर्थात् यदि उनमें सुखकी प्रधानता न मानी जाय तो] उनमें दिव्यता ही नहीं बनेगी। इसलिए इन देिवताओं] और उनके प्रभावसे अनुगृहीत अन्यों [अर्थात् उनके भक्तगणों के साथ दु.खात्मक रसोंका प्रयोग नहीं करना चाहिए । इसपर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि दिव्य पात्रोंके साथ दुःखप्रधान रसोंके प्रयोगका निषेध किया जाता है तो रौद्ररस-प्रधान समवकारमें दिव्य पात्रोंकी संगति कसे लगेगी इस शंकाका उत्तर प्रागे देते हैं कि समवकारादिमें [दिव्य पात्रोंके होते हुए भी जो रौद्र रसका वर्णन कहा गया है वह [उन पात्रोंके] दिव्यता-जन्य स्वाभाविक सुखका बाधक न होनेसे दोषाधायक नहीं है। [मागे विभिन्न रसोंके कारण तथा स्वरूपका उपपादन प्रसंगतः करते हैं] मनुष्य प्रादिके द्वारा की जाने वाली अवज्ञा प्रादिसे रौद्र [रसका स्थायिभाव क्रोध] उत्पन्न होता है। अपनेसे अधिक शक्तिशाली पुरुष के क्रोधादिसे भयानक [रसके स्थायिभाव भय] की उत्पत्ति होती है । और मनुष्यादिके अपवित्र शरीर प्रादिके अवलोकनसे बीभत्स [रसका स्थायिभाव जुगुप्सा] दिव्य पात्रोंमें [वास्तविक नहीं] प्रागन्तुक ही होता है । अर्थात् दुःखात्मक रौद्र भयानक और बीभत्सरसोंका देवताओंके साथ वर्णन आगन्तुक रूपमें ही किया जा सकता है । वास्तविक रूपसे नहीं। करुणरसका वर्णन तो उनके साथ किसी भी रूपमें नहीं करना चाहिए इस बातको आगे कहते हैं] किन्तु प्रियजनके वियोगसे उत्पन्न शोकके प्रकर्ष रूप होनेके कारण स्वाभाविक सुखके विरोधी करुण रसका इन देवताओं के साथ कभी भी वर्णन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार [देवताओंके] विषयासक्ति-प्रधान होनेके कारण उनमें शान्तरस भी असम्भव ही है [अर्थात् देवतानोंके चरितमें शान्तरसका भी वर्णन नहीं करना चाहिए ।
यहाँ 'डिम' में इन्द्रजालादिका बाहुल्य होनेसे हास्य तथा शृङ्गारका वर्जन उचित ही
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का०८७, सू० १३५ ] द्वितीयो विवेकः
[ २३५ पूर्वप्रसिद्धं वस्त्वितिवृत्तं नायकोपायफललक्षणमत्र । रौद्रो मुख्योऽङ्गी यत्र । शेषा रसाः पुनरंगानि । अवस्थाचतुष्टयविशिष्टः चतुःसन्धित्वेन चतुदिननिवर्तनीयेतिवृत्तत्वेन च चतुरङ्कवान् । अङ्कावताररूपाश्चात्र अङ्का विधेयाः । चूलिकाङ्कमुखयोरपि युद्धादिवर्णने निबन्धो भवत्येव । 'सेन्द्र' इति सहेन्द्रजाल-रणाभ्यां वर्तते । विद्यमानता चात्र सहार्थः। इन्द्रजालमसतां शब्द-रूपादोनां प्रकाशनम् । अन्यथापादनं वा। रणः संग्रामः, बाहुयुद्ध-बलात्कारपराभवादिरूपः। डिमो डिम्बो विप्लव इत्यर्थः । तद्योगादयं डिमः । डिमेः संघातार्थत्वादिति ॥ [२१] ८६ ।
अथ कृत्यान्तरं नायकं चोपदिशिति[सूत्र १३५] -अत्रोल्कापात-निर्घाताश्चन्द्रसूर्योपरक्तयः ।
.. सुरासुरपिशाचाद्याः प्रायः षोडश नायकाः॥[२२] ८७॥ है। [लक्षरणमें पाए हुए 'ल्यातवस्तुकः' पदका अर्थ करते हैं कि जिसमें नायक, फल, तथा उपाय रूप अर्थ 'वस्तु' अर्थात् इतिवृत्त ख्यात अर्थात् पूर्व-प्रसिद्ध है। [इस प्रकारका डिम होना चाहिए। रोदरस जिसमें प्रङ्गी अर्थात् प्रधानरस है। शेष रस अङ्ग अर्थात् प्रप्रधान होते हैं। [विमर्शसन्धि-रहित कहनेसे शेष] चार सन्धियों वाला होनेके कारण चार प्रवस्थानोंसे युक्त, तथा चार दिनोंमें सम्पादित कथा-भाग वाला होनेसे चार अंकोंसे युक्त [रिम को कहा गया है । इसमें अङ्गोंकी रचना अंकावतारके रूपमें करनी चाहिए [अंकावतारका लक्षण 'सोऽङ्कावतारो यत् पात्र रडान्तरमसूचनम्' यह २७वीं कारिकामें किया जा चुका है। इसके अनुसार पूर्व अङ्कके पात्रों द्वारा ही बिना किसी अन्य सूचनाके नवीन अजूका प्रारम्भ होता है उसको प्रावतार कहते हैं। डिमके प्रकोंकी रचना इसी प्रकारसे करनी चाहिए यह प्रत्यकारका अभिप्राय है। अर्थात् डिमके प्रकों में प्रथम अङ्कके पात्रों द्वारा ही द्वितीय अङ्क प्रादिका प्रारम्भ होना चाहिए। और उसमें विष्कम्भक प्रवेशक प्रादि अर्थोपक्षेपकोंका प्रयोग नहीं करना चाहिए। किन्तु युद्धादिके वर्णनमें चूलिका तथा प्रमुख दोनों [प्रोपलेपकों का प्रयोग होता ही है। [विष्कम्भक प्रवेशक प्रादिका प्रयोग नहीं होता है] । 'सेन्द्रजालरणो डिमः' इसका अर्थ यह है कि इन्द्रजाल और युद्धसे युक्त हो । यहाँ 'सह' पदका अर्थ विधमानता है। [अर्थात् सेन्द्रजालमें सहार्थक 'स' माया है उससे इन्द्रजाल और युटकी डिममें विद्यमानता सूचित होती है। अविद्यमान शब्द और रूपादिको प्रकाशित करना 'इन्द्रनाल' [कहलाता है। बाहुयुद्ध, बलात्कार पराभवादि रूप संग्राम रण [शब्दका अर्थ है। डिम अर्थात् डिम्ब या विप्लव 'डिम' शब्दका मुख्य अर्थ है उसके योगसे [रूपकभेदका नाम] डिम है। "डिम' धातुके संघातार्थका होनेसे [विप्लवादिप्रधान रूपकभेद डिम कहलाता है। यह डिम शब्दका निर्वचन है। यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है] ॥ [२१] ८६ ॥
अब [डिममें] करने योग्य अन्य बातोंका, और नायकका निर्देश करते हैं
[सूत्र १३५]--इस [डिम] में उल्कापात, भूकम्प, चन्द्रमा और सूर्यके उपराग [अर्थात् प्रहरण अथवा परिवेष] दिखलाए जाने चाहिए। [सूर्य तथा चन्द्रमाके चारों ओर कभी-कभी एक गोल घेरा दिखलाई देता है इसीको 'परिवेष' कहते हैं] सुर. प्रतुर, पिशाच प्रादि प्रायः सोलह
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२३६ ]
नाट्यदर्पणम् [ का०८८, सू० १३६ 'अत्र' डिमे उल्कापात-निर्घात-चन्द्रसूर्य परिवेषाः । उपलक्षणपरत्वाच्चास्य लेप्यकिलिञ्ज-चर्म-वस्त्र-काष्ठकृतानि रूपाणि च प्रदर्श्यन्ते । 'सुरासुर' इत्याद्यशब्दाद् यक्षराक्षसभुजगेन्द्रादिग्रहः । प्रायोग्रहणात् न्यूनाधिकत्वेऽपि न दोषः । दिव्यानामुद्धतत्वाद् धीराद्धता एते द्रष्टव्याः। स्वजात्यपेक्षया तु धीरोदात्तत्वमपि न विरुध्यते । एषां च परस्परविभिन्ना भावाः स्थायि-व्यभिचार्यादयोऽपि वर्णनीयाः। समवकारवत् तत्तद् देवताभक्तप्रीतिकार्यत्वाद् दिव्यनायकत्वं दिव्यचरितानुष्ठानव्युत्पत्तिश्च द्रष्टव्या। एवमीहामृगेऽपि ॥ [२०] ८७॥
अथ क्रमप्राप्तमुत्सृष्टिकाङ्क निरूपयति[सूत्र १३६] -उत्सृष्टिकाङ्कः पुंस्वामी ख्यातयुद्धोत्थवृत्तवान् ।
भारणोक्तवृत्तिसन्ध्यङ्को वाग्युद्धः करुणाङ्गिकः ॥ [२३] ८८॥ प्रकारके नायक होते हैं । [२२] ८७ ।
इस [डिममें | उल्कापात, भूकम्प, सूर्यग्रहण, चन्द्रोपराग और इनके उपलक्षणमात्र होनेसे [इनके सदृश लेप्य [अर्थात् प्लास्टर करने योग्य द्रव्यसे बनी हुई] अथवा किलिज [अर्थात् हरी चटाई अथवा पतले तस्तैसे बनी हुई] चर्मसे, वस्त्रसे तथा काष्ठसे बनी हुई प्रतिमानों आदि [रूपों को दिखलाया जाता है। [कारिकामें पाए हुए सुरासुरपिशाचाद्या: पदमें] 'प्राध' शब्दसे यक्ष, राक्षस, भुजगेन्द्र, प्रादिका ग्रहण करना चाहिए। ['प्रायः षोडशनायका.' में] 'प्रायः' पदसे यह सूचित होता है कि कभी-कभी इससे अधिक या कम होनेपर भी दोष नहीं है। [अर्थात् साधारणतः डिममें सोलह नायक होते हैं, किन्तु कभी-कभी इस संख्यामें न्यूना धिक्य हो जानेपर भी कोई दोष नहीं होता है । दिव्यजनोंके उद्धत होनेसे ये [डिमके सोलहों नायक धीरोद्धत समझने चाहिए। [मनुष्योंको अपेक्षासे ही ये धीरोद्धत कहे गए हैं] अपनी जातिको अपेक्षासे तो इनका धीरोदात्तत्व भी विरुद्ध नहीं है [अर्थात् अपनी जातिकी अपेक्षासे तो वे धीरोदात्त भी कहे जा सकते हैं ] । इन [सोलहों नायकोंके के स्थायिभाव व्याभिचारिभाव प्रादि भी परस्पर पृथक्-पृथक् ही वर्णन करने चाहिए। समवकारके समान उन-उन देवताओं के भक्तोंके प्रति उपकारी [प्रानन्ददायक] होनेसे [डिममें भी] दिव्य नायक होते हैं और दिव्य चरितके अनुष्ठानका परिज्ञान [रूप उसका फल] समझना चाहिए। इसी प्रकार 'ईहामृग' में भी [दिव्य नायकोंकी स्थितिका समर्थन समझना चाहिए ।
समवकारमें तीन अङ्कोंमें बारहं नायक दिखलाए थे। प्रत्येक अङ्कमें नायक, प्रतिनायक और उनके दो सहायक इस प्रकार चार नायकोंके होने से तीन प्रकोंके समवकारमें कुल मिलाकर बारह नायक माने थे। इसी प्रकार चार प्रकों वाले डिमके प्रत्येक मङ्कमें चार-चार नायक होने से कुल मिलाकर सोलह नायक माने गए हैं। इन सबके विभाव अनुभाव पोर फल आदि पृथक्-पृथक् ही वर्णन करने चाहिए। १०. दशम रूपक भेद 'उत्सृष्टिकाङ्क' का लक्षण
प्रत्र क्रमसे प्राप्त उत्सृष्टिकाका निरूपण करते हैं
सूत्र १३६] ['डिम' और 'समयकार' में दिव्य नायक कहे गए थे उनके विपरीत] पुरुष नायक वाला, प्रसिद्ध युद्धसे जन्य [प्रर्थात् प्रसिद्ध युरोपाख्यानपर प्राधारित कथावस्तु
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का० ८८, सू० १३६ ] द्वितीयो विवेकः
[ २३७ उत्क्रमणोन्मुखा सृष्टिर्जीवितं यासां ता उत्सृष्टिकाः, शोचन्त्यः स्त्रियः । ताभिरङ्कितत्वाद् 'उत्सृष्टिकाङ्कः' । पुमांसो मा अत्र स्वामिनो, न दिव्या दुःखात्मकस्य करुणरसस्यात्र प्राधान्यात् । दिव्यानां च सुखबाहुल्येन तत्सम्बन्धायोगात् । ख्यातं भारतादौ प्रसिद्धं यद् युद्धं तत्र सम्भवि, करुणरसबहुलं यद् वृत्तं तत्, स्वयं प्रसिद्धं वाऽसदत्र निबन्धनीयम् । भाणप्रतिपादितं मुख-निर्वहणाख्यसन्धिद्वयम् । परिदेवितबाहुल्यान्मुख्या भारती वृत्तिः । एकाहनिवर्तनीयचरितत्वादेकाङ्कश्चात्र कर्तव्यः। शौर्यादिमदावलिप्तानां परस्परं दोषोद्घट्टनं वाग्युद्धं, तदहुलः । मत्वर्थीयेनो भूम्न्यत्र विधानात् । वाग्युद्ध चानुशोचनपरायणानामिति रौद्राप्रवेशेन न करुणस्याङ्गित्वव्याघातः । करुणो रसोऽङ्गी प्रधान बाहुल्यनिबन्धनादत्र विधेयः । ख्यातयुद्धोत्थवृत्ते ध-बन्धादिसद्भावेनेष्टवियोगादिप्राचुर्यादिति ।। [२३] ८८॥
वाला, भारणमें कहे हुए [मुख तथा निर्वहण रूप दो] सन्धियों, [भारती] वृत्ति तथा [एक अङ्कसे युक्त, करुणरस-प्रधान, वाग्युद्ध प्रदर्शक, [रूपकभे] उत्सृष्टिकाङ्क [कहलाता है ।। [२३] ८८॥
इस कारिकाको व्याख्या प्रारम्भ करनेसे पहले ग्रन्थकार 'उत्सृष्टिकाङ्क' पदका निर्वाचन दिखलाते हैं
जिनकी सृष्टि अर्थात् जीवन उत्क्रमणोन्मुख है इस प्रकारको शोकग्रस्त स्त्रियाँ 'उत्सृष्टिका' [कहलाती है] उनसे अङ्कित [अर्थात् उनको चर्चा करने वाला रूपकभेद] उत्सृष्टिकाङ्क [कहलाता है। 'स्वामी' कहनेसे इसमें पुरुष अर्थात् मर्त्य ही नायक होते हैं। दुःखात्मक करुणरसकी प्रधानता होनेके कारण [उत्सृष्टिकाङ्कमें] दिव्य नायक नहीं होते हैं। क्योंकि दिव्यजनोंके सुखप्रधान होनेसे उनके साथ उस [दुःखात्मक करुणरस] का सम्बन्ध नहीं होता है [अतः इसमें दिव्य नायक नहीं होते हैं] । 'ख्यात' अर्थात् महाभारत प्राविमें प्रसिद्ध जो युद्ध, उसमें होने वाले करुणरससे परिपूर्ण जो पाख्यान-वस्तु, अथवा [महाभारतादिके अाधारके बिना] स्वयं प्रसिद्ध जो विद्यमान या अविद्यमान पाख्यान-वस्तु, उसकी रचना इसमें करनी चाहिए। भागमें प्रतिपादित मुख तथा निर्वहरण नामक दो सन्धि, विलाप आदिका बाहुल्य होनेसे भारती मुख्य वृत्ति, तथा एक दिन में समाप्य चरित वाला होनेसे एक अङ्क इसमें रखना चाहिए। शौर्य आदिके मदसे मत्त जनोंका एक-दूसरेपर दोषारोपण वाग्युद्ध [कहलाता है। उसका बाहुल्य [इस उत्सृष्टिकाङ्कमें होता है। यहाँ मत्वर्थीय प्रत्ययके बाहुल्यार्थमें विहित होनेसे [वाग्युद्धः का अर्थ वाग्युखबहुल: करनाचाहिए । और यह वाग्युद्ध अनुशोधनपरायण जनोंका है इसलिए [वाग्युद्ध में युद्ध पदके होनेसे] रौद्र का प्रवेश नहीं होता है इसलिए करुणरसको प्रधानताका व्याघात भी नहीं होता है [अर्थात् उत्सृष्टिकाङ्कमें अनुशोचनपरायण स्त्रियोंका वाग्युद्ध होनेपर भी उसमें रौद्ररस नहीं अपितु करुणरस ही प्रधान रहता है । इसमें अधिकांशमें वरिणत करके करुणरस ही प्रधान रूपसे निवड करना चाहिए। प्रसिद्ध युद्धात्मक इतिवृत्तमें बध-बन्धदिके होनेसे इष्ट-वियोगादिका प्राचर्य होनेके कारण [करुणरस ही उत्सृष्टिकाङ्कका प्रधानरस होता है] ॥ [२३] ८६॥
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२३८ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ८६-६०, सू० १३७-१३८ अथ कृत्यशेषमुपदिशति[सूत्र १३७] -निर्वेदवाचो भूम्नात्र योषितां परिदेवितम् ।
नरा निवृत्तसंग्रामाश्चेष्टाश्चित्रा विसंस्थुलाः ॥[२४]८६॥ अत्र उत्सृष्टिकाङ्के यासु श्रुतासु निर्वेदो जायते, ता निवेदवाचो बाहुल्येन निबन्धनीयाः । देवोपालम्भ-आत्मनिन्दादिरूपानुशोचनात्मक परिदेवितं च योपितां बहुधा वर्णनीयम् । पुमांसश्चोपरतोंद्धतप्रहार-बध-बन्ध-ताडनादिरूपसंग्रामाः पात्रत्वेन नियोज्याः। भूमिनिपात-विवर्तितोरः शिरस्ताडन-स्वकेशवोटनादिका नानाप्रकाराश्चेष्टा विसंस्थुला दर्शनीयाः।
अत्र चोत्सृष्किाङ्के उत्तमानां मध्यमानां च बहुविधव्यसनपातेन वैरस्यादितानां महाविपद्यपि अविपादिनां स्थिराणां च पुनरुन्नतिदृश्यते इत्यविषादं चित्तस्थैर्य च विधातु स्त्रीपरिदेवितबहुलं वृत्तं व्युत्पाद्यत इति ॥ [२४] ८६ ॥
अथेहामृगस्य लक्षणप्रपञ्चे पयोय :[सूत्र १३८] -ईहामृगः सवीथ्यङ्गो दिव्येशो दृप्तमानवः ।
एकाङ्कश्चतुरङ्को वा ख्याताख्यातेतिवृत्तवान् ॥ [२५] ६०॥ अब [उत्सृष्टिकाङ्कमें] करने योग्य अन्य बातोंका निर्देश करते हैं---
[सूत्र १३७]- इसमें मुख्य रूपसे स्त्रियोंके विलाप तथा [संसारकी अनित्यता दुःखमयत्वादिके प्रतिपादन द्वारा] वैराग्यको जनक बातोंका वर्णन करना चाहिए। पुरुषों को संग्रामसे निवृत्ति और [भूपतन उरस्ताउन केशत्रोटनादि रूप] नाना प्रकारको विशृङ्खल चेष्टाएँ प्रदर्शित करनी चाहिए-॥ [२४] ८६||
___ उत्सृष्टिकाङ्कमें जिन,[बातों] के सुननेसे वैराग्य उत्पन्न होता है इस प्रकारको वैराग्यजनक बातें निबद्ध करनी चाहिए । देवको उपालम्भ देना, आत्मनिन्दा, और अनुशोचन रूप स्त्रियोंका विलाप, प्रचुर मात्रामें वर्णन करना चाहिए। और पुरुषोंको उद्धत प्रहार बध, बन्ध, ताडन प्रादि रूप संग्राम व्यापारोंसे उपरत पात्रके रूपमें दिखलाना चाहिए। भूमिपर लोटना, छाती पीटना, सिर फोड़ना, बाल नोचना, प्रादि नाना प्रकारको विशृङ्खल चेष्टाएँ [स्त्रियोंको] दिखलानी चाहिए ।
इस उत्सृष्टिकाङ्कमें नाना प्रकारको प्रापत्तियोंके आ पड़नेसे, दुःखोंसे पीड़ित, किन्तु महान् विपत्तिकालमें भी न घबड़ाने वाले, एवं स्थिर रहने वाले, उत्तम तथा मध्यमलोगोंको फिर दुबारा उन्नति होती है इसलिए [मनुष्यको दुःखमें पड़ जानेपर भी] घबड़ाना नहीं चाहिए तथा चित्तको स्थिर रखना चाहिए इस बातको शिक्षा देने के लिए [अथवा विपत्तिग्रस्त पुरुषोंको धैर्य तथा उत्साह प्रदान करने के लिए] स्त्रियोंके विलापादिसे पूर्ण कथा प्रस्तुत की जाती है । [२४] ८६ ।।
११ एकादश रूपक भेद 'ईहामृग' का लक्षण - अब 'ईहामृग' के लक्षण प्रादि करनेका अवसर [प्रास] है
[सू० १३८] ---वीथ्यङ्गोंसे युक्त, दिव्य नायक, तथा दृत मानवपात्रों वाला, एक मङ्क: अथवा चार प्रङ्कों वाला, प्रसिद्ध अथवा अप्रसिद्ध कथापर प्राश्रित-[२५] ६० ।
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का० ६०-६१, सू० १३८ ] द्वितीयो विवेकः
[ २३६ दिव्यस्त्रीहेतुसंग्रामो निर्विश्वासः सविड्वरः ।।
स्त्र्यपहार-भेद-दण्डः प्रायो द्वादशनायकः ॥ [२६] ६१ ॥
ईहा चेष्टा मृगस्येव स्त्रीमात्रार्था अत्र इति ईहामृगः । सह वीथ्यङ्गाहारादिभिर्वर्तते । दिव्येशो दिव्यनायकः । दृप्ता उद्धता मानबा मर्त्य पुरुषपात्राण्यत्र । एकाङ्कश्चतुरङ्को वेति । अत्र च वृत्तसंक्षेप-विस्तारानुरोधिनी कविस्वेच्छा प्रमाणम् । एकाङ्कत्वे एकाहनिर्वर्त्यमेव चरितम् । चतुरङ्कत्वे तु चतुर्दिननिर्वर्त्यम् । ख्याताख्यातं प्रसिद्धाप्रसिद्ध यदितिवृत्तं तद्वान् । प्रशंसायां च मतुस्तेन चतुरङ्कत्वे परस्पराङ्कसम्बद्धमितिवृत्तम न तु समवकारवदसम्बद्धम् ।
दिव्यस्त्रीहेतुः संग्रामो यत्र । अत्र हि दिव्यां नायकस्त्रियमनिच्छिन्ती प्रतिनायकोऽपहरति । ततस्तन्निमित्तको नायक-प्रतिनायकयोः संग्रामो निबन्धनीयः । निर्गतो विश्वासः परस्मिन् प्रत्ययो यस्मात् । आवेगानर्थपरस्परस्पर्धादयो विड्वरः, तय क्तः । स्त्रीनिमित्तमपहार-भेद-दण्डा यत्र । ते च यथासम्भवं स्त्रीविषया अन्यविषया वा। भेदः सामदानादिना विश्लेपोपपादम् । दण्डो बन्धादिः । प्रायोग्रहणं नायिका-न्यूनाधिकत्वख्यापनार्थम् ॥ [२५-२६] ६०-६१ ।।
दिव्य स्त्रीके कारण जिसमें संग्रामका प्रदर्शन किया जाय, परस्पर विश्वास रहित, परस्पर स्पर्धादि रूप [विड्वरों से युक्त, स्त्रियोंके अपहरण, भेद अथवा दण्डका प्रदर्शक, और प्रायः बारह नायकों वाला [रूपकभेद] ईहामृग होता है ॥] ५[-२६] ६१ ॥
जिसमें 'मृग'के समान केवल स्त्रीके लिए 'ईहा' अर्थात् चेष्टा होती है वह 'ईहामृग' [कहलाता] है [यह ईहामृग' शब्दका निर्वचन हुआ] । वह व्याहारादि रूप वीथ्यङ्गोंसे युक्त होता है। दिव्य नायक तथा दृत अर्थात् उद्धत मानवपात्र जिसमें हों। एक अथवा चार अङ्क वाला हो। इस विषयमें [अर्थात् अटोंकी संख्या विषपमें] कथाभागके संक्षेप अथवा विस्तारका अनुसरण करनेवाली कविको इच्छा ही प्रमाण है [कवि पाख्यान-वस्तुके संक्षेप विस्तारके अनुसार प्रङ्कोंको संख्या रखने में स्वतन्त्र है । एक अङ्क होनेपर एक दिनमें समाप्त होने वाला ही चरित्र रखना चाहिए। और चार अङ्क होनेपर चार दिनमें समाप्त होने वाली कथा होनी चाहिए। प्रसिद्ध अथवा अप्रसिद्ध जो कथा, उसपर प्राधारित । इसमें प्रशंसा अर्थ में मतुप् प्रत्यय है । इसलिए चार अङ्क होनेपर उनकी कथा परस्पर सम्बद्ध होनी चाहिए, समवकारके समान असम्बद्ध नहीं। ['समवकार' के लक्षण में उसके प्रोंको स्वयं 'निष्ठितार्था' कहा था । 'ईहामृग' के अङ्क उससे भित्र परस्पर सम्बद्ध होते हैं ।
दिव्य स्त्रीके कारण जिसमें संग्राम हो। इसमें नायककी [प्रतिनायकको न चाहने वाली दिव्य स्त्रीको प्रतिनायक [बलात्] अपहरण करता है। और उसके कारण नायक तथा प्रतिनायकमें संग्राम दिखलाया जाता है । जिसमें दूसरेपर विश्वास न रहा हो। पावेग, अनर्थ, परस्पर स्पर्धा आदि "बिड्वर कहलाते हैं। उनसे युक्त, स्त्रीके कारण जिसमें अपहरण, भेद और दण्ड होते हैं। वे यथासम्व स्त्री के विषय में अथवा अन्यके विषयमें [होते हैं।] भेद अर्थात् साम या दानादिके द्वारा फूट डालना। दण्ड अर्थात् बन्ध प्रादि । 'प्रायः' पदका ग्रहण [संख्याके] न्यूनत्व और अधिकत्वके सूचित करनेके लिए है। [२५-२६] ६०-६१ ॥
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२४० ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ६-६३, स्मृ. १३६-१४८ अथ कृत्यशेषमुपदिशति[सूत्र १३६]--व्याजेनात्र रणाभावो बधासन्ने शरीरिणि ।
व्यायोगोक्ता रसाः सन्धि-वृत्त योऽनुचिता रतिः ॥ [२७] ६२ ॥
बधासन्ने समरानन्तरं भाविबधयोग्ये शरीरिणि व्याजेन पलायनादिना रणाभावो विधेयः । भारतां साक्षात् , नेपथ्येऽपि बधो न वर्णनीयः। रसा वीर-रौद्राद्या दीप्ताः । सन्धयो गर्भावमर्शवर्जितास्त्रयः । वृत्तयश्च कैशिकीहीना तिन एव । 'सन्धिवृत्तयः' इतीतरेतरयोगो द्वन्द्वः । अनुचिता रति रत्याभासः । स च प्रतिनायकस्य निष्प्रेमस्त्रीविषयत्वादिति ।। [२७] ६२॥
अथ क्रमप्राप्तां वीथीं लक्षति[सूत्र १४०]-सर्वस्वामि-रसा वीथी त्वेकाङ्का द्वय कपात्रिका।
मुखनिर्वाहसन्धिः स्यात्, सर्वरूपोपयोगिनी ॥ [२८] ६३ ॥ नाटकादिसर्वरूपकाणामेतदुक्तम् । वक्रोक्तिमार्गेण गमनाद् वीथीव वीथी । अब [उत्सृष्टिाकाङ्कमें] करने योग्य शेष बातोंको कहते हैं--
[सूत्र १३६]- इसमें बधासन्न व्यक्तिके [पलायन प्रादिके] बहानेसे युद्ध की समाप्ति तथा व्यायोगमें कहे हुए [वीर रौद्रादि दीप्त] रस सन्धि एवं [कैशिकीको छोड़कर भारती, सात्वती, पारभटी तीन] वृत्ति [होनी चाहिए], तथा एवं अनुचित रतिका वर्णन होना चाहिए ॥ [२७] ६२ ॥
____बघासन्न अर्थात् बादमें शीघ्र ही जिसका वध होने वाला हो इस प्रकारके शरीरी अर्थात् व्यक्ति के पलायन प्रादिके बहानेसे इसमें युद्धको समाप्ति दिखलानी चाहिए । अर्थात् साक्षात् [बध दिखलाए जानेको] की बात तो दूर रही नेपथ्यमें भी बधका वर्णन नहीं करना चाहिए। व्यायोगोक्त रस अर्थात् वीर रौद्रादि दीप्त रस [होने चाहिए] । गर्भ और मवमर्श सन्धियोंको छोड़कर [मुख, प्रतिमुख तथा निर्वहरण रूप तीन सन्धि [होने चाहिए । और कैशिकीको छोड़कर [भारती, सात्त्वती, प्रारभटी आदि तीन ही वृत्तियाँ होनी चाहिए। 'सन्धि-वृत्तयः' इस पदमें इतरेतरयोगमें द्वन्द्व-समास है अनुचित रति अर्थात् रत्याभासका वर्णन होना चाहिए और वह प्रतिनायकके अननुरक्त स्त्री-विषयक [रति प्रदर्शन होनेसे होता है ।[२७] ६२॥ द्वादश रूपक भेद 'वीथी'का लक्षण
अब क्रमप्राप्त 'वीथी' का लक्षरण करते हैं---
[सूत्र १४०] -[उत्तम, मध्यम अधम] सब प्रकारके नायकोंसे और समस्त रसोंसे युक्त, एक अङ्क और एक या दो पात्रों वाली, मुख तथा निर्वहण [रूप दो] सन्धियोंसे युक्त, [अपने त्रयोदश प्रङ्गों द्वारा नाटक प्रादि] समस्त रूपकोंको उपकारिणी 'बीथी' [कहलाती] है। [२८] ६३ ॥
[सर्वरूपोपयोगिनी] यह बात नाटकादि सभी रूपक के षयमें कही गई है । [अर्थात् वीथी में कहे जानेवाले तेरह अङ्ग नाटक सहित सभी रूपकोंमें होते हैं। वक्रोक्तिमार्गसे १. वीथीति ।
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[ २४१
का ६३, सू० १४० ] द्वितीयो विवेकः सर्वे ग्वामिन उत्तम-मध्यम-अधमरूपाः । सर्वे रसारच शृङ्गारादयः पर्यायेणात्र विधातव्याः । यदाह कोहल :
उत्तमाधममध्याभि-युक्ता प्रकृतिमिलिया। ___ एकहा- द्विहायो वा सा वीथीत्यक्षिसंचिता ।। इति ॥
शंकुकस्त्वधमप्रकृतेर्नायकत्वमनिच्छन् प्रहसन-भाशादौ हास्यरसप्रधाने विटादेर्नायकत्वं प्रतिपादयन् कथमुपादेय: स्यादिति ?
'एकांका' इत्यनेन एकदिवसायोग्यमितिवृत्तमति दर्शयति । द्वाभ्यां पात्राभ्यां उक्ति-प्रत्युक्तिवैचित्र्यविशिष्टा, एकन वा पात्रेण आकाशभाषितसमन्वितेन युक्ता वीथी कविना स्वेच्छया विधेया। मुख-निर्वाहाख्यो सन्धी यस्याम् । सर्वेषां रूपकाणं नाटकादीनां वक्रोक्त्यादिसंकुल-त्रयोदशा मवेशेन उपयोगिनी वैचित्र्यकारिका। अत रवान्ते लक्षिता । वक्रोक्तिसहस्रसंकुलत्वेन शृङ्गार-हास्ययोः सूचनामात्रत्वात् कैशिकीवृत्तिहीनत्वम्। अत्र च बहुविधा वक्रोक्तिविशेषा उत्तम-मध्यम-अधमनायकानां व्युत्पाद्यन्ते इति ॥ [२८] ६३॥ [इसमें कहे हुए त्रयोदश अगोंके नाटकादि सारे रूपकोंमें] जानेसे बीथोके समान होने के कारण यह 'बीथो' कहलाती है। उत्तम. मध्यम, अषम रूप सारे स्वामी अर्थात् नायक [इसमें होते हैं] । और शङ्गार प्रादि सारे रस एक-एक करके पर्यायसे इसमें वर्णन किए जाते हैं। जैसा कि कोहलने कहा है--
उत्तम, अधम और मध्यम तीनों प्रकारके पात्रोंसे युक्त एक पात्रके द्वारा अथवा दो पात्रोंके द्वारा सम्पादित [रूपक भेद] 'वीथी' कहलाती है।
शंकुक जो अधम प्रकृतिको नायक नहीं मानना चाहते हैं। वे भाण, प्रहसन आदि हास्यरसप्रधान [रूपकों] में विट मादि [अधम पात्रों को नायक [बनाने का प्रतिपादन करके कैसे श्रद्धय वचन हो सकते हैं ? [अर्थात शंकुक एक ओर तो यह कहते हैं कि प्रथम प्रकृतिका नायक नहीं होना चाहिए। दूसरी ओर भारण प्रहसन प्रादिमें अधम प्रकृतिके विटाविको ही नायक बनानेका विधान करते हैं। ये दोनों बातें परस्पर विपरीत हैं इसलिए उनका कथन उपादेय नहीं हो सकता है । इसलिए वहां वीथी में जो अधम प्रकृतिके भी नायक होने की बात कही गई है वह अनुचित नहीं है।
'एकांका' इस पदसे एक दिनमें समाप्त होनेवाले पाख्यान-भागका ही इसमें वर्णन होना चाहिए यह दिखलाया है। उक्ति-प्रत्युक्ति द्वारा वैचित्र्य युक्त दो पात्रोंसे, अथवा प्राकाशभाषितका अवलम्ब करने वाले एक ही पात्रसे युक्त 'वीथी' कवि अपनी इच्छाके अनुसार बना सकता है । मुख तथा निर्वहण नामक दो ही सन्धि इसमें होते हैं । वक्रोक्ति प्राविसे युक्त प्रयोदश वीथ्यङ्गोके नाटकादि [समस्त] रूपकोंमें उपयुक्त होनेसे उन सबको उपयोगिनी अर्थात वैचित्र्यसम्पादिका [वीथी होती है। इसीलिए सबके अन्त में उसका लक्षण किया गया है। सहस्रों प्रकारको वक्रोक्तियोंसे युक्त होनेके कारण हास्य तथा शृङ्गारको सूचनामात्र होनेसे इसको कैशिकोवृत्तिहीन कहा जा सकता है। इसमें उत्तम, मध्यम तथा मधम नायकों के [अपनी-अपनी रुचिके अनुकूल] अनेक प्रकारके वक्रोक्ति-भवोंका [सामाजिकको] शान १. त्येकादश ।
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नाट्यदर्पणम् [ का० ६४-६५, सू० १४१-१४२
अथास्या अङ्ग सान्यभिधीयन्ते—
[ सूत्र १४१ ] - व्याहारोऽधिबलं गण्डः प्रपञ्चास्त्रिगतं छलम् । प्रसत्प्रलापो वाक्ली नालिका मृदवं मतम् । [२६] ४॥ उद्घात्यकावलगिते प्रथावस्पन्दितं स्मृतम्
२४२ ]
भारतीवृत्तिवर्तीनि वीथ्यङ्गानि त्रयोदश ।। [३०] ६५ ॥ एतानि त्रयोदश वीथ्यङ्गानि विविध वक्रोक्त्यादिरूपत्वाद् भारत्यां वृत्तौ वर्तनशीलानि । अत एव वीथ्यप्येषामङ्गानां श्रङ्गीभूता भारतीवृत्त्येकदेशः ॥ [ २६-३०]
६४-६५ ।।
(१) तत्र प्रथमं व्याहारः
[ सूत्र १४२ ] - प्रन्यार्था भाविदृष्टिर्वा व्याहारो हास्यलेशगीः ।
1:
अन्योऽर्थः प्रयोजनं यस्याः, भाविनी वा भविष्यन्ती दृष्टिर्दर्शितविषयोऽर्थो यस्याः सा । हास्ये लेशप्रधाना गीर्वाणी । विविधोऽर्थ आह्रियतेऽनयेति व्याहारः । तान्यार्थी यथा मालविकाग्निमित्रे लास्यप्रयोगावसाने मालविका निर्गन्तुमिच्छति ।
C
कराया जाता है ॥ [ २८ ] ६३ ॥
अब इस [ वीथी ]
[ सूत्र १४१ ] - १. व्याहार, २. अधिबल, ३. गण्ड, ४. प्रपञ्च, ५. त्रिगत, ६. छल, ७. प्रसत्प्रलाप, ८. दाक्केलि है. नालिका, १०. मृदव, ११. उद्धात्यक, १२. श्रवलगित, १३. अवस्पन्दित भारती-वृत्ति में होने वाले ये तेरह वीथीके प्रङ्ग हैं । [ २६-३० ] ६४-६५ ।।
ये तेरहों अङ्ग विविध प्रकारकी वक्रोक्ति रूप होनेसे । [ वाग्व्यापार रूप] भारती वृत्तिमें रहने वाले होते हैं । इसीलिए इन वीथ्यङ्गों की प्रङ्गीभूत 'वीथी' भी भारती-वृत्तिका ही एक भाग है । । [ २६-३०] ६४-६५ ।।
के [ तेरह ] ग्रङ्ग कहते हैं
(१) व्याहार नामक प्रथम वीथ्यङ्ग
उन [तेरह वीथ्यङ्गों] मेंसे पहला 'व्याहार' है [ उसका लक्षण निम्न प्रकार करते हैं ]
[ सत्र १४२ ] -- [ कथित प्रयोजनसे ] अन्य प्रयोजन वाली प्रथवा श्रागे होने वाले [ किसी विशेष ] प्रयोजनसे हास्यके लेशसे युक्त कहीं गई वाणी 'व्याहार' | कहलाती ] है । [सामान्य कथित प्रयोजनसे ] अन्य अर्थ, अर्थात् प्रयोजन जिसका हो अथवा भाविनी अर्थात् प्रागे होने वाली दृष्टि अर्थात् दिखलाए जाने वाला अर्थ जिसका विषय हो, इस प्रकार की, हास्यके सम्पर्कसे युक्त वारणी, [ व्याहार कहलाती ] है । [ व्याहार शब्दका निर्वाचन दिखलाते हैं ] - जिस [वारणी] के द्वारा विविध प्रथका प्राहररण किया जाता है वह व्याहार [कहलाती ] है ।
उनमें से प्रार्थविषयक व्याहारका उदाहरण जैसे मालविकाग्निमित्रमें नृत्य प्रयोग के समाप्त होनेपर मालविका बाहर जाना चाहती है। [ उस समय विदूषक उसको रोकता हुना कहता है कि
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का० ६६, सू० १४२ ] द्वितीयो विवेकः
[ २४३ "विदूषकः--मोदि ! चिट्ठ दाव, विसुमरिदं खु वो किंचि तं ताव पुच्छिसं ।
[भवति ! तिष्ठ तावद् विस्मृतं खलु वः किञ्चित् तत् तावत् प्रक्ष्यामि] । गणदासः-वत्से ! तिष्ठ तावदुपेशविशुद्धौ गमिष्यसि । [मालविका स्थिता] । धारणी-गोदमवयणं पि अज्जो हियए पमाणीकरेदि ।
[गोतमवचनमपि आर्यो ह्रदये प्रमाणीकरोति] । गणदासः--देवि मा मैवम् । देवप्रत्ययात् सम्भाव्यते सूक्ष्मदर्शी गोतमः ।
पश्यमन्दोऽप्यमन्दतां याति संसर्गेण विपश्चितः ।
पङ्कच्छिदः फलस्येव निकर्षणाविलं पयः । [विदूषकं विलोक्य] किं विवक्षितमार्यस्य ?
विदूषकः-पढमं दाव पेक्खगे पुच्छ। पच्छा जो मए कम्मभेदो लक्खिदो तं भणिस्सं । [प्रथमं तावत् प्रेक्षकान पृच्छ, पश्चाद् यो मया क्रमभेदो लक्षितस्तं भणिष्यामि।
गणदासः-भगवति ! गुणो वा दोषो वा यथादृष्टमभिधीयताम् । परिब्राजिका-यथा मे दर्शनं तथा सर्वमनवद्यम् । गणदासः-देवः कथं मन्यते ? विदूषक---आप जरा ठहरिए । आप कुछ भूल गई हैं उसके विषय में पूछता हूँ।
गरणदास--[मालविकाका नृत्य-शिक्षक गुरु है, वह कहता है] वत्से ! ठहर जाग्रो । [विदूषक जो कुछ पूछना चाहता है उसका उत्तर देकर] उपदेशकी शुद्धता हो जानेपर जाना। [मालविका रुक जाती है।
धारणी-[राजाकी प्रधान रानी है वह मालविकाका अधिक देर राजाके सामने रहना पसन्द नहीं करती है इसलिए कहती है कि क्या इस [गोतम] मूर्ख [विदूषक] के वचनको भी प्रार्य अपने हृदयमें प्रमाण मानेंगे। [अर्थात् इस मूर्खकी बात ध्यान देने योग्य नहीं है।
गणदास—देवि ! ऐसा मत कहिए। महाराजके सम्बन्धसे [गोतम विदूषकमें भी नृत्यको बारीकियोंको समझ सकनेकी क्षमता हो सकती है। इसलिए] गोतम सूक्ष्मदर्शी हो सकता है। देखिए
विद्वान्के संसर्गसे मूर्ख भी विद्वत्ताको प्राप्त कर सकता है। [जलको] मलिनताको दूर करने वाले [कतकवृक्षके फलके संसर्ग से जैसे मलिन जल भी शुद्ध हो जाता है ।
[विदूषकको देखकर आप क्या कहना चाहते हैं ?
विदूषक-पहिले [जिसको इस नृत्यको परीक्षामें निर्णायक नियत किया गया है उन] प्रेक्षक-महोदयसे पूछो, उसके बाद मैंने जो कमी देखी है उसको बतलाऊँगा।
___ गणवास-[परिवाजिकासे] भगवति ! [इस मालविका नृत्यमें ] गुण या दोष जो प्रापने देखा हो उसे कहिए।
परिवाजिका--जहाँ तक मैं समझ हूँ सब-कुछ ठीक है । गरणदास-राजासे] महाराजको क्या सम्मति है ?
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नाट्यदर्पणम्
[ का० ६६, सू० १४२
राजा - वयमपि स्वपक्षं प्रति शिथिलाभिमानाः संवृत्ताः । गरणदासः -- देव ! अद्य नर्तयिताऽस्मि । धारणी - दिट्ट्या पेक्खगाराधरोण. [गरणदासमवलोक्य] अज्जो वढदि । [दिष्ट्या प्रेक्षकाराधनेन आर्यो वर्धते ।
२४४ ]
गणदासः - देवपरिग्रहो मे वृद्धिहेतुः । [विदूषकं विलोक्य] वदेदानीं यत् ते मनः कर्षति ।
3
विदूषकः — पढमोवदेसदंसणे पढमं बंभरणस्स पूया इच्छिदुव्वा, सा तए
लंघिदा ।
[प्रथमोपदेशदर्शने प्रथमं ब्राह्मणस्य पूजा एव्या, सा त्वया लंघिता ।] परिव्राजिका हो प्रयोगाभ्यन्तरः प्रश्नः !
[सर्वे प्रहसन्ति मालती स्मितं करोति ] ।”
इत्ययं नायकस्य विश्रब्धनायिकादर्शनार्थं प्रयुक्तो हास्यलेशकारित्वाद् व्याहारः । भाविदृष्टिर्यथा रत्नावल्यां द्वितीयेऽङ्क
राजा - हमारा भी अपने पक्ष में [अर्थात् मासविकाकी प्रतिद्वंद्विनीके विषय में] अभिमान नहीं रहा [ मालविकाकी जीत हुई ] ।
गरणदास -- देव ! आज मैं नर्तयिता [ सच्चा नृत्य-शिक्षक कहलानेका अधिकारी ] हूँ । [ क्योंकि आप मेरे कार्य से सन्तुष्ट हुए हैं] ।
धारणी – सौभाग्यसे प्रेक्षक [प्रर्थात् निर्णायक ] को प्रसन्न करके प्रापकी [ वृद्धि] विजय हो रही है ।
गरणदास --- प्रापका सेवक होना ही मेरी वृद्धिका कारण है । [ विदूषककी श्रोर देखकर], अच्छा, अब तुम्हारा मन क्या कहता है सो बताओ ?
विदूषक -- पहिली बार उपवेशका प्रदर्शन करते समय [अर्थात् अपनी कलाकी परीक्षा देते समय ] पहिले ब्राह्मरणदेवताको पूजा करनी चाहिए सो प्रापने नहीं की हैं।
परिब्राजिका - प्रोहो ! प्रयोगकी बड़ी बारीकीका प्रश्न है ।
[ सब लोग जोरसे हँसने लगते हैं । मालविका मुस्कराती है । ] "
यह नायक [राजा] को विश्रब्ध रूपसे [ अधिक काल तक ] नायिका को दिखलाने [ रूप अन्यार्थ ] के लिए [विदूषक द्वारा ] तनिक हास्यकारी [ वचन कहा गया है इसलिए यह व्याहार [का उदाहरण ] है ।
भाविदृष्टि [रूप द्वितीय प्रकारके व्याहारका उदाहरण] जैसे रत्नावलीके द्वितीय श्र में राजा [ कहते हैं]
यह श्लोक श्लेषयुक्त है । इसमें दिए गए विशेषरण लता और नारी दोनों पक्षोंमें लगते हैं। राजा समदना नारी-सी दीखनेवाली लताको देखकर कह रहे हैं कि इसकी ओर देखने से महारानी समदना नारीका अवलोकन मानकर अवश्य नाराज होंगी। और आगे चलकर इसी प्रसंग में समदना सागरिका के साथ राजाको देखकर महारानीका मुख क्रोधसे लाल हो जाता है । इसलिए इस श्लोक में जो 'कोपविपाटलद्युति मुखं देव्याः करिष्याम्यहम्' कहा हैं वह भाविदृष्टि विषयक हास्यलेशोक्ति होनेसे व्याहार नामक वीथ्यङ्गका उदाहरण है । श्लोक
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का० ६६, सू० १४२ ] द्वितीयो विवेकः
[ २४५ राजा-उद्दामोत्कलिकां विपाण्डुररुचि प्रारब्धजृम्भां क्षणा
दायासं श्वसनोद्गमैरविरलैरातन्वतीमात्मनः । "अद्योद्यानलतामिमां समदनां नारीमिवान्यां ध्रुवं
पश्यन कोपविपाटला ति मुखं देव्याः करिष्याम्यहम् ॥" अत्र राज्ञा वासवदत्ता प्रति भाव्यर्थदर्शनं हास्येनोक्तम् ।।
अन्ये तु वर्तमानप्रत्यक्षार्थवाचकं हास्यलेशकरं वचो व्याहारमिच्छन्ति । यथा मृच्छकट्यां विदृषको गणिकाया वसंतसेनाया गृहं प्रविशन् वसंतसेनाया मातरं दृष्ट्वा पृच्छति। “विदृपकः-का एसा बंधुला ?
[का एषा बंधुला ?] चेटी-एसा अज्जुआए जणणी अत्तिया।
[एषा आयोया जननी अत्तिका] । विदूषकः-जदि मरे ता सीयालसहस्सस्स पज्जत्तिका । अथ किं एदं पवेसिय' दुवारसोहा निम्मविदा ? आदु उक्वंदवेण पवेसिदा ? का अर्थ निम्न प्रकार है---
"प्रचुर उत्कलिकाओं [नारी पक्षमें प्रियमिलनको उत्कण्ठाओं और लतापक्षमें कलियों से परिपूर्ण, [नारी पक्षमें प्रियवियोगके कारण और लतापक्ष में फूलोंसे लदी होने के कारण धवलकान्तिवाली, ज़म्भायुक्त [और 'प्रारब्धज़म्भी' में 'जम्मा' पदसे नारी पक्षमें जम्भाई तथा लतापक्षमें कुसुमोंका विकास अर्थ लेना चाहिए ] और निरन्तर होनेवाले वायुके झोंकोंसे [नारी पक्षमें 'श्वसनोद्गमैः' का अर्थ दीर्घ निश्वास और लतापक्षमें इसका अर्थ वायुके झोंके लेना चाहिए] से अपने प्रायास [ नारी पक्षमें अपने दुःख तथा लतापक्षमें अपने कम्पन ] को प्रकाशित करती हुई अन्य नारीके समान [तुल्य विशेषणोंवाली] इस उद्यानलताको देखता हुमा प्राज मैं निश्चय ही देवी [महारानी] के मुखको क्रोधसे प्रारक्तवर्ण कर दूंगा।"
इसमें राजाने वासवदत्ताके प्रति भावी अर्थका दर्शन [अर्थात् प्रागे होनेवाली घटना] को हास्यके रूपमें कहा है । [इसलिए यह भाविदृष्टि रूप 'स्याहार' नामक वीथ्यङ्गका उदाहरण है।
अन्य लोग तो वर्तमान प्रत्यक्ष प्रर्थक बोधक हास्यमय वचनको व्याहार कहते हैं । जैसे मृच्छकटिकमें वसन्तसेना वेश्याके घर में प्रविष्ट होते समय वसन्तसेनाको माताको देखकर विदूषक पूछता है
"विदूषक - यह [बन्धुला] रंडी कौन है ? चेटो-यह आर्या [वसन्तसेना] को माता अत्तिका है।
विदूषक-- यदि [यह] मरे तो हजारों शृङ्गालोंके लिए [भोजनार्थ पर्याप्त है। और यह तो बतलायो कि क्या इसको [मकान के भीतर] प्रविष्ट करनेके बाद द्वारकी शोभाका निर्माण करवाया था अथवा ऊपरसे उठाकर भीतर लाये थे [क्योंकि वह इतनी अधिक मोटी है कि द्वारमेंसे तो यह भीतर पा नहीं सकती है । १. पतिमि।
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२४६ ]
दर्पणम्
का० ६६, सू० १४३
[यदि तदा श्रृंगाल सहस्त्रस्य पर्याप्ता । अथ किमेतां प्रवेश्य द्वारशोभा निर्माता ? अथवा स्कंदेन प्रवेशिता ?]
चेटी - अय्य ! मा एत्तियं श्रनेक्खसु । अत्तिका चाउथिए 'बाधयदि । [ आर्य ! मा एतावदन्वीक्षस्व । अत्तिका चातुर्थिकेन बाध्यते ] विदूषकः - भयवं चाउत्थिय मं पिबंभरणं अनुकंपेहि । इति [ भगवन् चातुर्थिक ! मामपि ब्राह्मणमनुकम्पस्व] ।" यथा वा नलविलासे लम्बस्तनी कापालिकीं प्रति विदूषकः-“एकं दाव मे संसयं भंजेहि । मह बंभणीए माया स्थूलकुट्टिणी जा पाडलिपुत्ते वसदि सा किं तुमं, आदु अन्ना का वि । इत्यादीति ।
[एकं तावन्मे संशयं भङ्गव । मम ब्राह्मण्या माता स्थूलकुट्टिनी या पाटलिपुत्रे वसति सा किं त्वम् ? उतान्या कापि ? ]" (२) प्रथाधिबलम् -
[सूत्र १४३ ] – मिथो जल्पे स्वपक्षस्य स्थापनाधिबलं बलात् ॥
॥ [३१] ६६ ॥ मिथः परस्परं जल्पे उक्तिप्रत्युक्तिक्रमे क्रियमाणे स्वपक्षस्य खाभ्युपगमस्य परस्परप्रज्ञोपजीवनबलात् स्थापना सुघटितत्वं क्रियते यत्र तदधिकबलसम्बन्धादधिबलम् |
चेटी- श्रार्य ! इतना ही [मोटा इनको ] मत समझो। माताजी [ श्राजकल ] चातुर्थिक [ चौथे दिन श्रानेवाले ज्वर] से पीड़ित है [ इसलिए दुबली हो गई है ] ।
विदूषक - हे भगवन चातुथिक ! [ यदि आपकी कृपासे यह इतनी मोटी है तो फिर ] मुझ ब्राह्मरंगके ऊपरभी कृपा कीजिए ।"
यह वर्तमान प्रत्यक्ष अर्थका बोधक हास्यकर वचन है ।
[अथवा ] जैसे नलविलास में लम्बस्तनी कापालिका के प्रति विदूषक [ कहता है ] - "विदूषक - मेरे एक संशयको दूर करो। [ यह बताओ कि ] मेरी ब्राह्मणीकी [अर्थात् मेरी पत्नीकी] स्थूलकुट्टिनी नामकी माता जो पटनामें रहती है वह क्या तुम ही हो, अथवा कोई और है ? इत्यदि [ भी वर्तमान प्रत्यक्ष अर्थ विषयक हास्यकर वचन होनेसे इस प्रकारके व्याहारका उदाहरण है ।"
(२) 'अधिबल' नामक द्वितीय वीथ्यङ्ग
अब 'अधिबल' [ नामक द्वितीय विथ्यङ्गका लक्षण प्रादि करते हैं ] -
[सूत्र १४३ ] -- परस्पर वार्तालाप में बलपूर्वक अपने पक्षकी स्थापना करना 'अधिवल' [कहलाता ] है । [३१] ६६ । .
'मिथः' अर्थात् परस्पर, 'जल्प' अर्थात् उक्ति प्रत्युक्ति के क्रम में [ कथनोपकथनके करनेमें ] • अपने पक्ष अर्थात् प्रपने सिद्धान्तका परस्पर बुद्धिका प्रवलम्बन कर जो स्थापन अर्थात् युक्तियुक्तत्व सिद्ध किया जाता है वह अधिक बलका सम्बन्ध होनेसे 'अधिबल' [कहलाता ] है । १. वाणी ।
२. मूल ।
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द्वितीयो विवेकः
[ २४७
यथा कृत्यारावणे प्रथमेऽङ्क सीतावेषधारिण्या 'शूर्पणखया सह संवादे
[नेपथ्ये] —
का० ६६, सू० १४३ ]
" हा भ्रातर्लक्ष्मण ! परित्रायस्व मां परित्रायस्व ।
[इति श्रुत्वा 'शूर्पणखा मोहमुपगता । तस्यां च मूढायां] लक्ष्मणः -- आर्ये ! समाश्वसिहि समाश्वसिहि ।
शूर्पणखा - [ अक्षिणी उन्मील्य सक्रोधं ] श्रः अरणन्ज ! अज्ज वि तुमं चिट्ठसि य्येव । अहो ! दाणि सि तुमं निस्संसो निग्विणो य चिट्ठदु दाव भादुयसिणेहो, कध रणाम इक्खाजकुलसंभवेण महाखत्तिएण भविय एवं तए ववसियं ? गं भणामि एवभक्कंदतो सस् विन उवेक्खीयदि किं पुरण प्रज्जउत्तो ?
[ : अनार्य ! अद्यापि त्वं तिष्ठस्येव । श्रहो इदानीमसि त्वं नृशंसो निघृणश्च · तिष्ठतु तावद् भ्रातृस्नेहः, कथं नाम इक्ष्वाकुकुलसम्भवेन महाक्षत्रियेण भूत्वैवं त्वया व्यवसितम् ? ननु भणामि एवमाक्रन्दन् शत्रुरपि नोपेक्ष्यते किं पुनरार्यपुत्रः ।
इति संस्कृतम् ] |
लक्ष्मणः–आर्ये ! ननु त्वदर्थ एव आर्येण स्थापितोऽस्मि ।
शूर्पणखा - कुमार ! एवं मम अत्थो कदो होदि । एवं च अहं परिरक्खिदा होमि । ता सव्वधा अन्न य्येव दे आणि अभिप्पायं लक्खेमि । इत्यादि ।
[कुमार ! एवं ममार्थः कृतो भवति ! एवं चाहं परिरक्षिता भवामि ? तत्सर्वथान्यमेव तेऽनिष्टमभिप्रायं लक्षयामि । इति संस्कृतम् ] ।”
'यथा वा रघुक्लिासे
जैसे कृत्यारावरण में प्रथम प्रमें सीताका वेष धारण किए हुए शूर्पणखाके साथ संवादमें [अर्थात् संवावके अवसरपर ] नेपथ्यमें
" हे भाई लक्ष्मण ! मुझे बचाम्रो, बचाओ ।
[ऐसा सुनकर शूर्पणखा मूच्छित हो जाती है ]
मौर उसके मूच्छित हो आनेपर लक्ष्मरण [कहते हैं]- श्रायें ! धैर्य धारण करो । शूर्पणखा - [खें खोलकर क्रोधपूर्वक कहती है] अरे दुष्ट अनार्य ! तुम अभी लड़े
हुए ही हो । अरे ! तब तो तुम बड़े क्रूर और निर्लज्ज [ प्रतीत होते] हो । भाईके स्नेहकी बात जाने भी दो, तो भी इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न महान् क्षत्रिय होकर तुमने यह कैसे किया ? [अब तक तुम गए क्यों नहीं ?] मैं कहती हूँ कि इस प्रकार पुकारनेपर शत्रुकी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है [शत्रुकी रक्षाके लिए भी तुरन्त जाना चाहिए था ] फिर प्रार्यपुत्रकी तो बात ही क्या है ?
लक्ष्मरण - श्रायें ! आपकी ही रक्षाकेलिए मुझे प्रायं [ रामचन्द्र ]ने नियुक्त किया है । शूर्पणखा - कुमार ! क्या इस प्रकार मेरा काम होगा। और क्या इस प्रकार मेरी रक्षा होगी। इसलिए मैं तुम्हारा कुछ और ही अनिष्ट अभिप्राय देखती हूँ। [जिसके कारण तुम अभी तक नहीं गए ] ।"
अथवा जैसे रघुविलास में -
१. सूपं ।
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२४८ ]
नाट्यदर्पणम् । का० ६६, सू० १४३ "मयः-देव ! सीतापहारमतितरां जुगुप्सते लङ्कालोकः।। रावण:- [साक्षेपम् ] सीतापहारमतितरां जुगुप्सते लकालोकः ? मयः-[सभयम् ] अथ किम् । रावण:-[ सावहेलम् ]---
अविदितपथः प्रेम्णां बाह्यानुरागरुजां जडो, वदतु दयितामैत्रीवन्ध्यो यथाप्रतिभं जनः। मम पुनरियं सीता राज्यं सुखं विभवः प्रियं,
हृदयमसवो मित्रं मन्त्री रतिधृतिरुत्सवः ।। [पुनः सखेदम् ] आर्य ! किमेकमस्य पामरप्रकृतेर्लङ्कालोकस्य विचारचातुरीवैमुख्यमुद्भावयामि
अस्यां प्रेम ममेव वाङ्मनसयोरुत्तीर्णमन्यस्य चेद्, वैदेह्यां नयनकलालवणप्रारोहभूमौ भवेत् । कापेयं परिरभ्य स प्रकटयन्नुलुण्ठभूयं हठात् , किञ्चित् कामितमादधीत, कृतवान् वेधास्तु मां रावणम् ।।
अपरथा पुनराये ! अहंयुनिकराग्रणीरवगणय्य धर्मार्गलां,
प्रसह्य यदि जानकीमभिरमेत लङ्कापतिः । 'मय-[रावरणसे] देव ! लङ्कावासी लोग सीताके अपहरणकी प्रत्यन्त निन्दा करते हैं।
रावण----[क्रोधपूर्वक] प्रार्य ! क्या लङ्कावासी लोग सीताके अपहरणको अत्यन्त निन्दा करते हैं ?
मय-[डरता हुआ] और क्या। रावरण [अनादर पूर्वक] ---
प्रेममार्गको न समझनेवाले, अनुरागको पीडाका अनुभव करने में अक्षम, और प्रियजन की मैत्रीसे रहित, मूर्ख लोग अपनी समझके अनुसार चाहे जो कहें। पर मेरे लिए तो यह सीता ही राज्य, सुख, वैभव, प्रिय, हृदय, प्रारण, मित्र, मन्त्री, धैर्य और प्रानन्द सब-कुछ है।
[फिर खेवपूर्वक कहता है] प्रार्य ! इन पामर-प्रकृति वाले लङ्कावासियोंकी अविचारशोलताको क्या कहूँ
यदि वाणी और मनको सीमाको पार कर जाने वाले मेरे [प्रेमके ] समान किसी औरका केवल नेत्रोंसे प्रास्वादन करने योग्य लावण्यके अंकुरको जन्मभूमि सीतामें [मेरा सा] प्रेम हो जाय तो वह निश्चय ही [उसको] जबरदस्ती पकड़कर आनन्दातिरेक पूर्वक वानरता [वानरके समान काम-प्रवृत्ति को प्रकट करता हुआ कुछ [अद्भुत काम-व्यापार करने लगता। यह तो कहो कि विधाताने मुझे [अत्यन्त धैर्यशालो, रावण बनाया है [कि मैने अपने हाथमें होने और उसके लिए इतना कष्ट उठानेपर भी अभी तक उसके साथ बलात्कार नहीं किया है ।
नहीं तो हे प्रार्य !अभिमानियोंका अग्रणी लङ्कापति, धर्ममर्यादाका परित्याग करके जानकीके साथ
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का०६७, सू० १४४ ] द्वितीयो विवेकः
[ २४९ अमुष्य ननु रोदसीविजयनिष्णदोष्णः समि
न्मृगव्यरसिकस्तदा क इव नाम वैतण्डिकः ! ॥ . मयः-[अपवार्य मन्दोदरी। प्रति] वत्से । यथावस्थितमभिधाने लापतौ किमतः परं विज्ञापयामि । इति ।"
केचित्तु 'अन्योऽन्यवाक्याधिक्योक्तिः स्पर्धयाऽधिवलं भवेत्' इति पठन्ति । एतदप्योभेदादनेन संगृहीतमिति ॥ [३१] ६६ ॥
(३) अथ गण्ड:[सूत्र १४४]-गण्डोऽकस्माद् यदन्यार्थ प्रस्तुतानुगत वचः ।
अन्याभिप्रायेणाकस्मात् प्रत्युक्तं प्रतिवचनतयानुच्चारितमपि प्रतिवचनरूपतया प्रक्रान्तेन यत् सम्बद्ध वचनं, तद् दुष्टार्थगर्भवाद् दुष्टशोणितगर्भगण्ड इव 'गण्डः' । यथोत्तरचरिते"रामः--[सीतामवलोक्य]
इयं गेहे लक्ष्मीरियममृतवतिर्नयनयोरसावस्याः स्पर्शो वपुषि बहुलश्चन्दनरसः । अयं बाहुः कण्ठे शिशिरमसृणो मौक्तिकसरः
किमस्या न प्रेयो यदि परमसह्यस्तु विरहः ॥ बलात् रमण करने लगे तो द्याता-पृथिवीको विजय करनेमें समर्थ भुजदण्ड वाले, उसके साथ युख-मृगयाका रसिक कौन बाधक बन सकता है ?
मय----[और कोई न सुन सके इस प्रकार---अपवार्य---मन्दोदरीके प्रति वत्से ! [यह बात तो] लङ्कापति ठीक ही कह रहे हैं तब मैं और क्या कहूँ ?"
यहां परस्पर संवादमें रावणने युक्तियों के बलसे प्रबलताके साथ अपने पक्षको स्थापना की है। प्रतः यह 'अधिबल' नामक द्वितीय वोध्यङ्गका उदाहरण है।
कोई लोग स्पर्धाके कारण एक-दूसरेसे बढ़कर वाक्योंके कयनको 'प्रधिबल' कहते हैं। अर्थमें भेद न होनेसे [अर्थात पर्यतः इसी पूर्व लक्षण वाले अधिबलके समान होनेसे] उसका भी अन्तर्भाव इसी [पूर्वोक्त लक्षरणमें] हो जाता है ।। [३१] ६६ ॥
(३) गण्ड नामक तृतीय वीथ्यङ्ग ३-अब 'गण्ड' [नामक तृतीय वीथ्यङ्गका लक्षणादि करते हैं]--
[सूत्र १४४] अन्यार्षक होनेपर भी प्रस्तुतसे सम्बद्ध हो जाने वाला जो बचन अकस्मात् कहा जाय वह 'गण्ड' कहलाता है।
अन्य अभिप्रायसे अकस्मात् बोला गया जो बचन प्रत्युत्तरके रूपमें उच्चारित न होनेपर भी, प्रकृतके साथ प्रत्युत्तर रूपमें संगत हो जाता है वह, अनिष्ट अर्थको अपने भीतर लिए हुए होनेसे गन्दे खूनसे भरे हुए फोड़ेके समान 'गण्ड' कहलाता है। जैसे उत्तररामचरितमें
"राम [सौताको देखकर]
यह [सीता] घर में लक्ष्मी के समान है, यह नेत्रों के लिए अमृतको शलाकाके समान [सुखद है । इसका यह [शीतल] स्पर्श शरीरमें प्रचुर चन्दन रसके तेपके समान है। इसका
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२५० ]
नाट्यदर्पणम् [ का०६७, सू० १४४ प्रविश्य-प्रतीहारी] देव उवस्थिदो
[देव उपस्थितः।] रामः-अयि ! कः ? प्रतीहारी–देवस्स आसन्नपरिचारो दुम्मुहो इति
[देवस्य आसन्नपरिचारको दुर्मुखः] इति ॥" अत्राकस्मात् प्रतीहारवचनमन्याभिप्रायप्रयुक्तं प्रस्तुतरामवचसा संयुज्यमानत्वाद् 'गएडः'। यथा वा बालिकावञ्चितकेकंसः–रिष्टस्तावदुदप्रगविकटः शैलेन्द्रकल्पो वृषः,
सप्तद्वीपसमुद्रजस्य पयसः शोषक्षमा पूतना। केशी वाजितनुः खुरैर्विघटयेदापन्नगान्मेदिनी, साधं बन्धुभिरेवमूर्जितबलं कः कंसमास्कन्दति ।
[नेपथ्ये) जो अन्नओ पसूओ अन्नेण य वढिओ महुप्पहवो। कण्हो सो परउट्ठो मारेइ न कोइ धारेइ ॥ [योऽन्यतः प्रसूतोऽन्येन च वर्धितो मधुप्रभवः ।
कृष्णः स परपुष्टो मारयति न कोऽपि न धारयति ।]" यह बाहु गलेमें शीतल और चिकना हार है । इसका कौनसा भाग प्रिय नहीं है ? [सब कुछ ही प्रिय है] । किन्तु यदि कुछ असह्य है तो वह इसका वियोग है।
[प्रविष्ट होकर] प्रतीहारी–वेव ! उपस्थित है। राम-अरे कौन ? [उपस्थित है। प्रतीहारी-पापका प्रासन्न परिचारक दुर्मुख ।"
इस [संवाद] में अन्य अभिप्रायसे प्रयुक्त [अर्थात् दुमुखके प्रागमनको सूचना देनेके अभिप्रायसे कहा गया] भी प्रतीहारीका वचन ['यदि परमसह्यस्तु विरहः' इस प्रस्तुत रामवचनके साथके-साथ मिल जानेसे 'गण्ड' [नामक वोथ्यङ्गका उदाहरण बन गया है ।
अथवा जैसे 'बालिकावञ्चितक' में -
"कंस्-बड़े-बड़े सींगोंसे भयङ्कर रिष्ट, महान् पर्वतके समान वृष, सातों द्वीपोंके समुद्रोंमें होनेवाले सारे जलको सोख जानेमें समर्थ पूतना, [ये सब मेरे सहायक हैं] । और प्रश्व-रूपधारी केशी अपने खुरोंसे पाताल तक भूमिको खोद डाल सकता है इस प्रकारके बन्धुओं [सहायकों के कारण प्रत्यन्त शक्तिशाली कंसको कौन पराजित कर सकता है ?
.
[नेपथ्यमें] जो किसी दूसरेसे उत्पन्न हुमा और किसी दूसरेसे पाला गया [अर्थात देवकी-वसुदेव का पुत्र और नन्दके द्वार पाला गया कृष्ण] वह अत्यन्त बलशाली [परिपुष्ट, मधुसे उत्पन्न] माधव कृष्ण मार रहा है और कोई बचानेवाला नहीं है।"
रंगभूमिमें प्रविष्ट [कंस रूप] पात्रके द्वारा पठित वचनके साथ मिल जाने वाला यह नेपथ्य-पठित अनिष्टार्थ सूचक वचन गण्ड [का उदाहरण बन गया है।
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द्वितीयो विवेकः
[ २५१
इदं रंगमध्यप्रविष्टपात्रपठितेन वचसा नेपथ्यपठितमनिष्टार्थसूचकं संयुज्यमान
चूलिकागण्डः ।
यथा वा सत्यहरिश्चन्द्र
को०- ६७, सू० १४४ ]
" राजा - कपिब्जल ! पुरो गत्वा विलोकय, आश्रमः कियति दूरे ? [' यदादिशति देवः इत्यभिधाय कपिन्जलो निष्क्रान्तः] राजा ! [सखेदम् ] -
विङ् मां भ्रणविघातिनं सकलुषं धिग् जीवितं मेऽखिलक्षोणीलो ककरोपतापजनिता धिग् धिग् ममैताः श्रियः । पुण्यास्ते करुणामृता मनसो ये नाम वाचंयमाः, हस्तारोपितशर्मणि प्रतिकलं वृत्ताः शुभे कर्मणि ॥ कुन्तल ! वयमिदानीं सर्वस्वपरित्यागमीहामहे । [ प्रविश्य ] कपिब्जलः - देव प्रत्यासन्नं पश्य - राजा - किं सर्वस्वपरित्यागम् ?
कपिन्जलः - नहि, मुनीनामाश्रमम् ।" इति ।
" इस श्लोक में मुख्य रूपसे वसन्तमें होनेवाले कोकिलके वियोगियों को मार डालनेवाले अर्थात् अत्यन्त सन्तापदायक कलरवका वर्णन है । परन्तु प्रकृत में कंसको मारनेवाले कृष्ण के साथ भी उसका सम्बन्ध है । 'अन्यतः प्रसूतः', 'अन्येन वर्धितः', 'परपुष्टः' आदि सब पद कोकिलके वाचक भी होते हैं और कृष्णपरक भी । कोकिलका नाम 'परभृत' भी है । क्योंकि कोकिल अपने बच्चों का पालन कौनोंके द्वारा कराता है। कृष्ण भी परभृत दूसरेके द्वारा पाले हुए हैं । 'कृष्ण' तथा 'मधुप्रभवः' पद भी कोकिल पक्ष तथा कृष्ण दोनोंमें लगते हैं । यह कोकिल वियोगी जनों को सन्तापदायक होता है । मुख्य रूपसे यहाँ उसका ही उल्लेख है । किन्तु मन्यार्थक होनेपर भी वह वाक्य प्रस्तुत कंसके वचन के साथ मिल गया है । इसलिए
यह गण्डका उदाहरण बन गया है ।
अथवा जैसे सत्य हरिश्चन्द्रमें—
"राजा - कपिञ्जल जरा धागे बढ़कर देखो कि आश्रम कितनी दूर है ?
[जो प्राज्ञा, कहकर कपिञ्जल बाहर चला जाता है] ।
राजा- - [खेदपूर्वक]—
मेरी इस लक्ष्मीको धिक्कार है ।
भ्रूणहत्या करने वाले मुझको धिक्कार है । मेरे पापी जोधनको धिक्कार है । सारे भूमण्डल के लोगोंको करों द्वारा सन्ताप देकर प्राप्त की गई करुणा श्रार्द्र हृदय वाले और मौन धारण करने वाले जो [मुनिगरा ] अनायास सुख प्रदान करनेवाले [हस्तारोपितशर्म रिण] शुभ कामों में प्रतिक्षरण लगे रहते हैं वे धन्य हैं । कुन्तल ! अब हम सर्वस्व दरित्याग कर [मुनियत ग्रहरण करना ] चाहते हैं । कपिञ्जल - [ प्रविष्ट होकर ] देव ! समीप श्रा गया है उसको देखिए । राजा-क्या ! सर्वस्व परित्यागको [ देखू] ?
कपिंजल — जी नहीं, मुनियोंके श्राश्रमको ।"
इसमें अन्य अभिप्रायसे कहा गया कपिञ्जलका वचन, प्रस्तुत राजाके वचनके साथ
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२५२ ]
(४) अथ प्रपन:
[ सूत्र १४५ ] - प्रपञ्चः सस्तवं हास्यं मिथो मिथ्यैकलाभकृत् । [३२] ६७॥ यथा रत्नावल्यां राजा कदलीगृहे चित्रगतां सागरिकां पश्यन् सुसङ्गताया दर्शने फलकं प्रच्छाद्य तामाह
नाट्यदर्पणम्
" राजा - सुसङ्गते कथमिहस्थो भवत्या ज्ञातः ?
सुसङ्गता -- भट्टा न केवलं तुवं, समं चित्तफलएण सव्वो वृत्तंतो मए जाणिदो, ता गडय देवीए निवेदइस्सं । [ भर्तः ! न केवलं त्वं, समं चित्रफलकेन सर्वो वृत्तान्तो मया ज्ञातः, तद् गत्वा देव्यै निवेदयिष्यामि । इति संस्कृतम् ] |
वसन्तकः -- ( अपवार्य) भो ! सव्वं संभवीयदिं । मुहरा खु एसा गब्भदासी, ता किंचि दहय परिदोसेहि गं । [ भो । सर्वं सम्भाव्यते । मुखरा खलु एषा गर्भदासी, तत् किंचिद् दत्वा परितोषय एनाम् ] । ।
[ का० ६७, सू० १४५
राजा-
- [ सुसङ्गताया अलकान् प्रमार्जयन् ] सुसंगते ! क्रीडामात्रकमेवैतत् । तथापि नाकारणे त्वया देवी खेदयितव्या । इदं च ते पारितोषिकम् । [इति कर्णाभरणं ददाति ] | सुसङ्गता - [प्रणम्य सस्मितम् ] भट्टा पसादो मे करणाभरणे । भर्तः ! प्रसादो मे करर्णाभरणेन ।” इत्यादि ।
अत्र राज- सुसङ्गतयोर्मिथो 'देव्यै निवेदयिष्यामि' इति हास्यम् । 'भट्टा पसादो' इति स्तवसहितमेकस्य राज्ञः सागरिकालङ्गमलाभकारणं प्रपञ्चोऽसद्भूतत्वात् । सुसङ्गताकर्णाभरणलाभस्तु मुख्यसाध्यं प्रत्यनुपयोगित्वान्न विवक्षितः । मिलकर भावी अनिष्टका सूचक हो गया है । इसलिए यह भी गण्डका उदाहरण है । इसके पूर्व पताका स्थानके रूपमें भी इसका वर्णन आ चुका है ।
४ अब प्रश्न [ नामक चतुर्थ वीथ्यङ्गका लक्षण करते हैं]
[ सूत्र १४५ ] - किसी एकको लाभ प्रदान करने वाला, स्तुति सहित मिथ्या हास्य प्रपञ्च [कहलाता ] है ।। [३२] ६७ ॥
जैसे रत्नावली में, कदलीगृहमें सागरिकाके चित्रको देखते हुए राजा, सुसंगताको देखकर चित्रकलकको ढककर [ उससे कहते हैं ] -
राजा- - सुसंगते ! हम यहाँ बैठे हैं यह तुमको कैसे मालूम हुआ ?
सुसंगता - हे स्वामिन् ! न केवल श्राप, अपितु चित्रफलक के सहित समस्त वृत्तान्त मुझको मालूम हो गया है। सो मैं जाकर देवी से कहूँगी ।
वसन्तक [ दूसरा न सुन पाए इस प्रकार - श्रपवार्य - राजासे कहता है ] अरे ! सब कुछ हो सकता है । यह गर्भदासी बड़ी वाचाल है इसलिए इसे कुछ देकर सन्तुष्ट करो ।
राजा - [सुसंगताके बालोंको संवारता हुआ ] सुसंगते ! यह सब तो केवल खेल मात्र है फिर भी तुम देवीको व्यर्थ ही कष्ट मत देना । लो यह तुम्हारा पारितोषिक है । [ यह कहकर कानोका आभूषण देता है] ।
सुसंगता - [मुस्कराती हुई प्रणाम करके ] हे स्वामिन् ! यह करर्णाभरण मुझे पुरस्कार में दे रहे हैं ।" इत्यादि ।
इसमें 'देवीसे जाकर निवेदन करूंगी' [यहाँसे लेकर ] 'भर्तः ! यह [कराभरण मेरा ]
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का० ६७, सू० १४५ ]
द्वितीय विवेक:
[ २५३
केचित् त्वसद्भूतेन पारदार्यादिनैपुण्यादिना योऽन्योऽन्यस्तवो हास्यहेतुस्तं प्रपचमाहुः । यथा-
"रंडा चंडा दिक्खिदा धम्मदारा मज्जं मंसं खज्जए पिज्जए वा । भिक्खा भोज्जं चम्मखंडं च सेज्जा कोलो धम्मो करस नो भादि रम्मो | [रण्डा चण्डा दीक्षिता धर्मदारा, मद्यं मांसं खाद्यते पीयते वा । भिक्षा भोज्यं चर्मखण्डं च शय्या, कौलो धर्मः कस्य नो भाति रम्यः ॥ " इति संस्कृतम्]
अन्ये तु द्वयोर्लभं विना मिथ्यारूपं हास्यं संस्तवयुक्तं प्रपञ्चत्वेन मन्यन्ते । यथा प्रयोगाभ्युदये—
"तरङ्गदत्तकचेटी- अम्मो अयं खु एसो संचारिमं उवहासपट्टणं काय्यभंडीरवो इदो येवा गच्छदि ।
[अहो अयं खल्वेप संचरिष्णूपहासपत्नं आर्यभ एडीरव इत एवागच्छति । इति संस्कृतम् ।
विदूषक -- उपसृत्य भोदी ! सागदं ते ।
[भवति । खागतं ते] ।
नेटी - [ स्वगतम् ] परिहासइस्सं दाव णं । [ प्रकाशम् ] को दाणि एस अम्हा पुरस्कार है' [ यहाँ तक ] यह स्तुति सहित; राजा और सुसंगताका परस्पर हास्य है। एक अर्थात् राजाको सागरिकाको प्राप्ति रूप लाभका कारण है । और मिथ्या व्यवहार रूप होनेसे प्रपञ्च है । सुसंगताको करर्णाभररणकी प्राप्ति [प्रयञ्जके लक्षणमें कहे हुए 'एकलाभकृत् पदसे यहाँ ] मुख्य साध्यके प्रति अनुपयुक्त होनेसे विवक्षित नहीं है ।
कुछ लोग प्रसद्भूत परदाराभिगमन् श्रादिके नैपुण्यके द्वारा जो एक-दूसरेकी स्तुति हास्यका कारण है उसको प्रपञ्च कहते हैं। जैसे
उत्कट [ कामवेग वाली] रंडियाँ [ जिस धर्ममें] दीक्षाप्राप्त धर्मदारा [ समझी जाती] हैं, मद्य और मांस [स्वेच्छा-पूर्वक] खाया-दिया जाता है । [जिस धर्ममें] भिक्षा हो भोजन है, और चर्मका टुकड़ा ही शय्या है ऐसा कौल [ वाममार्गी सम्प्रदायका ] धर्म किसको सुन्दर [ श्राकर्षण करने वाला] नहीं लगता है ।
इसमें कौल धर्मके अनुयायी किसी साथीका उपहास करते हुए उसमें परदाराभिगमन यादि दिखलाकर उसकी हास्यकर स्तुति की गई है इसलिए यह दूसरे लक्षण के अनुसार प्रपञ्चका उदाहरण है ।
अन्य लोग तो दोनों [ मेंसे किसी ] के लाभके बिना ही प्रशंसायुक्त मिथ्या हास्यको प्रपञ्च कहते जैसे प्रयोगाभ्युदयमें ---
"तरंगदत्तकी दासी - अरे सञ्चरणशील उपहास - नगर रूप यह कार्य भण्डोरक इधर ही
प्रा रहे हैं ।
विदूषक - [पास आकर ] श्रापका स्वागत है ।
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"५४ ]
नाट्यदर्पणम् पेसणयारो चेडउ ति।।
[परिहासयिष्यामि तावदेनम् । क इदानीमेषोऽस्माकं प्रेषणकारकश्चेटक इति । विदूषकः-अहं घडदासीणं सामिगो ।
___ [अहं घटदासीनां स्वामिकः] । चेटी-किं चेडउ त्ति भणिदे कुविदो तुमं । [कि चेटक'इति भणिते कुपितस्त्वम्] विदूषक :-को दाणि विसेसो घडदासीणं कुभदासीणं च ? क इदानीं विशेषो घटदासीनां कुंभदासीनां च] ? चेटी-मा कुप्प भट्टउत्तो त्ति भणिसं । [मा कुप्य, भर्तृ पुत्र इति भणिष्यामि । विदूषकः-भोदी ! तुर्व पि मा कुप्प अज्जा इति भरिणसं । [भवति ! त्वमपि मा कुप्य, आर्या इति भणिष्यामि । चेटी-अहो भट्टउत्तस्स गदी। [अहो भर्तृ पुत्रस्य गतिः] विदूषकः-अहो अदिरूआ अज्जया।
[अहो अतिरूपा आर्यका]" इति ।। [३२] १७ ॥ (५) अथ त्रिगतम्[सूत्र १.४६]-त्रिगतं शब्दसाम्येन भिन्नस्यार्थस्य योजनम् । __भिन्नस्य प्रस्तुतादन्यस्य । त्रिगतमनेकार्थगतं शब्दस्यानेकार्थत्वात् । तेन द्वयर्थ
चेटो-[स्वगत] इससे तनिक मजाक कर । [प्रकाश यह हमारा प्रेषण कराने वाला कौन दास है।
विदूषक--मैं घटदासियोंका स्वामी हूँ। [घटदासीका अर्थ जन्मसे दासी है] । चेटी-क्या चेट कहनेसे श्राप नाराज हो गए ? विदूषक -घटदासी और कुम्भवासीमें क्या भेद है ? चेटी-नाराज न हों अब 'भतपुत्र' कहूँगी। विदूषक-पाप भी नाराज न हों अब 'आर्या' कहा करूंगा। चेटी-पोहो भट्टपुत्रको चाल [कसी सुन्दर है] ! विदूषक-ग्रहो प्रार्याका रूप कसा सुन्दर है !
दोनोंमेंसे किसीके भी लाभके बिना यह मिथ्या संस्तवयुक्त हास्य वचन है। यह दूसरे मतसे प्रपञ्च नामक वीथ्यङ्गका उदाहरण है । [३२]६७॥
५ विगतनामक पञ्चम वीथ्यङ्गअब त्रिगत [का लक्षण प्रादि करते हैं]
[सूत्र १४६] - शब्दको समानताके कारण [अनेकार्थक कदको प्रस्तुत अर्थसे] भिन्न अर्थ निकलना 'त्रिगत' [कहलाता है।
शब्दोंको समानताके कारण [अन्वार्थक शब्दोंसे] अन्य अर्थको योजना त्रिगत' किहलाता है । जैसे 'देवीचन्द्रगुप्त' के द्वितीय अंकमें प्रजामोंके प्राश्वासनके लिए राजा राम
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का० ६८, सू० १४६ ]
द्वितीयो विवेकः
[ २५५
मपि । यथा देवीचन्द्रगुप्ते द्वितीयेऽङ्के प्रकृतीनामाश्वासनाय शकस्य ध्रुवदेवीसम्प्रदाने अभ्युपगते राज्ञा रामगुप्तेनारिवधार्थं यियासुः, प्रतिपन्नध्रुवदेवीनेपथ्यः कुमार चन्द्रगुप्तो विज्ञपयन्नुच्यते
यथा
" राजा - प्रतिष्ठोक्तिषु न खल्वहं त्वां परित्यक्तुमुत्सहे । प्रत्यप्रयौवनविभूषणमङ्गमेतद्, रूपश्रियं च तव यौवनयोग्य रूपम् । सक्तिं च मय्यनुपमामनुरुध्यमानो देवीं त्यजामि बलवांस्त्वयि मेऽनुरागः ॥
अन्यस्त्रीशंकया ध्रुवदेवी - यदि भत्ति अवेक्खसि तदो मं मंदभाइणिं परि
चचयसि ।
[ यदि भक्तिमपेक्षसे ततो मां मन्दभागिनीं परित्यजसि ] ।
राजा - अपि च, त्यजामि देवीं तृणवत् त्वदन्तरे |
ध्रुवदेवी - अहं पि जीविदं परिच्चयंती अज्जउत्तं पढमयरं य्येव परिच्चइस्सं । [ अहमपि जीवितं परित्यजन्ती आर्यपुत्रं प्रथमतरमेव परित्यक्ष्यामि ।' राजा - त्वया विना राज्यमिदं हि निष्फलम् ।
ध्रुवदेवी - ममावि संपद निष्फलो जीवलाओ सुहपरिचयपीओ भविरसदि । [ममापि साम्प्रतं निष्फलो जीवलोकः सुखपरित्यजनीयो भविष्यति । ].
गुप्तके द्वारा ध्रुवदेवीको शकराजको दे देना स्वीकार कर लेनेपर ध्रुवदेवीका वेष धारण करके शत्रुके बधके लिए जाने वाले कुमार चन्द्रगुप्तको लक्ष्य करके कहते हैं
राजा - प्रतिष्ठा वचनोंके अवसरपर मैं तुमको भुला नहीं सकता हूँ ।
मैं [ यद्यपि ] देवीका परित्याग करने जा रहा हूँ किन्तु श्रभिनव यौवनसे रमणीय तुम्हारी यह देह, यौवनके अनुरूप इस रूप-सौन्दर्य, और अपने प्रति अनुपम प्रेमको देखकर तुम्हारे प्रति मेरा प्रबल अनुराग है ।
ध्रुवदेवी - [ चन्द्रगुप्तको दूसरी स्त्री समझ कर ] यदि इसके प्रेमकी अपेक्षा है तो [ इसका अर्थ यह है कि अपने प्रति अनन्य अनुराग रखने वाली ] मुझ मन्दभागिनीका परित्याग कर रहे हैं।
राजा - और तुम्हारे कारण [अर्थात् तुम देवीकी दूसरे पक्ष में तुम्हारे प्रेमके वशीभूत होकर ] मैं तृणके समान [अर्थात् शकराजको देवीके वे बेनेको स्वीकार कर रहा हूँ ] ।
ध्रुवदेवी - [प्रापके इस परित्यागसे खिन्न होकर ] मैं भी अपने जीवनका परित्याग करके प्रार्यपुत्रको पहिले ही छोड़ दूंगी ।
राजा - [ चन्द्रगुप्तके प्रति ] तुम्हारे बिना मेरा यह राज्य व्यर्थ है ।
ध. बदेवी- मेरे लिए भी अब यह जीवलोक निष्फल है । उसे मैं सरलता से परित्याग कर सकूंगी ।
राजा - किन्तु देवी मेरी विवाहिता पत्नी है इसलिए उनके प्रति मुझे दया बाती हैं।
रक्षा कर हो लोगे ऐसा मानकर
देवीका परित्याग कर रहा हूँ ।
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नाट्यदर्पणम
[ का० ६८, सू० १४६
राजा - ऊढेति देवीं प्रति मे दयालुता ।
ध्रुवदेवी -- इयं अज्जउत्त ! ईदिसी दयालुदा, जं प्रणवरद्धो जरो गुगदो एवं परिच्चईयादि ।
२५६ ]
[इयमार्यपुत्र ! ईदृशी दयालुता यदनपरद्धो जनोऽनुगत एवं परित्यज्यते ] । राजा - त्वयि स्थितं स्नेहनिबन्धनं मनः ॥ ध्रुवदेवी - दो य्येव मंदभागा परिच्चइयामि । [त एव मन्दभागा परित्यज्ये] । राजा - त्वय्युपारोपितप्रेम्णा त्वदर्थे यशसा सह । परित्यक्ता मया देवी जनोऽयं जन एव मे ॥
ध्रुवदेवी - हंजे ! इयं सा अय्यउत्तरस करुणदा । [हंजे ! इयं सा आर्यपुत्रस्य करुरणता ] ।
सूत्रधारी - देवि ! पति चंदमंडलाउ चुडुलीओ, किं एत्थ करीयदि । [देवि ! पतन्ति चन्द्रमण्डलादप्युलकाः, किमत्र क्रियते ] ? राजा - देवीवियोगदुःखार्तास्त्वमस्मान रमथिष्यसि । ध्रुवदेवी- वियोगदुक्खं पि दे अकरुणरस अस्थि य्येव ? [वियोगदुःखमपि तेऽकरुणस्यास्त्येव ] ?
राजा - त्वद्दुःखस्थापनेतुं सा शतांशेनापि न क्षमा ||" इति ॥
एतत स्त्रीवेषधारिचन्द्रगुप्तबोधनार्थमभिहितमपि विशेषणसाम्येन देव्या स्त्रीविषयं प्रतिपन्नमिति भिन्नार्थयोजनम् । एवं व्यर्थमपि श्लेषादिवशादुदाहार्यम् । ध्रुवदेवी - हे प्रार्यपुत्र ! यह [आापकी ] ऐसी दयालुता है कि अपने प्रति अनुरक्त और अपराधी सेविका [मुझ] को छोड़ रहे हैं ।
राजा- - [ चन्द्रगुप्तके प्रति ] किन्तु तुम्हारे प्रेमके कारण मेरा मन तुममें लगा हुआ है । ध्रुवदेवी - इसीलिए मुझ मन्दभागिनीका परित्याग कर रहे हैं ?
राजा -- तुम्हारे ऊपर प्रेम [ विश्वास ] करके तुम्हारे लिए [ श्रर्थात् तुम देवीको रक्षा शत्रुवध करके अवश्य कर सकोगे ऐसा मानकर, देवीपरित्यागका वचन देकर ] यशके साथसाथ मैंने देवीका परित्याग कर दिया और यह प्रजाजन तो मेरे प्रजाजन ही ठहरे ।
ध्रुवदेवी - हंजे ! यह आर्यपुत्रकी वह करुणता है [ जो मेरे प्रति रखते हैं ] । सूत्रधारी - देवि ! चन्द्रमण्डलसे भी यह उल्कापात हो रहा है अब इसमें क्या किया
जा सकता है ।
राजा - देवीके वियोग के दुःखमे दुःखी हमको अब [ शत्रुका वध करके देवीकी रक्षा द्वारा ] तुम हो सुखी बनाओगे ।
ुवदेवी - करुणा-रहित आपको वियोग-दुःख बना ही है ?
राजा - तुम्हारे दुःखको दूर कर सकने में वह तनिक भी समर्थ नहीं है ।"
स्त्री-वेषधारी चन्द्रगुप्तको बोधित करनेके लिए कहे हुए भी ये सब वचन विशेषणोंकी समानता के कारण ध्रुवदेवीने अन्य स्त्री-परक समझ लिए हैं इसलिए योजना [होनेसे त्रिगत नामक वीथ्यङ्गका उदाहररण] है । इसी प्रकार
यह भिन्नार्थमें उनकी श्लेषादिके द्वारा तीन
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का०६८, सू० १४६ ] द्वितीयो विवेकः
[ २५७ अथवा श्रुतिसारूप्येणैकस्यैव प्रश्नरूपतया सतः प्रतिवचनतया भिन्नार्थस्य योजनम्। यथा विक्रमोर्वश्याम
सर्वक्षितिभृतां नाथ ! दृष्टा सर्वाङ्गसुन्दरी। - रामा रम्ये वनान्तेऽस्मिन् त्वया विरहिता मया ॥ अत्र प्रश्ने महीभृतः प्रतिशब्देनैतदेवोत्तरम्।
यद्वा शब्दोऽव्यक्तध्वनिमात्रं, तत्साम्येनानेकार्थयोजनं 'त्रिगतम्' । यथा इन्दुलेखायां वीथ्याम्"राजा-वयस्य--
किं नु कलहंसनादो मधुरो ? मधुपायिनां नु झङ्कारः ?
हृदयगृहदेवतायास्तस्याः नु सनूपुरश्चरणः ? ॥इति।" (६) अथ छलम्[सूत्र १४७]-वचोऽन्यार्थ छलं हास्य-वञ्चना-रोषकारणम् ॥[३३]९८॥ प्रोंसे सम्बद्ध ]त्रिगत] का उदाहरण समझ लेना चाहिए।
अथवा प्रश्न रूपसे स्थित एक ही वचनको शब्दको समानतासे उत्तरके रूपमें लगानेसे भिन्नार्थ में योजना ["त्रिगत' कहलाती है। जैसे विक्रमोर्वशी में
(उर्वशीके चले जानेपर उसके वियोग दुःखसे पागल हुआ राजा इधर-उधर उसको खोजता फिरता है और वह हिमालय पर्वतसे उर्वशीके विषयमें प्रश्न करता हुमा कहता है] हे समस्त पर्वतोंके स्वामिन् ! इस सुन्दर वन-भागमें मुझसे अलग हुई सर्वाङ्ग-सुन्दरी स्त्री [प्रर्थात् उर्वशी] को क्या प्रापने देखा है ?
इस प्रश्नके करनेपर प्रतिध्वनि द्वारा पर्वतका यही उत्तर है।
पर्वतकी प्रोरसे उत्तरके रूपमें इन शब्दोंका अर्थ यह होगा कि हे समस्त राजाओंके अधिपति [महाराज] ! 'त्वया विरहिता' तुमसे वियुक्त हुई, सर्वाङ्ग-सुन्दरी स्त्रीको 'मया' मैंने इस सुन्दर वन-भागमें देखा है । इसमें प्रश्न कालमें 'मया विरहिता त्वया दृष्टा' यह अन्वय होता है । और उत्तर-पक्ष में 'त्वया विरहिता मया दृष्टा' यह अन्वय होता है । इसी प्रकार 'सर्वक्षितिभृतां नाथ' का अर्थ दोनों पक्षोंमें भिन्न हो जाता है। प्रश्न पक्षमें क्षितिभृत् का अर्थ पर्वत और उत्तर पक्षमें क्षितिभृत् का अर्थ राजा होता है ।
अथवा शब्दसे प्रव्यक्त ध्वनिमात्र [ लेना चाहिए ], उसकी समानतासे अनेकार्थकी योजना 'विगत' [नामक वीथ्यङ्ग कहलाता है। जैसे इन्दुलेखा [नामक] वीथीमें
राजा-हे मित्र !
क्या कलहंसोंका नाद या मधुपोंका झङ्कार मधुर है अथवा मेरे हृदयमन्दिरकी उस देवताके नूपुर [की ध्वनिसे युक्त] चरण [अधिक मधुर हैं ] ? (६) छल नामक छठा वीथ्यंग- अब 'छल' [नामक अन्य षष्ठ वीथ्यङ्गका लक्षण करते हैं।
[सूत्र १४७]-दूसरेके लिए प्रयुक्त, हास्य, वञ्चना या रोषके जनक वचनका प्रयोग 'छल' [कहलाता है । [३३] ९८ ।
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२५८ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ६६, सू० १४८ प्रयोजनान्तरेण प्रयुक्तं यद्वचनमन्यस्य, अन्यस्य हास्य-वञ्चना-रोषकारणं तद्वअनाहेतुत्वाच्छलम् । यथा
"कस्स व न होइ रोसो दहण पियाए सव्वणं अहरं . सभमरपउमग्याइरि वारियवामे सहसु इण्हि ॥ [कस्य वा न भवति रोषो दृष्ट्वा प्रियायाः सुव्रणमधरम् । सभ्रमरपद्माधायिणि वारितवामे सहस्वेदानीम् ॥
इति संस्कृतम् ]।" एतद्वचः सख्या भर्तृ प्रत्यायनप्रयोजनेनोक्तं विदग्धजनस्य हास्यं श्वशुरादेवश्चनां सपत्न्या रोष जनयतीति ॥ [३३] १८ ॥ (७) अथासत्प्रलापः
सत्र १४८]--असत्प्रलापस्तत्त्वेन हितं यन्नावगम्यते । परमार्थतो हितमुपकारपर्यवसायि यद्वचनं अविवेचकत्व-मौाभ्यां तत्त्वेन हितत्वेन नैवावबुध्यते अविवेचकैम खैश्च, तत् तौ प्रति असतो असाधुभूतस्य प्रलपनमसत्प्रलापः।
तत्राविवेचकं प्रति यथा रामाभ्युदये द्वितीयेऽङ्क
"रावण:-प्रायशः श्रुतमेव भवद्भिर्यथा कलत्रमात्रसाधनोऽसौ तापसरतदपहार एव तावन्निरूप्यताम् । न च कलत्रापहरणाहते पुरुषास्यापरं परिभवस्थानमस्ति । तत्र मारीचेन साहायक क्रियमाणमिच्छामि।।
. अन्य प्रयोजनसे प्रयुक्त किया गया दूसरे व्यक्तिका जो वचन दूसरेके लिए हास्य वचना अथवा रोषका कारण हो वह वञ्चनाका हेतु होनेसे 'छल' कहलाता है । जैसे
अपनी प्रियाके अपरमें [ दन्तक्षतका ] घाव देखकर किसको क्रोध नहीं पाता है ? इसलिए मना करनेपर भी न मानने वाली, और भ्रमर-युक्त कमलको सूंघने वाली प्रव [भ्रमरके काट लेनेसे बने प्रषरवणके कारण अपने पतिके क्रोध को भोग ।
यह वचन सखीने [नायिकाको रक्षाके लिए उसके] स्वामीको [यह विश्वास दिलाने के लिए [कि इसके परपुरुष-द्वारा प्रवरतरण नहीं हुआ है अपितु भ्रमरके काट लेनेसे वरण हमा है] कहा जानेपर भी विदग्ध लोगोंमें हास्य, श्वशुरादिको वञ्चना तथा सपत्नीमें रोष उत्पन्न करता है । [३३] ९८॥ (७) असत्प्रलाप नामक सातवाँ वीथ्यंग :
प्रब असत्प्रलाप [नामक सप्तम वीभ्यङ्गका लक्षणादि कहते हैं ।
[सूत्र १४८]-जिस हितकारी वचनको यथार्थ रूपमें ग्रहण नहीं किया जाता है वह 'प्रसत्प्रताप' है।
वास्तवमें हितकारी प्रर्थात् लाभ पहुंचने वाला होनेपर भी [सुनने वालेके] अविवेकत्व अथवा मूर्खताके कारण हितकारी रूपसे ग्रहण नहीं किया जाता है वह उन दोनोंके प्रति प्रसत् अर्थात् अहितकर प्रलापके समान होनेसे 'असत्प्रलाप' [कहलाता है। .
उनमेंसे प्रविवेचकके प्रति [असत्प्रलापका उदाहरण] जैसे रामाभ्युदयके द्वितीयांकमेंरावण-तुमने यह तो शायद सुना ही है कि उस तापसके पास केवल एक स्त्री
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का० ६६, सू० १४८ ] द्वितीयो विवेकः
[ २५६ मारीचः-स्वामिन् ! जीवतो रामस्य परिभव इत्यशक्यमेतत् । न खलु तापस इति तमवज्ञातुमर्हति देवः। अन्यदेव वस्त्वन्तरं किमपि तत् ।
रावणः-[ सक्रोधम् ] आः किं नाम वस्त्वन्तरं तत् ? मूढ़ !
युक्त्यैव क्षत्रबन्धोः परिभवमसमं जीवतः कर्तुमिच्छन्, मायासाहायके त्वं निपुणतर इति प्रार्थये नासमर्थः । यच्चान्यत् तत्र बज्रप्रहतिमसृणितस्फारकेयूरभाजः,
सज्जास्त्रैलोक्यलक्ष्मीहठहरणासहा बाहवो रावणस्य ॥" अत्र मारीचवचनं परमार्थतो हितमपि रावणेन नावगतम् ।।
मूर्ख प्रति, यथा भीमटविरचिते 'मनोरमावत्सराजे' वत्सराजाभ्युदयशंसी रुमण्वान् पांचालमुच्छेत्तुकामस्तस्य कृतकभृत्यतां श्रितो विश्वासोत्पादनार्थं वत्सराजान्तरःपुरमादीप्य यौगन्धरायणप्रमुखानाह
"कौशाम्बी मम हस्त एव परया शक्त्या मया स्वीकृतः, पंचालाधिपतिः प्रभुः स भवतां न ज्ञायते क्वाधुना। नन्वादीपित एप मोहितपरानीकेन लावाणको,
देवी सम्प्रति रक्ष्यतामयमहं प्राप्तो रुमण्वान् स्वयम् ॥" ही है । इसलिए उसका अपहरण ही सबसे पहले करना चाहिए। स्त्रीके अपहरणसे अधिक पुरुषके लिए अपमानका दूसरा स्थान नहीं है । इसमें मारीच सहायता करे ऐसा मैं चाहता हूँ।
. मारीच-स्वामिन् ! रामके जीते रहते उसका अपमान हो सके यह असम्भव है। वह कोई साधारण तापस है यह समझकर उसकी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए। वह कुछ और ही चीज है।
रावण-[सक्रोध होकर अरे वह कौनसी दूसरी चीज है ? मूर्ख -- ___ उस नीच क्षत्रियके जीते रहते ही युक्तिसे उसका अपमान करनेके लिए ही, तू षोखा देनेमें अधिक चतुर है ऐसा समझकर तुमसे कहा था, मैं असमर्थ हूँ ऐसा मत समझना। और वह जो कुछ और है उसके लिए बचके प्रहारोंसे चिकने हुए बाजूबन्दोंको धारण करने वाले और तीनों लोकोंकी लक्ष्मीको बलात हरणकर सकनेमें समर्थ, मेरे [रावणके] बाहु तैयार हैं।
यहां मारीच का वचन वास्तवमें हितकर होनेपर भी रावणने [ हितकर ] नहीं समझा।
मूर्खके प्रतिजैसे भीमट [कवि विचित मनोरमावत्सराजमें वत्सराजकी उन्नति की कामना करने वाले [मन्त्री] हमवान् पाश्चालराजको नाश करनेकेलिए उसके बनावटी भृत्य बनकर उसको विश्वास दिलाने के लिए वत्सराजके [लावारणक बनमें स्थित होने के समय] अन्तःपुरमें प्राग लगाकर यौगन्धरायण प्राविसे कहते हैं- कौशाम्बीको मेरे हायमें ही समझो। अत्यन्त शक्तिशाली होनेके कारण [ उसपर नीतिसे ही विजय प्राप्त करनी होगी ऐसा मानकर मैंने पाञ्चालराजको [बनावटी रूपसे) अपने स्वामी रूपमें स्वीकार किया है। प्रापके में प्रभु [उदयन ने मालूम कहाँ हैं। शकी सेनाको भ्रममें अलने वाले मैंने इस लावाणक [वन] को प्राग लगा दी है, प्रब [इस लावा. १. महति ।
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२६० ]
नाट्यदर्पणम
का ६६, सू० १४६ एतच्च परमार्थतः पांचालोच्छेदपरं यौगन्धरायणेनावबुद्धम ! वासवदत्तया सम्भ्रमकनाम्ना यौगन्धरायणानुचरेण च मौख्यान्नावगतम् ! यथा वा व्यसनिना राजपुत्रेण किं सुखमिति पृष्टे मन्त्रिपुत्रशोच्यते--
__ "सर्वदा योऽक्षविजयी सुरासेवनतत्परः ।
- तस्यार्थानां सुखानां च समृद्धिः करगामिनी ॥" एतदपि मूर्खत्वात् प्रियांशे पाशकविजय-मद्यपानरूपे गृह्यते, न त्विन्द्रियविजयदेवताराधनरूपे हितांशे इति । अन्ये तु बालोत्कण्ठितादीनामसम्बद्धकथाप्रायमसत्प्रलापमिच्छन्ति । यथा--
“एक त्रीणि नवाष्ट सप्त षडिति व्यालुप्तसंख्याक्रमाः,
वाचः क्रौंचरिपोः शिशुत्वविकलाः श्रेयांसि पुष्णन्तु वः ।।" यथा वा रघुविलासे सीताविरहितो रामः -
"अरण्ये मां त्यक्त्वा हरिण ! हरिणाक्षी क्व नु गता, पराभूतो दृष्ट्वा कथयसि न चेन्मा स्म कथय । अरे क्रीडाकीर ! त्वमपि वहसे कामपि रुषं,
यदेवं तूष्णीकामनुसरसि वाचंयम इव ॥” इति । एकके शिविर में स्थित] देवीको पाप लोग बचा लो [इस बातका समाचार देने के लिए मैं] रुमण्वान् स्वयं पाया हूँ।
पाञ्चालराजके नाशके लिए यह [रुमण्वानका प्रयोग है] इस बातको यौगन्धरायणने समझ लिया किन्तु वासवदत्ता तथा यौगन्धरायणके सम्भ्रम नामक अनुचरने मूर्खतावश नहीं
समझा।
____ अथवा [उसी मनोरमावत्सराजमें] व्यसनी राजपुत्रके द्वारा सुख क्या है यह पूछे जाने पर मन्त्रिपुत्र कहता है
जो सर्वदा अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करने वाला है और देवताओंकी सेवामें तत्पर रहता है उसके लिए प्रर्थ और सुखकी समृद्धि हस्तगत रहती है।
[यह इस श्लोकका विवक्षित अर्थ है किन्तु व्यमनी राजपुत्र] अपनी मूर्खताके कारण अपने प्रिय अंशमें [प्रक्षविजयी पदसे] चूतकी विजय, तथा [सुरासेवन पदसै] मध-सेवन अर्थ को लेता है। इन्द्रियविजय और देवताराधन रूप हितांशको नहीं।
दूसरे लोग तो असम्बद्ध कथायुक्त बालकोंकी उत्कण्ठा प्रादिके वर्णनको प्रसत्प्रलाप मानते हैं। जैसे
। क्रौञ्चारि कातिकेयको शिशुत्वके कारण असम्बद्ध एक, तीन, नौ, पाठ, सात, छ: प्रादि संख्या के क्रमसे रहित वाणी तुम्हारा कल्याण करें।
अथवा जैसे रघुविलासमें सीतासे विरहित राम [कहते हैं
हे हरिण ! हरिणाक्षी [सीता] वनमें मुझको छोड़कर कहाँ चली गई है ? क्या तुम मुझको देखकर डर जानेसे नहीं कह रहे हो, यदि ऐसी बात हो तो डरो मत, बतला दो । अरे कीडाके तोते ! क्या तुम भी नाराज हो गए हो फि मौनियों के समान इस प्रकार चुप्पी धारण किए हुए हो।
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का० १००, सू० १५० ] द्वितीयो विवेकः
[ २६१ (८) अथ वाक्केली[सूत्र १४६]-प्रश्नोत्तरं तु वाक्केली हास्या वाक्-प्रतिवागपि ॥
[३४] ६६ ___प्रश्नस्य प्रश्नयोः प्रश्नानां वोत्तरं प्रश्नोत्तरम् । सहासा छेकोक्ति-प्रत्युक्तिर्वा । द्वयमप्येतद् वचनक्रीडारूपत्वाद् वाक्कली। यथा
"नदीनां मेघविगमे का शोभा प्रतिभासते ?।
बाह्यान्तरा विजेतव्या के नाम कृतिनारयः ? ॥" अत्र 'श्ररय' इति एकत्र रयाभावो, अपरत्र शत्रव इति एक प्रातवचनम् । एवं बहूनामपि द्रष्टव्यम् । एतत्प्रश्नोत्तरम् । छेकोक्ति-प्रत्युक्तियथा--
"कोऽयं द्वारि ? हरिः, प्रयाह्य पवन शाखामृगस्यात्र किं, कृष्णोऽहं दयिते, बिभेमि सुतरां कृष्णात् पुनर्वानरात् । मुग्धेऽह मधुसूदनो, व्रज लतां तामेव तन्वीमलं,
मिथ्या सूचयसीत्युपेत्य धनिकां ह्रीतो हरिः पातु वः ॥" (5) वाक्केली नामक अष्टम वीथ्यङ्गअब 'वाक्केली' [का लक्षणादि करते हैं
[सूत्र १४६] प्रश्नोत्तर प्रथवा हास्यपूर्ण उत्तर-प्रत्युत्तर 'वाक्कली' कहलाती है [३४] ६६ ।
एक प्रश्नका, दो प्रश्नोंका, अथवा बहुत प्रश्नोंका उत्तर [यहां पर] प्रश्नोत्तर [कहलाता है। प्रथवा हास्ययुक्त, चातुर्यपूर्ण, उक्ति-प्रत्युक्ति [ये दोनोंही वचनोंको क्रीडा रूप होने से वाक्कली है] । जैसे
बरसातके बाद नदियोंकी कसी शोभा होती है ? और किन बाह्य तथा प्रान्तरोंको विजय करना चाहिए ? 'ये दो प्रश्न हैं। इन दोनों प्रश्नोंका एफ ही उत्तर देते हैं कि] 'प्ररयः।
इसमें एक पक्षमें [अर्थात प्रथम प्रश्नके उत्तरमें] 'प्ररयः' का अर्थ रयका प्रभाव अर्थात् वेगाभाव और दूसरे पक्षमें 'शत्रु' यह [दोनों प्रश्नोंका] एक ही उत्तर है। इसी प्रकार बहुत प्रश्नोंका भी [एक ही उत्तर] हो सकता है। यह प्रश्नोतर [रूप वाक्केलोका उदाहरण है।
चातुर्यपूर्ण उक्ति-प्रत्युक्ति [का उदाहरण] जैसे
अरे दरवाजेपर यह कौन है ? [यह धनिका राधिकाका प्रश्न है। इसका उत्तर कृष्ण देते हैं] हरि [अर्थात् मैं कृष्ण हूँ। 'हरि' शब्दका अर्थ कृष्ण भी होता है और बानर भी। कृष्णने तो हरि शम्से कृष्ण प्रथं लेकर अपना परिचय दिया था। किन्तु राधाने उसका वानर अर्थ लेकर कृष्णको उत्तर दिया कि यदि तुम वानर होतो] उपवनमें चले जानो। यहाँ बन्दरका क्या काम ? [इस पर कृष्ण फिर] हे प्रिये ! मैं [बन्दर नहीं अपितु] कृष्ण हूँ। [इस पर राधा उसका काला बन्दर अर्थात् लंगूर अर्थ लेकर कहती है कि] काले बन्दरोंसे तो मैं बहुत उरती हूँ। [इस पर कृष्ण फिर मधुसूदन नामसे अपना परिचय देते हुए कहते हैं] प्ररी भीली प्रिये ! मैं [लंगूर नहीं] मधुसूदन हूँ। [राधा मधुसूदनका भ्रमर
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२६२ ]
नाट्यदर्पणम्
केचित्तु साकांक्षस्य वाक्यस्य विनिवर्तनं वाक्केलीमधीयते । यथोत्तरचरिते — "त्वं जीवितं त्वमसि मे हृदयं द्वितीयं, स्व कौमुदी नयनयोरमृतं त्वमङ्ग । इत्यादिभिः प्रियशतैरनुरुध्य मुग्धां,
तामेव शान्तमथवा किमतः परेण ||" [३४] ६६ ॥
(1) अथ नालिका -
[ सूत्र १५० ] - हास्याय वञ्चना नाली
परविप्रतारणकारि यदुत्तरं हास्याय हास्यनिमित्तं निगूढार्थत्वाद् भवति स नाली व्याजरूपा प्रणालिका । यथा रत्नावल्यां सागरिका चित्रफलकार्थमागता कदलीगृहे वत्सराजं दृष्ट्वा बहिः स्थिता सुसङ्गतयोच्यते-
[ का० १००, सू० १५०
"सुसङ्गता - सहि जस्स कए तुवं आगदा सो एत्थ यूयेव चिट्ठदि ।
[ सखि यस्य कृते त्वमागता सोऽत्रैव तिष्ठति । इति संस्कृतम् ] । सागरिका - [सको पमिव ] सहि कस्स ? [ सखि कस्य ] ?
सुसङ्गता – [सहासम् ] अयि अप्पसकिदे गं पउत्तमहूसवे चित्तफलहयस्स ।
अर्थ लगाकर कहती है कि ] तो फिर उसी कोमल लताके पास जाओ मुझे क्यों धोखा देते हो इस प्रकार धनिका] राधा के पास जाकर लज्जित हुएं कृष्ण तुम्हारी रक्षा करें ।
कोई लोग साकांक्ष [ श्रपरिसमाप्त] वाक्य वापिस कर लेने [अर्थात् कहते-कहते ] को रोक लेनेको वाक्केली कहते हैं। जैसे उत्तरचरितमें
तुम [अर्थात् सीता] मेरी प्रातस्वरूप हो, तुम हो मेरा दूसरा हृदय हो, तुम नेत्रोंके लिए कौमुदीरूप और अंगोंके लिए श्रमृतरूप हो । इस प्रकारके सैकड़ों प्रिय वचनोंसे उस भोली [ सीता] को श्राश्वासन देकर अब उसको [तुमने घरसे निकाल दिया। इस बातको वासन्ती आगे कहना चाहती है, किन्तु उसको बीचमें ही रोक देती है] अथवा चुप रहो इसके मागे कहने से क्या लाभ ? ।। ६६ ।। [३४]
(६) नालिका नामक नवम वीथ्यङ्ग --
अब 'नालिका' [नामक नवम वीथ्यङ्गका लक्षरण करते हैं ]
(सूत्र १५० ) मजाक करनेके लिए धोखा देना 'नाली' [कहलाता ] है ।
घोखा देने वाला जो उत्तर हास्यके लिए अर्थात् गूढार्थ होनेसे हास्यका जनक होता है वह नाली अर्थात् बहाना रूप [हास्यकी] प्रणालिका [होनेसे 'नाली' कहलाता । जैसे रत्नावली में चित्रफलक के लेनेके लिए आई हुई सागरिका कबलीगृहमें वत्सराज उदयनको बैठा देखकर बाहर रुक जाती है । तब सुसंगता उससे कहती है
सुसङ्गता - हे सखि ! जिसके लिए तुम आई थीं यहीं स्थित हैं । सागरिका - [ क्रुद्ध होती हुई सी] हे सखि ! किसके लिए [मैं श्राई थी] ?
सुसङ्गता - [ हंसकर ] श्ररी अपने आप शङ्का कर लेने वाली ! इस प्रानन्दके अवसर पर चित्र फलक के लिए ।
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का० १००, सू० १५१ ] द्वितीयो विवेकः
[ २६३ [अयि आत्मशङ्कित ननु प्रवृत्तमधूत्सवे चित्रफलकस्य ।
केचित् तु हास्यहेतुनोपेतां' निगूढार्थरूपां प्रहेलिकां नाली मन्यन्ते । यथा 'बालिकावञ्चितके' पारिपाश्विक:
"तपनीयोज्ज्वलकरकं कुवलयारुचि भासमानमाकाशे ।
तेजोमयं दिनकराद् द्वितीयमाचक्ष्व मे भूतम् ।।" अत्र निगूढो नारदलक्षणोऽर्थः सूत्रधारेणास्मिन्नेव श्लोके 'द्वितीयमेनं मुनि पश्य'इति चतुर्थपादान्यथाकरणेन व्याख्यात इति । (१०) अथ मृदवम्
... [सूत्र १५१]-व्यत्ययो गुण-दोषयोः । मृदवम्
गुणानां दोषत्वं, दोषाणां च गुणत्वं येनोत्तरेण व्यत्ययो विपर्यासः क्रियते, तन्मृदा परपक्षमर्दनेन स्वपक्षमवति रक्षतीति मृदवम् ।।
गुणस्य दोषीकरणं यथा वेणीसंहारे द्वितीयेऽङ्के
"जयद्रथमाता-जाद ! ते खु बंधुवधामरिसुद्दीविदकोवा समरे अणवेक्खियसरीरा परिकमिस्संति। [जात ! ते खलु बन्धुवधामर्षोद्दीपितकोपाः समरेऽनपेक्षितशरीराः परिक्रमिष्यन्ति ।
इति संस्कृतम्] क्रुद्ध लोग हास्यके हेतु रूपमें प्राप्त होने वाली निगूढायं वाली 'प्रहेलिका' को 'नाली' बतलाते हैं । जैसे बालिकावञ्चितकमें पारिपाश्विक [कहता है ।
सोनेके समान चमकते हुए करों [किरणों और दूसरे पक्षमें हाथों] वाले, प्राकाशमें चमकते हुए और पृथिवी-मण्डलपर रुचि न रखने वाले, सूर्यको छोड़कर तेजोमय किसी अन्य भूत प्राणी] को मुझे बतलाओ।
यहाँ नारद रूप अर्थ छिपा हुआ है। सूत्रधारने [सूर्यसे भिन्न तेजोमय] 'इन मुनिको देखो' इस प्रकार चतुर्थ पादको बदलकर [अर्थात् द्वितीयमाचक्ष्व में भूतम्' के स्थानपर द्वितीयमेनं मुनि पश्य' ऐसा पाठ करके] बतलाया है।
(१०) मृदव नामक दशम वीथ्यङ्गअब 'मृदव' [नामक दशम वीथ्यङ्गका लक्षणादि कहते हैं- .
[सूत्र १५१]-गुण और दोषको बदल देना [अर्थात् गुणको दोष, और बोषको गुण बना ना] 'मृदव' कहलाता है।
जिस उत्तरसे गुणोंका दोषत्व, और दोषोंका गुणत्व इस प्रकारका परिवर्तन हो जाता है वह मृदः प्रर्थात् दूसरे पक्षके मर्दन द्वारा अपने पक्षको रक्षा प्रवन] करनेके कारण 'मृदव' कहलाता है :
गुरणको दोष बना देने [रूप 'मृदव' का उदाहरण] जैसे वेणीसंहारके द्वितीय अंकमें
जयद्रथ माता-अरे बेटा ! बन्धु [अभिमन्यु के वधके कारण अत्यंत कुछ हुए वे [पाण्डव लोग] अपने शरीरका भी मोह छोड़कर [युद्धभूमिमें] विचरण करेंगे [इसलिए उनसे सावधान होकर लड़ना चाहिए । १पेक्षा।
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२६४ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० १००, सू० १५९
राजा - [ सोपहासम् ] एवमेतत् । सर्वजनप्रसिद्धमेवामर्षित्वं पाण्डवानाम् ।
पश्य
हस्ताकृष्टविलोलके शवसना दुःशासनेनाज्ञया, पांचाली मम राजचक्रपुरतो गौगौरिति व्याहृता । तस्मिन्नम्ब स किं न गाण्डिवधरो' नासीत् पृथानन्दनो, यूनः क्षत्रियवंशजस्य कृतिनः क्रोधास्पदं किं न तत् । ?” अत्र धनुर्धरत्वादयो गुणा दोषीकृताः । यथा नलविलासे
" राजा - देवि ! उपालभ्यसे आभ्यन्तर परिजनापराधेन । दमयन्ती - कह विय ? [ कथमिव ] ?
राजा - वक्त्रेन्दुः स्मितमातनोदधिगते दृष्टी विकासश्रियं, बाहू कण्टककोरका विभृतां प्राप्ता गिरो गौरवम् । किं नाङ्गानि तवातिथेयमस्सृजन् स्वस्वापतेयोचितं, सम्प्राप्ते मयि नैतदुज्झति कुचद्वन्दं पुनः स्तब्धताम् ॥” अत्र स्तब्धता स्तनगुणो दोषी कृतः ।
राजा---
- [ उपहास करता हुआ ] अच्छा यह बात । [पाण्डवोंके कोपसे हमें डरना चाहिए] किन्तु पाण्डवोंका कोप तो सब लोग जानते हैं [कि वे कोप करके भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं ] | देखो
मेरी प्राज्ञासे दुःशासनके द्वारा राजानोंकी सभाके बीच में द्रौपदीके केश और वस्त्रोंके हाथसे खींचे जानेपर [ मैं तुम्हारी गौ हूँ मेरी रक्षा करो इस प्रकार अनेक बार] द्रौपदीसे गौ-गौ [ये दीनतापूर्ण शब्द ] कहलवा लिए। [ द्रौपदी गौ-गौ कहकर चिल्लाती रही] उस समय क्या गाण्डीवधारी अर्जुन नहीं था ? अथवा क्षत्रियवंश में उत्पन्न हुए मनस्वी युवकके लिए क्या वह [अपनी पत्नीका ऐसा घोर अपना ] लज्जा जनक नहीं था ? ]
यहाँ [ प्रर्जुनके] धनुर्धरत्व श्रादि गुणोंको दोष बना दिया है ।
श्रथवा जैसे नलविलास में
राजा - प्रपने भीतरी परिजनोंके अपराधके कारण तुमको उलाहना मिल रहा है। दमयन्ती - - कैसे ?
राजा - [मेरे प्रानेपर तुम्हारा ] मुखचन्द्र मुस्कराने लगा, दोनों नेत्र [विकासको प्राप्त हो गए ] खिल उठे, बाहुनोंमें रोमाञ्च हो श्राया और वाणी भारी हो गई । इस प्रकार क्या तुम्हारे श्रङ्गोंने अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप मेरा आतिथ्य या स्वागत नहीं किया ? [ अर्थात् मेरे आनेपर तुम्हारे अन्य सारे श्रङ्गोंने मेरा स्वागत किया] किन्तु मेरे श्राने पर भी यह तुम्हारा स्तन युगल अपनी स्वब्धता] प्रर्थात् कठोरता [ और दूसरे पक्षमें जड़ता ] को नहीं छोड़ रहा है ।
यहाँ स्तब्धता [ कठोरता ] स्तनोंका गुण है किन्तु उसको दोष बना दिया है । १ काण्डिववरो ।
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का० १००, सू० १५१ ]
श्रपि चास्मदुपज्ञे 'सुधाकलशे'
"लच्छी गिड़ी भूसा अपत्तविज्जारण सा पुरो गरुई । तत्तो पढेज्ज विज्जं श्रजम्मदुई कर सकन्नो ॥ [लक्ष्मीगृहिणां भूषा, अप्राप्तविद्यानां सा पुनर्गुर्वी । ततः पठेद् विद्यामाजन्मदुःखकरां सकर्णः । इति संस्कृतम् ]" निर्वेदाद विबुधैर्विद्या गुणोऽपि दोषीकृतः । दोषस्य गुणीकरणं यथा वेणीसंहारे कञ्चुकिना सह विवादे" दुर्योधनः -- सूक्तमिदं कस्यापि -
➖➖
द्वितीयो विवेकः
गुप्तः साक्षात् महानल्पः स्वयमन्येन वा कृतः । करोति महतीं प्रीतिमपकारोऽपकारिणाम् ॥ येनाथ द्रोण-कर्ण-जयद्रथादिनिहतमभिमन्युमुपश्रुत्योच्छ वसिंतमिव 'नश्चेतसा । ' अत्र क्षत्रधर्मं त्यक्त्वा श्रभिमन्युर्निहत इत्ययं दोषः, स्वप्रीतिहेतुत्वेन गुणीकृतः । यथा वा नलविलासे
" सर्वेषामपि सन्ति वेश्मसु कुतः कान्ताः कुरङ्गीदृशो, न्यायार्थी परदार विप्लवकरं राजा जनं बाधते । आज्ञां कारितवान् प्रजापतिमपि स्वां पञ्चवाणस्ततः, कामार्तः क्व जनो व्रजेत् परहिताः पण्याङ्गनाः स्युर्न चेत् ॥” और जैसे हमारे बनाये हुए सुधाकलशमें भी
लक्ष्मी गृहस्थोंका भूषण है, श्रौर विद्या न पढ़े हुए का वह और भी बड़ा भूषरण है । इसलिए श्राजन्म दुःख देने वाली विद्याको [सकर : बड़े कानोंवाला गदहा ] मूर्ख ही पढ़ेगा ।
यहाँ विद्या रूप गुणोंको भी देवोंने निवेदके वशीभूत होकर दोष बना दिया है। दोषको गुरंग बना देना जैसे वेरंगी संहार में कचुकी के साथ विवाद में— दुर्योधन - यह किसीका कथन बड़ा सुन्दर है कि
पने [ अपकारियों अर्थात्] शत्रुनोंके प्रति गुप्त रूपसे प्रथवा साक्षात् रूपसे छोटा वा बड़ा स्वयं या दूसरेके द्वारा किया जाने वाला अपकार भी प्रत्यंत प्रानन्ददायक होता है । इसीलिए आज द्रोण, कर्ण, जयद्रथ प्रादि [सात महारथियों ] के द्वारा अभिमन्युके मारे जानेका समाचार सुनकर हमारा चित्त प्रसन्न हो उठा है ।
[ २६५
यहाँ क्षात्र धर्मका परित्यागकर के [सात महारथियोंने मिलकर ] ग्रभिमन्युको मार दिया यह [ धर्मविरुद्ध होनेसे ] दोष होनेपर भी अपनेलिए आनन्ददायक होनेसे गुरण बना दिया गया है ।
श्रथवा जैसे नलविलास में -
सब लोगों के घरमें तो मृगनयनी [सुन्दरी] स्त्रियां कहाँसे हो सकती हैं और न्यायकारी राजा दूसरोंकी स्त्रियोंको बिगाड़नेवाले लोगोंको दण्ड देता है । और कामदेवने स्वयं प्रजापतिसे भी अपनी आज्ञा पालन करवा ली [ अर्थात् प्रजापति सदृश भी जब कामपर विजय प्राप्त न कर सके तब सामान्य मनुष्य कामपर विजय प्राप्त कर सकेगा यह तो प्रसम्भव ही है । ऐसी दशामें] यदि वेश्याएं न हों तो कामातं-जन [ अपनी तृप्ति के लिए] कहाँ जाय ? १. उपसुतेद्धसितमिव ।
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२६६ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १००, सू० १५१ भत्र पण्यस्त्रीत्वं दोषः शृङ्गारपुष्ट यर्थं गुणीकृतः । मपि च यथा 'सुधाकलशे'
ताण नमो निग्गुणसेहराण गुणिसलहिज्जजम्माणं । निअगुणविहलत्तभवा सिविणे वि न जाण अरईउ ॥ [ तेभ्यो नमो निर्गुणशेखरेभ्यो गुणिश्लाध्यमानजन्मभ्यः । निजगुणविफलत्वभवाः स्वप्नेऽपि न येषामरतयः ।। इति संस्कृतम् ]"
अत्र निर्वेदाद् गुणिभिनिर्गुणत्वं दोषोऽपि गुणीकृतः। उभयमेकत्र यथा
“सन्तः सच्चरितोदयव्यसनिनः प्रादुर्भवद्यन्त्रणाः, सर्वत्रैव जनापवादचकितास्तिष्ठन्ति दुःखं सदा । अव्युत्पन्नमतिः कृतेन न सता नैवासता व्याकुलो,
युक्तायुक्तविवेकशून्यहृदयो धन्यो जनः प्राकृतः॥ अत्र सत्त्वं गुणोऽपि दोषीकृतः । प्राकृतत्वं तु दोषोऽपि गुणीकृत इति ।
(११) अथोद्घात्यकम्-- [सूत्र १५१]-परस्परं स्यादुधात्यं गूढभाषणम् ॥ [३५] १०० ॥
' पृच्छक-प्रतिवक्त्रोरन्योन्यं गूढार्थमुक्ति-प्रत्युक्त यात्मक भाषणं उद्घाते प्रश्नात्मके साधु उद्घात्यम् । यदा प्रष्टा विवक्षितोत्तरदानसमर्थः किन्तु यन्ममाभिप्रेतं तद् युक्तमयुक्तं वेत्यभिसन्धाय पृच्छति, प्रतिवक्ता चोचितमभिधत्ते तदा उद्घात्यमित्यर्थः।
यहां वेश्यात्व रूप दोष भी शृङ्गारकी पुष्टिके लिए गुरण बना दिया गया है । पौर भी जैसे सुधाकलशमें
गुरिणजन भी जिनके जन्मको प्रशंसा करते हैं उन निर्गगा-शिरोमणियोंको नमस्कार है। क्योंकि अपने गुणके विफल हो जानेका दुःख उनको स्वप्नमें भी नहीं होता है।
यहाँ गुरिणयोंने वैराग्यके कारण निर्गुणत्वं रूप दोषको भी गुण बना दिया है। [रोषको गुरण बना देना और गुरणको दोष बना देना इन दोनोंका एकसाथ उदाहरण जैसे
उत्तम कार्योंके करनेके अभ्यासी सज्जन पुरुष लोकापवादके भयसे यन्त्रणाग्रस्त और सदा कष्टमें रहते हैं। किन्तु उचित-अनुचितके विचारसे रहित, इसलिए की हुई भलाई-बुराईसे व्याकुल न होने वाले मूर्ख साधारण लोग धन्य हैं।
यहाँ सज्जनता रूप गुणको भी दोष बना दिया गया है और मुर्खता रूप दोषको भी गुरग बना दिया गया है। (११) उद्घात्यक नामक ग्यारहवाँ वीथ्यङ्ग
जब 'उद्घात्थक'का [का लक्षण प्रादि करते हैं]-- [सूत्र १५१]-परस्पर गूढ़भाषणको 'उद्घात्यक कहते हैं । १०० ॥
प्रश्नकर्ता और उत्तर देने वाले दोनोंके बीच परस्पर गूढार्थयुक्त उत्तर-प्रत्युत्तर रूप भाषण प्रश्नात्मक उद्घातमें साधु होनेसे 'उद्घात्यक' कहलाता है। जब पूछने वाला स्वयं विवक्षित उत्तर देनेमें समर्थ होनेपर भी, जो मेरा अभिप्रेत अर्थ है वह उचित है या मनु.
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का० १०१, सू० १५२ ]
द्वितीयो विवेक:
यथा 'पाण्डवानन्दे' सूत्रधार - पारिपार्श्विकयोरुक्तिप्रत्युक्ती - "का भूषा बलिनां क्षमा परिभवः को यः स्वकुल्यैः कृतः, किं दुखं परसंश्रयो जगति कः श्लाध्यो य श्राश्रीयते । को मृत्युर्व्यसनं शुचं जहति के यैर्निर्जिताः शत्रवः, कैविज्ञातमिदं विराटनगरच्छन्नस्थितैः .. पाण्डवैः ॥ "
इति ।। [३५] १०० ॥
(१२) श्रथावल गितम् -
[ सूत्र १५२ ] - तच्चावलगितं सिद्धिः कार्यस्यान्यमिषेरण या ।
विवक्षितप्रयोजनस्यान्यकार्य करणव्याजेन सम्पत्तिर्यन तदन्यकार्याव लगनादवल - गितम् । यथोत्तरचरिते समुत्पन्नवनविहारदोहदायाः सीताया दोहदकार्यमिषेण जनापवादादरण्ये त्यागः ।
[ २६७
केचित् तु पात्रान्तरे स्वव्यापारं निक्षिप्य यत् कार्यान्तरकरणं तदवलगितमित्याहुः । यथा कृत्यारावणस्यामुखे
" सूत्रधारः - [ निःश्वस्य ] आर्ये ! ननु ब्रवीमि -
चित इस अभिप्राय से [ दूसरेसे ] पूछता है, और उत्तर देने वाला उचित उत्तर देता है वह 'उद्घात्यक' होता है ।
[
जैसे पाण्डवानन्द में सूत्रधार और पारिपाश्विक के उदित प्रत्युक्तिका [निम्न प्रकार ] हैबलवानोंका भूषण क्या है ? [ यह सूत्रधारका प्रश्न है ] । क्षमा [ बलवानोंका भूषरण है यह उत्तर ] | अपमान कोनसा है ? | यह प्रश्न है] जो अपने कुलके लोगों द्वारा किया जाय वही श्रपमान है [ यह उत्तर हुम्रा ] दुःख क्या है ? [ यह प्रश्न है ] दूसरोंका आसरा लेना [दुःख हैं यह उत्तर हुआ ] । संसार में प्रशंसनीय कौन है ? यह प्रश्न है ] जिसका लोग श्राश्रय लेते हैं [ यही इलाध्य है यह उत्तर हुआ ] मृत्यु क्या है ? [ यह प्रश्न है] व्यसन [ ही मृत्यु है यह उत्तर हुम्रा ] | शोकसे कौन बचता है ? [ यह प्रश्न है ] जिन्होंने शत्रुनोंपर विजय प्राप्त कर लो वे ही दुःख के पार हो जाते हैं यह उत्तर हुग्रा ] । इस सबको किसने समझ लिया है ? [ यह प्रश्न है ] विराटके नगर में छिपकर रहने वाले पाण्डवोंने [इन सब बातोंको ठीक तरहसे समझ लिया है यह उत्तर है ] । (१२) अवलगित नामक बारहवाँ वीथ्यङ्ग --
श्रम वलगित [का] लक्षणादि करते हैं ]--
[ सूत्र १५२] - जहाँ श्रन्यके बहाने से कार्यको सिद्धि हो उसको 'प्रवलगित' कहते हैं । जहाँ अन्य कार्यके करनेके बहानेसे विवक्षित प्रयोजनकी सिद्धि हो जाय वह श्रन्य कार्यका अवलम्बन करनेसे 'अवलगित' कहलाता है । जैसे उत्तररामचरितमें सीतः के मनमें afवहारको इच्छा उत्पन्न होनेपर सीताके इच्छा [दोहद ] रूप कार्यके बहानेसे जनापवादके काररण सीताको वनमें छोड़ देना [ प्रवलगितका उदाहरण है]
कुछ लोग अपने कार्यको दूसरे पात्रके ऊपर डालकर अन्य कार्य में लग जानेको 'श्रवसगित' कहते हैं । जैसे कृत्यारावरणके प्रामुखमें
सूत्रधार - [ निश्वास लेकर ] अरे श्रायें ! मैं तो यह कहता हूँ कि
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२६८ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १०१, सू० १५३ वाक्प्रपठचैकसारेण निर्विशेषाल्पवृत्तिना।
स्वामिनेव नटत्वेन निर्विरणाः सर्वथा वयम् ॥ तद् गच्छतु भवती पुत्रं मित्रं वा कमपि पुरस्कृत्य क्रमागतामिमां कुजीविकामनुवर्तयितुम् ।" ततः क्रमादाह
"परिग्रहोरुमाहौघाद् गृहसंसारसागरात् ।
बन्धुस्नेहमहावादिदमुत्तीर्य गम्यते ॥" अत्र स्वजीविकां दारेषु निक्षिप्य परलोकहेतुकार्यकरणं स्वयमाश्रितम् । अपरे तु प्रस्तुतेऽत्यस्मिन् कार्ये यदन्यत् स्वयमेव सिद्धयति तदवलगितम् । यथा छलितरामे
"रामः-लक्ष्मण ! तातविप्रयुक्तामयोध्या विमानस्थों नाहं प्रवेष्टुःशक्नोमि । तदवतीर्य गच्छामि।
कोऽपि सिंहासनस्याधः स्थितः पादुकयोः पुरः ।
जटावानक्षवलयी चामरीव विराजते । अत्र भरतदर्शनकार्यान्तरस्यैवमेव सिद्धिरिति । (१३) अथावस्पन्दितम्[सूत्र १५३]-स्वेच्छोक्तस्यान्यथाख्यानं यदवस्पन्दितं तु तत् ॥[३६]
१०१॥ बात बनाना ही जिसका सार है इस प्रकारके, और साधारण-सी अल्प वृत्तिवाले स्वामी जैसे नट-व्यापारसे हम सर्वथा खिन्न हो गए हैं।
इसलिए पुत्र या किसी मित्रको लेकर तुम कुलक्रमागत इस कुजीविकाका अनुसरण करनेके लिए जागो [मैं तो नहीं जाऊंगा] ।
उसके बाद फिर क्रमसे [मागे चलकर कहता है
परिवार रूप महान् ग्राहोंसे भरे हुए और बन्धुस्नेह रूप भयंकर भवरों वाले इस गृहस्थ रूप संसार सागरको पार करके मैं तो जाता हूँ।
यहाँ अपनी जीविकाको स्त्रीके ऊपर छोड़कर [नट] स्वयं परलोकके हेतुभूत कार्योके करनेमें लग जाता है।
दूसरे लोग तो जहाँ अन्य कार्यके प्रस्तुत होनेपर अन्य कार्य स्वयं ही सिद्ध हो जाय उसको 'प्रवलगित' कहते हैं। जैसे छलितराममें
राम-हे लक्ष्मण ! पिताजीसे शून्य अयोध्यामें, मैं विमानपर बैठा हुमा नहीं जा सकता हूँ इसलिए उतरकर चलूंगा।
[मरे यहां तो सिंहासनके नीचे पादुकाओंके सामने जटाधारण किए हुए, अक्षमालायुक्त, और चमर-युक्त-सा कोई बैठा हुआ है। (१३) अवस्पन्दित नामक तेरहवाँ वीथ्यङ्ग
अब 'प्रवस्पन्दित' [का लक्षण प्रादि करते हैं][सूत्र १५३]--स्वेच्छासे [अर्थात् उस विशेष अभिप्रायसे न कहे हुए [ चन] का
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का० १०२, सू० १५४ ]
द्वितीयविवेकः
[ २६६
स्वेच्छया वर्णनाभिप्रायमात्रेण उक्तस्यान्यथाख्यानं यदवस्पन्दितं श्रन्यार्थकथनरूपं यत् तदवस्पन्दितम् । चक्षुः स्पन्दनादिवत् अन्तर्गत सूचनीयसम्भवात् । यथा वेणीसंहारे
"सत्पक्षा मधुरगिरः प्रसाधिताशा मदोद्धतारम्भाः । निपतन्ति धार्तराष्ट्राः कालवशान्मेदिनीपृष्ठे ||"
अत्र स्वेच्छया शरद्वर्णनाय हंसवर्णनं सूत्रधारेणोक्तम् । एतत् पारिपार्श्विकेन धृतराष्ट्रसुतानां दुर्योधनादीनाममङ्गलार्थकथनेन अन्यथाख्यातम् ।
यथा वा छलितरामे
"सीता - जाद ! पब्भाए तुम्मेहि अउज्झाए गंतत्र्वं । सो अ राया विएण - पणमिदव्वो ।
[जात ! प्रभाते युवाभ्यामयोध्यायां गन्तव्यम् । स च राजा विनयेन प्रणन्तव्यः ] लवः - अम्ब ! किमावाभ्यां राजोपजीविकाभ्यां भाव्यम् ?
अन्य प्रकारसे कथन करना 'श्रवस्पन्दित' कहलाता है । [३६]१०१ ।
स्वेच्छा से प्रर्थात् साधारण वर्णन के अभिप्रायसे कहे हुएका अन्य प्रकार से कथन करना प्रर्थात् अन्य श्रर्थका कथन जो होता है वह प्रखके फड़कनेसे अन्तर्गत अभिप्रायके सूचनके समान होनेसे 'श्रवस्पन्दित' कहलाता है । जैसे वेणीसंहार में -
शरद्वर्णनके अभिप्रायसे सूत्रधारने 'सत्पक्षा' : श्रादि श्लोक पढ़ा है । उसमें 'धार्तराष्ट्राः ' पद हंसोंके लिए श्राया है। किन्तु उससे कौरवोंके पतन रूप अन्य प्रर्थ की भी प्रतीति होती है । यद्यपि सूत्रधारने इस अभिप्रायसे नहीं कहा है किन्तु पारिपाश्विकने कौरवोंके नाश-रूप श्रमङ्गलार्थ में उसकी व्याख्या कर ली है । अतः यह 'अवस्पन्दित' नामक वीथ्यङ्गका उदाहरण है । इलोकका अर्थ दोनों पक्षोंमें निम्न प्रकार लगता है :
सुन्दर पक्ष वाले [हंस और दुर्योधन के पक्ष में 'सत्पक्षा' का अर्थ भीष्म, द्रोरण आदि उत्तम पुरुष जिसके पक्ष में हैं इस प्रकारके कौरव यह होगा ] जिन [ हंसों] ने [ अपनी स्थिति से] विशानोंको प्रलंकृत कर दिया है [श्रौर कौरवोंके पक्ष में जिन्होंने सारी दिशाग्रोंको अपने वशमें कर लिया है ।] मदके कारणही उद्धत श्रारम्भ [ व्यापार ] करने वाले धार्तराष्ट्र [श्रर्थात् हंस और कौरव दोनों] काल [ हंसपक्षमें शरद्ध तु रूप काल, तथा कौरव पक्ष में मृत्यु रूपकाल ] के वशीभूत होकर पृथिवीपर गिर रहे हैं [ 'पतन्ति' का अर्थ हंस पक्षमें उतरना और कौरव पक्षमें गिरना है । हंस शरद् ऋतु में पृथिवीपर उतरते हैं ] ।
यहाँ सूत्रधारने शरद् ऋतुके वर्णनके लिए स्वेच्छासे हंसका वर्णन किया है । इसको पारिपाश्विकने दुर्योधन आदि धृतराष्ट्रके पुत्रोंके श्रमङ्गल-परक अर्थ में अन्य प्रकारसे समझ लिया है । [इसलिए यह 'अवस्पन्दित' का उदाहरण है ] ।
अथवा जैसे छलितराममें-
सीता - हे पुत्रो ! कल सवेरे तुम दोनों प्रयोध्या जाना, और उस राजाको विनय-. पूर्वक प्रणाम करना ।
लव- माताजी ! क्या हम दोनोंको राजाका सेवक बन जाना चाहिए ? [ फिर हम उसको विनयपूर्वक नमस्कार क्यों करें ? ]
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२७० ]
नाट्यदर्पणम । का० १०२, सू० १५४ सीता-सो खु तुम्हाणं पिदा ।
[स खलु युवयोः पिता] । लवः –किमावयो रघुपतिः पिता ? सीता-[साशङ्कम् ] न खु तु हाणं सयलाइ य्येव पुहवीए ।
[न खलु युवयोः, सकलाया एव पृथिव्याः ] ।" इति । एतानि च त्रयोदश वीथ्यङ्गानि सर्वरूपकाणां सर्वसन्धिषु निबन्धनीयानि । सर्वसन्धिसाधारण्यादामुखेऽपि भावाच्च सन्ध्यङ्ग भ्यः पृथगुक्तानीति ॥[३६]१०१॥
अथ व्यायोगादौ रूपान्तरे सामान्यनाटकलक्षणातिदेशामाह[सूत्र १५४] -स्वां स्वां वैशेषिकी हित्वा सन्धि-वृत्त्यादिकां स्थितिम् ।
सामान्या नाटकस्यान्या विज्ञेया रूपकान्तरे।[३७]१०२॥ वैशेषिकीमसाधारणी सन्धि-वृत्त्यादिकां इति आदिशब्दादङ्कपरिमाण-रसनायकादिपरिग्रहः । 'अन्या' इति पात्रोक्तिवैचित्र्य-अङ्कोपाय-दशा-सन्ध्यङ्गलक्षणनायकादिप्रकृत्यौचित्यादिका स्थितिायोगादौ रूपकान्तरे नाटकप्रतिपादिता ज्ञातव्या । प्रकरणे तु नाटकसमानत्वमुक्तमेव । नाटिका-प्रकरण्योःपुनर्नाटक-प्रकरणान्तर्भूतत्वान्न किञ्चित् पृथग वाच्यमिति सर्व समन्जसम् ।। [३७१०२ ॥
इति रामचन्द्र-गुणचन्द्रविरचितायां स्वोपज्ञ-नाट्यदर्पणविवृतौ
प्रकरणाद्येकादशरूपनिर्णयो द्वितीयो विवेकः समाप्तः ॥ सीता-वह तुम्हारे पिता हैं। लव-क्या रघुपति हम दोनोंके पिता हैं ? सीता-[साशङ्क] केवल तुम्हारे ही नहीं सारी पृथिवीके [वह पिता हैं।
इन तेरह वीथ्यङ्गोंको सारे रूपकोंके सब सन्धियों में दिखलाना चाहिए। सब संधियों में साधारण होनेसे, और प्रामुखमें भी निबद्ध होनेसे इनको सन्ध्यङ्गोंसे अलग कहा गया है ॥[३६]१०१॥
__अब व्यायोग प्रादि अन्य रूपकोंमें सामान्य, नाटक-लक्षणका प्रतिवेश करते हुए [ग्रन्थकार] कहते हैं
[सूत्र १५४] --अपनी-अपनी संधि तथा वृत्ति प्रादि विषयक विशेष स्थितिको छोड़कर नाटककी शेष स्थिति अन्य रूपकोंमें भी समान रूपसे समझ लेनी चाहिए ।[३७] १०२।
'वैशेषिकी' अर्थात् असाधारण। 'सन्धि-वृत्त्यादिकाम्' इसमें प्रादि शब्दसे प्रक-परिमाण, रस और नायक प्रादिका ग्रहण करना चाहिए । 'अन्या' इस पदसे पात्रोक्तिवैचित्र्य, अङ्क, उपाय, दशा, सन्ध्यङ्ग, लक्षण तथा नायकादि प्रकृतिका औचित्य आदि रूप स्थिति व्यायोगादि अन्य रूपकोंमें भी नाटक में प्रतिपादित [स्थितिके समान] समझ लेनी चाहिए। प्रकरणमें तो नाटककी समानता कही ही जा चुकी है। और नाटिका तथा प्रकरणीके अंतर्गत होनेसे [उन दोनोंके विषयोंमें ] अलग कुछ कहनेकी आवश्यकता नहीं रहती है। इस प्रकार सब विषय स्पष्ट हो जाता है ।[३७] १०२॥ श्री रामचन्द्र-गुरणचन्द्र विरचित स्वप्रणीत नाट्यदर्पणको विवृतिमें प्रकरणावि,
एकदश रूपकनिरूपरण नामक द्वितीय विवेक समाप्त हुमा।
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अथ तृतीयो विवेकः
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अथ तृतीयो विवेकः अथ रूपकोद्देशश्नोकोद्दिष्टाः क्रमप्राप्ता वृत्तयः प्रपच्यन्ते[सूत्र १५५]-भारती सात्वती कैशिक्यारभटी च वृत्तयः ।
रस-भावाभिनयगाश्चतस्रो नाट्यमातरः ॥[१]१०३॥ पुरुषार्थसाधको विचित्रो व्यापारो वृत्तिः। रस-भावाभिनया वक्ष्यमाणाः । तांस्तन्मयत्वेन गच्छन्ति । रस-भावाभिनयसम्भिन्नो हि सर्वो नाट्ये व्यापारः । 'चतस्र' इति चतुर्भेदत्वमन्यतमचेष्टांशप्राधान्यविवक्षया, अपरथाऽनेकव्यापारसंवलितमेकमेव वृत्तितत्त्वम् । न नाम प्रबन्धेषु व्यापारान्तरासंवलितः कोऽप्येकाकी कायिको वाचिको मानसो वा व्यापारो लक्ष्यते। कायिक्यो हि व्यापृतयो. मानसैर्वाचिकैश्च व्यापारैः सम्भिद्यन्ते । शब्दोल्लिखितं मनःप्रत्ययं विना रञ्जकस्थ कायव्यापारपरिस्पन्दस्याभावात् । वाचिक्यो मानस्यश्च कायपरिन्पन्दाविनाभाविन्य एव । ताल्वादिव्यापाराभावे
अथ नाट्यदर्पणदीपिकायां तृतीयो विवेकः वृत्तिनिरूपण
[प्रथम द्वितीय विवेकमें रूपकके समस्त भेदोंके लक्षण प्रादि कर चुकनेके बाद अब रूपकोंका उद्देश [अर्थात् नाम-परिगणन करानेवाले [अर्थात् ३.४] श्लोकोंमें ['सर्ववृत्तयः' तथा 'त्रिवृत्तयः शब्दोंके प्रयोग द्वारा कही हुई वृत्तियों [की व्याख्या] का अवसर प्रास होनेसे वृत्तियोंका निरूपण [प्रारम्भ करते हैं।
[सूत्र १५५]-रस, भाव, अभिनय विषयक भारती, सात्वती, कैशिकी और पारभती चार प्रकारको वृत्तियां नान्यकी माता के सदृश होती हैं। [१] १०३।।
पुरुषार्थके साधक नाना प्रकारके व्यापारको 'वृत्ति' कहते हैं। रस, भाव और अभि. नय का लक्षणादि] आगे कहेंगे। [भारती प्रादि वृत्तियाँ] तन्मय अर्थात् रसभावादिमय होनेसे उनका अनुगमन करती है इसलिए इस कारिकामें उनके विशेषणके रूपमें 'रसभावाभिनयगाः' इस विशेषणपदका प्रयोग किया गया है। इसका यह अभिप्राय है कि नाट्यमें सारा ही व्यापार रस, भाव और अभिनयसे युक्त होता है । [कारिकामें पाए हुए] 'चतस्त्रः' इस पदसे कहा हुआ चतुर्भेदत्व किसी एक व्यापारांशको प्रधानताको विवक्षासे कहा गया है अन्यथा [वास्तवमें तो] अनेक व्यापारोंसे मिला हुमा वृत्ति-तत्त्व [अर्थात् व्यापार] एक ही होता है । क्योंकि नाटकादि [रूप प्रबन्धों] में [कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापारोंमेंसे] कोई भी व्यापार अन्य च्यापारोंके योगके बिना नहीं होता है। कायिक व्यापार मानसिक तथा वाचिक व्यापारोंसे मिश्रित होते हैं। क्योंकि शब्द द्वारा निर्दिष्ट मानसिक ज्ञानके बिना कोई सुन्दर कायिक व्यापार सम्भव नहीं है और मानसिक तथा वाचिक व्यापार तो काधिक व्यापारके बिना हो ही नहीं सकते हैं। क्योंकि तालु आदिके व्यापारके बिना शब्दका
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२७४ ]
नाट्यदर्पणम [ का० १०३, सू० १५५ वचनानुच्चारणात्, प्राणादिरूपकायपरिस्पन्दाभावे मनोव्यामृत्यनुपलक्षणाच्च । मनःशून्यश्च व्यापारः कायिको वाचिको वाऽरञ्जकत्वादनिबन्धनीय एव । विदूषकोऽपि हास्या) बुद्धिपूर्वकमेव विसंस्थुलं विचेष्टते । अतः संकीर्णत्वेऽपि अंशप्राधान्यापेक्षया वृत्तयश्चतस्रः।
नाट्यस्य अभिनेयकाव्यस्य मातर इव मातरः । आभ्यो हि वर्णनीयत्वेन कविहृदये व्यवस्थिताभ्यः काव्यमुत्पद्यते । 'नाट्य' इति च प्रस्तावापेक्षम् । तेनानभिनेयेऽपि काव्ये वृत्तयो भवन्त्येव । न हि व्यापारशून्यं किञ्चिद्वर्णनीयमस्ति । रङ्गानन्तरं च नाट्यमिति रङ्गस्य व्यापारशून्यत्वेनावृत्तित्वेऽपि न कश्चिद् दोषः । मुर्छादौ तु व्यापाराभावेन वृत्त्यभावेऽपि न नाट्यस्य वृत्तिमयत्वहानिः । बाहुल्यापेक्षया वृत्तिमयत्वग्याभिमतत्वादिति ।। [१] १०३ ।।। उच्चारण नहीं हो सकता है । और प्राणादि रूप कायिक व्यापारके प्रभावमें मनोव्यापारोंका भी परिज्ञान नहीं हो सकता है। [इसलिए मानसिक तथा वाचिक व्यापार दोनों कायिक व्यापारके साथ मिश्रित होते हैं। अकेले नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार मनोव्यापारसे रहित कायिक या वाचिक व्यापार नीरस [अरञ्जक] होनेसे [नाटकादिमें] वर्णन करनेके योग्य नहीं होता है। विदूषक भी हास्यके लिए बुद्धिपूर्वक हो अटपटी चेष्टाएँ करता है । इसलिए [कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार रूप भारती आदि चारों वृत्तियोंके परस्पर संकीर्ण होनेपर भी [उस-उस] अंशकी प्रधानताको दृष्टिसे चार प्रकारको वृत्तियाँ [कही गई हैं।
[मागे कारिकामें आए हुए 'नाट्यमातरः' पदका अर्थ करते हैं] नाव्यको अर्थात् अभिनेय काव्यको माताके समान [जननी) होनेसे [वृत्तियां नाव्यको] माता [कहलाती है। क्योंकि कविके हृदय में वर्णनीय रूपसे स्थित [कायिक-वाचिक-मानसिक व्यापार रूप] इन [भारती प्रादि चारों वृत्तियों से ही काव्यको उत्पत्ति होती है [अर्थात् कवि अपने काव्यमें कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापारोंका ही वर्णन करता है। वह विविध व्यापार ही काव्यका जनक होता है, और भारती आदि वृत्तियां कायिक. वादिक, मानसिक व्यापार रूप ही हैं। इसलिए काव्यको जननी होनेसे उनको काव्यको माता कहा गया है। 'नाध्यमातरः' इसमें] 'नाट्य' यह पद प्रकरण की दृष्टिसे पाया है। [अर्थात् इस समय नाटकका निरूपण किया जा रहा है इसलिए यहां 'नाट्यमातरः' कहा गया है। वैसे ये वत्तियां केवल नाव्य अर्थात् अभिनेय काव्यको ही नहीं अपितु अनभिनेय श्रव्य काव्यको भी माता हैं । क्योंकि श्रव्यकाव्योंमें भी कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापारोंका ही वर्णन होता है, इसलिए अनभिनेय [अर्थात् श्रव्य] काव्यमें भी [भारती प्रादि] वृत्तियां होती ही हैं। क्योंकि व्यापाररहित किसी अर्थका वर्णन नहीं होता है। मुख्य नाटकका प्रारम्भ पूर्व [नान्दीपाठ प्रादि रूप] पूर्वरङ्गके बाद होता है इसलिए पूर्वरङ्गके [नाट्यमें वर्णनीय व्यापारोंसे रहित होने पर भी कोई दोष नहीं है क्योंकि वह पूर्वरङ्ग वाला भाग वास्तवमें नाटकका अंश नहीं है। इसी प्रकार मुख्य नाटकके बीच में प्राने वाले मूर्छा प्रादि [क प्रसंगों में व्यापारादि न होने से वृत्तियोंका प्रभाव होनेपर भी नाट्यके वृत्तिमयत्वकी हानि नहीं होती है। क्योंकि [वृत्तियों के] बाहुल्यको दृष्टिसे वृत्तिमयत्वका कथन किया गया होनेसे [कहीं थोड़ेसे भागमें व्यापारशून्यता होनेसे कोई हानि नहीं होती है। मूर्खादि प्रसंगोंमें वृत्त्यभाव होनेपर भी नाव्य
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का० १०४, सू० १५६ ] तृतीयो विवेकः
[ २७५ अथ भारत्या लक्षणमाह[सूत्र १५६]-सर्वरूपकगामिन्यामुख-प्ररोचनोत्थिता।
प्रायःसंस्कृतनिःशेषरसाढया वाचि भारती ॥[२]१०४॥ सर्वरूपकेषु अभिनेयानभिनेयेषु गमनशीला प्रायस्तन्मयत्वाद् वर्णनायाः । आमुखप्ररोचनयोरुत्थितः सम्भवो यतः । प्रायो बाहुल्येन संस्कृतेन सर्वरसैश्च दीप्ताः । वृत्तिमय ही माना जाता है। यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है] ॥ [१] १०३ ॥ (१) भारतीवृत्तिका निरूपण
इस प्रकार पिछली कारिकामें वृत्तियोंका सामान्य लक्षण करने के बाद अब आगे भारती आदि चारों वृत्तियों में से एक-एक वृत्तिका लक्षण करेंगे। पिछली कारिकामें यह कहा था कि चारों वृत्तियां कायिक, वाचिक तथा मानसिक व्यापार-रूप हैं इसी दृष्टि से आगे इन चारोंके लक्षण करेंगे। इस इनमें से भारती वृत्ति वाचिक व्यापार-रूप और सात्वती वृत्ति मानसिक व्यापार रूप होती है। शेष कैशिकी तथा प्रारभटी दोनों वृत्तियां कायिक व्यापाररूप होती है। काव्य और नाट्य में वाचिक व्यापार की प्रधानता होनेके कारण सबसे पहले वाचिक-व्यापार रूप भारती-वृत्तिका लक्षण निम्न प्रकार करते हैं।
अब भारती [वृत्ति का लक्षण कहते हैं ----
[सूत्र १५६]-समस्त रुपकोंमें रहने वाली, प्रामुख तथा प्ररोचनासे उस्थित [अर्थात् नाट्य के प्रारम्भिक भागों में विशेष रूपसे उपस्थित] सम्पूरणं रसोंसे परिपूर्ण, तथा प्रायः संस्कृत [भाषा का अवलम्बन करने वाली, वाग्व्यापार-प्रधान वृत्ति 'भारती' [वृत्ति कहलाती] है । [२] १०४
[कारिकामें पाए हुए 'सर्वरूपकगामिनी' पदका अभिप्राय यह है कि यह भारती वृत्ति अमिनेय पौर अंनभिनेय [अर्थात् दृश्य-काव्य और श्रव्य-काव्य] सब रूपकोंमें जाने वाली [सब प्रकारके काव्योंमें विद्यमान रहने वाली है। क्योंकि सारा वर्णन प्रायः उससे युक्त [भारतीवृत्तिमय होता है। ['प्रामुख-प्ररोचनोस्थिता' का अर्थ करते हैं कि प्रामुख तथा प्ररोचना [रूप काव्य या नाट्य भागों का उदय जिससे होता है । [शमुख और प्ररोचना किसको कहते हैं यह प्रश्न यहाँ उपस्थित होता है। इसका लक्षण प्रगली दो कारिकामों में करेंगे] । प्रायः अर्थात् अधिकतर संस्कृत भाषा और सब रसोंसे युक्त [भारती दृत्ति होती है ।
भारतीवृत्तिके इस लक्षण में मुख्यरूपसे प्रामुख तथा प्ररोचना भागों में भारतीवृत्ति का निर्देश किया गया है और उसको प्राय: संस्कृतभाषा तथा सब रसोंसे युक्त कहा गया है । यहाँ 'प्रायः' शब्दका जो प्रयोग किया गया है उसकी ग्रन्थकार यह व्याख्या करते हैं कि यद्यपि भारतीवृत्तिका मुख्य-स्थान प्रामुख तथा प्ररोचना भागोंको माना गया है किन्तु इनसे भिन्न स्थानोंपर भी इसका स्थान पाया जाता है। इसी प्रकार मुख्य रूपसे भारतीवृत्ति में संस्कृतभापाका ही प्रयोग होता है किन्तु वह एकदम अनिवार्य नहीं है। कभी-कभी संस्कृतसे भिन्न प्राकृतभाषाका भी भारतीवृत्तिमें अवलम्बन किया जा सकता है। इसी बातको ग्रन्थकार अगली पंक्ति में निम्न प्रकार कहते हैं ..
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२७६ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १०४, सू० १५६ प्ररोचना-प्रामुखयोरन्यत्रापि च रूपकैकदेशे प्राकृतादिपाठेन भारतीदर्शनात् प्रायोग्रहणं अर्थवत् । सर्वरूपकभावित्वादु रसानां च वाग्जन्यत्वाद् सर्वरसात्मकत्वम् । ये तु भारत्यां बीभत्स-करुणौ प्रपन्नास्तैः सर्वरसप्रधानवीथी-शृङ्गारवीरप्रधानभाणहास्यप्रधानप्रहसनानि स्वयमेव भारत्यामेव वृत्तौ नियन्त्रितानि नावेक्षितानि ।
'प्ररोचना' और 'प्रामुख' [भागों से अन्यत्र भी रूपोंके किसी एकवेशमें [भारती वृसिके देखेजानेसे] और [संस्कृतभाषाको छोड़ कर] प्रकृत प्रादि [भाषा] के पाठसे भी भारतीवृत्तिके देखे जानेसे [कारिकामें किया गया] 'प्रायः' शम्बका ग्रहण सार्थक है। रसोंके सब रूपकोंमें व्यापक होने और वाणी द्वारा व्यक्त होनेसे [वाग्व्यापारप्रधाना भारती वृत्ति] सर्वरसात्मक होती है । जो [दशरूपककार धनञ्जय] भारतीवृत्तिमें [सब रस न मान कर] केवल बीभत्स और करुण रस मानते हैं उन्होंने स्वयं अपने आप ही भारतीवृत्तिमें नियन्त्रित सर्वरसप्रधान [वीथो] शृङ्गार और वीररस प्रधान [भारण], तथा हास्यरस-प्रधान [प्रहसन क्रमशः] वीथी भाण तथा प्रहसनों की ओर ध्यान नहीं दिया है [इसीलिए वे भारतीवृत्तिमें केवल बीभत्स और करुणरसको ही मानते हैं। किन्तु उनका यह सिद्धान्त ठीक नहीं है।
इसका अभिप्राय यह है कि धनञ्जय जो केवल बीभत्स तथा करुणरसमें भारतीवृत्तिका प्रयोग मानते हैं उन्होंने भी 'बीथो', भारण तथा प्रहसनके लक्षणों में भारतीवृत्ति का समावेश माना है। सूत्र १४० में 'वीथी' का लक्षण करते हुए 'सर्वस्वामिरसा वोथीत लिखकर प्रकृत ग्रन्थकारने वीथी में समस्त रसोंके रखनेका विधान किया है । १४१ वे सूत्र में बीथोके तेरह अंगोंका वर्णन करते हुए फिर 'भारतीवृत्तिवर्तीनि वीभ्यंगनि त्रयोदश' लिखकर वीथीमें 'भारती' वृत्तिका समावेश किया है। इस प्रकार वीथीमें समस्त रसोंके साथ भारतीवृत्तिका प्रयोग माना जाता है। इसके अतिरिक्त ११६वें सूत्रमें 'भाण-प्रधानभृङ्गार-वीरौं' लिखकर भाणमें शृङ्गार तथा वीररसको प्रधानताका प्रतिपादन किया गया है। और उसके साथ ही १३०वें सूत्र में 'वृत्ति मुख्या च भारती' लिखकर भागमें भारतीवृत्तिको मुख्यता प्रतिपादन की है। इसलिए वीर तथा शृङ्गारके साथ भारतीवृत्तिका सम्बन्ध भारणके लक्षण में प्रतिपादन किया है। फिर सूत्र १३१ वें 'हास्याङ्गि भाणसध्यङ्गवृत्ति प्रहसनं द्विधा' इस प्रहसनके लक्षणमें हास्यरसको प्रहसनका प्रधानरस तथा भागके समान सन्धि, अंक तथा वृत्तियोंका प्रतिपादन कर प्रहसनमें भी भारतीवृत्तिको प्रधानता निर्दिष्टकी है। इसलिए हास्यरसके साथ भी भारतीवृत्तिका समावेश पाया जाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि भारतीवृत्तिका सम्बन्ध प्रहसनके लक्षणके अनुसार हास्यरसके साथ, भाणके लक्षणके अनुसार वीर और शृङ्गार रसोंके साथ, और वीथीके लक्षणके अनुसार सभी रसोंके साथ होता है। वीथी, भारण और प्रहसनके ये लक्षण सर्वसम्मत लक्षण हैं। जो दशरूपककार धनञ्जय प्रादि भारतीवृत्तिका सम्बन्ध केवल बीभत्स और करुण रससे बतलाते हैं, वे भी वीथी भारण और प्रहसनके इसी प्रकारके लक्षण करते हैं । इन लक्षणों के अनुसार उन्होंने भी वीथी, भाण तथा प्रहसनोंको भारती वृत्तिमें नियन्त्रित कर दिया है। फिर भी वे भारतीवृत्तिका सम्बन्ध केवल बीभत्स और करुण रससे बतलाते हैं। यह बात उनके अपनेही कथनके विपरीत हो जाती है । इसी बातको ग्रन्थकारने यहां 'तैः' वीथी, भारण, प्रहसनानि स्वयमेव भारत्या वृत्ती नियन्त्रितानि नावेक्षितानि' इस रूपमें लिखा है।
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का० १०४, सू० १५७ ] तृतीयो विवेकः ।
[ २७७ _ 'वाचि' वाग्व्यापारविषये वाग्व्यापारात्मिकेत्यर्थः। भारती वाग्व्यापारविषय एवेत्ययोगव्यवच्छेदः। तेन वाचिकाभिनयात्मिका सात्त्वत्यपि भवति । वृत्त्यन्तराणि तु सर्वथाभिनयविषयाणि । भारतीरूपत्वाद् व्यापारस्य भारतीति ।। [२] १८४ ।। अथ भारतीसम्भवमामुखं लक्षयति-, [सूत्र १५७] -विदूषक-नटी-मार्फः प्रस्तुताक्षेपि भाषरणम् ।
सूत्रधारस्य वक्रोक्त-स्पष्टोक्तैर्यत् तदामुखम् ॥[३]१०५॥ पारिपाश्विक एव विदूषकवेषधारी विदूषकः।
इस स्थलका पाठ कुछ अस्पष्टसा है। पूर्व संस्करणोंमें 'सर्ववीथीप्रधानशृङ्गारवीर भागप्रधानहास्यप्रहसनानि' इस प्रकारका पाठ छपा था। उसकी कोई सङ्गति नहीं लगती है। इसमें 'सर्वरसप्रधानवीथी-भृङ्गारबीरप्रधानभाण-हास्यप्रधानप्रहसनानि' इस प्रकार पाठ होना चाहिए था, अतः हमने यही पाठ मूल में दिया है। ___. 'वाचि' अर्थात् वाग्व्यापारके विषयमे होने वाली अर्थात् वाग्व्यापारात्मक वृत्ति 'भारती' ही होती है। भारती वाग्व्यापारके विषयमें ही होती है यह प्रयोग-व्यवच्छेद [का नियम है। [इसका अभिप्राय यह है कि भारती वृत्ति वाग्व्यापारके विषयमें ही होती है। अन्यत्र नहीं। इसका यह अर्थ नहीं है कि केवल भारती वृत्ति ही वाग्व्यापार-विषयक होती है, अन्य वृत्तियोंका वाग्व्यापारसे सम्बन्ध नहीं हो सकता है। इसलिए सात्त्वती वृत्ति भी वाग्व्यापारात्मिका होती है। भारती तथा सास्वती वृत्तिको छोड़कर] अन्य वृत्तियाँ तो सर्वथा [कायिक] अभिनय रूप ही होती हैं। [भारतीवृत्तिमें] व्यापारके [पूर्णतया] भारती रूप [अर्थात् वाचिकरूप] होनेसे [इस वृत्तिका नाम] 'भारती' [रखा गया है।
इस कारिकाकी व्याख्यामें 'भारती वाग्व्यापारविषय एव इत्ययोगव्यवच्छेदः' यह वाक्य आया है । इसे विशेष रूपसे समझने की आवश्यकता है। 'एव' पदके प्रयोग-व्यवच्छेद, अन्ययोग-व्यवच्छेद और अत्यन्तायोग-व्यवच्छेद ये तीन अर्थ माने गए हैं । 'पार्थ एव धनुर्धरः' प्रांदि वाक्योंमें जब एव' पद विशेष्यके साथ संगत होता है तब वह 'विशेष्यसंगतस्त्वेवकार अन्ययोगव्यवच्छेदकः' इस नियम के अनुसार अन्ययोगका व्यवच्छेदक होता है । 'पार्थ एव धनुर्धरः नान्यः' यह उसका अर्थ होता है । इसके विपरीत जब 'पार्थो धनुर्धर एव' इस रूपमें उसका सम्बन्ध विशेषण के साथ होता है तो 'विशेषगसंगतस्त्वेवकारो अयोग-व्यवच्छेदकः' इस नियमके अनुसार उसका अर्थ प्रयोग-व्यवच्छेद होता है । अर्थात् पार्थ में धनुर्धरत्व अवश्य है। उसमें धनुर्धरत्वका अयोग-प्रभाव नहीं है। इसी प्रकार यहाँ 'भारती वाग्व्यापारविषय एव' में विशेषणके साथ संगत होनेसे एवकार अयोग-व्यवच्छेदक है । [२] १०४ ।। भारती वृत्तिसे सम्बद्ध आमुखका लक्षण
अब भारती [ वृत्ति ] निर्मित [अथवा भारती वृत्तिके निर्माता ] प्रामुखका लक्षण करते हैं
[सूत्र १५७]-सूत्रधारका विदूषक, नटी अथवा पारिपाश्विक के साथ स्पष्ट रूपसे अथवा वक्र मार्गसे, प्रस्तुत [अर्थात नायकादि मुख्यपात्रके प्रवेश का सम्पादन करनेवाला जो वार्तालाप होता है वह 'प्रामुख' [कहलाता है ॥[३]१०५॥
[ नटका मुख्य सहायक ] पारिपाश्विक ही विदूषकका वेष धारण कर लेनेसे यहाँ
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२७८ ]
नाट्यदर्पणम । का० १०५, सू० १५७ मार्पः पारिपाश्विकः । विदूषक-नटी-मार्थैर्व्यस्तैः समस्तैर्वा सह सूत्रधारग्य रङ्गसूत्रणाकतुः, सूत्रधारगुणानुकारस्य वा नाटयस्थापनाकर्तुः स्थापकरय, प्रस्तुतस्य काव्यार्थस्याक्षेपि उपस्थापकं भाषणं वक्रोक्तैः साक्षाद् विवक्षितार्थस्याप्रतिपादकैः, स्पष्टोक्तैः साक्षाद् विवक्षितार्थस्य प्रतिपादकैश्च यत् स्वस्याभिप्रायोत्कीर्तनं तदामुखम् । "पाङ मर्यादायाम्' तेन मुखसन्धिं प्राप्य निवर्तते । 'ईषदर्थे वा' तत ईषन्मुखं मुखसन्धिसूचकत्वादारम्भः । प्रस्तावनाशब्दे नाप्येतदुच्यते ।
इदं तावदामुखं नाट यात् पृथग्भूतम् । तत्र कदाचित् रङ्गसूत्रयितैव श्रामुखार्थमनुतिष्ठति, तथा च दृश्यते--'नान्द्यन्ते सूत्रधारः' । 'नान्द्यन्ते' इत्यवयवे समुदायोपविदूषक कहा गया है । [वैसे नायक राजा प्रादिका सहायक विदूषक होता है उस विदूषकका यहाँ ग्रहण नहीं समझना चाहिए। अपितु सूत्रधारका सहायक, जो पारिपाश्विक भी कहलाता है वही नाटकादिके प्रारम्भमें मुख्यपात्रका रङ्गमञ्चपर प्रवेश करानेके लिए विदूषकका धेष धारण करके सूत्रधार के साथ वार्तालाप करता है। उसी पारिपाश्विककेलिए यहाँ विदूषक शब्दका प्रयोग हुपा है यह ग्रंथकारका अभिप्राय है। मार्षका अर्थ भी] पारिपाश्विक [अर्थात सूत्रधार या नटका मुख्य सहायक है। [यहां पारिपाश्विक अपने मुख्य रूपमें अभिप्रेत है। पहिले उसीको विदूषक रूपमें उपस्थिति बतलाई थो] विदूषक, नटी और पारिपाश्विकोंके. साथ अलग-अलग अथवा एक साथ सूत्रधार अर्थात् रङ्गकी प्रायोजना करनेवाले [प्रधाननट] का, अथवा नाव्यार्थकी स्थापना करने वाले और सूत्रधारके गुणों का अनुकरण करने वाले [किन्तु सूत्रधारसे भिन्न] 'स्थापक'का प्रस्तुत काव्यार्थको उपस्थित करानेवाला जो भाषरण, वकोक्तियोंसे अर्थात् साक्षात् रूपसे विवक्षित अर्थका प्रतिपादन न करनेवाले [वचनोसे], अथवा स्पष्टोक्तियोंसे अर्थात् साक्षात रूपसे विवक्षित अर्थका प्रतिपादन करने वाले वाक्यों से जो [भाषण अर्थात अपने अभिप्रायका कथन करता है वह 'प्रामुख' कहलाता है। [प्रामुख शब्दमें प्राङ् उपसर्ग है। उसके दो अर्थ होते हैं : एक मर्यादा और दूसरा अभिविधि । ये दोनों शब्द सीमा अर्थके वाचक हैं। उनमें भेद यह है कि जो सीमा बतलाई जाती है वह यदि सीमित होने वाले भागके अन्दर ही समाविष्ट होती है तो उसे 'अभिविधि' कहते हैं । और यदि उस तक हो, अर्थात् उसको बाहर छोड़कर उसके पहिले-पहिले सीमा मानी जाती है तो उसको 'मर्यादा' कहते हैं । जैसे यहाँ प्रामुखको सीमा मुखसन्धि पर्यन्त कही है। उसमें मुखसन्धिको भी प्रामुखके भीतर माना जाय तो आङ अभिविध्यर्थक और यदि मुखसन्धिको प्रामुखसे अलग रखना अभिप्रेत है तो 'प्राङ' का अर्थ मर्यादा होगा । यहाँ प्राङ् मर्यादा अर्थमें है इसलिए [ प्रामुख ] मुखसन्धि तक पहुँचकर [अर्थात् मुखसन्धिसे प्रारम्भ होनेसे पहिले] समाप्त हो जाता है । अथवा [यहाँ प्राङ] 'ईषत्' अर्थ में है इसलिए ईषन्मुख [अर्थात् छोटा मुख अर्थात् ] मुखसन्धिका सूचक होनेसे प्रारम्भ [ प्रामुख कहलाता है ] । इसीको 'प्रस्तावना' नामसे भी कहा जाता है।
यह प्रामुख [मुख्य नाटबसे अलग होता है [मुख्य नाटकका भाग नहीं होता है । उसमें कभी [रङ्गसूत्रयिता अर्थात् सूत्रधार हो स्वयं प्रामुखमें किए जाने वाले [वार्तालाप प्रादि रूप] कार्यको करता है। जैसा कि [भास प्रादिके नाटकोंके प्रारम्भमें] 'नान्दीके अन्तमें सूत्रधार' [प्रविष्ट होकर प्रामुखका प्रारम्भ करता है यह लिखा हुआ दिखलाई देता
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का० १०५, सू० १५७ ] तृतीयो विवेकः
[ २७ चारात् पूर्वरङ्गान्ते इति द्रष्टव्यम् । नान्दी हि पूर्वरङ्गस्याङ्गम् । अत्र च पक्षे प्रामुखार्थस्य सूत्रधारविषयत्वान्मुखसन्धेः प्रभृति कवेर्व्यापारः । है। यहां 'नान्यन्ते' इस पदमें अवयवमें समुदायका उपचार होनेसे [नान्ची पद समस्त पूर्वरङ्गका बोधक है यह समझना चाहिए। क्योंकि नान्दी पूर्वरङ्गका अङ्ग है। किन्तु यहाँ उस प्रङ्ग या अवयववाचक 'नान्दी' पदसे जिसका वह अङ्ग या अवयव है उस अजी-रूप समस्त पूर्वरङ्गका ग्रहण होता है । अर्थात् समस्त पूर्वरङ्गका विधान समाप्त हो जानेपर सूत्रधार प्रविष्ट होकर मुख्य नाटकके पात्रके प्रवेशको प्रस्तावना प्रारम्भ करता है] इस पक्ष प्रामुखका [प्रतिपाद्य पर्थ सूत्रधारसे सम्बन्ध रखता है, इसलिए मुखसन्धिसे पहिले-पहिले [अथवा मुखसन्धिके प्रारम्भ होनेसे पूर्व तक जो कुछ वर्णन होता है वह सब ] कविका व्यापार होता है।
इसका अभिप्राय यह है कि मुखसन्धि, मुख्य नाटकका अङ्ग है, इसलिए मुखसन्धिसे मुख्य नाटकका प्रारम्भ होता है। उस मुख्य नाटक वाले भागमें जितना व्यापार होता है वह कविके द्वारा वरिणत होनेपर भी कविका व्यापार नहीं होता है अपितु जिन पात्रोंके द्वारा उसका कथन होता है उन पात्रोंका व्यापार होता है। कवि केवल उस व्यापारको सुनानेका निमित्त बनता है। किन्तु मुखसन्धि या मुख्य नाटकका प्रारम्भ होनेसे पहिले 'प्रामुख' तक का जो व्यापार होता है वह सब कविका अपना व्यापार होता है । काव्यशास्त्रके लक्षणग्रन्थों में ध्वनि-भेदोंके निरूपरणके प्रसङ्गमें 'कविप्रौढोक्तिसिद्ध' और 'कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध' दोनों व्यङ्गयोंको अलग-अलग माना है । यद्यपि कविनिबद्ध वक्ता की उक्ति कविके द्वारा ही निबद्ध होने से कविप्रोढोक्ति में पा सकती है किन्तु स्वयं कविकी उक्तिसे कविनिबद्ध वक्ता की उक्ति को अलग माना गया है । इसी प्रकार यह कविण्यापार और कविनिबद्ध-वक्तृव्यापार को अलग-अलग मानकर ग्रन्यकारने 'प्रामुख' तकके व्यापारको कवि-व्यापार कहा है। उसके प्रागे मुख्य नाटकके भीतर होने वाला सारा व्यापार कविके द्वारा वणित होने पर भी कवि व्यापार नहीं अपितु कवि-निबद्ध पात्रों या वक्ताओंका व्यापार है, यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है।
_ 'प्रामुख' के इस प्रसङ्ग में ग्रन्थकारने सूत्रधार तथा स्थापक, नटी, विदूषक, पारिपाश्विक मार्ष आदि अनेक पदोंका प्रयोग किया है। नाटकका अभिनय करनेवाले नटवर्गका प्रधान नेता नाट्यके सारे [सूत्र] का कार्य सञ्चालन करता है इसलिए. उसको 'सूत्रधार' कहा जाता है । इस कार्य में सूत्रधारके दो प्रधान सहायक होते हैं । एक नटी और दूसरा पारिपाश्विक । नटो सूत्रधारकी स्त्री है . जो उसके कार्य में उसकी प्रमुख सहायिका होती है। शेष नटों में से जो सूत्रधारका प्रधान सहायक होता है वह 'पारिपाश्विक' कहलाता है। सूत्रधार वार्तालाप करते समय नटीको 'आर्या' कहकर और पारिपाश्विकको 'माष' कहकर सम्बोधन करता है । यह सूत्रधार, नटी तथा पारिपाश्विक तथा 'मार्ष' पदोंकी व्याख्या हो गई । इसी पारिपाश्विकके लिए 'विदूषक' पदका प्रयोग भी किया गया है। वैसे नाटक में राजा आदि मुख्य नायकका प्रधान सहायक विदूषक होता है। उसका कार्य राजाके गुप्त प्रणय-व्यापार प्रादिवे उसकी सहायता करना, और हर समय राजाका मनोरञ्जन करना होता है। यहाँ प्रामुखके प्रसंगमें जो विदूषकका नाम लिया गया है यह उस मुख्य विदूषकका ग्राहक नहीं है । अपितु
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२८० 1
'नाट्यदर्पणम् [ का० १०५, सू० १५७ कदाचित् सनान्दीक रङ्गमनुष्ठाय विश्रान्ते सूत्रधारे, तत्तुल्यगुणाकृतिः स्थापक श्रामुखमनुतिष्ठति । तथा चानङ्गवत्यां नाटिकायां दृश्यते-'पूर्वरंगत्यान्ते स्थापकः । अत्र च पक्षे प्रामुखानुष्ठानेऽपि कवेापारः। स्थापकस्य सूत्रधारानुकारिणो रामानुकारिणो नटस्येव कविनैव प्रवेशात् । 'वक्रोक्त' इति च वीथ्यङ्गानामेवंविधरूपाणां व्याहारादीनां सद्भावमाहेति । स्पष्टोक्तिस्त्वेवं यथा-'नागानन्दे नाटयितव्ये किमित्यकारणमेव रुद्यते ?' इति ॥[३]१०५॥
सूत्रधारका मुख्य सहायक या पारिपाश्विक भी कभी विदूषकका-सा वेष धारण करके उसी के समान कार्य करता हुआ सामने आता है इसके लिए ही यहां विदूषक शब्द का प्रयोग किया गया है।
अब एक शब्द और रह जाता है 'स्थापक' । सूत्रधार के समान ही वेष तथा कार्यको करने वाला उसका कोई सहायक स्थापकके रूप में नाटककी प्रस्तावना करता है उसको 'स्थापक' कहते हैं । मुख्य नाटकके प्रारम्भ होनेसे पहिले अनेक प्रकारकी तैयारी करनी होती है । उसको पूर्वरङ्ग कहा गया है। पूर्वरङ्गके १५ अङ्ग भरतनाट्यशास्त्र में कहे गए हैं। इन्हीं में मान्दी पाठ भी एक अङ्ग है । प्राय: नाटकोंके प्रारम्भ में सबसे पहले 'नान्दी' के श्लोक लिखे मिलते हैं। भासविके नाटकों में उन नान्दी-श्लोकोंका उल्लेख नहीं रहता है। नान्दी वाले श्लोक नाटक में लिखे गए हों अथवा न लिखे गए हों किन्तु उनका पाठ किया अवश्य जाता है। नान्दी पाठ तकका सारा पूर्वरङ्गका कार्य निश्चित रूपसे सूत्रधार ही करता है। उसके बाद प्रामुख या प्रस्तावनाका अवसर प्राता है। इस प्रस्तावनाके विषय में दो प्रकारको व्यवस्था पाई जाती है। कभी तो सूत्रधार स्वयं ही प्रस्तावनाका कार्य भी करता है । अर्थात् प्रस्तावना या प्रामुख द्वारा स्वयं ही मुख्य पात्रों का प्रवेश करबाकर सूत्रधार रङ्गमञ्चसे बाहर जाता है। किन्तु दूसरे प्रकार की यह व्यवस्था भी पाई जाती है कि नान्दीपाठ तकका कार्य सूत्रधार स्वयं करता है। नान्दीपाठके समय सारा नटवर्ग उपस्थित रहता है । अभिनय करने वाले सारे नट मिलकर प्रार्थना श्रादि करते हैं। उसमें मूत्रधार भी अवश्य उपस्थित रहता है। किन्तु उसके बाद सूत्रधार स्वयं निवृत्त हो जाता है। उसके स्थानपर उसके सदृश दूसरा व्यक्ति आकर प्रस्तावना या प्रामुखका कार्य करता है उसको 'स्थापक' कहते हैं। इसी बातको ग्रन्थकार प्रागे लिखते हैं
कभी तो नान्दी सहित पूर्वरङ्गको समाप्त करके सूत्रधार के विश्राम कर लेनेपर उसके तुल्य गुणों और प्राकृतिवाला स्थापक [प्राकर] 'प्रामुख'का सम्पादन करता है। जैसे कि 'अनङ्गवती' नाटिकामे 'पूर्वरङ्गके बाद स्थापक' [प्रविष्ट होता है यह लिखा है । इस पक्षमें प्रामुखके अनुष्ठानमें भी कविका व्यापार होता है। रामका अनुकरण करनेवाले नटके [प्रवेशके] समान सूत्रधारका अनुकरण करनेवाले स्थापकका भी प्रवेश कविके द्वारा ही कराए जाने के कारण ['प्रामुख' भी कविका व्यापार होता है, लक्षणमें दिए हुए] 'वक्रोक्त' इस पदसे इस प्रकारके [अर्थात् प्रभी द्वितीय विवेकके अन्त में कहे हुए] व्यवहारादि रूप वीथ्यङ्गों की सत्ता [प्रामुखमें सूचित की है। स्पष्टोक्ति तो इस प्रकार होती है जैसे कि 'नागानन्दका अभिनय करते समय बिना बातके क्यों रोते हो । [३]१०५]
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का० १०६, सू० १५८ ]
अथामुखाङ्गभूतं नाट्यपात्रप्रवेशविधिमाह
तृतीयो विवेक:
[सूत्र १५८ ] - वाक्यार्थसमयाह्वानैर्भावोक्तैः पात्रसंक्रमः ।
समयः कालः । श्रह्ननं संज्ञा । एतैः सूत्रधार-स्थापकाभ्यामुक्तैर्हेतुभूतैः पात्रश्य मुख्य नायकादिभूमिकाधारिणो नटादिलोकस्य संक्रमः प्रवेशः । वाक्यार्थयोनूद्यमानतया पात्रप्रवेशहेतुत्वम् । समयाह्वनयोस्तु सूचकत्वेनेति । वाक्येन यथा हरिश्चन्द्र
-
"स्वैकतानवृत्तीनां प्रतिज्ञातार्थकारिणाम् । प्रभविष्णुर्न देवोऽपि किं पुनः प्राकृतो जनः ॥"
एतदेव पठन् हरिश्चन्द्रः प्रविशति । अर्थेन यथा वेणीसंहारे
"निर्वाणवैरदद्दनाः प्रशमादरीणां, नन्दन्तु पाण्डुतनयाः सह माधवेन । रक्तप्रसाधितभुवः चतविग्रहाश्च स्वस्था भवन्तु कुरुराजसुता सभृत्याः ॥”
आमुख अङ्गभूत पात्रप्रवेशके नियम
[ २८१
अब आमुख श्रङ्गभूत नाट्यके पात्रोंके प्रवेशके विधिको कहते हैं
[ सूत्रे १५८ ] -- [ भाव अर्थात् ] सूत्रधार प्रथवा स्थापकके द्वारा कहे हुए वाक्य [प्रथवा उसके] अर्थ, [अथवा ] काल, [ श्रथवा ] नामके द्वारा [ नाट्य के मुख्य ] पात्रका प्रवेश होता है [या कराना चाहिए] ।
समय अर्थात् काल । श्राह्नान अर्थात् संज्ञा [नाम ] | सूत्रधार अथवा स्थापकके द्वारा कहे गए इन [वाक्य, अर्थ, समय तथा नाम ] के द्वारा पात्र प्रर्थात् मुख्य नायक श्रादिके वेब को धारण करनेवाले नटादिका संक्रम अर्थात् प्रवेश होता है । वाक्य तथा अर्थका अनुवाद
द्वारा पात्र प्रवेश प्रति हेतुत्व होता है और काल तथा नामका सूचक होनेसे ।
airs द्वारा [प्रवेश] जैसे हरिश्चन्द्र में -
"एकमात्र सात्त्विक वृत्तिवालों, और प्रतिज्ञात अर्थको पूर्ण करनेवालों [के कार्य ] का भगवान भी बाधक नहीं हो सकता है, तब साधारण मनुष्यों [के बाधक बन सकने] की तो बात ही क्या है ।"
[प्रामुखमें सूत्रधार पठित] इसी वाक्यकों बोलते हुए [प्रधान पात्र] हरिश्चन्द्र प्रवेश करता है ।
अर्थके द्वारा [ प्रवेशका उदाहरण] जैसे वेरणीसंहार में
"शत्रुग्रोंके नष्ट हो जानेसे जिनका वर रूप श्रग्नि शान्त हो गया है इस प्रकारके पांडव लोग कृष्ण के साथ आनन्द मनाएँ । और रक्तसे भूमिको सुशोभित करनेवाले [ अथवा रक्तेभ्यः प्रियजनेभ्यः प्रसाधिता दत्ता भूयः, ते रक्तप्रसाधितभुवः ] अपने प्रिय सेवकोंको भूमि प्रदान करनेवाले, तथा जिनके विग्रह अर्थात् शरीर घायल हो गये हैं [ अथवा जिन्होंने विग्रह अर्थात् युद्ध समाप्त कर दिया है] इस प्रकारके कौरव लोग अपने भृत्योंके सहित स्वर्ग में स्थित [ अथवा स्वस्थ शरीर ] हों ।"
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२८२ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० १०६, सू० १५८
इत्यस्य वाक्यस्य छन्दसा प्रथितस्य चतुर्थपादेन 'स्वस्था भवन्ति मयि जीवति धार्तराष्ट्रा:' इत्यनेनार्थ गृहीत्वा भीमः । समयेन यथा छलितरामे
"सादितप्रकट निर्मलचन्द्रहासः, प्राप्तः शरत्समय एष विशुद्धकान्तिः । उत्खाय गाढतमसं घनकालमुत्रं, रामो दशास्यमिव सम्भृतबन्धुजीवः ॥" अत्र समानविशेषणै रामशब्दकीर्तनाच्च रामप्रवेशसूचना | यानेन यथा श्रभिज्ञानशाकुन्तले
छन्द रूपमें प्रथित इस वाक्यके चतुर्थ चररणके अर्थको लेकर 'स्वस्था भवन्तु मयि जीवति धार्तराष्ट्राः ' मेरे जीते रहते कोरवगरण कभी स्वस्थ बैठ सकते हैं ? यह कहते हुए भीमका प्रवेश होता है ।
" तवास्मि गीतरागेण हारिणा प्रसभं हृतः । एष राजेव दुष्यन्तः सारंगेरणा तिरंहसा ॥”
समय [के वर्णन] से [मुख्यपात्रका प्रवेश] जैसे खलितराम में -
इस श्लोक में शरत्कालके वर्णनके द्वारा रामचन्द्रका प्रवेश कराया गया है। श्लोक में कहे हुए विशेष शरत्काल और रामचन्द्र दोनों पक्षों में लगेगे । प्रथम चरण में 'चन्द्रहास' शब्द स्लिष्ट है । शरत्काल पक्षमें उसका अर्थ चन्द्रमाका हास यह होता हैं । और रामचन्द्र के पक्ष में . चन्द्रहासका अर्थ तलवार होता है । चतुर्थ चरण में 'संभृतबन्धुजीवः' में शरत्पक्ष में 'बन्धुजीव' पुष्पविशेषका नाम है, और रामचन्द्रपक्षमें उसका अर्थ बन्धु अर्थात् लक्ष्मण के जीवनको बचा लेनेवाला है | तृतीय चरण में 'घनकालमुग्रं' में शरत्पक्ष में घनकालका अर्थ वर्षाकाल है और रामचन्द्र पक्षमें उसका अर्थ रावरण है । श्लोकका अर्थ निम्न प्रकार है-
''[मेघोंके बाहर ] प्रकाशित निर्मल चन्द्रमा हासको प्राप्त करने वाला, [रामपक्षमें नंगी तलवारको हाथमें लिए हुए ] विशुद्ध कान्ति वाला, यह शरत्समय, गाढ़ अन्धकारयुक्त [ रामपक्षमें गहन ज्ञानान्धकारसे युक्त ] भयंकर वर्षकाल [ रामपक्ष में वर्षकाल के समान उग्र ] को विनष्ट करके बन्धुजीव पुष्पको धारण करता हुआ इस प्रकार था गया है जैसे निर्मल नङ्गी तलवारको लिए हुए विशुद्धकान्ति और बन्धु अर्थात् लक्ष्मण के जीवन की रक्षा कर लेने वाले रामचन्द्र भयंकर रावण को मारकर श्राए हों ।"
इसमें [ शरत्समय तथा रामचन्द्र दोनों पक्षों में लगने वाले ] समान विशेषरणोंसे और राम शब्दका कथन करनेसे रामचन्द्रके प्रवेशकी सूचना मिलती है ।
[ श्राह्वान अर्थात्] नामसे [पात्रप्रवेशको सूचनाका उदाहरण] जैसे 'श्रभिज्ञानशाकु
न्तल, में
" [प्रामुखनें सूत्रधार नटीसे कहता है ] तुम्हारे मनोहर गीतरागसे यह मैं ऐसे हरणकर लिया गया हूं जैसे मनोहर और प्रत्यंत वेगवान् इस मृगके द्वारा यह राजा दुष्यन्त [हरणकर लिया गया है] ।"
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का० १०६, सू० १५६ ] तृतीयो विवेकः ।
[ २८३ अत्र नाट्य-आमुखयोः सम्बन्धनार्थ कविना भाविप्रवेशस्य पात्रस्य युक्त्या नामग्रहणम् । पूर्वत्र समानविशेषणबलान्नामागतमित्यनयोविशेष इति ।
एषां च नाट्यपात्रप्रवेशप्रकाराणामन्यतम एवैकश्चमत्कारी निबन्धनीयः। अन्यथा पात्रप्रवेशग्रंथबाहुल्येन प्रस्तुतार्थविधातः स्यादिति । शब्दव्यापारबाहुल्याच्च भारत्यंशभूतत्वमस्य ।
___एवं प्ररोचनायाः पूर्वरङ्गाङ्गभूताया अपीति । पात्रप्रवेशस्य पूर्वो माग श्रामुखम्। उत्तरः पुनर्नाटयमिति ॥ अथ प्ररोचनां व्याचष्टे[सूत्र १५६]-पूर्वरङ्ग गुणस्तुत्या सम्योन्मुख्य प्ररोचना ॥[४]१०६॥
. पूर्व नाट्यात् प्रथम, गीत-ताल-वाद्य-नृत्तानि नाट्यादिकं च पाठ्यं व्यस्तं समस्तं च प्रयुज्यते यत्र रङ्ग रजनाहेतौ नाट्यशालायां स पूर्वरङ्गः। अस्य च पूर्वरङ्गस्य प्रत्याहारादीनि आसारितान्तानि नव अन्तर्जवनिक, गीतकादीनि प्ररोचनान्तानि च दश बहिर्जवनिक अङ्गानि प्रयोज्यानि पूर्वाचायैर्लक्षितानि । अस्माभिस्तु स्वतो लोक
___ इस [उदाहरण] में नाट्य तथा प्रामुखका सम्बन्ध जोड़ने के लिए कविने प्रागे होने वाले पात्रके प्रवेशके लिए युक्तिपूर्वक [दुष्यन्तके] नामका ग्रहण किया है [अतः यह माह्वान द्वारा पात्रप्रवेशका उदाहरण है] पहिले ['प्रासादित प्रकट निर्मलचन्द्रहास' प्रादि उदाहरण में] तो समान विशेषरणोंके बलसे नाम प्राप्त हो जाता है [भुख्यरूपसे उसमें समयका ही वर्णन है । किन्तु इसमें मुख्य रूपसे दुष्यन्तके नाम ही कथन है] यह इन दोनों उदाहरणोंका
पात्रप्रवेशके इन [चार] प्रकारों में से किसी एक ही चमत्कार-जनक प्रकारका प्रवलम्बन करना चाहिए। अन्यथा [सब प्रकारोंका अवलम्बन करनेपर तो] पात्रप्रवेश विषयक ग्रंथका विस्तार हो जाने से प्रस्तुत विषयमें विघ्न पड़ेगा। इस [प्रामुख] में शब्द-व्यापारको प्रचुरता होनेके कारण यह भारती वृत्तिका अंशभूत है।
इसी प्रकार पूर्वरङ्गको प्रङ्गभूत प्ररोचनामें भी [शब्द-व्यापारके बहुल होनेसे भारतीय वृत्तिका पंगत्वहै। [मुख्य पात्रके प्रवेशके पहिलेका भाग 'प्रामुख' [कहलाता है मौर [पात्रप्रवेशके] बादका भाग नाट्य [कहलाता है।
प्ररोचना निरूपणअब [भारतीय वृत्तिसे सम्बद्ध] 'प्ररोचना' की व्याख्या करते हैं
[सूत्र १५६ }----पूर्वरङ्ग में [कवि, नाट्य, सूत्रधार आदि गुणोंकी स्तुति द्वारा सभ्यों को [नाट्य दर्शनकेलिए] उन्मुख करना 'प्ररोचना' [कहलाती है । [४] १०६ ।
[पहिले कारिकामें पाए हुए पूर्वरङ्ग शब्दका निर्वचन दिखलाते हैं] नाट्यके पहिले गीत, वाद्य, नृत्य नाट्यादि और पाठ्यका अलग-अलग प्रथवा मिलाकर जिस [भाग में रंग प्रर्थात् रञ्जनाके कारणभूत नाट्यशालामें प्रयोग किया जाता है वह पूर्वरङ्ग कहलाता है। इस पूर्वरङ्गके 'प्रत्याहार' से लेकर 'प्रासारित' पर्यन्त नौ जवनिकाके भीतर, और गीतकादिसे लेकर प्ररोचना पर्यन्त दश जवनिकाके बाहर किए जानेवाले अंगोंके लक्षण पूर्व प्राचार्यों ने किए हैं। हमने तो उनके १ स्वतः लोकसिद्ध होनेका कारण, २ उनके वर्णनकमके
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२८४
“नाट्यदर्पणम् [ का० १०७, सू० १५६ प्रसिद्धत्वात् , तन्न्यासक्रमस्य निष्फलत्वाद्, विविधदेवतापरितोषरूपस्य तत्फलस्य च श्रद्धालुप्रतारणमात्रत्वादुपेक्षितानि । प्ररोचना तु पूर्वरङ्गांगभूतापि नाट्य प्रवृत्ती प्रधानमिति लक्ष्यते। .
तत्र पूर्वरङ्गे गुणस्तुत्या प्रस्तुतप्रबन्धार्थस्य प्रीत्यादिहेतुत्वप्रशंसनेन सामाजिकानां श्रवणावलोकनोत्साहोत्पादनं प्रकृतोऽर्थः प्रकर्षण रोच्यते उपादेयतया ध्रियतेऽनयेति प्ररोचना । यथा क्षीरस्वामिविरचिते अभिनवराघवे"स्थापकः - [सहर्षम्] आर्ये ! चिरस्य स्मृतम् ।
अस्त्येव राघवमहीनकथापवित्रं, काव्यं प्रबन्धघटनाप्रथितप्रथिम्नः । भट्टन्दुराजचरणाब्जमधुव्रतस्य,
क्षीरस्य नाटकमनन्यसमानसारम् ।।" यथा यथा वा रघुविलासे
"सीतां काननतो जहार विहितव्याजः पुरा रावण
स्तं व्यापाद्य रणेन तां पुनरथो रामः समानीतवान् । निष्फल होनेके कारण, और ३ विविध देवताओंको प्रसन्न करने रूप उनके फलके केवल भवानुमोंको धोखा देने मात्र वाला होनेसे, उनकी उपेक्षा कर दी है। [पूर्वरङ्गके उन १६ अंगोंमेंसे] 'प्ररोचना' तो पूर्वरंगका अंग होनेपर भी नाट्यमें प्रवृत्ति कराने में मुख्य है इसलिए उसका लक्षण [हम भी] कर रहे हैं।
- उस पूर्वरंग [के १६ अंगों में, गुरणोंको स्तुति द्वारा प्रस्तुत प्रबन्धके अर्थको आनन्द प्रादिके जनक रूपमें प्रशंसा करके सामाजिकोंमें उसके देखनेका उत्साह उत्पन्न करनेकेलिए प्रकृत प्रर्थ जिसके द्वारा [प्रकर्षेण रोच्यते] अत्यन्त रोचक बनाया जाता है अर्थात् उपादेय सिद्ध किया जाता है वह 'प्ररोचना' [कहलाती है।
जैसे क्षीरस्वामी विरचित अभिनवराघवमें"स्थापक---[सहर्ष] प्रायें ! बड़ी देर बाद याद प्राई
रामचन्द्रको परमोत्कृष्ट कथासे पवित्र, और नाटक रचनामें प्रसिद्ध सामर्थ्य वाले, भट्ट इन्दुराजके चरणकमलोंके चञ्चरीक, क्षीरस्वामीका प्रद्वितीय महत्त्व वाला [मभिनव राघव नामक काव्य अर्थात] नाटक तो विद्यमान है ही [फिर चिन्ता किस बातकी है। सामाजिकोंको प्रसन्न करनेके लिए आज हम लोग उसी अद्वितीय नाटकका अभिनय प्रस्तुत कर सकते हैं।"
इसमें रामचन्द्र के चरित्र और क्षीरस्वामीको नाटक-रचना-सामर्थ्यादिको प्रशंसा द्वारा सामाजिकोंमें नाटक-दर्शनका उत्साह उत्पन्न करनेका यत्न किया गया है इसलिए यह पर्वरंग की अंगभूत प्ररोचना' का उदाहरण है।
अथवा जैसे रघुविलासमें
"पूर्वकालमें छल करके रावण सीताको वनसे हरण कर ले गया था, उसको मारकर रामचन्द्र फिर उसको छुड़ाकर लाए थे । कवियोंको सूक्ति रूप मौक्तिक मएियोंके [उत्पादक के लिए स्वाति जलके समान तथा भु, भुवः, स्वः तीनों लोकोंको मोहित करने वाले मोहन
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का० १०७, सू० १६० ] तृतीयो विवेकः
[ २८५ एतस्मै कविसूक्तिमौक्तिकमणिस्वात्यम्भसे भूर्भुवः
स्वामोहनकार्मणाय सुकथारत्नाय नित्यं नमः ॥ यथा वा नलविलासे
"कविः काव्ये रामःसरसवचसामेकवतार्नलस्येदं हृद्य किमपि चरितं धीरललितम् । समादिष्टो नाट्ये निखिलनटमुद्रापटुरहं,
प्रसन्नः सभ्यानां कटरि ! भगवानद्य स विधिः ॥” इति । इयं प्ररोचना पूर्वरङ्गात् प्रथमं पश्चाच्च निबध्यते । निबन्धे चास्या नावश्यम्भावनियम इति ॥ [४] । १०६॥
अथोद्देशप्राप्तां सात्त्वती लक्षयति-- [सूत्र १६०]-सात्वतो सत्त्व-वागङ्गाभिनेयं कर्म मानसम् ।
_ सार्जवाधर्ष-मुद्-धैर्य-रौद्र-वीर-शमाद्भुतम् ॥[५]१०७॥ कमके समान [रामायण की इस सुन्दर कथारत्नको नमस्कार है।
इसमें कथा भागकी प्रशंसा द्वारा उस कथाके प्राधारपर विरचित 'रघुविलास' नाटकके देखने के लिए सामाजिकोंको प्रोत्साहित करनेका यत्न किया गया है ।
अथवा जैसे नलविलासमें
“[इस नलविलास नामक नाटकका निर्माता सरस वचनोंका निधान रामचन्द्र इस काव्यका [निर्माता] कवि है, नलका मनोहर धीरललित और अद्भुत चरित्र [इस काव्यका वर्ण्य विषय है, और समस्त नाट्य कलानोंमें निपुण मुझको नाट्य करनेकी प्राज्ञा मिली है, [इससे सिद्ध होता है कि हे सुन्दर कटि वाली [प्रायें ] ! आज भगवान् सम्योंके ऊपर प्रसन्न हो रहे हैं।"
इसमें ग्रन्थकारने अपने बनाए हुए नवविलासकी 'प्ररोचना'को उद्धत किया है। इस प्ररोचना भागमें कविकी भी प्रशंसा की गई है। नाटकके प्राधारभूत पाख्यान-वस्तु, और उसका अभिनय करने वाले नटको भी प्रशंसा की गई है। इन सबको प्रशंसा द्वारा सामा. जिकों में इस नाटकके देखनेके लिए उत्साह एवं अभिरुचि उत्पन्न करनेका यत्न किया गया है। इसलिए यह भी प्ररोचनाका उदाहरण है।
यह प्ररोचचना पूर्वरंगके पहिले और पीछे. [दोनों रूपोंमें] निबद्ध की जा सकती है। और इसके रखे जाने का कोई प्रावश्यक नियम नहीं है। [अर्थात् यह प्रावश्यक नहीं है कि प्रत्येक नाटकमें प्ररोचना अवश्य ही रखी जाए। कवि इस विषयमें स्वतन्त्र है। वह चाहे तो प्ररोचना रखे चाहे न रखे। यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है फिर भी अधिकांश नाटकोंमें 'प्ररोचना' पाई हो जाती है ॥ १०६ ॥ [४]। . २ सात्वती वृत्तिका निरूपण
अब उद्देशक्रमसे प्राप्त सात्वती [वृत्ति का लक्षण करते हैं
[सूत्र १६०]-मानसिक, वाचिक तथा कायिक अभिनयोंसे सूचित, प्रार्जव, गटफटकार, [प्राधर्ष] हर्ष और धयंसे युक्त, तथा रौद्र, वीर, शान्त एवं प्रभुत रसोंसे सम्बद्ध मानस व्यापार 'सात्वती' वृत्ति कहलाता है । [५] १०७ ।
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२८६ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० १०७, सू० १६०
सत् सत्त्वं प्रकाशः, तद्यत्रास्ति तत् सत्त्वं मनः, तत्र भवा सात्त्वती । संज्ञाशब्दत्वेन बाहुलकात् स्त्रीत्वम् । सत्त्व-वागङ्गाभिनेयं सत्त्व- वागङ्गाभिनयैर्ज्ञाप्यम् । सत्त्वाभिनयवागभिनय - अङ्गाभिनययुक्तं मानसं कर्म सात्त्वतीत्यर्थः । अभिनयत्रयाभिधानेऽपि मानसव्यापारस्य सत्त्वप्रधानत्वात् सत्त्वाभिनय एवात्र प्रधानमितरौ गौणौ । श्रत एव सत्त्वशब्दः प्रथममुपात्तः । आर्जव मकौटिल्यम् । श्रधर्षो वाचा न्यक्कारः । मुद्द हर्षः । धैर्यं व्यसनेऽप्यकातर्यम् । एतैः रौद्रादिभिश्च सह वर्तमानो मनोव्यापारः सात्त्वती । आवस्योपादानादत्र कपटाभावः । धर्षख्यापनादुद्धतपुरुषसद्भावः । मुत्प्रतिपादनाच्छोक-करुण-निर्वेदाभावः । धैर्याभिधानात् ख्यादिसङ्गमौत्सुक्याभावश्चाभिहितो भवति ।
रौद्ररसयोगेऽपि केषाञ्चित् सत्त्वं प्रकाशरूपं दृश्यत एवेति रौद्रोपादानम् । वीररसश्चात्र युद्ध-दान- दयावीरादिरूपः, सत्त्वबाहुल्य द् गृह्यते । 'शम' इति च शम-स्थायिभावः शान्तो रसो द्रष्टव्यः । अरिषड्वर्गजयस्य सत्त्वैकनिबन्धनत्वात् । अद्भुतोऽप्यन्यसंवावलोकनात् सात्त्विकानां दृश्यत एवेति । इदं च मानसं कर्म विचित्राभिर्गम्भीरोक्तिभिः प्रारब्धकार्यापरित्यागात्, कार्यान्तरपरिग्रहेण संग्रामाय परोत्साहनेन, सामादिप्रयोग-दैवादिना अरिसंघात भेदजननेनान्यैश्च बहुभिः प्रकारैर्लक्ष्यते इति । [५] १०७॥
मानस,
सत् अर्थात् सत्त्व या प्रकाश [का नाम है ], वह जिसमें रहता है वह मन सत्त्व हुआ । उसमें रहनेवाली [मानस व्यापार रूप] सात्वती वृत्ति होती है। संज्ञा शब्द होनेसे बहुत करके [सात्त्वती शब्दसे में ] स्त्रीलिङ्ग [ वाचक ङीप प्रत्यय हुआ ] है । 'सत्त्ववागंगाभिनेय' [ का अर्थ ] वाचिक तथा कायिक अभिनयोंके द्वारा ज्ञाप्य [ व्यापार है ] । मानसिक अभिनय, वाचिक अभिनय, और कायिक अभिनयसे युक्त मानसिक व्यापार 'सात्त्वती' वृत्ति [कहलाता ] है, यह अभिप्राय है । [ मानसिक, वाचिक तथा कायिक ] तीनों प्रकार के प्रभिनयोंके कहे जानेपर भी मानस व्यापारके ही सत्त्व-प्रधान होनेसे इन [तीनों] में सत्त्वाभिनय हो प्रधान है और शेष दोनों गौरा हैं । इसीलिए सत्त्व शब्दका सबसे पहले ग्रहण किया गया है । [कारिका में आए हुए 'आर्जव' श्रादि शब्दों का अर्थ करते हैं] 'प्रार्जव' अर्थात् कुटिलताका प्रभाव 'प्रधर्ष' अर्थात् वाणीके द्वारा तिरस्कार [डाँट फटकार ] । 'मुत्' प्रर्थात् हर्ष | 'धैर्य' अर्थात् विपत्तिकाल में भी न घबराना । इनसे और रौद्रादिसे युक्त मानस व्यापार 'सात्त्वती' वृत्ति [ कहलाता ] है । श्रार्जवके ग्रहणसे इसमें कपटका प्रभाव [ सूचित होता है ] । 'प्राधर्ष' के कंथन से उद्धत पुरुषोंका सद्भाव [ सूचित होता है] । हर्षका प्रतिपादन होनेसे शोक, करुण निवेदका प्रभाव [ सूचित होता है] । 'ई' के कथनसे स्त्री प्रादिके सङ्गमके प्रति औत्सुक्यका प्रभाव सूचित होता है ।
रौद्ररसका योग होनेपर भी किन्हीं - किन्हीं में प्रकाश रूप सत्त्व दिखलाई देता है । इसलिए रौद्रका ग्रहण किया है। और इस [ सात्त्वती वृति ] में वीररंससे युद्धवीर दानवीर, दयावीर प्राविका ग्रहण सत्त्व-प्रधान होनेसे होता है। 'शम' पदसे शम जिसका स्थायिभाव है उस शांतरसका ग्रहरण होता है । क्योंकि [शांतरस में किए जानेवाले काम-क्रोधादि ] छः मानस शत्रुग्रोंके सत्व-प्रधान होनेसे [शमका ग्रहण किया है ] । अन्योंके सत्यको देखनेसे सास्विक वृत्तियों के लोगों में प्रदभुत भी पाया जाता है। [इसलिए इसका भी ग्रहण किया गया है ] । यह मानस व्यापार नाना प्रकारको गम्भीर उतियों द्वारा प्रारम्षकार्यके ( सैकड़ों विघ्न पड़ने
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का० १०७, सू० १६१ ] तृतीयो नेवेकः
... [ २८७ अथ कैशिकी[सूत्र १६१] -कैशिकी हास्य-शृङ्गार-नाट्य-नर्मभिदात्मिका।
अतिशायिनः केशाः सन्त्यासामिति केशिकाः स्त्रियः । 'स्तनकेशवतीत्वं हि स्त्रीणां लक्षणम'। तत्प्रधानत्वात् तासामिए कैशिकी । हास्य-शृङ्गाराभ्यां स्त्रीबाहुल्यविचित्रप्रकारेनेपथ्य-कामव्यवहाराणां सद्भावमाह । नाट्यं नृत्त-गीत-वादित्राणि । अग्राम्य इष्टजनावर्जनरूपो वाग-वेष-चेष्टाभिः परिहासो नर्म । वाचा यथा
"पत्युः शिरश्चन्द्रकलामनेन स्पृशेति सख्या परिहासपूर्वम् ।
सा रञ्जयित्वा चरणौ कृताशीर्माल्येन तां निर्वचनं जघान ॥" यथा वा सत्यहरिश्चन्द्र--
. "राजा-[विहम्य ] विहङ्गराज ! निःशेषवेश्याचक्रवर्तिनीमेनां लम्बस्तनीमुपश्लोकय ।
शुकः---पुण्यप्रागल्भ्यलभ्याय वेश्यापण्याय मङ्गलम् ।
__यत्र प्रतीपाः शास्त्रम्य, कामादर्थप्रसूतयः ॥" पर भी] न छोड़ने से, नए कार्योंका [भो] स्वीकार कर लेनेसे, संग्रामादिके लिए दूसरोंको उत्साहित करनेसे, साम आदिके प्रयोग अथवा देवाविवश शत्रु-समुदायमें भेद डालनेसे और इसी प्रकारके अन्य बहुतसे प्रकारोंसे लक्षित हो सकता है ॥[५]१०७॥ ३ कैशिकी वृत्तिका निरूपण
अब कैशिको [वृत्तिका लक्षण करते हैं]--
[सूत्र १६१]-हास्य, शृङ्गार [ नृत्य, गीत प्रादि रूप ] नाट्य तथा [ नर्म अर्थात् शिष्ट परिहास प्रादिके भेदोंसे युक्त कैशिकी [इति होती है।
अतिशय युक्त केश जिनके हों वे स्त्रियां कशिका हुई [अर्थात् कशिकी वृतिकी उत्पति केश शब्दसे हुई है । लम्बे केशोंसे युक्त होने के कारण स्त्रीको 'केशिका' कहा जाता है] क्योंकि 'स्तनकेशवती स्त्री' यह स्त्रीका लक्षण है। उनका प्राधान्य होनेसे उनकी यह वृत्ति 'कैशिकी' कहलाती है । उसमें हास्य और शृङ्गार शब्दोंसे स्त्रीजनोंकी अधिकता, नाना प्रकारके वेष-विन्यास, तथा कामभ्यवहारोंको उपस्थिति सूचित की है । 'नाट्य' से नृत्य, गीत, बायका प्रहरण होता है । इष्टजनोंको आकर्षित करनेवाला, वाणी, धेष तथा चेष्टा आदिकेद्वारा किया जानेवाला शिष्ट [अग्राम्य] परिहास नर्म [कहलाता है। वाणोके द्वारा [नर्मका उदाहरण] जैसे---
"पैरोंमें महावर लगा चुकनेपर सखीके द्वारा परिहासपूर्वक इस [चरण से पति [शिव] के सिरपर स्थिति [सपत्नी रूप] चन्द्रकलाका स्पर्श करना इस प्रकार आशीर्वाद किएजाने पर बिना उत्तर दिए हुए ही उसने [अर्थात् पार्वतीने] उस [सखो] को मालासे मार दिया।"
अथवा जैसे सत्पहरिश्चन्द्र में वाचिक नर्मका उदाहरण निम्न प्रकार है].-- ___ "राजा---[हंसकर हे विहङ्गराज [मन्त्रिन शुकदेव समस्त वेश्याओंको चक्रवर्तिनी इस लम्बस्तनीकी प्रशंसा तो करो।
शुक-पुण्यसम्भारसे प्राप्त होनेवाले वेश्या-व्यापारका भला हो जिसमें शास्त्रीय विधानके विपरीत, कामसे अर्थको प्राप्ति होती है [ शास्त्र में तो अर्थसे कामको प्राप्ति
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२८८ )
नाट्यदपणम्
का० १०८, सू. १६२ वेषेण यथा-नागानन्दे विदूषक-शेखरव्यतिकरे : चेष्टानर्म यथा मालविकाग्निमित्रेनिपुणिका विदूषकस्योपरि सर्पविभ्रमकारि दण्डकाष्ठं पातयति । इति ।
एतच्च क्वचिन्मानान् , कचिद्धास्यात् , कचित् शृङ्गार-हास्यात् , कचिद् भयहास्यात् , कचित् सापराधप्रिय-प्रतिभेदनात् , कचित् पूर्वनायिका-प्रतिभयात् , इत्याद्यनेकधा द्रष्टव्यम्।
___ अत्र शृङ्गाररसेन रत्याख्यो मानसो, हास्येन नर्मभेदैश्च वाचिको, नाट्य न कायिकश्च व्यापारः संगृहीत इति व्यापारत्रयसङ्करात्मिकेयगिति । 'अथारभटी
[सूत्र १६२]-प्रारभट्यनृत-द्वन्द्व-छद्म-दीप्तरसान्विता ॥[६]१०८॥
__ आरेण प्रतोदकेन तुल्या भटा उद्धताः पुरुषा आरभटाः। ते सन्त्यस्यामिति 'ज्योत्स्नादित्वादणि' आरभटी। अनुतमसत्यम् । द्वन्द्वयुद्धमनेकप्रकारम् । छद्म वञ्चनाहेतुः प्रयोगः । अनेन इन्द्रजाल-पुस्तप्रयोग-च्छेद्य-भेद्यादिग्रहः । दीता रसा रौद्रादय : कही गई है किन्तु वेश्या-व्यापारमें इसके विपरीत कामसे अर्थको प्राप्ति वेश्यानोंको होती है] ।"
वेषके द्वारा [ परिहास रूप नर्मका उदाहरण ] जैसे नागानन्दमें विदूषक और शेखर के सम्पर्क में [हा है।
चेष्टाके द्वारा परिहासका [उदाहरण] जैसे मालविकाग्निमित्रमें---
निपुरिणका विदूषकके ऊपर सर्पकी भ्रांति उत्पन्न करने वाले लकड़ी के ढ़े-मेढ़े ] उण्डेको डाल देती है।
यह [परिहास या नम] कहीं मानके कारण, कहीं हास्यके कारण, कहीं शृंगारजनक हास्य के लिए, कहीं भयजनक हास्यके लिए, कहीं अपराधी प्रियके प्रतिभेदनके कारण, और कहीं पूर्व नायिकाके भयके कारण, इस प्रकार अनेक तरहका होता है।
___ यहाँ [कारिकामें आए हुए] शृङ्गाररससे रति-रूप मानस-व्यापारका, हास्य [पद] से और परिहासके [पूर्वोक्त] भेदोंसे वाचिक-व्यापारका, तथा 'नाट्य' [पद] से कायिक व्यापार का संग्रह होता है । इसलिए यह [कशिकी वृत्तितीनों प्रकारके व्यापारोंके सर रूप है। [अर्थात् कैशिकी वृत्तिमें तीनों प्रकारके व्यापारोंका समावेश रहता है । ४ आरभटी वृत्तिका निरूपण--
अब प्रारभटी [वृत्तिका लक्षण करते हैं]---
[सूत्र १६२]--अनृतभाषण, छल-प्रपञ्च, द्वन्द्वयुद्ध, तथा [रौद्र धादि] दोहरसोंसे युक्त [वृत्ति प्रारभटी [वृत्ति कहलाती है । [६] १०८ ।
'प्रार' अर्थात् चाबुकके समान, जो भट अर्थात् उद्धत पुरे' वे 'प्रारभट' हुए। वे जिसमें प्रचुर मात्रामें हों वह [प्रारभट शब्दको] ज्योत्सनादि गणपठितम र अण-प्रत्यय करनेपर प्रारभटो [वृत्ति कहलाती है। [लक्षरण में प्राए हुए प्रनृतादिदाका अर्थ करते हैं] अनृत अर्थात् असत्य भाषण । द्वन्द्वयुद्ध अनेक प्रकारका हो सकता है। धोखा देने के लिए किए जाने वाला प्रयोग छद्म कहलाता है । इसके द्वारा इन्द्रजाल [पुस्त लेप्यादि निर्मित पुतली प्राविका
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तृतीयो विवेकः
का० १०६, सू० १६२ } औद्धत्यागादिहेतवः । अत्रानृतादिभिर्विचित्रनेपथ्य किलिञ्जहस्तिप्रयोग-मायाशिवोदर्शनादिकं भय हर्षातिशयाकुलितपात्रप्रवेशः, पूर्व नायकावस्थायाः परित्यागेन नायकावस्थान्तरग्रहो अवस्कन्द- अग्न्यादिकृतविद्रवादिक, विविधस्थायि व्यभिचारिभावयुक्तं प्रसंगागत कार्यादिकं बाहुयुद्ध-शस्त्रप्रहारादिकं च संगृह्यते । त एवेयं सर्वाभिनयात्मिका सर्वव्यापारात्मिका च ।
तत्र विचित्रं नेपथ्यं वेणीसंहारे अश्वत्थाम्नः । उदयनचरिते किलिञ्जहस्तिप्रयोगः । माया शिरोदर्शनं रामाभ्युदये । बलीमुखेन पात्रप्रवेशो रत्नावल्याम् । हर्षेण वामनचेट्याः प्रवेशः सत्यहरिश्चन्द्रे । बालिनेतृत्यागेन सुग्रीवनेत्रन्तरग्रहणम् । परशुरामस्यौद्धत्यावस्था त्यागेन शान्तावस्थान्तरग्रहणम् । विचित्रभावं कार्यान्तरं कृत्यारावणे । तथा हि अंगदेनाऽभिद्र्यमाणाया सन्दोदर्या भयम् । अंगदस्योत्साहः । अस्यैव रावदर्शनेन 'एतेनापि सुराजिताः' इत्यादि वदतो शसः । 'यस्तातेन निगृह्य बालक इव प्रक्षिप्य कक्षान्तरे' इति च जल्पतो जुगुप्सा -हास - विस्मयाः । रावणस्य रति-क्रोधौ । नियुद्धादि तु रामायणीयेषु इन्द्रजिल्लदमरणयोरिति ॥[६] १०८||
प्रयोग तथा छेद्य-भेद्य श्रादिका ग्रहण होता है। प्रोद्धत्य, आवेगादिके कारणभूत रौद्रादिरस दीप्तरस [ कहलाते ] हैं : इसमें अनृतादिसे, नाना प्रकारके वेष विन्यास, [ किलिञ्जहस्तिप्रयोग अर्थात् ] चटाई श्रादिसे बने हुए [बनावटी ] हाथीका प्रयोग, तथा [मायाशिरोदर्शन अर्थात् ] बनावटी शिर प्रादिका दिखलाना [गृहीत होता है], भय तथा हर्षके अतिशयसे व्याकुल पात्रका प्रवेश, नायककी पूर्वावस्थाको छोड़कर नायककी दूसरी अवस्थाका प्रहरण, प्राक्रमरण या श्रग्नि श्रादिके द्वारा किए जानेवाली भगदड़, आदि रूप नाना प्रकारके स्थायि व्यभिचारिभावोंसे युक्त प्रासंगिक कार्यादि, बाहुयुद्ध और शस्त्रप्रहारादिका संग्रह हो जाता है । इसलिए यह [प्रारभटी वृत्ति कायिक, वाचिक, तथा मानसिक ] सब प्रकार के अभिनयोंसे युक्त श्रौर सब प्रकारके व्यापारों वाली [वृत्ति ] है ।
[ २८६
उनमें विचित्र वेष- विन्यास [ का उदाहरण] जैसे वेणीसंहार में अश्वत्थामाका [विचित्र वेष- विन्यास वर्णित है ] । उदयनके चरित्र में बनावटी हाथीका प्रयोग पाया जाता है । बनावटी शिरका दर्शन जैसे रामाभ्युदयमें [ रामके बनावटी कटे हुए सिरका दर्शन सोता को कराया गया ] है । [बलीमुख प्रर्थात् ] बन्दरके भयसे प्रवेश [का उदाहरण] जैसे रस्नावली में [पाया जाता है] । हर्षसे जैसे सत्यहरिश्चन्दमें वामनचेटीका प्रवेश [वरित है ] । बालीके नेतृत्वको छोड़कर सुग्रीवके नेतृत्वको स्वीकार करना । परशुरामको उद्धतावस्थाको छोड़कर दूसरी शान्तावस्थाका वर्णन [ ये दोनों नायकान्तर और अवस्थान्तर के ग्रहरणके उदाहरण हैं ] । विचित्र प्रकारके [ प्रासङ्गिक ] अन्य कार्य [ का उदाहरण ] जैसे कृत्यारावण में [ निम्न प्रकार पाया जाता है ] श्रङ्गदके द्वारा पीछा किए जानेपर मन्दोदरीका भय, श्रङ्गदका उत्साह, इस [ अङ्गदके द्वारा ही रावरणको देखनेपर 'अच्छा इस [रावरण] ने भी देवताओं को जीता था इस प्रकार कहते हुए [रावरणका ] हास्य बनाना, श्रौर 'जिसको [ रावण] पिताजी : [ अर्थात् श्रङ्गद के पिता बाली ] ने बालकके समान पकड़कर कोठरी में [ बन्द कर दिया था]' इस प्रकार कहते हुए [रावरण के प्रति भङ्गवकी] घृणा, हास्य और विस्मय [ का वर्णन ] तथा रावणके रति, क्रोध [ ये सब प्रसङ्गोचित कार्योंके उदाहरण हैं] । रामायरणके प्राधारपर
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२६० ]
नाट्यदर्पणम [ का० १०६, सू० १६३ अथ 'रसभावाभिनयगाः' इत्यतो वृत्तिलक्षणात् प्रथमं रस्माचष्टे[सूत्र १६३]-स्थायी भावः श्रितोत्कर्षो विभाव-व्यभिचारिभिः ।
स्पष्टानुभावनिश्चयः सुख-दुःखात्मको रसः ॥[७]१०६॥ प्रतिक्षणमुदय-व्ययधर्मकेषु बहुष्वपि व्यभिचारिष्वनुयायितयावश्यं तिष्ठतीति स्थायी । यद्वा तद्भाव एव भावात् अनावे वाभावात् रत्यादिर्व्यभिचारिणं ग्लान्यादिके प्रत्यवश्यं स्थायी। उपचयं प्राप्य रसरूपेण रत्यादिर्भवतीति भावः । विसाव-र्ललनोद्यानादिभिरालम्बनोद्दीपनरूपै-र्बाह्य हेतुभिः सत एवाविर्भावाद्, व्यभिचारिभिर्लान्यादिभी रसिकमनः-शरीरवर्तिभिः परिपोषणाच्च श्रितोत्कर्षः । स्वीकृतसाक्षात्कारित्वानुभूयमानावस्थो, यथासम्भवं सुख-दुःखस्वभावो रस्यते आस्वाद्यते इति रसः ।
तत्रेष्टविभावादिग्रथितस्वरूपसम्पत्तयः शृंगार-हास्य-वीर-अद्भुत-शान्ताः सुखात्मानः। अपरे पुनरनिष्टविभावाद्युपनीतात्मानः करुण-रौद्र-बीभत्स-भयानकाश्चत्वारो दुःखात्मानः । बने नाटकादिमें लक्ष्मण और मेघनादके नियुद्ध आदि [के उदाहरण हैं] ॥[६] १०८॥ रस निरूपण
[इस प्रकार भारती प्रादि चारों वृत्तियोंके लक्षण हो जानेके बाव] प्रब वृत्तिके [सामान्य] लक्षणमें पाए हुए 'रस-भावाभिनयगाः' इस पदमेंसे सबसे पहिले रसका वर्णन प्रारम्भ करते हैं---
[सूत्र १६३]-विभाव तथा व्यभिचारिभाव प्रादिके द्वारा परिपोषको प्राप्त होने वाला, स्पष्ट अनुभावोंके द्वारा प्रतीत होनेवाला, स्थायिभाव [रूप ही] सुख-दुःखात्मक [अर्थात केवल सुखात्मक अथवा केवल दुःखात्मक न होकर उभयात्मक] रस होता है । [७] १०६ ।
[यह ग्रन्थकारने रसका लक्षण किया है। अब उसमें पाए हुए स्थायिभावादिका स्वरूप दिखलाते हैं] प्रतिक्षरण उदय तथा अस्त होने वाले अनेक व्यभिचारिभावों में जो अनुगतरूपसे अवश्य विद्यमान रहता है वह 'स्थायिभाव' [कहलाता है । अथवा उस [स्थायिभाव] को विद्यमानतामें ही होने और उसकी अविद्यमानतामें [व्यभिचारिभावोंके] न होनेसे, व्यभिचारिभाव ग्लानि मादिके प्रति, रत्यादि अवश्य स्थायिभाव होता है। [यह स्थायी शब्दका अर्थ हुप्रा अब आगे स्थायीके आगे जुड़े हुए भाव शब्दका अर्थ करते हैं। व्यभिचारिभाव प्रादि सामग्रीके द्वारा] परिपोषको प्राप्त करके रत्यादि, रसरूप हो जाता है इसलिए ['भवतीति भावः इस व्युत्पत्तिके अनुसार रेत्यादि] 'भाव' [कहलाता है। विभावों अर्थात् ललना और उद्यान प्रादि [रूप] आलम्बन तथा उद्दीपन विभावरूप बाह्य हेतुओंके द्वारा पूर्वसे ही विद्यमान [रत्यादि स्थायिभाव का आविर्भाव होनेसे, और रसिकोंके मन में विद्यमान ग्लानि प्रादि व्यभिचारिभावोंके द्वारा परिपुष्ट होनेके कारण, उत्कर्षको प्राप्त [अर्थात् साक्षात्कारात्मक अनुभूयमानावस्थाको प्राप्त होनेवाला, यथासम्भव सुख-दुखोभयात्मक [स्थायिभाव रस्यते इति रसः' इस व्युत्पत्तिसे] आस्वाद्यमान होनेसे रसपदसे वाच्य [बोधित होता है।
[रसके इस लक्षरणमें रसको सुख-दुःखात्मक अर्थात् उभयात्मक माना है। उन दोनों प्रकारके रसोंका विभाग मागे दिखलाते हैं] उनमेंसे इष्ट विभावादिके द्वारा स्वरूपसम्पत्तिको
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का० १०६, सू० १६३ ] तृतीयो विवेकः
- [ २६१ यत् पुनः सर्वरसानां सुख-दुखात्मकत्वमुच्यते तत् प्रतीतिबाधितम् । आस्तां नाम मुख्यविभावोपचिताः, काव्याभिनयोपनीतविभावोपचितोऽपि भयानको बीभत्सः करुणो रौद्रो वा रसास्वादवतामनाख्येयां कामपि क्लेशदशामुपनयति । अतएव भयानकादिभिरुद्विजते समाजः । न नाम सुखास्वादादुद्वेगो घटते ।
यत् पुनरेभिरपि चमत्कारो दृश्यते स रसास्वादविरामे सति यथावस्थितवस्तुप्रदर्शकेन कवि-नटशक्तिकौशलेन । विस्मयन्ते हि शिरश्छेदकारिणापि प्रहारकुशलेन वैरिणा शौण्डीरमानिनः। अनेनैव च सर्वाङ्गाह्लादकेन कविनटशक्तिजन्मना चमकारेण विप्रलब्धाः परमानन्दरूपतां दुःखात्मकेष्वपि करुणादिषु सुमेधसः प्रतिजानते। एतदास्वादलौल्येन प्रेक्षका अपि एतेषु प्रवर्तन्ते । कवयस्तु सुख-दुःखात्मकसंसारानुरूप्येण रामादिचरितं निबध्नन्तः सुख-दुःखात्मकरसानुविद्धमेव ग्रनन्ति.। पानकमाधुर्यमिव च तीक्ष्णास्वादेन दुःखास्वादेन सुतरां सुखानि स्वदन्ते इति । अपि च सीतायाः हरणं, द्रौपद्याः कचाम्बराकर्षणं, हरिश्चन्द्रस्य चाण्डालदास्यं, रोहिताश्वस्य मरणं, प्रकाशित करने वाले शृङ्गार, हास्य, वीर, अद्भुत और शान्त [ये पाँच सुखप्रधान रस हैं। और अनिष्ट विभावादिके द्वारा स्वरूप लाभ करने वाले करुण, रौद्र, बीभत्स और भयानक ये चार दुःखात्मक रस हैं।
[कुछ प्राचार्योके द्वारा] जो सब रसोंको सुखात्मक बतलाया जाता है वह प्रतीति के विपरीत [होनेसे प्रमान्य असंगत है। मुख्य [अर्थात् वास्तविक] विभावोंसे उत्पन्न [करुण मादिकी दुःखात्मकताकी तो बात ही जाने दो, काव्यके अभिनयमें प्राप्त [बनावटी] विभाव प्रादिसे उत्पन्न हुप्रा भी भयानक, बीभत्स, करुण अथवा रौद्ररस प्रास्वादन करने वालोंकी कुछ प्रवर्णनीयसी क्लेशदशाको उत्पन्न कर देता है। इसी लिए भयानक प्रादि [दृश्यों] से सामाजिकोंको घबराहट होती है। [यदि सब रस सुखात्मक ही होते तो] सुखास्वादसे तो किसीको उद्वेग नहीं होता है। [इसलिए करुणादि रस दुःखात्मक ही होते हैं ।
और जो इन [करुणादिरसों से भी सहृदयोंमें चमत्कार दिखलाई देता है वह रसास्वादके समाप्त होनेके बाद यथास्थित जैसे-तैसे पदार्थोको दिखलाने वाले कवि और नटजनोंके कौशलके कारण होता है। क्योंकि वीरताके अभिमानी जन भी [एक ही प्रहार में] सिरको काट डालने वाले, प्रहार-कुशल वरी [के कौशलको देखकर, उस] से भी विस्मय [और तज्जन्य चमत्कार] को अनुभव करते हैं। सम्पूर्ण अङ्गोंको आनन्द प्रदान करने वाले [सब इन्द्रियोंके आह्लादक], कवि और नटजनोंको शक्ति [कौशल से उत्पन्न चमत्कारके द्वारा धोखे में प्राकर बुद्धिमान लोग भी दुःखात्मक करुणादि रसोंमें भी परमानन्द रूपता समझने लगते हैं । और इनका प्रास्वादन करनेके लोभका संवरण न कर सकनेके कारण प्रेक्षक सामाजिक भी इन [के प्रास्वादन] में प्रवृत्त होते हैं । कविगण तो सुख-दुःखात्मक संसारके अनुरूप ही रामादिके चरित्रको रचना करते समय सुख-दुःखात्मक रसोंसे युक्त ही [काव्य नाटक आदि की रचना करते हैं। पने का माधुर्य जैसे [उसमें पड़ी हुई मिर्चके तीखे प्रास्वादसे और अधिक अच्छा प्रतीत होता है इसी प्रकार [करुणादि दुःखप्रधान रसोंमें] दुःखके तीखे प्रास्वावसे मिलकर सुखोंकी अनुभूति और भी अधिक प्रानन्ददायिनी बन जाती है। और [नाटकादिमें ] सोताके हरण, द्रौपदीके केश एवं वस्त्रोंके खींचे जाने, हरिश्चन्द्रको चाण्डालके
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२९२ ]
. नाट्यदर्पणम [ का० १०६, सू० १६३ लक्ष्मणस्य शक्तिभेदनं, मालत्या व्यापादनारम्भणमित्याद्यमिनीयमानं पश्यतां सहृदयानां को नाम सुखास्वादः ? __ तथानुकार्यगताश्च करुणादयः परिदेवितानुकार्यत्वात् ' तावद् दुःखात्मका एव । यदि चानुकरणे सुखात्मानः स्युर्न सम्यगनुकरणं स्यात् । विपरीतत्वेन भासनादिति ।
योऽपीष्टादिविनाशदुःखवतां करुणे वय॑मानेऽभिनीयमाने वा सुखास्वादः सोऽपि परमार्थतो दुःखास्वाद एव । दुःखी हि दुःखितवार्तया सुखमभिमन्यते । प्रमोदवार्तया तु ताम्यतीति करुणादयो दुःखात्मान एवेति ।
विप्रलम्भशृङ्गारस्तु दाहादिकार्यत्वाद् दुःखरूपोऽपि सम्भोगसम्भावनागर्भत्वात् सुखात्मकः। यहाँ दासता, रोहिताश्वके मरण, लक्ष्मणके शक्तिभेदन, मालतीके मारनेके उपक्रम प्राविके अभिनयको देखने वाले सहृदयोंको सुखका प्रास्वाद कैसे हो सकता है ? [इसलिए करुणादि रसोंको सुखात्मक मानना उचित नहीं है। इसी बातके समर्थन के लिए प्रागे और भी युक्ति देते हैं।
पौर अनुकार्यगत [अर्थात् रामचन्द्र प्रादिके वास्तविक जीवन में सीतावियोगके समय] करणादि विलापादियुक्त होनेके कारण निश्चित रूपसे दुःखात्मक ही होते हैं। यदि उनको अनुकरण [रूप नाटकादि] में सुखात्मक माना जाय तो वह सम्यक् अनुकरण नहीं हो सकता है। वास्तविक दुःखात्मक प्रतीतिसे] विपरीत रूपमें [नाटकादिमें ] प्रतीत होनेसे [नाटकादिमें रामके वृत्तका यथार्थ अमुकरण नहीं बनेगा। इस कारण भी करुणादिको दुःखात्मक ही मानना पड़ेगा] 1 . .
कभी-कभी किसी इष्टजनके विनाशके समय उसको सान्त्वना देनेकालए लोग किसी अन्यके इसी प्रकारके दुःखका वर्णन आदि करते हैं। और उस प्रकारके दूसरेके दुःखको सुनकर या देखकर दुःखित व्यक्तिको कुछ सान्त्वना और अपने कष्टको सहनेका बल मिलता है परन्तु वह सुख नहीं है। वह दुःखास्वाद ही है । दुःखी व्यक्तिके सामने दूसरोंके उसी प्रकारके दुःखके वर्णनसे तो उसको सान्त्वना मिलती है किन्तु यदि उस दुःखके समय उसके सामने नाच-रंग आदि प्रानन्द वार्ताकी चर्चा की जाय तो वह उसको बुरी मालूम होती है। इसलिए करुणादि रस दुखात्मक ही है इस बातको आगे ग्रन्थकार इस प्रकार लिखते हैं
और इष्टजनके विनाशसे दुःखियोंके सामने करुणादिका वर्णन किए जाने अथवा अभिनय किए जानेपर जो सुखास्वाद होता है वह ही वास्तवमें दू:खास्वाद ही होता है । दुःखी व्यक्ति दूसरे दुःखी व्यक्तिको दुःख-वार्तासे सुख-सा [सान्त्वना-सी] . अनुभव करता है। और प्रमोदकी वार्तासे [उस समय] उद्विग्न होता है । इसलिए भी करुण प्रादि रस दुःखात्मक हो होते हैं [उनको सुखात्मक रस नहीं माना जा सकता है ।
‘विप्रलम्भ शृंगार तो [इष्टजनके ] दाहादि [द्वारा विनाशकी प्रतीति] से जन्य होनेके कारण दुःखरूप होनेपर भी उसमें पुनर्मिलन [सम्भोग] को सम्भावना बनी रहनेसे सुखात्मक [कहा गया है।
इस पंक्ति में ग्रन्थकारने करुण तथा विप्रलम्भ शृङ्गारका भेद दिखलाया है। करुण१. तालिकार्यत्वात् । २. स्पुर्ना ।
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का० १०६, सू० १६३ 1 तृतीयो विवेकः
___ रसश्च मुख्यलोकगतः प्रेक्षकगतः काव्यस्य श्रोतृ-अनुसन्धायकद्वयगतो वेति । 'स्पष्टाः' इति स्पष्टाः सम्यङ् निर्णीताः। असन्दिग्धं हि लिङ्ग भवति । अनुभावयन्ति रसको दुःखात्मक और विप्रलम्भ शृङ्गारको सुखात्मक रस माना है । इस भेदका कारण यह है कि विप्रलम्भ शृङ्गारमें पुनर्मिलनको सम्भावना बनी रहती है । किन्तु करुणमें पुनर्मिलनकी सम्भावना नहीं रहती है । रामचन्द्रके जीवन में सीता हरणके बादका प्रसंग विप्रलम्भ शृङ्गार का प्रसंग है और सीतानिष्कासनके बादका प्रसंग करुणरसका प्रसंग है । इसी भेदको महाकवि भवभूतिने उत्तर रामचरितमें इस प्रकार दिखलाया है
उपायानां भावादविरलविनोदव्यतिकरैः, विमर्दैीराणां जनितजगत्यभुतरसः। वियोगो मुग्धाक्ष्याः स खलु रिपघातावधिरभूत्,
कटुस्तूष्णीं सयो निरवधिरयं तु प्रविलयः ।। करुण तथा विप्रलम्भ दोनोंमें प्रियजनका वियोग होता है । उस वियोगमें दोनों जगह दुःखी व्यक्ति रुदन विलाप प्रादि करता है। पर इन दोनोंका भेद कराने वाली सीमारेखा मृत्यु है । मृत्युके पहले वाला वियोग विप्रलम्भका क्षेत्र है और मृत्युके बादका वियोग करुण का क्षेत्र है। विप्रलम्भशृङ्गारमें पति-पत्नीका वियोग होता है, पर किसीका मरण नहीं होता है। इसलिए उस वियोगको अवस्थामें किया जाने वाला रुदन और विलापादि सब विप्रलम्भशृङ्गारको सीमामें प्राता है। किन्तु जहाँ किसी एकको मृत्यु हो जानेके बाद उसा प्रकारका रुदन और विलाप पाया जाता है वह सब करुणकी सीमामें पाता है। करुण रसको सीमाका निर्धारण करने वाला यह मृत्यु कभी वास्तविक भी होता है और कभी अवास्तविक भी हो सकता है। प्रवास्तविक मृत्युका अभिप्राय यह है कि वास्तवमें मृत्यु तो नहीं हुई है किन्तु किसी कारणसे पति-पत्नी दोनों में से किसी एकने अपने दूसरे साथी की मृत्यु समझ ली है। जैसे रामचन्द्रने सीताको बनमें भिजवा देनेके बाद यह समझ लिया है कि 'कव्याद्भिरङ्गलतिका नियतं विलुप्ता' सीताके शरीरको निश्चय ही जंगलके मांसभक्षी सिंहादि प्राणी खा गए हैं। यद्यपि सीता मरी नहीं है किन्तु रामचन्द्रने उसको मरा हुमा ममझ लिया है । फलतः उत्तररामचरितमें किया गया रामचन्द्रका सारा विलाप करुणरसका विषय, और उत्तररामचरितको करुणरस प्रधान नाटक माना जाता है। इसीलिए उत्तररामचरितमें सीताके इस वियोगको "निरवधिरयं तु प्रविलयः' कहा गया है ।
रसका श्राश्रय
इस प्रकार ग्रंथकारने यहाँ तक रसोंको सुखात्मक और दुःखात्मक दो वर्गोमें विभक्त करते हुए सारे रसोंको सुखात्मक माने जानेके सिद्धांतका विस्तारपूर्वक खण्डन किया है। अब प्रागे और व्याख्या प्रारम्भ करते हैं । इसमें भी पहिली पंक्तिमें रसोके पाश्रयका निरूपण करते हुए लिखते हैं कि
और रस [मुख्य लोकगत प्रर्थात] अनुकार्यगत [अर्थात् रागादिगत होता है अथवा सामाजिकगत होता हैं [अर्थात मुख्य रूपसे नटमें रस नहीं रहता है और काव्यमें [काव्यके] श्रोता अथवा निर्माता [अनुसन्धायक इन दोमें रहता है। [मागे कारिकामे प्राए हुए 'स्पंडातुभावनिश्चेयः' पदको व्याख्या करते हैं ] स्पष्टा' इससे स्पष्ट अर्थात भली प्रकारसे मिलीत
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२६४ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० १०६, सू० १६३ परस्थानपि रसानवबोधयन्तीति श्रनुभावाः । स्तम्भ-स्वेद-अश्रु-रोमाञ्च-नक्षेप - श्रादयः । तैर्यथासम्भवं सत्तया निश्चेयः ।
इह तावत् सर्वलोकप्रसिद्धा परस्थस्य रसस्य प्रतिपत्तिः । सा च न प्रत्यक्षा चेतोधर्माणामतीन्द्रियत्वात् । तस्मात् परोक्षैव । परोक्षा च प्रतिपत्तिरविनाभूताद् वस्त्वन्तरात् । अत्र च रसेऽन्यस्य वस्त्वन्तरस्यासम्भवात् कार्यमेवाविनाकृतम् ।
[अनुभावोंके द्वारा रसका निश्चय होता है]। क्योंकि प्रसंदिग्ध हो लिङ्ग [धनुमापक] होता है । [आगे इस पदमें प्राए हुए 'अनुभाव' पदकी व्युत्पत्ति दिखलाते हैं] अनुभव कराते हैं अर्थात् दूसरे में रहने वाले रसोंको लक्षित करते हैं इसलिए [' अनुभावयन्ति इति धनुभावा:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार ] स्तम्भ, स्वेद, प्रभु, रोमाच, भ्रूक्षेप प्रादि 'अनुभाव' [कहलाते] हैं। उनके द्वारा यथासम्भव सद्रूपमें निश्चय किया जानेवाला [रत्यादि स्थायिभाव रस कहलाता है ] । यहाँ [काव्य नाटक आदिमें] दूसरे [ रामादि] में रहने वाले रसको प्रतीति सारे लोक में प्रसिद्ध है। [ वह प्रन्तः कररणवर्तिनी होती है ।] और प्रन्तःकरणके धर्मोके इन्द्रियग्राह्य न होनेसे प्रत्यक्ष नहीं कही जा सकती है। इसलिए परोक्ष रूप ही है । और परोक्ष प्रतीति उससे विनाभूत [ प्रर्थात् जिसके विना वह प्रतीति नहीं बन सकती है इस प्रकार के [शब्द या लिङ्ग प्रादि रूप ] अन्य वस्तुके द्वारा होती है। और रसमें [ इस प्रकारकी ] श्रन्य वस्तुका सम्भव न होनेसे उसका कार्य [प्रर्थात् मनुभावादि] ही [रसके] प्रविनाभूत है। इसलिए उन्होंके द्वारा रसकी प्रतीति होती है] ।
इस पंक्ति में ग्रंथकारने यह कहा था कि अनुभावादि कार्य हो रसके श्रविनाभूत या नान्तरीयक होते हैं इसलिए उनके द्वारा ही रसकी प्रतीति होती है । इसपर यह शंका उपस्थित की जा सकती है कि अनुभावादिको रसका नान्तरीयक या अविनाभूत नहीं कहा जा सकता है । इसका कारण यह है कि रसका अविनाभूत केवल उनको कहा जा सकता है जो रसके बिना हो ही न सकें । स्तम्भ स्वेदादि श्रनुभावोंकी वह स्थिति नहीं हैं । दे तो रसके बिना भी हो सकते हैं। जैसे अभी ऊपर कहा जा चुका है कि ग्स या तो मुख्य लोक श्रर्थात् रामादिमें रहता है प्रथवा प्रेक्षक श्रर्थात् सामाजिक में रहता है नटमें रस मुख्य रूप से नहीं रहता है । किन्तु रसका अभाव होनेपर भी नटमें स्तम्भ स्वेदादि अनुभाव पाए जाते हैं । इसलिए वे रसके अविना भूत या नान्तरीयक नहीं है। तब उनसे रसकी प्रतीति कैसे हो सकती है ? इस शंकाका समाधान ग्रन्थकार दो प्रकारसे करते हैं । पहिला समाधान तो यह है कि हम नटगत स्वेदादि अनुभावोंके द्वारा रसकी अनुभूति नहीं मानते हैं। क्योंकि हमने 'कार्यमेवाविनाभूतं' कहा है । हम रसके कार्यरूप अनुभावोंको रसका अविनाभूत कहते हैं । नटगत स्तम्भादि रसके कार्य नहीं अपितु कारण है । नटगत स्तम्भ - स्वेदादिको देखकर प्रेक्षक या सामाजिक में रसानुभूति होती है । इसलिए नटगत स्तम्भ-स्वेद अश्रु आदि सामाजिकगत रसके कारण हैं, कार्य नहीं । प्रेक्षकगत प्रश्रु श्रादि उसके कार्य हैं । उन प्रेक्षकगत अनुभावादिको देखकर दूसरोंको परस्थ रसकी पतीति होती है । यह ग्रन्थकार के द्वारा प्रस्तुत किए गए प्रथम समाधानका अभिप्राय है ।
इस समाधान के विषयमें एक बात विशेष रूपसे ध्यान देनेकी यह है कि यहाँ ग्रन्थकार ने प्रेक्षकगत अनुभावादिको कार्यरूप कहा है, और उनके द्वारा 'परस्थ' रसकी प्रतीतिका
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का० १०६, सू० १६३ ] तृतीयो विवेंक:
[ २६५ परगतविभावाद्यनुक्रियायां च पररज्जनार्थ प्रवृत्तस्य नटस्य रसाभावेऽपि स्तम्भस्वेदादयो भवन्तीति, नैषां रसनान्तरीयकत्वमाशङ्कनीयम् । तेषां परगतरसजनकत्वेनाकार्यत्वात् । नटगता हि स्तम्भादयः प्रेक्षकगतरसानां कारणम् । प्रेक्षकगतास्तु कार्याणि ।
परोदं चार्थं बुभुत्सुना परोक्षार्थ-नान्तरीयके लिङ्गस्वरूपे निपुणेन प्रतिपत्त्रा भाग्यम। उपपादन किया है । यह सिद्धांत अन्य सिद्धांतोंसे विलक्षण है । अन्य सिद्धांतोंमें रसको साक्षात्कारात्मक ब्रह्मानन्द-सहोदर माना गया है। परन्तु यहाँ रसकी परोक्षात्मक मौर परस्थ प्रतीतिका उपपादन किया गया है।
पंक्तियों का अर्थ निम्न प्रकार है
दूसरोंके मनोरञ्जनकेलिए, दूसरोंमें [अर्थात् अनुकार्य राम प्रादिमें] रहनेवाले विभावके अनुकरणमें प्रवृत्त होनेवाले नटमें रसका प्रभाव होनेपरभी स्तम्भ स्वेदावि [अनुभाव] होते हैं इससे उनके रसके अविनाभूत न होनेकी शङ्का नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वे [अर्थात् नटगत स्तम्भ स्वेदादि अनुभाव] परगत [अर्थात् सामाजिकमें रहनेवाले] रसके जनक होनेसे [रसके] कार्य नहीं [अपितु कारण होते हैं। नटगत स्तम्भ प्रादि सामाजिकगत रसोंके कारण होते हैं। सामाजिकगत [स्तम्भ प्रावि] के [रस के] कार्य होते हैं । अनुमितिवाद
__ ग्रन्थकारने यहाँ यद्यपि नामतः किसीके मतका उल्लेख नहीं किया है किन्तु उनके इस लेखसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस विषय में शंकुकके अनुमितिवादका अनुसरण कर रहे हैं । परन्तु इनका अनुमितिवाद भी भरत सूत्रके व्याख्याता प्राचार्य शंकुकके अनुमितिवादसे कुछ भिन्न-सा है। शंकुकके मतमें नटगत अनुभावादिसे रसकी अनुमति मानी गई है । परन्तु यहाँ सामाजिकगत अनुभावादिके द्वारा उसकी अनुमतिका प्रतिपादन किया गया है ।
परोक्ष अर्थको जाननेको इच्छा रखने वालेको परोक्ष प्रर्थके अविनाभूत लिंगके स्वरूपके समझने में निपुण ज्ञाता होना चाहिए।
इस पंक्तिका अभिप्राय यह है कि परस्थ रसका अनुमान करने वाला व्यक्ति इस विषयको भली प्रकार समझता हो कि अमुक प्रकारके अनुभाव अमुक प्रकारकी मनःस्थिति में होते हैं। तभी वह सामाजिक या प्रेक्षकगत विशेष प्रकारके अनुभावोंको देखकर उसमें शृङ्गार वीर मादि विशेष रसोंका अनुमान कर सकता है। इस प्रकार ग्रन्थकारने यहाँ परगत रसके अनुमानका प्रकार तो दिखला दिया। किन्तु प्रेक्षकगत अनुभावादिसे रसकी प्रतीति किसको होती है यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है। सभी प्रेक्षकोंको एक-दूसरेमें रहने वाले रसकी परोक्ष प्रतीति होती है यही एक समाधान इस प्रश्नका हो सकता है किन्तु वह कुछ उचित प्रतीत नहीं होता है । रसको प्रतीति सामाजिकको साक्षात्कारात्मक होती है तभी उसका प्रास्वादन बन सकता है। परोक्ष ज्ञानको प्रास्वादन नहीं कहा जा सकता है । अतः यह सिद्धांत युक्तिसंगत नहीं है। दूसरा समाधान, नटमें अनुभावोंकी स्थिति
अनुभावोंके द्वारा रसकी प्रतीति होती है इस सिद्धांत के विषय में यह शंका उठाई गई थी कि अनुभावोंको रसोंका प्रविनाभूत या नान्तरीयक नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि
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२६६ ]
नाट्यदर्पणम् । का० १०६, सू० १६४ ___नटेऽपि च रसं गमयन्त्येव यदा रसकार्या भवन्ति । न च. नटस्य रसो न भवतीत्येकान्तः । पण्यस्त्रियो हि धनलोभेन पररत्यर्थ रतादि विपन्चयन्त्यः कदाचित् स्वयमपि परां रतिमनुभवन्ति । गायनाश्च परं रजयन्तः कदाचित् स्वयमपि रज्यन्ते । एवं नटोऽपि रामादिगतं विप्रलम्भाद्यनुकुर्वाण: कदाचित् स्वयमपि तन्मयीभावमुपयात्येवेति तद्गता अपि रोमाञ्चादयस्तत्र रसं गमयेयुरेव । अत एव 'स्पष्टानुभाव' इत्युक्तम् । .
रोमाञ्चादयश्च ये स्त्री-पुस-नट-काव्यस्थास्ते परेषां रसजनकत्वाद् विभावमध्यवर्तिनः । प्रेक्षक-श्रोतृ-अनुसन्धात्रादिस्थितास्तुरसस्य कार्याणि सन्तो व्यवस्थापकाः ।
यत्र विभावाः परमार्थेन सन्तः प्रतिनियतविषयमेव स्थायिनं रसत्वमापादयन्ति, तत्र नियतविषयोल्लेखी रसास्वादप्रत्ययः । युवा हि रागवती युवतिमवलम्ब्य तद्विषयामेव रतिं शृङ्गारतयास्वादयति । नटमें रसके न होनेपर भी अनुभाव उत्पन्न होते हैं। तब जिन अनुभावोंकी रसके साथ ध्याप्ति या अविनाभाव ही नहीं है उनसे रसकी प्रतीति या अनुमिति कैसे हो सकती है ? इस शंकाका एक समाधान ग्रन्थकारने यह दिया कि नटगत अनुभावोंसे रसकी प्रतीति नहीं होती है अपितु प्रेक्षकगत कार्यभूत अनुभावोंसे रसकी प्रतीति होती है। अब इसी विषयमें दूसरा समाधान यह दे रहे हैं कि नटमें रस नहीं होता है यह बात भी नहीं है। नटमें भी रस हो सकता है । इसलिए नटगत अनुभाव भी रसके पविनाभूत हैं । इसी बातको प्रन्थकार अगली पंक्तियों में निम्न प्रकार लिखते हैं
[नटमें रहने वाले अनुभावारि] जब [नटगत] रसके कार्य [अर्थात् नटगत रससे उत्पन्न होते हैं तब वे नटमें भी रसका अनुमान कराते हैं। और नटमें रस होता ही नहीं है यह कोई नियम नहीं है। वेश्याएं जो घनके लोभसे दूसरोंको [भोगके लिए] रति प्रादिका भवसर देती हैं कभी स्वयं भी अत्यन्त मानन्दका अनुभव करती हैं । और गाने वाले दूसरोंके मनोरंजनके लिए गाते हुए कभी स्वयं भी मानन्द-मन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार नट भी रामादिगत विप्रलम्भशृङ्गारका अनुकरण करते हुए कभी स्वयं भी तन्मयीभावको प्राप्त हो हो जाता है । इसलिए उसमें रहने वाले रोमांच मादि [अनुभाव] भी [उसके भीतर रहने वाले] रसका अनुमान कराते हैं । इसीलिए [कारिकामें] 'स्पष्टानुभावनिश्चयः' यह कहा गया है। [मर्थात प्रेक्षकमें या मटमें जहाँ भी रसके कार्यभूत अनुभव स्पष्ट रूपसे प्रतीत हों वहीं ये रसका अनुमान करा सकते हैं।
[लोकमें] स्त्री, पुरुष, नट, तबा काव्यमें स्थित जो रोमाञ्च आदि [अनुभाव होते है वे अन्योंमें [स्थित] रसके जनक होनेसे [रसके कारणभूत] विभावोंमें [गिने जाते हैं। [इसके विपरीत नाटकादि दृश्य-काव्यक] प्रेक्षक [भव्य-काव्यके] श्रोता तथा [उन दोनोंके] अनुसन्धाता [अर्थात् निर्माता कवि]में स्थित [रोमाञ्चादि] तो रसके कार्य रूप होनेसे [रसके व्यवस्थापक अर्थात् निश्चायक होते हैं।
जहां [अर्थात् लोकमें] वास्तविक रूपमें स्थित विभाव [सीता राम मावि निश्चित व्यक्ति-विशेषमें [रति प्रावि रूप] स्थायिभावको रसरूपताको प्राप्त कराते हैं वहां रसका मास्वाद नियत व्यक्तिविशेषमें होता है। जैसे कि [लोकमें कोई] युवक किसी युवतिको लेकर
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का० १०६, सू० १६४ ]
तृतीयो विवेकः
[ २६७
यत्र तु परानुरक्तां वनितामवलम्ब्य सामान्यविषया रतिरुपचयमुपैति, तत्र न नियतविषयः शृङ्गाररसास्वादः । विभावानां सामान्यविषये स्थाय्याविर्भावकत्वात् । बन्धुशोकार्ता च रुदतीं स्त्रियमवलोक्य सामान्यविषय एव करुणरसास्वादः । एवमन्येष्वपि रसेषु विशेष - सामान्य विषयत्वं द्रष्टव्यम् ।
उसके विषय में अपनी रतिको श्रृङ्गाररसके रूपमें आस्वादन करता है। [इसी प्रकार लोकमें वास्तविक रूपसे विद्यमान सीता-रामादि रूप विभावमें नियत विशेषसे सम्बद्ध रूपमें ही रसास्वादको अनुभूति होती है। यहाँ रसकी प्रतीति विशेष विषयक और लौकिकी हुई । आगे सामान्य विषयक रसकी प्रतीतिको प्रलौकिकता का उपपादन करते हैं ] ।
जहाँ [लोकमें वास्तविक रूपमें स्थित, पर] अन्य में अनुरक्त वनिताको [अर्थात् परकीया नायिका ] को लेकर [ अनेक व्यक्तियों में ] सामान्य विषयक रति परिपोषरण होता है वहाँ नियत व्यक्तिविशेषसे सम्बद्ध रूपमें श्रृङ्गाररसका प्रास्वाद नहीं होता है [अर्थात् एक स्त्रीसे अनेक व्यक्तियों को सामान्यरूपसे शृङ्गारानुभूति होती है] क्योंकि [ऐसे उदाहरणों में स्त्री प्रादि रूप ] विभावोंसे सामान्य रूपसे [अनेक व्यक्ति विषयक रतिका प्रावि] स्थायिभाव का प्राविर्भाव होनेसे [सामान्य-विषयक हीं रसास्वाद होता है] । इसी प्रकार अपने किसी प्रिय बन्धुके वियोगसे पीड़ित युवतिको रोते हुए देखकर [ देखने वाले अनेक व्यक्तियोंको ] सामान्य विषयक ही करुणरसका श्रास्वाद होता है। [इस प्रकार इन दो उदाहरणोंके द्वारा ग्रन्थकारने यह दिखलाया है कि शृङ्गार और करुण दोनों रसोंकी सामान्य-विषयक तथा विशेष विषयक दोनों प्रकारकी स्थिति होती है। यही बात श्रन्य रसोंके विषयमें भी समझनी चाहिए। इसी बात को अगली पंक्ति में लिखते हैं] । इसी प्रकार ग्रन्य रसोंमें भी सामान्यविषयत्व और विशेष विषयत्व समझ लेना चाहिए ।
यह जो रसोंका सामान्य विषयत्व तथा विशेष विषयत्व दिखलाया है वह वास्तविक रूपसे विद्यमान परमार्थेन सन्तः ' विभावादिके द्वारा उत्पन्न रसोंके विषय में कहा गया है । 'परमार्थसतां' वास्तविक रूप में विद्यमान विभावादिकी स्थिति लोक में ही होती है, काव्य नाटक आदिमें नहीं । इसलिए यह सामान्य और विशेषगत द्विविध रसोंकी स्थिति भी लोक में ही हो सकती है । काव्य या नाटकमें नहीं । काव्य और नाटक में साधारणीकरण व्यापार द्वारा सामान्य रूपसे अनेक व्यक्तियोंमें रसकी अनुभूति होती है। इस बातको अगले प्रकरण में दिखला रहे हैं । किन्तु यहाँ एक बात विशेषरूपसे ध्यान देने योग्य है और वह यह बात है कि अन्य आचार्योंने रसको अलोकिक माना है। लोकमें होने वाली स्त्री-पुरुषकी परस्पर रतिको अन्य प्राचार्योंने रस नहीं माना है । काव्य नाटकमें होने वाले विभावादिको ही उन लोगोंने विभावादि शब्दसे कहा है । उनके मत में विभावादि शब्द भी लोकके नहीं काव्य नाटकके क्षेत्र में ही सीमित शब्द है । यहाँ ग्रन्थकारने लौकिक स्त्री-पुरुष श्रादिको भी ' विभावादि' शब्दोंसे और उनकी रति आदिको भी 'रस' शब्द से निर्दिष्ट किया है । इसीलिए उन्होंने सामान्य विषयक और विशेष विषयक द्विविध रसोंकी स्थिति मानी है। उनका यह सिद्धान्त अन्य प्राचार्योंसे विलक्षण है ।
इस प्रकार लौकिक रसादि विषयक विवेचना करनेके बाद अब ग्रन्थकार भगले प्रकरण में काव्य-नाटकगत रसोंकी विवेचना करते हुए लिखते हैं
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नाट्यदर्पणम् का० १०६, सू० १६३ ये पुनरपरमार्थसन्तोऽपि काव्याभिनयाभ्यां सन्त इवोपनीता विभावास्ते श्रोतृअनुसन्धात प्रेक्षकाणां सामान्यविषयमेव स्थायिनं रसत्वमापादयन्ति । अत्र च विषयविभागानपेक्षीरसास्वादप्रत्ययः।न हिरामस्य सीतायांशृङ्गारेऽनुक्रियमाणे सामाजिकस्य सीताविषयः शृङ्गारः समुल्लसति । अपि तु सामान्यस्त्रीविषयः । नियतविषयस्मरणादिना स्थायिनः प्रतिनियतविषयतायां तु प्रतिनियतविषय एव रसास्वादः ।
तथा अपरमार्थसतां,' अभिनय-क्राव्याप्तिानां च विभावानां बहुसाधारणत्वाद् य एकस्य रसास्वादः सोऽन्याप्रतिक्षेपात्मा, इत्ययोगव्यवच्छेदेन न पुनरन्ययोगव्यवच्छेदेन।
और वास्तविक रूपमें न होनेपर भी काव्य या अभिनय [नाटक] के द्वारा विद्यमानसे प्रतीत होनेवाले जो विभावावि हैं वे [काव्यके] श्रोता, अनुसन्धाता [अर्थात् निर्माता तथा प्रेक्षक [तीनोंमें] सामान्य विषयक स्थायिभावको ही रसरूपताको प्राप्त कराते हैं। यहां [मर्थात् काव्यनाटकमें] विषय-विभागको अपेक्षा न करने वाला रसास्वाद होता है। [अर्थात काव्य नाटक प्राविमें सामान्य-विषयक और विशेष-विषयक दो प्रकारका रसोदकोष नहीं होता है। रामके सीता-विषयक शृङ्गारका अनुकरण होनेपर सामाजिकमें सीता-विषयक [अर्थात् व्यक्ति विशेषसे सम्बन] शृङ्गारानुभूति नहीं होती है अपितु सामान्य स्त्री-विषयक [शृङ्गारकी ही अनुभूति होती है। लोक नियत विषयके विद्यमान न होनेपर भी] नियत विषयके स्मरणादि से नियत-विषयक [अर्थात उस स्मर्यमारण व्यक्ति-विशेषसे सम्बद्ध] ही रसास्वाद होता है।
अर्थात् लोकमें भी विभावादिको वास्तविक रूपसे विद्यमान पोर वास्तविक रूपसे पविद्यमान होनेपर भी स्मर्यमाण, दो रूपों में स्थिति हो सकती है । और उनसे विशेष-विषयक अर्थात् विशेष-व्यक्तिसे सम्बद्ध रूपमें भी रसानुभूति हो सकती है। किन्तु काव्य और नाट्य में विभावादि वास्तविक रूपमें विद्यमान नहीं होते हैं। केवल काव्य तथा अभिनयके द्वारा समर्पिन्न होते हैं। इसलिए उनसे विशेष-विषयक रसानुभूति न होकर सामान्य-विषयक रसानुभूति ही होती है । इस बातको अगली पंक्तियोंको इस प्रकार लिखते हैं---
और वास्तवमें अविद्यमान किन्तु [केवल] काव्य तथा अभिनयकेद्वारा समर्पित विभावोंके अनेक पुरुषोंके लिए समान होनेसे [बहुसाधारणत्वात्] जो.[उन बहुतसे सामाजिकोंमेंसे किसी एकका रसास्वाद है वह अन्यका प्रतिक्षेपक रूप [अर्थात् अन्योंकी रसानुभूतिमें बाधक न होने से[उस विशेष सामाजिकमें] अयोगव्यवच्छेदसे [अर्थात् प्रवश्य] रहता है, प्रन्ययोग-व्यवच्छेदक [अर्थात् अन्यों में उसकी स्थितिमें बाधक बनकर] नहीं रहता है।
यहाँ 'य एकस्य रसास्वादः सोऽन्याप्रतिक्षेपात्मा इत्ययोगव्यवच्छेदेन न पुन रन्ययोगव्यवच्छेदेन' यह सारी पंक्ति तनिक क्लिष्ट पंक्ति है। पंक्तिके प्रारम्भमें 'तथा परमार्थसतो' पद भी संदिग्ध-सा या भ्रमजनक हो सकता है । उसमें 'तथा' के मागे 'परमार्थसतां' पदावेद न करके तथा अपरमार्थसतां' इस प्रकारका पदच्छेद करना चाहिए। क्योंकि काव्य नाटक पादिमें जो विभावादि होते हैं वे 'परमार्थसत्' वास्तविक रूप में विद्यमान नहीं होते हैं। इसलिए यहाँ 'तथा अपरमार्थसतां' यही पदच्छेद करना उचित है । इसके बाद 'य एकस्य रसास्वादः सोन्यान् प्रति क्षेपात्मा' इस प्रकारका पाठ पूर्व संस्करणमें छपा था। पूर्व पाठके समान १. परमार्थसतां:
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का० १०६, सू० १६३ ] तृतीयो विवेकः
— एवं च लोके काव्ये वा सर्वरसिकसाधारण रसास्वादो न पुनः सर्वथाप्याधारानुल्लेखी। आधारोल्लेखनिरपेक्षाथाश्चित्तवृत्तेः कस्याश्चिदनुपलक्षणात् । चित्तवृत्तिविशेषश्च रसः। यह पाठ भी अत्यन्त भ्रामक पाठ है। मूल पाण्डुलिपिमें तो यहाँ 'सोऽन्याप्रतिक्षेपात्मा' पाठ था। किन्तु पूर्व संस्करणके सम्पादक महोदयने 'सोऽन्यान् प्रति क्षेपात्मा' यह पाठ सुझाया है । किन्तु यह पाठ ठीक नहीं है। 'सोन्याप्रतिक्षेपात्मा' यही ठीक है । इसका अभिप्राय यह है कि काव्य-नाटक में समर्पित विभावादिसे जो एक व्यक्तिको रसास्वाद होता है वह भन्योंका प्रतिक्षेप नहीं करता है। अर्थात् प्रत्योंकी रसप्रतीतिका बाधक या निषेध करने वाला नहीं होता है। काव्य नाटकमें जिस समय किसी एक व्यक्तिको रसास्वाद हो रहा है उसके साथ ही अन्य अनेक व्यक्तियों को भी रसास्वाद होता है । इसी बातको ग्रन्थकारने यहाँ 'सोऽन्याप्रतिक्षेपात्मा' पदसे दिखलाया है । इसलिए यही पाठ ठीक है । पूर्व-संस्करणमें सुझाया गया पाठ ठीक नहीं है।
पब आगे 'प्रयोगव्यवच्छेदेन न पुनरन्योगव्यवच्छेदेन' वाली पंक्ति पाती है। इसका मभिप्राय यह है कि काव्य नाटकमें जो एक व्यक्तिका रसास्वाद होता है वह 'अयोगव्यवच्छेदेन' उस विशेष व्यक्तिका होता है 'प्रन्ययोगव्यवच्छेदेन' नहीं। 'प्रयोगव्यवच्छेद' का अर्थ उस व्यक्तिमें रसके प्रयोग अर्थात् प्रभावका व्यवच्छेदक अर्थात् निषेधक अर्थात उसमें सद्भावका सूचक रूप होता है । इसमें 'प्रयोग' और 'व्यवच्छेदक' दो शब्द पाए हैं। इन दोनोंका अर्थ अभाव-परक है । प्रभावका प्रभाव अर्थात् भाव होता है । दो निषेधोंके एक साथ प्रयुक्त होने पर उनका अर्थ भाव हो जाता है। यहाँ प्रभाव परक 'प्रयोग' तथा 'व्यवच्छेदक' दो शब्दोंका एक साथ प्रयोग होनेसे उनका अर्थ भाव रूप बन जाता है । अर्थात् काव्य और नाटकोंमें जो एक व्यक्तिका रसास्वाद होता है वह उस व्यक्तिमें रसकी सत्ताका ही बोधक होता है।
'न पुनरन्ययोगव्यवच्छेदेन' यह इस पंक्तिका दूसरा भाग हैं। इसका अर्थ 'अन्ययोग' अर्थात् अन्योंके साथ सम्बन्धका 'व्यवच्छेदक' अर्थात् निषेधक रूपमें 'न' प्रर्थात् नहीं है यह होता है । अर्थात् काव्य नाटकोंमें जो एकका रसास्वाद होता है वह 'मन्ययोगव्यवच्छेदक' प्रर्थात् अन्य व्यक्तियोंके साथ उस रसके सम्बन्धके निषेधकके रूपमें नहीं होता है। अर्थात् काध्य नाटक में एक व्यक्तिके रसास्वादका अर्थ यह नहीं हो सकता है कि अन्य किसीको रसास्वाद न हो। लोकमें तो स्सास्वाद विशेष व्यक्तियों तक सीमित भी हो सकता है। उस दशामें एक व्यक्तिका रसास्वाद अन्य व्यक्तियोंके रसास्वादमें बाधक हो सकता है। किन्तु काव्य नाटकमें एक ही सामग्रीसे एक व्यक्तिको जो रसास्वाद होता है वह उसी सामग्रीसे अन्योंके होने वाले रसास्वादमे बाधक नहीं होता है । यह ग्रन्थकारका मभिप्राय है।
__ इस प्रकार लोकमें और काव्यमें [दोनों जगह सब रसिकोंके लिए साधारण स्पसे रसास्वाद होता है। [लोकमें विशेष-विषयक रसास्वाद केवल विशेष रसिक तक सीमित होता है। किन्तु सामान्य विषयक रसास्वाद रसिकमात्रसे सम्बन्ध रखता है। इस अभिप्रायसे 'सर्वरसिकसाधारणः' कहा है । रसके माधारका सर्वथा अमुल्लेख करने वाला नहीं होता है भाषारका उल्लेख जिसमें न हो इस प्रकारको किसी भी चित्तवृत्तिके न पाए जानेसे [चित्तवृत्ति के माधारके उल्लेखसे रहित रसानुभूति नहीं हो सकती है। चित्तवृत्तिका मापार रसिक
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३०० }
नाट्यदर्पणम्
[ का० १०६, सू० १६३ छात्र च रत्यादेर्विभावैराविर्भूतस्य पोषकारिणो व्यभिचारिणो रसिकगता एव ग्राह्याः । यदा हि विभावैः ख्यादिभिः, काव्यनाट्यगतैर्वा अन्यस्य रत्यादयो रसोन्मुखत्वेनोन्मील्यन्ते, तदा यथायोगं व्यभिचारिणोऽपि तत्र प्रादुःषन्ति । न हि ख्यादिचिन्तां शृङ्गारो, धृतिं हास्यो, विषादं करुणो, श्रमर्ष रौद्रो, हर्ष वीरः, त्रासं भयानकः, शंकां बीभत्सः, श्रौत्सुक्यमद्भुतो, निर्वेदं शान्तः सहचारिणं बिना प्रादुर्भवति ।
श्रन्यगतचेतसो विरक्तचेतसो वा वाक्यार्थावबोधे वनितादिदर्शनेऽपि वा चिन्ताद्यभावे रसाभावात् । सौक्ष्म्या दाशुभावाच्च क्वचिदनुपलक्षणेऽपि न दोषः । प्रादुर्भूताश्च व्यभिचारिणो रसोन्मुखं स्थायिनं पोषयन्तो रसत्वमापादयन्ति । अत एव रसत्वोन्मुखानां स्थायिनां व्यभिचारिणः सहचारिणो, विभावास्तु प्राग्भाविनः ।
है। जिसकी चितवृत्ति हो वह व्यक्ति उस चितवृत्तिका प्राधार हुआ ।] चित्तवृत्ति-विशेष ही रस है । [ इसलिए इस प्रतीति में उसके प्राधारभूत रसिकका सम्बन्ध अवश्य रहता है। यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है ] ।
मौर यहां विभावोंसे प्राविर्भूत होने वाले रति आदि [ स्थायिभाव ] को पुष्ट करने वाले व्यभिचारिभाव रसिकगत हो लेने चाहिए। [ नटगत या अनुकार्यगत व्यभिचारियों से सामाजिकगत रत्यादिको पुष्टि नहीं होती हैं यह अभिप्राय है ] । जब [लोकमें] स्त्री प्रादि विभावों से, अथवा काव्य नाट्यगत विभावोंसे दूसरोंको रत्यादिका रसोन्मुख रूपसे उन्मीलन होता है तब [उन सामाजिकों] के भीतर यथोचित व्यभिचारिभावोंका भी आविर्भाव होता है । क्योंकि स्त्री प्रादिकी चिन्ता [ रूप व्यभिचारिभाव ] के बिना शृङ्गाररस, धृति [ रूप . व्यभिचारिभाव] के बिना हास्य, विवाद [ रूप व्यभिचारिभाव ] के बिना करुण, अमर्षके बिना रौद्र, हर्षके बिना वीर, त्रास [रूप सहचारी] के बिना भयानक, शंका [रूप सहचारी] के बिना बीभत्स, श्रौत्सुक्य [रूप सहचारी] के बिना श्रद्भुत और निर्वेद [रूप सहचारी ] के बिना शान्तका प्राविर्भाव नहीं हो सकता है। क्योंकि चित्तके दूसरी ओर लगे होनेपर प्रथवा विरक्तचित्तको चिन्तादि [ सहचारियों] के प्रभाव में [काव्य नाटकके] वाक्योंके अर्थका ज्ञान होने अथवा [ साक्षात् रूपमें] स्त्री प्रादिके दर्शन होनेपर भी शृङ्गार रसको अनुभूति या उत्पत्ति नहीं होती है । [ कहीं यदि चितादिके बिना भी रसकी प्रतीति अनुभव हो तो वहाँ यह समझना चाहिए कि] सूक्ष्म होनेके कारण अथवा प्रत्यन्त शीघ्रताके काररण [उन सहचारियोंको स्थिति होनेपर भी] उनके न दिखलाई देनेके कारण उसमें कोई दोष नहीं प्राता है । [ इस प्रकार लौकिक स्त्री प्रादि विभावों अथवा काव्य नाटकगत विभावोंसे रसिकोंमें] प्रादुर्भूत होने वाले व्यभिचारिभाव रसोन्मुख स्थायिभावको पुष्ट करते हुए [उसको ] रसत्वको प्राप्त कराते हैं । इसीलिए व्यभिचारिभाव रसोन्मुख स्थायिभावोंके सहचारी [कहलाते] हैं । और विभाव तो [स्थायिभावोंके ] पूर्ववर्ती [अर्थात् कारण कहलाते ] हैं ।
रसके लक्षणकी कारिकामें ग्रंथकारने 'श्रितोत्कर्षो विभावव्यभिचारिभिः यह कहा था । इसमें व्यभिचारिभावसे ग्रंथकार रसिकगत व्यभिचारिभावोंका ग्रहण करना चाहते हैं । यद्यपि व्यभिचारिभाव नटादिमें भी हो सकते हैं किन्तु उन सबको वे केवल विभाव मानते हैं । मटगत अनुभाव व्यभिचारिभाव ग्रन्थकार की दृष्टिमें विभावकोटिके ही प्रन्तगंत होते हैं । इसलिए यहाँ व्यभिचारिभाव सामाजिकगत ही लेने चाहिए। इसी बात को और अधिक खोल
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का० १०६, सू० १६३ ] तृतीयो विवेकः
[ ३०१ ये पुनः स्त्र्यादिगताः काव्याभिनयोपदर्शिताश्च व्यभिचारिणोऽनुभावा वा ते परस्मिन् रसोन्मुखत्वेन स्थायिनमुन्मीलयन्ति । ते विभावा एव जनकत्वात्। व्यमिचारि-अनुभावव्यपदेशः पुनरेतेषां स्त्याद्यपेक्षया, वर्णनीयानुकार्यापेक्षया च ।
. यदप्युच्यते-'विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पत्तिः' इति तत्राप्यनुभावा व्यभिचारिणश्च त्यादिवर्णनीयानुकार्यापेक्षयैव द्रष्टव्याः।
.. तदेवं स्व-परयोः प्रत्यक्ष-परोक्षाभ्यांगमः सुख-दुःखात्मा (१) लोकस्य (२) नटस्य (३-४) काव्य-श्रोतृ-अनुसन्धात्रोः (५) प्रेक्षकस्य च रसः। केवलं मुख्यस्त्री-पुसयोः स्पष्टेनैव रूपेण रसो, विभावानां परमार्थसत्त्वात् । अत एव व्याभिचारिणोऽनुभावाश्च कर आगे लिखते हैं
और [लोकमें] जो स्त्री प्रादिमें रहने वाले अथवा [काव्य तथा नाटकमें] काव्य तथा अभिनयके द्वारा समर्पित व्यभिचारिभाव अथवा अनुभाव होते हैं वे दूसरोंके भीतर [अर्थात् सामाजिकोंके हृदयमें] स्थायिभावको रसोन्मुख बनाते हैं। इसलिए [रसानुभूतिके] कारण रूप होनेसे विभाव ही कहलाते हैं। उनके लिए व्यभिचारिभाव या अनुभाव शब्दका प्रयोग [सामाजिकको दृष्टिसे नहीं होता है अपितु लोकमें केवल स्त्री प्रादिको अपेक्षासे और [काव्य नाटकमें] वर्णनीय अनुकार्यको अपेक्षासे ही होता है । [अर्थात् अनुकार्य रामादिमें अथवा नटमें अथवा लोकमें स्त्री प्रादि निष्ठ जो अनुभाव या व्यभिचारिभाव होते हैं वे उन लोगोंकी दृष्टिसे तो अनुभाव या व्यभिचारिभाव कहे जा सकते हैं किन्तु सामाजिककी दृष्टिसे वे सब रसके कारण रूप होनेसे विभाव ही कहे जाते हैं। स्थायिभावोंकी पुष्टि के लिए यहां जिन अनुभावों तथा व्यभिचारिभावोंका ग्रहण किया गया है वे रसिकगत अर्थात् सामाजिकगत अनुभाव तथा व्यभिचारिभाव हो हो सकते हैं।
और [भारतमुनिने] जो "विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभावोंके संयोगसे रसकी निष्पत्ति होती है" यह कहा है यहाँ भी अनुभाव और व्यभिचारिभाव [लोकमें] स्त्री प्रादि [और काव्य नाटकमें] वर्णनीय अनुकार्यकी अपेक्षासे ही समझने चाहिए।
इस प्रकार ग्रन्थकारके मतमें रसकी प्रतीति या रसानुभूतिके आधार चार होते हैं । लोकमें (१) स्त्री आदि विभावोंमें भी रसकी प्रतीति होती है और (२) उनको देखने बाले प्रेक्षकोंको भी । स्त्री प्रादिकी रसानुभूति स्वगत और प्रत्यक्षात्मक होती है। प्रेक्षककी रसप्रतीति परगत और परोक्षात्मक होती है । नाटक में (३) नटको स्वगत प्रत्यक्षात्मक, रसप्रतीति और (४) प्रेक्षकको उस नटगत या परमत रसकी परोक्षात्मक प्रतीति होती है। इसी बात को अगले अनुच्छेद में निम्न प्रकार कहते हैं
इस प्रकार (१) [लोकस्य] लोकको [अंर्थात् लौकिक रूपमें स्थित पुरुषको], (२) [नटस्य अर्थात् नटको, (३) काव्य [तथा नाटक दोनों के श्रोता, तथा (४) अनुसन्धाता [अर्थात् कर्ता] को एवं (५) प्रेक्षक [सामाजिक को [इन पांचोंको दो भागोंमें विभक्त करने पर पहिले चारको एक कोटिमें रखनेसे उन चारोंके एक वर्गको स्वतः प्रत्यक्ष रूपमें तथा पांचवीं प्रेक्षक अर्थात् सामाजिकको परगत और परोक्ष रूपमें रसकी प्रतीति होती है। इसी बातको यहाँ 'स्व-परयोः प्रत्यक्ष-परोक्षाम्यां' शम्दसे कहा है] स्व तथा परको [क्रमशः] प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूपसे सुख-दुःखात्मक रस प्रतीत होता है । इसमेंसे भी [लोकमें केवल मुख्य स्त्री
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३०२ ]
नाट्यदर्प
[ का० १०६, सू० १६३
`रसजन्याः तत्र स्पष्टरूपाः । अन्यत्र तु प्रेक्षकादौ ध्यामलेनैव रूपेण । विभावानामपरमार्थ सतामेव काव्यादिना दर्शनात् । अत एव व्यभिचारिणोऽनुभावाश्च रसानु - सारेणास्पष्टा एव । अत एव प्रेक्षकादिगतो रसो लोकोत्तर इत्युच्यते ।
काव्यस्य च रसाविर्भावकविभाववत्वात् सरसत्वम् । न पुनः काव्यमेव रसः, काव्ये आधारे वा रसः । श्रितोत्कर्षो हि चेतोवृत्तिरूपः स्थायी भावो रसः । स चाचेतस्य काव्यस्यात्मा आधेयो वा कथं स्यात् ? ततः काव्यार्थ प्रतिपत्तेरनन्तरं प्रतिपतृणां रसाविर्भावः ।
प्रतिपत्तारश्चात्मस्थ सुखमिव रसमास्वादयन्ति । न पुनर्बहिःस्थं रसं मोदकमिव प्रतियन्ति । अन्यो हि मोदकस्यास्वादोऽन्यश्च प्रत्ययो रसस्य । न हि बहिस्थस्य रसस्य प्रत्ययमात्रेण रसास्वादश्चर्वणात्मकः संगच्छते । भयानक- करुणविभावाद्धि काव्यार्थात् प्रतिपत्तुश्चेतोधर्मतया स्थितौ भूय- शोकौ भयानक - करुणतया परिणमतः । यदि च प्रतिपत्तुः स्थायी एव न रसतया भवति तदा बहिःस्थस्य रसस्य प्रत्ययोऽपि न पुरुषमें विभावोंके वास्तविक होनेसे रसकी स्पष्टरूपसे प्रतीति होती है। इसलिए उनमें रससे उत्पन्न होने वाले [ रसके कार्यभूत] अनुभाव तथा व्यभिचारिभाव स्पष्टरूप होते हैं । अन्यत्र प्रेक्षक आदिमें [ ध्यामल अर्थात् ] अस्पष्ट रूपमे ही [ अनुभाव व्यभिचारिभाव होते हैं] काव्याविके द्वारा वास्तव में श्रविद्यमान विभावादिके हो उपस्थित किए जानेसे [ उनके द्वारा होनेवाली रसप्रतीति भी अस्पष्ट ही होती है] । इसीलिए [प्रेक्षकादिमें] व्यभिचारिभाव तथा अनुभाव भी रसके अनुसार अस्पष्ट ही होते हैं । अत एव प्रेक्षक आदिमें रहने वाला रस [ प्रसत् विभावोंसे उत्पन्न और अस्पष्ट अनुभाव व्यभिचारिभाव युक्त होनेसे] लोकोत्तर कहलाता है । रसके आविर्भाव करानेवाले विभावादिसे युक्त होनेसे काव्यको सरस माना जाता है । न तो काव्य हो रस है और न काव्य रूप श्राधार में रस रहता है। [इसलिए काव्यकी सरसताका उपपादन रसके श्राविर्भावक विभावादिके उसमें विद्यमानं होनेके कारण ही किया जा सकता है ] । परिपुष्ट हुप्रा चित्तवृत्ति रूप स्थायिभाव हो रस [ कहलाता ] है । वह प्रचेतन काव्यका श्रात्मा या आधेय नहीं हो सकता है । इसलिए काव्य के अर्थको समझ लेने के बाद समझने वाले [प्रेक्षक या श्रोता ] के भीतर रसका अविर्भाव होता है ।
श्रौर अनुभव करने वाले [प्रेक्षकादि ] अपने भीतर रहने वाले सुखके समान, रसका आस्वादन करते हैं। मोदक प्रादिके समान बाहर रहने वाले रसका ग्रहरण नहीं करते । मोदक प्रादिका श्रास्वादन अन्य प्रकारका होता है और रसका ज्ञान और तरहका । बाहर रहने वाले रसके ज्ञानमात्रसे चर्वणात्मक रसास्वादका उपपादन नहीं हो सकता है [ श्रर्थात् यदि मोदकादिके समान रसको बहिस्थ बाहर रहनेवाला मान लिया जाय तो उसकी चर्जरगाका उपपादन नहीं हो सकता है। इसलिए बाह्य रसका अनुभव नहीं होता है श्रपितु अनुभव करने वालेके हृदय में भीतर रहने वाले सुखादिके समान ही रसका आस्वादन होता है ] । क्योंकि भयानक तथा कररण विभावोंका वर्णन करने वाले काव्यके अर्थसे ज्ञाता [ सामाजिक ] के चित्त-धर्मके रूप में स्थित भय तथा शोक [स्थायिभाव] भयानक तथा करुण रसके रूपमें परिरगत हो जाते हैं । यदि सामाजिकका स्थायिभाव ही रस रूप न माना जाय तो फिर बाहर रहनेवाले रसकी प्रतीति भी नहीं हो सकती है । क्योंकि काव्य या नटमें या कहीं अन्यत्र रस
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का० ११०, स० १६४ ] . तृतीयो विवेकः प्राप्नोति । काव्ये नटेऽन्यत्र वा रसस्यासत्त्रात् । असतश्चापि प्रत्यये अहृदयस्यापि प्रतीतिः स्यात् । ततो विभावप्रतिपादककाव्यप्रतिपत्तेरनन्तरं प्रतिपत्तुरेव स्थायी रसो भवति । तद्धेतुत्वाच्च काव्यं रसवदिति । [७] १०६ ॥ अथ रसभेदकथनावसरेऽपि प्रस्तावागतानामनुभावादिसंज्ञानां विषयं लक्षयति[सूत्र १६४]-कार्य-हेतुः सहचारी स्थाय्यादेः काव्यवानि ।
अनुभावो विभावश्च व्यभिचारी च कीर्त्यते ॥[८]११०॥ स्थायिनां श्रादिशब्दाद् रसभावानां च षासम्भवं ये लोकसिद्धाः कार्य-हेतुसहचारिणः,ते काव्यवर्त्मनिनामनेयानभिनेय भेदाभन्ने यथासंख्यं अनुभाव-विभावव्यभिचारितंजामिः कीर्त्यन्ते । काव्यसंस्कारतिरस्कृतात्मभिः कदाचिल्लोकेऽप्येवं व्यवद्वियन्ते । तत्र अनु लिंगनिश्चयात् पश्वा भावयन्ति गमयन्ति लिङ्गिनं रसमित्यनुभावाः, स्तम्मादयः । वासनात्मतया स्थितं स्थायिनं रसत्वेन भवन्तं विभावयन्ति आविर्भावनाविशेषण प्रयोजयन्ति इति पालम्बन-उद्दीपनरूपा ललनोद्यानादयो विभावाः। रसोन्मुखं स्थायिनं प्रति विशिष्टेनाभिमुख्येन चरन्ति वर्तन्ते इति व्यभिचारिणः । आभिमुख्य रहता ही नहीं है। तो फिर उसकी प्रतीति ही कैसे हो सकेगी? और सामाजिकके भीतर] विद्यमान [रस] की प्रतीति माननेपर तो असहृदयोंकोभी होने लगेगी। इसलिए विभावादिके प्रतिपादक काव्यको समझनेके बाद प्रतिपत्ता सामाजिकके भीतर रहने वाला स्थायिभाव ही रस बन जाता है । और उसका कारण होनेसे काव्य रसवत् कहलाता है ॥ [७] १०६॥
अब रसके भेदोंके कथनका अवसर होनेपर भी प्रकरणमें पाए हुए अनुभाव प्रालि संज्ञाओंका विषय बतलाते हैं [अर्थात् अनुभाव आदिका लक्षण करते हैं ।
स्थायिभाव प्रादिके [ लोकसिद्ध ] कार्य, कारण और सहचारियोंको काव्यमार्गमें क्रमशः अनुभाव, विभाव-तथा व्यभिचारिभाव कहा जाता है ।[८]११०॥
स्थायिभावोंके, और आदि-शब्दसे रस तथा [रतिवादिविषया भावः प्रादि लक्षरणके प्रानुसार देवादि-विषयक रति-रूप] भावोंके जो लोकसिद्ध यथासम्भव कार्य, कारण और सहकारी होते हैं वे अभिनय और अनभिनेय दोनों प्रकारके काव्यमार्गमें क्रमशः अनुभाव, विभाव तथा व्यभिचारिभाव नामोंसे कहे जाते हैं, और काव्यसंस्कारसे प्रभावित लोगोंके द्वारा कभी-कभी लोकमें भी इसी प्रकार [अर्थात् अनुभाव प्रादि नामोंसे] कहे जाते हैं । अागे इन तीन शब्दों का अवयवार्थ दिखलाते हैं। उनमेंसे 'अनु' अर्थात् लिङ्गके निश्चयके बाद [रसको] भावित अर्थात् बोषित करने वाले होनेसे [कार्य रूप] स्तम्भ प्रादि [रसके कार्य] 'अनुभाव' कहलाते हैं। यह अनुनाव शब्दका अवयवार्थ हया। आगे विभाव शब्दका निर्वचन करते हैं। बासना रूपसे स्थित, रसरूपताको प्राप्त होनेवाले, [ रत्यादि ] स्थायिभावको विशेष रूपसे भावित करते हैं पार्थात् विशेष रूपसे प्राविर्भत करते हैं वे ललना और उद्यानादिरूप [रसके क्रमश: पालम्बन तथा उद्दीपन रूप [कारण भाव' कहलाते हैं। [माणे व्यभिचारिभाव शब्दका निर्वचन करते हैं। रसोन्मुख स्थाविभावकेप्रति विशेष प्रकार के प्राभिमुख्यसे चरण करनेवाले अर्थात् विद्यमान होनेवाले होनेसे 'त्यभिचारिभाव' कहलाते हैं। [ 'प्राभिमुख्येन चरन्ति'में] 'माभिमुख्य का अर्थ पोषकत्व है । [प्रागे व्यभिचारभाव शब्दका दूसरे प्रकारका
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३०४ ]
दर्पणम्
[ का० ११० सू० १६४
च पोषकत्वम् । यद्वा व्यभिचरन्ति स्थायिनि सत्यपि केऽपि कदापि न भवन्तीति व्यभिचारिणः, स्वविभावव्यभिचारिणः भावे भावात् अभावेऽभावाच्च । रसायनमुपयुक्तवतो हि ग्लानि - आलस्य श्रमप्रभृतयो न भवन्त्येव ।
तत्र स्थायिनो रत्यादयः संविदात्मकत्वादजडा एव । धैर्यादीनां खेदादीनां चानुभावानां वनितादीनां पर्वतादीनां च विभावानां निर्वेदादीनां व्याध्यादीनां च व्यभिचारिणां यथासंख्यं संविन्मयत्व - शरीरधर्मत्वादिना जडाजडात्मकत्वम् ।
एते चानुभावादयः स्थायिनं प्रति कार्य-कारण- सहचारिरूपत्वादेवाप्रधानम् । स्थायी तु प्रकर्षप्राप्त्या एषां प्रच्छादकत्वात् प्रधानम् । तथा व्याघ्रादेर्विभावस्य क्रोधनिर्वचन करते हैं ] स्थायिभावके विद्यमान होनेपर भी कभी कोई [ व्यभिचारिभाव ] नहीं होता है इसलिए [ स्थायिभावके साथ प्रनियत अर्थात् ] व्यभिचारी होनेसे व्यभिचारिभाव [कहलाते हैं] अर्थात् श्रपने विभावके होनेपर भी न होनेसे और [अपने विभावादि रूप काररणोंके ] न होनेपर भी होनेसे [ये] अपने विभावोंके व्यभिचारिभाव [कहलाते] हैं। क्योंकि रसायनका उपयोग करनेवालोंको ग्लानि, श्रालस्य, थकावट मादि नहीं होते हैं [इसलिए जो अपने कारण के होनेपर श्रवश्य होता है और उसके न होनेपर नहीं ही होता है वह 'श्रव्यभिचारी' कहलाता है । और जो कारणके न होनेपर भी हो या कारणके होनेपर भी न हो वह 'व्यभिचारी' कहलाता है ।
उनमें से रत्यादिरूप स्थायिभाव ज्ञानस्वरूप होनेसे चेतनात्मक ही होते हैं। धैर्यादि [रूप मानस ] प्रनुभाव ज्ञानरूप होनेसे प्रजड़ तथा स्वेदादि [रूप शारीरिक] अनुभाव जड़ात्मक [होते ] हैं । वनितादि [विभाव चेतन रूप] तथा पर्वतादि विभाव [श्रचेतन रूप होते हैं] प्रौर निर्वेदादि [ व्यभिचारभाव ज्ञान रूप होनेसे अजड़ ] तथा व्याध्यादि रूप व्यभिचारिभाव [ शरीरधर्म होनेसे जडात्मक होते हैं । अतः ये क्रमशः ] ज्ञानरूप [ प्रजड़ ] तथा शरीरधर्मादि रूप [जड इस प्रकार ] जड और चेतन उभयरूप होते हैं ।
The
किन्तु वेदान्ती गुग्ण
इस अनुच्छेद में ग्रन्थकारने स्थायिभावोंको केवल चेतनस्वरूप तथा अनुभाव, विभाव एवं व्यभिचारभावों को चेतन अचेतन उभयविव माना है । स्थायिभावोंको चेतनस्वरूप मानने का यह हेतु दिया है कि वे ज्ञानात्मक होते हैं । वेदान्तादि शास्त्रोंके अनुसार ज्ञानात्मकता ही चेतनाका स्वरूप है । स्थायिभाव ज्ञानात्मक 'संविन्मय' होनेसे चेतन स्वरूप ही है यह ग्रन्थकारका श्राशय है । न्याय सिद्धान्तमें ज्ञान चेतन श्रात्माका गुण है। स्वयं चेतन नहीं है । नैयायिक गुण र गुणी अर्थात् ज्ञान और प्रात्माका भेद मानते हैं । गुणीका भेद नहीं मानते हैं। इसलिए उनके मतमें ज्ञान चेतनका गुण नहीं अपितु चेतनस्वरूप ही है । इस सिद्धान्तको लेकर ग्रन्थकारने यहाँ स्थायिभावोंको ज्ञानस्वरूप होने से चेतन ही माना है । और अनुभाव, विभाव व व्यभिचारिभावों में से कुछ ज्ञानरूप भी होते हैं और कुछ ज्ञानसे भिन्न शरीरधर्मभूत भी होते हैं इसलिए उनको ज माना है । श्रागे स्थायिभावोंको प्रधानता तथा अनुभाव-विभाव दिखलाते हुए उनके गुरण प्रधानभावका निरूपण करते हैं
श्रजडात्मक अर्थात् उभयरूप
दिकी श्रप्रधानताका हेतु
ये अनुभावादि स्थायिभावके प्रति कार्य, कारण तथा सहकारी रूप होनेसे प्रप्रधान माने जाते हैं । स्थायिभाव प्रकर्षको प्राप्त होकर इन [ अनुभावादि] का प्रच्छादक होने जानेसे
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का० १११ सू० १६५ ]
तृतीयो विवेकः
[ ३०५
भाविर्भावकत्वात् श्रम - चिन्तादेश्च व्यभिचारिणो भयोत्साहादिपोषकत्वान्, स्तम्भवेपथु-स्वेदादेश्चानुभावस्य शृङ्गार भयानकदिजत्वात् क्वचिदपि न पार्थको नियमः । सामग्रीपतितस्य तु नियम इति सामग्री एवैषामाविर्भाविका पोषिका ज्ञापिका चेति ॥[८]११०||
sir प्रस्तुतानेव रसभेदानाह
[सू० १६५ ] – शृङ्गार- हास्य-करुरगाः
रौद्र-दीर-भयानकाः ।
बीभत्साद्भुत शान्ताश्च रसाः सद्भिर्नव स्मृताः ॥ [![६] १११॥
तत्र कामस्य सर्वजातिसुलभतया अत्यन्तपरिचितया च सर्वान् प्रति हृद्येति पूर्व शृङ्गारः । ततः शृङ्गारानुगामित्वाद् हास्यः । ततो हास्यविरोधित्वात् करुणः ! कामस्य वार्थत्वात् ततोऽर्थप्रधानो रौद्रः । कामार्थयोश्व धर्मजन्यत्वात् ततो धर्मप्रधानो वीरः । अस्य च भीताभयप्रदानसारत्वात् ततो भयानकः । भीतस्य च सात्त्विकैजु गुप्सनीयप्रधान माना जाता है । (१) व्याघ्रादि विभावोंके [ रौद्र रसके स्थापिभाव ] क्रोध, तथा [भयानक रसके स्थायिभाव ] भयके श्राविर्भावक होनेसे, (२) श्रम तथा चिन्तादि व्यभिचारिभावोंके [ भयानकके स्थायिभाव ] भय और [ वीररस के स्थायिभाव ] उत्साहादि दोनोंका पोषक होनेके कारण, (३) ! इसी प्रकार ] स्तम्भ, वेपथु आदि अनुभावोंके श्रृंगार तथा भयानक दोनोंसे जन्य होनेके कारण अलग-अलग [ रसोंके विभाव श्रनुभाव तथा व्यभिचारिभाषों के निश्चित रूपसे अलग ] होनेका कोई नियम नहीं है। [किसी विशेष रसकी] सामग्री में था जानेपर तो नियम है । इसलिए सामग्री हो इनको उत्पन्न करनेवाली, पोषरण करनेवाली और ज्ञापन करानेवाली होती है [ यह समझना चाहिए] ।। [८] ११०॥
अब [ धागे ] प्रस्तुत रसभेदोंका ही वर्णन [ प्रारम्भ] करते हैं
[ सूत्र १६५ ] - १. श्रृंगार, २. हास्य, ३. करुरण, ४ रौद्र, ५. वीर, ६. भयानक, ७. बीभत्स, ८. अद्भुत और ६. शान्त ये नौ रस सहृदयोंने माने है ।। [६] १११ ॥
उनमें कामके सब जातियोंमें सुलभ, और अत्यन्त परिचित होनेसे तथा सबके प्रति उसकी मनोहरता होती है इस कारण सबसे पहिले उसका ग्रहण किया गया है। श्रृंगारका अनुगामी होनेके कारण उसके बाद हास्य [ कहा ] है । हास्यका विरोधी होनेसे उस [हास्य ] के बाद करुण रखा गया है। [इस प्रकार हास्य प्रौर करणका काम से सम्बन्ध दिखलाकर ब रौद्रका भी कामसे सम्बन्ध दिखलाते हैं ] । कामके अर्थज होनेसे उस [करण] के बाद प्रर्थप्रधान रौद्र [ रखा गया है] काम और प्रथं दोनोंके धर्मजन्य होने के कारण उस [रौद्ररस ] के बाद धर्मप्रधान वीररस रखा गया है । यह वीर रस मुख्य रूपसे भयभीतोंको प्रभय प्रदान करनेवाला होता है इसलिए [भयके साथ सम्बद्ध होनेसे ] उसके बाद भयानकका ग्रहण किया गया है । सात्विक वृत्तिके लोग भयकी निन्दा करते हैं इसलिए [भयका जुगुप्साके साथ सम्बन्ध होनेसे उसके बाद [ जुगुप्सा स्थायिभाव वाला ] बीभत्स रस रखा गया है । बीभत्स का विस्मयके द्वारा नाश हो जाता है इसलिए [ बीभत्सका विस्मयके साथ सम्बन्ध होनेसे ] उसके बाद [ विस्मय स्थायिभाव वाला ] अद्भुत रस रखा गया है। धर्मका मूल कारण शम
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३०६ ]
- नाट्यदर्पणम् का० २१२, सू० १६६ त्वात् ततो बीभत्सः । बीभत्सम्य च विम्मयेनापनीयमानत्वात् ततोऽद्भतः । धर्मस्य च शममूलत्वात् तदन्ते शमः। इति । एते शृङ्गारादयो नवैव रसा रञ्जनाविशेषेण पुरुषार्थोपयोगाधिक्येन च सद्भिः पूर्वाचार्यैरुपदिष्टाः । सम्भवन्ति त्यपरेऽपि । यथागर्द्धस्थायी लौल्यः। आईतास्थायी स्नेहः । आसक्तिस्थायि व्यसनम् । अरतिस्थायि दुःखम् । सन्तोषस्थायि सुखामित्यादि। केचिदेषां पूर्वध्वन्तर्भावमाहुरिति ।[६]११२।। अथ सभेदं शृंगारं निरूपति[सूत्र १६६]-सम्भोग-विप्रलम्भात्मा शृङ्गारः प्रथमो बहुः ।
मान-प्रवास-शापेच्छा-विरहैः पञ्चधाऽपरः ॥१०]११२॥ विलासिनोरन्योन्यानुकूलवतिनोः प्रेमपरयोर्यद् दर्शन-स्पर्शनादिः, स सम्भोगः । परस्परानुरक्तयोरपि विलासिनोः पारतन्त्र्यादेरघटनं चित्तविश्लेषो वा विप्रलम्भः । एतौ द्वावस्यवस्थाविशेषौ आत्मा स्वभावो यस्य अवस्थातु-र्दशाद्वयानुयायिनः आस्थाबन्धात्मकरतिप्रकर्षरूपन्य शृंगारस्य । तेन शृंगारस्य नेमौ भेदौ गोत्वस्येव शावलेयबाहुलेयौ, अपितु सम्भोगेऽपि विप्रलम्भसम्भावनासद्भावात् , विप्रलम्भेऽपि मनसा सम्भोगानुवाद् उभयसंवलितस्वभावः शृंगारः। उत्कटत्वाच्चैकदेशेऽपि सम्भोगशृंगारो विप्रलम्भशृंगार इति चोपचारेणोच्यते । अवस्थाद्वयमीलननिबन्धने च सातिशयश्चमत्कारः । यथाहै इसलिए सबसे अन्तमें शम [ स्थायिभाव वाला शान्तरस ] रखा गया है। विशेषरूपसे मनोरञ्जक तथा पुरुषार्थोकी सिद्धिमें उपयोगी होनेके कारण श्रृंगार प्रादि ये नौ रस ही पूर्ववर्ती सहृवय प्राचार्योने निर्दिष्ट किए हैं। किन्तु इनसे भिन्न और रस भी हो सकते हैं। जैसे तृष्णा रूप स्थायिभाववाला लोल्य, प्रार्द्रतारूप स्थायिभाववाला स्नेह, आसक्तिरूप स्थायिभाववाला व्यसन, अरति रूप स्थायिभाववाला दुःख और सन्तोष रूप स्थायिभाव वाला सुख इत्यादि [अन्य रस भी हो सकते हैं । कुछ लोग [इनको रस तो मानते हैं किन्तु] इनका अन्तर्भाव पूर्वोक्त नौ रसोंमें ही कर लेते हैं ।[६]१११॥
अब प्रागे भेदों सहित शृंगार रसका निरूपरण [प्रारम्भ करते हैं
[सूत्र १६६]-सम्भोग और विप्रलम्भात्मक दो प्रकारका श्रृंगाररस होता है। उनमेंसे पहिला [अर्थात् सम्भोग शृंगार) अनन्त प्रकारका [बहुः] होता है। दूसरा [विप्रलम्भ शृंगार] १. मान, २. प्रवास, ३. शाप, ४. ईर्ष्या तथा ५. विरह रूप पाँच प्रकारका होता है। [१०] १११।
एक-दूसरेके अनुकूल पड़नेवाले और एक-दूसरेको प्रेम करने वाले [स्त्री-पुरुष रूप दो विलासियोंका जो परस्पर दर्शन स्पर्शन प्रादि है वह सम्भोग [शृंगार कहलाता है। परस्पर अनुरक्त होनेपर भी परतन्त्रता प्रादिके कारण [स्त्री-पुरुष रूप] दोनों विलासियोंका परस्पर मिलन न हो सकना अथवा चित्तका विलग हो जाना विप्रलम्भ शृंगार [कहलाता] है। ये दोनों अवस्था विशेष जिस अवस्थावान् प्रेमबन्ध रूप रतिके उत्कर्ष रूप शृगारका प्रारमा अर्थात् स्वभावभूत है वह ['सम्भोग-विप्रलम्भात्मा' है। यह इस शब्दका अर्थ है] । इसलिए गौओंके चितकबरी पौर काली [ शाबलेयत्व भौर काहुलेयत्व ] भेदोंके समान ये [सम्भोग तथा विप्रलम्भ ] दोनों अलग-अलग भेद नहीं है । अपितु सम्भोगमें भी विप्रलम्भकी
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का० ११२, सू० १६६ ] तृतीयो विवेकः
[ ३०७ "एकस्मिन् शयने पराङ्मुखतया वीतोत्तरं ताम्यतोरन्योन्यं . हृदयस्थितेऽप्यनुनये संरक्षतोगौरवम् । दम्पत्योः शनकैरपांगवलनामिश्रीभवचक्षुषो
र्भग्नो मानकलिः सहासरभसव्यावृत्तकण्ठग्रहम् ॥"
अत्र ईयाविप्रलम्भ-सम्भोगयोविर्भावादिकृता सातिशया चमत्कृतिः। प्रथमः सम्भोगान्यो बहुः। परस्परावलोकन-चुम्बन-विचित्रवक्रोक्त्यादिभेदतोऽनन्तप्रकारः। यथा
"किमपि किमपि मन्दं मन्दमासक्तियोगादविरलितकपोलं . जल्पतोरक्रमेण । अशिथिलपरिरम्भव्यापूतैकैकदोष्णो
रविदितगतयामा रत्रिरेव व्यरंसीत् ॥" अपरो विप्रलम्भः । ईर्ष्या-प्रणयभंगाभ्यां वैमनस्य मानः । यथा
"याते द्वारवती तदा मधुरिपौ तहत्तमम्पानतां,
कालिन्दीतटरूढवंजुललतामालिंग्य सोत्कण्ठया ' सम्भावना बने रहने और विप्रलम्भ में भी मनमें सम्भोगका [इच्छात्मक अम्बन्ध विद्यमान रहनेसे शृंगाररस उभयात्मक होता है। किन्तु [किसी एक अंशको] प्रधानता कारण सम्भोग शृंगार, विप्रलम्भ-शृंगार इस प्रकार कहा जाता है। दोनों अवस्थामके सम्मिश्रणका वर्णन होनेपर विशेष चमत्कार होता है।
जैसे
"रूठे होनेके कारण एक ही पलंगपर लेटे होनेपर भी चुपचाप दुःखी होते हुए और मनमें एक-दूसरेके मनानेको इच्छा होते हुए भी अपने-अपने गौरवकी रक्षा करने में लगे हुए बम्पतियोंके घोरेसे प्रांखें घुमाकर देखते समय पाख-से-आंख मिल जानपर उनका प्रणयकलह स्वयं ही समाप्त हो गया और [दोनोंने हंसते हुए वेगसे एक-दूसरेका किण्ठग्रह प्रालिंगन कर लिया।"
इसमें ईर्ष्याविप्रलम्भ और सम्भोग दोनोंकी [एक साथ मिश्रित रूपमें] विभावादिके कारण अत्यन्त चमत्कारयुक्त प्रतीति होती है।
पहिला सम्भोग नामक शृंगार बहुत प्रकारका होता है । अर्थात् एक-दूसरेके अवलोकन, चुम्बन और नाना प्रकारके सुन्दर वार्तालाप मादि भेदसे अनन्त प्रकारका होता है । जैसे
___ अत्यन्त प्रेमके कारण गालसे गाल मिलाए हुए, गाढ प्रालिंगनमें जिनकी एक-एक भुजा लगी हुई है इस प्रकारके [हम दोनों सीता और रामचन्द्रके] बिना क्रमके [संगत असंगत सभी प्रकारको] बात करते हुए ही सारी रात बीत गई।"
यह उत्तररामचरितका श्लोक है । इसमें सम्भोग शृङ्गारके अनेक रूपोंका प्रदर्शन कराया गया है।
दूसरा विप्रलम्भ शृंगार [ पाँच प्रकारका होता है यह बात कही जा चुकी है। उन पांच भेदोंमेंसे ] ईर्ष्या अथवा प्रणय कलहके कारण होनेवाला वैमनस्य मान कहलाता है। [मानका उदाहरण] जैसे
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नाट्यदर्पणम्
तद् गीतं गुरुवाष्पगद्गदगलत्तारस्वरं राधया, येनान्तर्जलचारिभिर्जलचरैरप्युत्कमुत्कूजितम् ॥”
सन्निहितदेशस्यापि रूपान्तरापादनं शापः । यथा कादम्बर्या महाश्वेतया वशम्पायनस्य शुकरूपापादनम् ।
मातापित्रादिपारतंत्र्याद् भाविनवसंगमयोः संगमाभिलाष इच्छा । यथा-"उद्धच्छो पियइ जलं जह जह विरलंगुली चिरं पहियो । पावालिया वि तह तह धारं तर पि तगुएइ ॥ [ऊर्ध्वाक्षः पिबति जलं यथा यथा विरलांगुलिश्चिरं पथिकः । पापालिकापि तथा तथा धारां तनुकामपि तनयति ॥” इति संस्कृतम् ] |
३०८ ]
यथा वास्माकं सुधाकलशे
[ का० ११२, सू० १६६
" रत्थाइ संचरतं नियच्छिउ पाडिवेसियजुयाणं । कम्मय कम्मं पि हु वरणवइधूश्रा सयं कुरणइ ॥ [ रथ्यायां संचरन्तं दृष्ट्वा प्रतिवेश्मिकयुवानम् । कर्मकरीकर्मापि खलु धनपतिदुहिता स्वयं कुरुते ॥” इति संस्कृतम् ] |
"तब कृष्णजीके द्वारका चले जानेपर विरहाकुल हुई राधाने उन [कृष्ण] के द्वारा झोंका दिए जाने के कारण झुकी हुई यमुनाके किनारेकी वेतसलताको पकड़कर बड़े-बड़े आंसू डरकाते हुए और भरे हुए गलेसे उच्च स्वरसे इस प्रकार रुदन किया कि जिसको सुनकर [ यमुनाके] जलके भीतर रहनेवाले जलजन्तु भी गर्दन उठाकर रोने लगे ।
यह [ प्रणयभंगजन्य मानरूप विप्रलम्भ-शृंगारका उदाहरण है] ।
[ विप्रलम्भका दूसरा भेद या कारण शाप है । उसका लक्षण करते हैं ] समीपस्थ रहनेवालेका भी अन्य रूप करा देना शाप कहलाता है। जैसे कादम्बरी में महाश्वेताके द्वारा वंशम्पायन को शुक रूपमें बना देना [शापका उदाहरण है] ।.
माता-पिता श्रादिके परतन्त्र होनेके काररण [ इस समय जिनका मिलन नहीं हो पा रहा है किन्तु ] श्रागे जिनका प्रथम मिलन होनेवाला है उनकी परस्पर मिलनकी इच्छा अभिलाव (कहलाती ] है [ उसके कारण दो प्रेमियोंका जो मिलनका अभाव है वह अभिलाषजन्य विप्रलम्भ कहलाता है] । जैसे
" [पानी पिलानेवालीके पास देर तक रहनेके लिए] ऊपर देखते हुए पथिक अंजलिको अंगुलियोंको विरल अर्थात् खोलकरके जैसे-जैसे पानी पी रहा है उसी प्रकार प्याऊवाली पहलेसे ही पतली धाराको और भी अधिक पतली करती जाती है [अर्थात् पानी पीनेवाले पथिक और पिलानेवाली प्रपापालिका दोनों ही अधिकसे अधिक कालतक एक-दूसरेके पास रहना चाहते हैं] ।"
श्रथवा जैसे हमारे [बनाये हुए ] सुधाकलश में [ प्रभिलाषका उदाहरण ] -
"पड़ोसी युवकको गलीमें घूमता हुद्या देखकर धनपतिको पुत्री नौकरानीके करने योग्य कामोंको भी अपने-श्राप कर रही है [जिससे उस युवकको देखनेका अवसर मिल सके] ।"
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का० ११३, सू० १६७ } तृतीयो विवेकः
[ ३०६ सम्भूतभोगयोर्माताद्यभावेऽपि कार्यान्तरव्यापृततया अननुसर्पर्ण विरहः ।
यथा
"अन्यत्र व्रजतीति का खलु कथा नाप्यस्य ताक् सुहृत् , यो मां नेच्छति नागतश्च ह हा कोऽयं विधेः प्रक्रमः ? इत्यल्पेतरकल्पना-कवलितस्वान्ता निशान्तान्तरे,
बाला वृत्तविवर्तनव्यतिकरा नाप्नोति निद्रां निशि ॥" इति ॥ [१०] ११२॥ अथोभयात्मनोऽपि शृंगारस्य विभावानुभावौ प्रतिपादयति[सूत्र १६७]-स्त्री-पुस-काव्य-गीततु-माल्य-वेषेष्ट-केलिजः । अभिनेयः स चोत्साह-चाटु-तापाश्रु-मन्युभिः ॥
- [११] ११३ ॥ इह शृङ्गारे स्त्री-पुसौ परस्परं मुख्यविभावौ। तयोश्चोत्तमप्रकृतिकयोरुपयोगी काव्यादिः । काव्यं च सरसमभिनेयानभिनेयभेदमिन्नम् । गीतेन वाद्यनृत्ताद्यपि गृह्यते । ऋतवो वसन्ताद्याः । माल्येन विलेपन-ताम्बूल-विशिष्टभवनादि लक्ष्यते । वेषो
जिनका सम्मिलन पहिले हो चुका है इस प्रकारके प्रेमियोंका माता-पिता प्राविके प्रतिबन्धके बिना भी अन्य कार्योंके कारण परस्पर मिलन न हो सकना विरह [ कहलाता है।
__ "मिरे पति कहीं प्रौर चला जाय ऐसा तो सोचना भी प्रसंगत है, और उनका कोई ऐसा मित्र भी नहीं है जो मुझे न चाहता हो [अर्थात् किसी मित्रने उनको रोककर मुझे कष्ट दिया हो ऐसी बातभी नहीं हो सकती है किन्तु फिरभी अभीतक पाए नहीं, हाय, भगवन् ! यह पया खेल कर रहे हैं जो वे अबतक नहीं पाए] इस प्रकारको अनेक भीषण कल्पनामोंमें दूबी हुई बाला रातको करवट बदलती हुई पड़ी है और उसको नींद नहीं पा रही है।" .
- यह [विरह-रूप-विप्रलम्भका उदाहरण है] ॥[१०]११२]
- अब [सम्भोग और विप्रलम्भ रूप] दोनों प्रकारके श्रृंगारके विभाव तथा अनुभावोंका वर्णन करते हैं।
[सूत्र १६७] -स्त्री पुरुष [शृंगारके मुख्य विभाव हैं] काव्य, गीत, ऋतु, माल्य, बेष अन्य इस वस्तु तथा [वन-विहार जलक्रीडा प्रावि स्प] केलियोंसे [भंगार] उत्पन्न होता है। ये सब श्रृंगारके कारण विभाव है। नाटकमें] उत्साह [एक-दूसरेको] चाटुकारिता, संताप, रुदन तथा मान प्रादिके द्वारा उसका अभिनय करना चाहिए । [११]११३॥
इनमेंसे स्त्री-पुरुष एक-दूसरेके प्रति मुख्य विभाव है। उत्तम प्रकृतिवाले उन दोनोंके उपयोगी काव्यादि [भी गौण कारण होनेसे गौण विभाव कहे जा सकते हैं] । काव्य पबसे अभिनेय और अनभिनेय [अर्थात् एश्यकाम्य तथा अव्यकाव्य ] भेदसे युक्त सरस कायका प्रहण करना चाहिए । 'गीत' पबसे [उसके सहकारी] बाब और नृत्य प्रादि भी अहस होता है। 'ऋतु परसे वसन्तादि [अभिप्रेत है। माल्य परसे विलेपम, ताम्बूल और विशेष भवन प्राविका भी प्रहल समझना चाहिए। पर पसे विशेष प्रकारके वस्त्र प्रलंकाराविप
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३१० ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० ११३, सू० १६७ विशिष्टवस्त्राभरणादि नेपथ्यम् । इष्टो विदूषक - चन्द्रोदय-चक्रवाक-ईसाले ख्यादिः । यद्वा जयन - वदन- प्रसाद - स्मित- मनोज्ञांगविकार- वक्रोक्त्यादयो ग्लान्यालस्य-श्रमादयश्चेष्टाः । एवंविधा हि विकाराः परस्परं स्त्री-पुंसयोरिष्टा भवन्ति । केलयः पुष्पावचय-उपवनगमन - जलक्रीडादयश्चेष्टाविशेषाः । एवमन्येऽप्युपलक्षणा देवंविधा विभावा द्रष्टव्याः । एभ्यो यथायोगमुभयात्मापि जायते रतिस्थायी श्रृंगारः ।
1
स च शृंगारो लब्धसत्ताकः सन्नभिनेयो वाचिक सात्त्विक आंांगिक श्राहार्याभिनयैर्नटेन सामाजिकानां साक्षाश्चर्वणागोचर उत्साहादिभिः कर्तव्यः ।
उत्साहो नयन-वंदनप्रसादकारी चित्तोल्लासः । अयं च स्थाय्यपि वीरस्य अत्रागन्तुकत्वाद् अनुभावः । एवं रसान्तरं प्रति व्यभिचारित्वमपि स्थायिनां सहचारितया भवत्येव । अस्य च स्थाय्यनुभावाभिनय-द्वारेणात्राभिनयहेतुत्वम् । एवं रत्यादावपि वाच्यम् । तापोऽभिमताप्राप्तेः काय मनः- पीडा । मन्युरीर्ष्याप्रणयभंगाभ्यां चित्तोद्वेगः । उत्साह - चाटुभ्यां नयनचातुर्य-क्षेप - परस्यांगविकारादिः सम्भोग' गारस्यानुभावः सूचितः । ताप - अश्रु- मन्युभिः पुनः पुनः परिदेवनादिर्विप्रलम्भशृंगारस्यनुभावो लक्षितः । तत्र सम्भोगे सुखमया धृत्यादयो व्यभिचारिणः । विप्रलम्भे त्वालस्यौग्य - जुगुप्सावर्जा निर्वेदादयो दुःखप्राया इति ||[११]११३ ||
नेपथ्यका प्रहरण करना चाहिए। 'इष्ट' पवसे विदूषक, चन्द्रोदय, चक्रवाक, हंस और प्रालेल्य [ चित्र ] प्रादिको भी लेना चाहिए । प्रथवा [ इष्ट पदसे ] नेत्रों घोर चेहरेकी प्रसन्नता, मुस्कराहट, सुन्दर अंगविकार, सुमनोहर वकोक्तियाँ प्रादि और ग्लानि, प्रालस्य धम प्रादि चेटा लेनी चाहिए। [ क्योंकि ] इस प्रकारके विकार स्त्री-पुरुषोंको परस्पर इष्ट होते हैं । केलियोंसे पुष्पावचय, वनविहार, जलकोडा प्रादि चेष्टानोंका ग्रहण होता है। [इन सबके ] उपलक्षरण रूप होनेसे इसी प्रकारके अन्य विभाव भी ले लेने चाहिए। इनके द्वारा यथायोग्य [ सम्भोग तथा विप्रलम्भ रूप] दोनों प्रकारका रतिरूप स्थायिभाववाला श्रृंगार उत्पन्न होता है ।
उस उत्पन्न श्रृंगारको उत्साह भाविके द्वारा अभिनय करना चाहिए अर्थात् वानिक सास्विक [ मानसिक], प्रांगिक तथा वेषाविषयक [माहार्य ] प्रभिनयोंसे नटके द्वारा सामाfroth साक्षात् चर्वणाका विषय बनाया जाना चाहिए ।
नेत्रों और चेहरेको प्रफुल्लित करनेवाली चित्तको प्रसन्नता उत्साह [कहलाता ] है । यह [उत्साह ] वीररसका स्थायिभाव होनेपर भी यहाँ शृंगाररसमें प्रागन्तुक गौरण होनेसे [ स्थायिभाव न होकर ] धनुभाव होता है । इसी प्रकार [अन्य] स्थायिभावोंका भी दूसरे रसोंमें सहकारी होनेके कारण व्यभिचारित्व भी होता ही है । इस [ वीररसके] स्थायिभाव और [श्रृंगाररसके] अनुभावका अभिनय [के प्रति प्रवर्तकत्व] द्वारा यहाँ [श्रृंगाररस में ] अभिनयके प्रति हेतुत्व होता है । इसी प्रकार रत्यादिमें भी [ अन्य रसोंके प्रति व्यभिचारिभावत्व प्रावि] समझना चाहिए। [ 'ताप' शब्दकी व्याख्या करते हैं] । प्रियजन [ प्रभिमत ] के प्राप्त न होनेपर होने वाली शारीरिक और मानसिक पीडा 'ताप' कहलाती है। 'मधु' पबसे ईर्ष्या तथा प्रणय- कलहके द्वारा होनेवाला जितका उद्वेग [गृहीत होता है । कारिकामें पाए हुए] 'उत्साह' तथा 'चाटु' शब्दोंसे नयनचातुर्य और भूक्षेप करने वाले [ स्त्री-पुरुष रूप विभाव ] के अंगविकारादि रूप सम्भोगम्वार के अनुभावोंको सूचित किया गया है । और
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का० ११४, सू० १६८ ] तृतीयो विवेकः
[ ३११ . अथ हास्यः[सूत्र १६८]-विकृताचार-जल्पांगाकल्पविस्मापनोद्भवः।
हास्योऽस्याभिनयो नासास्पन्दाश्रुजठरग्रहैः ॥[१२]११४॥ विकृतः प्रकृति-देश-काल-वयोऽवस्थादिविपरीतः । अंगस्य च विकृतत्वं विरूपो व्यापारः, खञ्ज-कुण्टत्वादि वा । उपलक्षणाच्च धाय-लौल्यादीनामनुचितानां मर्मोद्घाटन-अन्यहसनावलोकनादेश्च प्रहः। विस्मापनं कक्षानासावादन-ग्रीवा-कर्णचूडा-भ्र नर्तन-परभाषाद्यनुकरणादिकं च विटचेष्टितम् । एभ्यः स्वपरस्थेभ्यो हासस्थायी हास्यरसः प्रादुरस्ति । नासया गएडौष्ठादयो, अश्रुणा चाकुञ्चन-प्रसारणादयो नेत्रविकाराः, जठरग्रहेण पार्श्वग्रह-करताडन-मुखरागादयः संगृह्यन्ते । व्यभिचारिणश्चास्य अवहित्था-हर्षोत्साह-विस्मयादय इति ॥ [१२] ११४ ॥
[कारिकामें पाए हुए अगले] ताप, प्रभु तथा मन्यु पदोंके द्वारा विप्रलम्भश्रृंगारके परिदेवन प्रादि रूप अनुभावोंको सूचित किया गया है। उनमेंसे सम्भोग-शृंगारमें सुख रूप धृत्यादि भ्यभिचारिभाव होते हैं और विप्रलम्भभृगारमें मालस्य, उग्रता और जुगुप्साको छोड़कर दुःल-प्रधान निर्वेदादि [व्यभिचारिभाव होते हैं] ॥११३।।
हास्यरसअब मागे हास्यरसका निरूपण करते हैं
[सूत्र १६८]-विकृत माचरण, बातचीत, वेष-विन्यास और [नाक बजाना, बगल बजाना आदि रूप विस्मापन अर्थात् माश्चर्यजनक चेष्टाओंसे हास्यरस उत्पन्न होता है। नाक सिकोड़ने प्रभु पोर पेट पकड़ने प्रादिके द्वारा इसका अभिनय किया जाता है । [१२]११४॥
विकृत अर्थात् प्रकृति [ स्वभाव ]. देश, काल, आयु और अवस्था प्रादिके विपरीत [माचार हास्यजनक होता है ] । अंगोंका विकृतत्व [दो प्रकारका हो सकता है। एक तो] विरूप व्यापार [का किया जाना], अर्थात् [दूसरा] खञ्जत्व [लंगड़ापन] या निर्बलता प्रावि रूप होता है। [कारिकामें गिनाए गए विकृताचार प्रादिके] उपलक्षण रूप होनेसे [उनसे भिन्न] अनुचित पृष्टता लालच आदि और मर्म भागोंको दिखलाना, दूसरोंका मज़ाक बनाना, और [विशेष प्रकारसे] देखने आदिका भी ग्रहण होता है। [कारिकामें आए हुए] "विस्मापन' पदसे बगल और नाकका बजाना, गर्दन, कान, सिर या भौंहोंका मटकाना
और दूसरोंको बोलीका अनुकरण करना प्रावि रूप व्यापारका ग्रहण होता है । अपने में प्रथवा किसी दूसरेमें स्थित इन [विकृताचार प्रादिके देखने] से हासस्थायिभाव वालें हास्यरसको उत्पत्ति होती है। [कारिकामें पाए हुए नासास्पन्दके 'नासा' शब्दसे गाल और मोठ प्रादि [के चलाने का भी प्रहण होता है। प्रथ' पदसे [ नेत्रोंके ] सिकोड़ने और फैलाने मादि रूप नेत्रविकारोंका भी ग्रहण समझना चाहिए। [कारिकाके] 'जठरग्रह' शब्दसे [पेट पकड़ने के साथ ही पार्श्वग्रह हाथ पोटना, मुखराग माविका भी संग्रह होता है । 'प्रवाहित्था' [अर्थात् प्राकारगोपन] हर्ष, उत्साह, विस्मय प्रादि इस [हास्यरस] के व्यभिचारिभाव होते हैं।[१२]११४॥
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३१२ ]
नाट्यदर्पणम्
अथास्य भेदानुपदिशति —
[ सूत्र १६९ ] - विहासश्चोपहासश्च मध्ये ज्येष्ठे स्मितं हसः । अपहासोऽतिहासश्च नीचे प्रायोऽधमे रसः ॥ [१३] ११५ ॥
[ का० ११५, सू० १६६
तत्र हसनं मधुरस्वरम् । सास्यराग-समयप्राप्तं च विहसितम् । सांसशिरःकम्पमुपहसितम् । एतौ भेदौ मध्यमप्रकृतौ । अलक्षितद्विजं स्मितम् । किचिल्लक्ष्यदन्तं • इसितम् । इमौ भेदौ उत्तमप्रकृतौ । अनवसर प्राप्त साश्रुनेत्रमुत्कम्पितांस-शिरश्चापहसितम् । करोपगूढपार्श्व विक्रुटस्वरमुद्धतं चातिह सितम् । श्रमू भेदावधमप्रकृतौ ।
एवं षडेते हास्यभेदाः । अयं च हास्यो रसः प्रायो बाहुल्येनाधमप्रकृतौ पामरप्राये भवति । स्ववर्गापेक्षया च स्त्रियाः प्राधान्येऽपि पुरुषापेक्षयाधमतैवेति तस्यामपि । एवं करुण-भयानक-बीभत्स - अद्भुता श्रप्यधमप्रकृतौ भूयस्त्वमनुभवन्ति । पामरप्रायः. सर्व: प्रकर्षेण हसति, शोचति, बिभेति, परनिन्दामाद्रियते, स्वल्पेनापि सुभाषितेन | सर्वत्र विस्मयते इति ।। [१३] ११५ ।।
प्र प्रागे इस [ हास्यरसके] भेदोंको दिखलाते हैं
[ सूत्र १६६ ] - मध्यम [ प्रकृतिके पात्रों] में [हास्यरसके] विहास और उपहास [रूप दो भेद पाए जाते हैं], उत्तम [श्रेष्ठ प्रकृतिके पात्रों] में स्मित और हास [रूप वो हास्य भेद पाए जाते हैं] श्रर नीच [ प्रकृतिके पात्रों] में प्रपहास तथा प्रतिहास [रूप दो हास्य-भेद पाए जाते हैं] । और यह हास्यरस, प्रायः प्रथम पात्रोंमें पांया जाता है । [१३] ११५ ।
I
[ हास्यके जो छः भेद कारिका में दिखलाए हैं ] उनमेंसे समुचित प्रवसरपर जिसमें गाल लाल हो जाएं इस प्रकारका मधुर स्वरसे हँसना 'विहसित' [कहलाता ] है । कन्धे श्रीर सिर जिसमें हिलने लगें [ इस प्रकारका हँसना ] 'उपहसित' कहलाता है। ये [ विहसित और उपहसित रूप ] दोनों भेद मध्यम प्रकृति [के पात्रों] में होते हैं। जिसमें दांत दिखलाई न दें इस प्रकारका हास्य 'स्मित' [ मुस्कराना ] कहलाता है । और जिसमें दाँत थोड़े-थोड़े बिललाई देने लगे [इस प्रकार का हास्य ] 'हसित' [कहलाता ] है । [स्मित और हसित] ये दोनों भेव उतम प्रकृति [के पात्रों] में होते हैं। बिना अवसरके जिसमें आंखोंमें प्रसू प्रा जाएं कम्बे और सिर हिलने लगें, इस प्रकारका हंसना 'अपहसित' कहलाता है । और हाथोंसे बनको थामकर जोर-जोर से उद्धततापूर्वक हँसना 'प्रतिहास' कहलाता है । [ प्रहसित और हिसित] ये दोनों भेद अधम प्रकृति [के पात्रों] में होते हैं ।
इस प्रकार हास्यके छः भेद हो जाते हैं। यह हास्यरस अधिकतर प्रथम प्रकृतिके मीच पुरुषोंमें होता है। अपने वर्गकी अपेक्षाले [किसी विशेष ] स्त्रीकी उत्तमता [ प्रधानता ] निवर भी पुरुषों की अपेक्षा उस [ उत्तम स्त्री ] में भी प्रथमता ही होती है इसलिए उन [] में भी हास्यरस अधिकतर पाया जाता है। इसी प्रकार करण, भयानक, प्रभुत तथा बीमा रस भी अधिकतर प्रथम प्रकृति [प्रर्थात् नीच पात्रों] में होते हैं। इसलिए नीच प्रकृति वाले सभी लोग प्रायः जोरसे हंसते, अधिक शोक करते, अधिक डरते और अधिकतर दूसरों की निन्दा करते हैं तथा तनिक-से भी सुभाषितको सुनकर आश्चर्य करने लगते हैं । [ [ [१३] ११५ ॥
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का० ११६-१७, सू० १७०-७१ ] तृतीयो विवेकः
[ ३१३ अथ करुणः[सूत्र १७०]-मृत्यु-बन्ध-धनभ्रंश-शाप-व्यसन-सम्भवः ।
करुणोऽभिनयस्तस्य वाष्प-वैवर्ण्य-निन्दनः॥[१४]११६॥ शापोऽभिमतवियोगहेतुर्दिव्यप्रभाववतः आक्रोशः । व्यसनमनर्थः । अनेन देशोच्चाटनादेर्जातं विप्लवजातं संगृह्यते । एभ्यो विभावेभ्यः शोकस्थायी करुणो रसः सम्भवति । वाष्प-वैवाभ्यां निःश्वास-मुखशोप-स्मृतिलोप-सस्तगात्रतादयोऽनुभावाः सूचिताः। निन्दनमात्मनो देवस्यान्यस्य चोपालम्भः। अनेन रुदित-प्रलपिता-उरस्ताडनादि गृह्यते । व्यभिचारिणस्तस्य निर्वेद-लानि-चिन्ता-औत्सुक्य-मोह-श्रम-भयविषाद-दैन्य-व्याधि-जडता-उन्माद-अपस्मार-आलस्य-मरण-स्तम्भ-वेपथु-वैवर्ण्य अश्रुस्वरभेदादय इति ॥ [१४] ११६ ॥
अथ रौद्रः - [सूत्र १७१] -प्रहारासत्य-मात्सर्य-द्रोहाधर्षोपनीतिजः।
रौद्रःस चाभिनेतव्यो घातदन्तोष्ठपीडनः ॥[१५]॥११७॥ परमविदारयनो विदारयतश्च शस्त्रादिव्यापारणं प्रहारः। अनेन गृहभृत्याधुपमर्दनस्य ग्रहः। असत्येन बध-बन्धाद्यभिधायकवाक्पारुष्यस्य ग्रहः । गुणेष्वसूया मात्सर्यम् । द्रोहो जिघांसा । दारादिखलीकार-विद्या-कर्म-देश-जात्यादिनिन्दा-राज्य
अब मागे करुण [रसका निरूपण करते हैं]-.
[सूत्र १७०]-[किसी प्रियजनके मृत्यु, बन्धन, धननाश, शाप तथा विपत्ति प्रादि [को देखने]से करुणरस उत्पन्न होता है। प्रासुनों, [चहरेको विवर्णता तथा [भाग्यको] निन्दा माविके द्वारा इसका अभिनय किया जाता है । [१३] ११६ ।
प्रियजनके वियोगको कराने वाली, दिव्य प्रभाव वाले व्यक्तिको अप्रसन्नता 'शाप' कहलाता है। अनर्थ का नाम] 'व्यसन' है। इससे देश-नाशसे होने वाले विप्लव-समुदायका प्रहरण होता है। इन विभावों के द्वारा शोक रूप स्थायिभाव वाला करुणरस उत्पन्न होता है। पांसू, [चेहरे की] विवर्णता, निःश्वास, मुख सूखना, स्मृतिका लोप, शरीरकी शिथिलता प्रादि अनुभाव भी सुचित होते हैं। निन्दासे अपनी निंदा, भाग्यको अथवा अन्धों को उलाहना देना [अभिप्रेत है । इससे रोने, प्रलाप करने और छाती पीटनेका भी संग्रह होता है । निर्वेद, ग्लानि, चिन्ना, प्रौत्सुक्य, मोह, श्रम, भय, विषाव, दैन्य, व्याधि, जडता, उन्माव, अपस्मार, मालस्य, भरण, स्तम्भ, वेपशु, वैवर्ण्य, अश्रु, स्वरभेद आदि इसके व्यभिचारभाव होते हैं।[१४]११६ ॥
अब आगे रौद्ररस [का लक्षणादि करते हैं]
[सूत्र १७१] -प्रहार, असत्य, मात्सर्य, द्रोह, भाषर्षण तथा प्रपनीतिसे रौद्ररस होता है और मारने, दांत शथा अोठोंके चबानेके द्वारा इसका अभिनय किया जाता है । [१५]९१७ ॥
- दूसरेको काट देने वाला या न काटने वाला शस्त्रका व्यापार 'प्रहार' कहलाता है । इससे घर और भृत्य प्रादिक उपमर्दनका भी प्रहण होता है। 'प्रसत्य' पदसे बध, बन्ध भाविके कहने वाले कठोर वाक्यों माविका संग्रह होता है। गुणोंमें प्रसूया [वोषाविष्करण] 'मात्सर्य' कहलाता है। मारनेली इच्छा 'द्रोह' [कहलाती है । स्त्रियों प्राधिका अपमान,
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३१४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ११८, सू० १७२ सर्वस्वापहरणदिराधर्षः। अन्यायोऽपनीतिः । अनेनौद्धत्यं सुचितम् । एतेभ्यो विभावेभ्यः क्रोधस्थायी रौद्रो रसो जायते । घातेन छेदन-भेदन-रुधिराकर्षणादिरनुभावो गृह्यते । दन्तौष्ठपीडनेन गण्डौष्ठस्फुरण-हस्ताप्रनिष्पेषाद्यनुभाववृन्दं सूच्यते । व्यभिचारिणश्चास्य मोह-उत्साह-आवेग-अमर्ष-चापल-औग्य-स्वेद-वेपथु-रोमान्चादय इति । स्थायिनोऽपि चोत्साहादयो रसान्तरं प्रति व्याभिचारितां स्वीकुर्वन्ति । स्तम्भस्वेदादयश्च न रसकार्या व्यभिचारिणः, किन्तु स्थायिकार्या इति ।। [१५] ११७ ॥
अथ वीरः[सूत्र १७२]-पराक्रम-बल-न्याय-यशस्तत्त्वविनिश्चयः।
वीरोऽभिनयनं तस्य धैर्य-रोमाञ्च-दानतः ॥[१६]११८॥ पराक्रमः परकीयमण्डलाद्याक्रमणसामर्थ्यम् । बलं हस्त्यश्व-रथ-पदाति-धनधान्य-मन्त्र्यादिसम्पत् । शारीरिकी शक्तिवर्वा। न्यायः सामादीनां सम्यक् प्रयोगः । अनेनेन्द्रियजयो गृह्यते । यशः सार्वत्रिकी शौर्यादिगुणख्यातिः । अनेन शत्रुविषये सन्तापकर्तृत्वप्रसिद्धिरूपः प्रतापो गृह्यते । तत्त्वं याथात्म्यं तस्य विनिश्चयः । एवमादिभिर्विभावैरुत्साहस्थायी वीररसः सम्भवति । स चानेकधा, युद्ध-धर्म-दान-गुण-प्रतापावर्जनविद्या, कर्म, देश, जाति आदिको निन्दा प्रौर राज्य या सर्वस्वका अपहरण प्रावि 'प्राधर्ष' [कहलाता है । अन्यायका नाम 'अपनीति' है। इसके द्वारा प्रौद्धत्यको भी सूचित किया है। इन विभावोंसे क्रोध रूप स्थायिभाव वाला रौद्ररस उत्पन्न होता है 'घात' पदसे छेवन-भेदन और रक्त बहाने प्रादि अनुभावोंका ग्रहण होता है । दांतों के पीसने और ओंठ चबानेसे गालों और प्रोष्ठोंके फड़कने, हायके अग्रभागके मलने, प्रादि अनुभाव-समुदायका प्रहण होता है। इस [रौद्ररस] के व्यभिचारभाव मोह, उत्साह, आवेग, अमर्ष, चपलता, उग्रता, स्वेद, वेपथ
और रोमाञ्चादि होते हैं। उत्साहादि [वीररसमें] स्थायिभाव होनेपर भी रौद्रादि] दूसरे रसों में व्यभिचारी बन जाते हैं । स्तम्भ और स्वेदादि रसके कार्यरूप होनेसे [यहाँ] व्यभिचारिभाव नहीं कहलाते हैं अपितु स्थायिभावके कार्य होनेसे व्यभिचारिभाव कहलाते हैं।[१५]११७॥
अब वीररस [का लक्षण प्रादि करते हैं]
[सूत्र १७२]-पराक्रम, बल, न्याय, यश, और तत्वविनिश्चय प्रादिसे वीररस होता है, पौर र्य, रोमाञ्च तथा दानके द्वारा उसका अभिनय किया जाता है । [१६] ११८ ।
दूसरेके राज्य प्रादिपर पाक मरणको सामर्थ्य पराक्रम [कहलाता है। हाथी, घोड़े, रय, पदाति, धन-धान्य प्रौर मन्त्री प्रादिकी सम्पत्ति बल [पदसे अभिप्रेत है। अथवा शारी. रिक शक्ति [बल कहलाती है] । सामादि [उपायों का समुचित प्रयोग 'न्याय' [कहलाता] है। इसके द्वारा इन्द्रिय-जयका ग्रहण होता है। शोर्यादि गुणोंकी सर्वत्र प्रसिद्धि 'यश' [कहलाती है। इसके द्वारा शत्रुनोंके भीतर सन्ताप करनेकी प्रसिद्धि रूप प्रतापका [भी] प्रहण होता है। तत्त्व अर्थात् यथार्थता, उसका विनिश्चय [तत्त्वविनिश्चय कहलाता है । इस प्रकारके विभावोंसे उत्साह रूप स्थायिभाववाला वीररस उत्पन्न होता है। और युख, धर्म, बान, प्रादि गुणों तथा प्रतापाकर्षण प्रादि उपाधियोंके भेवसे [युटवीर, धर्मवीर, दानवीर पारि पसे] अनेक प्रकारका होता है। महान शत्रु-सैन्य अथवा महान विपत्तिके उपस्थित
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का० ११६, सू० १७३ 1 तृतीयो विवेकः
[ ३१५ आधु पाधिभेदात् । धैर्य महत्यपि परसैन्ये विपदि वा अकातर्यम। अनेन सैन्योत्तेजन-पराक्षेपादेरनुभावस्य ग्रहः । दानेन प्रमोद-माध्यस्थ्य-शान्तचेष्टादेः। व्यभिचारिणश्चास्य धृति-मति-गर्व-आवेग-श्रीप्रथ-अमर्ष-स्मृति-रोमान्चादयः। वीररसे च युद्धा- . दिभावेऽपि न रौद्रत्वम्, उत्साह-न्यायप्रधानत्वात् । रौद्रे तु मोह-अहङ्कार-अपन्यायप्राधान्यमित्यनयो न साङ्कर्यमिति ॥ [१६] ११८ ।।
अथ भयानकः - [सूत्र १७३]-पताका-कोति-रौद्रप्राजि-शून्य-तस्कर-दोषजः । भयानकोऽभिनेतव्यः स्तम्भ-रोमाञ्च-कम्पनैः ।।
[१७].११६॥ रौद्राः स्वराकारवैकृत्येन भीषणाः पिशाचोलुकादयः। आजिःशस्त्राघातः । अयं चोपलक्षणं वध-बन्धयोः। शून्यं निर्जनं गेहारण्यादि। दोषो गुरुनृपादेरपराधः । एभ्यो दृष्ट-श्रुतेभ्यश्चिन्त्यमानेभ्यो वा विभावेभ्यो भयस्थायी भयानको रसो जायते । गावस्याचलनं स्तम्भः । कम्पनं करचरणादीनां प्रवेपनम् । एभिर्गात्र-मुख-दृष्टिविकारगलशोष-वैवर्ण्य-मूर्छा-दयोऽनुभावाः संगृह्यन्ते । व्यभिचारिणश्चास्य शङ्का-मोहदैन्य-आवेग-चपलता-त्रास-अपस्मार-मरण-स्तम्भ - स्वेद - रोमान्च - वेपथु - स्वरभेदवैवादय इति ॥ [१७] ११६ ॥ होनेपर भी न घबड़ाना 'धैर्य' कहलाता है। इसके द्वारा [अपनी] सेनाको उत्तेजित करने और दूसरेपर प्राक्षेप प्रादि अनुभावोंका पहरण होता है। 'दान' पदसे प्रमोद मध्यस्थता पोर शांत चेष्टादिका ग्रहण होता है । इस [वीररस के व्यभिचारभाव ति, मति, गर्व, आवेग, अमर्ष, उग्रता, स्मृति तथा रोमाञ्च प्रादि होते हैं। वीररसमें युद्धादिके होनेपर भी रौद्रत्व नहीं पाता है। क्योंकि उसमें उत्साह तथा न्यायको प्रधानता रहती है। रौद्ररसमें तो मोह महङ्कार और अन्याय प्रादिको प्रधानता रहती है इसलिए [वीर और रोब] ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं ।। [१६] ११८ ॥
प्रब भयानक [रसका वर्णन करते हैं] -
[सूत्र १७३]-पताका, कीर्ति, भयोत्पादक [पिशाच उलूकादि], युद्ध [प्राजिः], निर्जन स्थान, और चोर-आफू प्रादि तथा [गुरु प्रादिके दोषोंसे भयानकरस उत्पन्न होता है। स्तम्भरोमाञ्च तथा कम्पनके द्वारा उसका अभिनय करना चाहिए। [१७] ११६ ।
___ स्वर तथा प्राकारको विकृति द्वारा भयोत्पादक पिशाच उलूकावि रौद्र [पदसे गृहीत] होते हैं। यह [रोद्रपद वध तथा बन्धनका भी उपलक्षण [ग्राहक है। निर्जर घर या अरण्यादि 'शून्य' पदसे लिया जाता है । दोष अर्थात गुरु अथवा राजा मादिका अपराध। इन विभावोंके देखने या सुननेसे भयरूप स्थायिभाव वाले भयानक रसकी उत्पत्ति होती है। अंगको हिलनेइलनेका प्रभाव 'स्तम्भ' कहलाता है। हाथ-पैर आदिका हिलना 'कम्पन' कहलाता है । इसके द्वारा शरीर, मुख, या दृरिका विकार, गलेका सूख जाना, विवर्णता और मूळ प्रादि अनुभावोंका भी ग्रहण होता है । शर, मोह, बन्य, पावेग, चपलता, त्रास, अपस्मार, मरण, स्तम्भ, स्वेद, रोमाञ्च, कम्पन, स्वरभेव, वर्ण्य आदि इसके व्यभिचारिभाव है। [१७] ११६॥
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नाट्यदर्पणम् । का० ११६-२०, सू०१२३-२४ अथ बीभत्सः - [सूत्र १७४]-जुगुप्सनीयरूपादि-परश्लाघासमुद्भवः ।
बीभत्सोऽभिनयश्चास्य निष्ठेवोद्वेग-निन्दनः ॥[१८] १२०॥ जुगुप्सनीया मालिन्य-कुथितत्व-दुर्गन्धित्व-कर्कशत्वादिभिरमनोज्ञाः । रूपादयो रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-शब्दलक्षणाः विषयाः । पररय विपक्षस्य श्लाघा स्तुतिः । एभ्यो दृष्टश्रुतेभ्यो विभावेभ्यो जुगुप्सास्थायी बीभत्सो रसः समुद्भवति । परश्लाघायां हि विशेषतो दोषदर्शनेन जुगुप्सते। निष्ठेवः कफनिरसनम् । उद्वेगो गात्रधूननम्। निन्दनं दोषोधनम् । एभिर्गात्रसङ्कोचन-मुखविकूणन-नासाकर्णप्रच्छादन-हल्लेखादिरनुभावः सूच्यते । व्यभिचारिणश्चास्य व्याधि-मोह-आवेग-अपस्मार-मरणादयः इति ॥ [१८] १२० ॥
___अथाद्भुत :[सूत्र १७५]-दिव्येन्द्रजाल-रम्यार्थ-दर्शनाभीष्टसिद्धितः। अद्भुतः, सोऽभिनेतव्यः श्लाघा-रोमाञ्च-हर्षतः ॥
[१६] १२१ ॥ दिव्याः शक्रादयः । इन्द्रजाल मन्त्र-दिव्य-हस्तयुक्त्यादिना असंभवद्वस्तु. प्रदर्शनम् । रम्यः सातिशयत्वेन हृद्योऽर्थः शिल्पकर्म-रूप-वाक्य-गन्ध-रस-स्पर्श-नृत्तगीतादिकः, तस्य दर्शनं साक्षात्कारः । अनेन स्वयं कीर्तनं श्रवणं च गृह्यते । श्रभीष्टमत्य
प्रब बीभत्स [रसका वर्णन करते ह]
[सूत्र १७४]-घृणित रूप ग्रादि तथा शत्रुकी प्रशंसा मादिसे उत्पन्न बीभत्सरस होता है। थूकने, नाक-भौं सिकोड़ने और निन्दाके द्वारा इसका अभिनय किया जाता है ।[१८] १२०॥
मलिनता सडांष, दुर्गन्ध अथवा कर्कशता माविके कारण प्ररुचिकर [अर्थ] 'जुगुप्सनीय' [अर्थ] कहलाते हैं। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श शम्मादि रूप विषम 'पर' अर्थात् विपक्ष [शत्रु] की प्रशंसा ['परश्लाघा' पबसे अभिप्रेत है । इन विभावोंके देखने या सुननेसे जुगुप्सारूप स्थायिभाव वाला वीभत्सरस उत्पन्न होता है। शत्रुकी प्रशंसामें विशेष रूपसे दोषोंको देखकर उससे घृणा करता है । निष्ठेव' पदका अर्थ कफका निकलना [अर्थात् थूकना है। हाथपर मादिका चलाना उद्वेग [का सूचक है। निन्दा अर्थात् दोष निकालना। इनसे अङ्गों के सिकोड़ने, मुखके विचकाने, नाक-कान प्राविके बन्द करने और जी मिचलाने, आदि अनुभादोंका ग्रहण होता है । व्याधि, मोह, मावेग, अपस्मार, मरण प्रादि इसके व्यभिचारिभाव है । [१८] १२० ॥
प्रब अद्भुत [रसका निरूपण करते हैं]
[सूत्र १७५]-देवताओं, अथवा इन्द्रजाल, सुन्दर रस्तु प्रादिके देखने सगा भाभीष्ट प्रर्थको [प्राकस्मिक] सिद्धिसे उत्पन्न होने वाला अद्भुत रस होता है । प्रशंसा रोमाञ्च तथा हर्षके द्वारा उसका अभिनय करना चाहिए ॥ [१८] १२१॥
दिव्य प्रर्यात् इन्द्रादि देवता । मन्त्र अथवा किसी द्रव्य अथवा हायको चालाको याविक द्वारा असम्भव बातको दिखला देना 'इन्द्रजाल' कहलाता है। रम्य अर्थात् अत्यन्त सुन्दर लगने वाला अचं जैसे सिल्प-रचना, अपवा रूप या वाक्यरचना, प्रथदा गग्व, रस,
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का० १२२, सू० १७६ ] तृतीयो विवेकः न्तमीप्सितम् । तस्य सिद्धिः प्राप्तिनिष्पत्ति। एवमादिभ्यो विभावेभ्यो विस्मयस्थायी अदभुतो रसो भवति । हर्षेण स्वानुभावाः सूच्यन्ते । एभिर्नयनविस्तार-गानोल्लुकसन अनिमिषप्रेक्षण-चेलोंगुलिभ्रमण-गद्गद्-वचन-वेपथु-स्वेदादेरनुभावस्य ग्रहः । व्यभिचारिणश्चास्य आवेग-जडता-सम्धन-स्तम्भ-अश्रा-गद्गद्-रोमाञ्चादय इति । [१६] १२
अथ शान्तः -- [सूत्र १७६]-- संसारभय-वैराग्य-तत्त्व-शास्त्र-विमर्शनः ।
शान्तोऽभिनयनं तस्य क्षमा-ध्यानोपकारतः ॥[२०] १२२।। देव-मनुष्य-नारक-तिर्यग्रूपेण बहुधा एरिभ्रमणं संसारः, तस्माद् भयम् । वैराग्य विषयवैमुख्यम् । तत्त्वस्य जीवाजीव-पुण्य-पापादिरूपस्य, शास्त्रस्य मोक्षहेतुप्रतिपाद. कस्य विमर्शन पुनः पुनश्चेतसि न्यसनम् । एवमादिभिर्विभावैः, काम-क्रोध-लोभ-मान: मायाद्यनुपरक्त परोन्मुखताविजिताक्लिष्टचेतोपशमस्थायी शान्तो रसो भवति । तर्जन-वध-बन्धादिसहनं क्षमा। ध्यानं जीवाजीबादिहन्त्वभावनम् । अनेन स्वानुभावा स्पर्श, नृत्त, गीतादि, उसका दर्शन अर्थात् साक्षात्कार करना। इससे स्वयं कहना या सुनना भी गृहीत होता है। अभीष्ट पदसे प्रत्यन्त चाहने योग्य प्रत्यन्त प्रिय पर्थ गृहीत होता है । उसको सिहि अर्थात प्राप्ति अथवा उत्पत्ति । इस प्रकारके विभावोंसे विस्मय रूप स्थायिभाववाला अद्भुत रस उत्पन्न होता है। [कारिकामें प्राए हुए] 'हर्ष' पवसे अपने अनुभाव सूचित होते हैं, इनसे नेनों का विस्तार, अंगोंको तोड़ना-मोड़ना टकटको लगाकर देखना, कपड़ा अथवा अंगुलियोंका घुमाना, गद्गद् वचन, कम्पन और स्वेदावि अनुभावोंका प्रहण होता है। पावेग, जड़ता, स्तम्भ, प्रधु, गद्गद् और रोमाञ्चादि इसके व्यभिचारिभाव होते हैं ।। [१६] १२१ ॥
अक्ष शांत [रसका निरूपण करते ह]
सूत्र १७६]-जन्म-मरण [रूप संसार से भय, वैराग्य, [प्रात्मा-परमात्मा धादि] तत्त्वों और शास्त्रादिके चिन्तनसे उत्पन्न होने वाला शांतरस होता है। और क्षमा, ध्यान तथा उपकार के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है। [२०] १२२ ॥
. देव मनुष्य नारक या तिर्यक् [पशु-पक्षी] आदि रूपमें घूमना [अर्थात बार-बार जन्म धारण करना] 'संसार' कहलाता है। उससे भय [शांतरसका कारण होता है ।] विषयोंसे विमुखता 'वाय' कहलाता है । तत्त्व अर्थात् नीव और अजीव अथवा पाप और पुण्य यावि अप, सा मोक्षके उपायोंके प्रतिपादक शास्त्रका विचार करना, चित में बार-बार लाना। इस प्रकार के भावोंसे काम, क्रोध, मोह, अभिमान, माया हादिके.सम्बन्धसे रहित विषयोन्मुखतासे रहित अगलष्ट चित्तवृत्ति रूप शमस्थायिभाव वाला शांतरस उत्पन्न होता है। - फटकार लजेन) अध, बन्धन प्रादिको सह लेना 'क्षमा' कहलाती है। जीव-प्रजी धादि तत्वोंका विचार करला 'ध्यान' कहलाता है : इससे अपने निश्चनष्टिता भादि अनुभाव प्रचित होते हैं । 'उपकार' पटसे मंत्री, मुदिता मोद] काणा, और उपेक्षा माध्यस्थ्य] प्रादि अनुभाव सूषित होते हैं। निद, भक्ति, मृति, इति प्रादि इसके व्यभिचारिभाव है। चिनजय प्रादि से किन्हीं प्राचार्यों ने इस [शांतरस] को नहीं माना है। उनके मतमें
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३१८ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १२३, सू० १७७ निश्चलदृष्टितादयः सूचिताः । उपकारेण मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यादयोऽनुभावा गृह्यन्ते । व्यभिचारिणश्चास्य निर्वेद-मति-स्मृति-धृत्यादयः। श्रयं च कैश्चिन्नोक्तः, तेषां सकलक्लेशविमोक्षलक्षणमोक्षपुरुषार्थपराङ्मुखत्वमेव दूषणमिति ॥ [२०] १२२॥
अथ काव्येषु रसनिबन्धनेऽवहितैर्भाव्यमिति उपदिशति[सूत्र १७७]-अर्थ-शब्दवपुः काव्यं रसः प्राणैविसर्पति ।
अजसा तेन सौहार्द रसेषु कविमानिनाम् ॥[२१]१२३॥ शब्दार्थों अभिनेयानभिनेयभेदस्य काव्यस्य वपुः शरीरम् । रसाः पुनः प्राणाः । तैर्विभावोपनिबन्धनकरणोपनीतैः सहृदयहृदयेषु काव्यं विसर्पति । तेन हेतुना कविमम्मन्यान अजसा मुख्यतों रसेषु सौहार्द प्रीतिः । रसाविर्भाविना प्रयत्नेनैवोपनीतस्य, अलंकारस्यापि निबन्धः। स चेतश्चमत्कारोत्येव इति अञ्जसा इत्युक्तम् । यथा
__“कपोले पत्राली करतलनिरोधेन मुदिता,
निपीतो निःश्वासैरयममृतहृद्योऽधररसः । सकल क्लेशोंके छुड़ाने वाले मोक्ष रूप पुरुषार्थसे पराङ्मुख होना ही दूषण है। [इसलिए उन का मत उचित नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि मोक्ष-प्राप्तिके लिए शांतरसको स्थिति प्रावश्यक है । जो लोग शांतरसको नहीं मानना चाहते हैं उनके मतमें मोक्षको सिद्धिका मार्ग ही बन्द हो जाता है। फिर मोक्षको सिद्धि किस प्रकार होगी। इसलिए सकल पुरुषार्थके शिरोमणिभूत मोक्ष पुरुषार्थकी सिद्धिके एकमात्र हेतुभूत शांतरसका मानना अनिवार्य है यह पम्यकारका अभिप्राय है।]॥ [२०] १२२॥
अब काव्यों [ की रचना ] में [ कवियोंको ] रसका समावेश करनेमें विशेष रूपसे सावधान रखना चाहिए इस बातको [अगली कारिकामें] कहते हैं
[सूत्र १७७]--शब्द और अर्थ रूप शरीर वाला काव्य, रस रूप प्राणोंसेही चलता है इसलिए अपनेको कवि समझने वाले [सुकवियों का रसोंके प्रति अनायास प्रेम होता है। [२१] १२३ ।
अभिनेय तथा अनभिनेय भेद वाले काव्यकां शरीर शब्द और अर्थ है। और रस उनका प्राण हैं। विभावोंके समावेश रूप साधनोंसे प्राप्त उन [रसों] के द्वारा काव्य सहृदयों के हक्योंमे प्रवेश पाता है [विसर्पति] । इस कारण अपनेको कवि समझने वाले सुकवियोंका रसोंमें प्रधान रूपसे प्रेम होता है। [मुख्य रूपसे] रसको प्राविर्भूत करने वाले प्रयत्नसे ही प्राप्त होने वाले अलंकारको भी रचना करनी चाहिए। [प्रलंकारोंकी रचनाके लिए अलगसे प्रयत्न सुकवि नहीं करते हैं । रसके सन्निवेशमें जो यत्न करते हैं उसीसे स्वाभाविक रूपसे अलङ्कार भी उनके काव्योंमें पा जाते हैं और वे चिसमें चमत्कार उत्पन्न करते हैं। इस बातके सूचन करनेके लिए [कारिकामें] 'असा' पदका ग्रहण किया है। .. जैसे
हे मानिनि प्रिये ! तुम्हारे गालोंपरकी पत्राली [चन्दनादिके द्वारा बनाई गई सौन्वर्याषायक रेखाएँ, नाराज हो जानेके कारण गालोंके ऊपर रखे गए] हाथोंकी रगड़ से मिट गई [किन्तु तुमने हमें उनके छूनेका अवसर नहीं दिया] अमृत के समान सुन्दर तुम्हारे
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का० १२३, सू० १७७ ] तृतीयो विवेकः
[ ३१६ मुहुः कण्ठे लग्नस्तरलयति वाष्पः स्तनतटं,
प्रियो मन्युर्जातस्तव निरनुरोधे न तु वयम् ॥" यथा राघवाभ्युदये
"तल्लावण्यमनन्यवृत्तिवचसां तत् कौशलं पेशलं, तत् सौभाग्यमभाग्यमर्त्य विमुखं तद् यौवनं पावनम् । एकेन प्रियसङ्गमेन मनसो विश्रामधाम्ना विना,
व्यर्थ सा हृदि सर्वमेव मनुते व्यालोलनेत्रोत्पला ॥" यथा वास्मदुपजे मल्लिकामकरन्दे प्रकरणे मकरन्दः
"श्रास्यं हास्यकरं शशाङ्कयशसां बिम्बाधरः सोदरः, पीयूषस्य, वांसि मन्मथमहाराजस्य तेजांसि च । दृष्टिविष्टपचन्द्रिका स्तनतटी लक्ष्मीनटीनाट्यभूः,
औचित्याचरणं विलासकरणं तस्याः प्रशस्यावधेः ॥" यथा वास्मदुपज्ञायां वनमालायां नाटिकायाम्
___ "राजा-[दमयन्ती प्रति]"दृष्टिः कथं जरठपाटलपाटलेयं कम्पः किमेष पदमोष्ठदले बबन्ध । नारङ्गरङ्गहरणप्रवणः प्रियेऽस्य वक्त्रस्य कुंकुममृतेऽरुणिमा कुतोऽयम् ।।"
एषु रसप्रयत्नेनैव शब्दार्थालंकारलाभः ॥ [२१] १२३ ॥ इन अपरोंके रसको उष्ण निःश्वासोंने पी डाला [पर हमें न मिल सका] और तुम्हारे मासू गलेमें लिपटते हुए स्तनोंके [ऊपर गिरकर उनके] तटको कम्पित कर रहे हैं [पर हम उसके छूनेके लिए तरस रहे हैं ] जान पड़ता है कि [प्राज] क्रोध ही तुम्हारा प्रिय बन गया है, हम नहीं।"
अथवा जैसे 'राघवाभ्युदय में--
"वह चञ्चल नेत्रों वाली [ज्यालोलनेत्रोत्पला, अपने] उस [लोकोत्तर] लावण्यको, अन्यत्र न पाए जाने वाले वचनोंके उस सुन्दर कौशलको, प्रभाग्यशाली पुरुषोंको प्राप्त न हो सकने वाले उस सौभाग्यको, और उस पवित्र [अपने] यौवनको, हृदयको विधाम देने वाले एकमात्र प्रियसङ्गमके बिना इस सबको व्यर्थ ही समझती है।"
अथवा जैसे हमारे बनाए हुए 'मल्लिकामकरन्द' नामक प्रकरण में मकरन्द
"सौन्दर्यको चरम सीमा [प्रशस्यावधेः] रूप उस [नायिका] का मुख चन्द्रमाको कोति का उपहास करने वाला है. बिम्बाधर अमृतका सहोदर है, वारणी मन्मथ महाराजके तेजके समान है, दृष्टि स्वर्गको चाँदनी-सी है, स्तनतटी लक्ष्मी रूप नटोको कोडाभूमि है और उचित पाचरण विलासको उत्पन्न करने वाला है।"
अथवा जैसे हमारी बनाई हुई 'वनमाला' नाटिकामें"राजा [रमयन्तीके प्रति]-.
हे प्रिये ! तुम्हारी] दृष्टि पुराने लोध्र [पाटल वृक्ष विशेष] के समान लाल क्यों हो रही है ? तुम्हारे मोठमें कम्प क्यों हो रहा है ? और बिना ही कुंकुमके लगाए तुम्हारे मुसपर नारंगीके रंगको भी पराजित करने वाली यह लालिमा क्यों हो रही है?
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३२०
नाट्यदर्पणम [ का० १२४, सु० १७८-७६ अमुमेवार्थ द्रढयात[सूत्र १७८]-न तथार्थशब्दोत्प्रेक्षाः श्लाघ्याः काव्ये यथा रसः ।
विपाककम्रमप्यानं उद्वजयति नीरसम् ॥[२२] १२४॥ न हि नवनवार्थव्युत्पन्नशब्दग्रथनमेव काव्यं, तर्क-व्याकरणयोरपि तथाभावप्रसंगात् । किन्तु विचित्ररसपवित्रशब्दार्थनिवेशः । विपाककमनीयमपि सहकारफलं विरसमुद्व गमावहति । अतः शब्दार्थमात्रशरणाः शुष्ककवयो यमकश्लेषादीनामेव निबन्धमर्हन्ति । न तु रसैकशरणस्य नाट्यस्येति ॥ १२४ ॥
अथ विरुद्धरसानां विरोधे व्यवस्थामाह[सूत्र १७६]-एकत्र स्वैरिणोस्तुल्यशक्त्योर्योगे विरुद्धता।
एकस्मिन्नाश्रये नायकादौ तस्मिन्नेव प्रक्रमे परस्परविरुद्धयो रसयोविरुद्धता, न तु भिन्ने । यथाऽर्जुनचरिते--
इनमें रसके लिए किये गए प्रयत्नसे ही [स्वाभाविक रूपसे] शब्दालङ्कार तथा प्रर्यालकारोंका समावेश हो गया है [उनके लानेके लिए कविने पृथक् प्रयत्न नहीं किया है।]
इसी बातको पुष्ट करते [हए धागे कहते हैं
[सूत्र १७८]-काव्यमें शब्द तथा अर्थको कल्पना उतनी प्रशंसनीय नहीं होती है जितनी रसको स्थिति । जैसे पक जानेके कारण सुन्दर लगने वाला प्रामका फलभी रस-रहित होनेपर बुरा मालूम होता है ।[२२] १२४ ॥
नए-नए प्रयोको प्रकाशित करने वाले शब्दोंकी रचना कर देना मात्र ही काव्य नहीं कहलाता है। क्योंकि न्याय तथा व्याकरणाविमें भी यह [नए-नए प्रोंके प्रकाशक भन्दोंकी रचना हो सकता है। किन्तु [विचित्र चमत्कारजनक, रससे पवित्र शब्द और अर्थका सन्निवेशही काव्य कहलाने योग्य होता है। जैसे परिपाक हो जानेके कारण सुन्दर दिखलाई देने वाला भी प्रामका फल रसशून्य होने पर सुरा लगता है। इसलिए केवल शम्द तथा अर्थ का अवलम्बन करने वाले शुष्क कवि यमक अनुप्रास प्रादिकी ही रचना कर सकते हैं, रसप्रषान नाटकको [रचना नहीं कर सकते हैं । [२२] १२४॥
अब विरुद्ध रसोंका विरोध [उपस्थित होनेपर उसके परिहारके मार्ग [व्यवस्था को बतलाते हैं
[सूत्र १७९]-एक ही स्थानपर को स्वतन्त्र और तुल्यशक्ति वाले रसोंमें विरोध होता है। [अर्थात् (१)भिन्न प्राश्रयों में रहने वाले अथवा (२) स्वतन्त्र न रहने वालें, अथवा (३) तुल्य बल न रहने वाले रसों में विरोध नहीं होता है । अत एव (१) दो विरोधी रसोंमें पाश्रयभेदसे, (२) एकको दूसरेके अंग बना देनेपर, अथवा (३) वोनोंको किसी तीसरे अविरोधी रसका अंग बना देनेसे और गौण रूपसे वर्णन करनेपर विरोध नहीं रहता है। यही उनके विरोध-परिहारके मार्ग हैं।
एक ही पाश्रय अर्थात् नायकादिमें और उसी प्रसंगमें परस्पर विरोधी रसोंका विरोध होता है। भिन्न प्राश्रयोंने अथवा भिन्न प्रसंगोंमें [उसी नाटकमें विरुख रसका वर्णन होने पर विरोध नहीं होता है । जैसे अर्जुनचरितमें
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का० १२५, सू० १७६] तृतीयो विवेकः
. [ ३२१ समुत्थिते धनुर्ध्वनौ भयावहे किरीटिनः ।
महानुपप्लवोऽभवत् पुरे पुरन्दरद्विषाम् ॥" अत्र नायकस्य वीरः, प्रतिपक्षाणां तु भयानकः । यथा वा
"दन्तक्षतानि करजैश्च विपाटितानि, प्रोद्भिन्नसान्द्रपुलके भवतः शरीरे। दत्तानि रक्तमनप्ता मृगराजवध्वा
जातस्पृहैमुनिभिरप्यवलोकितानि॥" अत्र तस्मिन्नेव प्रकमे मुनि-कामुकयोभिन्नयोन शृङ्गार-शान्तौ विरुद्धाविति ।
तथा स्वैरिणोः स्वतन्त्रयोः सतोर्विरुद्धयो रसयोर्विरुद्धता, न तु परतन्त्रस्वतन्त्रयोः, मुख्यस्यायत्तयोर्वा यथा
"कुरबक ! कुचाघातक्रीडासुखेन वियुज्यसे, बकुलविटपिन् ! स्मर्तव्यं ते मुखासवसेचनम् । चरणघटनाशून्यो यास्यस्यशोक ! सशोकतां,
इति निजपुरत्यागे यस्य द्विषां जगदुः स्त्रियः ॥" मर्जुनके भयावह धनुषके ध्वनिके उदय होनेपर इन्द्र के शत्रुप्रोंके नगरमें बड़ी घबराहट फैल गई। . इसमें [वीर तथा भयानक दो रसोंका वर्णन है। ये दोनों रस एकाधयमें होनेपर विरोधी माने जाते हैं। यहां उन दोनोंके प्राधयका भेद कर दिया गया है। इसलिए उनमें विरोष नहीं रहता है] । नायक [अर्जुन] में वीर रस है और शत्रुनों में भयानक रस है [इसलिए प्राषयभेद हो जानेसे उनमें विरोध नहीं रहा ।
अथवा जैसे
रक्तपानको इच्छा करने वाली [दूसरे पक्षमें अनुरागपूर्ण मन वाली] मृगराजको वधू [सिंहनी दूसरे पक्षमें किसी राजाकी पत्नी ने प्रापके रोमाञ्चयुक्त शरीरके ऊपर जो बन्तप्रहार पोर नखोंसे विपाटनके चिन्ह बनाए हैं उनको मुनियोंने भी सस्पृह होकर [अर्थात हम भी इन वन्तक्षत नखाक्षतोंसे विभूषित होते इस इच्छासे] देखा।
यहां उसो प्रसङ्गमें मुनि और कामुक दो भिन्न प्रापयोंमें रहने वाले शांत और मृङ्गार रसोका विरोध नहीं है।
___इसी प्रकार [को विरोधी रसोंके] स्वतन्त्र रूपसे [परिणत] होनेपर ही विरोध होता है एकके परतन्त्र और दूसरेके स्वतन्त्र होनेपर अथवा दोनोंके किसी तीसरे मुल्य रसके अधीन होनेपर [उनका विरोष] नहीं होता है । जैसे
हे कुरबक ! [वृक्ष विशेष, हमारे यहाँसे चले जानेपर तुम [हमारे द्वारा प्राप्त होने वाले कुचाघातके सुखसे वंचित हो जानोगे । हे बकुल ! [मौलश्रीके वृक्ष] तुम्हें हमारे द्वारा प्राप्त होने वाले मरके कुल्ले द्वारा सेचनकी याद माया करेगी। हे मशोक ! हमारे बरल प्रहारसे वञ्चित हो जानेपर तुम शोकयुक्त हो जानोगे। जिसके [भयके कारण उसके शमोंको स्त्रियां इस प्रकार इन वृक्षों को सम्बोषित करके कहती थीं।
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द
[ का० १२५, सू० १७६
अत्रोद्दीपनविभावैः कुरबका दिभिरुद्दीप्यमानः शृङ्गारो विशेषतः करुणं स्वतन्त्रमङ्गिनं द्विषत्स्त्रीणां पोषयति ।
यथा वा
३२२ ]
"प्रयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दनः । नाभ्युरूजघनस्पर्शी नीवीविस्रंसनः करः ॥
भूरिश्रवसः समरभुवि पतितबाहुदर्शनेन तत्प्रियाणां शृङ्गारः स्मर्यमाणः
करुणं पोषयति ।
मुख्यस्यायत्तौ यथा----
" क्षिप्तो हस्तावलग्नः प्रसभमभिहतोऽप्याददानोंऽशुकांतं, गृह्णन् केशेष्वपास्तश्चरणनिपतितो नेक्षितः सम्भ्रमेण । आलिङ्गन् योऽवधूतस्त्रिपुरयुवतिभिः साश्रुनेत्रोत्पलाभिः, कामीवार्द्रापराधः स दहतु दुरितं शान्भवो वः शराग्निः ॥” अत्र त्रिपुररिपुप्रभावातिशस्य करुण - शृङ्गारावङ्गभूतौ । परस्परविरोधेऽपि चान्यमुखप्रेक्षितपारतन्त्र्यदुःखाभिघातेन स्वात्मपुष्टिमलभमानयो नृपसमीपस्थित - श्राततायिद्वयवत् कुतः करुण-शृ' गारयोर्घात्य - घातकभावः इति ?
इसमें कुeos प्रादि रूप उद्दीपन विभावोंके द्वारा उद्दीप्त क्रिया जाने वाला शत्रु स्त्रियोंका शृङ्गार रस उनके भीतर रहनेवाले प्रधान और स्वतन्त्र करुण रसको पुष्ट करता है ।
प्रथवा जैसे
[हमारी रशना अर्थात् ] तगड़ीको हटाने वाला, पोन स्तनोंका मर्दन करने वाला तथा नाभि जंघाओं और नितम्बों का स्पर्श करने वाला तथा नारेको खोलने वाला [हमारे प्रियतम भूरिश्रवाका ] यह वही [ प्रानन्ददायक ] हाथ है ।
इसमें समरभूमिमें पड़े हुए, भूरिश्रवाके हाथको देखकर उसको पत्नियोंका स्मयं मारण शृङ्गार रस [भूरिश्रवाकी मृत्युके बाद वर्तमान ] करुण रसका परिपोषरण कर रहा है। [इसलिए श्रृंगार करुण रसका अंग होनेसे उसका विरोधी नहीं है] ।
[[किसी तीसरे ] मुख्य रसके अधीन रहने वाले [ दो विरोधी रसोंके अविरोधका उदाहरण] । जैसे—
शिवाजी द्वारा किए गए त्रिपुरदाहके समय त्रिपुरकी स्त्रियोंको दुर्दशाका वर्णन करते हुए कविने इस श्लोक में अग्निका कामी के साथ सादृश्य इस प्रकार दिखलाया है[ श्रार्द्रापराध कामीके समान स्त्रियोंका ] हाथ पकड़नेपर भटक दिया गया, बलात् हटाए जानेपर भी वस्त्रोंको ग्रहण करनेवाला, केशोंको कृते समय दूर हटाया गया, पैरोंमें गिरनेपर भी [ अग्नि पक्षमें] भयके कारण [ और कामी पक्षमें सम्भ्रम अर्थात् आदरपूर्वक ] न देखा गया, और [परस्त्री गमन प्रावि रूप तुरन्त किए हुए अपराधके कारण] ताजे श्रपराध वाले कानके समान आँखोंमें प्रांसु भरे हुए त्रिपुरकी युवतियोंने प्रालिंगन करते हुए जिस [अग्नि] को झटक दिया है इस प्रकारका शिवजीके मारणोंका श्रग्नि तुम्हारे दुःखों या पापों को नाश करे ।
इसमें करुण और श्रृंगार [दोनों परस्पर विरोधी रस ] त्रिपुरारि [शिवजी ] के प्रतापा
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काय १२५, सू० १७६ ] तृतीयो विवेकः
[ ३२३ तथा एकाश्रययोरपि तुल्यबलयोर्विरोधो, न तु हीनाधिकबलयोः। यथा पुरुरवाः प्राह
"क्वाकार्य शशलक्ष्मणः क्व च कुलं भूयोऽपि दृश्येत सा, दोषाणां प्रशमाय नः श्रुतमहो कोपेऽपि कान्तं मुखम् । किं वक्ष्यंत्यपकल्मषाः कृतधियः स्वप्नेऽपि सा दुर्लभा,
चेतः ! स्वास्थ्यमुपैहि कः खलु युवा धन्योऽधरं धास्यति॥" अत्र शृङ्गार-शांतयोर्न परस्परमङ्गाङ्गिभावो अपोष्य-पोषकत्वात् । तृतीयस्याभावात् अङ्गभावोऽपि नास्ति, किन्तु स्वतन्त्रौ । तथापि न विरोधः, शांतस्यागन्तुकत्वेन अल्पबलत्वात् । अत एवात्र पर्यन्ते शृङ्गारे विश्रान्तिः । एवमन्यत्रायुदाहार्यम्।
तथा एकाश्रययोः स्वैरिणोस्तुल्यशक्त्योर्विरुद्धयोर्योगे नैरन्तर्ये विरोधो न त्वतिशयके अंग हैं। इसलिए परस्पर विरोधी होनेपर भी दूसरे [प्रधानभूत शिवके प्रतापातिशय] का मुख देखने वाले होनेसे परतन्त्रताके दुःखसे प्राक्रांत होकर स्वयं अपने परिपोषणको न प्राप्त कर सकने वाले करुण मौर शृंगारमें, राजाके समीपमें स्थित दो प्राततायियोंके समान एक दूसरेके लिए धारय-घातक भाव नहीं हो सकता है । [इसलिए यहां इन दोनों रसों का परस्पर विरोध नहीं है।
इसी प्रकार एक ही [नायक प्रावि रूप] प्राधयमें रहने पर भी दोनोंके तुल्य बल होनेपर ही विरोष होता है। दुर्बल और प्रबल होनेपर नहीं। जैसे [विक्रमोर्वशीयमें] पुरूरवा कहता है
(१) कहां यह अनुचित कार्य और कहां [हमारा उज्ज्वल बनवंश [तक] । (२) क्या वह फिर कभी देखनेको मिलेगो [ौत्सुक्य] । (३) [मरे] मैंने तो दोषोंपर विजय प्राप्तके लिए ही शास्त्रोंका अध्ययन किया है
[फिर इस कुमार्गपर क्यों जा रहा हूँ] [मति । (४) [मोहो] कोषमें [नाराज होनेपर भी उसका [लाल-लाल] मुख कितना सुन्दर
लगता है। [स्मरण]। (५) [मरे मेरे इस व्यवहारको बेलकर] विद्वान एवं धर्मात्मा लोग मुझको क्या
कहेंगे शंका। (६) वह तो। अब स्वप्न में भी दुर्लभ हो गई। बन्य] (७) अरे मन तनिक पीरज रखो। [] (८) न जाने कौन सौभाग्यशाली युवक उसके प्रधरामृतका पान करेगा [चिन्ता] ।
इसमें शांत और श्रृंगार रसोका पोष्य-पोषकभाव न होनेसे अंगांगिभाव [मर्यात गुणप्रधानभाव नहीं है । और किसी तीसरे रिस] के न होनेसे [दोनोंका तीसरेके प्रति] अंगभाव भी नहीं है। किन्तु बोनों स्वतन्त्र रस हैं। फिर भी यहाँ शान्त रसके आगन्तुक होनेसे दुर्बल [तथा भंगारके प्रकृत होने के कारण प्रबल होनेसे [उन दोनों का विरोध नहीं है। इसलिए यहाँ पन्त भंगार रस में ही विधान्ति होती है। इसी प्रकार सम्य बाहरण भी समझ सेने पाहिए।
पौर एकामयमें रहने वाले दो स्वतन्य तवा सुंस्य पसरतोंका भी मेरन्त पार
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३२४ ]
नाट्यदर्पणम
विरुद्धेन रसान्तरेण व्यवधाने । यथा नागानन्दे
"रागस्यास्पदमित्यवैमि न हि मे ध्वंसीति न प्रत्ययः ।" इत्यादिनोपक्षेपात् प्रभृति शांतो रसस्तस्य विरुद्धो मलयवतीविषयः शृङ्गारः'अहो गीतमहो वादित्रम्' इत्यादिना श्रद्भुतमन्तरे कृत्वा निबद्धः । एवमन्येप्युदाहार्यमिति ।
[ का० १२५, सू० १८०
विभाव-व्यभिचारिणां तु रसानुरोधेन विरोधः परिहारश्च द्रष्टव्यः । अथ रसदोषानाह -
M
[ सूत्र १८० ] - दोषोऽनौचित्यमङ्गौग्रच श्रपोषोऽत्युक्तिरङ्क्षिभित्
(अ) सहृदयानां विचिकित्साहेतु कर्मानौचित्यं तच्चानेकधा । ( क १) तत्र क्वचित् प्रतिकूलविभाव- मात्रनिबन्धो यथा
" त्यजत मानमलं बत विग्रहैर्न पुनरेति गतं चतुरं वयः । परभृताभिरितीव निवेदिते स्मरमते रमते स्म वधूजनः || ”
।। [२३] १२५ ।।
श्रव्यवधानसे वर्णन] होनेपर ही विशेष होता है । [दोनोंके] अविरोधी अन्य रसके व्यवधान होनेपर विरोध नहीं होता है । जैसे नागानन्दमें
[हे मित्र आत्रेय ! यह यौवन] विषय-वासनाका घर है यह बात मैं जानता हूँ और यहं सदा रहने वाला नहीं है यह बात भी मुझे मालूम है [ प्रथमांक श्लोक संख्या ४] ।
इत्यादि [मुखसन्धिके] उपक्षेप [नामक अंग] से लेकर शांत रस [प्रारम्भ हो गया ] है । उसका विरोधी मालती विषयक अनुराग [ प्रथमांकके १४ वें श्लोकके पूर्व कहे गए ] 'श्रहो गीतं श्रहो वादितम्' इत्यादि [वाक्य ] से बीचमें प्रद्द्भुत रसका समावेश करके [ व्यवधानसे] वर्णन किया गया है। [इसलिए यहाँ शांत तथा श्रृंगार रसोंका विरोध नहीं रहता है ]। इसी प्रकार अन्य रसोंमें भी समझ लेना चाहिए ।
[विरोधी रसों] के विभावों तथा व्यभिचारिभावों में रसके [ विरोध-प्रविरोधको व्यवस्थाके ] अनुसार ही विरोध तथा उसका परिहार समझ लेना चाहिए ।
अब रसके दोषोंका वर्णन प्रारम्भ करते हैं
[ सूत्र १८० ] - ( क ) [ रसोंका ] अनौचित्य, (ख) अंगोंकी उग्रता [अर्थात् प्रप्रधानभूत रसका प्रधानरसको अपेक्षा विस्तारपूर्वक वर्णन ] ( ग ) [ मुख्य रसकी] पुष्टिका प्रभाव, (घ) [मुख्य रसका भी प्रावश्यकतासे] अधिक विस्तार (ङ) [ अंगिभित् प्रर्थात् ] प्रधान रसको भुला देना [ये पाँच प्रकारके रसके] दोष होते हैं । [३३] १२५ ।
(क) सहृदयोंके [मनमें] शङ्का या संदेह [उत्पन्न] करने वाला कर्म अनौचित्य कहलाता है । और वह अनेक प्रकारका हो सकता है । [ रसका अनौचित्य ] कहीं ( क१) प्रतिकूल विभावादिके वन रूप होता है। जैसे—
इस मानको छोड़ दो, [अधिक काल तक ] प्ररणय-कलह करना उचित नहीं है। यह [ यौवनकी] सुन्दर अवस्था [ एक बार समाप्त हो जानेपर ] फिर लौटकर नहीं प्राती है । कोकिलोंके [लहू शब्द द्वारा] मानो इस प्रकारकी सूचना देनेपर वधूजन कामोत्सुक पतियोंके
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का० १२५, सू० १५० ] तृतीयो विवेक:
[ ३२५
अत्र शृङ्गारप्रतिकूलस्य शांतस्यानित्यताप्रकाशरूपो विभावो विरुद्धः । (क २) क्वचिदकाण्डे प्रथनम् । यथा वेणीसंहारे धीरोद्धतप्रकृतेरपि दुर्योधनस्य भीष्म-प्रमुखमहावीरलक्षक्षयकारिणि प्रवृत्ते समरसंरम्भे भानुमतीं प्रति शृङ्गारवर्णनम् । (क ३) क्वचिदकाण्डे विच्छेदो यथा वीररचिते राघव भार्गवयोर्धाराधिरूढे वीररसे 'कणमोचनाय गच्छामि' इति राघवस्योक्तिः ।
( क ४) क्वचिदुत्तमाधम- मध्यमानां प्रकृतीनामन्यथा वर्णनम् । यथाउत्तमानां हास्य-बीभत्स-करुण-भयानक- श्रभुतप्रकर्षः ।
( क ५) मध्यमाऽधमानां तु श्रमाम्यः श्रृंगारः, वीर- रौद्र-शांतप्रकर्षश्च ।
(क ६) उत्तमेष्वपि दिव्येषु सम्भोगेट गारवर्णनं पित्रोः सम्भोगवर्णनसमं यथा कुमारसम्भवे उमा-महेश्वरयोः ।
(क ७) दिव्येषूत्तमेष्वपि सद्यः फलदक्रोध-स्वः पातालगमन-समुद्रलंघनाद्युत्साहवर्णनम् ।
साथ रमरण करने लगीं ।
( क१) इसमें श्रृंगार रसके प्रतिकूल प्रनित्यता प्रकाशन रूप शांत रसके विभावोंका वर्णन [ प्रकृत श्रृंगार रसके] विपरीत है ।
(क २) कहीं बेमौके विस्तार कर देना [ भी रस दोध होता है] जैसे बेणीसंहार [के द्वितीया ] में धीरोद्धत प्रकृतिके [नायक ] होनेपर भी भीष्म प्रादि लाखों वीरोंका नाश कर डालने वाले [भयङ्कर] युद्धके प्रारम्भ होनेपर भी भानुमतीके प्रति शृंगारका बर्णन [ प्रकाण्ड-प्रथन रूप रसदोषका उदाहरण है ] ।
( क ३) कहीं अवसर के बिना ही रसका विच्छेद [कर देना भी रसदोष होता है] जैसे - महावीरचरित्र में रामचन्द्र तथा परशुरामजी के बीच वीररसके पूर्ण प्रवाहपुर ग्रा जानेपर [ अच्छा अब मैं ] 'कंगन खोलनेके लिए जा रहा हूँ' यह रामचन्द्रका कथन [प्रकाण्डमें रसका विच्छेदक होनेसे रसदोष है] ।
( क ४) कहीं उत्तम प्रथम तथा मध्यम प्रकृतियों [वाले पात्रों] का विपरीत रूपमें वर्णन [ प्रकृति- विपर्यय नामक रसवोष है] जैसे उत्तम [ प्रकृति वाले पात्रों] के वर्णन हास्य बीभत्स कहरण भयानक और प्रदभुत रसोंका प्रत्यधिक वर्णन [ अनुचित है]
( क ५) मध्यम तथा प्रथम [ प्रकृतिके नायकावि] के [साथ प्रग्राम्य अर्थात् ] शुद्ध श्रृंगार वीर, रौद्र और शांतरसके प्रकर्षका वर्णन [ अनुचित होनेसे ये दोनों प्रकारके बन प्रकृति- विपर्यय नामक रस दोनोंमें प्राते हैं]
( क ६) उत्तम [ प्रकृतियों] में भी दिव्य [पात्रों] के श्रृंगारका वर्णन [अपने] मातापिताके श्रृंगार रसके वर्णन के समान [ होनेसे अनुचित ] है । जैसे कुमारसम्भवमें पार्वती और शिवके [ शृंगारका वर्णन ] ।
( क ७) देवताओंको छोड़कर उत्तम प्रकृतियोंमें भी तुरन्त फल देने वाले या पातालमें गमन, समुद्रलङ्घनादिके उत्साहका वर्णन [भी अनुचित होने इसी विपर्यय रूप रसदोषकी श्रेणीमें प्राता है] ।
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३२६ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० १२५, सू० १५०
(क) धीरोदात्त धीरोद्धत-धीरललित-धीर शांतेषूत्तमेषु वीर- रौद्र-शृंगारशांतानामवर्णनं, विपरीतवर्णनं वा । मध्यमाधमेषु त्वेषु वीरादिरसप्रकर्ष वर्णनम् ।
(क ) क्वचिद् वर्ण- समासान्यथाप्रथनम् । तत्र दीप्तेषु रसेषु संयुक्तैमूर्धन्यैश्च वर्णैः समासदैर्येण च प्रायः प्रसन्नो मसृणश्च बन्धः । अदीप्तेषु तु शृंगार- हास्यकरुण-शान्तेषु मूर्धस्थवर्गापव्चमै स्वैश्च वर्णैः असमासेन मध्यमसमासेन च प्रायः प्रसन्नो बन्धः । सर्वेषु च प्रसिद्धैर क्लिष्टैरप्राम्यैः पुष्टः थैः पदैर्न्यासः ।
( क १०) क्वचिदुत्तमस्य उत्तमनायिकायां व्यलीकसम्भावना | ( क ११) क्वचिन्नायिकापादप्रहारादिना नायकस्य कोपः ।
(१२) क्वचिद् वयो - वेष- देश - काला- अवस्था-व्यवहारादीनामन्यथा वर्णनम् । ( क १३) एवमन्यदपि यमक - श्लेष - चित्रादिकं ऋतुं समुद्रादि चन्द्रार्कोदयास्तादिप्रकर्ष वर्णनं च रसानङ्गमनौचित्यं द्रष्टव्यमिति ।
(ख) अथाङ्गौत्रम् | अंगस्य मुख्यरसपोषकतया श्रवयवभूतस्य औप्रय' विस्तरेणेत्कटत्वं दोषः । यथा कृत्यारावणे जटायुबध-लक्ष्मणशक्तिभेद - सीताविपत्ति८) धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित और धीरशांत रूप उत्सम प्रकृतियों में भी वीर, रौद्र, श्रृंगार तथा शांत रसोंका वर्णन न करना अथवा विपरीत वर्णन [ प्रकृति- विपर्यय नामक रस दोष होता है] और मध्यम तथा प्रथम प्रकृतियोंमें तो इन [ धीरोदात्तादि] में वीरादि रसोंके प्रकर्षका वर्णन [भी अनुचित होनेसे प्रकृति-विपर्यय नामक रसदोषोंमें पाता है] ।
( क ) कहीं वर्णों तथा समासोंका [रसके विपरीत रूपमें ] श्रन्यथा प्रयोग [ भी रसदोव में गिना जाता है] । जैसे [वीर रौद्रादि ] दीप्त रसोंमें संयुक्त और मूर्धन्य [अर्थात् ऋटुरषारणां मूर्धा - र, ष, तथा टवर्ग ] वर्णों तथा लम्बे-लम्बे समासोंसे सुन्दर और मनोहारिणी रचना बनती है । और शृङ्गार, हास्य, करुण, तथा शांत जैसे प्रदीप्त रसोंमें तो वर्गके पश्चम अक्षर से युक्त ह्रस्व वरणों और समास-रहित अथवा श्रल्प समासके द्वारा सुन्दर तथा मनोहारिणी रचना होती है। और सभी रसोंमें प्रसिद्ध प्रक्लिष्ट ग्राम्यता रहित तथा पुष्टार्थक पदोंका विन्यास होना चाहिए। [इसके विपरीत होनेपर दोष हो जाता है] ।
( क १० ) कहीं उत्तम [ प्रकृति ] के [ नायक ] की उत्तम नायिकाके प्रति व्यभिचारसम्भावना [ भी अनौचित्य मानी जाती है क्योंकि उत्तम प्रकृतिकी नायिकामें इस प्रकारके दोषकी सम्भावना भी नहीं करनी चाहिए ] ।
( क ११) कहीं नायिकाके पादप्रहारादिसे नायकके कोपका वर्णन [ अनौचित्यके है ] । ( क १२) कहीं प्रयु, वेष, देश, काल, अवस्था तथा व्यवहाराविका श्रन्यथा वरन [भी अनौचित्य माना जाता है ] ।
( क १३ ) यमक, इसी प्रकार [अनुचित रूपसे प्रयुक्त] श्लेष, चित्र, ऋतु, समुद्रावि, सूर्य तथा चन्द्र के उदयास्तादिके जो कि रसके अंग नहीं हैं उन [रसके अनङ्ग] के प्रकर्षका वन [अर्थात् श्रत्यधिक विस्तारके साथ वर्णन] अनौचित्य समझना चाहिए ।
(ख) अब [ श्रङ्गोंकी] उता [दोषका निरूपण करते हैं] प्रङ्ग अर्थात् मुख्य रसके पोषक होनेसे प्रवयव रूपकी उग्रता प्रर्थात् अत्यन्त विस्तारके कारण उत्कट हो जाना भी दोष है । जैसे कृत्यारावरगमें जटायुके बध, लक्ष्मणके शक्ति लगने, औौर सीताको विपत्तिको सुनने
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का० १२५, सू० १८० ]
तृतीयो विवेकः
[ ३२७
श्रवणेषु रामस्य मुहुर्मुहुः करुणाधिक्यम् । अंगभूतो हि रसो न धाराधिरोहमईति, अन्यथाऽङ्गिन वीररसं तिरोदधीत ।
केचिदत्र हयग्रीवधे हयग्रीववर्णनमुदाहरन्ति । स पुनर्वृ त्तदोषो वृत्तनायकस्याल्पवर्णनात् । तत्र हि वीरो रसः स विशेषतो बध्यस्य शौर्य-विभूत्यतिशय वर्णनेन भूष्यत इति ।
(ग) 'अपोष:' इति धारानधिरोहणं अपोषो दोषः । यथा"बीभत्सा विषया, जुगुप्सिततमः कायो, वयो गत्वरं, प्रायो बन्धुभिरध्वनीव पथिकैर्योगो वियोगावहः । हातव्योऽयमसम्भवाय विरसः संसार इत्यादिकं, सर्वस्यापि हि वाचि, चेतसि पुनः कस्यापि पुण्यात्मनः || ”
अत्र कविना 'वाचि' इत्युपनिबध्नता विषयबीभत्सत्वादीनां शान्तजननं प्रति मन्दत्वमुक्तम् । अन्यथा सर्वस्य चेतस्यपि स्यात् । अपोषश्चांगिनो, अंगांगिभाववर्जितस्य वा मुक्तकोपात्तस्य । अंगभूतस्यापोषः पुनर दोष एवेति ।
(घ) ' अत्युक्तिः' इति धाराधिरूढस्यापि रसस्य नैरन्तर्येण पुनः पुनः उद्दीप्ति - पर रामचन्द्र के बार-बार करुरण [ विलापावि ] का अधिकय [ इस प्रोग्रय नामक रसदोषका उबाहररण है] । भङ्गभूत [ अप्रधान] रसका प्रत्यन्त विस्तार नहीं होना चाहिए। अन्यथा वह प्रधान भूत वीररसको दबा देगा ।
कुछ लोग हयग्रीव-वध में हयग्रीवके वर्णनको इसका उदाहरण बतलाते हैं । किन्तु [हमारी सम्मति में तो ] वह वृत्त दोष है [ रसदोष नहीं है] । क्योंकि उसमें वृत्त [अर्थात् कथाभाग ] के नायकका वर्णन कम [ और प्रतिनायक हयग्रीवका वन अधिक हो गया है । अतः वह वृत्त दोष है रसदोषमें उसका उदाहरण नहीं देना चाहिए] । उसमें वीररस [मुख्य रस] है मौर ass [यप्रीव] के शौयं तथा विभूति श्रादिके प्रतिशय वनसे वह शोभित [परिपुष्ट ] ही होता है [प्रतः उसमें रसदोष नहीं माना जा सकता है। वह वृत्त दोष अर्थात् कथाभागका दोष है] (ग) प्रपोष अर्थात् [ मुख्य रसका] प्रवाहपर न आना [प्रपोष नामक रसदोष होता है] । जैसे
विषय प्रत्यन्त बीभत्स है, यह शरीर [मल-मूत्र प्रादिकी खान होनेसे ] श्रत्यन्त घृणित है, प्रायु विनष्ट होने वाली है, और बन्धु बान्धवोंके साथ मिलन रास्तेमें मिलने वाले पथिकों समान अन्तमें वियोग में पर्यवसित होनेवाला ही होता है [असम्भवाय अर्थात् ] पुर्नजन्मसे बचने के लिए [ मुक्तिकी प्राप्तिकेलिए] इस नीरस संसारको त्याग देना चाहिए इत्यादि [ वैराग्यपूर्ण बातें] सब लोगोंके केवल वचनों में रहती है, मनमें तो किसी पुण्यात्माके हो पाई जाती है । इसमें 'वाचि' [वारणीमें ही होती है मनमें नहीं] ऐसा कहकर कविने विषयोंकी बीभत्सता आदिको शांतरसको उत्पत्तिके प्रति मन्दता सूचित की है। अन्यथा [ यदि इनमें प्रबलता होती तो ] सबके मनमें भी [ उनकी स्थिति ] होती [ इसलिए यहाँ रसका प्रपरिपोष रूप रसदोष है ] । यह अपरिपोष ( १ ) प्रधान रसका अथवा (२) मुक्तकोंमें स्वतन्त्र रूपसे वणितका होता है । अंगभूत [ प्रधान रस] का अपरिपोष, दोष नहीं होता है ।
(घ) 'प्रत्युक्ति' अर्थात् रसके प्रवाहपर पहुंच जानेपर भी उसका बार-बार उही
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३२८ ]
नाट्यदर्पणम [ का० १२५, सू० १८० र्दोषो यथा कुमारसम्भवे रतिप्रलापेषु । लब्धपरिपोषो हि रसः पुनः पुनः परामश्वमानो मालती-माल्यमिव म्लायति । अत एव प्रकर्षप्राप्तरसविशिष्टानां कवीनामल्पीयानेव वाग्विलास इति ।
(ङ) 'अंगिभित्' इति बहुरसे प्रबन्धे अवयवभूतरसापेक्षया अंगिनोऽवयविभूतस्य रसस्य 'भिद्' अनुसन्धानं दोषः । अनुसन्धिर्हि सर्वस्वं रसपोषस्य । स्मृत्यभावे पुनरपोष एव । यथा रत्नावल्यां चतुर्थेऽङ्क बाभ्रव्यागमनात् सागरिकाविस्मृतिरिति ।
अंगौग्यादयश्च दोषाः परमार्थतो अनौचित्यान्तःपातिनोऽपि सहृदयानामनौचित्यव्युत्पादनार्थमुदाहरणत्वेनोपात्ताः।
केचित्तु व्यभिचारि-रस-स्थायिनां स्वशब्दवाच्यत्वं रसदोषमाहुः, तदयुक्तम् । व्यभिचार्यादीनां स्ववाचकपदप्रयोगेऽपि विभावपुष्टौ
"दूरादुत्सुकमागते विवलित सम्भाषिणि स्फारित,
संश्लिष्यत्यरुणं गृहीतवसने किश्वाचित लतम् । पन [करनेका प्रयत्न करना [प्रधान रसका प्रति-विस्तार 'प्रत्युक्ति' नामक रसदोष कहलाता है] । जैसे कुमारसम्भवमें रतिके विलापोंमें बार-बार करुण रसको उद्दीप्त करमेका यत्न किया गया है। इसलिए वह दोष है। क्योंकि] रसका पूर्ण परिपोष हो जानेके बाद उसको बारम्बार स्पर्श करनेसे वह [बार-बार छुई गई] मालतीको मालाके समान कांतिहीन हो पाता है। इसलिए प्रकर्ष-प्राप्त रसविशिष्ट कवियोंका वाग्विलास थोड़ा ही होता है। [अर्थात उत्तम कवि रसका पूर्ण परिपोष हो जानेके बाव रसका अनावश्यक विस्तार नहीं करते हैं ।
(8) 'मङ्गिभित्' अर्थात् अनेक रसों वाले प्रबन्ध [काव्य नाटकादि] में अवयवभूत [पप्रधान] रसकी अपेक्षासे प्रङ्गी [अर्थात् प्रधान] प्रवयविभूत [प्रधान] रसका भेदन अर्थात् विस्मरण [अननुसंधान, अङ्गिभित् नामक रस] दोष होता है। क्योंकि [हर समय मुख्य रसका ध्यान रखना ही उसके परिपोषणका प्राण है। उसको भुला देनेपर तो उसका परिपोष हो नहीं बनता है। [इसलिए प्रधान रसको भुला देना रसका अपरिपोष-जनक 'प्रङ्गिभित्' नामक दोष कहलाता है ] जैसे रत्नावलीके चतुर्थ प्रथों में बाभ्रव्यके प्रा जानेपर [नाटककी प्रधान नायिका सागरिकाको विस्मृति [होनेसे मुख्य रसकी ही विस्मृति हो गई है । अतः उस में 'मणिभित्' नामक रसदोष माना जाता है ।
[उक्त ५ रस दोषों में से प्रथम प्रनौचित्यको छोड़कर] प्रङ्गोंकी उप्रता प्रादि [शेष चारों दोष वास्तवमें तो अनौचित्य [रूप प्रथम दोष] के भीतर ही मा जाते हैं फिर भी सहदयोंको अनौचित्य [के विविध प्रकारों का परिचय करनेके लिए ही यहां दिखलाए गए हैं।
कुछ लोग व्यभिचारिभाव, रस, तथा स्थायिभावोंके नामतः प्रहण [स्वशम्दवाध्यत्व] को भी रसदोष मानते हैं। [हमारी अर्थात् ग्रन्थकार रामचन्द्र गुणचन्द्रको सम्मतिमें] यह उचित नहीं है। व्यभिचारिभाव प्रादिके वाचक अपने पदों [नामों का प्रयोग होनेपर भी विभाव माविकी पुष्टि होनेपर [रसकी अनुभूति होती ही है। उसमें कोई बाधा नहीं होती है। इसलिए व्यभिचारिभावादिको स्वशब्द-वाच्यता कोई दोष नहीं है। जैसे इस प्रकारके उदाहरणके रूपमें प्रन्थकार अगला श्लोक उबंत करते हैं]--
[नायकके] दूर रहनेसे [उसके दर्शनके लिए] उत्सुक, [पास] मानेपर नीचे झुक
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का० १२६, सू० १८१ ] तृतीयो विवेकः
[ ३२६ मानिन्याश्चरणानतिव्यतिकरे वाष्पाम्बुपूर्णेक्षणं,
चक्षुर्जातमहो प्रपञ्चचतुरं जातागसि प्रेयसि ॥" इत्यादौ रसोत्पत्तरदोष एवायम् । तस्मादव्युत्पन्नोक्तित्वादवक्रोक्तिरेवेयम् ।
एवमुभयरससाधारणविभावपदानां कण्टेन नियतविभावाभिधायित्वाधिगमोऽपि सन्दिग्धत्वलक्षणो वाक्यदोष एव । यथा
"परिहरति रति मतिं लुनीते स्खलतितरां परिवर्तते च भूयः ।
इति बत विषमा दशा स्वदेह परिभवति प्रसभं किमत्र कुर्मः ॥" अत्र मतिपरिहारादीनां विभावानां करुणादावपि सम्भवात् शृंगारं प्रति भावत्वसन्देह इति ॥ [२३] १२५ ॥
अथ वृत्तिलक्षणे रसानन्तरमुद्दिष्टानां भावानामवसरस्तत्रापि रसानुरोधेन प्रथम स्थायिन उच्यन्ते । [सूत्र १८१]-रति-हासश्च-शोकश्च क्रोधोत्साही भयं तथा । जुगुप्सा-विस्मय-शमा रसानां स्थायिनः क्रमात् ॥
[२४] १२६ ॥ जाने वाले, उसके बात करनेपर [प्रसन्नतासे] फटे हुए, मालिंगन करने लगनेपर [कोषसे] लाल हुए, और कपड़ा पकड़नेपर भौहें टेढ़ी किए तथा चरणोंमें प्रणाम करने लगनेपर प्रासुमोसे भरे, मानिनीके नेत्र प्रियतमके [परस्त्री-सम्भोग रूप अपराधके अपराधी होनेपर नाना प्रकारको प्रपञ्च-रचनामें चतुर हो गए हैं यह पाश्चर्यको बात है।
इत्यादिमें [उत्सुकता प्रादि रूप व्यभिचारिभावोंके स्वशग्दवाच्य प्रति नामतः गृहीत होनेपर भी] रसको उत्पत्ति होनेसे यह [व्यभिचारिभावादिको स्वशम्बवाच्यता] बोष नहीं होता है। इसलिए अविद्वानोंके द्वारा कथित होनेसे यह [स्थायिभावादिको स्वानवाध्यताको दोष ठहराने वाली] उक्ति ठीक उक्ति नहीं है [अर्थात् व्यभिचारिभावारिको स्वशब्दवाच्यताको दोष नहीं मानना चाहिए ।
___इसी प्रकार दो रसोंमें समान रूपसे पाए जाने वाले विभावादि वाधक पदोंसे किसी एक नियतरसके विभावादिको कठिनतासे प्रतीति भी [जिसेकि मम्मट प्रादिने रसदोषोंमें गिनाया है वह रसदोष न होकर सन्दिग्धत्वरूप वाक्यदोष ही है। जैसे
[इस नायिकाको] बड़ी बेचैनी हो रही है, इसकी बुद्धि ठिकाने नहीं है, बार-बार गिर पड़ती है, और निरी करवटें बदल रही है । इस प्रकार इसके देहकी बड़ी विषम अवस्था हो रही है इसका क्या उपाय करना चाहिए।
इसमें रतिका परिहरण प्रादि रूप विभाव[शृंगारमें तो होते ही हैं उसके अतिरिक्त] करुणादिमें भी हो सकते हैं इसलिए उनके शृंगारके प्रति भाव होने में सन्देह है [इसे अन्य लोग रसदोष मानते हैं । परन्तु ग्रंथकारके मतमें वह वाक्यदोष है, रसदोष नहीं] ॥[२३] १२५ ॥
अब वृत्तियोंके लक्षणमें रसोंके बाद कहे हुए भावोंके प्रतिपादनका यपि अवसर है किन्तु रसोंके प्रसङ्गसे पहिले स्थायिभावोंको कहते हैं।
[सूत्र १८१]- रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, मुगुप्ता, विस्मय भोर सम में नौ शृंगारादि पूर्वोक्त नौ] रसोंके क्रमशः स्थायिभाव हैं । [२४] १२६ ।
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३३० ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० १२७, सू० १८२
स्त्री-पुंसयोरास्था बन्धापरपर्यायोऽन्योन्यमभिष्वंगो ' रतिः' । एषा च कामावस्थानुवर्तिन्या अभिलाषमात्रसाराया व्यभिचारिण्याः, देवतादिषु बन्धुषु मनोहरवस्तुषु च प्रीतिरूपायाश्च रतेर्विलक्षणैव । रब्जनोन्मादानुविद्धश्चित्तस्य विकासो 'हास:' । निर्वे - दानुविद्ध ं दुःखं 'शोकः' । अपचिकीर्षा जुगुप्साहेतुः परितापावेशः 'क्रोधः' । धर्म-दानयुद्धादिकर्मण्यनालस्यं 'उत्साह:' । वैक्लव्यं 'भयम्' । कुत्सितत्वाध्यवसायो 'जुगुप्सा' । उत्कृष्टत्वाध्यवसायो 'विस्मयः' । निःस्पृहत्वं 'शमः ' । रसानां शृंगारादीनां स्थायिनः परिणामिकारणानि । 'क्रमात्' इति रसोद्द शक्रमेण । तेनामी रसान्तराणां व्यभिचारिणोऽनुभावाश्च भवन्ति । तत्रैषामागन्तुकत्वेन स्थायित्वाभावात् । सहभावित्वेन पोषकत्वे व्यभिचारिता । कार्यत्वे त्वनुभावता । तथैषां विभावा अनुभावाश्च ये गारादिषु रसेषूक्तास्त एवेति न पृथक् उच्यन्ते ।। [२४] १२६ ।। [सू० १८२ ] - निर्वेद-ग्लान्यपस्मार - शङ्का - ऽसूया-मद-श्रमाः । चिन्ता - चापलमावेगो मति-र्व्याधिःस्मृति- धृतिः ॥
।। [२५] १२७ ॥ शब्दोंमें 'प्रास्थाबन्ध' भी अभिलाषमात्र रूप व्यभि
स्त्री और पुरुषका एक-दूसरे के प्रति प्रेम, जिसको दूसरे कहते हैं, 'रति' कहलाता है । यह [रति] कामावस्था में रहनेवाली चारिभावात्मक रतिसे, तथा देवतादिके प्रति [ प्रेम ], बन्धुधोके प्रति प्रेम, और मनोहर वस्तुओंके प्रति प्रीति रूप रतिसे भिन्न प्रकारकी होती है । मनकी प्रसन्नता और उन्माद प्राविसे उत्पन्न चित्तका विकास 'हास' कहलाता है । निर्देबसे युक्त दुःख 'शोक' कहा जाता है । [दूसरेके ] एपकार करने तथा [दूसरेसे] घृणा करनेका हेतुभूत सन्तापका प्रावेश 'क्रोध' कहलाता है। धर्म, दान और युद्धादि कार्योंके प्रति प्रालस्यका प्रभाव 'उत्साह' कहलाता है । घबराहटका नाम 'भय' है । कुत्सित होनेका निश्चय 'जुगुप्सा' कहलाता है । उत्कृष्ट होनेका निश्चय 'विस्मय' कहा जाता है। [किसी वस्तुको प्राप्ति आदिकी ] इच्छाका प्रभाव 'शम' कहलाता है। रसोंके अर्थात् शृङ्गारादिके प्रति स्थायिभाव [श्रर्थात् रत्यादि परिणाम के जनक ] परिणामिकारण होते हैं। 'क्रमसे' [यह जो कारिकामें कहा है] इससे रसोंके नाम कीर्तनके क्रमसे इन [स्थायिभाव]को समझना चाहिए। इसलिए [ ये रत्यादि जिस रसके स्थायिभाव माने गए हैं] उससे भिन्न रसोंमें वे व्यभिचारिभाव नथा अनुभाव रूप भी हो सकते हैं। उन [दूसरे रसों] में इन [रत्यादि] के श्रागन्तुक होनेसे स्थायिभावत्व [ इनमें ] नहीं बनता है । [रत्यादिके] सहचारी रूपसे रस-पोषक होनेपर उनको व्यभिचारिभाव कहा जाता है । और कार्यरूप होनेपर उनको अनुभाव कहा जाता है । इन [रत्यादि ] के विभाव और अनुभाव जो श्रृंगारादि रसों में कहे हैं वे ही [ यहाँ स्थायिभावों में] होते हैं इसलिए अलग नहीं कहे गए हैं । [ प्रर्थात् श्रृंगारादि रसोंमें जो विभाव अनुभाव कहे जा चुके हैं वे ही रत्यादि स्थायिभावोंके भी विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव होते हैं इसलिए यहाँ उनको दुबारा नहीं कहा है ] ॥ [२४] १२६ ॥
. स्थायिभावोंके बाद अगली तीन कारिकाथों में व्यभिचारिभाव दिखलाते हैं
[ सूत्र १८२ ] -- १. निर्वेद, २. ग्लानि, ३. अपस्मार, ४. शङ्का, ५. श्रसूया, ६. मद, ७. श्रम, ८. चिन्ता, ६. चपलता, १०. श्रावेग, ११. व्याधि, १२. मति, १३. स्मृति, १४. धृति
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का० १२८-२६, सू० १८२ ] तृतीयो विवेकः
अमर्षो मरणं मोहो निद्रा सुप्तौग्य-दृष्टयः । विषादोन्माद-दैन्यानि वीडा त्रासो वितर्कणम् ॥
॥ [२६] १२८ ॥ गर्वोत्सुक्यावहित्थानि जाड्यालस्य-विबोधनम् । त्रयस्त्रिशद् यथायोगं रसानां व्यभिचारिणः ॥
॥ [२७] १२६॥ 'त्रयस्त्रिंशत' इति द्वन्द्वानुवादमात्रम् । अन्येऽपि पुनः सम्भवन्ति । यथा शुत्तृष्णा-मैत्री-मुदिता-श्रद्धा-दया-उपेक्षा-रति-सन्तोष-क्षमा-मार्दव - आर्जव - दाक्षिण्यादयः, तथा स्थायिनोऽनुभावाश्चेति । 'यथायोगम्' इति रसौचित्यानतिक्रमेण । तेन केचित् साधारणाः, केचित् पुनरसाधारणाः । एतच्च यथारसं निर्णीतमेवेति ।
॥ [२५-२७] १२७-१२६ ।। (१) अथैषां प्रत्येकशः स्वरूपप्रतिपादक लक्षणमुख्यते[सूत्र १८३]-निर्वेदस्तत्वधीः क्लेशवरस्यं श्वासतापकृत् ।
क्लेशा दारिद्र-य-व्याध्यपमानेा-भ्रमाक्रोश-ताडनेष्टवियोग-परविभूतिदर्श
१५. अमर्ष, १६. मरण, १७. मोह, १८. निद्रा, १६. सुप्ति, २०. हर्ष, २१. उग्रता, २२. विषाद, २३. उन्माव, २४. दैन्य, २५. वीड़ा, २६. त्रास, २७. वितकं ।
२८, गवं, २६. प्रौत्सुक्य, ३०. प्रवाहित्था [ प्राकार-गोपन], ३१. जडता, १२. मालस्य, और ३३. विबोध-ये तैतीस पौचित्यके अनुसार [यथायोग] रसोंके व्यभिचारित भाव होते हैं। [२५-२७] १२७-१२६ ।
तैतीस कहनेसे इस [ तीस और तीन ] बंद [समाससे तैतीस संख्याका] अनुवारमात्र किया गया है। किन्तु इनके अतिरिक्त अन्य व्यभिचारिभाव भी हो सकते हैं । जैसे-भूख, प्यास, मैत्री, मुदिता, श्रठा, दया, उपेक्षा, रति, सन्तोष, क्षमा, मृदुता, सरलता, बाक्षिय पारि । और स्थायिभाव तथा अनुभाव [भी व्यभिचारिभाव हो सकते हैं। वे सब इन ३३ से अलग हैं। इसलिए ३३ संख्या केवल पूर्वकथित संख्याका अनुवादमात्र है] । 'यथायोगम्' इसका अभिप्राय यह है कि रसके प्रोचित्यके अनुसार [इनमेंसे कौन कहां किस रसमें व्यभिचारिभाव है इसका निर्णय करना चाहिए। इसलिए कुछ [व्यभिचारिभाव अनेक रसोंमें समान रूपसे विद्यमान रहनेके कारण ] साधारण होते हैं और कुछ [ निश्चित रूपसे किसी विशेष रसमें ही रहनेके कारण] असाधारण होते हैं। इस बातका निर्णय रसोंके प्रसङ्गमें कर हो चुके हैं। [२४-४७] १२७-१२६ ।।
(१) अब क्रमशः इनके स्वरूपके प्रतिपादक लक्षण कहते हैं
[सूत्र १८३]-तत्त्वज्ञान [ परक चित्तवृत्ति ] का नाम 'निर्वेद' है। वह क्लेशोत उत्पन्न विरसताके कारण होता है और श्वास तथा तापका कारण होता है।
क्लेश अर्थात् दरिद्रता, व्याधि, अपमान, ईर्ष्या, भ्रम, फटकार [माकोस], मार, परवियोग, दूसरोंके ऐश्वर्य-वर्शन मादि । तत्वज्ञानावि रूप विभावोंसे जो वरस्य वह 'निर्वेर
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३३२
नाट्यदर्पणम् । का० १३०, सू० १८४ नादयः । तत्वज्ञानादिभिर्विभावैर्यद् वैरस्यं स निर्वेदः। स च निःश्वास-सन्तापयोरुपलक्षणत्वादन्येषां च चिन्ताश्रु-वैवर्ण्य-दैन्यादीनामनुभावानां कारक इति । अयं च रसेष्वनियतत्वात् कादाचित्कत्वाच्च व्यभिचारी न स्थायी । एवमन्येष्वपि वाच्यम् ।
___ मम्मटस्तु व्यभिचारिकथनप्रस्तावे निर्वेदस्य शान्तरसं प्रति स्थायितां, प्रतिकूलविभावादिपरिप्रहः' इत्यत्र तु तमेव प्रति व्यभिचारितां च, ब्रुवाणः स्ववचनविरोधेन प्रतिहत इति । (२) अथ ग्लानिः[सूत्र० १८४] ग्लानिः पीडा जराऽयासः, प्रशक्तिः कार्य
कम्पभाक् ॥ [२८] १३० ॥ 'पीडा' व्याधि-वमन-विरेक-त्-पिपासादिभिरनेकधा काय-मनोदुःखम् । 'श्रायासो' व्यायामाध्वगति-सुरतादिभिः कायक्लेशः। पीडा-जराऽऽयासैरुपलक्षणादन्यैश्च । निद्रोच्छेदमनस्तापादिभिर्विभावैर्याऽशक्तिः सामर्थ्याभावः सा 'ग्लानिः' । काय कायक्षामता। कार्य-कम्पावुपलक्षणत्वात् . क्षामवाक्य-मन्दपदोत्क्षेप-वैवर्ण्य-अनुत्साहादींश्चानुभावान् भजत इति ॥ [२८] १३० ॥ कहलाता है। और वह निश्वास और सैन्तापका, तथा उनके उपलक्षणरूप होनेसे चिन्ता, अम-विवर्णता दैन्यादि अन्य अनुभावोंका भी जनक होता है। यह [निर्वेद] रसोंमें नियत न होनेसे प्रौर काबाचित्क होनेसे व्यभिचारिभाव होता हैं । इसी प्रकार अन्य [व्यभिचारिभावों] में भी [अनियतत्व और कावाचिस्कत्व होनेके कारण ही उनका व्यभिचारिभावत्व] समझना चाहिए। .. [ काव्यप्रकाशकार ] मम्मटने तो व्यभिचारिभावोंके निरूपणके प्रसङ्गमें निदको शान्तरसका स्थायिभाव कहा है और 'प्रतिकूलविभावाविग्रहे रूप रस दोषके प्रसंगमें उसी [शान्तरस] के प्रति [निर्वेद के व्यभिचारभावत्वका प्रतिपावन करके स्वयं ही अपने कथनका खण्डन कर लिया है।
इसका अभिप्राय यह हुमा कि निर्वेद स्थायिभाव नहीं होता है । सदा व्यभिचारिभाव ही होता है । मम्मटने जो व्यभिचारिभावोंके निरूपणके प्रसङ्गमें निर्वेदको स्थायिभाव माना है वह अनुचित है । और मागे स्वयं उनके कथनसे ही यह सिद्ध हो जाता है कि निर्वेद शान्तरसका स्थायिभाव नहीं अपितु केवल ग्यभिचारिभाव है। उस दशामें शान्तरसका स्थायिभाव 'शम' होगा। इसलिए यहाँ ग्रन्थकारने शमको ही शान्तरसका स्थायिभाव माना है ।।
(२) [सूत्र १३४]-प्रब ग्लानि [का लक्षण करते हैं]
पीडाका नाम ग्लानि है । वह वाक्य और श्रम प्रादि विभावों [कारणों से उत्पन्न होती है और कृशता तथा कम्प प्रावि[अनुभावों को उत्पन्न करनेवाली होती हैं ।[२८] १३०॥
ग्याधि, वमन, विरेचन, भूख, प्यास आदिके द्वारा अनेक प्रकारसे शारीरिक, मानसिक दुःखका नाम 'पीडा, है । व्यायाम, मार्गगमन और सुरतादिसे होनेवाला शारीरिक क्लेश 'मायास' [कहलाता है। पोड़ा, वाक्य और प्रायासादिसे तथा उनके उपलक्षणरूप होनेसे निद्रा न माने, मानसिक सन्ताप प्रावि अन्य विभावोंसे जो प्रशक्ति होती है वह 'ग्लानि' कहलाती है। कृशता प्रर्थात शारीरिक दुर्बलता। [और वह कम्पको जनक होती है ।
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का० १३१, सू० १८६ ] तृतीयो विवेकः
[ ३३३ (३) अथापस्मारः[सू० १८५]-वैकल्यं ग्रह-दोषेभ्योऽपस्मारो निन्द्यचेष्टितः ।
'ग्रहाः' परग्रहणशीलाः पिशाचाद्याः। धातुवैषम्यं दोषः । बहुवचनादुच्छिष्टशून्यस्थानसेवनाशुचिसम्पर्कादेर्यद् वैकल्यं कृत्याकृत्याविवेचकत्वं सोऽपस्मारः। निन्छ विगहितं सहसा भूमिपतन-फेनमोक्ष-निःश्वसन-धावन प्रवेपन-स्तम्भ-स्वेदादिकं चेष्टितमत्रेति ॥
(४) अथ शंका[सू० १८६]-शङ्का स्व-परदौरात्म्याद् दोलनं श्यामतादियुक्
॥ [२६] १३१॥ दौरात्म्यमकार्यकरणम् । उपलक्षणत्वाच्चास्य सादृश्यादयोऽपि विभावा ग्राह्याः। दोलनं क्षोभ-सन्देहाभ्यामनवस्थित्वं चेतसः । श्रादिशब्दान् मुहुरवलोकन-अवगुण्ठनमुखौष्ठ-कण्ठशोष-जिलापरिलेहन-वेपथु-चलदृष्टित्वादयोऽनुभावा गृह्यन्ते इति । ॥ [२६] १३१॥
(५) अथासूयाकाश्यं तथा कम्पके उपलक्षणरूप होनेसे आवाज न निकलना, पैर धीरे उठना, विवरर्णता पौर अनुत्साह मावि मनुभावोंको भी बोषित करते हैं ॥१३॥
(३) अब अपस्मार का लक्षण करते हैं
[सूत्र १८५] [ पिशाचादि रूप] ग्रहों तथा [वात-पित्तादि रूप] बोषोंकी विषमतासे उत्पन्न बेचैनी 'अपस्मार' कहलाता हो और वह [ भूमिपतन मावि रूप ] गहित व्यापारोंसे युक्त होता है।
दूसरोंको पकड़ लेनेवाले पिशाचादि 'मह' कहलाते हैं । वात, पित्त, कफ रूप धातुमोंकी विषमता 'दोष' कहलाती है। [दोषम्यो इस बहुवचनसे उच्छिष्ट खाने, निर्जन स्थानमें रहने, और गन्दे पदार्थोसे सम्पर्क रखनेसे जो विकलता अर्थात् कर्तव्य और अकर्तव्यका निश्चय न कर सकना वह 'अपस्मार' कहलाता है । 'निन्छ' अर्थात् गहित सहसा भूमिपर गिर पड़ना, फेन गिराने लगना, जोरसे श्वास लेने लगना, दौड़ना, कांपना, कड़ा पड़ जाना और पसीमा माने लगना प्रावि चेष्टाएँ इसमें होती हैं।
(४) अब 'शङ्का' [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं]--
[सूत्र १८६]-अपने या दूसरेके दुष्कर्मोसे [मनका कम्पन शङ्का कहलाती है। और वह ज्यामता प्राविको उत्पन्न करनेवाली होती है । [२६] १३१ ॥
'दौरात्म्य' अर्थात अनुचित कार्योका करना [दौरात्म्य पदके उपलक्षण रूप होनेसे [सारिसे उत्पन्न शामें रच आदि रूप] सादृश्य प्रादि विभावोंका भी ग्रहण करना चाहिये । दुल तथा सम्बहके कारण मनकी अस्थिरता 'दोलन' कहलाती है। प्रादि शम्दसे बार-बार देखना, मुंह ढक लेना, मुख, प्रोष्ठ.कण्ठका सूख जाना, जीभ चलाना, काँपना, पंचन हि मावि मन्य अनुभावोंका भी ग्रहण होता है । [२९] १३१ ॥
- (२) अब 'प्रसूया' [का लक्षण करते हैं]
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३३४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १३२, सू०१८ [सू० १८५]-द्वेषादेः सद्गुणाक्षान्तिरसूया दोषशिनी ।
श्रादिशब्दादपराध-गर्व-परसौभाग्य-ऐश्वर्य-विद्या-लीलादर्शनादिग्रहः । सद्गुणा ज्ञान-क्रियादयो विशिष्टधर्माः । एषा च दोषान् वञ्चकत्वादीनसतः सतो वा दर्शयति । उपलक्षणात् भ्रूभंग-अवज्ञा-गुणनिह्नव-मन्यु-क्रोधादयोऽनुभावा गृह्यन्त इति ॥
(६) अथ मदः[सू० १८८]-ज्येष्ठादौ मुन्मदो मद्यात्, निद्रा-हास्याघ्र कृत् क्रमात
॥ [३०] १३२ ॥ ज्येष्ठ उत्तमः । श्रादिशब्दान्मध्यमाधमौ गृह्य ते । निद्रया स्मित-मधुरास्यरागरोमहर्ष-ईषद्वथाकुलवचन-सुकुमारगत्यादयः, हास्येन स्खलन-घूर्णन-बाहुस्सन-कुटिलगमनादयः, अश्रुणा च निष्ठीवन-जिह्वास्खलन-स्मृतिनाश-मतिभ्रश-छर्दित-हिक्काकफादयो गृह्यन्ते । 'क्रमात्' इति उत्तमादौ यथासंख्यं निद्रादयोऽनुभावाः। नाटयेच रखनानिमित्तमापानमपि क्वचिदभिनीयते । तत्र च मदो व्यभिचारी सम्भवति । यत्र पुनः पात्रं पीतमद्यमेव प्रविशति, तस्य त्रासादिना मदोऽपनेयोऽन्यथा कार्यव्याघातः स्यादिति ॥ [३०] १३२ ।।
[सूत्र १८७]-द्वेषादिके कारण [किसी दूसरेके] सपुरणोंको सहन न कर सपना, 'प्रसूया' कहलाता है और वह [सदा दूसरेके दोषोंको देखने वाली होती है।।
___ मावि शम्बसे अपराष, गर्व, दूसरोंके सौभाग्य, या विद्या, या लीला मादिके दर्शनका ग्रहण होता है । सद्गुण अर्थात् ज्ञान, क्रिया प्रादि विशिष्ट धर्म । यह प्रसूया] विद्यमान या प्रविचमान बनकत्वादि दोषोंको देखने वाली होती है। [दोषरशिनी पदके] उपलक्षण म होनेसे 5 भङ्ग, अपमान, गुणोंका छिपाना, मन्यु तथा कोष, मादि [असूयाके] अनुभावोंका भी पहरण होता है।
(६) प्रब मद व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं
[सूत्र १८८] - ज्येष्ठ प्रावि [अर्थात् उत्तम, मध्यम या अधम प्रात्रों में मन-धन्य पौर निद्रा, हास्य तथा रोदनको उत्पन्न करनेवाला मानन्द 'मद' कहलाता है।[२०१५२॥
ज्येष्ठ अर्थात् उत्तम । प्रावि शम्बसे मध्यम तथा अषमका भी ग्रहण होता है। निद्रा पवसे मुस्कराहट, चेहरेपर हलकी लालिमा, रोमांच हो पाना, प्रस्त-व्यस्त बचन और सुकुमार गति माविका, 'हास्य' पबसे गिरना चक्कर हाना, हाय टोले हो बाना और लड़ल. झाना आदि, तथा 'प्रभु' पदसे थूकना, जीभ षटकारमा, स्मृतिनाश, गतिश, बमन, हिचकी, कफ प्राविका प्रहरण भी होता है। मात्' इससे यह अभिप्राय है कि उत्तम प्रापि में क्रमशः निद्रा मावि अनुभाव होते हैं। [अर्थात् मासे उत्तममें निद्रा, भयममें हास्य तथा प्रथममें रोवन होता है। स्वामीके मनोरंजनके लिए कभी मपानका भी अभिनय किया जाता है। उनमें मद व्यभिचारिभाव होता है। बो पास मद्यपान पिए ए ही पगिन करने के लिए पाता है उसका मन तो भयाविहारापुरकरमा पाहिए नहीं तो [गनिमय कार्य में विघ्न पड़ेगा। [३०] १३२॥
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का० १३३, सू० १६१ ]
(७) अथ श्रमः -
[ सूत्र १८६ ] - श्रमो रतादिभिः सादः स्वेद - श्वासादिकाररणम् । दिशब्दादध्वगति - व्यायामादेर्विभावस्य ग्रहः । सादोऽङ्गादीनां शोषः । द्वितीयादिशब्दान्मुखविकूणन विजृम्भण्- अंगमर्दन- मन्दपदोत्क्षेपादेरनुभावस्य
ग्रह
इति ॥
तृतीयो विवेकः
(८) अथ चिन्ता -
[१०] --- प्राधिश्चिन्ता प्रियानाप्तेः शून्यता-श्वास- कार्श्ययुक्
॥ [३१] १३३ ॥
आधिर्मानसी पीडा । प्रियस्येष्टस्याप्राप्तिः प्रियाप्राप्तिर्वा प्रियानाप्तिः । शून्यता विकलेन्द्रियता । उपलक्षणत्वादेकाग्र दृष्टित्व- स्मृत्यादयोऽप्यनुभावा इति ।। [३१] १३३ ||
[ ३३५
(६) अथ चापलम्
[ सूत्र १६१] - चापलं साहसं राग-द्वेषादेः स्वैरितादिमत् ।
साहसमविमृश्यकारिता । आदिशब्दाज्जाड्या देहः । स्वैरित्वं स्वच्छन्दाचारः । श्रादिशब्दाद् वाक्पारुष्य ताडन-बध-बन्धादेरनुभावस्य ग्रह इति ।
(७) श्रब श्रम [रूप व्यभिचारिभावका लक्षरण करते हैं]
[ सूत्र १८९ ] - रमरण करने प्रादिके काररण उत्पन्न थकावट 'भ्रम' कहलाता है । और वह स्वेद तथा श्वासादिका कारण होता है ।
[रतादिमें] 'आदि' शब्दसे मार्गगमन और व्यायाम प्रादि विभावोंका ग्रहण होता है । 'साद:' अर्थात् शरीरादिका शोष । [श्वासादिकारणम् में थाए हुए ] दूसरे 'आदि' शब्दसे मुँह सिकुड़ना, जम्भाई, अङ्गोंकी मलिनता, धीरे-धीरे पैर उठाना प्रादि अनुभावोंका ग्रहण होता है ।
(८) अब चिन्ता [ रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं]
[ सूत्र १६० ] – इष्ट वस्तुको प्राप्ति न होने [अथवा अनिष्टकी प्राप्ति होने ] से उत्पन्न मानसी पीड़ाको 'चिन्ता' कहते हैं। वह इन्द्रियोंको विकलता श्वास और कृशता धाविको जननी होती है । [३१] १३३ ॥
'प्राषि' श्रर्थात् मानसिक पीड़ा । प्रिय अर्थात् इष्टकी प्रप्राप्ति अथवा प्रप्रियको प्राप्ति [दोनोंसे ही चिन्ता उत्पन्न होती है ] । शून्यताका अर्थ इन्द्रियोंको विकलता है । और उपलक्षरणभूत होने से वह उससे टकटकी लगाना, याद आना आदि अनुभावोंका भी ग्रहरण होता है ।। [३१] १३३ ॥
(६) अब चपलता नामक व्यभिचारिभावका लक्षरण करते हैं ] -
[ सूत्र १६१] - रागद्वेषादिके [ प्रतिवेकके] कारण बिना विचारे जो कार्य करने लगना है वह [ श्रविमृश्यकारिता रूप साहस ] 'चपलता' कहलाता है । और वह स्वेच्छाचरिता भाविकी जननी होती है ।
'साहस' अर्थात् बिना सोचे-समझे कार्य करना । [ पहले] 'आदि' शब्दसे जनता आविका प्रहरण होता है। स्वच्छन्द प्राचरण 'स्वरिता' है । [ दूसरे ] 'भवि' शक्यसे कठोर
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३३६ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १३४. सू० १९३ (१०) अथावेगः[सूत्र १९२]-प्रावेगः सभ्रम्मोऽतर्यात् विकर्ताऽङ्ग अनो-गिराम् ॥
[३२] १३४॥ __ सम्भ्रमः संक्षोभः । अतक्यं अचिन्तितोपनतमिष्टमनिष्ट वा। तत्रेष्टं देवतागुरु-मान्य-वल्लभ-सम्पच्छ्रवण-दृष्ट्यादि। अनिष्टमग्नि-भूकम्पायुत्पात-वात-वर्ष-कुअरचोर-सामनोज्ञश्रवणदर्शनादि। तत्राभ्युत्थान-पुलकालिंगनवस्त्रादिप्रदानादयः प्रियाः, सांगलस्ततामुखवैवर्ण्य-पिण्डीभाव-प्रधावन-आकुलनेत्रता- त्वरितापसरण - पश्चादवलोकन-शस्त्रादिग्रहण-उर्वीपतन-कम्प-वेद-स्तम्भादयो अप्रियांश्चांगिकाः । हर्ष-विस्मयादयः प्रियाः, शंका-विषाद-भयादयोऽप्रियाश्च मानसाः । स्मृति-चाटुकाराशंसावाक्यादयः प्रियाः, क्रन्दन-परिदेवन-असम्बन्धवचनादयश्चाप्रिया वाचिका विकारा यथायोग प्रियाप्रियातर्त्यवस्तुजावेगस्यानुभावाः । सर्वेऽप्येते विकारा उत्तमस्य स्थैर्यानुविद्धाः, नीचस्य तु चापलानुविद्धा इति ॥ [३२] १३४॥
(११) अथ मतिः[सूत्र १९३]-प्रतिभानं मतिः शास्त्र-तर्काद् भ्रांतिच्छिदादिकृत् । बचन, मार-पीट करने और बध-बन्धन प्राविका ग्रहण होता है। .
(१०) प्रब पावेग [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं]
[सूत्र १४२]-अकस्मात उपस्थित हो जाने वाले [इष्ट या अनिष्ट] से उत्पन्न सोम 'मावेग' कहलाता है । और शरीर, मन तथा वाणीमें विकारका जनक होता है। [३२]१३४॥
'सम्भ्रम' अर्थात् संक्षोभ । 'प्रतयं' अर्थात् जिसको सोचा भी नहीं था इस प्रकारके इष्ट या अनिष्टका अकस्मात् उपस्थित हो जाना । उसमें [प्रतोपनत] 'इष्ट' से देवता, गुरु, माग्य, प्रिय अथवा सम्पत्तिकी प्राप्तिका सुनना प्रादि [गृहीत होता है] । 'अनिष्ट से भाग लग जाना, भूकम्प प्रादिका उत्पात, आंधी-पानी, हाथी, चोर, सांप और अरुचिकर बातका सुनना या [भरुचिकर दृश्यका] देखना प्रादि [गृहीत होता है] । उनमें भी अभ्युत्थान रोमाध, प्रालिङ्गन पोर वस्त्र-प्रदान प्रादि प्रिय, और सारे अङ्गोंका शिथिल हो जाना, मुख पीला हो जाना, पिण्डीभाव, दौड़ना, नेत्रोंमें घबराहट दीखना, जल्दीसे हट जाना, लोट-लौटकर पीछे देखना, शस्त्रादि उठाना पृथिवीपर गिर जाना, कम्पन, स्वेद और शरीरको निष्क्रियता प्रावि अप्रिय अङ्गिक [अनुभव होते हैं। हर्ष-विस्मय प्रादि प्रिय, शंका, विषाद, भय प्रादि प्रप्रिय मानसिक [अनुभव होते हैं । प्रशंसा, चापलूसी शुभाकांक्षाके वाक्य प्रादि प्रिय, तपा पौर असम्बद्ध प्रलाप करना प्रादि वाचिक विकार, यथायोग्य प्रिय-अप्रिय रूप [प्रतक्यं रोना-विलाप करना अर्थात् अकस्मात् उपस्थित होने वाले वस्तुओंसे उत्पन्न प्रावेगके अनुभाष होते हैं । ये सभी विकार उत्तम पुरुषों में धैर्यसे युक्त और नीच [पात्रों] में चपलतासे युक्त रहते हैं । [३२] १३४ ॥
(११) प्रब मति [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते है? -
[सूत्र १४३]-शास्त्र [के चिन्तन] तथा सकसे उत्पन्न होने वाली नवनवोन्मेशशालिनी प्रज्ञा 'मति' कहलाती है। और वह भ्रमोच्छेदन माविको जननी होती है।
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का० १३५, सू० १६४-६५ ] तृतीयो विवेकः
नवनवोल्लेखशालिनी प्रज्ञा प्रतिभानम् । शास्त्र शास्त्रविषयं चिन्तनम् । तर्को विधि-निषेधविषयौ सम्भावनाप्रत्ययौ अन्वय-व्यतिरेकात्ययो वा। भ्रांतिः संशयो विपर्ययो वा । श्रादिशब्दादुपदेशादिग्रहः इति ।।
(१२) अथ व्याधिः[सूत्र १९४]-दोषेभ्योऽङ्ग-मनःक्लेषो व्याधिः स्तनित-कम्पवान्
॥ [३३] १३५ ॥ दोषाः कफ-वात-पित्त-सन्निपातादयः । स्तनितमातेस्वरः। उपलक्षणान्मुखशोषदन्तवीणावादन-शीताभिलाष-विक्षिप्तांगता-संतापादयोऽप्यनुभावा गृह्यन्ते इति ॥ [३३] १३५॥
(१३) अथ स्मृतिः -- [सूत्र १९५]-दृष्टाभासः स्मृतिस्तुल्यदृष्ट्यादे न्नतिक्रिया ।
दृष्टाभासः पूर्व दृष्टमिति ज्ञानम् । तुल्यदृष्टिः सदृशदर्शनम्। आदिशब्दात् सराभवण-चिन्ता-संस्कार रात्रिपश्चाद्भागनिद्रोच्छेद -प्रणिधान-पुनःपुनःपरिशीलनपूर्व दर्शनपाटवादेविभावस्य ग्रहः । अन्नतेभ्रुव ऊर्ध्वक्षेपस्य । उपलक्षणाच्छिर कम्पनावलोकनादेश्चानुभावस्य क्रिया निष्पत्तिर्यस्याः, सा तथेति ॥
मई-नई सूझ देने वाली बुलि 'प्रतिभा' कहलाती है। शास्त्रसे शास्त्र-विषयक चिन्तन [का पहरण होता है। किसी एक पक्षकी] विधि और निवेष से उत्पन्न होने वाले विविध सम्भावना शान अथवा अन्वय तथा व्यतिरेकको तर्क' कहते हैं । 'भ्रांति' शम्दसे संशय अथवा विपर्यय [बोनों का ग्रहण होता है । प्रादि शब्दसे उपदेश प्रादिका ग्रहण होता है।
(१२) अब व्याधि [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं]
सूत्र १९४]-[वात-पित्तावि रूप] दोषोंसे उत्पन्न शारीरिक या मानसिक क्लेश 'व्याधि' कहलाता है। और वह मार्तस्वर तथा कम्पादिका जनक होता है ॥ [३३] १३५ ॥
_ 'योष' अर्थात् कफ, वात, पित्त और उनका सन्निपात प्रादि । 'स्तनित' अर्थात् पारस्वर । उसके उपलक्षण रूप होनेसे मुखका सूखना, वांतोंकी वीणाका बजाना, ठण्डकको इच्या पोर अगोंकी विक्षिप्तता तथा सन्ताप प्रादि अनुभावोंका भी प्रहरण होता है। [३३] १३५॥ ... (१३) अब स्मृति [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं ]
[सूत्र १६५]-मिलते-जुलते सदृश पदार्थको देखने मादिसे उत्पन्न पूर्व र अर्थका भान 'स्मृति' कहलाता है। और वह भौहेंको उम्नति मादिकी जननी होती है।।
हटाभास अर्थात् पूर्व अर्थका ज्ञान । तुल्यदृष्टिका अर्थ मिलते-जुलते सहा पदार्थका रेखमा, है। प्रादि शम्बसे सहश भवरण, चिन्ता, संस्कार, रात्रिके पिछले भागमें नीरका बुल बाना, ध्यान, बार-बार सोचना, दर्शनको तीव्रता प्रावि [विभावों प्रर्थात् कारणोंका ग्रहण होता है। भौहोंकी उन्नति प्रर्यात भौहोंका ऊपर चढ़ना मावि मनुभावोंका । उसके उपलक्षण
म होनेसे सिर हिलाना और देखने मावि अनुभावोंकी क्रिया प्रति उत्पत्ति जिससे होती हैबह उस प्रकारको [धम्मतिकियाकी जननी स्मृति होती है।]
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३३८ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १३६-३७, सू० १६६-६८ (१४) अथ धृतिः -- [सूत्र १९६]--धृतिर्जानेष्टलाभादेः सन्तुष्टिर्देहपुष्टिकृत् ॥ [३४]
१३६ ॥ ज्ञानं विवेकज्ञानं बाहुश्रुत्यं वा । इष्टस्येप्सितम्य लाभः प्राप्तिः। आदिशब्दात शौचाचरण-क्रीडा-देवतादिभक्ति-विशिष्टशक्त्यादेविभावस्य ग्रहः । देहपुष्टिरुपलक्षए गताननुशोचनादीनामनुभावानापिति ।। [३४] १३६ ॥
(१५) अथामर्षः - [सूत्र १९७]-क्षेपादेः प्रतिकारेच्छाऽमर्षोऽस्मिन् कम्पनादयः ।
क्षेपस्तिरस्कारः। आदिशब्दादपमानादेविभावस्य ग्रहः। अपकारिणि स्वयमपकरणाभिलाषः प्रतिकारेच्छा। परस्यापकाराभावेऽपि परानर्थकरणाभिप्रायरूपः क्रोध इत्यनयोर्भेदः। अस्मिन्नमर्षे । श्रादिशब्दादधोमुखचिन्तन-प्रस्वेद-उत्साह-ध्यानोपायान्वेषण-तर्जन-ताडनादीनामनुभावानां ग्रह इति ।।
(१६) अथ मरणम्[सूत्र १९८]-व्याध्यादेमृत्युसङ्कल्पो मरणं विकलेन्द्रियम् ॥[३५]
(१४) अब ति [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं
[सूत्र १४६]---ज्ञान अथवा इष्टप्राप्ति प्रादिसे उत्पन्न सन्तोष 'ति' है। और वह शरीरको पुष्टि आदिका करने वाला होता है । [३४] १३६ ।
ज्ञान अर्थात् विवेकज्ञान अथवा बहुश्रुतता। इष्ट अर्थात् मनचाही वस्तुका लाभ अर्थात् प्राप्त होना। आदि शब्दसे शुद्धाचरण क्रीडा [मनोरंजन], देवताओंको भक्ति, विशेष भावित आदि कारणों [विभाव] का ग्रहरण होता है। देहपुष्टि शब्द, बीती बातका शोक न करने प्रादि अनुभावोंका भी उपलभरण है ।। [३४] १३६ ॥
(१५) अब अमर्ष [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं]
[सूत्र १४७] :- तिरस्कार प्रादिके कारण उत्पन्न बदला लेनेको इच्छा 'प्रमर्ष' है । इसमें कम्पन प्रादि [अनुभाव होते हैं।
क्षेप प्रर्थात् तिरस्कार । प्रादि शब्दसे अपमानादि विभावोंका ग्रहण होता है। अपकारीके प्रति स्वयं उसका प्रपकार करनेकी इच्छा 'प्रतिकारेच्छा' कहलाती है। दूसरेके द्वारा अपकार न किए जानेपर भी दूसरेको हानि पहुंचानेका अभिप्राय क्रोष' कहलाता है। यह इन दोनोंका भेद है । इसमें अर्थात् अमर्ष में । मादि शब्दसे सिर नीचा करके सोचना, पसीना माना, उत्साह, ध्यान, उपायोंके खोजने, फटकारने, पोटने प्रादि अनुभावोंका भी ग्रहण होता है।
(१६) अब मरण [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं]
[सूत्र १४८]-व्याधि प्रादिके कारण मरनेको इच्छा करना 'मरण' कहलाता है [अर्थात् यहाँ मरण शब्दसे प्रारण निकल जाने रूप वास्तविक मरणका प्रहण नहीं होता है। स्योंकि नाटकोंमें वास्तविक मरणका दिखलाना निषिश माना गया है । और वह इन्द्रियोंको विकल करने वाला होता है। [३५] १३७ ।
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का० १३७, सू० १६६ ] तृतीयो विवेकः
[ ३३६ व्याध्यादयो वात-पित्त-श्लेष्मवैषम्य-ज्वर-विचर्चिका-पिटकादयः। आदिशब्दात् शस्त्राभिघात-विषपान-अहिदंश-श्वापद-गज-तुरगाद्याक्रमण-वाहनोच्चस्थानपतनादेविभावस्य ग्रहः ।
'मृत्युसंकल्पो' दुष्पतिकारोऽयमनर्थस्तस्मादवश्यं मरिष्यामीत्यध्यवसायः । विकलानि स्वविषयग्रहणं प्रत्यसमर्थानीन्द्रियाणि यस्मिन् । उपलक्षणाद् विह्वलचेष्टितहिक्का-निःश्वास-परिजनानवेक्षण - अव्यक्ताक्षरभाषण - वदनदैन्य-सहसाभूमिपतनकम्पन - स्फुरण-कार्य - फेन-जाड्य - हस्तस्कन्धभङ्गानपेक्षितगात्रसञ्चारादयोऽनुभावा गृह्यन्ते। प्राणनिरोधरूपं तु मरणं न नाट्ये प्रयोज्यमिति, न तस्य विभावानुभावस्वरूपाणि प्रतिपाद्यन्त इति ॥ १३७ ।।।
(१७) अथ मोहः - [सूत्र १९६]-अचैतन्यं प्रहारादेर्मोहो,ऽत्राघूर्णनादयः ।.
_ 'अचैतन्य' प्रवृत्ति-निवृत्तिज्ञानाभावो न तु सर्वथा गतचेतनत्वम् । 'प्रहारो' मर्म. ण्यभिघातः। आदिशब्दात् तीव्रवेदना-अशक्यप्रतिकार-चौर-राजा-अहि-व्याघ्राद्याक्रमण-देशविप्लव-अग्न्युदकाद्युपघात-वैरिदर्शन-श्रवणादेविभावरय ग्रहः । अत्र मोहे। आदि शब्दाद् भ्रमण-पतनेन्द्रियाव्यापारादेरनुभावस्य ग्रहः ।
व्याधि अर्थात् वात, पित्त कफके वैषम्यसे उत्पन्न ज्वर विचचिका खाज और फोड़ाफुन्सी प्रादि । प्रादि शब्दसे शस्त्रप्रहार, विषपान, साँपके काटने, हिंस्र जन्तुओं, हाथी, घोड़े माविक प्राक्रमण, सवारी अथवा ऊँचे स्थानसे गिरने प्रादि विभावोंका ग्रहण होता है।
[वास्तवमें तो मरने की इच्छा भी कोई नहीं करता है इसलिए ] मृत्युसंकल्पसे यहाँ, यह प्रापत्ति ऐसी है जिसका प्रतिकार असम्भव है इसलिए अवश्य ही मर जाऊँगा इस प्रकारका निश्चय [मृत्युसंकल्प पदसे गृहीत होता है । विकल अर्थात् अपने विषयको ग्रहण करनेमें असमर्थ इन्द्रियां जिसमें हो जाती हैं [वह मृत्युसंकल्प विकलेन्द्रिय मरण रूप हमा] । उसके उपलक्षरण रूप होनेसे विह्वल चेष्टानों, हिचकी, निःश्वास, परिजनोंको न देखने, अस्पष्ट शादोंका उच्चारण, चेहरेकी दीनता, सहसा पृथिवीपर गिर पड़ने, कांपने लगने, फड़कने, कृशता, फेन गलने, जड़ता, हाथ कन्धे आविके टूटने-फूटनेको चिन्ता न करके अङ्गोंके संचालन प्रावि अनुभावोंका ग्रहण होता है। प्राण बन्द हो जाना रूप [वास्तविक मरण तो नाटकमें नहीं दिखलाना चाहिए । इसलिए उसके विभाव और अनुभावोंके स्वरूपोंको यहाँ प्रतिपादन नहीं किया है ।[३५] १३७ ।।
(१७) अब मोह [रूप व्यभिचारिभाव का लक्षण करते हैं] -
[सूत्र १९६] -प्रहार आदिसे उत्पन्न प्रचैतन्य 'मोह' कहलाता है। इसमें चक्कर पाना प्रादि होता है।
अचैतन्यका अर्थ [कर्तव्य व प्रकर्तव्यमें] प्रवृत्ति-निवृत्तिके ज्ञानका न रहना है। सर्वथा चैतन्यका प्रभाव [प्रचंतन्य शम्बसे विवक्षित नहीं है ] प्रहार अर्थात् मर्मस्थलपर प्राघात । प्रादि शम्बसे तीव्र वेदना, जिनका प्रतिकार सम्भव न हो इस प्रकारके चोर, राजा, सर्प, व्याघ्र प्राविक प्राक्रमण, वेश-विप्लव, आग-पानी आदिके उपद्रव, शत्रुके दिखलाई देने अथवा सुनाई रेने पावि विभावोंका ग्रहण होता है। इसमें अर्थात् मोहमें। प्रावि शम्बसे चक्कर लाने
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३४० ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १३६, सू० २००-२०१
(१८) अथ निद्रा
[ सूत्र २०० ] - इन्द्रियाव्यापृतिनिद्रा, खेवावे र्द्धकम्पिनी ||
[३६] १३८ ॥
इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि, न तु मनः, तस्य निद्रायामपि व्यापारात् । 'अव्याप्रति' विषयग्रहणोपरतिः । आदिशब्दादालस्य दौर्बल्य-रात्रि जागरण-प्रत्याहार-मदश्रम - क्लम-चिन्ता-शयालतादेर्विभावस्य ग्रहः । मूर्द्धकम्पनेन जृम्भण-वदनविकासनिःश्वास-नेत्रघूर्णन अङ्गभङ्ग-अक्षिमीलन-सर्वक्रियासम्मोहादयोऽनुभावा उपलक्ष्यन्त इति || [३८] १३८ ॥
(१६) अथ सुप्तम्
[ सत्र २०१ ] - सुप्तं निद्राप्रकर्षोऽत्र स्वप्नायित - खमोहने ।
'प्रकर्षो' गाढतमावस्था । स्वप्नस्य तात्कालिक विषयज्ञानस्य श्रयितं प्रतीतितस्तत् ' स्वप्नायितं ' प्रलपितम् । खानां मनःषष्ठानामिन्द्रियाणां मोहनमतिशयेन विषयवैमुख्यम् । निद्रायां मनसोऽवधानमस्ति । अत्र तु तदपि मनागुपरुध्यत इति भेदः । विभावास्तु निद्रागता एवात्र ग्राह्याः ॥
गिरने और इन्द्रियोंके व्यापारके प्रभाव आदि अनुभावोंका प्रहरण होता है ।
(१८) अब निद्रा [रूप व्यभिचारिभावका लक्षरण करते हैं ]
[ सूत्र २००] थकावट ग्राविसे उत्पन्न इन्द्रियोंके व्यापारका प्रभाव 'मित्रा' कहलाता है । उससे सिर हिलने लगता है । [३६] १३८ ।
इन्द्रियोंसे त्वचां प्रादि [ ज्ञानेन्द्रियोंका हो ग्रहरण करना चाहिए ] मनका नहीं । क्योंकि उसका व्यापार तो निद्राकालमें भी होता रहता है । व्यापारका प्रभाव प्रर्थात् [इन्द्रियोंका ] विषयोंके ग्रहणसे हट जाना । प्रादि शब्द से प्रालस्य, दौर्बल्य, रातमें जगने, अधिक भोजन, मदके सेवन, परिश्रम, थकावट, चिन्ता, सोनेके स्वभाव यादि [निद्राके विभावों अर्थात् ] कारणोंका ग्रहरण होता है। सिर हिलानेसे जम्हाई माने, लम्बी निःश्वास छोड़ने, घुमाने, अंगड़ाई प्राने, श्रीलं झपकने और सारी क्रियाघ्रोंको भूल जाने आदि अनुभावोंका ग्रहण होता है । [३६] १३८ ॥
(१६) अब सुप्त [नाम व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं ]
[ सूत्र २०१] - - प्रबल निद्राका थाना 'सुप्त' [नामक व्यभिचारिभाव] कहलाता है । इस में बना - [स्वप्नायित] और मन सहित सब इन्द्रियोंका विक्योंसे प्रत्यन्त वैमुख्य [मोहन] हो जाता है ।
[ निद्राका ] प्रकर्ष अर्थात् गाढतम अवस्था | स्वप्नकी प्रर्थात् उस समय [स्वप्न में होने वाले] ज्ञानकी 'प्रायितं' अर्थात् प्रतीति जिसमें हो उस बनेको 'स्वप्नायित' कहते हैं । 'ख' अर्थात् मनके सहित [पाँचों कुल मिलाकर ] छहों इन्द्रियोंका 'मोहन' अर्थात् विषयोंसे प्रत्यन्त विमुखता । मित्रामें मनकी वृति रहती है यहाँ [सुप्तिमें] तो वह भी बिल्कुल निरुद्ध हो जाती है। यह [मित्र और सुप्सि इन दोनोंका ] भेद है। निद्रामें कहे हुए विभाव हो यहाँ [सुप्तिके भी कारन ] समझने चाहिए ॥
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का० १४०, सू० २०२-२०४
(२०) प्रभोषम
[ सत्र २०२ ] --ऽपराधान्नघृण्यं श्रग्रय बन्ध-वधादिभिः
॥ [३७] १३६ ॥ 'दुष्ट' हिंस्रत्वानृतवादित्व- वञ्चकत्वादियुक्ते । अपराधादकार्य कारित्वाद् दौर्मुख्य-चौर्यादिरूपाद विभावाद् यद् राजादेर्नैर्धृएयं निर्दयत्वं तदौप्रयम् । तच्च बंधन्वधाभ्याम् ! आदिशब्दात् ताडन-निर्भर्त्सन-स्वेद-शिरः कम्पादिभिरनुभावैरभिनेतव्यमिति || [३७] १३६ ॥ (२१) अथ हर्षः
[ सूत्र २०३ ] - हर्षः प्रसत्तिरिष्टाप्तेरत्र स्वेदाश्रु - गद्गदाः ।
भर्तृ
'प्रसत्ति' श्वेतोविकासः । 'इष्ट' प्रियसंयोगाप्रियसंयोगनिवृत्ति देव-गुरु-राजप्रसाद-भोजनाच्छादन-धन-पुत्रादिलाभ - पुत्रादिगतहर्ष - विषयोपभोगोत्सवादि । 'गद्गदो' वाष्परूद्धकण्ठस्य वाक् । उपलक्षणान पुलक- प्रियभापरण-नेत्रमुखप्रसादादेरभावस्य ग्रह हति ।
(२२) अथ विषादः
[ सूत्र २०४ ] - विषादस्तान्तिरिष्टस्यानाप्तेनिश्वास चिन्तनः ॥
तृतीयो विवेकः
-
[ ३४१
(२०) अत्र उपता [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं]
[ सूत्र २०२] - अपराधके कारण दुष्ट पुरुषके प्रति वध-बन्धावि द्वारा जो नियता [ का प्रकाशन है ] वह 'उग्रता' कहलाती है । [३७] १३६ ।
[३८] १४० ॥
दुष्ट अर्थात् हिंसा करने वाले, झूठ बोलने वाले, अथवा धोखा देने वाले [के प्रति ]. अपराधके कारण अर्थात् प्रनुचित कार्य करने, ऊटपटांग बात करने, चोरी, प्रादि रूप कारणों से जो राजा श्रादि को निठुरता अर्थात् निर्दयता, उसको 'उग्रता' कहा जाता है उसका अभिनय वध तथा बन्धन के द्वारा किया जाता है । प्रादि शब्दसे मारने-फटकारने सोना और सिर हिलाने यादि अनुभावोंके द्वारा उसका अभिनय होता है ।। [३७] १३६ ॥
(२१) अब 'हर्ष' [ व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं---
[ सूत्र २०३ ] – इष्टको प्राप्तिके कारण [मनकी] प्रसन्नता हर्ष होता है। इसमें स्वेद, प्रभु धौर गद्गदता हो जाती है ।
प्रसन्नता प्रर्थात् चित्तका विकास। इष्ट प्रर्थात् प्रियका संयोग प्रथवा प्रप्रियके संयोग की निवृत्ति, देवता, गुरु, राजा प्रथवा स्वामीकी कृपाकी प्राप्ति, भोजन, श्राच्छादन, वस्त्र, धन, पुत्रादिकी प्राप्ति, पुत्रादिको प्रसन्नता, विषयोंके उपभोग श्रौर उत्सव श्रादि [ का ग्रहरण होता है ] । प्रांसुश्रोंसे गला भरे हुएकी वाणी 'गद्गद' कहलाती है । उसके उपलक्षरण रूप होनेसे रोमांच, प्रिय भाषण, प्रांखों और मुखको प्रसन्नता प्रादि अनुभावोंका ग्रहण भी होता है ।
(२२) श्रम विषाद (का लक्षरण करते हैं]
[ सूत्र २०४ ] -- इष्ट वस्तुके न मिलनेसे [चित्तका] अनुत्साह 'विवाद' कहलाता है । निःश्वास तथा चिन्ताके द्वारा [ उसका अभिनय किया जाता है] । [३८] १४०१
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३४२ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १४१, सू० २०५-२०६ 'तान्ति'रनुत्साहाक्रान्तश्चित्तसन्तापः। 'इष्ट' प्रारब्धनिर्वहण-दैवाप्रतिकूलत्वादि । तस्यानाप्तिरलाभो विपरीतलाभो वा। चिन्तनमुपायानाम् । बहुवचनात् सहायान्वेषण-वैमनस्यादिभिर्मध्यमोत्तमगतैर्मुखशोष-निद्रा-ध्यान-जिह्वापरिलेहादिभिस्त्वधमगतैरनुभावैरभिनीयत इति ॥ [३८] १४० ॥
(२३) अथोन्मादः[सूत्र २०५]-मनोविप्लुतिरुन्मादो ग्रहदोषैरयुक्तकृत् ।
विप्लुतिर्विसंस्थुलता,' क्वचिदप्यविश्रान्तिरिति यावत् । ग्रह-दोषौ अपस्मारे व्याख्यातौ । अयुक्तमनुचितं गीत-नृत्त-पठितोत्थित-शयित-प्रधावित-रुदित-आक्रष्टअसम्बद्धप्रलापन - अनिमित्तहसित-भस्मपांस्ववधूलन- निर्माल्य - वीरघटवक्त्रशरावाभरणोपभोगादि । अयं चोत्तमस्य विप्रलम्भे, अधमस्य करुणे व्यभिचारी । अपस्मारस्तु बीभत्स-भयानकयोः । स च मनोवैकल्यम् , अयन्तु मनोऽनवस्थितिरिति भेद इति ।
(२४) अथ दैन्यम्[सूत्र २०६]-प्रापदः स्वान्तनीचत्वं दैन्यं काावगुण्ठनैः ॥
॥ [३६]१४१॥ तान्ति अर्थात् अनुत्साहसे युक्त चित्तका सन्ताप । इष्ट अर्थात प्रारम्भ किए हुए कार्यकी समाति भाग्यको प्रप्रतिकूलता प्रादि । उसका प्राप्त न होना अथवा विपरीत [अर्थात् पनिट] को प्राशि । चिन्तन अर्थात् उपायोंके चिन्तनद्वारा [उसका अभिनय होता है। चिन्तनः पदमें] बहुवचनके प्रयोगसे सहायकोंकी खोज पोर वैमनस्य प्रादि मध्यम तथा उत्तम पात्रगत [अनुभावों के द्वारा तथा] और मुख सूखने, नीद, ध्यान, जीभ फेरने ग्रादि प्रधमपात्रगत अनुभावोंकेद्वारा उसका अभिनय किया जाता है ।[३०] १४०॥
(२३) अब उन्मादका [लक्षरण करते हैं]
[भूत-पिशाचादि रूप] ग्रह तथा [वात पित्तादि रूप] दोषोंके कारण मनका पत्र हो जाना 'उन्माद' कहलाता है और उसमें अनुचित कार्य करने लगता है ।
[सूत्र २०५] -'विप्लुति' अर्थात् मस्थिरता, कहीं भी चित्तका न लगना । ग्रह तथा दोष दोनोंकी व्याख्या अपस्मारमें की जा चुकी है। प्रयुक्त अर्थात् अनुचित गाना, नाचना, पढ़ना, उठना, भागना, रोना, चिल्लाना, असम्बद्ध बकवाद करना, बिना बातके हंसना, राख या धूल फेंकना, देवताओंकी वस्तुओं [निर्माल्य] पीपल मादिके वृक्षोंपर टाँगे हुए घड़ों, [वीरघट] करवा, सकोरे आदि और प्राभरणाविका उपभोगादि । यह [उन्माद] उत्तमके विप्रलम्भमें प्रौर मधमके करुणमें व्यभिचारिभाव होता है। और अपस्मार बीभत्स तथा भयानक रसोंमें [व्यभिचारिभाव होता है। [यह उन्माद तथा अपस्मारका एक भेद है। उनका दूसरा भेद यह भी है कि वह [अर्थात् अपस्मार]मनको विकलतामय होता है और यह [उन्माद] मनको अस्थिरतारूप होता है यह इन [उन्माद तथा अपस्मार का [दूसरा] भेद है।
(२४) अब वैन्य [नामक व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं]
[सूत्र २०६]-मापत्तियों के कारण मनको विकलता 'छैन्य' कहलाती है । [बहरेको] कृष्णता और ढकनेके द्वारा उसका अभिनय किया जाता है। [३९]१४१॥
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का० १४२, सू० २०७-२०८ ] तृतीयो विवेकः
[ ३४३ 'आपदो' दौर्गत्य-न्यकारादेः। स्वान्तनीचत्वं मनःक्लैब्यम् । काण्यं वदनश्यामता। अवगुण्ठनं शिरोगात्रवरणम् । बहुवचनाच्छरीरासंस्कार-गौरवपरिहारवस्त्रमालिन्याद्यैश्चानुभावैरभिनेतव्यमिति ॥ [३६] १४१॥
(२५) अथ ब्रीडा[सूत्र २०७]-व्रीडाऽनुताप-गुर्वादेरधाष्टर्य गात्रगोपकम् ।
अकृत्यकरणादनु पश्चात् तापो मानसो विवेकः । गुरुर्मातापित्रादिः । श्रादिशब्दात् प्रतिज्ञातानिर्वहण-गुरुव्यतिक्रम-अवज्ञान-असंम्तवादेर्विभावस्य ग्रहः । अधाट थमवैयात्यम् । गात्रगोपनेनोपलक्षणाद् अधोमुखचिन्तन-नखनिस्तोदन-भूविलेखनवस्त्रांगुलीयस्पर्शनादेरनुभावस्य ग्रह इति ॥
(२६) अथ त्रासः[सूत्र २०८]-घोराच्चकितता त्रासः काय-सङ्कोच-कम्पितः ।
॥ [४०] १४२ ॥ _ 'घोरं' भीषणं निर्घाताशनिपात-महाभैरवनाद-महारौद्रसत्त्व-शवदर्शनादि । 'चकितता' उद्वेगकारी चमत्कारः । अनर्थसम्भावनातः सत्त्वभ्रशो भयमित्यनयोर्भेदः। बहुवचनात् स्तम्भ-रोमाञ्च- मूर्छा-गद्गद्वचनादिभिश्चायमनुभावैरभिनीयते इति ॥
॥[४०] १४२ ॥ मापत्तिसे अर्थात् दुर्गति या अपमान मादिके कारण, अपने मनकी नीचता अर्थात् विकलता । कृष्णता अर्थात् मुखका काला पड़ जाना । अवगुण्ठन अर्थात् सिर और शरीरका ढक लेना । बहुवचनसे शरीरका [शुद्धि प्रावि रूप] संस्कारका प्रभाव, गौरवको भुला देना और वस्त्रोंको मलिनता प्रादि अनुभावोंके द्वारा उसका अभिनय होता है ॥[३६] १४१॥
(२५) अब वोडा [का लक्षण करते हैं]
[सूत्र २०७] -पश्चात्ताप अथवा माता-पिता प्रादि गुरुजनों [को उपस्थिति के कारण पृष्टताका न करना 'वीडा' कहलाती है और उससे मुख शरीरादिको छिपाता है।
मनुचित कार्यके करनेके कारण बादको होनेवाला ताप अर्थात् मानसशान [अनुताप कहलाता है] । माता-पिता आदि गुरु हैं। प्रादि शब्दसे प्रतिज्ञाको पूरा न कर सकने, पुरुषों की मर्यादाका उल्लंघन, अपमान और अपरिचय प्रादि विभावोंका ग्रहण होता है । अपाष्टर्य अर्थात् उद्दण्डताका प्रभाव । गात्रगोपनके उपलक्षरण होनेसे, उससे सिर झुकाकर सोचने, नाखून चबाने, भूमि कुरेदने, कपड़े या अंगूठो प्रादिके छूने प्रादि अनुभावोंका पहरण होता है । .
(२६) अब त्रास [का लक्षरण करते हैं]
[सूत्र २०८]- भयंकर वस्तुको देखकर चकित हो जाना 'त्रास' कहलाता है । शरीर के सिकोड़ने और कांपनेके द्वारा [उसका अभिनय किया जाता है] [४०] १४२॥
भयंकर गर्जन, बिजली गिरना, महाभयंकर शब्द, अत्यन्त भीषण प्रारणीका दर्शन मादि 'घोर' पदसे लिए जाते हैं । भयको उत्पन्न करनेवाला पाश्चर्य चकितता' कहलाता है। [उस घोर दर्शनादिसे त्रास होता है। और अनर्थकी होनेकी सम्भावनासे मानसिक बलका नाश 'भय' होता है । यह भय और त्रासका भेद है। बहवचनसे स्तम्भ, रोमांच, मा ,
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३४४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १४३, सू० २०६-२११ (२७) अथ तर्क:
[सूत्र २०६]-एकसम्भावनं तर्को वादादेरङ्गनर्तकः ।
'वादो' विप्रतिपत्तिस्तस्मात् । आदिग्रहणात् सन्देहबाधकबलोद्भूतपक्षान्तराभावज्ञानविशेष-प्रतीत्यभिलाषादेर्विभावाद् यद्येकस्य पक्षस्य सम्भावनं भवितव्यमनेनेति प्रत्ययः स तर्कः । अङ्गस्य भ्र-शिरोऽङ्ग ल्यादेर्नर्तक इति ।
(२८) अथ गर्वः[सूत्र २१०]-आत्मन्याधिक्यधीर्वो विद्यादेरन्यरीढया ॥
॥ [४१] १४३ ॥ 'आधिक्यधीः' परजुगुप्साक्रान्तः स्वस्मिन बहुमानः । श्रादिशब्दाज्जाति-कुललाभ-बुद्धि-वाल्लभ्य-यौवनैश्वर्यादेविभावस्य ग्रहः । 'रीढा' अवज्ञा । तया । उपलक्षणात पारुष्य-असूया-आधर्षण-अनुत्तरदान - अङ्गावलोकन- उपहसन - अलङ्कारव्यत्यासादिभिश्चानुभावैरभिनेतव्य इति ॥ [४१] १४३ ।।
(२६) अथौत्सुक्यम[सूत्र २११]-इष्टाभिमुख्यमौत्सुक्यं स्मरणाद्यात् त्वरादिभिः । गद्गदवचन भादिके द्वारा भी इसका अभिनय किया जाता है ।[४०]१४२॥
(२७) अब तकं | व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं] -
[सूत्र २०६]-वाद आदिके द्वारा एक पक्षको सम्भावना 'तर्क' कहलाता है । उससे अंगोंका नचाना [रूप अनुभाव उत्पन्न होता है ।
वाद अर्थात् मतभेद [विप्रतिपत्ति] । उससे [तर्क होता है । प्रादि शब्दसे सन्देहके निवारक [प्रबल प्रमाण] के बलसे उत्पन्न दूसरे पक्षके प्रभावका ज्ञान और विशेष प्रतीतिको इच्छा प्रादि विभावोंसे जो किसी एक पक्षको सम्भावना, अर्थात् यह बात ऐसी होनी चाहिए इस प्रकारको प्रतीति, वही 'तक' कहलाता है । अंग अर्थात् भौंह, सिर या अंगुलि प्रादिका नवाने वाला होता है।
(२८) अब गर्व [का लक्षण करते हैं]
[सूत्र २१०]--विद्या प्रादिके कारण अन्योंको अवज्ञा करके अपनेको बड़ा समझना 'ग' कहलाता है। [४१] १४३।।
'प्राधिक्यधी:' अर्थात् [अन्यके प्रति घृणाके सहित अपने पापको बड़ा समझना । [विद्यादेः में प्रयुक्त प्रादिशब्दसे जाति, कुल, लाभ, वृद्धि, [किसीको] वल्लभता, यौवन, ऐश्वर्य प्रादि विभावोंका ग्रहण होता है । 'रोढा' अर्थात् प्रवज्ञा । उससे उपलक्षण द्वारा पारुष्य, असूया, रोब जमाने [धर्षण] उत्तर न देने, अपने] अंगोंका देखने, दूसरेका उपहास करने और अलंकारोंका भिन्न स्थानोंपर प्रयोग करने प्रादि अनुभावोके द्वारा उसका अभिनय किया जाता है । [२] १४३ ॥
(२६) प्रोत्सुक्य [का लक्षण करते हैं]- [सूत्र २११] - [इष्टके] स्मरण प्रादिके कारण इष्टके प्रति शीघ्रता प्रादिसे प्रभिमुख प्रवृत्त होना 'मोत्सुक्य' कहलाता है।
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का० १४५, सू० २१२-१३ ] तृतीयो विवेक:
[ ३४५.
श्रभिमुख्यमौत्सुक्यम् । स्मरणमिष्टस्य । आद्यशब्दान्मनोज्ञदिदृक्षा अभिष्वङ्गलोभादेर्विभावस्य ग्रहः । त्वरा मनो-वाक्- कायदृष्टि - चापलम् । श्रादिशब्दात् कृत्यविस्मरण- दीर्घनिःश्वास-असम्बद्धवचन- स्वेद- हत्तापादेरनुभावस्य ग्रह इति । (३०) अथावहित्था -
[ सूत्र २१२] - धाष्टर्यादविक्रिबारोधोऽवहित्थास्त्र क्रियान्तरम् ॥
।। [४२] १४४ ।।
'घाष्ट्रीय " प्रागल्भ्यम् | आदिशब्दाद् भय लज्जा-गौरव- कुटिलाशयत्वा देविभावस्य ग्रहः । सर्वानुगतत्वख्यापनार्थं घाष्ट्र्यं प्रथममुपात्तम् । सभयादिरपि प्रगल्भो न शक्नोत्याकारं संवतुम् । 'विक्रिया' भ्रूविकार मुखरागादिका, तस्या रोधः संवरणम् । रोवकारकत्वेनोपचाराच्चित्तविशेषोऽपि रोधः । न बहिःस्था चित्तवृत्तिरिति पृषोदरादित्वाद् अवहित्था' । अत्रावहित्थायां प्रस्तुतक्रियातोऽन्यकथनावलोकनकथामङ्गकृतकस्थैर्यादिकं क्रियान्तरमिति । [४२] १४४ ॥
(३१) अथ जाड्यम
[ सूत्र २१३ ] -- जाड्यमिष्टादितः कार्याज्ञानं मौनानिमेषणैः ।
श्राभिमुख्य श्रौत्सुक्य कहलाता है। स्मरण इष्टका [ श्रभिप्रेत है । 'स्मरणाद्यात्' में ] 'चाय' शब्दसे सुन्दर वस्तुके देखनेकी इच्छा, प्रेम और लोभादि विभावों [कारणों] का ग्रहरण होता है । वराका अभिप्राय मन, वाणी तथा शरीर और दृष्टिको चपलता है। आदि शब्दसे कामको भूल जाने, लम्बी श्वास छोड़ने, असम्बद्ध बात करने, स्वेद, और हृदयकी जलन धादि अनुभावोंका ग्रहरण होता है
(३०) व श्रवहित्या [का लक्षण करते हैं ] -
[ सूत्र २१२] - धृष्टता प्रादिसे उत्पन्न विकारको छिपानेका यत्न 'श्रवहित्था' कहलाता है । इसमें [ प्राकार - विकृतिको छिपानेके लिए] दूसरी क्रिया की जाती है । [४२] १४४ । धृष्टता अर्थात् प्रगल्भता प्रादि शब्द से भय, लज्जा, गौरव, दुष्टाभिप्राय आदि कारणों [ विभावों] का ग्रहण होता है । [श्रायके] सबमें अनुस्यूत होनेके कारण सबसे पहले धृष्टता का ग्रहण किया है । सभय आदि व्यक्ति भी यदि प्रगल्भ न हो तो प्राकारको छिपाने में समर्थ नहीं हो सकता है । विक्रिया अर्थात् भौंहोंका टेढ़ा होना या सुखका लाल प्रादि हो जाना प्रादि, उसका रोध अर्थात् छिपाना । [बाह्य विकारको ] छिपानेका कारण होनेसे उस प्रभिप्रायकी चित्तवृत्ति- विशेषको भी 'रोध' कह सकते हैं। बाहर प्रकाशित न होने वाली चितवृति 'न बहिरथा' होनेसे 'प्रवहित्था' कहलाती है [ यह अवहित्था पदका निर्वचन है] 'दरादिगण' पठित नियमसे इसकी सिद्धि होती है । इसमें अर्थात् प्रवहित्था में प्रस्तुत क्रियासे भिन्न कथन, अवलोकन, बात समाप्त कर देना, बनावटी स्थिरता दिखलाना यादि दूसरी क्रियाएँ की जाती हैं ।। [४२] १४४ ॥
[का लक्षण करते हैं ]
(११) अब [ सूत्र २१३] - इष्ट दिसे [अर्थात् इष्टप्राप्तिको प्रसन्नता मे ] कामको भूल जाना 'जाना' कहलाता है । मौन और टकटकी लगाकर देखनेके द्वारा [उसका अभिनय किया जाता है] +
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३४६ ]
नाट्यदर्पणम् । का० १४६, सू० २१३-१४ 'इष्ट' प्रियं, तम्य दर्शन-श्रवणे अपीष्टे। आदिशब्दादनिष्टदर्शन-श्रवण-व्याध्यादेविभावस्य ग्रहः । कार्याज्ञानं नेत्राभ्यां पश्यतोऽपि श्रोत्राभ्यां शृण्वतोऽपि चेदानी किं कृत्यमित्यनिश्चयः। नेदं वैकल्य-अचैतन्यस्वभावमित्यपस्मार-मोहाभ्यां भिन्नम् । 'मौन' तूष्णीम्भावः । 'अनिमेषणं' अनिमेषनिरीक्षणम् । बहुवचनात् परवशत्वादिभिरनुभावैरभिनेतव्यमिति।
(३२) अथालस्यम्[सूत्र २१४]-कर्मानुत्साह आलस्यं श्रमाद्याज्जृम्भितादिभिः
॥[४३] १४५ ॥ श्रादिशब्दात् सौहित्य-स्वभाव-व्याधि-गर्भादिभिर्विभावैः स्त्री-नीचानामनुद्यमरूपमालस्यं भवति । श्रमस्य व्यभिचारित्वेऽपि अन्यव्यभिचारिणं प्रति विभावत्वे न दोषः । व्यभिचारिता तु परस्परं व्यभिचारिणां स्थायित्वप्रसङ्गाद् दुष्टैव । एवं व्यभिचारिणाम् अनुभावत्वमपि भवत्येव । जृम्भितेन, आदिशब्दाद् आसितेनाहारवर्जितपुरुषार्थानारम्भादिभिश्चानुभावैस्तदभिनेतव्यम् । अलसोऽपि ह्यवश्यमाहारं करोत्येवेति ॥ [४३] १४५ ॥
___ इष्ट प्रर्थात् प्रिय, उसका दर्शन और श्रवण भी इष्ट [पदसे अभिप्रेत है। आदि सम्बसे अनिष्टके वर्शन, श्रवण, व्याधि प्रादि कारणों [विभावों] का भी ग्रहण होता है। कार्य का मान न होना अर्थात प्रांखोंसे देखते हुए और कानोंसे सुनते रहनेपर भी, अब क्या करना चाहिए इसका निश्चय न कर सकना । यह [जाड्य] न विकलता रूप है और न प्रचैतन्य रूप इसलिए [वैकल्य रूप] अपस्मार तथा [अचंतन्य रूप] मोह दोनोंसे भिन्न है। मौन अर्थात् चुप रहना । अनिमेषरण अर्थात् टकटकी लगाकर देखना । बहुवचनसे परवशता प्रादि अनुभावोंके द्वारा इसका अभिनय किया जाता है।
(३२) प्रब प्रालस्य [व्यभिचारिभावका लक्षरण करते हैं]--
[सत्र २१४]--श्रम प्राविके कारण कार्यमें उत्साहका न होना 'पालस्य' कहलाता है। जम्भाई आदिके द्वारा उसका अभिनय किया जाता है । [४३] १४५ ॥
[जम्भितादिभि: में प्रयुक्त श्रादि शब्दसे पेट भरा होना, [पालस्यका] स्वभाव, रोग, या गर्भ प्रादि कारणोंसे स्त्री और नीचोंको उद्यमहीनता पालस्य कहलाता है। श्रमके ध्यभिचारिभाव होनेपर भी दूसरे व्यभिचारिभावके प्रति विभाव [कारण] होने में कोई दोष नहीं है। व्यभिचारिभावोंकी परस्पर व्यभिचारिता [उनमेंसे एकके] स्थायिभाव बन जानेके कारण दूषित हो है। [अर्थात् व्यभिचारिभाव तो किसी स्थायिभावका ही होता है। यदि एक व्यभिचारिभावको दूसरेका व्यभिचारिभाव माना जाय तो पहला व्यभिचारी, व्यभिचारिभाव नहीं अपितु स्थायिभाव हो जायगा। इसलिए किसी व्यभिचारिभावको दूसरे भ्यभिचारीका व्यभिचारिभाव नहीं माना जा सकता है। हां उनको विभाव और अनुभाव माना जा सकता है] इसी प्रकार व्यभिचारिभाव अनुभाव भी हो सकते हैं। ज़म्भित सबसे प्रौर मावि शब्दसे बैठे-बैठे खानेके अतिरिक्त कोई काम न करने प्रादि अनुभावोंके द्वारा.उसका अभिनय किया जाता है। प्रालसी भी भोजन तो अवश्य ही करता है इसलिए खामेको छोड़कर अन्य कोई काम न करना प्रालस्य कहलाता है । [४३] १४५ ।।
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का० १४७, सू० २१५-१६ ] तृतीयों विवेकः
। ३४७ अथ विबोधः[सूत्र २१५] -निद्राच्छेदो विबोधश्च शब्दादेरङ्गभङ्गवान् ।
आदिशब्दात् स्पर्श-स्वप्नान्त-आहारपरिणामादेविभावस्य ग्रहः। उपलक्षणात् जृम्भा-अक्षिविमर्दन-शयनमोक्षण-भुजाक्षेप-अंगुलित्रोटनादिरनभावो द्रष्टव्यः । पर्यन्ते चकारः सर्वव्यभिचारिसमुच्चयार्थः इति ।
अथैषां रसादीनां मध्ये केषांचित् परस्परं कार्यकारणतांमाह[सूत्र २१६] -केषाञ्चित् तु रसादीनामन्योन्यं हेतुकार्यता ।।
[४४] १४६ ॥ आदिशब्दाद् व्यभिचारिणाम् । यथा वीरादद्भुतः । महापुरुषोत्साहो हि जगद्विस्मयं फलं साक्षादनुसन्धत्ते। तथा द्रौपदीस्वयम्वरादौ वीराच्छृङ्गारोऽपि। रौद्राच वध-बन्धादिफलानन्तरं करुण-भयानको। तथा सर्वरसेभ्योऽनन्तरं सर्वे सजातीया रसा भवन्ति । यथा शृङ्गारिणं दृष्ट वा शृङ्गारः, हसन्तं दृष्ट्वा हास्यः । इत्येवं सर्वरसेषु हेतु-फलभावो वाच्यः। सर्वरसानां चाभासा अनौचित्यप्रवृत्तत्वात् हास्यरसस्य कार
(३३) अब विबोध [का लक्षण करते हैं
[सूत्र २१५]-शब्द आदिके कारण होने वाला निद्राभङ्ग विबोध' कहलाता है और उसमें अंगड़ाई आदि [मनभाव होते हैं। .
प्रादि शम्बसे छूने, स्वप्नकी समाप्ति, भोजनका परिपाक हो चुकने प्रावि [विभागों] कारणोंका ग्रहण होता है। [अंगभंगवान् पदके उपलक्षण रूप होनेसे जम्भाई, माल मलना फिर सो जाने, खाट परसे उठ बैठने. हाथ फैलाने, अंगुलियां चटकाने आदि अनुभावोंको समझना चाहिए। [विबोधके वर्णनके साथ व्यभिचारिभावोंका वर्णन समाप्त होता है। इसलिए 'विबोधश्च' इस पदमें पाया हुमा] अंतमें प्रयुक्त चकार व्यभिचारित्वके समुख्यकेलिए है। [अर्थात् यहां तक सारे व्यभिचारिभावोंका वर्णन समाप्त हो गया इस बातका सूचक है] ।
___अब इन रसाविमेंसे किन्हींके परस्पर एक-दूसरेके प्रति कार्य-कारणभावका कथन करते हैं
[सूत्र,२१६]--रसादिकोंमेंसे किन्हींका परस्पर एक-दूसरेके प्रति कार्य-कारणभाव होता है । [४४] १४६॥
आदि शब्दसे व्यभिचारियोंका ग्रहण होता है। [रसोंके परस्पर कार्य-कारणभावका उदाहरण देते हैं] जैसे वीररससे अद्भुत रस [उत्पन्न होता है] । महापुरुषोंका उत्साह [जो वीररसका स्थायिभाव होता है] साक्षात् रूपसे जगत्के विस्मय रूप फलको [अर्थात् अद्भुत रसके स्थायिभावको] उत्पन्न करता है। और द्रौपदी स्वयम्वरादिमें [अर्जुनके पराक्रमको देखकर द्रौपदीके मनमें] वीररससे शृङ्गाररसकी भी उत्पत्ति होती है। और रौद्ररससे उसके वष या अन्ष रूप फलोंको देखकर करुण तथा भयानक रसोंकी उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार सब रसोंसे उनके गव होनेवाले सजातीय रस उत्पन्न होते हैं। जैसे शृङ्गारयुक्तको देखकर [दूसरेमें] भृङ्गार, हंसते हुएको देखकर [दूसरेमें] हास्य [उत्पन्न होता है । इस प्रकार सारे रसोंमें कार्य-कारणभाव समझना चाहिए। [ अनौचित्यसे प्रवृत्त होनेवाले रस, रसाभास
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३४८ ]
नाट्यदपरणम्
[ का० १४८, सू० २१७
गम् । रावणस्य विषयप्रवृत्तत्वात् शृङ्गाराभासः सतां हास्यमुपजनयति । हास्याभा सादपि हास्यो भवति यथा
लोकोत्तराणि चरितानि न लोक एषः सम्मन्यते यदि किमङ्ग बदाम नाम ? यत् त्वत्र हासमुखरत्वममुष्य तेन, पार्श्वोपपीडमिह को न विजाहसीति ॥
व्यभिचारिणामपि उत्पाद्योत्पादकभावो यथा व्याधेर्निर्वेदः, चिन्ताविवोधाभ्यां स्मृतिः, श्रमादालस्यमित्यादि । व्यभिचार्याभासादप्यनौचित्यप्रवृत्तत्वाद् हास्यो भवतीति ।। [४४] १४६ ॥
अथ रसानां स्थायिनां व्यभिचारिणामनुभावानां च कार्य भूताननुभावान प्रति पादयति
[ सूत्र २१७ ] - वेपथुः-स्तम्भ - रोमाञ्चाः स्वरभेदोऽभ -मूर्च्छनम् । ★ स्वेदो वैवर्ण्यमित्याद्या श्रनुभावा रसाविजा: ॥ [ ४५] १४७ ] आद्यशब्दात् प्रसाद उच्छ्वास- निःश्वास- क्रन्दन- परिदेवित उल्लुकसन भूमिविलेखन-विवर्तन-उद्वर्तन-नखनिस्तोदन भ्रुकुटि-कटाक्ष- तिर्यगधोमुखनिरीक्षरण - प्रशंसनहसन-दान-चाटुकार आस्यरागादयः । क्वचित् स्थायिनो व्यभिचारिणश्च । यथायोगं रसानां स्थायिनां व्यभिचारिणानुभावानां च सहस्रसंख्या अनुभावा इति ।। [४५] १४७ ॥ कहलाते हैं] अनौचित्यसे प्रवृत्त होनेके काररण सारे रसोंके रसाभास हास्यरसके कारण होते हैं। जैसे राजरणका [ सीताके अननुरक्त होने के कारण ] प्रविषय में प्रवृत्त शृङ्गाराभास, सहृदयोंके भीतर हास्य उत्पन्न करता है । [ अन्य रसाभासोंसे हो नहीं अपितु ] हास्याभास से भी हास्यरस उत्पन्न होता है । जैसे
[रावाके] लोकोत्तर चरित्रोंको यदि यह लोक उचित नहीं समझता है तो हम क्या कह सकते हैं । किन्तु [अनुचित कर्म करके भी बेशर्मोकी तरह ] जो वह अट्टहास करता हुआ हँसता है उसको देखकर ऐसा कौन है जो कोख पकड़कर नहीं हँसता है । [हँसते-हँसते किस की कोखोंमें दर्द नहीं होने लगता है ] ।
व्यभिचारिभावोंमें भी परस्पर उत्पाद्य उत्पादकभाव होता है । जैसे व्याधिले निवेद उत्पन्न होता है। चिन्ता तथा विबोधसे स्मृति, और श्रमसे प्रालस्य उत्पन्न होता है । अनौचित्य से प्रवृत्त होनेवाले व्यभिचारिभावसेभी हास्यरसकी उत्पत्ति होती है ॥ [ ४४] १४६॥ e रसोंके, स्थायिभावों और व्यभिचारिभावोंके | तीनोंके | कार्यभूत प्रतिपादन करते हैं
-
/ सूत्र २१७ ] -कम्प, स्तम्भ, रोमाञ्च, स्वरभेव, प्रांत मूर्खा, स्वेट इत्यादि रसाविसे उत्पन्न होनेवाले अनुभाव होते हैं । । ४५] १४७।
प्रा शब्द से प्रसन्नता, उच्छ्वास, निश्वास, रोना-बिल्लाना, उल्लुसासन ] नोचना, भूमि लोदना लोटना-पोटना, नाखून चबाना, अकुटि कटाक्ष, इधर-उधर कर er, air करना, हँसना, दान, चापलूसी प्रोर मुखका लाल पड़ जाना चादि [ भा भी होते हैं। कहीं स्थाविभाव तथा व्यभिचारिभाव भी [भाष हो सकते हैं]
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का० १४८, सू० २१८-२० ] तृतीयो विवेकः
अथ ते प्रत्येकशो लक्ष्यन्ते । तत्र ( २ ) वेपथुः - [ सूत्र २१८ ] - भयादेर्वेपथुर्गात्रस्पन्दो वागादिविक्रियः ।
आदिशब्दाद रोग-हर्ष-शीत- रोष-प्रियस्पर्शादेविभावस्य ग्रहः । स्पन्दः किनिचचलनम् । वागादेरादिशब्दाद गति चेष्टादेविक्रिया यस्मात् । इत्यनुभावकथनम् ॥ (२) अथ स्तम्भ: --
[ सूत्र २१६ ] -- यत्नेऽप्यङ्गाक्रिया स्तम्भो हर्षादिः, हा ! विषादवात् ॥ ॥ [ ४६] १४८ ॥ हस्त पादादीनामन्तः परिस्पन्देऽप्य क्रिया चलनाभावः स्तम्भः । श्रादिशब्दाद् विस्मय-भय-मद-रोगादेर्विभावस्य ग्रह इति || [ ४६] १४८ ॥ (३) श्रथ रोमाञ्चः
[ सूत्र २२० ] - रोमाञ्चः प्रियदृष्टचादेः रोगहर्षोऽङ्गमार्जनैः ।
दिशब्दाद व्याधि-शीत-क्रोध- स्पर्शादेविभावस्य ग्रहः । बहुवचनादङ्गमेदुरप्रमुख नेत्रविकास-दन्तवीणावादनादिभिरभिनेतव्यः ॥
रसोंके स्थायिभाव तथा व्यभिचारिभावोंके और अनुभावोंके भी यथायोग्य सहस्रों प्रनुभाव हो सकते हैं ।। [४५] १४७ ॥
(१) श्रव उन अनुभावों में प्रत्येकका अलग-अलग लक्षण करते हैं । उनमें सबसे पहले वेपथुः [का लक्षरण करते हैं ] -
[ सूत्र २१८] - 1 - भय श्रादिके कारण शरीरका किडिचत् विचलित हो जाना 'वेपथु' कहलाता है और उससे वारणी श्रादिमें विकार या जाता है ।
[ ३४६
आदि शब्दसे रोग, हर्ष, शीत, क्रोध, प्रियके स्पर्श श्रादि विभावोंका ग्रहण होता है । स्पन्द अर्थात् तनिकसा हिल जाना। 'वागादे:' इसमें आदि शब्द से गति और चेष्टा श्रादिमें जिससे विकार श्रा जाता है । यह [ वेपथुः ] ग्रनुभावका कथन किया है ।
(२) स्तम्भ [ का लक्षरण करते हैं ]
[सूत्र २१९] - हर्ष प्रादिके कारण यत्न करनेपर भी ब्रोंकी क्रियाका न होना 'रम्भ' कहलाता है । और उसमें 'हाय' आदि शब्दोंसे विषाद प्रकट होता है। [४६ ] १४८० अङ्गका श्रर्थाद हाथ-पैर श्रादिके भीतर गति होनेपर भी बाहर उनका न चल सकना स्तम्भ कहलाता है । प्रादि शब्दसे विस्मय, भय, मद और रोगावि [ श्रन्य कारणों] विभाषों का ग्रहण होता है । [४६ ] १४८ ॥
(३) श्रत्र रोमाञ्च [का लक्षण करते हैं ]
[सूत्र २२०] - प्रियके देखने श्रादिसे उत्पन्न होनेवाला रोमहर्ष 'रोमा' कहलाता है । प्रङ्ग सहलाने के द्वारा उसका अभिनय किया जाता है।
श्रादि शब्द से व्याधि, शीत, क्रोध, स्पर्श आदि विभावोंका ग्रहण होता है। बहुवचन से ङ्गके फूल जाने, प्रांयोंके खिल जाने और दन्तवीरगाके बजाने आदि अनुभावद्वारा उसका अभिनय करना चाहिए ।
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३५० ]
(४) अथ स्वरभेद:[ सूत्र २२१ ] स्वरमेदः स्वरान्यत्वं मदादेर्हर्ष - हास्यकृत् ॥
नाट्यदर्प [ का० १५० सू० २२१-२३
अन्यत्वमुपचयापचयाभ्यां भेदः । श्रादिशब्दाद् भय-जरा-हर्ष-क्रोध-रागरौक्ष्यादेर्विभावस्य ग्रहः । उपलक्षणाद् ब्रीडा-निर्वेदादयोऽप्यनुभावा द्रष्टव्या इति । ॥ [ ४७ ] १४६ ॥
॥ [ ४७ ] १४६ ॥
(५) अथाश्रु —
[ सूत्र २२२ ] - अश्रु नेत्राम्बु शोकाद्यैर्नासास्पन्दाक्षिरूक्षणैः ।
आद्यशब्दादनिमेषप्रेक्षरण - आनन्द श्रमर्ष धूम -अञ्जन- जृम्भरण-भय- पीडा- हास्यादेर्विभावस्य ग्रहः । नासायाः स्पन्दः श्लेष्मस्रवणम । बहुवचनान्निष्ठीवन-गद्गदस्वरादेरनुभावस्य ग्रह इति ॥
(६) अथ मूर्च्छनम् -
[ सूत्र २२३] मूर्च्छनं घात कोपाद्यैः खग्लानिभूमिपातकृत् ॥
।। [४८] १५० ॥ आद्यशब्दाद् मदादेर्विभावस्य ग्रहः । खग्ला निरिन्द्रियाणामभिभवः । उपलक्षणात् वेद-श्वासादयोऽप्यनुभावा इति || [ ४८] १५०॥
(४) अब स्वरभेद [ रूप अनुभावका लक्षरण करते हैं]
[ सूत्र २२१] - मद श्रादिके कारण होनेनाली शब्दकी भिन्नता 'स्वरभेद' कहलाता है । और वह हर्ष तथा हास्यको उत्पन्न करनेवाला होता है । [ ४७ ] १४६ ।
[ स्वरकी] अन्यता श्रर्थात् उसके तीव्र या मन्द हो जानेसे होनेवाला भेद । श्रादि शब्दसे भय, बुढ़ापा, हर्ष, क्रोध, राग और रूक्षता आदि विभावोंका ग्रहण होता है । उपलक्षरण रूप होने से व्रीडा तथा निर्वेद आदि अनुभाव भी समझ लेने चाहिए ॥ [ ४७ ] १४६ ॥
(५) अब प्रभु [ रूप अनुभावका लक्षरण करते हैं ] -
[ सूत्र २२२ ] - शोक श्रादिके कारण उत्पन्न होनेवाले नयनजलका नाम 'प्रभु' है । नथुने फड़कने और आँखोंके पोंछनेकेद्वारा [ उसका अभिनय करना चाहिए] ।
प्राद्य शब्दसे टकटकी लगाकर देखना, श्रानन्द, क्रोध, धुआं, श्रञ्जन, जम्भाई, भय, पोड़ा, हास्य प्रावि विभावोंका ग्रहरण होता है । नाकका स्पन्दन अर्थात् उससे श्लेष्माका प्रवाहित होना । बहुवचनसे थूकने और गद्गद स्वर प्रादि अनुभावोंका भी ग्रहण होता है । (६) अब मूर्च्छा [ रूप अनुभावका लक्षरण करते हैं ] -
[ सूत्र २२३ ] - प्रहार या कोप श्रादिके कारण उत्पन्न इन्द्रियोंकी समर्थता 'मूर्च्छा' कहलाती है । और वह [मूर्च्छित व्यक्तिको ] भूमिपर गिरा देने वाली जाती है । १५०॥
आद्य शब्द से मद श्रादि कारणोंका भी ग्रहण होता है। ग्लानि प्रर्थात् इन्द्रियोंका असमर्थ हो जाना । उपलक्षरण होनेके कारण स्वेद और श्वास आदि अनुभावोंका भी ग्रहण होता है ।। [४८ ] १५० ॥
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का० १५१, सू० २२४-२६ ] तृतीयो विवेकः
[ ३५१ (७) अथ स्वेदः[सूत्र २२४]-स्वेदो रोमजलस्रावः श्रमादेयंजनग्रहैः ।
आदिशब्दाद् भय-हर्ष-लज्जारोग-ताप-ग्रह-दुःख-धर्म-व्यायामादेविभावस्य ग्रहः । बहुवचनाद् वाताभिलाष-स्वेदापनयनादिभिरप्यभिनेतव्य इति ।
(८) अथ वैवर्ण्यम्[सूत्र २२५]-छायाविकारो वैवर्ण्य क्षेपादेविनिरीक्षणः ॥
॥ [४६] १५२॥ छाया शोभा तस्या विकारो विरूपत्वम् । पस्तिरस्कारः। आदिशब्दात् सन्ताप-भय-क्रोध-व्याधि-शीत-श्रम-तीव्रांशुकरादेर्विभावस्य ग्रहः। बहुवचनात् नखनिस्तोदन-ब्रीडादिभिरप्यभिनेतव्यमिति ।। [४६] १५१॥
अथ रसभावानन्तरोद्दिष्टस्याभिनयस्यावसरः । स च वाचिक-आङ्गिक-सात्त्विक आहार्यभेदैश्चतुर्की । तत्र प्रथम वाचिकं लक्षयति
[सूत्र २२६] -वाचिकोऽभिनयो वाचां यथाभावमनुक्रिया। वागनुकार्या प्रयोजन हेतुरस्येति 'प्रयोजनम्' हैम० ६-४-११७] इति 'इकणि' (७) अब स्वेद [का लक्षण करते हैं]
[सूत्र २२४] -श्रम माविके कारण उत्पन्न होनेवाला रोमजलका स्राव 'स्वेद' कहलाता है। और पंखा हाथ में लेने आदिके द्वारा उसका अभिनय किया जाता है।
प्रादि शब्दसे भय, हर्ष, लज्जा, रोग, सन्ताप, ग्रह, दुःख, व्यायाम प्रादि कारणों [विभावों का ग्रहण होता है। बहुवचनसे हवाको इच्छा, पसीना पोंछना प्रादि अनुभावोंके द्वारा भी उसका अभिनय किया जाता है।
(८) प्रब विवर्णता रूिप अनुभावका लक्षरण करते हैं]--
[सूत्र २२५]-अपमान प्रादिके कारण उत्पन्न होनेवाला मुखको कान्तिका विकार 'वैवर्य' कहलाता है । इधर-उधर देखने प्रादिके द्वारा उसका अभिनय किया जाता है।
.... ।[४६] १५१ । छाया अर्थात् [मुखको] शोभा। उसका विकार अर्थात् बिगड़ जाना। क्षेप अर्थात् तिरस्कार । प्रादि शब्दसे सम्ताप, भय, क्रोध, रोग, शीत, थकावट और धूप आदि विभावों का ग्रहण होता है । बहुवचनसे नाखून चबाने और लज्जा प्रादिके द्वारा भी इसका अभिनय किया जाता है यह सूचित किया है ॥ [४६] १५१ ॥
अब रस और भावोंके मनन्तर कहे हुए अभिनय [के निरूपण] का अवसर प्राता है । वह [अभिनय] वाचिक, प्राङ्गिक, सात्त्विक और प्राहार्य [अर्थात् वेष-भूषादि रूप] चार प्रकारको होता है। उनमेंसे सबसे पहले वाचिक [अभिनय] का लक्षण करते हैं
[सूत्र २२६] -[ वक्ताके ] भावके अनुसार [ उसको ] वाणीका अनुकरण वाचिक [अभिनय] कहलाता है।
अनुकरण को जाने वाली वाणी [का अनुकरण] जिसका प्रयोजन हेतु है। वह हेम 'चाहत' हेम व्याकरणके 'प्रयोजनम्' इस सूत्रसे 'इकण' प्रत्यय होकर 'वाचिक' पर बमता
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३५२ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १५२, सु० २२६ वाचिकः । सामाजिकानामाभिमुख्येन साक्षात्कारेण नीयते प्राप्यते अर्थोऽनेनेति अभिनयः । वाचां संस्कृत-प्राकृतादीनां सार्थिकानामर्थिकानां वा । यथाभावं क्रोध-अहङ्कारजुगुप्सा-उत्साह-विस्मय-हास-रति-भय-शोक - सुख-दुःख-मोह-लोभ-माया-असूया-शङ्काऽऽदीनां, वेपथु-स्तम्भ-रोमाञ्च-मूर्छा-वैवर्ण्य-प्रसादादीनां वा भावानामनतिक्रमेण । तथा च कवयः 'सक्रोधं' 'सावेगं' इत्यादीन्यनुकार्यभावप्रकाशकानि क्रियाविशेषणान्युपनिबध्नन्ति । तेनैकेनोक्तमपरस्य यथाभावं अनुवदतोऽनुवाद एव न वाचिकोऽभिनय इति । अनुक्रिया च वागादीनां तदध्यवसायवशात् न पुनर्वस्तुतः । रामादेरनुकार्यस्य नटेन प्रेक्षकैर्वा स्वयमदृष्टत्वात् । अनुकर्ता ह्यनुकार्यमदृष्ट्वा नानुकतु मलम । प्रेक्षकोऽपि चादृष्टानुकार्यो नानुकतुरनुकर्तृत्वमनुमन्यते । तदयं नटो रामादेश्चरितं कविनिबद्धमधीत्य अत्यन्ताभ्यासवशतः स्वयं दृष्टमनुमन्यमानो अनुकरोमि इत्यध्यवस्यति । परमार्थस्तु लोकव्यवहारमेवायमनुवर्तते । प्रहृष्टोऽपि हि रामेण रुदिते रोदिति, न तु हसति । विषण्णोऽपि च हसिते हसति, न तु रोदितीत्यादि।
प्रेक्षकोऽपि रामादिशब्दसंकेतश्रवणादतिहृद्यसंगीतकाहितवैवश्याच्च स्वरूपहै। [प्रागे अभिनय शब्दका निर्वचन करते हैं ] । प्राभिमुख्यसे अर्थात् साक्षात्कारात्मक रूप से [अभिनेतव्य अर्थ जिसके द्वारा सामाजिकोंके पास पहुँचाया जाता है वह [अभिनीयते इस निर्वचनके अनुसार अभिनय कहलाता है । वचनोंका अर्थात् संस्कृत अथवा प्राकृत भाषामय वचनोंका प्रथवा सार्थक या अनर्थक वचनोंका। [वक्ताके] मनके अनुसार 'यथाभावं' अर्थात् क्रोध महङ्कार, जुगुप्सा, उत्साह, विस्मय, हास्य, रति, भय, शोक, सुख-दुःख, मोह-लोभ माया, असूया, शका प्रादि [ भावों ] का, तथा कम्प, स्तम्भ, रोमाञ्च, मूळ, वैवर्ण्य तथा प्रसन्नता प्रादि रूप भावोंका अतिक्रमण किए बिना [ अभिनय करना 'यथाभावमनुक्रिया' कहलाती है । इसीलिए कविगण 'सावेग' सक्रोध' इत्यादि अनुकार्य भावके प्रकाशक पदोंका प्रयोग करते हैं। इसलिए एकके द्वारा कहे गएका, दूसरेके द्वारा यथोचित भावका अनुकरण किए बिना जो [अनुवाद करना] कथन करना है वह केवल 'अनुवाद' कहलाता है उसको वानिक अभिनय नहीं कहा जाता है। क्योंकि वाचिक अभिनयमें यथाभावानुक्रिया भावोंका अनुकरण प्रावश्यक है । और वारणी प्रादिका अनुकरण [यह रामका कथन है] इस प्रकारके निश्चयके कारण होता है वास्तविक रूपमें नहीं। क्योंकि नटने अथवा प्रेक्षकोंने किसीने भी अनुकार्य रामादिको स्वयं नहीं देखा है । अनुकरण करने वाला [नट] अनु कार्य [रामादि] को देखे बिना उसका अनुकरण करने में समर्थ नहीं हो सकता है । और प्रेक्षक भी अनुकार्यको देखे बिना अनुकरण करने वालेको अनुकर्ता नहीं मान सकता है। इसलिए यह नट कविके द्वारा निबद्ध राम आदिके चरित्रको पढ़कर अत्यन्त अभ्यासके द्वारा स्वयं देखा जैसा मान कर 'मैं [इस समय उसका अनुकरण कर रहा हूँ' ऐसा निश्चय करता है [इसी अध्यवसायके कारण उसके व्यापारको अनुकरण कहा जाता है] वास्तवमें तो वह [रामके व्यापार का नहीं अपितु] लोक-व्यवहारका ही अनुकरण करता है। क्योंकि स्वयं प्रसन्न होनेपर भी रामके रोनेपर रोता है हँसता नहीं है। और स्वयं दुःखी होनेपर भी [राम प्रादिके] हंसने पर हंसता है, रोता नहीं है। इत्यादि
और प्रेक्षक भी [ नटके विषय में ] राम प्रावि शब्द-संकेतको समझने तथा अत्यन्त
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का० १५२, सू० २२४ ] [ ३५३ देश-कालभेदेनातथाभूतेष्वप्यभिनेयचतुष्टयाच्छादनात् तथाभूतेष्विव नटेषु रामादीनध्यवस्यति । अत एव तासु तासु सुख-दुःखरूपासु रामाद्यवस्थासु तन्मयीभवति । अपरे तेषु तु नामसंकेत-संगीतकाभिनयेषु रामाद्यध्यवसायहेतुषु उपदेशपरमेतदिति मन्यमाना हेयोपादेय-हानोपादानैकतानचेतसो जायन्ते ।
अथवा इह तावत् इत्थमाकृतिः, इत्थं गतिः, इत्थं जल्पितं, इत्थं क्रोधादिलालितं इत्येवमशेषमपि रामादिललितं ऋषीणां कालदर्शिना ज्ञानेन निश्चितं कवयो नाटके निबधन्ति । तत्र चार्थे मुनिज्ञानविश्वासान्नटस्य साक्षाद् दर्शनमेव ।
अपि च कदाचिन्मसदृशो वस्तुस्वरूपे भ्राम्यन्ति न पुनर्ज्ञानदृशः । तत्र मुनिज्ञानदर्शितं अर्थ दर्शनाद्यधिकतर मवगतं वस्तुत एवानुकुर्वाणो दुर्विदग्धबुद्धिभिः कथकार पाक्रियते वराको नटः ? प्रेक्षकारणां तु सत्यसति च स्वदर्शने नटेषु रामाद्यव्यवसाय एव । अन्यथा तु कृत्रिममेतदिति जानन्तो न रामादिसुख-दुःखेषु तन्मयीभवेयुः । उन्मिषन्ति च भ्रान्तैरपि शृङ्गारादयः । कामिनी- वैरि चौरादीनधिस्वप्नमभिपश्यतः पुंसः कथमपरथा रसप्ररोहरोहिणस्तत्र स्तम्भादयोऽनुभावाः प्रादुर्भवेयुरिति ।
तृतीयो विवेकः
मनोहर संगीतको सुनने आदिके काररण विवश होकर, स्वरूप देश और कालका भेद होनेसे उस प्रकारके [अर्थात् रामादि रूप ] न होनेपर भी [वाचिक, आंगिक, सात्विक तथा श्राहार्य रूप] चारों प्रकारके अभिनय के द्वारा [नटके] स्वरूपका श्रावररण कर लिए जानेसे उस प्रकार के [अर्थात् रामादि रूप] बने हुए, नटोंमें रामका निश्चय कर लेते हैं । इसीलिए उस प्रकारकी सुख-दुःखमयी राम प्राविको अवस्थानों में तन्मय- सा हो जाता है।
दूसरे लोग [ यह कहते हैं कि नटमें] राम श्राविका निश्चय कराने वाले नामके संकेत संगीत और अभिनय प्रादि हेतुओंके उपस्थित होनेपर यह [ प्रभिनय प्रादि सब सामग्री मनोरञ्जनके साथ-साथ कर्तव्य के] उपवेश देनेके लिए है ऐसा मानकर हेय तथा उपावेयके परित्याग अथवा ग्रहण में ही तत्पर हो जाते हैं ।
श्रथवा [ तीसरा मत यह है कि राम आदि ] अनुकार्य पुरुषोंको इस प्रकारकी श्राकृति, इस प्रकारको गति, इस प्रकार की बात बीत, प्रौर इस प्रकारका क्रोधादिको चारता थी । इस प्रकार रामादिके सम्पूर्ण चरित्रको ऋषियोंके त्रिकालदर्शी ज्ञानके द्वारा निश्चय करके ही कविगरण नाटकमें उसकी रचना करते हैं । और उसके विषयमें मुनिजनोंके विश्वासके कारण नटका [राम रूपमें दर्शन] साक्षात् [ रामका ही ] दर्शन है ।
और दूसरी बात यह भी है कि इन चर्म चक्षुनोंसे देखने वाले लोग भ्रांत हो सकते हैं किन्तु ज्ञान चक्षुग्रोंसे देखने वाले [मुनिगरण भ्रांत] नहीं [हो सकते हैं] । इसलिए मुनियों [के सदृश कवियों] के ज्ञान द्वारा प्रदर्शित [प्रथं] वास्तविक देखे हुए से भी अधिक अच्छी तरहसे अवगत अर्थको वास्तविक रूपमें अनुकररंग करने वाले बिचारे नटको अल्पबुद्धि [यह अनुकररण नहीं है इस प्रकार ] निराकरण कैसे कर सकते हैं ? प्रेक्षकों ने [श्रनुकार्यको ] देखा हो या न देखा हो किन्तु उनको [ रामादिका श्रभिनय करते समय ] नटोंमें राम आदि [के areer ] का निश्चय होता ही है । प्रन्यथा यह बनावटी [राम] है इस प्रकारका ज्ञान होनेपर रामादिके सुख-दु:खोंमें तन्मयताको प्राप्त नहीं कर सकते हैं । [ इस प्रकार नटमें रामावि बुद्धिको चाहे भ्रम ही क्यों न माना जाय किन्तु उससे सामाजिक में शृङ्गारादिकी प्रतीति
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३५४ ]
नाट्यदर्पणम [ का० १५२, सू० २२७ अथानिक:[सूत्र २२७] -कर्मणोऽङ्ग रुपाङ्गश्च साक्षाद् भावनमाङ्गिकः ॥
॥[५०] १५२॥ कर्मणोऽनुकार्य चेष्टाया अङ्ग : शिरो-हस्त-वक्षः-कटी-पार्श्व-पादादिभिः, उपाङ्ग श्च नेत्र-भू-पक्ष्म-अधर-कपोल-चिबुकादिभिः। साक्षाद् भावनं परोक्षस्यापि सामाजिकेभ्य: साक्षादिव करणमाङ्गिकः। अङ्गानि प्रयोजन हेतवो यस्येत्याङ्गिकः । 'यथाभावं' इति, अत्रापि स्मर्यते । तेन रामादेरनुकार्यस्य ये क्रोध-उत्साह-आवेग-वैमनस्यहर्ष-वैवर्ण्य-श्रास्यराग-भ्र कुट्यादयश्चेष्टाविमिश्रा भावाः, तैरनस्यूतस्य कर्मणः साक्षादिव भावनं न तु केवलस्येति ।
तत्रोत्तमाङ्गस्याकम्पित-कम्पितादयस्त्रयोदश। होती ही है। क्योंकि] भ्रांतिसे भी भृङ्गारादिकी उत्पत्ति हो सकती है। अन्यथा स्वप्नमें कामिनी, वैरी चोर प्रादिको देखने वालोंके भीतर रसके चरम सीमापर पहुंच जानेपर [रसोंके अनुकूल] स्तम्भादि अनुभाव कैसे होते हैं ?
प्रब प्रांगिक [अभिनयका वर्णन करते हैं]--
[सूत्र २२७] -अंगों और उपाङ्गोंके द्वारा कार्योका साक्षात्कार कराना आंगिक [अभिनय कहलाता है । [५०] १५२ ।
कार्योका अर्थात् अनुकार्य [रामादि] की चेष्टाका । अंगोंके द्वारा अर्थात् सिर हाथ याती कमर पाव और पैर आदि रूप [मुख्य अंगों] के द्वारा। और उपांगों प्रर्थात् नेत्र भौंह, पलक, अधर, कपोल, ठोड़ी प्रादि [गौण] उपांगोके द्वारा। साक्षात् भावन प्रर्थात् परोक्ष अर्थको भी सामाजिकोंके लिए साक्षात्-सा बना देना। प्रांगिक [अभिनय कार्य] है। अङ्ग जिसका प्रयोजन अर्थात् हेतु है वह प्राङ्गिक है [यह आङ्गिक सब्दका निवर्चन हुमा] । इस कारिकाके पूर्वाद्ध में पठित 'यथाभावनुक्रिया मेंसे] 'यथाभावं' यह भाग यहाँ [प्राङ्गिकके लक्षणमें] भी संगत होता है। इसलिए रामादि अनुकार्यके जो कोष, उत्साह, आवेग, वैमनस्य, हर्ष, वैवर्ण्य, मुखराग और भ्र कुटि प्रादिसे युक्त चेष्टाविमिश्रित भाव हैं उनसे समन्वित कार्योका सा साक्षात्करण होना आवश्यक है], केवल [भावानुकरण रहित कर्म] का नहीं।
इस प्रकार प्राङ्गिक अभिनयका लक्षण करनेके बाद अब ग्रंथकार भरत मुनिके नाट्य शास्त्रके प्राधारपर प्राङ्गिक अभिनयोंका संक्षिप्त विवेचन करते हैं।
भरतमुनिके नाट्यशास्त्रके प्राठवें अध्यायमें इन प्राङ्गिक अभिनयोंका विशेष रूपर वर्णन किया गया है उसीका संकेत करते हुए ग्रंथकार प्रागे प्रतिपादन करते हैं।
ग्रन्थकारने यहाँ अङ्गों और उपाङ्गोंके द्वारा किए जाने वाले अभिनयको प्राङ्गिक अभिनय कहा है । भरतमुनिने इन अङ्गों तथा उपाङ्गों का विभाजन निम्न प्रकार किया है
"तत्र शिरो हस्तोरः पावकटीपादतः षडंगानि ।
नेत्र-भ्र-नासाधर - कपोल - चिबुकन्युपांगानि ॥ ८-१४ ॥ उनमेंसे सिरके कम्पित पाकम्पित प्रादि तेरह प्रकार के अभिनय होते हैं। इन छः मङ्गोंमेंसे सिरके तेरह प्रकारके अभिनयोंका संकेत यहाँ ग्रन्थकारने किया है।
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का० १५२, सू० २२७ ]
तृतीयो विवेक:
दृष्टेः कान्ताभयानकादयः षट्त्रिंशत् ।
deareकयोः भ्रमण-वलनादयो बहवः क्रियाभेदाः समसाच्यादयो दर्शन
प्रकाराश्च ।
अक्षिपुयोरुन्मेष-निमेषादयो बहवः । . भ्रुवोरुत्क्षेप - पतनादयः सप्त । नासिकाया नता मन्दादयः षट् । गण्डयोः ताम
उनका उल्लेख नाट्यशास्त्र में इस प्रकार किया गया है-
मुखजेऽभिनये विप्रा नानाभावरसाश्रये ।
शिरसः प्रथमं कर्म गदतो मे निबोधत ॥ ८- १७ ॥ कम्पितं कम्पितं च धुतं विधुतमेव च । परवाहितमा अवधूतं तथांचितम् ॥ १८ ॥ निचितं परावृत्तमुत्क्षिप्तं चाप्यधोगतम् । ललितं चेति विज्ञेयं त्रयोदशविधं शिरः ॥ १६ ॥
दृष्टिके कान्ता, भयानका श्रादि छत्तीस प्रकार होते हैं ।
भरतमुनिने दृष्टि के इन छत्तीस प्रकारोंके नाम निम्न प्रकार गिनाए हैंकान्ता भयानका हास्या करणा चाद्भुता तथा । रौद्रा वीरा च बीभत्सा विज्ञेया रसदृष्टयः ॥ ४१ ॥ स्निग्धा हृष्टा च दीना च क्रुद्धा दीप्ता भयान्विता । जुगुप्सिता विस्मिता च स्थायिभावेषु दृष्टयः ॥ शून्या च मलिना चैव श्रांता लज्जान्विता तथा । कुचिता चाभितप्ता च जिह्वा सललिता तथा ॥ वितर्कितार्धमुकुला विश्रांता विलुप्ता तथा ॥ केकरा विकोशा च त्रस्ता च मदिरा तथा । त्रिंशद् दृष्ट्या तास्तासु नाट्यं प्रतिष्ठितम् ॥ ४५ ॥
४२ ॥
[ ३५५
४३ ॥
४४ ॥
नेत्र और तारकोंके भ्रमरण, वलन आदि बहुत से क्रियाभेद होते हैं । सम और वक्र [साची] आदि दर्शनके प्रकार हैं ।
इस सम आदि दर्शन प्रकारोंका वर्णन करते हुए भरतमुनिने लिखा हैप्रवक्ष्यामि प्रकारान् दर्शनस्य तु ।
था
समं साच्यनुवृत्ते च ह्यालोकित - विलोकिते ।
प्रलोकितोल्लोकिते चाप्यवलोकितमेव च ।। १०६ ।। ८ ।।
[अक्षि ] नेत्रपुटोंके उन्मेष, निमेष प्रादि बहुतसे भेद होते हैं ।
भरतमुनिने इन नेत्रपुटों के अभिनय भेदों का निरूपण निम्न प्रकार किया हैतारागतोऽस्यानुगतं पुटकर्म निबोधत ।
उन्मेषश्च निमेषश्च प्रसृतं कुञ्चितं समं । विवर्तितं सस्फुरितं पिहितं सविताडितम् ॥
भौंहों को उठाना - गिराना प्रावि सात [प्रभिनय प्रकार होते हैं] । नासिकाके नता, मन्दा आदि छः । ठोड़ीके कुट्टन, खण्डन भादि बहुतसे [ अभिनय प्रकार होते हैं] । गालोंके
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३५६ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० १५२, सु० २२७ फुल्लादयः षट् | अधरस्य विवर्तन कम्पादयः षट् । चिबुकस्य कुट्टन - खण्डनादयो बहुषः । ग्रीवायाः समा नतादयो नव । हस्तयोः पताक-विपताकादयश्चतुःषष्टिः ।
वक्षस भुग्न-निर्भुग्नादयः पच । पार्श्वयोर्नत-समुन्नतादयः पञ्च । उदरस्य शाम खल्ल - पूर्णलक्षणास्त्रयः । कटधारिन्नानिवृत्तादयः पञ्च । ऊर्वोः कम्पन - वलनादयः पच । जङ्घयोरावर्तित - नतादयः पच । पादयोरुद्घटित समादयः षट् । तथैकपादप्रचाररूपाः समपादा-स्थितावर्तिकादयो भौम्यः षोडश । अतिक्रांत अपक्रांतादयः षोडश
काशिक्यश्च 'चार्यः । स्थिरहस्त-पर्यस्तुकादयो अङ्गहारा द्वात्रिंशत् । पिवक जाना, या फूल जाना प्रावि छः, प्रधर के फड़कना, काँपना आदि छः, ठोड़ीके कुछ, खण्डन प्रावि बहुतसे [अभिनय प्रकार होते हैं] । गर्दन के सभा, नता श्रादि नौ, हाथोंके पताका, त्रिपताकादि ६४ प्रकार होते हैं ।
छातीके प्राभुग्न, निर्भुग्न आदि पाँच, पावके नत, समुन्नत मादि पाँच, उदरके दुर्बल, खाली और भरा प्रावि तीन कमरके छिन्न अनिवृत्त आदि पांच, जांघों के कम्पन, लपेटना प्रावि पाँच, जंधानोंके आवर्तित नत श्रादि पाँच [अभिनय प्रकार होते हैं] । पैरोंके उद्घटित, सम आदि छः [प्रभिनय प्रकार होते हैं ]। और एक पैरसे चलने रूप समपाद, स्थित, प्रावर्तित प्रादि सोलह प्रकारको भूमिपर की जाने वाली 'चारी' तथा प्रतिक्रांत अपक्रान्त प्रादि सोलह प्रकारको आकाशीय 'चारी' एवं स्थिर हस्त पर्यस्तक आदि बत्तीस प्रकारके अङ्गहार [ ये सब प्राङ्गिक अभिनयके अन्तर्गत प्राते हैं] ।
इसमें ग्रन्थकारने जिन 'चारी', 'अङ्गहार' मादि प्राङ्गिक अभिनय भेदोंका उल्लेख किया है उनका वर्णन नाट्यशास्त्र के दशम अध्यायमें विस्तारपूर्वक दिया गया है। उसमें 'बारी' का लक्षण निम्न प्रकार किया है
एक पादप्रचारो यः सा चारीत्यभिसंज्ञिता ।
द्विपादक्रमणं यत्तु करणं नाम तद्भवेत् ॥ १२-३ ॥
अर्थात् एक परकेद्वारा चलनेका नाम 'चारी' श्रोर दोनों पैरोंसे परिक्रमरण करनेको 'करण' कहते हैं । नाटक में 'चारी' के महत्त्वका प्रदर्शन करते हुए भरतमुनिने लिखा हैचारीभिः प्रसृतं नृत्तं चारीभिश्चेष्टितं तथा । चारीभिः शस्त्रमोक्षश्च चार्यो युद्धे च कीर्तिताः ॥ ५ ॥ यदेतत् प्रस्तुतं नाट्यं तच्चारीष्वेव संस्थितम् । न हि चार्या बिना किंचिन्नाट्य ऽङ्ग सम्प्रवर्तते ॥ ६ ॥
नाट्यमें चारीके महत्त्वका प्रतिपादन करनेके बाद भरतमुनिने प्राग सोलह प्रकारको भौमी और सोलह प्रकारकी प्रकाशिकी चारियोंके नाम गिनाकर उनके लक्षण विस्तारपूर्वक दिखलाए हैं । इन सबको देखना चाहें तो नाट्यशास्त्र के दशम अध्याय में देखना चाहिए । यहाँ ग्रन्थकारने उनके नामोंका संकेतमात्र किया है। वे नाम निम्न प्रकार गिनाए गए हैंसमपादा स्थिताad शकटाख्या तथैव च । अध्यधिका चाषगतिर्विच्यवा च तथा परा ॥ ८ ॥ एडकाक्रीडिता बद्धा उरुवृत्ता तथांकिता । उत्स्पन्दिताथ जनिता स्यन्दिता चापस्यन्दिता ॥ ६ ॥
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का० १५२, सू० २२७ ]
तृतीयो विवेकः
[ ३५७ तलपुष्प पुरवर्तितादीनि करणान्यष्टोत्तर शतमित्यादिः सर्वोऽपि चेष्टाविषयो अङ्गोपाङ्गप्रभवत्वाद्-आङ्गिक एवाभिनयः ।
1
गतयोऽप्येवम् । तत्रोत्तम -मध्यम-नीचानां क्रमेण धीरा मध्यमा द्रुता च सामान्येन गतिः । विशेषस्तु बृद्ध-व्याधित-क्षधित-श्रांत-तपः क्लांत-तुमित- सावहित्यशोक-शृङ्गारान्वित- स्वच्छन्दादीनां मन्थरा । हर्ष- आवेग - कुतूहल-भय-प्रौत्सुक्यादिमतां त्वरिता । प्रच्छन्नकामुक - वैरि-चौर-रौद्रसत्वादिशङ्कितादीनां निःशब्दपदसनारा उन्मार्गा दिगवलोकनवती च । शीत-वर्षार्दितयोः कम्पमाना सम्पीडिताङ्गा । धर्मार्तस्य स्वेदापनयना छायावलोकनवती । प्रहारार्त-स्थूलयोरङ्गाकर्षण- श्वासवती स्थिरा च । यतिनां नेत्रचापल्य-पुरतो युगमात्रनिरीक्षणवती । उन्मत्त मत्तयोर्विघूर्णितनेत्रा स्खलिता समोत्सारितमतल्ली मतल्ली चेति षोडश ।
1
एता भौम्यः स्मृताश्चार्यः शृणुताकाशिकीः पुनः ॥ १० ॥
इन सोलह मौमी चारियोंके नाम गिनानेके बाद भरतमुनिने सोलह प्रकारकी ग्राकाशिकी चारियोंके नाम दिए हैं जो निम्न प्रकार हैं
श्रतिक्रांता पक्रांता पार्श्वक्रांता तथैव च ।
ऊर्ध्वजानुश्च सूची च तथा नृपुरपादिका ॥। ११ ॥ डोलापादा तथाक्षिप्ता श्रविद्धोवृत्तसंज्ञिते ।
विद्युद्भ्रांता ह्यलाता च भुजंगत्रासिता तथा ॥ १२ ॥ मृगप्लुता च दण्डा च भ्रमरी चेति षोडश । काशिक्यः स्मृता होता लक्षणं च निबोधत ॥
१३ ॥
तलपुष्प पुटतता प्रांदि एक सौ माठ प्रकारके करण होते हैं [ द्विपादकमलं यत्तु करणं नाम तद्भवेत् ] इस प्रकार चेष्टाका सारा ही विषय मंगों और उपांगोंके द्वारा होने वाला होनेके कारण प्रांगिक अभिनय कहलाता है ।
इसी प्रकार गतियां भी [द्यांगिक अभिनयके भीतर ही प्राती हैं। भरतमुनिने बारहवें अध्यायमें गतिप्रचारका विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। उसके आधारपर गतियोंका संक्षिप्त विवरण ग्रंथकार यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं]। उनमेंसे उत्तम, मध्यम तथा प्रथम पात्रोंकी साधारणतः क्रमशः धीरा, मध्यमा तथा दृता गति होती है । विशेष रूपसे रोगी, वृद्ध, भूखे, थके हुए, तबसे क्षीण हुए, क्षुभित, प्राकार-गोपन में लगे हुए [सावहित्थ] शोकयुक्त या म्ह युक्त और स्वच्छन्दादिकी गति मन्थर होती है। हर्ष, प्रावेग, कौतूहल, भय, चौत्सुक्य प्रावि युक्त व्यक्तियोंकी गति तेज [स्वरिता] होती है । प्रच्छन्न- कामुक, वंरी, चोर और भयानक प्राणियोंसे डरे हुए आदि व्यक्तियोंकी धीरे-धीरे, प्रावाज न होने पावे इस प्रकार पैर रखते हुए, रास्ता छोड़कर और चारों प्रोर देखते हुए चलनेवाली गति होती है। जाड़े तथा बलि पीड़ितों की गति काँपते हुए और शरीरको सिकोड़े हुए होती है । पसीना पोंछते हुए धौर छायाकी खोज करते हुए गति होती है। अभियोकी अपने शरीरको खींचते हुएसो हॉपनेसे युक्त प्रोर
धूपसे संतप्त व्यक्तिकी प्रहारसे आतं और मोटे स्थिर-सी गति होती है ।
नति नेत्रोंकी चपलतासे रहित और सामनेको ओर थोड़ी दूर तक देखने वाली होती किए हुए व्यक्तियोंकी गति प्राँसें चढ़ाए हुए और लड़बड़ाते हुए
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३५८ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १५३, सू० २२८ च । विदूषकस्य असम्बद्धक्षणवती। जले पादविकर्षवती, प्रतरणे जठर-शय-कायाबाहुभ्यां जलविपाटनवती च । जलह्रियमाणस्य विसंस्थुलाङ्ग-केश-वसनवती । अन्धअन्धकारगतयोः प्राकृष्यमाणमन्दपदा पुर प्रसारितविलोलहस्ता च। आरोहणे ऊर्ध्वावलोकनपरा, विपरीता त्ववरोहणे। आकाशे समाभ्यां पादाभ्यां, वाहनेः, पक्षाभ्यां वा । आकाशान्यतो विसंस्थुलांगकेश-अंशुका । इत्यायनेको गतिप्रकार इति ।
तथा रूपस्य शिरसि हस्तौ कृत्वा किञ्चिदास्यचालनानिमिषक्षणाभ्याम् , शब्दस्य शिरसा पार्श्वनतेन, स्पर्शस्य नेत्राकुचनेन, रसमान्धयोश्चैकोच्छवासेनाभिनयः। सर्वोऽपि चाभिनय इष्टो, मध्योऽनिष्टश्चेति त्रिप्रकारः । तत्रेष्टः सौमुख्य-पुलकगात्र-नेत्रविकासादिना क्रियते । मध्यो माध्यस्थ्येन । अनिष्टः शिरःपरावर्तन-नेत्रनासाविकोणनादिति । चतुर्विधश्चात्र मुखरागः, प्रसन्नः, स्वाभाविकों, रक्तः, श्यामरचेति रसौचित्यानतिक्रमेण भवति । यदपि सर्वशरीरसाध्यं भूपातादिकं तदप्याङ्गिक एव । अङ्गोपाङ्गरूपत्वाच्छरीरस्येति ॥ [५०] १५२ ।।
अथ सात्त्विकः[सूत्र २२८] -सात्त्विकः स्वरभेदादेरनुभावस्य दर्शनम् । होती है । विदूषकको गति असम्बन बातोंको देखते हुए होती है। पानीमें, पैरोंको घसीटते हुए, तेरते समय पेट, हाप, शरीर तथा बाहमोंसे जलको चीरते हुए, और जल में बहते एकी प्रस्तभ्यस्त हाथ-पैर, केश तथा वस्त्रोंसे युक्त गति होती है। अन्धों और अन्धकारमें चलने वालों को धीरे-धीरे पैरोंको सचेड़ते हुए मोर मागेकी पोर फैले हुए हायको हिलाते हुए [गति होती है]. ऊपर चढ़ते समय ऊपरको भोर देखते हुए और उतरते समय उसके विपरीत [अर्थात् नीचेकी पोर देखते हुए गति होती है। प्राकाशमें दोनों पैर एकसे किए पवा बाहनोंके द्वारा अथवा पंखोंके द्वारा [गति होती है। प्राकाशको छोड़कर अन्यत्र प्रस्त-व्यस्त केश वस्त्राबिसे युक्त अनेक प्रकारका गमनविषि कहा गया है।
पौर रूप [के दर्शन] का [अभिनय] सिरके ऊपर हाथ रखकर तनिक सिर हिलाते हुए टकटकी लगाकर देखते हुए नेत्रोंसे, शब्द [के भवरण] का [भिनय] एक प्रोरको सिर झुकाकर सुननेसे, विशेष प्रकारके स्पर्शका अभिनय] पाखें बन्द कर लेनेसे, और रस तथा गन्धका एक लम्बे सांस लेनेके द्वारा होता है। सभी अभिनय र, मध्यम तथा अनित तीन प्रकारका होता है। उनमेंसे इष्ट अभिनय मनको प्रसन्नता, शरीरके रोमांच तथा मेडोंकि विकास प्राविक वारा [प्रदर्शित किया जाता है। मध्य अभिनय मध्मस्पताके द्वारा पोर अनिष्ट.अभिनय [का प्रदर्शन] मुंह फेर लेने और नेत्र एवं नाकके सिकोड़नेके द्वारा किया जाता है। इस प्रभिनयमें प्रसम्म, स्वाभाविक रक्त, लाल तथा काला चार प्रकारका मुनराग होता है । जो रसके प्रोचित्यके अनुसार होता है। और षिवीपर गिर पड़मा प्रावि जो सारे भरीसे साम्य व्यापार है वह भी शरीरके ही प्रगोपांग रूप होनेसे मोगिक प्रभिनयके अन्तर्गत ही होता है। [५०] १५२ ॥
अब सात्विक [अर्थात मानसिक अभिनयका वर्णन करते है]-- . . . [ष २२८] -स्वरमेवादि मनुभावोंका प्रवन साविक अभिनय कहलाता है।
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का० १५३, सू० २२६ ]
तृतीयो विवेकः
[ ३५६ मनः सवं तत् प्रयोजनं हेतुरस्येति सात्विकः । मनोऽनवधाने हि न शक्यन्त एव स्वरादयो नटेन दर्शयितुम् | आदिशब्दाद् वेपथुः स्तम्भ-रोमांचमूर्छन+वेद-वैवर्व-अन-निशामोच्छवास सन्ताप- शैत्य - भा-कार्श्य - मेदुरत्व-उल्लुकसन- श्रवहित्य - सावधानता-लाला-फेनमोक्ष-गात्रस्रंसन-हिका देर्ग्रहः । नायमभिनयो वाचिकः शब्दाननुकारात् । नाप्याङ्गिकः अङ्गोपाङ्गसाध्य स्पष्टचेष्टाया अभावादिति । स्वरभेदानुमानं रसोत्तम - मध्यम अधमप्रकृत्याद्यौचित्यानुसारतो द्रष्टव्यमिति ॥
अथाहार्य :
[ सूत्र २२६] - वर्णाद्यनुक्रियाऽऽहार्यो बाह्यवस्तुनिमित्तकः ॥
[५१] १५३ ॥ वर्णः श्वेतादिः । आदिशब्दाद् रस- गन्ध आकल्प श्रायुध वाहन अङ्गाधिक्यदेश -नदी- नगर - वन पक्षि-द्विपद-चतुष्पद-पद-प्रासाद - पर्वतादेर्ग्रहः । बाह्य शरीरव्यतिरिक्तं भस्म धातु-जतु-राग- हरिताल- मषी मृत्तिका वस्त्र-वेणु - दलादिकं निमित्तमस्येति । वाचिकादयस्तु शरीरनिमित्ता इति भेदः । अयं च देश-काल-कुल-प्रकृति-दशा - स्त्रीत्व
एकाग्र मनका नाम सत्व है । वह सत्व जिसका प्रयोजन अर्थात् हेतु है वह सात्त्विक [प्रभिनय ] होता है । मनकी स्थिरता न होनेपर नट स्वरभेदादिका प्रदर्शन नहीं कर सकता है [ इसलिए स्वरभेदादि श्रनुभावोंका प्रदर्शन सात्त्विक अभिनय कहलाता है] । प्रादि शब्द से कम्पन, स्तम्भ, रोमांन, मूर्छा, स्वेद, विवरणंता, प्रांसू निःश्वास, उच्छ् वास, सन्ताप, शैत्य, अम्भाई, कृशता, स्थूलता, उल्लुकसन, श्राकारगोपन [ श्रवहित्था ] सावधानता, लार गिराना या फेन गिराना, शरीरका शिथिल कर देना और हिचको प्रादिका ग्रहण होता है । इन east यह अभिनय शब्दानुकररण रूप न होनेसे वाचिक नहीं कहा जा सकता है और अंगों प्रथवा उपांगों से साध्य स्पष्ट चेष्टारूप न होनेसे प्रांगिक भी नहीं कहा जा सकता है। [इसलिए यह तीसरे प्रकारका सास्विक अभिनय कहलाता है ] । स्वरभेद आदि श्रनुभावोंका प्रदर्शन रस तथा उत्तम मध्यम प्रथम आदि प्रकृतियोंके श्रौचित्य के अनुसार किया जाना चाहिए । द [ वेष भूषादिसे साध्य चौथे प्रकारके] ग्राहायं [ अभिनयका लक्षण करते हैं ][ सूत्र २२९ ] - बाह्य वस्तुओंोंके द्वारा किया जाने वाला वर्ण प्रादिका अनुकरण हार्य [अभिनय कहलाता ] है । [ ५१] १५३ ।
वर अर्थात् श्वेतादि । आदि शब्दसे रस, गन्ध, वेष [ श्राकल्प ] शस्त्र, वाहन, अंगोंकी अधिकता, देश, नदी, नगर, वनपक्षी, द्विपद, चतुष्पद, पदरहित [सर्प आदि ] प्रासाद और पर्वत श्रादिका ग्रहण होता है । बाह्य अर्थात् शरीरसे भिन्न भस्म धातु लाख आदिका राम, हरिताल, स्याही, मिट्टी, वस्त्र, बाँसुरी और पत्रादि जिसके निमित्त प्रर्थात् प्रयोजक हैं [ वह सब श्राहार्य अभिनय कहलाता है ] । और वाचिक आदि [ पहले कहे हुए तीनों प्रकारके अभिनय] तो शरीर निमित्तक होते हैं यह [उन तीनोंसे इस ग्रहार्य अभिनय का ] भेव है । देश, काल, प्रकृति, दशा, स्त्रीत्व, पुंस्त्व, षण्डत्व प्राविके प्रौचित्य के अनुसार इस [पाहार्य अभिनय ] को करना चाहिए ।
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३६० ]
नाट्यदर्पणम् [.का० १५३, स० २२६ पुंस्त्व-पण्डत्वाचाचित्यानुसारतो विधेय इति ।
यस्तु पञ्चमश्चित्राभिनयः प्रोक्तः सोऽप्यङ्गोपाङ्गकर्मविशेषरूपत्वादागिक एवान्तर्भवति ।
अभिनयद्वय-त्रय-चतुष्टयसन्निपातरूपः सामान्याभिनयः पुनर्वाचिकादिलक्षणेनैव चरितार्थ इति ॥ [५१] १५३ ॥
इति श्रीरामचन्द्र-गुणचन्द्रविरचितायां स्वोपज्ञनाट्यदर्पणविवृतौ
वृत्ति-रस-भाव-अमिनयविचारस्तृतीयो विवेकः ॥३॥ और जो पांचवें प्रकारका चित्राभिनय [नाव्यशास्त्रमें कहा गया है वह भी अंगों तथा उपांगोंके विशेष कर्म-रूप होनेसे प्रांगिक अभिनयके भीतर ही आ जाता है।।
दो, तीन या चार अभिनयोंका सन्निपात रूप जो सामान्याभिनय [नाट्यशास्त्रमें] कहा गया है वह भी वाचिक प्राविके लक्षणोंके अन्तर्गत ही हो जाता है। [११]१५३ ॥ श्री रामचन्द्र-गुणचन्द्र विरचित स्वनिर्मित माट्यदर्पणको विवृत्तिमें
वृत्ति-रस-भाव-अभिमय-विचार नामक ततीय विवेक समाप्त हुमा ॥३॥
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अथ चतुर्थो विवेकः
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अथ चतुर्थो विवेकः अतः परं सर्वरूपकोपयोगि किश्चिदुच्यते[सूत्र २३०]-देव-भूप-सभा-भर्तृ मुख्यानां मङ्गलाभिधा । नित्या रूपमुखे नान्दी पदैः षड्भिरथाष्टभिः ॥
[१] १५४ ॥ ___ 'मुख्य' ग्रहणं सरस्वती-कविप्रभृतीनामुपलक्षणार्थम् । 'मङ्गलाभिधा' सद्भूतगुणोत्कीर्तनं, आशीर्वचनं वा । 'नित्या' एवं विधरूपैव । अपरेषां तु पाठ्यानामुत्थापनादीनां पूर्वरङ्गाङ्गानां प्रयोगवशादन्यथात्वमपि भवति । अवश्यम्भावाद्वा नित्यत्वम् । शेषाणां हि रङ्गाङ्गानां नावश्यम्भावः । अहरहः प्रयोज्यत्वाद्वा नित्यत्वम् । यावद्धि रूपकस्याभिनयस्तावदेषा नान्दी प्रयोक्तव्यैव । 'रूपकस्य' नाटकादेः, 'मुखे' प्रारम्भे, नान्दी । प्रयोगस्थानकथनमेतत् । नान्दीत्वं च मङ्गलाभिधायाःप्रत्यूहापसारणेन समृद्धिंजनकत्वात् । ‘पदानि' वाक्याङ्गानि । केचित्तु पूर्णवाक्यापेक्षयावान्तरवाक्यानि 'पदानि' इत्याहुः । तथा च भरतमुनिर्नान्दी पठति--
____ अथ नाट्यदर्पणदीपिका चतुर्थो विवेकः भव सब प्रकार के रूपकोंमें उपयोगी कुछ बातें कहते हैं---
[सूत्र २३०]-देवताओंकी, राजाकी, सभाकी तथा स्वामी प्रादिको मंगल-कामना रूप, छः पदोंसे युक्त अथवा पाठ पदोंसे युक्त 'नान्दी प्रत्येक रूपकके भारम्भमें नित्य ही करनी चाहिए। [१] १५४ ।
'मुख्य' पदका ग्रहण सरस्वती और कवि माविका उपलक्षण है । 'मंगलाभिधा' अर्थात् विद्यमान सद्गुणोंका कथन करना, अथवा पाशीर्वचन । 'नित्या' अर्थात् (१) सदा इसी प्रकारको [मंगलाभिषा रूप] होती है। पूर्वरंगके, पढ़े जाने वाले 'उत्थापना' मावि अन्य अंगोंमें तो प्रयोगके भेदसे परिवर्तन भी हो जाता है। [किन्तु नान्दीका सभी रूपकोंमें एक ही स्वरूप रहता है । यह नित्या' पदका अभिप्राय है) । (२) अथवा [सब रूपकोंमें नान्दीका] अवश्यम्भाव होनेसे नित्यक्ष कहा है। रंगके अन्य अंगोंका होना प्रावश्यक नहीं है। अथवा (३) प्रतिदिन प्रयोग किए जानेके कारण नान्दोका नित्यत्व कहा है। जब तक रूपकोंका अभिनय रहेगा तब तक इस नान्दीका प्रयोग किया जाना चाहिए। यह 'नित्या' पदका मभिप्राय है] । रूपक' अर्थात् नाटकादिके 'मुख' अर्थात् प्रारम्भमें नान्दी होती है। यह प्रयोगके स्थानका कथन किया गया है। किनोंके बिनाश द्वारा समृद्धिजनक होनेके कारण मंगल-कामना मंगलाचरणको 'नान्दी' कहा गया है । 'पद' अर्थात् वाक्यके अवयव । कुछ लोग पूर्ण वाक्यको हहिसे अवान्तर खड-वाक्योंको 'पद' कहते हैं । जैसाकि [अवान्तर खण्ड वाक्योंको पद मानकर] भरतमुनिने [नाट्यशास्त्र भ०५,११०-११३ में इस प्रकार नान्दीका पाठ दिखलाया है।
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३६४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १५४, स० १३० "नमोऽस्तु सर्वदेवेभ्यो द्विजातिभ्यश्च वै नमः । जितं सोमेन वै राज्ञा शिवं गो-ब्राह्मणाय च ॥
ब्रह्मोत्तरं तथैवास्तु हता ब्रह्मद्विषस्तथा । - प्रशास्त्विमां महाराजः पृथिवीं च ससागराम् ॥
राष्ट्र प्रवर्धतां चैव रङ्गस्याशा समृध्यतु । प्रेक्षाकर्तुमहान धर्मो भवतु ब्रह्मभाषितम् ।। काव्यकर्तुर्यशश्चापि धर्मश्चापि प्रवर्धताम् । इज्यया चानया नित्यं प्रीयन्तां देवता इति ॥"
ना० अ०५, ११०-११३ ॥ अत्र द्वादशावान्तराशीर्वाक्यानि। षभिरिति व्यस्र, अष्टभिरिति चतुरलं रङ्गमपेक्ष्य मध्यमनान्द्या निर्देशः । व्यस्ररङ्ग चोत्तमा द्वादशभिः, अधमा त्रिभिः पदैर्नान्दी । चतुरस्ररङ्ग पुनरुत्तमा षोडशभिः, अधमा चतुभिरिति । नान्दी च पूर्वरङ्गाङ्गानां द्वादश मङ्गं सकलपूर्वरङ्गाङ्गोपलक्षिका । तेन 'नान्द्यन्ते सूत्रधार' इत्यस्य । सकलपूर्वरंगानि तु केषाश्चिल्लोकप्रसिद्धत्वात, केषाश्चिन्निष्फलत्वात, केषांचिदनवश्यम्भावित्वाच्च न लक्ष्यन्ते । नान्दी त्ववश्यम्भावित्वात् , मंगलाभिधानपूर्वकत्वाच्च शुभ
___ समस्त देवताओंको और द्विजातियोंको हमारा नमस्कार है । सोम रूप राजा [अचंवा प्रकाशमान चन्द्रमा की विजय हो तथा गौओं एवं ब्राह्मणोंका कल्याण हो । - इसी प्रकार ब्राह्मणोंकी वृद्धि यह ब्रह्मविद्याको वृद्धि हो । तथा ब्रह्मद्वेषियोंका विनाश हो। और महाराज सागरों सहित इस पृथिवीका शासन करें।
राष्ट्रको समृद्धि हो और रंगशालाओंको आशा पूर्ण हो । नाट्यको व्यवस्था कराने वाले [राजा प्रादि] को महान् धर्मकी प्राप्ति हो और [उनके द्वारा] वेदोंका पाठ होता रहे।
तथा काव्य की रचना करने वाले [कवियों को यशकी प्राप्ति हो, उनके धर्मको सदा वृद्धि होती रहे । तथा इस यज्ञके द्वारा सदेव देवगण प्रसन्न होते रहें।
इसमें प्राशीर्वाात्मक बारह अवान्तर वाक्य हैं। [कारिकामें] 'षभिः ' इस परसे त्रिभुजात्मक रंगको लक्ष्यमें रखकर मध्यम नान्दीका निर्देश किया गया है और 'महभिः' पबसे चतुरस्र मन्डपको ध्यानमें रखकर मध्यम नान्दीका निर्देश किया गया है। त्रिभुजात्मक मण्डपमें उत्तम नान्दी बारह पदोंको [मध्यम ६ पदोंको] और अषम [नान्दी] तीन पदोंकी होती है । पौर चतुरस्त्र मण्डपमें उत्तम [नान्दी] सोलह पदोंको [मध्यम पाठ पदोंको] तथा अधम नान्दी] चार पदोंकी होती है। नान्दी, पूर्वरंगके अंगों में बारहवां अंग है और यहाँ वह पूर्वरंगके सारे अंगोंकी उपलक्षण रूप है। इसलिए 'नान्द्यन्ते सूत्रधारः' [यह जो नाटकोंमें लिखा जाता है इसकी भी उपलक्षिका है । [पूर्वरंगके अंगोंमेंसे कुछ लोक-प्रसिद्ध होनेसे, कुबके निष्फल होनेसे और किन्हींके आवश्यक न होनेसे होनेसे पूर्वरंगके समस्त अंगोंका लक्षारण हमने यहां नहीं किया है। नान्दीका होना तो प्रावश्यक है इसलिए, और प्रत्येक शुभ कार्यके प्रारम्भमें मंगलाचरण करना ही चाहिए इसलिए नान्दोका लक्षण किया है। इसीलिए [अर्थात् प्रत्येक शुभकार्यके भारम्भमें मंगलाचरणके प्रावश्यक होनेके कारण जो लोग नान्दी को माटकमा अंग नहीं मानते हैं वे] कविगण [भी] नाटकके भारम्भमें 'नान्यन्ते सूत्रधारः'
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का० १५५, सू० २३१ ] चतुर्थो विवेकः
[ ३६५ कृत्यारम्भस्येति लक्षिता । अत एव कवयो रूपकारम्भे 'नान्द्यन्ते सूत्रधारः' इति पठन्ति । यत्र तु कविकृता नान्दी न दृश्यते तत्रापि रङ्गसूत्रणकर्तृ कृता द्रष्टव्या । नांदीपाठकाश्च सूत्रधार-स्थापक-पारिपाश्विका इति ॥ १५४ ।। अथ ध्रुवा लक्ष्यते--
. [सूत्र २३१]-प्रवेश-निष्क्रमाक्षेप-प्रसादान्तरसङ्गतम् । चित्रार्थ रूपकं गेयं पञ्चधा स्यात् कविधवा ॥
[२] १५५ ॥ 'रूपकं कविध्रुवा' इति सम्बन्धः । प्रविशतः पात्रस्य रस-भाव-प्रकृति-अवस्थादिकं प्रवेशशब्देनोच्यते। तदनुसारेण श्लेष-समासोक्त्याद्यलंकृतं यद् रूपर्क गीयते सा, 'प्रवेशः' प्रयोजनमस्या इति 'ईकणि' प्रावेशिकी।
(१) यथा अनर्घराघवे(क)-"दिणयरकिरणुक्केरो पियायरो को वि जीवलोयस्स ।
__ कमलमउलंकवाली-कय-महुअर-कड्ढणवियड्ढो । [अर्थात् नान्दी सम्पादनके बाद सूत्रधार प्रविष्ट होता है] इस प्रकार लिखते हैं । [भास प्रादि के नाटकमें] जहाँ कवि द्वारा की गई नान्दी उपलब्ध नहीं होती है वहाँ भी रंगको व्यवस्था करने वाले सूत्रधारकी पोरसे की गई नान्दी समझ लेनी चाहिए। नान्दी-पाठ करने वाले सूत्रधार, स्थापक तथा पारिपाश्विक ये तीन होते हैं । [१] १५४ ।।।
अब 'ध्र वा' का लक्षण करते हैं--
[सूत्र १८१]-[पात्रोंके] प्रवेश, निष्क्रमण, [रसान्तरके प्राक्षेप, [प्रस्तुत रसके] उम्ज्वलीकरण और [ नटोंके किसी छिद्र अर्थात् ] त्रुटि [को छिपानेके लिए इन सब के साथ सम्बड जो पद [रूपकं] गाए जाते हैं वे 'ध्रुवा' कहलाते हैं और वह [पूर्वोक्त प्रवेश निजक्रमण प्रादि पाँचके साथ सम्बद्ध होनेसे] 'कविध्र वा' पाँच प्रकारको होती है। [२]
[कारिकामें] 'रूपकं कविध्र वा' इस प्रकारका अन्वय करना चाहिए। [रूपकं अर्थात् गेय पदोंको ध्र वा कहते हैं यह अभिप्राय है] । उसका प्रयोजन पात्रोंका प्रवेश निष्क्रमण मादि पांच प्रकारका होता है इसलिए ध्र वा भी पाँच प्रकारकी कही गई है। उनमेंसे पहले पात्रोंके प्रवेशसे सम्बद्ध प्रावेशिकी ध्र वा दिखलाते हैं प्रागे प्रविष्ट होने वाले पात्रके रस, भाष, प्रकृति, अवस्था आदिको यहाँ 'प्रवेश' शब्दसे कहा गया है । उसके अनुसार श्लेष समासोक्ति प्रादिके द्वारा जिस [रूपक अर्थात्] गेय पदका गान किया जाता है वह प्रवेश जिसका प्रयोजन है इस अर्थ में [प्राचार्य हेमचन्द्रकृत व्याकरणके अनुसार] 'ईकण-प्रत्यय करने पर' प्रावशिको [पद सिद्ध होता है ।
(१) प्रावेशिकी ध्रुवा[प्रवेशिको ध्र वाका उदाहरण] जैसे अनघराघवमें
(क) सूर्यदेवका किरण समुदाय जो कमल-कलिकामोंको गोवमें भौका पाकर्षण करने में विवग्ध है, समस्त जीवलोककेलिए कुछ अपूर्व प्रानन्ददायक है।
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३६६ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १५५, सू० २३१ [दिनकरकिरणोत्करः प्रियाकरः कोऽपि जीवलोकस्य । कमलमुकुलांकपालीकृतमधुकरकर्षणविदग्धः ॥ इति संस्कृतम] ॥"
इयं स्वाश्रमरक्षणार्थ रामाकर्षणायागच्छतो विश्वामित्रस्य आदित्योदयवर्णनव्याजेन प्रवेशसूचिका।। (ख) यथा वा देवीचन्द्रगुप्ते पश्चमेऽङ्के- .
"एसो सियकरवित्थरपणासियासेसवेरितिमिरोहो । नियविहवरेण चन्दो गयणं गहं लंधितं विसइ ।। [ एष सितकरविस्तरप्रणाशिताशेषवैरितिमिरौघः ।
निजविभववरेण चन्द्रो गंगनं ग्रह लंघयितु विशति ॥इति संस्कृतम् ॥" इयं स्वापायशंकिनः कृतकोन्मत्तस्य कुमारचन्द्रगुप्तस्य चन्द्रोदयवर्णनेन प्रवेशप्रतिपादिकेति।
(२) अङ्कान्ते अङ्कमध्ये वा सनिमित्तं रङ्गात् पात्रस्य बहिनिःसरणं निष्क्रमः ।
तत्प्रयोजना। अनुशतिकादेराकृतिगणत्वाद् 'इकणि' उभयपदवृद्धौ
नैष्क्रामिकी। यथा देवीचन्द्रगुप्ते पञ्चमांकान्ते
"बहुविह-कज्जविसेसं अइगूढं निण्हवेइ मयणादो। 'निक्खलइ खुद्धचित्तउ रत्ताहुत्तं मणो रिउणो ॥ [बहुविधकार्यविशेषमतिगूढं निह्न ते मदनात् । निष्कलति दुब्धचित्तो रक्ताक्षिप्तमना रिपोः ।।
__ इति संस्कृतम् ]" यह सूर्योदय-वर्णनके बहाने से अपने प्राधमकी रक्षाके लिए रामचन्द्रको लिवा बानेके उद्देश्यसे आनेवाले विश्वामित्रके प्रवेशको सूचिका [प्रवेशको ध्र वा] है।
(ख) अथवा जैसे देवी चन्द्रगुप्तके पञ्चम प्रडमें
प्रपती शुभ किरणोंके विस्तारद्वारा शत्रु रुप समस्त अन्धकार-समुदायको नाश कर देने वाला चन्द्रमा अपने प्रचुर [ज्योत्स्ना रूप] वैभवसे [अनिय] ग्रहोंका उल्लंघन करनेके लिए प्राकाशमें प्रविष्ट हो रहा है ।
यह चन्द्रोदयके वर्णनके बहानेसे अपने विनाशको शंका करनेवाले बनावटी रूपसे उन्मत्त बने हुए कुमार चन्द्रगुप्त के प्रवेशको सूचिका [प्रवेशिको ध्रवा] है।
(२) नैष्क्रामिकी ध्रुवा
(२) प्रङ्कके अन्तमें अथवा प्रकुके बोनमें कारणवश पात्रका रंगसे बाहर जाना निष्क्रमण कहलाता है। वह जिसका प्रयोजन हो, वह निक्रामिको ध्रना होती है। यह नष्कामिकी पर अनुशतिकादिगरणको प्राकृतिगरण मानकर [हेमचन्द्र व्याकरणके भनुलार] ईकण-प्रत्यय करनेपर तथा उभयपद-वृद्धि करके 'नष्कामिको' [पद सिद्ध होता है ।
से देवीचन्द्रगुप्तके पञ्चम प्रडके अन्तमें---
माना प्रकारके अत्यन्त गुप्त विशेष कार्योको कामके प्रावेगसे छिपाना चाहता है और सके रक्तपान के लिए उत्सुक अम्पत्सिवाला [कुमार चळगुप्त रणभूमिसे] बाहर जाता है।
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का० १५५, सू० २३१ ]
चतुर्थी विवेक:
[ ३६७ इयमुन्मतस्य चन्द्रस्य मदनविकारगोपनपरस्य अनाक शत्रुभीतस्य राजकुलगमनार्थं निष्क्रमसूचिकेति ।
(३) प्रस्तुतरसोल्लंघनेन रसान्तरोद्भावनमादेपः । तत्प्रयोजना प्रक्षेपिकी । यथोदात्तराघवे रामस्य प्रस्तुतश्टङ्गारोज्लंघनेन-
"अरे रे तापस! स्थिरीभव, क्वेदानीं गम्यते ? स्वर्मम पराभव एकदत्तव्यथः । खरप्रभृतिवान्धवो हलनवातसन्धुक्षितः । तवेह विदलीभवत्तनुसमुच्छलच्छोणितच्छाच्छुरितव दसः प्रशममेतु कोपानलः ॥ " इत्यादि नेपथ्यवाक्याकर्णनेन वीररसाक्षेपः ।
(४) प्रस्तुतस्य रसस्य विभावोन्मीलनेन निर्मलीकरणं 'प्रसाद' । प्रविष्टपात्रस्य अन्तर्गत चित्तप्रवृत्तेः सामाजिकान प्रति प्रथनं वा 'प्रसाद' । प्रसादप्रयोजना 'प्रासादिकी' । इयं च प्रावेशिक आक्षेपिक्यनन्तरसवश्यं प्रयोज्येति वृद्धसम्प्रदायः ।
(५) 'अन्तर' छिंद्र', तत्र भवा 'आन्तरी' । अनुकर्तुर्यदा नाशंकित एव धनविधातादिना विधातः, उद्धतप्रयोगाश्रयाद्वा मूर्छा-भ्रमादिसम्भावना, वस्त्राभरणदेर्वा
यह मदन विकारको छिपानेके लिए उन्मत्त और कुछ शत्रु से भयभीत चन्द्रगुप्तके रामaari जानेकेलिए [ रङ्गमञ्चसे] निष्क्रमणकी सूचिका है ।
(३) आक्षेपिकी ध्रुवा -
प्रस्तुत रसको हटाकर अन्य रसका उत्पन्न करना 'प्राक्षेप' कहलाता है । वह जिसका प्रयोजन है वह 'आक्षेपिकी' हुई । जैसे 'उदात्तराघव' में - रामचन्द्रके प्रस्तुत शृङ्गाररसको हटाकर [निम्न श्लोक द्वारा वीररसका प्राक्षेप कराया गया है]
अरे दुष्ट तापस ! ठहर जा, खड़ा रह, प्रब जाता कहाँ है
?
मेरी बहिन [ शूर्पणखा ] के अपमान से उत्पन्न, एक [ प्रसह्य श्रपूर्व ] क्लेशको देनेवाला खर-दूषण प्रावि बन्धुओंके विनाश रूप वायुसे प्रज्वलित किया हुप्रा क्रोधानल प्राज चूर्ण किए जाते हुए तेरे शरीरसे निकलनेवाले रक्तप्रवाहसे जिसका वक्षःस्थल व्याप्त हो रहा है इस प्रकारका बनकर ही शांत होगा ।
:
इत्यादि नेपथ्यगत [ रावरणके ] वाक्यको सुननेसे वीररसका प्राक्षेप होता है । ( * ) प्रासादिकी ध्रुवा -
अथवा
विभावोंके उन्मीलन द्वारा प्रस्तुत रसका निर्मेलीकरण 'प्रसाद' कहलाता है । प्रविष्ट हुए पत्रको चित्तवृत्तिको सामाजिकोंके सामने प्रकाशित करनाः प्रसाद' माना जाता है। 'प्रसाद' जिसका प्रयोजन है वह 'प्रासादिको' [ध्रुवा] हुई । 'प्रावेशिकी' और 'प्राक्षेपिकी' वाचके
इस [प्राविकी ध्रुवा ] का प्रयोग अवश्य करना चाहिए यह वृद्धजनोंकी परम्परा है। (५) आन्तरी ध्रुवा
अन्तर अर्थात् त्रुटि [f]। उस [छि या त्रुटि ] के होनेपर प्रयुक्तकी जाने वाली [व] 'प्राप्तरी' [ वा कहलाती] है । [ इसका अभिप्राय यह है कि ]जब अनुकरण करने को (१) जिसकी शंका भी नहीं हो सकती थी इस प्रकारके प्राकस्मिक धन
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३६८ ]
नाट्यदर्पणम
[ का० १५५, सृ० २३१
प्रच्युतिः, तदा तत्संवरणावकाशदित्सया इयं गीयते । अस्यां चा भाषि वा रसस्वरूपमनुवर्त्यम् । छिद्राच्छादनमात्रप्रयोजनत्वाच्चास्या न सार्थकपदन्यसनमुपयोगीति शुष्काक्षराख्येवास्यां निबध्यन्ते ।
'संगतं ' प्रवेशाद्यनुरूपार्थम् । 'चित्रो' नानाप्रकारः, सरः काननादि-दिवस-रात्रिसन्ध्यादिः, उत्तम - मध्यमाधमप्रकृतिः गंज- बाजि - सिंहादिर्भावो रत्यादिकश्चार्थो यत्र । अर्थश्च तथा निबन्धनीयो यथा 'उपश्रुति शकुनन्यायेन' प्रत्ययेन प्रस्तुतोपयोगी भवति । 'रूपक' नियतमात्राक्षरं छन्दः । 'गेयं' स्वरतालैर्गानाईम् । पञ्चधा प्रवेशादिभिः विनाश श्रादिके कारण प्राधात लगता है तब श्रथवा (२) किसी उद्धत प्रयोगके कारण मूर्च्छा या चक्कर प्राने लगनेकी सम्भावना होनेपर, प्रथवा (३) वस्त्र, प्राभरण प्राविके गिर जानेपर उस [ त्रुटि, अन्तर या छिद्र ] के छिपानेकेलिए अवसर प्रदान करनेकी दृष्टिसे इस [ श्रन्तरी ध्रुवा ] का गान किया जाता है। [जिससे प्रेक्षकोंका ध्यान उस गानकी धोर खला जाता है और नटको उस त्रुटिको पूरा करने और सँभल जानेका अवसर मिल जाता है ] । इसमें पूर्ववर्ती श्रथवा श्रागे श्रानेवाले रसके स्वरूपका अनुगमन आवश्यक होता है। केवल छिद्रोंका प्राच्छादन करना ही इसका प्रयोजन होता है इसलिए इसमें सार्थक पदके पाठ आदि ही उपयोगी नहीं है [ और सार्थक गेय पद इस समय अकस्मात बनाए भी नहीं जा सकते हैं ] इसलिए केवल [ सार्थक या निरर्थक जैसे भी बन जायें] शुष्क अक्षरमात्रका इसमें जोड़-तोड़ किया जाता है । [ उन्हीं के गानसे सामाजिकोंका चित्त बंटाकर नटको अपनी त्रुटिको छिपाने तथा सँभलनेका अवसर मिल जाता है। ।
[प्रवेश, निष्क्रम, प्राक्षेप, प्रसाद और अन्तर इन पाँचोंके साथ ] 'संगत' प्रर्थात् प्रवेश श्रादि [ पाँचों ] के अनुरूप [ जो गेय पद वह 'ध ुवा' कहलाता है ] । चित्र प्रर्थात् नाना प्रकारका [ श्रर्थात् ] तालाब, बन आदि अथवा दिन रात व सन्ध्यादि अथवा उत्तम, मध्यम व प्रथम प्रकृति प्रथवा हाथी, घोड़ा, सिंह आदि पदार्थ और रत्यादि रूप अर्थ जिस [गेय पद ] में हों [ वह 'चित्रार्थं ' गेय पद 'ध्रुवा' कहलाता है] । इस अर्थको रचना इस ढंगले करनी चाहिए कि जिससे वह 'उपश्रुति- शकुन - न्याय' से अपने [श्रवरणात्मक ] ज्ञानमात्रसे प्रकृतमें उपयोगी हो सके ।
इसमें 'उपश्रुति शकुन न्याय' शब्दका प्रयोग किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि परम्परागत संस्कारोंके अनुसार यात्रापर जाते समय यदि नीलकण्ठ प्रादि किसी विशेष पक्षीका दर्शन या उसकी ध्वनिका श्रवण अथवा जलसे भरे घट आदिका दर्शन हो जाय तो वह कार्य सिद्धिके लिए शुभ शकुन माना जाता है । यद्यपि जलभरे घटको ले जानेवालेका, अथवा पक्षीके शब्द करनेका प्रयोजन यात्रा करनेवालेकेलिए शकुन करना नहीं होता है । उसका प्रयोजन कुछ और ही होता है । किन्तु इन पदार्थोंके दर्शन अथवा शब्दके श्रवरणमात्र से मंगल होता है । इसी प्रकार इन ध्रुवानोंके पदोंका अर्थ च कछ भी हो किन्तु उनके श्रवणमात्र अथवा ज्ञानमात्रसे उनका प्रकृत में उपयोग हो सके ! यह 'उपश्रुतिशकुन न्याय' का अभिप्राय है ।
नियत मात्रा और नियत प्रक्षरों वाला बन्द यहाँ 'रूपक' [ पवसे अभिप्रेत ] है । स्वर और तालसे गाने योग्य 'गेय' कहलाता । [ प्रवा] पाँच प्रकारकी प्रर्थात् प्रवेश [ प्रवेश
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का० १५६, सू० २३२ ]
चतुर्थो विवेक:
[ ३६६
1
पचप्रकारा। उपयोगबाहुल्यापेक्षं चैतत् । अपरे च ध्रुवाप्रकाराः सन्ति, अल्पोपयोगित्वात् तु न लक्षिताः । 'कविधवा' इति कबेः प्रबन्धकतुरियं पञ्चविधा ध्रुवा । श्रनेन रङ्गमध्यवर्तिनीनां ध्रुवाणां रंगविध्यनन्तरं नाट्याचार्य कल्पितानां गानधुवाणां च व्युदास इति ||[२] १५५ ||
अथ नाट्यपात्राणां प्रकृतिभेदानाह
[ सूत्र २३२] - उत्तमा मध्यमा नीचा प्रकृतिर्नृ स्त्रियोस्त्रिधा । एकैकापि त्रिधा स्व-स्वगुणानां तारतम्यतः ॥ ॥ [३] १५६ ॥
'उन्' इत्यव्ययं उत्कृष्ट ऽर्थे । ततः प्रकृष्टार्थे 'नमपि' उत्तमा । प्रकर्षेण क्रियन्ते इति । प्रकृतिर्जन्म सहभुवं शुभाशुभं शीलम् । 'त्रिवेति' तिस्रोऽपि प्रकृतयः स्वस्थाने उत्तमा मध्यमा नीचाश्चेति । 'गुणाः' प्रत्येक प्रकृतिषु वक्ष्यमाणाः । प्रकृष्टस्य किचिदाधिक्य बहुत्वभाविनोस्तरप्-तमप्-प्रत्यययोरनुकृतिस्तर - तमौ इति । तयोर्भाव: 'तारतम्यम्' । सामान्य- किञ्चिदाधिक्य-सातिशयाधिक्यलक्षणावस्थात्रययोगित्वमिति ।। [३] १५६ ॥
free, आक्षेप, प्रसाद और अन्तर ]- श्रादिसे पाँच प्रकारकी होती है । [ इन पांच प्रकारोंके ] उपयोग बाहुल्यको दृष्टिसे यह [पाँच भेवोंका] कहा गया है । [ वैसे तो इन पांच प्रतिरिक्त] चौर भी ध्रवाके प्रकार हैं किन्तु उनका उपयोग बहुत कम होनेसे उनके लक्षण नहीं किए हैं। [कारिकामें इन पाँचोंको 'कवि वा' कहा है इसका अभिप्राय यह है कि कविधवाओंके प्रतिरिक्त अन्य ध ुवाएँ भी होती हैं। इसलिए ] 'कविध्रुवा' इस पदके द्वारा कवि अर्थात् ग्रंथकर्ता [प्रर्थात् ग्रंथकर्ताके द्वारा प्रयुक्त ] ये पाँच प्रकारको 'ध्रुवा' होती हैं। इससे पूर्व रङ्गके मध्य में होनेवाली और पूर्वरंगविधिके बाद नाट्याचार्य द्वारा कल्पित गानको ध्रुवाओंका निराकरण किया गया है। [अर्थात् ये पाँच प्रकार केवल 'कविध्रुवा' के होते हैं। अन्य वाओंसे इन भेदों का कोई सम्बन्ध नहीं है ] ।। [२] १५५ ॥
मन नाव्यके पात्रोंकी प्रकृतिके भेदोंको बतलाते हैं
[सूत्र २३२] - [ नाटकके] स्त्री और पुरुष [पात्रों] की उत्तम, मध्यम तथा प्रथम तीन प्रकारको प्रकृति होती है। और अपने-अपने गुरणोंके तारतम्यसे उनमेंसे प्रत्येक [ प्रकृति ) के फिर तीन-तीन भेद हो सकते हैं । [३] १५६ ।
[उत्तम पदका निर्वचन करते हैं । इस उत्तम पबमें 'उत्' यह श्रव्यय उत्कृष्ट प्रर्थ में है । उससे प्रकष्ट अर्थमें तमप्-प्रत्यय होकर 'उत्तमा' [पद बनता है । इसका अभिप्राय यह है कि] जिसकी बाह्य चेष्टाएं उत्तम रूपसे की जाती हैं [ वह उत्तम प्रकृति कहलाती है] प प्राप्त होनेवाले भले-बुरे स्वभावको 'प्रकृति' कहते हैं । ['एकंकापि त्रिधा' इस स्थलपर दुबारा प्रयुक्त हुए ] 'त्रिधा इससे [ यह सूचित किया जाता है कि पहली बार जो उत्तम, मध्यम व प्रथम तीन प्रकारको प्रकृति कही गई थीं वे ] तीनों प्रकारको प्रकृतियां अपने स्थान में भी उत्तम, मध्यम तथा नीच [भेवसे] तीन प्रकारको हो सकती हैं । [ स्व-स्वगुणानां तारतम्यतः में कहे हुए ] 'गुण' प्रत्येक [उत्तम, मध्यम व प्रथम प्रावि] प्रकृतियोंमें श्रागे कहे जाने वाले हैं।
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३७० ]
नाट्यदर्पणम ० १५८, सू० २३३-३५ अथोत्तमप्रकृतेः पुंसो गुणानाह[सूत्र २३३]-शरण्यो दक्षिरस्त्यागी लोक-शास्त्रविचक्षणः । गाम्भीर्य-धर्य-शौण्डीर्य-न्यायवानुनमः पुमान् ॥
[४] १५७ ॥ शरणमापद्गतत्राणम् । तत्र साधुः । 'दक्षिणोऽनुकूलः । 'लोक शब्दनात्र लोकव्यवहार उच्यते । तत्र 'विचक्षाः। एवमादयोऽन्येऽप्युत्तमपुरुषगुणा द्रष्टल्या इति ।। [४] १५७ ॥
___ अथ मध्यगप्रकृतिः[सूत्र २३४]-मध्यो मध्यगुरणः ।
'मध्य!' नाघ्युत्कष्टा नाप्यपकृष्टा 'गुणा' लोकव्यवहार चातुर्य-कला-विचक्षणत्वादयो धर्मा अस्येति ।
अथ नीचप्रकृतिः.... [सूत्र २३५] -~-नीचः पापीयान् पिशुनोऽलसः । कृतघ्नः कलही क्लोबः स्त्रीलीलो रूक्षवाग जड़ः ॥
|५१५८ ॥ [मागे 'तारतम्य' शब्दका अर्थ करते हैं] 'प्रकृष्ट' [पद] से कुछ प्राधिक्य और बहुत अर्थमें होनेवाले 'तरप-तम' दोनों प्रत्ययोंके अनुकरण रूपमें 'तर-तम' [प्रत्यांश] हैं । उन [तर-तम] का भाय 'तारतम्य' हुप्रा । [उसका अर्थ यह है कि सामान्य, उससे कुछ अधिक प्रौर उससे भी विशेष अधिक रूप तीन अवस्थामोंसे युक्त [भाव 'तारतम्य' कहलाता है] ॥[३]१५६।।
प्रब आगे उत्तम प्रकृतिवाले पुरुषके गुणोंको कहते हैं
[सूत्र २३३]-शरणागतोंके रक्षणमें साधु, अनुकूल, त्यागी, लोकव्यवहार तथा शास्त्रों में निपुण, गम्भीरता, धीरता, पराक्रम और न्याय-विचारसे युक्त पुरुष 'उत्तम' पुरुष कहलाता है। [४] १५७ ॥
शरण अर्थात् विपत्ति में पड़े हुएको रक्षा करना ! उत्तम साधु [ध्यक्ति 'शरण्य' कहलाता है] । 'दक्षिरण' अर्थात् सबके ] अनुकूल । 'लोक' शब्दसे यहां लोकव्यवहारका कथन किया गया है। उसमें निपुण। इसी प्रकारके अन्य भी गुण उत्तम प्रकृतिवाले पुरुषों में होते हैं॥[४] १५७॥
अब प्रागे मध्यम प्रकृति के पुरुषके गुणोंको कहते है - [सूत्र २३४] --मध्यम गुणोंवाला [पुरुष] मध्यम प्रकृति कहलाता है ।
'मध्यम' अर्थात् न तो अधिक उत्कृष्ट प्रौर न ही अधिक निकृष्ट 'गुण' अर्थात् लोकव्यवहारको निपुणता, कला, विद्वत्ता प्रावि धर्म जिसके हों [वह मध्यम प्रकृतिका पुरुष कहलाता है।
अब प्रागे नोच प्रकृति [पुरुषके गुणोंको कहते हैं]--...
[सत्र २३५]--नीच प्रकृतिवाला पुरुष अत्यन्त पाप करने वाला, चुरालखोर, प्रालसी, कसम, झगड़ालू, पराक्रम-विहीन, स्त्री-निरत प्रौर रूक्ष बोलनेवाला होता है ।[५]१५८॥
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का० १५५, सू० २३६-३७ ] चतुर्थो विवेकः
[ ३७१ "पिशुनः' कर्णेजपः । 'क्लीयो हीनसत्त्व इति ॥ [५] १५८ ॥
अथोत्तमां त्रियमाह[सूत्र २३६] -लज्जावती मृदु/रा गम्भीरा स्मितहासिनी। विनीता कुलजा दक्षा वत्सला योषिदुत्तमा ॥
॥ [६] १५६ ॥ वत्सला स्नेहलेति ॥ [६] १५६ ॥ अथ मध्यमा-नीचे
[सूत्र २३७]-नरवन्मध्यमा-नीचेमध्यम-नीचपुरुषवन्मध्यमा-नीचे स्त्रियौ बोद्धव्ये । एषा नृ-स्त्रियोविधा प्रकृतिरनुरूपा विरूपा रूपानुरूपिणी चेति पुनस्त्रिप्रकारा। तत्रानुरूपा पुंसः पौंस्नः, स्त्रियास्तु स्त्रैणो वयोऽवस्थाऽनुरूपो भावः । विरूपा तु बालोचितभावस्य स्थविरेण, स्थविरोचितस्य तु बालेन दर्शनम् । रूपानुरूपिणी पुरुषोऽपि स्त्रीरूपेण भूत्वा, स्त्रिया पुंरूपया च श्री-पुसभावदर्शनमिति ॥ - "पिशुन' अर्थात् चुगलखोर । 'क्लोब' अर्थात् शक्ति रहित ॥[५]१५८॥
प्रब प्रागे उत्तम स्त्री [के गुणों को कहते हैं
[सूत्र २३६] —लज्जावती, मृदु, धीर, गम्भीर, मन्द मुस्कानेवाली, नम्र, उच्चकुलोत्पन्न, चतुर और सहनशील स्त्री उत्तम स्त्री कहलाती है ।[६]१५६।
'वत्सला' अर्थात् स्नेह करने वाली ॥[६] १५६॥
इस प्रकार यहाँ तक उत्तम, मध्यम व मधम तीनों प्रकारकी प्रकृतिवाले पुरुषों तथा तीनों प्रकृति की स्त्रियोंके गुण, कहे गए है।
प्रब मागे मध्यमा तथा नीचा स्त्रियोंके लक्षण कहते हैं[सूत्र २३७] -[मध्यम तथा नीच पुरुषके समान मध्यमा तथा नीच स्त्रियां होती है।
मध्यम तथा नीच पुरुषोंके समान [प्रकृतिवाली] मध्यमा तथा नीचा स्त्रियोंको समझना चाहिए। पुरुष तथा स्त्रियोंको यह [उत्तम, मध्यम तथा प्रधम रूप तीन प्रकारको प्रकृति (१) अनुरूपा, (२) विरूपा तथा (३) रूपानुरूपिणी भेदसे फिर तीन-तीन प्रकारको होती है। उनमेंसे पुरुषका पुरुषके अनुरूप और स्त्रीका स्त्रीके अनुरूप प्रायु और दशा प्रावि के अनुकूल भाव 'अनुरूपा' [प्रकृति कहलाता है। पौर बालोचित भावका वृद्धकेद्वारा अपवा वृद्धोचित भावका बालकके द्वारा प्रदर्शन 'विरूपा' प्रकृति [कहलाता है। जहां पुरुष भी स्त्री बनकर प्रथवा स्त्री भी पुरुष बनकर [क्रमशः] स्त्रीभाव तथा पुरुषभावको प्रदर्शन करते हैं वह 'रूपानुरूपिणी' प्रकृति कहलाती है।।
इस प्रकार यहाँ तक उत्तम, मध्यम तथा अधम प्रकृति के पुरुष तथा स्त्रियोंके लक्षण दिखलाकर आगे मध्यम तथा प्रधम प्रकृतिके पात्रोंको भी नाट्यमें नायक बनाया जा सकता है इस बातको लिखते हैं। प्रथम विवेकमें केवल उत्तम प्रकृति वाले नायकोंके बनाए जानेका विधान किया था। उससे अपवाद रूप में यहाँ मध्यम तथा नीच प्रकृति के नायकोंके बनानेका भी विधान किया जा रहा है।
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दर्पणम्
श्रथ प्रबन्धेषु नीचप्रकृतिकमपि नायकमाह
[ सूत्र २३८ ] - नीचोऽपीशः कथावशात् ।
कथा वृत्तं, तस्या वशः सामर्थ्यं हसनीयत्वादि तस्माद् भारण-प्रहसनयोः, कस्याविद् वीथ्यां च नीचोऽपि नायकः । प्रथमविवेके मध्यमोत्तमयोर्नायकत्वमुक्तं तदपवादोऽयमिति ।
३७२ ]
अथ सर्वरूपकेषु मुख्यनायकं लक्षयति
[ सूत्र २३६ ] - प्रधानफलसम्पन्नोऽव्यसनी मुख्य नायकः ॥ [ ७ ] १६० ॥ व्यसनं स्वध्यायासक्तिः, विपद्वा । [७] १६० ॥ अथास्य गुणानुद्दिशति -
[ सूत्र २४० ] - तेजो विलासो माधुर्यं शोभा स्थैर्यं गभीरता । प्रौदार्य ललितं चाष्टौ गुरगा नेतरि सत्त्वजाः ॥
॥ [ ८ ] १६१ ॥ '' इत्युक्तपरिगणनम् । न तु संख्यानियमो ऽन्येषामपि सम्भवात् । सत्त्वं विपुलाशयत्वम् ॥ [८] १६१ ॥
श्रथैषां प्रत्येकशो लक्षणम् -
मागे प्रबन्धकाव्योंमें नीच प्रकृतिवाले नायकों [के हो सकने] का भी प्रतिपादन
करते हैं
[ का० १६०, सू० २३८-४०
[ सूत्र २३८ ] - कथाके अनुसार कहीं नोच भी नायक हो सकता है ।
कथा प्रर्थात् प्राख्यान वस्तु । उसके वशसे अर्थात् सामर्थ्य से अर्थात् हसनीयत्व प्रादि
की दृष्टिसे । इसलिए 'भारत' और 'प्रहसन' में तथा किसी 'वीथी' में नीच भी नायक हो सकता
है। प्रथम विवेकमें [ केवल ] मध्यम तथा उत्तमके नायकत्वका कथन किया था यह उसका पवाद है ।
अब प्रागे समस्त रूपकोंके मुख्य नायकका लक्षरण करते हैं
[ सूत्र २३९ ] – [रूपकके] प्रधान फलको प्राप्त करनेवाला [विषयासक्ति प्रथवा प्राण
こ
हानि रूप विपत्ति ] व्यसनसे रहित मुख्य नायक होता है । [७] १६० ।
व्यसनका अर्थ स्त्री प्रादिके प्रति प्रासक्ति प्रथवा [ प्राणहानि प्रादि रूप ] विपत्ति है [७]१६०॥
[ सूत्र २४० ] - अब इस [मुख्य नायक ] के गुणों को गिनाते हैं
मुख्य नायकमें उनके सत्व से उत्पन्न १. तेज, २. विलास, ३. माधुर्य, ४. शोभा, ५. स्थिरता, ६ . गम्भीरता, ७. उदारता, ८. लालित्य ये आठ गुण रहते हैं । [८] १६१। 'भ्रष्ट' इस पदसे [कारिकामें] कहे हुए [श्राठ गुणों] की गणना बिखलाई है । यह संख्याका नियम नहीं है [ प्रर्थात् प्राठ ही गुण मुख्य नामक में होते हैं यह इस 'अष्टी' पदका अभिप्राय नहीं है । क्योंकि इनके अतिरिक्त ] अन्य गुरग भी नायकमें हो सकते हैं। ['सश्वसम्भवात्' पदमें] 'सत्त्व' शब्द से विपुलाशयत्वका ग्रहण होता है |[८]१६१ ॥ (१) अब आगे इन [ श्राठ गुणों] मेंसे प्रत्येक के अलग-अलग लक्षण
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का० १६१, सू० २४१-४४ ] चतुर्थो विवेकः
[सूत्र २४१]-क्षेपादेरसहिष्ण त्वं तेजः प्रारणात्ययेऽपि च ।
तेपस्तिरस्कारः। आदिशब्दाद् दैन्यावज्ञादिग्रहः । 'प्राणात्ययेऽपि च' इति प्राणात्ययमण्युपगम्येत्यर्थः । तेनासहिष्णुत्वमक्षमा। न तु देशकालावस्थाद्यपेक्षया नीत्या सहनपूर्वकं निर्यातनमिति ।
(२) अथ विलास:[सूत्र २४२]-विलासो वृशवद् यानं धीरा दृक् सस्मितं वचः ।
[९] १६२ ॥ 'वृषो' महोक्षः । धीरत्वमुदात्तत्वमिति ॥ [१] १६२ ॥ (३) अथ माधुर्यम्[सूत्र २४३]-माधुर्यं विकृतिः स्तुत्या क्षोभहेतौ महत्यपि !
प्रस्तुताद् रूपाद् रूपान्तरं 'विकृतिः' । 'स्तुत्या' रोमाष्च-परिकरबन्ध-श्मश्रुकेशसमारचन-शस्त्रावलोकनादिकात् । 'क्षोभः' सत्वचलनमिति ।
(४) अथ शोभा[सूत्र २४४]-शोभा चिह्नघृणा-स्पर्धा-दाक्ष्य-शौर्योद्यमोन्नये ॥
[१०] १६३ ॥ [सूत्र २४१]-प्राणनाशके संकटको स्वीकार करके भी अपमान प्राविको सहन न करना 'तेज' कहलाता है।
'क्षेप' अर्थात् तिरस्कार । प्रादि शब्दसे देन्य प्रौर प्रवज्ञा प्राविका पहरण होता है। 'प्रारणात्ययेऽपि च' इसका अपने प्राणोंके विनाशको भी स्वीकार करके यह अभिप्राय है। इसलिए 'असहिष्णुत्व का अर्थ सहन न करना क्षमा न करना है । वेश, काल, अवस्था मादि को अपेक्षासे उस समय सहन करके बादमें उसका बदला लेना [निर्यातन, असहिष्णुत्व शब्द का प्रथं] नहीं है।
(२) अब विलास [गुरणका लक्षण करते हैं]
[सूत्र २४२]-वृषके समान गति, धीर दृष्टि पोर मुस्कराते हुए बात करना यह 'विलास' गुरणका लक्षण है । [६] १६२ ।
वृष अर्थात सांड । धीरत्वका अर्थ उदातत्व है। [६] १६२ । (३) अब प्रागे माधुर्य [गुरगका लक्षण करते हैं]--
[सूत्र २४३]-क्रोध आनेका महान् कारण उपस्थित होनेपर भी हलकी-सी विकृति माधुर्य [गुरण कहलाती है।
प्रस्तुत वर्तमान रूपसे भिन्न रूपको प्राप्ति 'विकृति' कहलाती है। हलके-से [स्तुत्या अर्थात् ] रोमांच, कमर कसना, मूछोंपर ताव देना और शस्त्रकी पोर देखना मादिसे [हलकीसी विकृतिका प्रकाशन माधुर्थ गुरण कहलाता है] । 'क्षोभ' अर्थात् सत्त्वसे विचलित हो जाना।
(४) अब 'शोभा' [गुणका लक्षण करते हैं]--
[सूत्र २४४]-घृणा, स्पर्धा, दक्षता, शौर्य तथा उद्यमके विद्यमान होनेके अनुमान करनेका चिह्न शोभा [गुण] कहलाता है । [१०] १६३ ॥
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३७४ ]
नाट्यदर्पणम् का० १६३, सू० २४५-४० 'चिह्न' घणादेः सत्तानिश्चयहेतुः शरीरविकारः । 'घृणा' नीचार्थजुगुप्सनम । 'स्पर्द्धा' अधिकेन सह साम्याधिक्याभिलाषः । 'उद्यम' उत्साहः । एषामुन्नयः सत्तानिश्चय इति । [१०] १६३ ।।
(५) अथ स्थैर्यम-- [सूत्र २४५]-विघ्नेऽप्यचलनं स्थैर्य प्रारब्धादशभादपि । ___ 'विघ्नः' प्रत्यूहः । 'अचलनं' दायम् । अशुभमिह परलोकानुचितमिति ॥
(६) अथ गाम्भीर्यम[सूत्र २४६] -नाम्भीर्य सहजा मूतिः कोप-हर्षादिगोपिनी ॥
[११] १६४ ॥ 'सहजा' मुखराग-दृष्टविकारादिरहिता । 'मूर्तिः'देहस्वभावः । 'आदि' शब्दाद भय-शोकादिग्रहः । 'गोपनी प्रच्छादिकेति ।। [११] [१६४ ।।
(७) अथौदार्यम[सूत्र २४७] -प्रौदार्य शत्रु-मित्राणां प्रारिणतेनाप्युपग्रहः ।
बहुवचनान्मध्यस्थानां ग्रहः । 'प्राणित'-शब्देन स्वजीवितव्यस्य दानमुच्यते । 'अपि'-शब्देन दान-प्रियभाषणादिग्रहः । 'उपग्रह उपकार इति ।
"चिह्न' अर्थात् घृणा आदिको विद्यमानताका निश्चायक हेतुभूत शारीरिक विकार । मोच अर्थको निन्दा 'घृणा' है । अधिक गुण वालेको बराबरी करना या उससे अधिक बनने की इच्छा 'स्पा' [कहलाती है । 'उद्यम' का अर्थ उत्साह है। इनका 'उन्नयन' अर्थात् सस। का निश्चय [जिस चिह्नके द्वारा होता है उसको 'शोभा' गुण कहते हैं] ।। [१०] १६३ ॥
(५) अब मागे स्थर्य [गुणका लक्षण करते हैं]--- [सूत्र २४५] —विघ्नोंके उपस्थित होने पर भी प्रौर अशुभ प्रारब्धसे भी अपने निश्चयको न छोड़ना स्थैर्य कहलाता है ।
'विघ्न' अर्थात् प्रत्यूह बाधा । 'प्रचलन' अर्थात् दृढ़ रहना । 'प्रशुभ' का अर्थ यहाँ परलोकके अयोग्य [कर्म मादि] है।
(६) अब आगे गम्भीर्य [गुरणका लक्षण करते हैं]
[सूत्र २४६]-क्रोध और हर्ष प्रादिको प्रकट न होने देनेवाली स्वाभाविक देह-स्थिति का नाम गाम्भीर्य है । [११] १६४ ॥
___ सहजा अर्थात् [क्रोधादिके मानेपर भी] मुखको लालिमा और दृष्टिके विकार प्रादि से रहित । 'भूति' अर्थात् बेहका स्वभाव । 'प्रादि' शब्दसे [कोप और हर्षके साथ] भयशोकादिका भी ग्रहण होता है। 'गोपनी' अर्थात् प्राच्छादन करने वाली [प्रकट न होने देने बासी] ॥ [११] १६४ ॥
(७) अब प्रागे औदार्य [गुरणका लक्षण करते हैं]
[सूत्र २४७]-अपने प्राण देकर भी शत्रु या मित्रका उपकार करना 'पौवार्य' लाता है।
बहुवचनमे [शत्रु और मित्रों के साथ] मध्यस्थोंका भी पहरण होता है। 'प्राणित'
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का० १६५, सू० २४०-५० ] चतुर्थो विवेकः
[ ३७५ () अथ ललितम[सूत्र २४८]-शृङ्गारिचेष्टा ललितं निविकाराः स्वभावजाः ॥
[१२] १६५ ॥ 'शृङ्गारिण्यः' शृङ्गारनिताः। चेष्टाःतिर्यगवलोकन-वक्रोक्तिभाषण-शरीरमंकारादिकाः । निविकाराः' गहारहिताः । 'म्वभावजाः' अबुद्धिपूर्वका इति ।[१२] १६५।।
अथ मुख्य नेतारमुक्त्वा गौणमाह[सूत्र २४६]-अमुख्यो नायकः किश्चिदूनवृत्तोऽग्रयनायकात् ।
'अमुख्यत्वं' प्रधानकलापेक्षयाऽवान्तरफलभाजनत्वात । 'नायकत्वं' वहुतरवृत्तव्यापकत्वान मुख्यनेतृसहायभूतत्वाच्च । किश्चिदृनं. म्वल्पन्युनं वृनं शार्य-त्यागबुद्ध चादिकं यम्य । अयं च पताकाप्रकरीम्पो नायको दपत्र्य इति ॥
अथ प्रतिनायकमाह - [सूत्र २५०] -लोभी धीरोद्धतः पापो, व्यसनी प्रतिनायकः ॥
[१३] १६६ ॥ मुख्यनायकम्य प्रतिपन्थी नायकः 'प्रनिनायकः' । यथा राम-यधिष्ठिग्यो • गवण-दुर्योधनौ इति ।। [१३] १६६॥ मनसे अपने जीवनको दे डालनेका अभिप्राय है । 'अपि' शम्बसे दान और प्रियभाषण प्रावि का प्रहरण होता है । 'उपग्रह' अर्थात् उपकार ।।
(८) प्रब ललित [गणका लक्षण प्रागे करते हैं। ----
[सूत्र २४८] - [निन्दित] विकारोंसे रहित स्वाभाविक शृंगार-वेटाएँ ललित कहलाती हैं। [१२] १६५ ।
'शृंगारिणी' अर्थात् शृंगारसे उत्पन्न होने वाली। 'चेष्टा' अर्थात् तिरछी नसरसे देखना, वक्रोक्तियोंसे भाषण, तथा शरीरको सजाना प्रादि । 'निविकार' अर्थात् प्रसुन्दरतासे रहित । 'स्वभावजा' प्रोत् बिना सोच कर को हुई ।। [१२] १६५ ।।
मुख्य नायकका वर्णन करने के बाद अब मागे गौरण नायकको कहते हैं---
[सूत्र २४६ }-मुख्य नायककी अपेक्षा कुछ कम वृत्त [कम कथाभाग] वाला अमुल्प नायक कहलाता है।
प्रधान फलको अपेक्षा प्रवान्तर प्रमुख्य फलका पात्र होनेसे इसको 'अमुल्य' कहा गया है। और बहुत बड़े कथाभागमें व्यापक होने तथा नायकके सहायक रूपमें होनेसे उसका 'नायकत्व' होता है। जिसका वृत्त प्रर्थात् शौर्य त्याग और बुद्धि प्रादिका मुख्य नायककी प्रपेक्षा] 'किचिदूनम्' अर्थात् कम है। और यह [प्रमुख्य नायक कारिका २६ तथा ३२ में प्रथम विवेकमें कहे हुए] 'पताका' तथा 'प्रकरी' नायक समझने चाहिए।
अब प्रागे प्रतिनायकका लक्षण करते हैं[सूत्र २५०] -प्रतिनायक लोभी, धीरोद्धत, पापी पोर व्यसनी होता है। [१३] १६६ ।
मुख्य नायकका विरोधी नायक 'प्रतिनायक' कहलाता है। जैसे राम और पुधिष्ठिरके विरोषी राबरण और दुर्योधन मादि ।। [१३] १६६ ॥
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३७६ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १६६, सू० २५१-५२ अथ विदूषकादीनां प्रकृति केषाशिल्लक्षणं चाह[सूत्र २५१]-नीचा विदूषक-क्लीब-शकार-विट-किङ्कराः । हास्यायाद्यो नृपे श्यालः शकारस्त्वेकविद् विटः ॥
. [१४]. १६७ ।। 'क्लीबो' नपुंसकः । एषां नीचत्वं नैसर्गिकम् । स्वामिचित्तानुरोधादोपाधिक तु मध्यमत्वमपि । तत्राद्यो विदूषको हास्यनिमित्तं भवति । हास्यं चास्य अंग-नेपथ्य-बचोविकारात् त्रेधा। तत्रांगहास्यं खलति-खञ्ज-दन्तुर-विकृताननत्वादिना। नेपथ्यहास्यमत्यायताम्बरत्वोल्लोकित-विलोकित-गमनादिना। वचोहास्यमसम्बद्धानर्थकाश्लीलभाषणादिना भवति । 'नृपे' नृपस्य सम्बन्धी 'श्यालः' पत्नीभ्राता । नीचत्वादेव चायं हीनजातिः । 'हास्याय' इति अत्रापि सम्बन्धान्न सर्वो राजपुत्रादिनपश्यालः शकार', किन्तर्हि विकृतहाम्यहेतुः परिचारक एव । एक राजोपयोगि किश्चिद गीतादिषु मध्ये वेत्ति इति एकविद्, विटो ज्ञेय इति ।। [१४] १६७ ॥
____ अथ धीरोद्धतादीनां नेतृ णां प्रत्येक विभिन्नान् विदूषकानाह[सूत्र २५२]-स्निग्धा धीरोद्धतादीनां ययौचित्यं वियोगिनाम् । लिंगी द्विजो राजजीवी शिष्यश्चैते विदूषकाः ॥
[१५] १६८ ॥ अब प्रागे विदूषक प्राविको प्रकृति और उनमेंसे किन्हींके लक्षण कहते हैं
[सूत्र १६६]-विदूषक नपुंसक शकार विट और भृत्य प्रादि नीच [पात्र होते हैं] उनमेंसे पहला [अर्थात् विदूषक] हास्यके [उत्पन्न करने] केलिए होता है। राजाका [नीच जातीय] साला 'शकार' कहलाता है। [राजाके उपयोगी नृत्य गीतादि] किसी एक बातको जानने वाला 'विट' कहलाता है। [१४] १६७। ।
___ 'क्लीब' अर्थात् नपुसक। इनका नीचत्व स्वाभाविक होता है। किन्तु स्वामीके चित्तके अनुसार औपाधिक रूपसे मध्यमत्व भी हो सकता है। उनमेंसे पहला अर्थात् विदूषक [सबके लिए हास्यजनक होता है । इसका हास्य (१) अंम, (२) वेष-भूषा तथा (३) वचनोंसे | उत्पन्न] तीन प्रकारका होता है। जैसे गंजापन, लंगड़ापन, बाहर निकलते हुए या ऊपर बैठे हुए दांतों और विकृत मुख प्रादिसे प्रङ्ग-हास्य होता हैं । अत्यन्त लम्बे-चौड़े अस्त्रोंसे ऊपर ताकने, इधर-उधर देखने और गमन प्रादिके द्वारा नेपथ्यहास्य होता है। और असंबद्ध अनर्थक तथा अलील भाषण प्रादिके द्वारा वचन-मूलक हास्य उत्पन्न होता है । 'नृपे' अर्थात् राजाका सम्बन्धी । 'श्याल' अर्थात् पत्नीका भाई । नीच [पात्रोंमें परिगणित] होनेके कारण ही वह नीच जातिका होता है। 'हस्याय' इस पदका यहाँ [श्यालके साथ भी संबंध होनेसे राजाके राजपुत्र प्रादि (उत्तमजातीय सारे साले 'शकार' नहीं होते हैं अपितु विकृति हास्यके कारणभूत [नीचजातीय] परिचारक [ रूपसाला ] ही ['शकार' कहलाता है । विटके लक्षण में पाए हुए 'एकवित्' पदका अर्थ करते हैं] गीतादिमेंसे राजाके उपयोगी किसी एक को जानता है इसलिए 'एकवित्' विट कहलाता है ।। [१४ | १६७ ॥
अब प्रागे धीरोद्धत मादि नायकों से प्रत्येकके अलग-अलग विदूषकों [के लक्षणोंको
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का० १६७, सू० २५२-५३ ] चतुर्यों विवेकः
[ ३७७ स्निग्धाः' सुहृदः । 'आदि' शब्दाद् धीरोदात्त-धीरललित-धीरप्रशान्ता गृहान्ते। एपां 'वियोगिनां' विप्रलम्भशृङ्गारवतां औचित्यानतिक्रमेण लिंग्यादयो यथासंभवं सन्धि विग्रहेण, विग्रह सन्धिना च विशेषेण दूषयन्ति विनाशयन्ति, विप्रलम्भ तु विनोददानेन विस्मारयन्ति इति 'विदूषकाः'। उचितश्च लिंगी देवताना, ब्राह्मणस्य शिष्यः, राज्ञां तु शिष्यवर्जास्त्रयः । एवं वणिगादेरपीति ।। [१५] १६८ ॥
अथेपामेव धीरोद्धतादीनां सहायानाह[सूत्र २५३]-युवराज-चमूनाथ-पुरोधः-सचिवादयः।
__ सहाया एतदायत्तकव ललितः पुनः ॥[१६] १६६॥ __ 'आदि' शब्दादाटविक-सामन्तादयस्तापसादयश्च गृह्यन्ते । एते च केचिदर्थकामयोः सहायाः। केचिद् धर्मसहायाः। तथा सहायायत्तसिद्धिरेव धीरललितः । सहायत्र्यापारश्च नायकत्र्यापार एव, एतावद पत्वान्नायकस्य । धीरोद्धतादयस्तु स्वअन्य-उभयसिद्धयः इति । [१६] १६६॥
कहते हैं
-
[सत्र २५२ }-धीरोद्धत आदि नायकोंके (स्निग्धाः अर्थात् मित्र और वियोगियों के प्रौचित्यके अनुसार लिगो [अर्थात् ब्रह्मचारी या सन्यासी प्रावि बाह्मण राजजीवी तथा शिष्य पावि विदूषक होते हैं। [१५] १६८ ।।
स्निग्ध' अर्थात् मित्र । [धीरोद्धत पदके साथ जुड़े हुए] 'मादि' शबसे धोरीवास, पीरललित तथा धीरप्रशांत नायकोंका भी ग्रहण होता है। इनके 'वियोगी' प्रति विप्रलमभंगारयुक्त होनेपर यथासम्भव लिंगो प्रादि [विदूषक] औचित्य के अनुसार होते हैं। पाने विदूषक शब्दका निबंचन दिखलाते हैं] सन्धिको विग्रहोत्पादनके द्वारा तथा विग्रहको सम्बि. अनन द्वारा विशेष रूपसे दूषित अर्थात् विनष्ट करते हैं और विप्रलम्भको मनोरंजन प्रवाम करनेके द्वारा विनष्ट करते हैं इसलिए 'विदूषक कहलाते हैं। देवतामोंके लिए [लिगी अर्थात्] बलबारी [या संन्यासो], ब्राह्मणके लिए शिष्य, प्रौर राजाके लिए शिष्यको छोड़कर शेष तीनों विद्यक उचित हैं । इसी प्रकार वणिग् प्रादि भी [प्रौचित्यानुसार विदूषक समझ लेने चाहिए ॥ [१६] १६८ ॥
प्रब मागे किन्हीं धीरोदत मादि [नायकों] के सहायकोंका वर्णन करते हैं
[सूत्र २५३] --युवराज, सेनापति, पुरोहित और सचिव मादि [इन धोरोक्त मादि नायकोंके सहायक होते हैं । और धोरललित [नायक] तो इन [सहायकों के प्रायत्त-सिद्धि वाला ही होता है । [अर्थात् स्वयं कार्य नहीं करता है। सहायकोंके द्वारा ही धोरललित नायकके सारे कार्योका सम्पादन होता है । [१७] १६६।
_ 'प्रादि' शम्से वनाध्यक्ष [प्राविक] तथा सामन्त और तापस प्राविका ग्रहण होता है। इसमेंसे कुछ अर्थ तया काम [को सिति] में सहायक होते हैं । कुछ धर्म [को सिडि] में सहायक होते हैं और धीरललित [नायक] सहायायत्तसिद्धि ही होता है । सहायकोंका व्यापार नायकका ही व्यापार माना जाता है। क्योंकि [धीरललित] नायक इसी सहायायतसिवि के रूपमें होता है। महायायत्तसिद्धि धोरललित नायकको छोड़कर] धीरोद्धत प्रावि शेिष तीन प्रकारके नायक] तो (१) स्वायत्तसिडि, (२) अन्यायत्तसिद्धि और (३) उभयायतसिद्धि
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३७८ ]
नाट्यदपणम [ का० १७०, सू० २५२-५३ अथ शुद्धान्तोचित परिवारमाह[सू० २५४]-शुद्धान्ते कारुको द्वाःस्थः कंचुकी शुभकर्मरिण ।
वर्षवरस्तु रक्षायां, निर्मुण्डः प्रेषणे स्त्रियाः ॥ कार्याख्याने प्रतीहारी, रक्षा-स्वस्त्योर्महत्तरा । पूर्वतिविधौ वृद्धा, चित्रादौ शिल्पकारिका ॥
. [१७] १७० ॥ [१८] १७१ ।। शुद्धान्तमन्तःपुरं, तस्मिन्नाचारवान आर्यो हीनसत्वः पुमान 'कारकः' । स द्वारपालो दक्षो नपुंसकः । 'कंचुकी' अदृष्यजातिः स्त्रीग्वभावः । तुन्छसत्वो विनीतश्च 'वर्षवरः'। अतिनिःसत्त्वोऽकर्म करश्च निमुण्डः' । स च न्त्रीणां दास्यादीनां प्रेपणकारकः । 'रक्षा' भूत्यादिकर्म । 'स्वस्ति'मङ्गलवाचनम । 'चित्र' पत्र-वल्लयादि । 'आदि'शब्दाद् गन्ध-पुष्प-शिल्प-शय्या आसन-च्छत्र-मण्डन संवाहन-श्राक्रीड व्यज नादिग्रह इति ॥ [१७-१८) १७.१.५ ॥
अथ नायिका लक्षयति---- [सू० २५५] -नायिका कुलजा दिव्या क्षत्रिया पण्यकामिनी । अन्तिमा ललितोदात्ता पूर्वोदात्ता त्रिधा परे ॥
[१६] १७२॥ तीन प्रकारके होते हैं ।।१७] १६६ ।।.
प्रत्र मागे अंतःपुरके उपयोगी परिचारक-या का वर्णन करते हैं--- , सूत्र २५४] --अन्तःपुर में (१) कारुक, द्वारपास, कंचुकी शुभकाममें, (२) रक्षामें वर्षवर, (३) स्त्रियोंके प्रेषण प्रादिमें निर्मुण्ड, ये कार्यकर्ता होते हैं पुरुष । [१७] १७० ।
___ कार्यको सूचना देने में प्रतीहारी. भभूत आदि देने और स्वस्तिवाचनमें मेहतरानी, पूर्व-परम्परा विधिके पालनमें वृद्धा और चित्रादि रचनामें शिल्पकारिका | ये स्त्रिया कार्यकत्रों होती हैं। [१६] १७१॥
शुद्धान्तका अर्थ अन्तःपुर है। उसमे सदाचारी, श्रेष्ठ और पौरुषहीन पुरुष 'कारुक' [विशेष कार्यकता होना चाहिए। द्वारगाल चतुर नमक होना चाहिए। उतम जाति का और स्त्रीस्वभाव वाला [पुरुष कबुको होना चाहिए। न्यून पौरुष वाला और विनीत (पुरुष वर्षवर [अन्त पुर-रक्षक होना चाहिए। अत्यन्त पौरुषहीन और अकर्मण्य निमण्ड | होता है। वह दासी. प्राधि स्त्रियों को इधर-उधर भेजनेवाला होता है। [कारिकाके रक्षास्वस्त्योमहत्तरा भाग में प्रयुक्त 'रक्षा' पद भभूत प्रादि देने के प्रथमें प्रयुक्त है। स्वस्ति अर्थात् मंगल वाचन । चित्र अर्थात् पत्रवल्ली प्रादि | को रचना । प्रादि शब्दसे गन्ध-पुष्प, शिल्पशय्या-मासन-छत्र, मण्डन संवाहन, खिलौना और पंखे प्रादिका प्रहरप होता है ।। १७०-१७१ ॥
प्रब मागे नायिकाके लक्षणको कहते हैं ...
सूत्र २५५] कुलजा दिव्या क्षत्रिया और वेश्या [चार प्रकारको नायिका होती है। उनमेंसे अन्तिम प्रर्थात् वेश्या नायिका ललितोदात्त हो] होती है । और पहली [अर्थात्
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का० १७२, सू० २५६ }
चतुर्थी विवेकः
३७६
'कुलजा' विप्र-वणिगादिकुलसम्भूता । 'प्रतिमा' इति पण्यकामिनी ललितोदात्ता रूपकेषु वर्णनीया कामार्थप्रधानत्वात् । 'पूर्वा' कुलजा पुनरुदात्ता, नय-विनयगुरुभीत्यादिबहुलत्वान । 'परे' द्वाभ्यामन्ये । त्रिधा धैर्य - लालित्य - उदात्तत्वेन त्रिप्रकारे । दिव्योत्तमजातित्वाभ्यां कामार्थनिष्ठत्वाच्च । शान्तत्वप्रकारस्तु भोगभूमिजत्वेन दिव्यानां दिव्यामाहाचर्येणोपात्तत्वाच्च क्षत्रियाणां नैव गृह्यते इति ।। [१६] १७२ ।। अथासां विशेषमाह -
[ सूत्र २५६ ] - रागिण्येवाप्रहसने नृपे दिव्ये च न प्रभौ । गणिका क्वापि दिव्या तु भवेदेषा महीभुजः ॥
[२०] १७३ ॥
प्रहसनवर्जिते रूपके गणिका नायिका रागिण्येय विधेया । यथा मृच्छकटिकायां चारुदत्तस्य वसन्तसेना । प्रहसने तु हाम्यनिमित्तं अरक्तापि । नृप-दिव्यनायकयोश्च गणिका न नायिका निबन्धनीया । एपा गरिएका यदि दिव्या भवति, तदा राज्ञः 'क्वापि' इति, वृत्तानुरोधान्नायिकात्वेन भवति । यथोर्वशी पुरूरवसः । 'नृपे दिव्ये च न प्रभौ' इत्यस्यापवादोऽयमिति ।। [२०] १७३ ॥
कुलजा नायिका ] उदात्त होती है। शेष दोनों दिव्या और क्षत्रिया [धीरा, ललिता और उदासा] तीन प्रकारकी होती हैं । [१६] १७२ ।
कुलजा अर्थात् ब्राह्मण या वणिक् प्रादिके कुलमें उत्पन्न हुई । [ क्षत्रिया नायिका अलग गिनाई है इसलिए कुलजाको व्याख्या में क्षत्रियाका प्रहरण न करके ब्राह्मण या वंश्य कुलोपनाका ही वर्णन किया है ] । प्रतिमा अर्थात् [पण्यकामिनी] वेश्या नायिका रूपकों में ललितोदात्ता ही वर्णन करनी चाहिए। पूर्वा प्रर्थात् पहिली कुलजा नायिका नीति विनय और गुरुप्र [ माता पिता श्रादि] से भयसे युक्त होनेके कारण उदात्ता ही [वर्णनीय होती है ] 'परे' अर्थात् [ वेश्या तथा कुलजा ] इन दोनोंसे भिन्न [दिव्या तथा क्षत्रिया रूप] शेष दोनों [ प्रकारकी नायिकाएँ| धीरा, ललिता तथा उदात्ता रूप होनेसे तीन प्रकारकी होती है। दिव्य तथा उत्तम जातिवाली होनेसे और काम तथा प्रर्थनिष्ठ होनेसे [दिव्य तथा क्षत्रिया नायिकाएँ धीरा, ललिता तथा उदाता ] तीन प्रकारको होती है। दिव्य नायिकाओंके भोगभूमिमें उत्पन्न होनेके कारण और क्षत्रिया नायिकाद्योंके दिव्योंके साहचयंसे प्राप्त होनेके कारण धीरशान्त वाला चौथे प्रकारका नहीं लिया जाता है। [अर्थात् धीर प्रशान्त नायकके समान धीरशान्त नायिका वर्णनीय नहीं होती है] ।। [१६] १७२ ।।
[सूत्र २५६] अब इन [नायिकाओं] के विशेष भेदको कहते हैं-
प्रहसन से भिन्न रूपकोंमें गणिका नायिका अनुरागिणी हो निबद्ध करनी चाहिए । [प्रहसन में अनुराग रहित गणिका नायिका भी हो सकती है]। राजा और दिव्य नायकोंके साथ गणिका नायिकाका वर्णन नहीं करना चाहिए। कहीं-कहीं यह गणिका नायिका यदि दिव्य हो तो उसका राजाके साथ सम्बन्ध वर्णन हो सकता है । [२०] १७३ ।
प्रहसन से भिन्न रूपोंमें गणिका नायिका अनुरागिणी ही दिखलानी चाहिए। जैसे मृच्छकटिक में चावलको वसन्तसेना [ अनुरागिणी नायिका है ] । प्रहसन में तो हास्य [जनन]
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३८० ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० १७४, सू० २५७-५६
अथासां त्रैविध्यमाह -
[ सूत्र २५७ ] - मुग्धा मध्या प्रगल्मेति त्रिविधाः स्युरिमाः पुनः ।
इमाः कुलजादय इति ।
अथ मुग्धा
[ सत्र २५८ ] - मुग्धा वामा रते स्वत्वमाना रोहद्वयः - स्मरा ॥
[२१] १७४ ॥ रतं सुरतं; तत्र विपरीता अनभिज्ञत्वात् । अत एवेपदीर्ष्या-कोपा। रोहत प्रवर्ध - मानं वयो यौवनं स्मरश्च यस्या इति ।। [२४] १७४ ॥
अथ मध्या
[ सूत्र २५६ ] - मध्या मध्यवयः -काम-माना मूर्छान्तमोहना ।
मध्या अनधिरूढप्रौढवयःयः -काम-माना यस्याः । मूर्द्धान्तं श्रचैतन्यपर्यवसायि मोहन सुरतं किंचिदभिज्ञत्वादस्याः । एषा च धीरा अधीरा धीराधीरा चेति त्रिधा । तत्र धीरा कृतागसि प्रिये सोत्प्रासवक्रोक्तिपरा । अधीरा साश्रुपरुषभाषिणी । धीराधीरा सात्मासं परुषवक्रोक्तिव । दिनीति ।
1
कारण अनुरागहीन [गणिका नायिका ] भी हो सकती है। राजा और दिव्य नायकों के साथ गणिका नायिकाका वर्णन नहीं करना चाहिए। किन्तु यह गणिका यदि दिव्य हो तो 'क्वापि' इस कथन से कथावस्तुके अनुरोधसे कभी राजाको नायिका भी हो सकती हैं। जैसे उर्वशी पुरूरवाकी [नायिका है] । 'नृपे दिव्ये च न प्रभों' राजा और दिव्य नायकके साथ गणिकाका वर्णन नहीं करना चाहिए' इस [पूर्वोक्त नियम] का यह अपवाद है जिसमें विक्रय गमिकाको राजाकी नायिका रूपमें वर्णन करनेकी अनुमति दी गई है] ।। [२०] १७३६
इन [नायिकानों ] के तीन भेद बतलाते हैं
[सूत्र २५७ ] [ कुलजा दिव्या क्षत्रिया और गरिका ] ये [ चारों नायिकाएँ] फिर मुग्धा मध्या और प्रगल्भा [भेवसे] तीन प्रकारकी होती है ।
ये अर्थात् कुलजा आदि [चारों नायिकाएं इनमें से प्रत्येक के तीन-तीन भेद होते हैं : कुल मिलाकर बारह भेद हो जाते हैं ] ।
We मुग्धा [नायिकाका लक्षरग करते हैं।
[ सूत्र २५८ ] -- ' योवन और कामके उठावपर स्थित' स्वल्प मान वाली तथा सुरतव्यापार में प्रतिकूल नायिका 'मुग्धा' नायिका कहलाती है | २१] १७४
अब आगे मध्या [ नायिकाका लक्षरण करते हैं ]
[ सूत्र २५६ ] - मध्यम प्रायु, मध्यम काम और मध्यम मान वाली तथा सुरतकाल में [श्रानन्दातिरेक से ] मूर्छा पर्यन्त पहुँच जानेवाली मध्या नायिका होती है ।
मध्यम अर्थात् प्रप्रौढ, जिसकी आयु, काम तथा मान [ अप्रौढ ] होते हैं [ वह मध्या नामिका कहलाती है ] मूर्छान्त प्रर्थात् प्रचैतन्य पर्यन्त जिसका 'मोहन' अर्थात् सूत-व्यापार होता है ! क्योंकि वह [सुरतानन्दसे] कुछ परिचित हो चुकी है । और यह धीरा प्रधीरा तथा धीराधीरा भेदसे तीन प्रकारकी होती | उनमें से प्रियके (प्रन्यस्त्री-सम्बन्धरूप] अपराध-युक्त
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का० १७५, सू० २६०-६२ ] चतुर्थो विवेकः
[ ३१ अथ प्रगल्भा[सूत्र २६०] -प्रगल्भेद्धवयो-मन्यु-कामा स्पर्शेऽप्यचेतना ॥
[२२] १७५ ॥ इद्धा दीप्ता वयो-मन्यु-कामा यस्याः । प्रियेण स्पृष्टापि प्रकृष्टकामत्वादेषा चैतन्य मुचति । एषापि मध्यावत् त्रिप्रकारा। तत्र धीरा कृतागसि प्रिये सावहित्थादरा कृतौदासीन्या च रते। अधीरा सन्तर्जन-ताडनपरा। घोराधीरा सोत्पासवक्रोक्तिपरेति ॥ [२२] १७५ ।।
अथ प्रकारान्तरेण नायिकानां प्रसिद्धान भेदानाह[सत्र २६१]-कार्यतः प्रोषिते पत्यावभषा प्रोषितप्रिया ।
कार्य धनार्जन-राजप्रयोजनादि, तस्माद् देशान्तरं गते प्रिये, अभूषा केशसम्मार्जनादिभूषारहितेति ।
अथ विप्रलब्धा[सूत्र २६२]-विप्रलब्धा ससंकेते प्रेष्य दूतीमनागते ॥ [२३] १७६ ॥ होनेपर व्यंग्यपूर्ण ताने देने वाली होती है। अधीरा रोते हुए कठोर वचन कहने वाली होती है। और पीराधीरा रोते हुए व्यंग्य और कठोर ताने सुनाती है। ..
अब भागे प्रगल्भा [नायिकाका लक्षण करते है]___ [सूत्र २६.] -पूर्ण रूपसे दोस मापु, काम तवा मान बाली और प्रियके] स्व. मात्रसे [मानन्दातिरेक से ] मछित हो जाने वाली [नाविका प्रगलमा नायिका कहलाती है। [२२] १७५ । ।
इस अर्यात होप्त प्रायु, मान तथा काम जिसके हैं वह [इडवयो-मन्यु-काम हुई । अत्यन्त उप काम-वासनासे युक्त होनेके कारण यह [प्रगल्भा नायिका प्रियतमके स्पर्शमात्रसे भी होश-हनास भूल जाती है। यह भी मध्याकी तरह [पीरा-मीरा और धीराधीरा भेबसे] तीन प्रकारको होती है। उनमेंसे धीरा प्रियके अपराधी होनेपर अपने प्राकारको छिपाते हुए [प्रियके प्रति] पादर प्रदर्शित करती है, किन्तु सुरत-व्यापारमें, उदासीन हो जाती है।. प्रषोरा [प्रियको] डोट-फटकार करती और मार तक लगाती है। धीराधीरा व्यंग्यपूर्ण ताने सुनाती है [२२] ॥ १७५॥
अब मागे नायिकाओंके अन्य प्रकारसे प्रसिद्ध मेवोंको कहते हैं
[सूत्र २६१]-कार्यवश प्रियके बाहर चले जानेपर शरीरकी सजावट न करनेवाली प्रोषितपतिका नायिका कहलाती है। __ कार्य अर्थात् धनोपार्जन अथवा राजाका प्रयोजन प्रादि, उसके कारण प्रियके देशांतर को चले आनेपर भूषारहित प्रर्यात केशप्रसाधन प्रादि रूप भूषासे रहित [नायिका 'प्रोषित्पतिका' कहलाती है ।
प्राय मागे विपलब्धा [नायिकाका लक्षण करते हैं
[सूत्र २६२]- [नायिकाके साथ मिलनेको संकेत करके और दूतीको भेज - भी [प्रियके] म मानेपर [नायिका] 'विप्रतम्धा-नायिका' कहलाती है । [२३] १७६ ॥
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३८२ ]
नाट्यदर्पणम [ का० १७७, सू० २६३-६५
पत्याविति सर्वेषु स्त्रो भेदेषु स्मरणीयम् । तेन कार्यतः कृतसंकेतं दूतीं वा प्रेयानागते पत्यौ 'विप्रलब्धा' इति सम्बन्धः || [२३] १७६ ॥
अथ खण्डिता
[ सूत्र २६३ ] - खण्डिता खण्डयत्यन्यासक्त्या वासकमीयिता । अपरत्र्यभिष्वंगादुचितं वासकर्म कुर्वाणे प्रिये श्रसूयावती खण्डिता । विप्रलब्धायां नान्यत्र्यासक्तिरित्यस्या भेदः इति ।
अथ कलहान्तरिता
[ सूत्र २६४ ] - ईर्ष्याकलह निष्क्रान्ते कलहान्तरितातिभाक् ॥
[२४] १७७ ॥
ईर्ष्याकलहेन तत्समीपान्निष्कान्ते तत्सविधमनागच्छति प्रिये पीडावती कलहान्तरितेति । अत्रेय या कलहपूर्वकं परस्परमसंयोगाभिलाषः । पूर्वत्र तु नायिका समागमार्थिनी कलहाभावात्, किन्तु अन्यासंगिनि प्रिये ईर्ष्यामात्रवतीति विशेष इति ।। [२४] १७७ ।।
अथ विरहोत्कण्ठिता
[ सूत्र २६५ ] – विलम्बयत्यदोषेऽपि विरहोत्कण्ठितोत्सुका ।
'पत्य' यह पद सब स्त्रियों [अर्थात् सब नायिकाओं ] के साथ समझ लेना चाहिए । इसलिए कार्यवश मिलनेका संकेत करके और दूतोंको भेज करके भी कार्यवश पतिके न था सकनेपर विप्रलब्धा नायिका होती है यह संबन्ध है || [२३] १७६ ॥
अब प्रागे खण्डिता [नायिकाका लक्षण करते हैं ] -
[ सूत्र २६३ ] - खण्डिता नायिका [पतिकी ] अन्य स्त्रीके प्रति प्रासक्तिके कारण ईर्ष्यायुक्त होकर [ अन्य स्त्रीके पास जाते समय उसके] वस्त्रों को खण्डित कर देती है । अन्य स्त्रीके प्रति प्रासक्तिके कारण सुन्दर वस्त्र श्रादिको धारण करते समय पतिके प्रति प्रसूयावती नायिका 'खण्डिता' कहलाती है। विप्रलब्धा नायिका ] में [ उसके पतिमें दूसरे स्त्रीके प्रति प्रासक्ति नहीं होती है यह [ खण्डिता तथा विप्रलब्धा का ] भेद, है ।
श्रम प्रागे कलहान्तरिता [नायिकाका लक्षण करते हैं ] -
[ सूत्र २६४ ] – ईर्ष्या- कलहके कारण पतिके बाहर चले जानेपर दुःखी होने वाली 'कलहान्तरिता' नायिका कहलाती है । [२४] १७७ ।
for free कारण उस [स्त्री] के पाससे प्रियके निकल जाने और समीपमें न श्राने पर पीडा अनुभव करने वाली नायिका कलहान्तरिता' होता है । इसमें ईर्ष्या के कारण प्रापस में मिलने की इच्छा नहीं होती है । पहिली [ खण्डिता] नायिका तो कलह न होने के कारण समागम के लिए इच्छुक है, किन्तु अन्य के साथ सम्बन्ध रखने वाले प्रिय के विषय में केवल ईर्ष्या वाली है यह भेद है । [२४] १७७ ॥
अब आगे विरहोत्कण्ठिता [ नायिकाका लक्षरण करते हैं ]
[ सूत्र २६५ ] - अपना कोई अपराध न होनेपर भी [ अन्य स्त्रीके प्रति प्रासक्ति के काररण पास श्रानेमें] विलम्ब करनेपर उत्सुका [नायिका ] विरहोत्कति कहलाती है ।
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कॉ० १७८, सु० २६६-६७ ] चतुर्थो विवेकः
३३ अन्यनारीव्यासंगादिना प्रस्तुतस्त्रीकृतापराधाभावेऽपितत्रागन्तकामेऽपि विलम्ब कुर्वाणे पत्यौ नायकोत्सुका सती विरहोत्कण्ठिता। अत्र प्रियागमनमचिराइवश्यम्भावि, परस्परं कलहश्च नास्तीति सर्वाभ्यो भिन्नेयमिति ।
अथ वासकसज्जा[सूत्र २६६] -हृष्टा वासकसज्जात्मान्यलंकृतिपरष्यति ॥
[२५] १७८ ॥ प्रियेण सह राज्यादिवसनं वासकः । तत्रोचिते उद्यमपरा । 'एष्यति' विवक्षितः कालागमनवति प्रिये स्वमण्डनवती नायिका वासकसज्जा । पूर्वासु सर्वासु विप्रलम्भशृङ्गारो ऽत्र तु सम्भोगशृङ्गार इति भेदः । [२५] १७८ ॥
अथ स्वाधीनभत्का[सूत्र २६७] -सुभगम्मानिनी वश्यासन्ने स्वाधीनभर्तृका।
___ सुभगमात्मानं मन्यते या नायिका सा वश्ये आसन्ने च पत्यौ एतदीयरूप. यौवनाद्याक्षिप्तहृदयस्वात् स्वाधीनभर्तृका । आसन्नवर्तिप्रियतमत्वेन पूर्वास्या भिन्नेयमिति ॥
प्रस्तुत स्त्रीका अपराध न होनेपर मी उस [अपनी] स्त्रीके प्रति पानेको इच्छा रखते हुए भी दूसरी स्त्रीके पास होने प्राविके कारण पतिके विलम्ब करनेपर नायफसे मिलनके लिए उत्सुक नायिका 'विरहोत्कण्ठिता नायिका' कहलाती है। उसमें प्रियका प्रागमन शीघ्र ही अवश्य होने वाला प्रौर परस्पर कलह नहीं है इसलिए यह पूर्वको सब नायिकामों से भिन्न है।
अब मागे वासकसमा [नायिकाका लक्षण करते हैं]
[सूत्र २६६]-पतिके प्रानेकी प्राशा होनेपर प्रसन्न होकर अपनेको सजानेमें लगी हुई नायिका 'बासकसजा' कहलाती है। [२५] १७८ ।
रात्रि माविको प्रियके साथ रहना 'वासक' है। उसके योग्य व्यापारमें लगी हुई [पासकसजा कहलाती है] । 'एष्यति' अर्थात् प्रियके विवक्षित कालपर प्रागमन करनेकी माशा होनेपर अपनेको सजाने में लगी हुई नायिका 'वासकसज्जा' कहलाती है। पहले कही हुई [प्रोषित्पतिका से लेकर 'विरहोत्कष्ठिता' तक पांच सब नायिकामोंमें विप्रलम्भ श्रृंगार है। इस [छठी बासकसम्जा] में सम्भोग श्रृंगार है यह इसका अन्य सब नायिकामोंसे भेर है॥ [२५] १७८ ॥
अब मागे स्वाधीनमतका [नायिकाका लक्षण करते हैं]-.
[सूत्र २६७]-[पतिके] अपने वशमें और सदा समीपवर्ती होनेपर अपनेको सुपर समझने वाली नायिका स्वाधीनभत्का' कहलाती है। .
जो नायिका अपनेको सुम्बर समझती है वह पतिके अपने .बा. और समीपवर्ती होनेपर उसके रूप यौवन पारिसे हरायके वशीभूत हो जानेले स्वाधीनमतका कहनाती है। ..प्रियके समीप उपस्थित होनेके भारत यह पिचनी मिर्चात् बालबच्या नापिन
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३८४ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० १७६, सू० २६८-६६
अथाभिसारिका ---
[ सूत्र २६८ ] - सरन्ती सारयन्ती वा रिरंसुरभिसारिका ॥
[२६] १७६॥ सरन्ती स्वयं तस्य पार्श्वे, सारयन्ती वा तं प्रियमात्मसमीपे । रिरंसुः सुरतार्थिनी नायिका अभिसारिका । अत्र नायिकायाः प्रियसन्निधौ गमनमिति भेदः इति || [२६]
१७६ ॥
'अथ स्त्रीणां यौवनस्थान धर्मानाह
[ सूत्र २६६ ] - भावाद्या यौवने स्त्रीरणामलङ्कारास्त्रयोऽङ्गजाः ।
दश स्वाभाविकाश्चैते क्रियारूपास्त्रयोदश ।। [२७] १८० ॥ सति भोगे गुरगाः सप्तायत्नजाश्च स्वभावजाः । नावश्यम्भाविनोऽथैषा, विशतिः स्त्रीषु मुख्यतः ॥ [ २८ ]
१८१ ॥
यौवने उत्तमप्रकृतीनां च, वनितानां च भाव-हावादयोऽलंकाराः कटक-केयूरादिवद् वपुर्विभूषाहेतवः प्रादुर्भवन्ति । बाल्येऽपि किंचिदुन्मीलन्ति । वार्धके तु प्राचुर्ये नश्यन्ति । एते च यौवने स्त्रीणां प्राधान्यतोऽलंकाराः । पुंसां तूत्साहादयो मुख्यतो अब मागे 'अभिसारिका' [नायिकाका लक्षरण करते हैं ] - [ सूत्र २६८ ] -
|- रमण करनेकी इच्छा से स्वयं [प्रियके पास] जाने वाली प्रथवा प्रिय
को अपने पास बुलाने वाली नायिका अभिसारिका कहलाती है । [२६] १७६ ।
'सरन्ती' अर्थात् स्वयं उसके पास जाती हुई प्रथवा 'सारयन्ती' प्रर्थात् उस प्रियको अपने पास बुलाने वाली । रिरंसु अर्थात् सुरताभिलाषिणी नायिका अभिसारिका कहलाती है । इसमें नायिका स्वयं प्रियके पास जाती है [ और स्वाधीनभर्तृकामें प्रिय नायिका के पास उपस्थित रहता है] यह [स्वाधीनभर्तृकासे इसका ] भेद है। [२६] १७६ ॥
aurगे स्त्रियोंके [अर्थात् नायिकानोंके] यौवनमें होने वाले धर्मोको कहते हैं
[ सूत्र २६६ ] - योवनकालमें स्त्रियोंके भाव आदि तीन आंगिक और दस स्वाभा विक प्रलंकार होते हैं। ये तेरहों [ प्रलङ्कार द्रव्य रूप न होकर ] क्रिया रूप होते हैं । [२७] १८० ।
[प्रियका] सम्भोग होनेपर बिना प्रयत्नके उत्पन्न होने वाले सात स्वाभाविक गुण होते हैं जो अवश्यम्भावी नहीं होते हैं। ये बीस [१३+७= २० ] गुण मुख्य रूपसे स्त्रियों में रहते हैं। [२८] १८१ ।
यौवन में उत्तम प्रकृति वाले [पुरुषों] और स्त्रियों में भाव हाव भावि अलङ्कार कटककेयूर प्राविके समान शरीरकी शोभाके जनक उत्पन्न हो जाते है । बाल्यावस्थामें भी कुछकुछ उदित होते हैं, और वृद्धावस्था में अधिकांश प्रायः नष्ट हो जाते हैं। यौवनमें मे स्त्रियोंके मुख्य रूपसे श्रलङ्कार होते हैं। पुरुषोंके तो उत्साहादि मुख्य रूपसे अलङ्कार होते हैं। इसीलिए उद्धतादि नायकोंके साथ धीरत्व विशेषण कहा गया है। पुरुषोंमें भावादि
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का० १८२, सू० २७० 1 चतुर्थो विवेकः
३५. ऽलंकाराः । तेन नायकभेदेषुद्धतादिषु धीरत्वं विशेषणमुक्तम् । भावादयस्तु पुरुषाणां उत्साहाद्याच्छादिता एव भवन्तीति ते गौणाः। भावादीनां च विंशतिसंख्यात्वमत्रोदिष्टभेदापेक्षया, अपरथा यौवने वनितालंकाराणामनन्तसंख्यात्वमेव । तत्र प्रथमे त्रयो अंगाद्, यौवनोद्बोधशालिनः प्रियदृष्टि-वस्त्र-माल्यादिबाह्यनिमित्तरहिताद्गात्रमात्राज्जायन्ते । तेभ्यः परे दश स्वस्माद् रतिलक्षणाद् भावात् प्रियोपभोगानुपभोगयोर्जायन्ते। एते च दश एक-द्वि-त्र्यादिविकल्पेन भावान्नावश्यम्भाविनः । अथांगजाःस्वाभावि: काश्च क्रियारूपाः स्त्रीचेष्टात्मकाः । मिलिताश्च त्रयोदशसंख्याः। ततः परे सप्त यत्नं अन्तःपरिस्पन्दं विना देहधर्मरूपाः पुरुषोपभोगे सति भवन्ति । पूर्वे तु चेष्टात्मकाः । इच्छातो यत्नस्ततो देहचेष्टोति यत्लजा इति ॥ [२७-२८] १८०-१८१॥
(१) अथ भावादीनां प्रत्येकशो लक्षणमाह[सूत्र २७०]-भावो वागादिवशिष्ट यं चिह्न रत्युत्तमत्वयोः ।
वाचां, श्रादिशब्दात् कर-पादादीनां वैशिष्ट यं हृद्यो विकारः अंतर्गतरतिभावस्य पामरनायिकावलक्षण्येन उत्तमप्रकृतित्वस्य च निश्चयहेतुर्भावः। भवति हि तथाभूतं वागादिवैचित्र्यमुपलभ्य बुद्धोऽयमन्तःकामप्रदीपोरया इति, उत्तमप्रकृतिश्च नायिकेयमिति सहृदयस्य निश्चय इति ।। [मलबार] उत्साहादि [पुरषोचित अलङ्कारों से माच्छादित ही होते हैं इसलिए [पुरुषोंने] उनको गौरण कहा गया है। भाव प्राविको बीस संख्या यहाँ गिनाए गए बोस] भावोंकी दृष्टिसे ही है। वैसे तो यौवनमें स्त्रियोंके अलङ्कारों की संख्या अनन्त होती है। उन [बोस मलयारों] मेंसे [भाव-हाव और हेला ये] पहले तीन यौवनोदयसे युक्त शरीरमें प्रियके देखने अथवा वस्त्र-माल्य आदिके बिना बाह्य साधनोंके बिना केवल शरीरमात्रसे उत्पन्न होते हैं [इसीलिए इनको अंगज कहा गया है। और उनसे अगले बस स्वयं अपने रतिरूप भावसे प्रियका उपभोग होने या न होनेपर उत्पन्न होते हैं । ये बस [अलङ्कार कहीं एक, कहीं दो, मा कहीं तीन मावि रूपसे भी उत्पन्न हो सकते हैं । इसलिए वे प्रवश्यम्भावी नहीं होते हैं। पोर अंगज तथा स्वाभाविक सभी अलकार क्रियारूप अर्थात् स्त्रियोंके चेष्टात्मक होते हैं। [जंगल तथा स्वाभाविक दोनों प्रकारके अलङ्कारोंको] मिलाकर तेरह संख्या होती है। उनके बाब सात [अलर] पुरुषका उपभोग हो जाने के बाद [स्त्रियों के भीतर] यत्न अर्थात् भीतरी म्यापारके बिना ही बह धर्मके रूपमें प्रकट होते हैं। पहले तिरह] तो चेष्टात्मक होते हैं। [पर ये सात चेष्टात्मक नहीं अपितु देह धर्मरूप होते हैं यह इनका भेव है]. इच्छासे मन होता है। यरनसे वेह-चेष्टा होती है। इसलिए बिह-चेष्टात्मक पहले तेरह अलवरयस्त [मोर अन्तिम सात अलङ्कार प्रयत्न होते हैं ।। [२७-२८) १८०-१८१ ॥
अब मागे भाव मादिके अलग-अलग सक्षरण करते हैंरति पौर उत्तमत्वको सूचक वाणी आदिको विशेषताको 'भाव' कहते हैं।
[सत्र २७०]-बापीका और प्रादि शब्दसे हाथ-पैर प्राविका शिष्टय प्रति मनोहर विफार, भीतर रहने वाले रति-भावशा मोर पामर नायिकासे भिन्न उत्तम प्रकृतित्य निश्मायक चिह्न, 'भाव' कहलाता है । उस प्रकारके वाणी माविक सिंहको देखकर इसके भीतर काम-प्रदीप प्रज्वलित हो गया है इस प्रकारका और यह नामिका उत्तम
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३८६ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० १८३, सू० २७१-७२ (२) अथ हावः - [सत्र २७१]-नेत्रादिविकृतं हावः सशृङ्गारमसन्ततम् ॥
[२६] १८२ ॥ नेत्रयोः, आदिशब्दाद् भ्र-चिबुक-ग्रीवादेश्च सातिशयो विकारः शृङ्गारोचित उद्भिद्योद्भिद्य विश्रान्तिमत्त्वेनासन्ततो हाव इति ॥ [२६] १८२ ।।
(३) अथ हेला[सूत्र २७२] -तदेव सन्ततं हेला, तारुण्योद्बोधशालिनी ।
• तदेव सातिशयं नेत्रादिविकृतं सन्ततं प्रसरणशीलं सशृङ्गारं समुचितविभावविशेषोपग्रहविरहादनियतविषयं प्रबुद्धरतिभावसमन्वितं हेला । अस्यां च तारुण्यस्य प्रकर्षगमनम् । एते च त्रयोऽङ्गजाः परस्परसमुत्थिता अपि भवन्ति । तथा हि कुमारीशरीरे प्रौढतमकुमारगत-हाव-भाव-हेलादर्शन-श्रवणाभ्यां भावादयोऽनुरूपा विरूपाश्च भवन्ति । किन्तूत्तरानपेक्ष्य एव भावः। हावस्तु भावापेक्षः । हावापेक्षिणी च हेला । पूर्वपूर्वोत्कर्षरूपत्वादनयोरिति । प्रकृतिको है इस प्रकारका निश्चय सहृदयोंको हो जाता है [इसीलिए भावको रति तथा उसमत्वका चिह्न कहा गया है ।
अब प्रागे 'हाव' [का लक्षण करते हैं
[सूत्र २७१]-शृङ्गारयुक्त किन्तु निरन्तर न रहनेवाला नेत्रादिका विकार 'हार' कहलाता है। [२६] १८२॥
दोनों नेत्रोंका, और प्रादि शब्दसे भौंह, ठोडी, गर्दन माविका भूगारके अनुस विशेष प्रकारका [विकार] उठ-उठकर विधांत हो जानेके कारण निरन्तर न विद्यमान रहने वाला विकार 'हाव' कहलाता है ।[२६]१८२॥ - अब आगे 'हेला' [का लक्षण करते हैं]
[सूत्र २७२]-यौवनोत्कर्षपर उदित और निरन्तर रहनेवाला वही निवारिका विशेष प्रकारका विकार] 'हेला' कहलाता है।
शृंगारके अनुरूप और निरन्तर विद्यमान रहनेवाला नेत्र प्रारिका वही विशेष प्रकार का विकार किसी विशेष कारण [विभाव के सम्बन्धके बिना, पनियत-विषय [अर्थात् किसी व्यक्ति-विशेषसे सम्बद्ध न होनेवालाप्रबुद्ध सामान्य रतिभावसे समन्वित [वही नेत्राधि का विशेष प्रकारका विकार] 'हेला' कहलाता है। इस [हेला] में यौवनोदय प्रकर्षको प्राप्त हो जाता है। [भाव, हाव और हेला] ये तीनों प्रांगिक विकार एक-दूसरेसे भी उवित होते हैं। जैसे कि कुमारीके शरीरमें प्रौढतम कुमारके भाव हाव हेलाको देखने या सुननेसे [उस कुमारके प्रति रुचि या प्रचि होनेके कारण] अनुरूप या विरूप भावादि उत्पन्न होते हैं। [ये परस्पर अन्योन्य भावादि होते हैं ] किन्तु इनमेंसे भाव उत्तरवर्ती [हावादि] की अपेक्षा नहीं रखता और हाव [अपने पूर्ववर्ती] भावको अपेक्षा करता है [भावके बिना हाव उत्पन्न नहीं हो सकता है। और हावके बाद उत्पन्न होनेवाली] हेला हावको अपेक्षा करती है हाव
बिना उत्पन्न नहीं होती है] इन [हाव तथा हेला] दोनोंके पूर्ण-पूर्वके उत्कर्ष प होनेछ ।
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का० १८४, सू० २७३-७४ ] चतुर्थो विवेकः
[ ३० अथ स्वभावजेषु प्रथम विभ्रममाह[सूत्र २७३]-रागादिना विपर्यासः क्रियारणामथ विभ्रमः ॥
॥ [३०] १८३ ॥ अथेति आंगिकानन्तर्यार्थः । रागः प्रियतमं प्रत्येव बहुमानः । आदिशब्दान्मदहर्षादिग्रहः । मदो मद्यकृतश्चित्तोल्लासः । हर्षः सौभाग्यगर्वः । अन्यथा वक्तव्येऽन्यथावचनं,हस्तेनादातव्ये पादेनादानं, कटीयोग्यस्य कण्ठे निवेशनं, इत्यादिकश्चेष्टाविपर्यासो विभ्रमः । विशिष्टविभावलाभे रतिप्रकर्षाद् देहविकाराः स्वाभाविकाः। अंगजास्तु विशिष्टविभावमन्तरेणेति विशेषः । [३०]१८३ ॥
अथ विलासः[सूत्र २७४]-विलासः प्रियदृष्ट्यादौ चारुत्वं गात्रकर्मणोः ।
श्रादिशब्दात् सम्भाषणादिग्रहः । चारुत्वं तात्कालिकः सातिशयो विशेषः । कर्मस्थानासन-गमन-निरीक्षणादिचेष्टेति ।
अथ विच्छित्तिः
अर्थात अपने पूर्ववर्ती भावके उत्कर्ष रूप होनेसे हाव, भावकी अपेक्षा करता है और अपने पूर्ववर्ती हाबके उत्कर्ष-रूप होनेसे हेला हावको अपेक्षा करती है ।
[इस प्रकार तीन प्रकारके प्रांगिक धर्मोको कह चुकनेके बाद] अब प्रागे स्वाभाविक [बस धर्मो] मेंसे पहले 'विभ्रम' को कहते हैं
सूत्र २७३]-रागादिके कारण किया उलट-पुलट हो जाना 'विभ्रम' कहलाता है।[३०]१८३॥
___'पथ' इस शम्बका अर्थ प्रांगिक [धर्मोके वर्णन के बाद यह है । राग अर्थात् प्रियतम के प्रति ही अत्यन्त प्रादर । पादि शब्दसे मद, हर्ष प्राविका प्रहण होता है। मद अर्थात् मापानके कारण उत्पन्न चित्तको प्रसन्नता। हर्ष अर्थात् अपने सौभाग्यका गर्व । कुछ पौर कहनेके स्थान पर कुछ और कह जाना, हायसे पकड़ने योग्यको परसे पकड़ना, कमरमें पहिमने योग्यको गलेमें गल सेना [यह सब "क्रियाणां विपर्ययः', 'विभ्रम' कहलाता है। विशिष्ट कारण [विभाव के प्राप्त होनेपर रतिके प्रकर्षसे बेहमें विकार होना स्वाभाविक है [ इसलिए इनको स्वाभाविक धर्म कहा गया है और मांगिक विकार तो विशेष कारपके बिना [शरीरमात्रसे उत्पन्न होते हैं यह [इन दोनों प्रकारके धोका भेव है] [३०]१८३॥
अब मागे 'विलास' [का लक्षरण करते हैं] [सूत्र २७४]-प्रियके वर्शन प्रारिसे शरीर मौर कोंमें विशेष सुकुमारता विलास'
पारि शब्दसे सम्भाषण माविका प्रहम होता है। पात्व अर्थात् उस समय रतन होनेवाला विशेष प्रकारका सौन्दर्य । कर्म अर्थात् खड़ा होना, बैठना, बलमा और सना मावि
प्रमाणे विवित्ति' [का महासे
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नाट्यदर्पणम । का० १८६, सू० २७५-७८. [सूत्र २७५]-वेषाल्पतैव विच्छित्तिः परां शोभा वितन्वती ॥
॥[३१]१८४॥ __ स्वल्पाप्याकल्परचना प्रकृतिसौभाग्यादिगुणयुक्तत्वात् परां शोभा स्त्रियां वितन्वती विच्छित्तिरिति ॥ [३१] १८४॥
अथं लीला[सूत्र २७६]-लीला दयितवागादेः स्वे न्यासो बहुमानतः ।
आदिशब्दाद वेष-व्यापारादिग्रहः । प्रियतमप्रीत्यतिशयेन दयितवागादेः सशृङ्गारं स्वस्मिन् न्यासः सम्यक करण लीलेति ।
__ अथ विश्वोक:[सूत्र २७७]-विव्वोकोऽनादरो मान-ददिष्टेऽपि वस्तुनि ॥
॥ [३२]१८५॥ मानश्चित्तसमुन्नतिः । दर्पः सौभाग्यगर्वः। इष्ट वस्त्रमाल्यालंकारादीति ।
॥ [३२]१८५।। अथ विहृतम्[सूत्र २७८]--विहृतं जल्पकालेऽपि मौनं ह्री-व्याज-मौग्ध्यतः ।
जल्पकालो भाषणस्योचितः समयः । मौनमभाषणम् । व्याजः छद्म । उपलक्षण
सित्र २७५] -अत्यधिक सौन्दर्यको प्रदर्शित करनेवाला स्वल्प वेष-धारण ही विच्छित्ति कहलाती है । [३१]१८४॥
स्त्रियोंके भीतर उनके प्रकृष्ट सौभाग्यादि गुणोंसे युक्त होनेके कारण प्रत्यन्त सौंदर्य को प्रकाशित करनेवाला थोडासा भी वेष-विन्यास 'विच्छित्ति' कहलाती है ॥[३१j१८४॥
अब मागे 'लीला' [का लक्षण करते हैं]
[सूत्र २७६]-प्रियके वचन प्राविको अत्यन्त प्रावरपूर्वक अपने भीतर रखना लीला कहलाती है।
मादि शब्बसे बेष और व्यापार प्रादिका प्रहरण होता है। प्रितमके प्रति अत्यधिक प्रेम होनेके कारण प्रियतमको वाणी माविको श्रृंगाराभिव्यक्तिपूर्वक अपने में लगाना अर्थात यथार्थ बनाना 'लीला' कहलाती है।
प्रव प्रागे 'विश्वोक' [का लक्षण करते हैं]
[सूत्र २७७] -मान अथवा दर्पके कारण इष्ट बस्तुके प्रति भी. मनावर दिखलाना 'विश्लोक' कहलाता है ।[३२]१८५॥
मान अर्थात् चित्तका चढ़ा होना। हर्ष अर्थात् सौभाग्यका गर्व । इष्ट अर्थात वस्त्र माला, अलंकार प्रादि ॥[३२]१८५॥
अब प्रागे विहृत [का लक्षण करते हैं]---
[सूत्र २७८]--लज्जा अथवा किसी बहाने अथवा मुग्धताके कारण बोलने के उचित समयपर भी न बोलना 'विहत' कहलाता है।
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का० १८७, सू०:२७६-८१ ] .चतुर्थो विवेकः
[ ३८५ त्वादनायत्तत्व-बाल्यादयोऽपि गृह्यन्ते । आत्मनो चादिप्रकाशननिमित्तं समयेऽप्यभाषणं विहृतमित्यर्थः।
अथ ललितम[सूत्र २७९]-ललितं गात्रसंचारः सुकुमारो निरर्थकः ॥[३३]१८६॥
गात्रस्य नेत्रहस्तादेः, संचारो व्यापारः। सुकुमारोऽतिमनोहरो, द्रष्टव्यं विना दृष्टिक्षेपो, ग्राह्यमृते हस्तादिव्यातिरित्येवं निष्प्रयोजनो ललितम् । सप्रयोजनस्तु व्यापारो विलास, इत्यनयोर्भेदः इति ॥ [३३] १८६॥ _ अथ कुटुमितम्- - [सूत्र २८०]-कचौष्ठाविग्रहे कोपो मृषा कुटुमितं मुदि ।
आदिशब्दात् स्तन-करादिप्रहः। प्रियतमेन कचादिषु गृह्यमाणाया अन्तःप्रमोदे ऽपि व्यलीककोपकरण कुटुमितमिति ।
अथ मोट्टायितम्[सूत्र २८१]-मोट्टायितं प्रियेक्षादौ रागतो गात्रमोटनम् ॥[३४] १८७॥
प्रियस्य दर्शन-श्रवणानुकरणादिषु सद्भावभावनात्मकरागवशादंगमर्दनपर्यन्त योषितश्चेष्टितमति ॥ [३४] १८७ ॥
___ जल्पकाल प्रर्यात भाषणके उचित समय । मौन अर्थात् चुप रहना। व्याण सर्वात बहामा । इसके उपलक्षण स्प होमेसे परवशता और बाल्य माविका ग्रहण होता है। अपनी लज्जा प्राविके प्रकाशनके लिए बोलने अवसरपर भी न बोलना "बिहत' कहलाता है यह अभिप्राय है।
मागे 'ललित'का [लक्षण करते हैं[सत्र २७६]-व्यर्ष ही मसापतके साथ अंगोंका चलाना 'ललित' कहलाता है।
गात्र अषवा नेत्र और हाप प्रारिका, संचार प्रति संचालन-व्यापार । सुकुमार अर्थात प्रत्यन्त मनोहर । [बसे प्रष्य विषयके न होनेपर भी हरि गड़ाना, पकरने योग्य किसी वस्तुके न होनेपर भी हाच माविका चलाना। इस प्रकारका निष्प्रयोजन म्यापार 'ललित' कहलाता है। और सप्रयोजन व्यापार विलास' कहलाता है। यह इन दोनोंका भेर है।[३१]१८६॥
अब मागे 'पुट्टमित' [का लक्षण करते है]
[सूत्र २८८]-[प्रियतम बाराश, मोष्ठ मावि पकड़े जानेपर हायके भीतर तो प्रसन्नताके होनेपर भी बाहर मिया कोष रिसताना 'मित' कहलाता है।
... मावि शबसे स्तन, कर प्राविका पहण होता है। प्रियतमके पारामा मारिके • पकड़े जानेपर भी भीतर प्रसन्नता होनेपर भी झूठमूठ नाराज होता 'मित' कहलाता है।
अब मागे मोहायित कालम करते
[वत्र २८१]-प्रियतमके वन माविक होनेपर गोका मरोहमा 'मोहापित' का है [avjter
प्रियतमले बर्मन, भवर, परसारित होनेपर तन्मयता म राम भारत [विमित्र मंगोंकि मन पर्यन्त स्वीकायापार मोडावित मनाता हैrean .
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नाट्यदर्पणम् L का० १८८, सू० २८२-८४
किलकिंचितम् -
[ सूत्र २=२ ] - मुहुः स्मिताऽनुकम्पादेः संकरः किलकिचितम् । आदिशब्दाद् भय हसित-श्रम- रोष-गर्व -दुःखाभिलाषादिग्रहः । गर्वाद् वारं वारं स्मितादीनां संकीर्णतया योषिता यत्करणं तत् किलकिञ्चितम् । एते दश स्वाभाविका भुक्तायामभुक्तायां च योषिति रतिभावोद्बोधाद् भवन्तीति ।
यथायत्नजेषु सप्तसु शोभा प्रथमं लक्ष्यते
३६०
1
[ सूत्र २८३ ] - प्रोज्ज्वल्यं यौवनादीनामथ शोभोपभोगतः । [३५] १८८ । यौवनस्य, आदिशब्दाद् रूप - लावण्यादीनां च पुरुषेणोपभुज्यमानानां यदौज्ज्वल्यं छायाविशेषः सा शोभा । अथेति स्वाभाविकानन्तर्यार्थ इति ।। [३५] १८८ ॥ अथ कान्ति- दीप्ती -
[ सूत्र २८४ ] —सा कान्तिः पूर्णसम्भोगा दीप्तिः कान्तेस्तु विस्तरः । शोभैव व रागावतारघना कान्तिः । कान्तिरेव चातिविस्तीर्णा दीप्तिः । यौवनादीनामौज्ज्वल्यस्य मन्द-मध्य तीव्रावस्थाः क्रमेण शोभा - कान्ति-दीप्तय इत्यर्थः इति ।
aa or 'feofiचित' [का लक्षरण करते हैं ]
[ सूत्र २८२ ] - |-- बार-बार हँसने, रोने शोर कम्पन प्राविका सम्मिश्रण 'किल किंचित' कहलाता है ।
प्रादि शब्दसे भय, हास्य, श्रम, रोष, गर्व, दु:ख और प्रभिलाष श्रादिका ग्रहण होता है । गर्वके कारण स्त्रियोंके द्वारा हंसने रोने श्राविका जो बार-बार संकीर्ण रूपसे किया जाना है वह 'किलकिचित' कहलाता है [यह अभिप्राय है । भुक्ता तथा प्रभुक्ता दोनों प्रकार की स्त्रियोंमें रतिभावका उदय होनेपर ये वश स्वाभाविक धर्म उदय होते हैं ।
अब आगे बिना यत्नके उत्पन्न होने वाले सात धर्मोमेंसे पहले 'शोभा' का लक्षण करते हैं
[ सूत्र २८३ ] - उपभोगके बाद योवन प्राविकी उज्ज्वलता 'शोभा' कहलाती है । [३५] १८८ ।
अनु० - यौवनका, औौर आदि शब्दसे रूप लावण्याविकी पुरुषके द्वारा भोगे जाने पर जो उज्ज्वलता अर्थात् सौन्दर्यातिशय उसको 'शोभा' कहते हैं [यह अभिप्राय है ] । [ 'श्रथ क्षोभोपयोगत:, में प्रयुक्त ] 'प्रय' हाब्व स्वाभाविक श्रानन्तर्य प्रर्यका बोधक है। [अर्थात् पहले freen fee दस स्वाभाविक धर्मोके बाद शोभाका लक्षण किया जा रहा है ] ॥ [३५] १८८ ॥
अब आगे 'कान्ति' और 'दीप्ति' [दोनों का लक्षरण करते हैं]
[ सूत्र २८४ ] -- पूर्ण विस्तारको प्राप्त हो जानेपर वह शोभा हो 'कान्ति' कहलाती है । और 'कान्ति' का भी विशेष विस्तार 'दीप्ति' कहलाता है ।
-
अत्यन्त अनुरागातिशयके कारण घनताको प्राप्त शोभा ही 'कान्ति' कहलाती है और अत्यन्त विस्तारको प्राप्त हो जाने वाली 'कान्ति' हो 'दीप्ति' कहलाती है । अर्थात् योवन urfast उज्ज्वलताको मन्द, मध्य और तीन अवस्थाएं हो क्रमशः शोभा, कान्ति और दोति कहलाती हैं यह अभिप्राय है ॥
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का० १६०, सू० २८५-८७ ] चतुर्थो विवेकः
[ ३६१ अथ माधुर्योदायें[सूत्र २८५]-सौम्यं तापेऽपि माधुर्यम्, औदार्यमुचिताच्युतिः ॥
[३६] १८६ ॥ . शोक-क्रोध-भय-अमर्ष-ईर्ष्यादिजः सन्तापस्तापः । अपि शब्दाद् ब्रीडा-रत्यादिजे अस्वास्थ्ये ऽपीति । तापे ऽपि सत्युचितस्य विनयादिकस्य अच्युतिरपरित्यजनं औदार्यम् । माधुर्य श्राकाराविकृतिः इत्यनयोविशेष इति ॥ [३६] १८६ ।।
अथ धैर्य-प्रागल्भ्ये[सूत्र २८६]-चेतोऽविकत्थनं धैर्यं प्रागल्भ्यं कौशलं रते।
अविकत्थनं आत्मश्लाघा-चापलाभ्यां रहितं चेतो धैर्यमिति । कौशलं वैशारा, रते सुरतक्रियायां यत् तत् प्रागल्भ्यम् । एते यत्नमन्तरेण पुरुषोपभोगनिष्पन्नाः स्त्रीणां सप्त गुणा इति ।
अथ एवंविधालङ्कारवतीनां स्त्रीणां नायकेषु विनियोगमाह-, [सूत्र २८७]-यथौचित्यं च नेतृणां नायिकाः, कुलजादयः ॥[३७१६०
___औचित्यं प्रकति-अवस्था आचार-देशकालाद्यविरोधः। तदनतिक्रमेण धीरोद्धतादीनां नायकानां कुलजादयो नायिका नाटकेषु निबन्धनीया इति ।। [२७] १६०॥
अब प्रागे 'माधुर्य' और 'प्रौदार्य' दोनोंके लक्षण करते हैं]
[सूत्र २८५]-तापके होनेपर भी सौम्यता माधुर्य कहलाता है । और उचित मार्गसे पतित न होना 'प्रौदार्य' कहलाता है। [३६] १८६ ।
शोक, क्रोध, भय, अमर्ष और ईर्ष्या दिसे उन्पन्न होने वाला सन्ताप यहाँ 'ताप' [माना गया है । 'मपि' शब्दसे लज्जा और रत्यादिसे उत्पन्न अस्वस्थताक भी ग्रहण होता है । इस तापके होनेपर भी [सौम्यताका बना रहना 'माधुर्य' कहलाता है । और तापके होनेपर भी विनय आदि रूप उचित बातोंका परित्याग न करना औदार्य' कहलाता है। प्राकारमें विकार का उत्पन्न न होना माधुर्य है [ और मनमें विकारका उत्पन्न न होना प्रौदार्य है ] यह इन दोनोंका भेद है ।। [३६] १६६॥
अब प्रागे 'वैर्य' तथा 'प्रगल्भता' [दोनोंका लक्षण करते हैं]--
[सूत्र २८६]-[प्रात्मश्लाघा और चपलतासे रहित वित्तावस्थाका नाम 'धैर्य' है और सुरत-व्यापार में निपुणताफी प्राप्ति 'प्रगल्भता' कही जाती है।
प्रविकत्या अर्थात् प्रात्मश्लाघा और चपलतासे रहित चित्तावस्थाका नाम 'धैर्य' है। प्रौर 'रते' अर्थात् सुरत-व्यापारमें जो कौशल अर्थात् निपुणता वह 'प्रागल्भ्य' कहलाता है। ये सात गुण पुरुषोपभोगके द्वारा स्त्रियों में बिना यत्नके स्वयं ही उत्पन्न हो जाते हैं।
अब इस प्रकारके [१०+७=१७] अलंकारों से युक्त नायिकाओंका नायकोंके साथ सम्बन्ध दिखलाते हैं ----
[सूत्र २८७]---ौचित्यके अनुसार कुलजा आदि नायिकाएं नायकोंके साथ विनिपुक्त फरनी चाहिए। [३५] १९० ।
प्रौचित्य अर्थात् प्रकृति, अवस्था, प्राधार, देश, काल, मादिके साथ प्रविरोष । उस
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नाट्यदर्पणम
[ का० १६२, सृ०२८
नायिकानां सहायिन्य उच्यन्ते
[ सूत्र २८८ ] --सहायिन्यस्तु धात्रेयी लिंगिनी प्रातिवेशिकाः । शिल्पिनी चेटिका - सख्यो गुप्ता दक्षा मृदु-स्थिराः ॥ [३८] १६१ ॥
धात्री स्तन्यदायिनी । लिंगिनी परिव्राजिकादिलिंगवती । प्रातिवेशिका निकटावसथा । शिल्पिनी चित्रादिशिल्पकारिका । चेटिका दासी । सखी समानगुणा मैत्र्यमुपगना । एवमादिकाः प्रियघटने सहायिन्यः । एताश्च 'गुप्ता' रहस्यधारणसमर्थाः । वृक्षा देश-काल- समयादिविदः । मृद्व यो अनहंकृताः । स्थिराश्चापलवर्जिताः । एवमन्येऽपि गुणा द्रष्टव्या इति ।। [३८] १६१ ॥
अथ सामान्येन भाषाविधानमुच्यते
३६२ ]
[ सूत्र २=६ ] - देवानीचनृरणां पाठः संस्कृतेनाथ जातुचित् । महिषी - मन्त्रिजाया- पण्यस्त्रीणामव्याजलिंगिनाम् ॥
[३६] १६२ ॥ [वित्य ] का उल्लङ्घन किए बिना धीरोद्धत श्रादि नायकोंके साथ कुलजा प्रादि नायिकाओं का नाटकादि में वर्णन करना चाहिए । [३७] १६० ॥
अब इन नायिकाओंकी सहायिकाओंको कहते हैं
[ सूत्र २८८ ] - धाय, परिव्राजिका, पड़ोसिन, शिल्पिनो, दासी और सखो जो [गुप्ता अर्थात्] रहस्यको धारण करनेमें समर्थ, चतुर, श्रहंकाररहित और चपलतारहित हों इनकी सहायिकाएं होती हैं । [३८] १६१ ।
धात्रेय अर्थात् दूध पिलाने वाली धाय । लिंगिनी अर्थात् परिवजिका श्रादिके चिह्नों को धारण करने वाली । प्रतिवेशिका अर्थात् समीप रहने वाली पड़ोसिनो । शिल्पिनी प्रर्थात् चित्रादि शिल्पकी रचना करने वाली । चेटी श्रर्थात् दासी । सखी प्रर्थात् समान गुण वाली और मित्रताको प्राप्त स्त्री। इस प्रकार की स्त्रियाँ प्रियके साथ मिलन करने में सहायिका होती हैं। ये सब गुप्ता अर्थात् रहस्यको छिपा सकने में समर्थ, दक्षा प्रर्थात् देश, काल, श्राचार श्रादिको समझने वाली, मृदु श्रर्थात् ग्रहंकाररहित प्रौर स्थिरा प्रर्थात् चपलतारहित होनी चाहिए । इसी प्रकारके अन्य गुरण भी [ सहायिकाओं में ] समझने चाहिए ॥ [ ३८ ]
१६१ ॥
अब सामान्य रूप से भाषाविधानको कहते हैं
[ तत्र २८६ ] -- देवताओं प्रौर नीचोंको छोड़कर अर्थात् उत्तम तथा मध्मम पुरुषोंके पाठ संस्कृत में [ होना चाहिए। और कभी-कभी पटरानी, मन्त्रि-पत्नीवेश्यानोंका तथा | लिंगिनी पदमें लिगिनश्च लिगिन्यश्च अर्थात् पुरुष तथा स्त्री-रूप दोनों प्रकारके लिगियोंमेंसे एक शेष हो जानेसे ] परुष तथा स्त्री-रूप दोनों प्रकारके परिवाजकों दम्भ-रहित [प्रर्थात् मुनि, बौद्ध, भिक्षु, श्रोत्रिय श्रादि] द्वारा [ भी संस्कृत का प्रयोग किया जाना चाहिए] । ३६ [१६२] ।।
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का० १६३, सू० २६० ] चतुर्थो विवेकः
[ ३६३ देवशब्देन सुराः सुर्यश्चैकशेषाद् गृह्यन्ते । एषां च नीचवर्जितानामुत्तम-मध्यमनराणां च । स्त्रीणां प्राकृतस्यैव विधानात् पुरुषाणामेव संस्कृता भाषा। कदाचित् पुनः कार्यवशतः कृताभिषेकाया राज्या मन्त्रिजा-पण्यस्त्रियोलिगिनां च एकशेषेण पुं-स्त्रीरूपाणां परिबाड्-मुनि-शाक्य-श्रोत्रियादीनां संस्कृतं द्रष्टव्यम् । लिंगिनश्च दम्भ विना ये गृहीतव्रतास्तेषां संस्कृतम् । सामर्थ्याच्च व्याजलिंगिनां प्राकृतमिति लभ्यते । स्थगोपनार्थमेतैर्भाषान्यथात्वस्य करणात् । तत्र महिष्याः संधि-विग्रहचिंतादिना, मंत्रिजाया न्यायप्रवृत्त्यादिना वेश्याया वैदग्ध्यादिना, लिंगिनां च सर्वविद्याकौशलख्यापनादिना कार्येण संस्कृत, अन्यत्र तु प्राकृतमवर्गतव्यम् । 'योषिताम्' इति महिष्यादीनां प्राकृतस्यैव प्राप्तौ 'देवानीचनृणां' इति च लिंगिनां संस्कृतस्यैव प्रसङ्ग 'जातुचिन्' इत्यप्राप्त्यर्थं प्राप्तनिषेधार्थ चोपात्तम् । तेन लिंगिनां बाहुल्येन प्राकृतं भवतीति । [३३] १९२ ॥
अथ प्राकृतं पाठ्यमाह[सूत्र २६०]-बाल-बण्ड-ग्रहग्रस्त-मत्त-स्त्रीरूप-योषिताम् । प्राकृतेनोत्तमस्यापि दारिद्यश्वर्यमोहिनः ।
[४०] १६३ ॥ 'देव' शम्बसे एक शेषसे देव और देवी दोनोंका ग्रहण होता है। इनमें और नीचोंको छोड़कर शेष पुरुषोंकी भाषा संस्कृत होनी चाहिए। स्त्रियों के लिए प्राकृतका ही विधान होने से [स्त्रियोंकी प्राकृत भाषाही होनी चाहिए। कभी-कभी कार्यवश पटरानी मंत्रि-पत्नी वेश्या तथा लिगियोंमें एक शेष द्वारा स्त्री-पुरुष रूप दोनों प्रकारके संन्यासियों मुनियों बोर तथा ब्राह्मण भोत्रिपादिको संस्कृत भाषा समझनी चाहिए । लिंगसे जिन्होंने दम्भ रहित होकर प्रत लिया है उनको संस्कृतका प्रयोग कराना चाहिए। इस कथनको सामर्थ्यसे बनावटी परिवाजक प्रादिके द्वारा प्राकृतका प्रयोग करना चाहिए यह अर्थ निकलता है। क्योंकि ये अपनेको छिपानेके लिए भाषाको बदल भी लेते हैं। उनमेंसे सन्धि-विग्रह प्रादिकी चिन्ताके अवसरपर राजनीतिके द्वारा संस्कृत भाषरण करना चाहिए] न्याय, विचार प्रादिके समय [मन्त्रिजाया अर्थात] मन्त्रीको पत्नीके द्वारा [संस्कृत भाषण कराना चाहिए] । वैदग्प्यादि प्रदर्शन] के लिए वैश्या द्वारा मोर सब विधानोंमें प्रवीणताके सिद्ध करनेके लिए परिवाजिका मादिके द्वारा कार्याविशेषके कारण संस्कृतका प्रयोग कराना चाहिए। और साधारण रूपमें अन्य जगह प्राकृतका ही प्रयोग समझना चाहिए। 'योषिताम्' इस पदसे महिषी माविमें प्राकृत [का प्रयोग] प्राप्त होनेसे और 'देवानीवनृणां' पबसे परिवाजक आदिमें संस्कृत कि प्रयोगके] के ही प्राप्त होनेपर 'जातुचित्' इस पदको [प्राप्तको]प्रप्राप्तिके लिए अर्थात् प्राप्तके निषेषकरनेके लिए पहल किया गया है। इसलिए परिव्राजक प्राविमें अधिकतर प्राकृतका प्रयोग होता है ।[३९]१९२॥
अब मागे प्राकृत पाठ्यको कहते हैं
[सूत्र २६०]-बालकों, नपुसको प्रहग्रस्त, मत्त, स्त्रीप्रकृति वाले और स्त्रियोंका प्राकृतका ही प्रयोग कराना चाहिए। और दारिज्य अथवा ऐश्वर्यादि मोहित उत्तम पुरुषके द्वारा भी [प्राकृत भाषाका हो प्रयोग कराना चाहिए। [re] १९३ ।
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३६४ ]
नाट्यदर्पणम [ का० १६५, सू० २४०-४१ ग्रहैः शनैश्चरादिभिः, कदाग्रहैर्वा ग्रस्ता दूषिता ग्रहग्रस्ताः । स्त्रीरूपाः स्त्रीप्रकृतयः पुरुषाः। बालादीनामज्ञत्व-नीचप्रकृतिकत्व-तुच्छस्वभावत्वादेः प्राकृतेन पाठः। तथोत्तमप्रकृतेरपि धीरोदात्तादे-ारियैश्वर्याभ्यां उपलक्षणाद् धनभ्रशादिना च मूढमनसः प्राकृत पाठ इति ॥ [४०] १६३ ।।
___ अपरमपि वाक्प्रकारमाह[सूत्र २६१]-प्रत्यन्तनीच-भूतादौ पैशाची मागधी च वाक् ।।
शौरसेनी तु नीचस्य देशोद्देशे स्वदेशगीः ।।[४१] १६४॥ अत्यन्तनीचः प्रकष्टाधमप्रकृतिः । आदिशब्दात् पिशाचादिग्रहः । एषु पैशाची मागधी च सांकर्येण भाषा भवति । नीचमात्रप्रकृतेः पुनः शौरसेनी। देशस्य कुममगधादेरुद्देशः प्रकृतत्वं तस्मिन् सति स्व-विदेश सम्बन्धिनी भापा निबन्धनीयेति ॥ [४१] १६४।'
प्रकारांतरमप्याह[सत्र २६२]-तिर्यग्जात्यन्तरादीनामानुरूप्येण संकथा।
तिर्यञ्चः पशवो पक्षिणश्च । जात्यन्तराणि वरिणग-विप्र-चाण्डालादीनि । एतानि
ग्रहों अर्थात् शनैश्चर प्रादिके प्रथवा कुत्सित प्राग्रहोंसे जो दूषित हैं वे ग्रहग्रस्त हुए [उनके द्वारा प्राकृत भाषाका प्रयोग कराना चाहिए ] । स्त्रीरूप अर्थात स्त्रियों-जैसे स्वभाववाले पुरुष [उनके द्वारा भी प्राकृतका ही प्रयोग कराना चाहिए । बालकों ग्रादिके मूर्ख, अज्ञानी, नीच प्रकृति वाले तथा क्षुद्र स्वभाववाले होने आदिके कारण प्राकृत भाषाका पाठ कराया जाता है । और [कभी] उत्तम प्रकृति वाले अर्थात् धीरोदात्त आदिके [स्वभाव वाले पुरुषके भी दरिद्रता अथवा ऐश्वर्यातिशयसे मोहित हो जानेपर और इनके उपलक्षण रूप होनेसे धननाश प्रादिसे भी विमूढमनस्क हो जानेपर प्राकृत ही बुलवाना चाहिए । [४० |१६३॥
अब बोलने के विषयमें अन्य प्रकारोंका भी वर्णन करते हैं
[सूत्र २६१]-अत्यन्त नीच भूतादि [ के भाषण ] में पंशाची' तथा मागधी [संकोणं] भाषा प्रयुक्त होती है । नीच [पात्रके भाषण में 'शौरसेनी' प्राकृत भाषा होती है । और किसी देश-विशेषका उल्लेख होनेपर अपने-अपने देशको भाषाका ही प्रयोग कराना चाहिए । [४१] १९४ ।
अत्यन्त नीच अर्थात अत्यधिक अधम प्रकति वाला। भूतादि पद में प्रयुक्त मादि शब्दसे पिशाचादिका ग्रहण होता है। इसमें पंशाची और मागधी दोनों भाषाओंका संकीर्ण रूपसे प्रयोग होता है। और केवल सामान्य रूपसे नीच प्रकृति वाले पात्र में शौरसेनी भाषाका प्रयोग कराना चाहिए । [४१] १६४ ॥
अब मागे [भाषाके विषय] अन्य प्रकार भी बतलाते हैं---
[सूत्र २६२]--पशु-पक्षी आदि और विभिन्न जातियों में प्रौचित्य के अनुसार [भाषा का अवलम्बन करके बातचीत होनी चाहिए।
तिर्यक् अर्थात् पशु और पक्षी । अन्य जातियाँ प्रयोत् वरिणक, विप्र, चाण्डाल प्रादि । गे सब एक ही स्थानपर भी हो सकते हैं। 'प्रादि' शब्दसे ग्राममें रहनेवाले नगर निवासी
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का० १६६, सू० २१३-२६४ ] चतुर्थो विवेकः
[ ३६५ चैकस्मिन्नपि देशे भवन्ति । श्रादिशब्दाद ग्राम्य-नागरक-आरण्यक-विट्-देवकुलिकादिग्रहः। एवं विधपात्राणामानुरूप्येण यस्य तिर्यगादेर्या भणितिरीतिः प्रसिद्धा सा सा तस्य सम्यग वर्णनीया । येन स एवायं तिर्यगादिरिति ताद्र प्यावगमो भवति । इयं च देशगीश्च प्रायो अपभ्रशे निपततीति ॥
अथ भाषादेरन्यथात्वमपि भवतीत्याह[सूत्र २६३]-भाषा-प्रकृति-वृत्तादेः कार्यतः क्वापि लंघनम् ॥
[४२] १९५॥ भाषायाः संस्कृत-प्राकृतादेर्वाचः। प्रकृतेरुत्तम-मध्यमाधमरूपायाः । वृत्तस्य आचारस्य, इतिवृत्तस्य वा। आदिशब्दाद् धीरोद्धतवादिधर्माणां नेपथ्यादेर्वा केनचित् प्रयोजनेन लंघनमिति क्रमो विधेयः । एतच्च यथायथं क्वचित् किंचित् प्रदर्शितमेव । स्वयं वाभ्यूपमिति ॥ [४२] १६५ ॥
अथ रूपकेषु यो येन नाम्ना व्यवहर्तव्यस्तस्य तदाह[सूत्र २६४] -प्रार्येति शब्धते पत्नी लिगिनी ब्राह्मणी द्विजैः । अम्बापि जननी-वृद्ध पूज्या तु भवतीत्यपि ॥
[४३] १६६ ॥ और वनमें रहने वाले तथा विट, देवकुलिका प्राविका ग्रहण होता है । इस प्रकारके पात्रोंकी भाषा मानुरूप्यके अनुसार अर्थात् जिस तिर्यगादिकी जो भाषा लोकमें प्रसिद्ध है उसको उसके साथ भली प्रकारसे प्रयोग करना चाहिए जिससे यह वही तिरंगादि है यह बात ठीक तरह से प्रतीत हो सके। यह [ तियंगादिको भाषा] और देश-भाषा दोनों प्रायः अपभ्रं शमें प्राती हैं।
प्रब प्रागे भाषा मादिमें परिवर्तन भी हो सकता है यह बात दिखलाते हैं-.
[सूत्र २६३]-भाषा, प्रकृति, वृत्त प्रर्यात प्राचार या कथावस्तु प्राविका कार्यवश कहीं उल्लंघन भी किया जा सकता है। [४२] १९५।
भाषा अर्थात् संस्कृत और प्राकृत प्रादि वाणीका । प्रकृति पर्यात उत्तम, मध्यम, अषम रूप प्रकृतिका । वृत्त प्रति प्राचरणका प्रथवा कथावस्तुका । मादि शम्बसे धीरोदात्तवादि धर्मों का प्रथवा वेष-भूषाविका किसी विशेष प्रयोजनसे लडन किया जा सकता है इस कारका [कम प्रर्थात् ] अन्वय करना चाहिए। इस बातका कहीं-कहीं कुछ वर्णन किया आ पुका है। अथवा स्वयं समझ लेना चाहिए ॥ [४२] १९५॥
___ प्रब रूपकोंमें जिसको जिस नामसे पुकारा जाना चाहिए उसके उस नाम माविको पतलाते हैं
[सूत्र २६४] -ब्राह्मणोंके द्वारा पत्नी, परिवाजिका पौर ब्राह्मणी 'पार्या' इस नामसे कही जाती है। माता और वृद्धा स्त्री [भार्या शम्बसे तो कही हो जाती है किंतु उसके प्रतिरिक्त) अम्बा' भी कही जाती है। पूज्या स्त्री [भी प्रार्या तो कही हो जाती है उसके प्रतिरिक्त] 'भवती' इस पबसे भी कही जाती है। [४३] १९६ ।
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३६६ ]
नाट्यदर्पणम [ का० १६७, सू. २६) भ्रात्राग्रजो ऽधमैर्मन्त्री नटी-सूत्रभृतौ मिथः । पुरोधः-सार्थवाहाभ्यां य पत्नी पत्न्या जर पतिः
॥[४४] १६७ ॥ ‘ार्यशब्द' इत्यन्तो अविवक्षितलिंग-संख्या-कारकः शक्तिस्वरूपमात्रेण ग्रहणार्थमुपात्तः । तेन नानालिंग-संख्या-कारकेषु प्रयुज्यते । एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम् । पत्नी सधर्मचारिणी। अम्बापीति न केवलं 'आर्या' शब्देन किंतु 'अम्बा' शब्देनापि जननी-वृद्धे उच्यते। पूज्या मान्या। सा चात्रेषद् वृद्धा सती, 'भवति' इति शब्देन 'आर्या' शब्देन च वाच्या ।
. भ्रात्रा अनुजेन अग्रजो ज्येष्ठो भ्राता, अधमैहीनः मंत्री राज्ञः सचिवो नटीसूत्रधारौ मिथः परस्परं नट्या सूत्रधारः सूत्रधारेण च नटी, पुरोधः-सार्थवाहाभ्यां कर्तृभ्यां पत्नी, पन्त्या च का वृद्धः पतिः 'आर्य' इति शब्द्यते इति संबंधः। 'आर्येति शब्द्यते पत्नी' इत्यनेनैव सिद्धेऽपि 'पुरोधः-सार्थवाहाभ्यां पत्नी' इति यौवनेऽपि 'आर्या' इति वा निबंधनार्थम् ॥ [४३-४४] १६६-१६७ ॥
[छोटे. भाईके द्वारा ] बड़े भाईको [ आर्य शब्दसे भी कहा जाता है और उसके अतिरिक्त भ्राता [भी कहा जाता है] नौच पात्रोंके द्वारा मन्त्रीको [को प्रार्य] और नटी तथा सूत्रधार परस्पर एक-दूसरेको [प्रार्य तथा प्रार्या] और पुरोहित तथा सार्थवाहके साथ [ यौवनस्थामें ] पत्नी [प्रार्या ] तथा पत्नीके द्वारा वृद्ध पति [प्रार्य शब्द कहा जाता है ] । [४४] १६७।
[आयेंति इस कारिकाभागमें] इति शब्द जिसके अन्तम दिया गया है इस प्रकारका प्रार्य शम्न लिंग, संख्या, कारक प्राविसे रहित शक्तिके स्वरूपमात्रसे ग्रहण किया गया है । .इसलिए विभिन्न लिंग, संख्या तथा कारकोंमें उसका प्रयोग माना जाता है। इसी प्रकार अन्य शब्दोंके विषयमें भी समझना चाहिए। [अर्थात् अम्बा, भवती आदि शब्द भी नियत संख्या, नियत कारक प्रादिके ग्राहक न होकर सामान्य रूपसे ही पढ़े गए हैं] । पत्नीका अर्थ सहधर्मचारिणी है । 'अम्बापि' इसमें जननी तथा वृद्धाके न केवल 'प्रार्या' शब्दसे ही नहीं अपितु 'अम्बा' शब्दसे भी कही जाती है। पूज्या अर्थात् मान्य। वह कुछ थोड़े वृद्धा होनेपर 'भवतो' इस शब्दके द्वारा तथा 'आर्या' शब्दके द्वारा सम्बोधित की जाती है।
भाई अर्थात् छोटे भाई द्वारा बड़े भाईको [प्रार्य शव्वसे], तथा नीच पात्रोंके द्वारा मन्त्री प्रर्थातू राजाके सचिवको [प्रार्य कहा जाता है ] तथा नटो और सूत्रधार एक-दूसरे को परस्पर अर्थात नटोकेद्वारा सूत्रधारको [प्रायं]. तथा सूत्रधारकेद्वारा नटीको [प्रार्या सम्बोधन किया जाता है] । पुरोहित तथा सार्यवाह रूप प्रयोगकर्ताओं के द्वारा पत्नी [आर्या कही जाती है ] और पत्नीके द्वारा वृद्ध पति [प्रार्य रूप पदसे सम्बोधित किया जाता है । 'आयति शब्धते परनी' इस १६६वीं कारिकाके प्रारम्भिक भाग] से ही [पत्नी के लिए प्रार्या शब्दके प्रयोगके] सिद्ध होनेपर भी 'पुरोधः-सार्थवाहाभ्यां पत्नी' इसमें [जो पत्नीको प्रार्या पदसे सम्बोधित किए जानेको मात दुबारा कही गई है] वह [पुरोहित तथा सार्थवाहकेद्वारा यौवनावस्थामें भी पत्नीको 'प्रार्या' कहकर ही सम्बोधित करना चाहिए इस बातको सूचित करने के लिए कही गई है ॥४३.४४] १९६-१६७ ॥
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का० १६८, सू० २६५ ] चतुर्थो विवेकः ।
[ ३६७ अन्यदप्याह-- [सूत्र २६५]-महाराजो नृपः सर्वस्त्वार्यपुत्रेति यौवने । पुंसा भद्रेति भोक्तव्या प्रियेति दयिताथवा ।
॥ [४५] १६८ ॥ पिता-पुत्राभिधायोगैमुख्या देव्यपि राजभिः । विदूषकेरण भवती राजी-चेट्यो नृपस्त्रियः ॥
॥[४६] १६६ ॥ भट्टिनी स्वामिनी देवीत्येवं सर्वाः परिच्छदैः । वेश्या ऽज्जुकेति वृद्धा तु साऽत्ता तुल्या स्त्रिया हला ॥
॥[४७] २०० ॥ 'पत्त्या' इति 'जरन्' इति चानुवर्तते । पत्न्या जरन्नृपो 'महाराज' इति । सर्वम्तु नृपोऽन्यश्च पतिर्योवने वर्तमान 'आर्यपुत्र' इति पत्न्या कीर्त्यते। आर्यपुत्र इति' हि श्वशुरेण व्यपदेशो यौवनस्य शृङ्गारोचितत्वख्यापनार्थः । यौवनादन्यत्र तु 'आय
[इसी विषय में प्रागे] और भी कहते हैं
[सूत्र २६५]- [पत्नी के द्वारा वृद्ध] राजाको महाराज कहकर सम्बोधन करना चाहिए] सब राजा और अन्य [सामान्य रूपसे राजा तथा] पति को पत्नी के द्वारा यौवन कालमें प्रार्यपुत्र [नामसे सम्बोषित किया जाता है] । भोक्तम्या स्त्रीको पुरुष [प्रथम परिचयके साथ ] भद्रा [ कहकर ], और दयिता अर्थात् भार्याको या प्रिय, [कहकर सम्बोधन करें] । [४५]१९८।
अथवा [ दयिता प्रति अपनी पत्नोको उसके ] पिता या पुत्रों के नामको जोड़कर [रामचन्द्रकी माता सायवा सोमशर्माकी पुत्री इस रूपमें सम्बोधन किया जाता है] । राजामों के द्वारा मुख्या अर्थात् पटरानीको [प्रियाके अतिरिक्त देवी भी कहा जाता है । विदूषकके द्वारा रानी पोर चेटी [दोनोंशो भवती पवसे सम्बोषित किया जाना चाहिए । [४६] १६६।
सारी रानियों को परिजनोंके द्वारा भट्टिनी, स्वामिनी, देवो इस प्रकार सम्बोधन किया जाना चाहिए [इसमें 'नृपस्त्रियः' पद १९वें श्लोकके अन्तमें पाया है उसका अन्वय इस २००वें श्लोकमें होता है । [यौवनवती] वेश्याको [उसके सेवकवर्ग] 'अज्जुका' [कहकर सम्बोधन करते हैं] और उसी [वेश्या] के वृद्ध होनेपर , अता' पबसे उसको सम्बोधित किया जाता है। पोर बराबर थाली स्त्रियां एक-दूसरेको 'हला' कहकर सम्बोधन करती हैं । [४७]२००।
पन्या' और 'जर' ये दोनों पद [१९७ संख्यावाली कारिफासे] अनुवृत्ति द्वारा माते हैं। इसलिए पस्नीके द्वारा वृद्ध राजाको महाराज [कहकर सम्बोधित किया जाता है। यह अभिप्राय है] । सामान्य रूपसे सारे राजाओंको [महाराजके अतिरिक्त] प्रार्यपुत्र [भी कहा जाता है] यौवनावस्था में वर्तमान पतिको [पत्नी] मार्यपुत्र पदसे कहती है । 'प्रार्यपुत्र' यह नाम श्वसुरके सम्बन्धसे बना है। [और यौवनकालमें इस शब्दका प्रयोग] पौवनके शृङ्गारो
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३६८ ]
नाट्यदर्पणम का० २०१, सू० २६६ इत्येवं कीत्यते। भोक्तव्या भोत्तुमभिलषिता प्रथमपरिचयं पुरुषेण स्त्री 'भद्रा' इति, दयिता भायो पुनौवने 'प्रिया' इति कीर्त्यते । अथवा दयिता पिता-पुत्रयोयंदभिधानं तद्योगैस्तेन युज्यमानैः शब्दैः 'मारपुत्रि 'सोमशर्मजननि' इत्येवमादिभिः पुरुषेणाभाष्या। मुख्या कृताभिषेका दयिता पुनर्देवीति, अपिशब्दात् प्रियेति च राजभिर्बहुवचनादन्यश्च पुम्भिः । तथा विदूषकेण राझी राजपत्नी चेटी च भवति' इति वाच्या । तथा सर्वो आप नृपस्त्रियो राजपत्न्यः परिजनेन भट्टिनी स्वामिनी देवी इति शब्दैः शब्दान्ते । बेश्या पण्यस्त्री यौवनवती द्रष्टव्या, वृद्धाया नामान्तरविधानात् । परिजनेन . 'अज्जुका' इति । सा इति वेश्या वृद्धा पुनः 'अत्ता' इति । तुल्या समानकुल-शीलवयोऽवस्थादिका वनिता च समानया स्त्रिया हला'इति वाच्या इति । ।। [४५-४७] १६८-२००॥
अन्यदप्याह--- [सूत्र २६६]-हंजे त्वनुत्तमा-प्रेष्ये भगवदिति देवता । तपःस्था चार्य-देवषि-बहुविद्याः सयोषितः ॥
[४८] २०१॥ चित होनेकी सूचना देनेवाला है । यौवनकालको छोड़ अन्य समयमें केवल 'प्रायं' पदसे [पत्नी पतिको सम्बोधित करती है] । भोक्तव्य अर्थातू जिसके साथ पुरुष भोग करना चाहता है उस स्त्रीको प्रथन परिचयके समय पुरुष ‘भद्रे' कहकर सम्बोधित करता है। और दयिता अर्थातू अपनी भार्याको यौवनकालमें 'प्रिया' पदसे सम्बोधित करता है । अथवा दयिता अर्थात पत्नीको इसका पति प्रियाके अतिरिक्त उसके पिता और पुत्रके जो नाम हों उनके साथ मोड़कर माठरकी पुत्री, सोमशर्माकी माता प्रादि इस प्रकारके शब्दोंसे सम्बोधित करता है। मुख्या अर्थात् अभिषिक्ता पत्नीको राजा लोग देवी भी कहते हैं। अपि शब्दसे प्रिया भी राजामोंके द्वारा कहा जाता है। बनुवचनसे अन्य पुरुषोंके द्वारा भी [कृताभिषेका रानीको देवी कहा जाता है । तथा विदूषकके द्वारा राजपत्नी अर्थात रानी और चेटी दोनोंको 'भवतो' पसे सम्बोधित किया जाता है । और राजाओंकी सभी पत्नियो अर्थात रानियोंको परिजनवर्य भट्टिनी, स्वामिनी तथा देवी शब्दोंसे सम्बोधित करते हैं। वेश्या पदसे यौवनावस्थावाली बाजारू स्त्रीका ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि वृद्धा वेश्याओंके लिए अत्ता इस दूसरे नाम का विधान किया गया है। [उस यौवनवतो वेश्याको परिजनवर्ग 'अज्ज का' इस नामसे कहते हैं। 'सा' अर्थात वही वेश्या वृद्धा हो तो 'प्रती' पदसे कही जाती है । तुल्या अर्थात् समान कुल, शील, प्रायु और दशा प्रादि वाली बराबरवाली स्त्रीको बरावरवाली दूसरी स्त्री 'हला' कहकर सम्बोधित करती है। [४५-४७] १९०-२०० ॥ .
[इसी विषयमें पागे और भी कहते हैं
[सत्र २९६]-उत्तम प्रकृतिसे रहित [प्रत एष अप्रेष्या प्र दूती प्रादिके रूपमें प्रियके पास न भेजने योग्य ] और प्रेष्या दोनोंको 'हज' शब्दसे 'साधित किया जाता है। [सरस्वती प्रादि ] येवंता पोर तपस्विनी स्त्रीको 'भगवती' शब्दसे कहा जाता है । पूज्य और बहुत पुरुषों और उनकी पत्नियों बोनोंको भी भगवत् शब्दसे सम्बोधित करना चाहिए। [४] २०१।
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ब. २०३, सू० २६६ ] चतुर्थो विवेकः
। ३६ भान्यो नामान्तर राजा लिगिनाथ विदूषकः । वयम्यो ऽप्यधर्मभट्टी लोकदेवेति भूपतिः ॥
[४] २०२ ॥ उत्तमप्रकृतिरहिता युवतिःअप्रेषणीया सती अनुत्तमा,सा, प्रेष्याच 'हंजे' शब्देन कीर्त्यते । देवता सरस्वत्यादिका। तपःस्था व्रतविशेषवती। एते च स्वतंत्रे, न तु कंचनापि पतिमाश्रिते । अाः पूज्यतमाः। बहुविद्याः बहुश्रुताः। एते अर्ध्यादयः सयोपितो भार्याप्येतदीया भगवच्छब्देनोच्यते इत्यर्थः । तथा मान्यः प्रसिद्धनामपरिहारेण नामान्तरैः प्रशंसासूचिभिः अमात्य ! श्रेष्ठिन् ! वत्सराज ! सोमवंशमौक्तिकमणे ! इत्यादिभिराभाषणीयः। प्रायिकं चैतत् । तेन चाटुकारादौ-उदयने महों शासति को विपदामवकाशः' इति स्वानाम्नाप्याभाष्यः।
___ मान्यादन्यस्तु मध्यमः स्वनामभिर्वाच्यः । नीचस्य सम्भाषणन्तु वक्ष्याम इति । लिंगिना च 'राजन्' शब्देन शब्द्यते भूपतिः इत्युत्तरेण संबन्धः । उपलक्षणात् 'कौरव्य' इत्याद्यपत्यप्रत्ययान्तैरपि। विदूषकैः पुनर्भूपतिः 'वयस्य' शब्देन अपि शब्दात् 'राजन्' शब्देन च । अधमैश्च नीचप्रकृतिभिभूपतिः भट्टिन्-शब्देन लोकैश्च उत्तममध्यम-अधमप्रकतिभिर्जनैः भूपतिर्देव शब्देन शब्द्यत इति ॥ [४८-४६] २०१-२०२॥
मान्य पुरुषोंको [ उनके असली नामोंको छोड़कर ] अन्य नामोंसे सम्बोधन करना चाहिए। राजाको परिव्राजक मावि 'राजन् पबसे और विदूषक 'वयस्य' पदसे, प्रथम पुरुष 'भट्टी' पदसे तथा साधारण लोकोंके द्वारा 'देव' पबसे सम्बोधित किया जाता है। [४६]२०२॥
___ उत्तम प्रकृतिसे रहित युवती जो [ दूती प्रादिके रूपमें ] भेजने योग्य नहीं है उसको तथा भेजने योग्य स्त्री [प्रेष्या] दोनोंको हंजे पदसे सम्बोधित किया जाता है। देवता अर्थात् सरस्वती आदि। और तपःस्था अर्थात् किसी विशेष व्रतके अनुष्ठानमें लगी हुई। ये बोनों स्वतन्त्र हों किसी पतिके पाश्रित न हो तब [भगवत् शब्दसे कही जाती है । प्रर्चनीय अर्थात् अत्यन्त पूज्य, और बहुविद्या अर्थात् बहत पूज्य ये प्रय॑ प्रादि संयोषितः' अर्थात अपनी पत्नियोंके सहित, अर्थात् उनकी पत्नी भी 'भगवत्' शब्बसे वाच्य होती है। यह अभिप्राय है। और मान्य जनोंको प्रसिद्ध नाम छोड़कर प्रशंसासूचक दूसरे नामोंसे सम्बोषित किया जाता है। जैसे-प्रमात्य, बेष्ठिन्, वत्सराज, चन्द्रवंशके मौक्तिकमरिण ! इत्यादि [उपनामों] के द्वारा सम्बोधित किया जाना चाहिए। यह कथन प्रायिक है [मर्यात प्रायः अधिकतर इस प्रकारके नामोंसे सम्बोषित करना चाहिए इसलिए चाटुकारिता मावि [खुशामद माषि] के समय 'महाराज उदयनके राज्य में विपत्तियोंका अवसर कहां पा सकता है' इत्यादि. में अपने प्रसिद्ध नाम द्वारा भी सम्प्रेषन किया जा सकता है।
मान्यको छोड़कर अन्य अर्थात् मध्यम लोगोंको उनके प्रसिद्ध नामोंके द्वारा ही सम्बो. पित करना चाहिए। नीचके लिए सम्बोषित पदोंको मागे कहेंगे। परिवाजक प्रावि लिंगपारियोंके द्वारा राजाको राजन् पवसे सम्बोषित किया जाता है यह अगले वाक्यके साथ सम्बद्ध है। [राजा परके उपलक्षण रूप होनेसे कौरम्य प्रादि अपत्यार्थक प्रत्यय जिनके अन्तमें हों इस प्रकारके शब्दों के द्वारा भी {राजाको सम्बोषित किया जा सकता है। विदू
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४०० ]
नाट्यदर्पणम् । का० २०३, सू० २९७ किंच[सूत्र २६७]-मित्राख्याभिर्विदू राजा कुमारो भर्तृ दारकः । मुनि-शाक्यौ भदन्तेति स्वप्रसिद्धघाऽपरो व्रती ॥
[५०] ३०३ ।। सूत्री भावोऽनुगेनासौ तेन मार्षः समः सखा । शिष्यात्मजानुजाः पुत्र-वत्सौ तातो जरन्नपि ।
[५१] २०४ ॥ सौम्यो भद्रमुखश्चेति नीचो हण्डे तु पामरैः । येन कर्मादिना यस्तु ख्यातः स तदुपाधिकः ॥
[५२] २०५॥ वयस्य-सखीत्यादयो मित्राख्याः। ताभिविदूषको राज्ञा सम्बोध्यः। सूत्रत्वाच्च 'विद्' इत्येकदेशनिर्देशो न विरोधी । कुमारो युवराजः कौमारे वयसि वर्तमानो ऽन्यो वा एष भर्तृ दारक इति, भर्तृ दारको वा 'कुमार' इत्यामधातव्यः । एवं कुमार्यपि षकोंके द्वारा राजाको 'वयस्य' कहकर और अपि शब्दसे 'राजन्' इस पदसे भी सम्बोधित किया जा सकता है। प्रथमों अर्थात् नीच प्रकृति वालोंके द्वारा राजाको 'भट्टी' शब्दसे सम्बोषित किया जाता है। उत्तम, मध्यम तथा अषम प्रकृतिके सामान्य लोगोंके द्वारा राजाको 'देव' कहकर सम्बोधित किया जाता है। [४८-४६] २०१-२०२॥
और भी [इसी विषयमें प्रागे कहते हैं]
[सूत्र २९७]-राजां विदूषकको मित्र-वाचक पदोंसे सम्बोधित करता है। स्वामीके पुत्रको कुमार पवसे कहा जाता है। जैन तथा बौद्ध भिक्षु भवन्त' पदसे सम्बोषित होते हैं । अन्य व्रती [तपस्वी] लोग अपने-अपने सम्प्रदायमें प्रसिद्ध नामोंसे सम्बोधित होते हैं। [५.] २०३।
सूत्रधारको उसका अनुचर 'भाव' शब्दसे पुकारता है। और वह अर्थात् सूत्रधार उस [अनुचर] को 'माष' कहकर सम्बोषित करता है। बराबर वालेको 'सखा' कहकर और शिष्य, पुन तथा छोटे भाईको क्रमशः पुत्र, वत्स तथा तात कहकर सम्बोषित किया जाता है। तात शब्बसे वृक्ष जनोंको भी सम्बोधित किया जाता है।[५१] २०४ ।
नोध पुरुषको [मध्यम तथा उत्तम पुरुषों के द्वारा] सौम्य भद्रमुख कहकर और नीचों के द्वारा [नोचको हो] हरेकहकर सम्बोधित किया जाता है। और जिस कार्यके द्वारा . जिसकी प्रसिद्धि है उस कार्यको करने वाला उस-उस पदसे सम्बोषित किया जाना चाहिए। [५२] २०५॥
वयस्य, सला इत्यादि मित्र-बाधक पद हैं । उनके द्वारा राणा विदूषकको सम्बोधित करता है। [इन कारिकामोंके] सूत्ररूप होनेसे इसमें विदूषक इस पूरे पक्के स्थानपर "विदू इस [माय] पदके प्रयोगमें कोई विरोष नहीं पाता है। कुमार अर्थात् कौमारावस्थामें वर्तमान युवराज । अथवा स्वामी के अन्य पुत्र को 'भत बारक' कहा जाता है । अषदा स्वामी
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-- का० २०५, सू० २६७ ] चतुर्थो विवेकः .
[ ४०१ द्रष्टव्या। मुनिर्निम्रन्थ५:, शाक्यः सौगतः, एतौ भदंतेति । थपरः पाशुपतादिव्रती स्वसमयप्रसिद्धनामभिर्वाच्यः । यथा पाशुपतस्य भापूर्व 'भासर्वज्ञ' इत्यादि सम्भाषणम् ।
तथा सूत्री सूत्रधारो अनुगेन अनुचरेण का 'भाव'-शब्देन सम्भाष्यः। असो इत्यनुगः सूत्रधारात् किंचिन्न्यूनगुणः तेन सूत्रधारेण 'मार्ष' इत्यभिधातव्यः। तथा समो वयो ऽवस्था-गुणादिना तुल्यः, समेनैव 'सखा' इति वाच्यः। मित्राभिधायिना शब्देन सम्भाष्य इत्यर्थः। अनेन च विधानेन समस्य प्रसिद्धस्वनाम्ना सम्माषण न निषिध्यते। असम्भवायोगयोर्व्यवच्छेदफलत्वात् सर्वस्यापि नामविधानस्य । तेन आर्यादिनामविधानेऽपि नान्यशब्देन कीर्तननिषेधः।।
'शिष्यात्मजानुजाः' इति शिष्यो दीक्षितोऽध्यापितोवा । आत्मजः पुत्रः। अनुजो लघीयान् भ्राता। एते गुरु-जनक-ज्येष्ठभ्रातृभिः यथासंख्य पुत्रशब्देन वत्सशब्देन च सम्भाष्याः। तातशब्देन पुनर्जरन्, अपि-शब्दात शिष्यात्मजानुजाश्च कीर्तनीयाः।
तथा नीचप्रकृतिमध्यमोत्तमाभ्यां 'सौम्य' इति 'भद्रमुख' इति च शब्द्यते। पामरैर्नीचैः पुनर्नीच एव 'हंडे'-शब्देन, उपलक्षणाद् 'अरे', 'हहो' इत्यादिना च के पुत्र ‘भत वारक' को 'कुमार' कहा जाता है। इसी प्रकार कुमारीके लिए भी [भर्तृ दारिका पदका प्रयोग] समझना चाहिए । मुनि अर्थात् दिगम्बर, जैन और शाक्य अर्थात बौख-भिक्षु । इन दोनोंको 'भदन्त' इस पदसे सम्बोषित किया जाता है । पाशुपतादि अन्य सम्प्रदायोंके साधु अपने-अपने सम्प्रदायमें प्रसिद्ध नामोंसे सम्बोधित होते हैं। जैसे पाशुपत साधुके लिए भा-वाय को पहले लगाकर 'भा-सर्वज्ञ' मावि सम्बोधन किया जाता है।
. और सूत्री अर्थात् सत्रधारको अनुग अर्थात् उसके किचित् न्यून गुण वाले .. अनुचरके द्वारा 'भाव' शब्दसे सम्बोधित किया जाता है । और 'प्रसौं अर्थात् अनुचरको जोकि सूत्रधारसे किचित् न्यूनगुण वाला होता है सूत्रधार द्वारा 'भाष शम्बसे सम्बोषित किया जाता है। और बराबर वाले अर्थात् प्रायु, दशा और गुणाविमें अपने समान व्यक्ति को बराबर वाला व्यक्ति 'सखा' कहकर अर्थात् मित्र-वाचक पदोंसे सम्बोधित करता है। इस विधानके द्वारा बराबर वालेको उसके प्रसिद्ध नामसे सम्बोधित करनेका निषेध नहीं किया जा रहा है। इन सारे सम्बोधन-प्रकारोंके विधान का प्रयोजन असम्भव [अर्थात् प्रत्यन्तायोग] और प्रयोग-व्यवच्छेद करना ही है, इसलिए 'प्राय आदि नामोंके विधानमें भी अन्य शब्दों के द्वारा सम्बोषित करनेका निषेष नहीं है।
"शिष्यात्मजानुजाः' इसमें शिष्य अर्थात् जिसको दीक्षा दी हो अथवा पढ़ाया हो। मात्मज अर्थात् पुत्र । पौर अनुज अर्थात् छोटा भाई। इनको [क्रमशः] गुरु, पिता और बड़े भाईके द्वारा 'पुत्र' शब्दसे और 'वत्स' शब्दसे सम्बोषित किया जाता है। 'तात' शम्दसे [शिष्य, पुत्र और छोटे भाईको तो सम्बोषित किया हो जाता है किन्तु इनके अतिरिक्त] वृद्ध जनोंको भी सम्बोधित किया जाता है । 'अपि' शम्से शिष्य, पुत्र तथा छोटे भाईको भी 'सात' शब्दसे सम्बोधित किया जाता है।
और नीच प्रकृति वालेको उत्तम तथा मध्यम लोग . 'सौम्य', प्रौर भामुख कहकर पुकारते हैं। पामरों अर्थात् नीचोंके द्वारा नीच पुरुषको ही 'हंडे' शब्बसे और इसके उपलक्षणमें रूप होनेसे 'मरे', 'हहो' मावि शम्दोंसे भी पुकारते हैं। 'येन' अर्थात् जिस कर्म
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४०२ ]
नाट्यदपसाम् । का० २०६, सू० २४६ वाच्यः। येनेति कर्म वाणिज्य-कृषि-पाशुपाल्य-गीत-नृत्त-वाद्यवादन-चित्र-राजसेवाशस्त्र-श्रमादिव्यापारः । आदिशब्दात् जाति-कुलादिग्रहः । येन केनचित् कर्मादिना यः कश्चित प्रसिद्धः स तेन कर्मादिनोपाधिना शब्दप्रवृत्तिनिमित्तन संकीर्तनीयः । यथा गांधिकः ताम्बूलिकः, कृषीवलः, पशुपालो, गोपालो, गांधर्वश्चित्रकरः, सेवकः, वैद्यः, क्षत्रियो, ब्राह्मण इत्यादि । तथा स्वयं वा यत् कल्प्यते तदपि कर्माद्यनुरूप्येणैवेति ।। [५०-५२] २०२-२०५ ॥
अथ कल्पनीयनाम्नां कल्पनाप्रकारमाह[सूत्र २९८]-शूरे विक्रमसंसूचि कल्प्यं नामाथ वारिणजे । दत्तान्तं प्रायशो विप्रे गोत्रकर्मानुरूप्यतः ॥
[५३] २०६॥ नृपस्त्रियां शुभं दत्ता-सेनान्तं पणयोषिति । पुष्पादिवाचकं चेटयां चेटे मङ्गलकीर्तनम् ॥
[५४] २०७॥ · शूरे सत्त्वप्रधाने पुरुषे विक्रमस्य शौर्यस्य संसूचकं नाम कल्पनीयम् । यथा अर्थात् वाणिज्य, कृषि, पशु-पालन, गीत, नृत्य, वाद्य-वादन, चित्ररचना, राजसेवा, शस्त्र और श्रमादि व्यापारसे [जो प्रसिद्ध हो उसको उस उपाधिके द्वारा सम्बोधित किया जाता है] आदि शब्दसे जाति, कुल प्राविका ग्रहण होता है। जिस किसी कर्म प्रादिसे जो कोई प्रसिद्ध हो उसको उस कर्म-सूचक उपाधि प्रादिके द्वारा अर्थात उस उपाधिको नाम शब्दका प्रवृत्ति-निमित्त मानकर सम्बोधित करना चाहिए । जैसे [इतर, फुलेल प्रादिका व्यापार करने वालेको] गांधिक, [पान बेचने वालेको] ताम्बूलिक, [खेती करनेवालेको] किसान, [कुत्ते पालने वालेको] शुपाल [गायोंका पालन करने वालेको] गोपाल [संगीतसे जीविकोपार्जन करने वाले को] गांधर्व, [चित्ररचनाका कार्य करने वालेको], चित्रकर [नौकरीपेशाको] सेवक, वैद्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण इत्यादि [ये सब कर्म-निमित्तक सम्बोधन-पद कहलाते हैं । और जिन नामोंको स्वयं कल्पना की जाए वे भी कर्म आदिके अनुरूप ही होने चाहिए ॥ [५०-५२] २०३-२०५।
जब आगे कल्पित किए जाने वाले नामोंको कल्पना करनेके प्रकारको कहते हैं---
[सूत्र २६८]-शूर-वीर के लिए पराक्रम-सूचक नामकी कल्पना करनी चाहिए। वरिणका नाम ऐसा रखना चाहिए जिसके अंतमें दत्त माता हो और ब्राह्मणका नाम गोत्र एवं कर्मके अनुरूप रखना चाहिए । [५३] २०६।
राजाकी रानीका शुभ-सूचक नाम कल्पित करना चाहिए। वेश्याओं के नाम ऐसे बनाने चाहिए जिनके अन्त में 'दत्ता' या 'सेना' पद प्राते हों। चेटीके नाम फूल आदिके ऊपर रखने चाहिए। और चेटफा नाम किसी मंगल-वस्तुका सूचक कल्पित करना चाहिए। [५४] २०७।
शूर अर्थात पराक्रम-प्रधान पुरषके लिए विक्रम अर्थात् पराक्रमके संसूचक नामको कल्पना करनी चाहिए । जैसे भीमपराक्रम अरिमर्दन आदि। बनियों के लिए प्रायः अर्थात्
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का० २०७, सू० २६८ ]
चतुर्थी त्रिवेकः
[ ४०३
भीमपराक्रमोऽरिमर्दन इत्यादि । वाणिजे पुनः प्रायशो बाहुल्येन दत्तशब्दान्तं नाम - विधेयम् । यथा समुद्रदत्तः सागरदन्त इत्यादि । प्रायोवचनाद धनपतिरित्याद्यपि । विप्रे तु गोत्र-कर्मणोरानुरूप्येण नाम कल्पनीयम् । यथा शांडिल्यो . गार्ग्यायण इत्यादि । श्रथर्व शिकः सामको अग्निहोत्रिय इत्यादि । प्रायोवचनादग्निशर्मा सोमशर्मा इत्यपि ।
तथा नृपस्त्रियां शुभं शुभसं सूचकं नाम कर्तव्यं । यथा सुलक्षणा विजयवती इत्यादि । परणयोषिति वेश्यायां पुनर्दत्ताशब्दान्तं सेनाशब्दान्तं च नाम करणीयम् । यथा देवदत्ता, वसन्तसेना । प्रायोग्रहरणाद् विदग्धमित्रा वसन्तश्री रित्याद्यपि । तथा hari प्रेष्यायां योषिति मालिनी मल्लिका इत्यादीनि पुष्पवाचकानि, आदिशब्दात् चूतलतिका प्रियंगुमंजरी इत्यादीनि च नामानि कल्पनीयानि । चेटे प्रेषणीयपुरुषे पुनः मंगलं मंगलकारणं वस्तु कीर्त्यत शब्द्यते येन नाम्ना तत् सिद्धार्थ केत्यादि सिद्धिं नेयम् । एवमन्यदप्यत्र उत्तम - मध्यम अधमपात्राणां प्रयोजनानुसारतो नाम रूपकेषु कीर्तनीयमिति ॥ २०६-२०७ ।।
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तदेवं नाटकादीनि वीथ्यतानि द्वादश रूपाणि सप्रपञ्चं लक्षितानि ॥ अन्यान्यपि रूपकारिण दृश्यते । यदाहु:
अधिकतर 'दत्त' शब्द जिसके अंतमें हो इस प्रकार के नामको कल्पना करनी चाहिए। जैसे समुद्रवत, सागरवन्त इत्यादि । प्रायः शब्दका ग्रहण होनेसे [वत्तान्त नामोंको छोड़कर अन्य प्रकारके मामभी बनियोंके रखे जा सकते हैं] जैसे धनपति इत्यादि । ब्राह्मणोंके नाम, गोत्र और कर्मके अनुरूप कल्पित करने चाहिए। जैसे शाण्डिल्य, गार्ग्यायण [ ये दोनों नाम गोत्र-परक हैं] और प्राथवं रिक, सामक, प्रग्निहोत्रिय इत्यादि [ ये तीनों नाम कर्मके आधारपर बनाए गए हैं ] | राजाकी स्त्रीके लिए शुभ अर्थात् मंगलका सूचक नाम कल्पित करना चाहिए । जैसे सुलक्षणा या विजयवती इत्यादि । पणयोषित प्रर्थात् वेश्याके लिए दत्ता शब्द या सेना शब्द जिसके अंत में इस प्रकारके नामको कल्पना करनी चाहिए। जैसे देववत्ता, वसन्तसेना इत्यादि । प्रायः शब्दके ग्रहणसे [ दत्तान्स तथा सेनान्त नामों को छोड़कर ] विदग्धमित्रा वसन्ती इत्यादि [नाम भी वेश्याघ्रोंके रखे जा सकते हैं] । चेटी अर्थात् जिसको [प्रियके पास दूती श्रादिके रूप में सन्देश देकर ] भेजा जा सके इस प्रकारको [विश्वस्तसेविका ] स्त्रीके लिए मालिनी, मल्लिका इत्यादि पुष्पवाचक, और आदि शब्दसे वृतलतिका, प्रियंगुमंजरी इत्यादि नामोंकी भी कल्पना को जा सकती है। धौर सेट अर्थात् भेजे जा सकने योग्य पुरुषके लिए मंगल अर्थात् मंगलजनक वस्तुका जिस शब्द से कथन सूचित हो इस प्रकारका नाम कल्पित करना चाहिए। जैसे सिद्धार्थक यादि नाम बनाने चाहिए। इसी प्रकार यहाँ रूपकों में प्रयोजनके अनुसार उत्तम, मध्यम तथा प्रथम पात्रोंके नाम रखने चाहिए। [५३५४] २०६-२०७] "
।
इस प्रकार नाटक से लेकर वीथी- पर्यन्त बारह प्रकारके रूपकोंका विस्तारपूर्वक विवेचन यहाँ तक कर दिया गया है।
[ इन बारह प्रकारके रूपकों के प्रतिरिक्त] ग्रन्थ रूपक भी पाए जाते हैं । जैसा कि मागे कहते हैं
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४०४ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० २०८-१० सू० २६६
[ सूत्र २६६-१] – विष्कम्भक - प्रवेशकरहितो यस्त्वेकभाषया भवति । अप्राकृत संस्कृतया स सट्टको नाटिका ।। ५५ ।। [२] - श्रीरिव दानवशत्रोर्यस्मिन् कुलांगना पत्युः । वर्णयति शौर्य-धैर्यप्रभृति गुरणानग्रतः सख्याः ॥ पत्या च विप्रलब्धा गातव्ये तं क्रमादुपालभते । 'श्रीगदित 'मिति मनीषिभिरुदाहृतोऽसौ पदाभिनयः ॥
॥५६॥
[१] सट्टक
विष्कम्भक तथा प्रवेशकसे रहित, प्राकृत-रहित केवल एक भाषामें [प्रर्थात् संस्कृत भाषा वाला प्राकृत से रहित और प्राकृत वाला संस्कृतसे रहित] बनाया गया, नाटिका के सदृश रूपक 'सट्टक' नामसे कहा जाता है ॥ १ ॥
साहित्य - वर्परकारने सट्टकका लक्षण निम्न प्रकार किया है-सट्टकं प्राकृताशेष पाठ्य स्यादप्रवेशकम् ।
न च विष्कम्भोऽप्यत्र प्रचुरश्चाद्भुतो रसः ॥ २७६ ॥ का जवनिकाख्याः स्युः स्यादन्यन्नाटिकासमम् ।
यथा कर्पूरमंजरी ।
साहित्यदर्पणकारके अनुसार सट्टकमें सारा पाठ्य भाग केवल प्राकृत भाषा में लिखा जाता है, किन्तु नाट्यदर्पणकार के अनुसार संस्कृत या प्राकृत किसी भी एक भाषामें लिखा जा सकता है । जो सट्टक प्राकृत भाषा में लिखा जाए वह संस्कृत भाषासे रहित हो और जो संस्कृत में लिखा जाए वह प्राकृत भाषासे रहित हो । यह नाट्यदर्पणकार के प्रप्राकृत संस्कृतया एकभाषया भवति' का अभिप्राय प्रतीत होता है ।
[२] श्रीगदित
इसमें भी जहाँ दानवशत्रु प्रर्थात् विष्णुकी पत्नी लक्ष्मीके समान कोई कुलांगना अपने पतिके शौर्य, धैर्य प्रादि गुगोंका सखीके सामने बखान करती है ।
और पतिके द्वारा ठगी जानेपर किसी गीतमें उसको उपालम्भ देती है उसको विद्वानोंने 'श्रीगति' कहा है । और वह [ पदार्थोंका अभिनय न होकर केवल ] पदाभिनयात्मक होता है ।। ५६ ।।
साहित्यदर्पणकारने 'श्रीगदित' का लक्षण निम्न प्रकार किया हैप्रख्यातवृत्तमेकांक प्रख्यातोदात्तनायकम् | प्रसिद्धनायिकं गर्भ-विमर्शाभ्यां विवर्जितम् ॥ २६३ ॥ भारतीवृत्तिबहुलं श्रीतिशब्देन संकुलम् । मतं श्रीगदितं नाम विद्वद्भिरूपरूपकम् ॥ २६४ ॥ श्रीरासीना श्रीगदिते गायेत् किंचित् पठेदपि । एकांको भारतीप्राय इति केचित् प्रचक्षते ॥ २६५ ॥
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का० २११, सू० २६६ ] [३] - चौर्यरतप्रतिभेदं
चतुर्थो विवेकः
चापि ।
यूनोरनुरागवर्णनं यत्र ग्राम्यकथाभि: कुरुते किल दूतिका रहसि ॥ मन्त्रयति च तद्विषयं न्यग्जातित्वेन याचते च वसु । लब्ध्वापि लब्धुमिच्छति 'दुमिलिता' नाम सा भवति ।। ५७ ।
[४] - प्रथमानुराग - मान- प्रवास-शृङ्गारसंश्रयं यत् स्यात् । प्रावृड्-वसन्तवर्णनपरमन्यद् वापि सोत्कण्ठस् ॥
श्रन्ते
वीररसाद्यैनिबद्धमेतच्चतुभिरपसारैः ।
प्रस्थानमिति ब्रुवते प्रवासमुपलक्षयत् सुधियः ॥ ५८ ॥ नृत्यच्छिन्नानि खण्डान्यप्रसाराः ॥ ५८ ॥२११॥
[ ४०५
[३] दुर्मिलिता
जिसमें कोई व्रती एकान्त में ग्राम्य [ ग्रश्लील ] कथानों द्वारा युवक और युवतियोंके प्रेमका वर्णन और उनके चौर्यरतका प्रकाशन करती है । उसके विषय में सलाह करती है नीच जातिकी होनेसे धन माँगती है । धनके मिल जानेपर भी और अधिक धन चाहती है उसको 'दुर्मिलित' नामक रूपक कहा जाता है ॥ ५७ ॥
साहित्यदर्पणकारने 'दुर्मिलिता' के स्थानपर दुर्मल्लिका आदि नामोंका प्रयोग किया गया है और उसका लक्षण निम्न प्रकार किया है
दुर्मल्ली चतुरंका स्यात् कैशिकी - भारतीयुता ।
गर्भा नागर-नरा न्यूननायकभूषिता ॥ ३०३ ॥ त्रिनालिः प्रथमोऽङ्कोऽस्यां विटक्रीडामयो भवेत् । पंचनालिद्वितीयो ऽङ्को विदूषकविलासवान ॥ ३०४ ॥ रणालिकस्तृतीयस्तु पीठमर्दविलासवान् । चतुर्थो दशनालिः स्यादेकः क्रीडितनागरः ।। ३०५ || [४] प्रस्थान
प्रथम अनुराग, मान, प्रवास, श्रृंगाररससे युक्त वर्षा श्रौर वसन्तके वर्णन, अथवा औौर भी उत्कण्ठा-प्रदर्शक सामग्रीसे परिपूर्ण, अन्तमें वीररस द्वारा निबद्ध किया गया और चार अपसार [अर्थात् नृत्य द्वारा छिन्न होनेवाले खण्डों] में विरचित [ उपरूपकभेदकों] विद्वान् लोग प्रवासके सूचक 'प्रस्थान' इस नाम से कहते हैं ॥ ५८ ॥
नृत्यके द्वारा छिन्न होनेवाले [रूपकके] खण्डोंको अपसार कहते हैं । 'प्रस्थानक' का लक्षरण साहित्यदर्पणकारने निम्न प्रकार किया हैप्रस्थाने नायको दासो हीनः स्यादुपनायकः । दासी च नायिका वृत्तिः कैशिकी भारती तथा ॥ २८० ॥ सुरापानसमा योगादुद्दिष्टार्थस्य संहतिः । कौ द्वौ लयतालादिर्विलासो बहुलस्तथा ॥ २८१ ॥
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४०६ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० २१२-१४, सू. २६६ [५]-गोष्ठे यत्र विहरतश्चेष्टितमिह कैटभद्विषः किंचित् ।
रिष्टासुरप्रमथनप्रभृति तदिच्छन्ति गोष्ठीति ॥ ५६ ॥ [६]-यमण्डलेन नृत्तं स्त्रीणां हल्लीसकं तु तत् प्राहुः ।
तत्रको नेता स्याद् गोपस्त्रीणामिव मुरारिः ॥ ६० ॥ [७]-यस्य पदार्थाभिनयं ललितलयं सदसि नर्तको कुरुते।
तन्नर्तकं शम्या लास्यच्छलितद्विपद्यादि ॥ ६१ ॥ किन्नरविषयं लास्यं नृत्तं शम्या । शृङ्गाररसप्रधानं लास्यम् । शृङ्गार-वीर-रौद्रादिप्रधानं छलितम् । द्विपद्यादयः छन्दोभेदाः॥
[-]-रथ्या-समाज-चत्वर-सुरालयादी प्रवर्त्यते बहुभिः । ____पात्रविशेषर्यत् तत् प्रेक्षणकं कामदहनादि ॥ ६२ ॥
[५] गोष्ठी
जिसमें गोष्ठमें विहार करनेवाले कृष्णके रिटामरवष प्रादि जैसे किसी व्यापारका प्रदर्शन किया जाय उसको 'गोष्ठी' कहते हैं ॥५॥ साहित्यदर्पणकारने 'गोष्ठी'का लक्षण निम्न प्रकार किया है
प्राकृतैर्नवभिः पुभिर्दशभिर्वाप्यलंकृता । नोदात्तवचना गोष्ठी कैशिकीवृत्तिशालिनी ॥ २७४ ॥ हीना गर्भ-विमर्शाभ्यां पंच-षड् योषिदन्विता ।
काम-शृङ्गारसंयुक्ता स्यादेकाकविनिर्मिता ॥ २७५ ।। [६] हल्लीसक
स्त्रियोंका जो-मण्डलाकार बनाकर नाचना है उसको 'हल्लीसक' कहते हैं । गोपियोंक बीच कृष्णके समान उसमें एक नायक होता है । ६०॥ साहित्यदर्पणकारने हल्लीसकका लक्षण निम्न प्रकार किया है
हल्लीसक एक एवांकः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः । वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तिरुज्वला ।।
मुख्यान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः ॥ ३०७ ॥ [७] शम्या
सभामें नर्तकी ललित लयके साथ जिसके पदार्थोका पभिनय करती है उस मृत्यको शम्या, लास्य, छलित, द्विपदी मादि नामोंसे कहते हैं॥६१॥
किन्नरोंके नाचको 'शम्या' कहते हैं। शृंगाररस प्रधान नृत्त 'लास्य' कहलाता है। शृंगार, बोर और रोद्रादि प्रधान नृत्तको 'छलित' कहते हैं । 'विपदों' मावि [उन नृत्तोंमें गाएं जानेवाले छन्दोंके भेद होते हैं।
[८] प्रेक्षणक
- गलीमें, समाजमें, चौराहे .. अपवा मशाला पादिमें बहुतसे विशेष प्रकारके पात्रों के द्वारा जिसका प्रदर्शन किया जाय उस [नृत्यविशेष को 'प्रेक्षरएक' कहते हैं। वैसे.कामबहन प्रादि [प्रेक्षणकके उदाहरण ॥१२॥
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का० २१५-१७, सू० २६६ ] चतुर्थो विवेकः
। ४०७ [६] षोडश द्वादशाहो वा यस्मिन् नृत्यन्ति नायिका; ।
पिण्डीबन्धादिविन्यासः रासकं तदुदाहृतम् ॥ पिण्डनाव तु भवेत् पिण्डी गुम्फनाच्छाला भवेद ।
भेदनाद् मेधको जातो, लताजालापनोदतः॥६३॥ [१०]-कामिनीभिभुवो भतुश्चेष्टितं यत् तु नृत्यते।
रागाद् वसन्तमासाद्य .स शेयो नाट्यरासकः ॥६४॥ साहित्यदर्पणकारने 'प्रेक्षणकम्' के स्थानपर 'प्रेक्षणम्' नामका प्रयोग किया है और उसका लक्षण निम्न प्रकार किया है
गर्भावमर्शरहितं प्रेसणं हीननायकम् । असूत्रधारमेकांकमविष्कम्भ - प्रवेशकम् ॥ २८६ ॥ नियुद्धसम्फेटयुतं सर्ववृत्तिसमाश्रितम् ।
नेपथ्ये गीयते नान्दी तथा तत्र प्ररोचना ॥ २८७ ॥ [[] रासक
जिसमें सोलह, बारह या पाठ स्त्रिया [मायिकाएं] पिणीबन्ध माविकी रचना द्वारा नाचती हैं उसको 'रासक' कहा जाता है।
[नाचने वालियों के एक साथ इकट्ठे हो जानेको पिसी कहते हैं। एक-दूसरेसे मुंप: कर [मादन] शृंखला कहलाती है। पूर्व गुम्फित] लताजालको तोड़कर अलग हो जानेको भेतक कहते हैं ॥ ६३ ॥ साहित्यदर्पणकारने 'रासक'का लक्षण निम्न प्रकार किया है
रासकं पंचपात्रं स्यात् मुख-निर्वहणान्वितम् । भाषा-विभाषाभूयिष्ठं भारतीकैशिकीयुतम् ॥ २८८ ॥ असूत्रधारमेकांकं सवीथ्यंगं कलान्वितम् । श्लिष्टनान्दीयुतं ख्यातनायिक मूर्खनायकम् ॥ २८ ॥ उदात्तभावविन्याससंश्रितं चोत्तरोत्तरम।
इह प्रतिमुखसन्धिमपि केचित् प्रचक्षते ॥ २६ ॥ [१०] नाट्य-रासक
बसन्त मावि[उन्मावक] ऋतुओंके मानेपर स्त्रियोंके द्वारा रागावि मावेशमें जो राजामों के परित्रका नृत्य द्वारा प्रदर्शन किया जाता है उसको 'नाव्य-रासक' कहा जाता है ॥४॥ साहित्यदर्पणकारने नाट्यरासकका लक्षण निम्न प्रकार किया है
नाट्यरासकमेकांक बहुताललयस्थिति ॥ २८७ ॥ उदात्तनायक तद्वत्पीठम>पनायकम् । हास्योऽनयत्र सशृङ्गारो नारी वासकसज्जिका ॥२७८॥ मुखनिर्वहणे सन्धी लास्यांगानि दशाऽपि च । केचित् प्रतिमुख सन्धिमिह नेच्छन्ति केवलम् ॥ २७ ॥
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४०८ ]
... नाट्यदर्पणम [ का० २१८, सू० २६६ [११]-पाक्षिप्तिकाय वर्णो मात्राध्रुवकोऽप्यभग्नतालश्च ।
पद्धतिका छर्दनिका यत्र स्युस्तविह काव्यमिति ॥६५॥ [१२]-हरि-हर-भानु-भवानी-स्कन्द-प्रमथाधिपस्तुतिनिबद्धः ।
उद्धत-करणप्रायः स्त्रीवों वर्णनायुक्तः ॥ यदि चैव शुद्धवाचा शुद्धः संकोर्णया च संकीर्णः । सर्वाभिर्भाषाभिचित्रश्च विचेष्टितश्चित्रः ॥ प्रयमुद्धतोऽथ ललितो भारणो ललितोद्धतश्च सम्भवति । अर्थानामौद्धत्याल्लालित्यादुभयसत्त्वाच्च
॥६२॥ [१३]-यद् दुष्करमभिनेयं चित्रं चात्युटं च सम्भवति ।
तद् भारणके ऽभिनेयं युतमनुतालवितालश्च ॥ प्रायो हरिचरितयुतः स्वीकृतगाथादिवर्णमात्रश्च ।
सुकुमारतः प्रयोगाद् भारणोऽपि हि भारिणका भवति ॥६३॥ इत्यादीनि ॥ ६३॥
[११] काव्य
जिसमें प्राक्षिप्तका, वर्ण, मात्रा, ध्रव और न टूटनेवाला ताल, पढतिका पौर वर्षनिका जिसमें हो उसको 'काव्य' कहते हैं ॥ ६५ ॥
[१२] भाण
विष्ण, महादेव, सूर्य, पार्वती, स्कन्द और प्रमथाधिपको स्तुतिमें निगड किया गया, उक्त करणोंसे युक्त, स्त्री पात्रोंसे रहित, यदि शुद्ध संस्कृत वाणो द्वारा वर्णनायुक्त हो तो शुद्ध पौर यदि [संस्कृत तथा प्राकृतके] संकर [द्वारा किए गए वर्णन] से युक्त हो तो संकोरणं [भारण कहलानेवाला] सब प्रकारको भाषाओं और नाना प्रकारके व्यापारोंसे विचित्र यह भारण उद्धत [उसमें वरिणत विषयोंके उदत ललित तथा उभयात्मक होनेसे उसत, ललित तथा ललितोद्धत [भेवसे तीन प्रकारका हो सकता है। और उस भारणमें अभिनेय वस्तु अनुताल तथा वितालोंसे युक्त होता है ।। ६२॥
[१३] भाणिका
अधिकतर विष्णुके चरितसे युक्त स्त्रियों द्वारा गाथा [छन्व], वर्ण और मात्रामोंकी रचना जिसमें की जाय इस प्रकारका भाग भी सुकुमारताके प्रयोग के [विखलानेके कारण] भारिणका कहलाता है ॥६३। साहित्यदर्पणकारने भारण तथा भारिणकाके लक्षण निम्न प्रकार किए हैं
भाणिका श्लक्षणनेपथ्या मुख-निर्वहणान्विता । कैशिकी-भारतीवृत्तियुक्तकाङ्कविनिर्मिता . ॥ ३०८ ॥ उदात्तनायिका मन्दपुरुषात्राङ्गासप्तकम् । उपन्यासोऽथ विन्यासो विबोधः साध्वसं तथा ॥ ३०६ ॥
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उपसंहारः ] चतुर्थो विवेकः
[ ४० . __एतानि च स्वल्पमात्ररंजनानिमित्तत्वाद, वृद्धैरनभिहितत्वाच्च वृत्तावेव कीतितानीति ।
शब्द-प्रमाण-साहित्य-छन्दोलक्ष्मविधायिनाम् ।। श्रीहेमचन्द्रपादानां प्रसादाय नमो नमः ॥ १ ॥ परोपनीतशब्दार्थाः, स्वनाम्ना कृतकीर्तयः । निबद्धारोऽधुना तेन, को नौ क्लेशमवेष्यति ॥ २ ॥ न सूत्र-वृत्त्योराधिक्यं न हीनत्वं न कुण्ठता। यावदर्था गिरः सन्ति स्वयं सन्तो विवेचताम् ॥ ३ ॥ शब्दलक्ष्म-प्रमालक्ष्म-काव्यलक्ष्म-कृतभमः । वाग्विलासस्त्रिमार्गो नौ प्रवाह इव जाह्र जः ॥ ४ ॥ रूपस्वरूपं विज्ञातु यदीच्छत अथास्थितम् । सन्तस्तदानीं गृहीत निर्मलं नाट्यदर्पणम ॥ ५ ॥ समर्पणं निवृत्तिश्च संहार इति सप्तमः। उपन्यासः प्रसंगेन भवेत् कार्यस्य कीतेनम् ।। ३१० ॥ निर्वेदवाक्यव्युत्पत्तिर्विन्यास इति स स्मृतः । भ्रान्तिनाशो विबोधः स्यान्मिथ्याख्यानं तु साध्वसम ॥ ३११॥ सोपालम्भवचः कोपपीडयेह समर्पणम् । निदर्शनस्योपन्यासो निवृत्तिरिति कथ्यते ॥ ३१२ ॥
संहार इति च प्राहुयेत् कार्यस्य समापनम् ।। इनके स्वल्प मात्रामें ही मनोरंजक होने तथा भरतमुनि [वृद्ध] के द्वारा न कहे जानेके कारण [इनको हमने मूल ग्रंथमें न दिखलाकर यहाँ] वृत्तिभागमें ही दिखलाया है।
व्याकरण, न्याय, साहित्य तथा छन्दःशास्त्रके लक्षण ग्रंथोंकी रचना करनेवाले श्री पूज्य प्राचार्य हेमचन्द्रजीको प्रसन्नताके लिए हम उनको नमस्कार करते हैं ॥१॥
___ आजकल कि ग्रंयकार प्राय:] दूसरोंके शम्वों और प्रोंको लेकर अपने नामसे [ग्रंथ रचना-दिखलाकर कोतिका उपार्जन करते हैं [इसी दशामें इस ग्रंथ की रचनामें उठाए हुए] हमारे क्लेशको कौन समझता है ॥२॥
_[हमारे इस ग्रंथमें] न सूत्रका प्राधिक्य है और न वृतिभागका। न किसी भागमें कमी है और न [कुण्ठता अर्थात् अस्पष्टता है। विद्वान लोग स्वयं ही देख लें कि इसमें जितना अर्थ कहना है उतने ही शब्दोंका प्रयोग किया गया है। [अनावश्यक कुछ भी नहीं लिखा गया है और न अपेक्षित वातको छोड़ा हो गया है] ॥३॥
व्याकरणशास्त्र, न्यायशास्त्र और साहित्यशास्त्रमें श्रमको प्रदर्शित करनेवाला हम दोनोंकी वाणीका प्रवाह गंगाको पाराके समान तीन धारामों वाला है ।। ४॥
हे सज्जन पुरुषों यदि माप रूपकोंके वास्तविक स्वरूपको देखना चाहते हो तो इस निर्मल नाव्यदर्पणको प्रहण कीथिए । [इस निर्मल नाव्यापरणमें ही रूपकोंके स्वरूपको यथार्थ वर्शन हो सकेगा।
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४१० ] नाट्यदर्पणम
[ उपसंहारः - इति श्री रामचन्द्र-गुणचन्द्रविरचितायां स्वोपक्षनाट्यदर्पणाविवृत्ती
सर्वरूपकसाधारणलक्षणनिर्णयो नाम चतुर्थो विवेक : मी रामचन्न-गुणचन विरचित स्वनिर्मित नाव्यदर्पणको विवृत्ति में सबसपकोंके समान विषयोंका प्रतिपादन करनेवाला
चतुर्व विवेक समाम हुमा ॥ उत्तरप्रदेशस्थ 'पीलीभीत' मन्डलान्तर्गत 'मकतुल' प्रामनिवासिना
भी शिवलाल-बलशी-महोदयानां तनुजनुवा वृन्दावनस्य-गुरुकुल विश्वविद्यालयाषिगतवियेन, तत्रत्याचार्यपवमधितिष्ठता, एम० ए० इत्पुपपवारिणा विद्यामार्तडेन' भीमदाबार्यविश्वेश्वरसिद्धान्तशिरोमणिना विरचिता 'मायापरणदीपिका' हिम्बोम्याल्या समाप्ता।
समाप्तश्चार्य प्रन्यः ।
. समाप्त
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परिशिष्ट [१] रामचन्द्र-गुणचन्द्रसंसूत्रितं नाट्यदर्पणम्
(मूलम्)
अथ नाटकनिर्णयः प्रथमो विवेकः चतुर्वर्गफलां नित्यं, जैनी वाचमुपास्महे । स्पदिशभिर्विश्वं, यया न्याय्ये धृतं पथि ॥ १॥ अभिनेयस्य काव्यस्य, भूरिभेदभृतः कियत् । कियतोऽपि प्रसिद्धस्य, दृष्टं लक्ष्म प्रचक्ष्महे ॥ २॥ नाटकं प्रकरणं च, नाटिका प्रकरण्यथ । व्यायोगः समवकारः भाणः प्रहसनं डिमः।। ३ ॥ मत ईहामृगो वीथी, चत्वारः सर्ववृत्तयः। त्रिवृत्तयः परे त्वष्टौ, कौशिकी-परिवर्जनात् ।। ४ ।। ख्याताधराजचरितं, धर्म-कामार्थसत्फलम् । सातोपाय-दशा-सन्धि, दिव्याङ्ग तत्र नाटकम् ॥ ५॥ उद्धतोदात्त-ललित शान्ता धीर-विशेषणा:। वा: स्वभावाश्चत्वारः, नेतृणां मध्यमोत्तमाः ॥ ६ ॥ देवा धीरोद्धता धीरोदात्ताः सैन्येश-मन्त्रिणः । धीरशान्ता वरिणग्-विप्राः, राजानस्तु चतुर्विधाः ॥ ७॥ धीरोद्धतश्चलश्चण्डः, दी दम्भी विकत्थनः ।। धीरोदात्तोऽतिगम्भीरः, न्यायी सत्त्वी क्षमी स्थिरः ।। ८ ।। शृङ्गारी धीरललितः, कलासक्तः सुखी मृदुः। धीरशान्तोऽनहङ्कारः, कृपालुविनयी नयी ॥ ६ ॥ मुख्यमिष्टफलं वृत्तम्, अङ्ग प्रासङ्गिक क्वचित् । सूच्यं प्रयोज्यमम्यूह्यम्, उपेक्ष्यं तच्चतुर्विधम् ।। १० ।।
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प्रथमो विवेकः नीरसानुचितं सूख्यं, प्रयोज्यं तद्विपर्ययः । ऊह्यं तदविनाभूतम्, उपेक्ष्यं तु जुगुप्सितम् ॥ ११ ।। प्रकाशं ज्ञाप्यमन्येषां, स्वगतं स्वहदि स्थितम् । परावृत्य रहस्यास्याऽन्यस्मै तबपवारितम् ॥ १२ ॥ त्रिपताकान्तरोऽन्येन, जल्पो यस्तज्जनाम्निकम् । पाकाशोक्तिः स्वयम्प्रश्न-प्रत्युसरमपात्रकम् ॥ १३ ॥ स्वल्पपचं लघुगचं, श्लिष्टावान्तरवस्तुकम् । सिन्धु-सूर्येन्दु-कालादि-वर्णनाधिक्यवजितम् ॥ १४ ॥ एकाङ्गिरसमन्याङ्गम्, अद्भुतान्तं रसोमिभिः । पलचितमलङ्कार-कथा-मरगलवू-रसम् ॥ १५ ॥ उक्तत्वाद् वक्ष्यमाणत्वाद्, भूयःकार्याद् यदुच्यते । तत् कर्णे श्रावयेद् येन, न याति पुनरुक्तताम् ।। १६ ।। गोपुच्छ-केश-कल्पानि, नाट्यवस्तूनि कल्पयेत् । उदात्ता रखका भावाः, स्थापनीया: पुरः पुरः ।। १७ ॥ प्रयुक्तं च विरुद्धं च, नायकस्य रसस्य वा । वृत्तं यत् तत् परित्याज्यं, प्रकल्प्यमयवाऽन्यथा ॥ १८ ॥ अवस्थायाः समाप्तिर्वा, छेदो वा कार्ययोगतः । मङ्कः सबिन्दु श्यार्थः, चतुर्यामो मुहूर्ततः ।। १६॥ आवश्यकाविरोध्यर्थः, स्वल्पपात्रः सनिगमः। पश्चसयोऽपकर्षेण, दशसङ्ग्यः प्रकर्षतः ।। २० ॥ मभिधातः प्रषावस्य, नेतुर्ग्रथ्यो न कुत्रचित् । बन्धः पलायनं सन्धिः, योज्यो वा फललिप्सया ॥ २१ ॥ दूराध्वयानं पूरोषः, राज्य-देशादि-विप्लवः । रतं मृत्युः समीकादि, वयं विष्कम्भकादिभिः ॥ २२ ॥ मकानहस्य वृत्तस्य, त्रिकालस्यानुरञ्जिना। सङ्क्षिप्य संस्कृतेनोक्तिः, मादी मध्यमैजनैः ॥ २३ ॥ शुद्धो विष्कम्भकस्तत्र, सङ्गीणों नीच-मध्यमः। मसन्धायकः शक्य-सन्धानातीतकालवान् ॥ २४ ॥ एवं प्रवेशको नीचः, परार्थः प्राकृतादिना । एतो प्रभूतकार्यत्वात, नाटकादिचतुष्टये ॥ २५ ॥ अलास्यमन्तपात्रेण, बिनाङ्कमुखयोजनम् । वस्तुना सूचनं चूला, पात्रनेपथ्यसंस्थितः ॥२६॥
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प्रथमो विवेका
सोऽङ्कावतारो यत्-पात्रः, प्रङ्कान्तरमसूचनम् । प्राची सूच्ये बहावन्ये, क्रमादल्पे तरे तमे ।। २७ ।। बीजं पताका प्रकरी, बिन्दुः कार्य यथारुचि । फलस्य हेतवः पञ्च, चेतनाचेतनात्मकाः ॥ २८ ॥ स्तोकोद्दिष्टः फलप्रान्तः, हेतुर्बीज प्ररोहणात् । पाविमर्श पताका चेत्, चेतनः स परार्थकृत् ॥ २९॥ चिन्तितापिरप्राप्तिः, वृत्त यत्रोपकारिणी। पताकास्थानकं तत् तु, चतुर्धा मण्डनं क्वचित् ॥ ३०॥ सहसेष्टार्थलाभश्च, श्लिष्टसातिशया च वाग् । पर्था चाप्रकटे श्लिष्ट-स्पष्टप्रत्यभिधाऽपि च ॥ ३१॥ प्रकरी चेत् क्वचिद् भावी, चेतनोऽन्यप्रयोजनः। हेतोक्छेदेऽनुसन्धानं, बहूनां बिन्दुराफलात् ॥ ३२ ॥ साध्ये बीजसहकारी, कार्य कार्यस्तु मुख्यता। पताकायाः प्रधानत्वेऽनुसन्धिः सूचनाऽऽदिभिः ॥ ३३ ॥ भारम्भ-यत्न-प्राप्त्याशा-नियताप्ति-फलागमाः । नेतुत्ते प्रधाने स्युः, पश्चावस्था ध्रुवं क्रमात् ॥ ३४ ॥ फलायौत्सुक्यमारम्भः, प्रयत्नो व्यापूतो त्वरा। फलसम्भावना किश्चित्, प्राप्त्याशा हेतुमात्रतः ॥ ३५ ॥ नियताप्तिरुपायानां, साकल्यात् कार्यनिर्णयः । साक्षादिष्टार्थसम्भूतिः, नायकस्य फलागमः ॥ ३६ ॥ मुख प्रतिमुखं गर्भामर्श-निर्वहणान्यमी । सन्धयो मुख्यवृत्तांशा;, पञ्चावस्थाऽनुगा: क्रमात् ॥३७॥ मुखं प्रधानवृत्तांशः, बीजोत्पत्ति-रसाश्रयः । प्रतिमुखं कियल्लक्ष्य-बीजोदाट-समन्वितः ॥३८॥ बीजस्योन्मुख्यवान गर्भः, लाभालाम-गवेषणः । उद्भिन्नसाध्य-विघ्नात्मा, विमर्शी व्यसनादिभिः ॥ ३९ ॥ सबीजविकृतावस्था: नाना-भावा मुखादयः। फलसंयोगिनो यस्मिन्, असो निर्वहणो ध्र वम् ॥ ४० ॥ उपक्षेपः परिकरः, परिन्यासः समाहितिः। उद्भ दः करणं चतान्यत्रैवाथ विलोभनम् ॥४१॥ भेदनं प्रापणं युक्ति, विधान परिभावना । सर्वसन्धिध्वमूनि स्युः, द्वादशाचं मुखं ध्रुवम् ॥४२॥
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प्रथमो विवेकः
बीजस्यप्तिरुपक्षेपः स्वल्पव्यासः परिक्रिया | विनिश्चयः परिन्यासः, पुनर्न्यासः समाहितिः ।। ४३ ।। स्वल्पप्ररोह उद्भेदः करणं प्रस्तुतक्रिया । विलोभनं स्तुतेर्गायं, भेदनं पात्रनिर्गमः ॥ ४४ ॥
प्रापणं सुखसम्प्राप्तिः, युक्तिः कृत्यविचारणा । विधानं सुख-दुःखाप्तिः, विस्मयः परिभावना ।। ४५ ।। विलासो धूननं रोधः, सान्त्वनं वर्ण संहृतिः । नर्म नर्मद्युतिस्तापः स्युरेतानि यथारुचि ।। ४६ ।। पुष्पं प्रगमनं वज्रम्, उपन्यासोपसर्पणम् । पञ्चावश्यमप्यङ्गानि प्रतिमुखे त्रयोदश ॥। ४७ ।। विलासो न स्त्रियोरीहा, घूननं साम्न्यनादरः । रोषोऽतिः सान्त्वनं साम, पात्रोधो वर्णं संहृतिः ॥ ४८ ॥ क्रीडाये हसनं नर्म दोषावृत्तौ तु तदुद्युतिः । अपायदर्शनम् ताप:, पुष्पं वाक्यं विशेषवत् ॥ ४९ ॥ प्रगमः प्रतिवोक् श्रेणिः, वज्र प्रत्यक्षकर्कशम् । उपपत्तिरुपन्यासः, नष्टेष्टेहाऽनुसर्पणम् ॥ ५० ॥ सङग्रहो रूपमनुमा, प्रार्थनोदाहृतिः क्रमः । उद्वेगो विद्रवश्चंद्, गुरणतः कार्यमष्टकम् ॥ ५१ ॥ प्रक्षेपोऽधिलं मार्गोऽसत्या हरण- तोटके | पंचतानि प्रधानानि, गर्भेऽङ्गानि त्रयोदश ।। ५२ ।। सङ्ग्रहः साम-दानादिः, रूपं नानार्थसंशयः । अनुमा निश्चयो लिङ्गात्, प्रार्थना भावयाचनम् ॥ ५३ ॥ उदाहृतिः समुत्कर्षः, क्रमो भावस्य निर्णयः । उद्वेगो भोर्द्रवः शङ्खाऽऽक्षेपो बीजप्रकाशनम् ॥ ५४ ॥ अधिबल बलाधिक्यं, मार्गस्तत्त्वार्थशंसनम् । असत्याहरणं छद्म तोटकं - गर्भितं वचः ॥ ५५ ॥ द्रवः प्रसङ्गः सम्फेटोऽपवादाश्छादनं द्युतिः । खेदो विरोध: संरम्भः भवेयुर्गरणतो नव ।। ५६ ।। शक्ति प्ररोचनाऽऽदान व्यवसायास्तु मुख्यतः । त्रयोदशाङ्गान्यामर्शे, द्रवः पूज्यव्यतिक्रमः ॥ ५७ ॥ प्रसङ्गो महतां कीर्तिः, सम्फेट: क्रोधजं वचः । अपवादः परीवादः, छादनं मन्युमार्जनम् ॥ ५८ ॥
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प्रथमो विवेका
तिरस्कारो इति: खेदः, श्रम: काय-मनो-भवः । विरोधः प्रस्तुतज्यानि, संरम्भः शक्तिकीर्तनम् ॥ ५६ ।। कद्धप्रसादनं शक्तिः भाविसिद्धिः प्ररोचना । फलसामीप्यमादानं, व्यवसायोऽर्थ्य हेतुयुक् ॥ ६० ।। सन्धिनिरोधो ग्रथनं निर्णय: परिभाषणम् । उपास्तिः कृतिरानन्दः, समयः परिगृहनम् ।। ६१ ।। भाषणं काव्यसंहार-पूर्वभाव प्रशस्तयः। चतुर्दशाङ्गो निर्वाहः, सन्धिीज-फलागमः ।। ६२॥ निरोध: कार्यमीमांसा, प्रथनं कार्यदर्शनम् । निर्णयोऽनुभवख्यातिः, परिभाषा स्वनिन्दनम् ॥ ६३ ॥ सेवोपास्ति: कृतिः क्षेमम्, प्रानन्दो वाञ्छितागमः। समयो दुःखनिर्वासोदुताप्ति: परिगृहनम् ॥ ६४ ॥ भाषणं साम-दानोक्तिः, प्राग्भाव: कृत्यदर्शनम् । वरेच्छा काव्यसंहारः प्रशस्ति: शुभशंसना ।। ६५ ।।
इति श्रीरामचन्द्र-गुणचन्द्रविरचिते नाटयदर्पणसूत्रे नाटकनिर्णयो नाम
प्रथमो विवेकः ॥ १॥
प्रथः प्रकरणाघेकादशरूपनिर्णयो द्वितीयो विवेकः प्रकरणं वरिणग्-विप्र-सचिव-स्वाम्यसंकरात् । मन्दगोत्राङ्गनं दिव्यानाश्रितं मध्यचेष्टितम् ॥ १॥ दास-श्रीष्ठि-विटयुक्त, क्लेशाढय तच्च सप्तधा। कल्प्येन फल-वस्तूनाम्, एक-द्वि-त्रि-विधानतः ॥ २ ॥ कुलस्त्री गृहवार्तायां, पण्यस्त्री तु विपर्यये ।। विटे पत्यो द्वयं तस्माद् एकविंशतिधाऽप्यदः ॥ ३ ॥ अत्राकल्प्यं पुरा क्लुप्तं, यद्वाऽनार्षमसद्गुणम् ।। शेषं नाटकवत् सर्व, कैशिकीपूर्णतां विना ॥ ४ ॥ चतुरङ्का बहुस्त्रीका, नृपेशा स्त्री-महीफला। कल्प्यार्था - कैशिकी-मुख्या, पूर्वरूपद्वयोत्थिता ।। ५ ।। प्रख्याति-ख्यातितः कन्या-देव्योर्नाटी चतुर्विधा । पत्र मुख्याकृतो योगः, पर्यन्ते नेतुरन्यया ।। ६ ।।
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द्वितीयो विवेकः
प्रेमाद्रों वर्ततेऽन्यस्थां, नेता मुख्याभिशङ्कितः । देवी दक्षाऽपरा मुग्धा, समा धर्मा द्वयोः पुनः ॥ ७ ॥ क्रोध - प्रसाद - प्रत्यूह-रति-च्छादि भूरिशः । एवं प्रकरणी किन्तु नेता प्रकरणोदितः ॥ ८ ॥ एकाहचरितैकाङ्को, गर्भामर्शविवर्जितः । अस्त्रीनिमित्तसङ्ग्रामो, नियुद्ध-स्पर्धनोद्धतः ॥ e ॥ स्वल्पयोषज्जनः रूपात वस्तुर्दीप्तरसाश्रयः ।
दिव्य भूपतिस्वामी, व्यायोगो नायिकां विना ।। १० ।। विशेयः समवकारः स्यातार्थं निर्विमर्शकः । उदात्तदेव-दैत्येशो, वीथ्यङ्गी वीर रौद्रवान् ॥ ११ ॥ अत्र द्वादश नेतारः फलं तेषां पृथक् पृथक् । अङ्कास्त्रयस्त्रिशृङ्गारा, त्रिकपटा स्त्रिविद्रवाः ॥ १२ ॥ षड्युग्मेकमुहूर्ताः स्युः, निष्टितार्थाः स्वकार्यतः । महावाक्ये च सम्बद्धा:, क्रमाद् द्वय कैकसन्धयः ॥ १३ ॥ शृङ्गारस्त्रिविधो धर्म - कामार्थ फलहेतुकः । वय - वञ्चयक- देवेभ्यः सम्भवी कपटस्त्रिधा ॥ १४ ॥ जीवाजीवोभयोत्थः स्याद्, विद्रवस्त्रिरमीषु तु । प्रत्येकमङ्कष्वेकः, पद्यं च स्रग्धराऽऽदिकम् ।। १५ ।।
भाणः प्रधान शृङ्गार-वोरो मुखनिर्वाहवान् । एकाङ्की दशलास्याङ्गः, प्रायो लोकानुरञ्जकः ।। १६ ।। एको विटो वा धूर्तोवा, वेश्याऽऽदेः स्वस्थ वा स्थितिम् । व्योमोक्त्या वर्णयेदत्र, वृत्तिर्मुख्या च भारती ॥ १७ ॥
वैमुख्यकार्यं वीष्यङ्गिः ख्यातकोलीन दम्भवत् । हास्याङ्गि मारण सन्ध्यङ्क-वृत्ति प्रहसनं द्विधा ॥ १८ ॥ निन्द्य पाखण्डि विप्रादेः, अश्लीलाऽसभ्य-वर्जितम् । परिहासवच:- प्रार्य, शुद्धमेकस्य चेष्टितम् ।। १९ ।। सङ्कीर्णमुद्धताकल्प - भाषाऽऽचार-परिच्छदम् । बहूनां बन्धकी- चेट-वेश्याऽऽदीनां विचेष्टितम् ॥ २० ॥ प्रशान्त- हास्य शृङ्गार-विमर्शः ख्यातवस्तुकः । रौद्रमुख्यश्चतुरङ्कः सेन्द्रजाल - रणो डिमः ।। २१॥ प्रत्रोल्कापात-निर्घाताः, चन्द्र-सूर्योपरक्तयः । सुरासुर-पिशाचाद्याः, प्रायः षोडश नायकाः ।। २२ ।।
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द्वितीयो विवेकः
उत्सृष्टिकाङ्कः पुंस्वामी, ख्यातयुद्धोत्थवृत्तवान् । भाणोक्तसन्धि-वृत्त्यङ्गः, वाग्युद्धः करुणाङ्गिकः ॥ २३ ॥ निर्वेदवाचो भूम्नात्र, योषितां परिदेवितम् । नरा निवृत्तसङ्ग्रामाः, चेष्टाश्चित्रा विसंस्थुलाः ॥ २४ ॥ ईहामगः सवीथ्यङ्गः, दिव्येशो दृप्तमानवः । एकाश्चतुरङ्को वा स्याताख्यातेतिवृत्तवान् ॥ २५ ॥ दिव्यस्त्रीहेतुसङ्ग्राम:, निर्विश्वास: सविड्वरः । स्थ्यपहार-भेद-दण्डः, प्रायो द्वादशनायकः ।। २६ ।। व्याजेनात्र रणाभावः, वधासन्ने शरीरिणि । व्यायोगोक्ता रसाः सन्धि-वृत्तयोऽनुचिता रतिः ।। २७ ॥ सर्वस्वामिरसा वीथी, त्वेकाङ्का द्वय कपात्रिका । मुखनिर्वाहसन्धि: स्यात्, सर्वरूपोपयोगिनी ॥ २८ ॥ ग्याहारोऽधिवलं गण्डः, प्रपञ्चस्त्रिगतं छलम्। असत्प्रलापो वाक्केली, नालिका मृदवं मतम् ॥ २६ ॥ उद्धात्यकावलगिते, अथावस्पन्दितं स्मृतम् । भारतीवत्तिवर्तीनि, वीथ्यङ्गानि त्रयोदश ॥ ३० ॥ अन्यार्था भाविदृष्टिा, व्याहारो हास्यलेशगीः । मिथो जल्पे स्वपक्षस्य, स्थापनाऽधिबलं बलात् ॥३१॥ गण्डोऽकस्माद् यदन्यार्थ, प्रस्तुतानुगतं वचः। प्रपञ्चः सस्तवं हास्य, मिथो मिथ्यकलाभकृत् ।। ३२॥ त्रिगतं शब्दसाम्येन, भिन्नस्यार्थस्य योजनम् । वचोऽन्यायं छलं हास्य-वञ्चना-रोषकारणम् ।। ३३ ।। असत्प्रलास्तत्त्वेन, हितं यन्नावगम्यते । प्रश्नोत्तरं तु वाक्केली, हास्या वाक् प्रतिवागपि ॥ ३४ ।। हास्याय वश्चना वाली, व्यत्ययो गुण-दोषयोः। मृदवं परस्परं स्याद्, उद्घात्यं गूढ़ भाषणम् ॥ ३५ ॥ तच्चावल गितं सिद्धिः, कार्यस्यान्यमिषेण या। स्वेच्छोक्तस्यान्यथाऽऽस्यानं, यदवस्पन्दितं तु तत् ।। ३६ ॥ स्वां स्वां वैशेषिकों हित्वा, सन्धि-वृत्त्यादिको स्थितिम् । सामान्या नाटकस्यान्या, विज्ञया रूपकान्तरे ।। ३७ ॥
इति श्रीरामचन्द्र-गुणचन्द्रविरचिते नाटयदर्पणे प्रकरणाद्य कादशरूपनिर्णयो नाम
द्वितीयो विवेक; समाप्तः ।। २॥
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प्रथः वृत्ति-रस-भावभिनय-विचारः तृतीयो विवेकः भारती सात्वती कैशिक्यारभटी च वृत्तयः । रस-भावाभिनयगा:, चतस्रो नाट्य-मातरः ॥ १॥ सर्वरूपकगामिन्यामुख-प्ररोचनोस्थिता। प्राय: संस्कृतनि:शेष रसाढ्या वाचि भारती ॥२॥ विदूषक-नटी-माः, प्रस्तुताक्षेपि भाषणम् । सूत्रधारस्य वक्रोक्त-स्पष्टोक्त यत् तदामुखम् ।।३।। वाक्यार्य-समयावानः, भावोक्तं : पात्रसङ्क्रमः । पूर्वरङ्ग गुणस्तुत्या, सभ्योन्मुख्यं प्ररोचना ॥४॥ सात्वती सत्त्व-वागङ्गाभिनेयं कर्म मानसम्। सावाधर्ष-मुधर्य-रोद्र-वीर-शमाद्भुतम् ॥ ५॥ कैशिको हास्य-शृङ्गार-नाट्य-धर्मभिदात्मिका । मारभट्यनृत-द्वन्द्व-छम-दीप्तरसान्विता ॥ ६ ॥ . स्थायी भाव: श्रितोत्कर्षः, विभाव-व्यभिचारिभिः । स्पष्टानुभावनिश्चेयः, सुख-दुःखात्मको रसः ॥ ७॥ कार्यहेतुः सहचारी, स्थाय्यादे: कार्यवर्मनि । अनुभावो विभावश्च, व्यभिचारी च कीर्त्यते ॥ ८ ॥ शृङ्गार-हास्य-करुणाः, रौद्र-वीर-भयामकाः । बीभत्साह त-शान्ताश्चं, रसा: सदभिर्नव स्मृताः ॥ ६ ॥ सम्भोग-विप्रलम्भारमा, शृङ्गारः प्रथमो बहुः ।। मान-प्रवास-शापेच्छा-विरहैः पञ्चधाऽपरः ॥ १० ॥ स्त्री-पुस-काव्य-गीत-माल्य-ब्रेषेष्टकेलिजा। अभिनेयः स चोत्साह-चाटु-तापान्मन्युभिः ।। ११.॥ विकृताचार-जल्पालाकल्पल्य-विस्मापनोद्भवः । हास्योऽस्याभिनयो नासा-स्पन्दाश्र-जठर-ग्रहः ॥ १२॥ मृत्यु-बन्ध-बनश-शाप-व्यसन-सम्भवः ।' करुणोऽभिनयस्तस्य, वाष्प-वैवर्ण्य-निन्दनः ॥ १४॥ प्रहारासत्य-मात्सर्य-द्रोह-वर्षापनीतिजः। रोहः स वाभिनेतन्यः, घात-दन्तोष्ठ-पीडनैः ॥ १५॥
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तृतीयो विवेकः
पराक्रम-बल- न्याय यशस्तत्व विनिश्चयैः ।
वीरोऽभिनयनं तस्य, धैर्य-रोमाञ्च दानतः ॥ १६ ॥
पताका कीर्ति- रौद्राजि-शून्य-तस्कर दोषजः । भयानकोsभिनेतव्यः, स्तम्भ - रोमाञ्च- कम्पनः ।। १७ ।।
जुगुप्सनीयरूपादि-परश्लाघा-समुद्भवः । बीभत्सोऽभिनयश्चास्य, निष्ठेवोद्वेग-निन्दनः ॥ १८ ॥
दिव्येन्द्रजाल - रम्याथं दर्शनाभीष्टसिद्धितः ।
अद्भुतः सोऽभिनेतव्यः, श्लाघा- रोमाञ्च हर्षतः ॥ १६ ॥ संसारभय-वैराग्य-तत्व शास्त्र विमर्शनः
: । शान्तोऽभिनयनं तस्य, क्षमा ध्यानोपकारतः ॥ २० ॥ अर्थ - शब्द वपुः काव्यं रसः प्राणविसर्पति । प्रञ्जसा तेन सौहार्द, रसेषु कविमानिनाम् ।। २१ ।।
न तथाऽयं - शब्दोत्प्रेक्षाः, श्लाघ्याः काव्ये यथा रसः । विपाककम्रमप्याश्रम्, उद्वेजयति नीरसम् ॥ २२ ॥ एकत्र स्वरितोस्तुल्य- शक्त्योर्योगे विरुद्धता । दोषोsनौचित्यमङ्गीथम्, प्रपोषोऽत्युक्तिरङ्गित् ॥ २३ ॥ रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहो भयं तथा । जुगुप्सा - विस्मय - शमाः, रसानां स्थायिनः क्रमात् ॥ २४ ॥
निर्वेद ग्लान्यपस्मार - शङ्काऽसूया-मद- श्रमाः । चिन्ता चापलमावेगः, मतिर्व्याधिः स्मृतिषु तिः ॥ २५ ॥ श्रमर्षो मरणं मोहः, निद्रा-सुप्तीच हृष्टयः । विषादोन्माद - दन्यानि, व्रीडा त्रासो वितर्करणम् ॥ २६ ॥
rat सुक्या वहिस्थानि, जाड्यालस्य-विबोधनम् । त्रयस्त्रशद् यथायोगं, रसानां व्यभिचारिणः ॥ २७ ॥
निर्वेदस्तत्वधी - क्लेशः, वैरस्यं श्वास- तापकृत् । ग्लानिः पीडा जराऽऽयासः, प्रशक्तिः काश्यं कम्प भाक् ।। २८ ।
वैकल्यं ग्रहदोषेभ्योऽपस्मारो निन्द्यचेष्टितः ।
शहर स्व-पर-वीरात्याद्, दौलनं श्यामताऽऽदियुक् ॥ २९ ॥ द्वेषादेः सद्गुणाशान्तिः, प्रसूयां दोषदर्शनी । ज्येष्ठादी मुन्मदो मद्यात्, निद्राहास्याश्रुकृत् क्रमात् ॥ १० ॥ श्रमो रतादिभिः साथः, स्वेद-श्वासादि कारणम् । प्राधिश्विन्ता प्रियानाप्तेः शून्यता-बवास-काव्यंयुक् ॥ ३१ ॥
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तृतीयो विवेका चापलं साहसं राग-द्वेषादेः स्वरिताऽदिमत् । पावेगः सम्भ्रमोऽतक्कर्षाद्, विकर्ताङ्ग-मनो-गिराम् ॥ ३२ ॥ प्रतिभानं मतिः शास्त्र-तर्काद् भ्रान्तिच्छिदादिकृत् । दोषेभ्योऽङ्ग-मन:-क्लेशः, व्याधिः स्तनित-कम्पवान् ॥ ३३॥ दृष्टाभासः स्मृतिस्तुल्य-दृष्टयादेधूनतिक्रिया । तिर्शानेष्टलाभादेः, सन्तुष्टिदेहपुष्टिकृत् ।। ३४ ।। क्षेपादेः प्रतिकारेच्छाऽमर्षोऽस्मिन् कम्पनादयः । व्याध्यादेमुत्युसङ्कल्प: मरुणं विकलेन्द्रियम् ।। ३५ ॥ प्रचंतन्यं प्रहारादे: मोहोऽत्राघूर्णनादयः । इन्द्रियाव्यापृतिनिद्रा, खेदादेमूर्धकम्पिनी ।। ३६ ।। सुप्तं निद्राप्रकर्षोऽत्र, स्वप्नायित-खमोहने । दुष्टेऽपराधान्नघण्यम्, प्रोग्र बन्ध-वधादिभिः ॥ ३७॥ हर्षः प्रसत्तिरिष्टाप्तेः, अत्र स्वेदाश्र-गद्गदाः । विषादस्तान्तिरिष्टस्यानाप्तेनिःश्वास-चिन्तनः ॥ ३८ ।। मनोविप्लुतिरुन्मादः, ग्रह-दोषरयुक्तकृत् । प्रापदः स्वान्तनीचत्वं, दैन्यं काावगुण्ठनः ॥ ३६ ।। व्रीडाऽनुताप-गुर्वादेः, प्रधाष्यं गात्रगोपकम् । घोराच्चकितता त्रासः, कायसङ्कोच-कम्पितः ।। ४० ॥ एकसम्भावनं तर्कः, वादादेरङ्गनर्तकः । मात्मन्याधिक्यधीर्गः, विद्याऽऽदेरन्यरीढया ॥४१॥ इष्टाभिमुख्यमौत्सुक्यं, स्मरणाद्यात् स्वराऽदिभिः । धाष्ट्रघादेविक्रियारोधोऽवहित्थाऽत्र क्रियान्तरम् ॥ ४२ ॥ जाड्यमिष्टादितः कार्याज्ञानं मौनानिमेषणः । कर्मानुत्साह आलस्य, श्रमाद्याम्भितादिभिः ॥ ४३ ॥ निद्राच्छेदो विबोधश्च, शब्दादेरङ्गभङ्गवान् । केषांचित् तु रसादीनाम्, अन्योन्यं हेतु-कार्यता ।। ४४ ।। वेपथु-स्तम्भ-रोमाञ्चाः, स्वरभेदोऽश्रु मूर्छनम् । स्वेदो वैवर्ण्य मित्याद्याः, अनुभावारसादिजाः ॥ ४५ ॥ भवादेर्वेपथुत्र-स्पन्दो वागादिविक्रियः । यत्नेऽप्यङ्गाक्रिया स्तम्भः हर्षादेहीं ! विषादवान् ॥ ४६ ॥ रोमाञ्चः प्रियदृष्टयादेः, रोमहर्षोऽङ्गमार्जनः । स्वरभेदः स्वरान्यत्वं मदादेहर्ष-हास्यकृत् ॥ ४७ ।।
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तृतीयो विवेकः अश्रु नेत्राम्बु शोकाचः, नासास्पन्दाक्षिरक्षणः। मूर्धन घात-कोपायः, खग्लानिमिपातकृत् ॥ ४ ॥ स्वेदो रोमजलस्रावः, श्रमादेव्यंजनप्रहः । छायाविकारो वैवण्यं, क्षपादेदिग्निरीक्षणः ।। ४६ ॥ वाचिकोऽभिनयो वाचां, यथाभावमनुक्रिया। कर्मणोऽङ्ग रुपाङ्गश्च, साक्षाद् भावनमाजिकः ॥ ५० ॥ सात्त्विकः स्वरभेदाः, अनुभावस्य दर्शनम् ।
वर्णाद्यनुकियाऽऽहार्यः, बाह्यवस्तुनिमित्तकः ॥५१॥ इति श्रीरामचन्द्र-गुणचन्द्रविनिर्मिते नाट्यदर्पणसूत्रे वृत्ति-रस-भावभिनय
विचारस्तृतीयो विवेकः ॥ ३ ॥
अथ सर्वरूपक-साधारण-लक्षणनिर्णयः चतुर्थोविवेकः देव-भूप-सभा-भर्तृ-मुख्यानां मङ्गलाभिधा । नित्या रूपमुखे नान्दी, पदैः षड्भिरथाष्टभिः ॥ १॥ प्रवेश-निष्क्रमाक्षेप-प्रसादान्तरसङ्गतम् । चित्रार्थ रूपकं गेयं, पञ्चधा स्यात् कविध्र वा ॥ २ ॥ उत्तमा मध्यमा नीचा, प्रकृतिन स्त्रियोस्त्रिधा।। एककापि विधा स्व-स्व-गुणानां तारतम्यतः ॥ ३ ॥ शरण्यो दक्षिणस्त्यागी, लोकशास्त्रविचक्षणः। गाम्भीर्य-धैर्य-शोण्डीयं-न्यायवान् उत्तमः पुमान् ॥४॥ मध्यो मध्यगुणो नीचा, पापीयान् पिशुनोऽलसः । कृतघ्नः कलही क्लीवः, स्त्रीलोलो रूक्षवाग् जरः ॥५॥ लज्जावती मृदुर्धीरा, गम्भीरा स्मितहासिनी । विनीता कुलजा दक्षा, वत्सला योषिदुत्तमा ॥ ६ ॥ नरवन्मध्यमा-नीचे, नीचोऽपीश: कथावशात् । प्रधानफलसम्पन्नोऽव्यसनी मुख्यनायकः ।। ७ ।। तेजो विलासो माधुर्य, शोभा स्थैर्य गंभीरता । पौदार्य ललितं चाष्टी, गुणा नेतरि सस्वजाः ॥ ८॥ .
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११]
नाम् ।
चतुर्षों विवेकः मे देरसहिष्णुत्वं, तेजः प्राणात्ययेऽपि । विलासो वृषवद् यानं, धीरा दृक् सस्मितं वचः ॥ ६ ॥ माधुर्य विकृतिः स्तुत्या, क्षोभहेती महत्यपि । शोमा चिह्न घृणा-स्पर्खा-दाक्ष्य-शौर्योधमोन्नये ॥ १० ॥ विघ्नेऽप्यचलनं स्थैर्य प्रारब्धावशुभादपि । गाम्भीर्य सहजा मूर्तिः, कोप-हर्षादि-गोपनी ॥ ११॥ पोवार्य शत्रु-मित्राणां, प्राणितेनाप्युपग्रहः । शृङ्गारिचेष्टा मलितं, निर्विकाराः स्वभावजाः ॥ १२ ॥ अमुल्यो नायकः किञ्चिदूनवृत्तोऽप्रघनायकात् । लोभी धीरोद्धतः पापी, व्यसनी प्रतिनायकः ।। १३ ॥ नीचा विदूषक-क्लीव-शकार-विट-किङ्कराः । हास्यायायो नुपे श्यालः, शकारस्त्वेकविद् विटः ॥ १४ ॥ स्निग्धा धीरोदतादीनां, यथोचित्यं वियोगिनाम् । लिङ्गी द्विजो राजजीवी, शिष्याश्चैते विदूषकाः ॥ १५ ॥ युवराज-चमूनाथ-पुरोध:-सचिवादयः । सहाया एतदायत्त-कर्मव ललित: पुन: ॥ १६ ।।। शुद्धान्ते कारुको द्वा:स्थः कञ्चुकी शुभकर्मणि । वर्षवरस्तु रक्षायां, निमुण्डः प्रेषणे स्त्रियाः ॥ १७॥ कार्याख्याने प्रतीहारी, रक्षा स्वत्योमहत्तरा । पूर्वास्थितिविधी वृद्धा, चित्रादी शिल्पकारिका ॥ १८ ॥ नायिका कुलजा दिव्या, क्षत्रिया पण्यकामिनी। मन्तिमा ललितोदात्ता, पूर्वोदात्ता त्रिधा परे ॥ १६ ॥ रागिण्येवाप्रहसने, नृपे दिव्ये च न प्रभी। गरिणका क्वापि दिव्या तु, भवेदेवा महीभुजः॥ २० ॥ मुग्धा मध्या प्रगस्मेति, त्रिविधाः स्युरिमाः पुनः।। मुग्धा वामा रते स्वल्प-माना रोहद-बयःस्मरा ॥ २१ ॥ मध्या मध्य-वया-काम-माना मूग्धान्त-मोहमा । प्रगल्भेड-धयो-मन्यु-कामा स्पर्शेऽप्यचेतना ॥ २२ ॥ कार्यतः प्रोषिते पत्यावभूषा प्रोषितप्रिया । विप्रलपा ससते, प्रेष्य दूतीममागते ॥२३॥ सण्डिता खण्डयत्यन्यासक्त्या वासकमीध्यिता । ई-कलह-निष्क्रान्ते, कलहान्तरिताऽतिभार ॥२४॥
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। १३
चतुर्थो विवेकः बिलम्बयत्यदोषेऽपि, विरहोत्कण्ठितोत्सुका। हृष्टा वासकसज्जामन्यलंकृतिपरष्यति ।। २५।। सुभगम्मानिनी वश्यासन्ने स्वाधीनमतका।। सरन्ती सारयन्ती वा रिरंसुरभिसारिका ॥ २ ॥ भावाद्या यौवने स्त्रीणाम्, अलङ्कारास्त्रयोऽङ्गजाः । दश स्वाभाविकाते, क्रियास्पास्रयोदश ॥ २७ ।। सति भोगे गुणा: सप्तायत्नवाश्च स्वभावजाः । नावश्यम्भाविनोऽषा, विशतिः स्त्रीषु मुख्यतः ॥ २८ ॥ भावो वागादिवशिष्टयं, चिह्न रत्युत्तमत्वयोः । नेत्राविधिकृतं हावः सशृङ्गारमसन्ततम् ॥ २६ ॥ तदेव सन्ततं हेला, तारुण्योद्बोधशालिनी। रागादिना विपर्यासः, कियाणामय विभ्रमः ।। ३०॥ विलासः प्रियदृष्ट्यादी, चारुत्वं गात्र-कर्मणोः । वेषास्पतैव विच्छित्तिः, परां शोभा वितन्वती ।। ३१ ।। लीला दयित्वागादेः, स्वे न्यासो बहुमानतः । . विश्वोकोऽनादरो मान-दादिष्टेऽपि वस्तुनि ॥ ३२ ॥ विहृतं जल्पकालेऽपि, मौनं ह्री-व्याज-मौग्ध्यतः । ललितं गात्रसञ्चारः, सुकुमारो निरर्थकः ॥ ३३ ॥ कोष्टादिग्रहे कोपः मृषा कुटुमितं मुदि । मोट्टायितं प्रियेक्षादौ, रागतो गात्रमोटनम् ।। ३४ ॥ मुहुः स्मिताश्र-कम्पादेः सङ्करः किलि (ल) किंचितम् । मौज्ज्वल्यं यौवनादीनाम, मय शोभोपभोगतः ॥ ३५ ॥ सा कान्तिः पूर्णसम्भोगा, दीप्तिः कान्तेस्तु विस्तरः । सौम्यं तापेऽपि माधुर्यम्, पौदार्यमुचिताच्युतिः ।। ३६ ।। चेतोऽविकरथनं धैर्य, प्रागल्भ्यं कौशलं रते। यथोचित्यं च नेतृणां, नायिकाः कुलजादयः ।। ३७ ॥ सहायिन्यस्तु पात्रेयी-लिङ्गिनी-प्रातिवेशिकाः। शिल्पिनी-चेटिका-सख्यः, गुप्ता दक्षा मृदु-स्थिराः ॥ ३८ ॥ देवानीचनृणां पाठः, संस्कृतेनाथ जातुचित् । महिषी मन्त्रिजा-पण्यस्त्रीणामव्याजलिङ्गिनाम् ।। ३९ ।। बाल-षण्ढ-ग्रहग्रस्त-मत्त-स्त्रीरूप-योषिताम् । प्राकृतेनोत्तमस्यापि, वारिणश्वर्यमोहिनः ॥ ४०॥
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________________
१४]
चतुर्क विवेकः प्रत्यन्तनीचभूतादी, पैशाची मागधी च वाक् । शौरसेनी तु नीचस्य, देशोद्देशे स्वदेशगी: ॥४१॥ तियंग-जात्यन्त रादीनाम, प्रानुरूप्येण सराया। भाषा-प्रकृति-वृत्तादेः, कार्यत: क्वापि सहनम् ॥ ४२ ॥ मार्येति शम्बते पत्नी, लिङ्गिनी ब्राह्मणी विजा(जैः) । अम्बाऽपि जननी-वृद्ध, पूज्या तु भवतीत्यपि ॥ ४३॥ भ्रात्राऽग्रजोऽधममन्त्री, नटी-सूत्रभ्रती मियः । पुरोषः-सार्थवाहाम्यां, पत्नी पल्या परन् पतिः ॥ ४॥ महाराजो नृपः सर्वस्त्वार्यपुत्रेति यौवने । पुसा भद्रेति भोक्तव्या, प्रियेति दयिताऽथवा ॥ ४५ ॥ पिता पुत्राभिषायोगैमुंख्या देव्यपि राजभिः । विदूषकेण भवती, राशीचेव्यो नुपस्त्रियः ॥ ४६ ॥ भट्टिनी स्वामिनी देवीत्येवं सर्वाः परिच्छदैः। वेश्याऽज्जुकेति वृद्धा तु, साऽत्ता तुल्या स्त्रिया हमा ।। ४७ ॥ हजे त्वनुत्तमा-प्रेष्ये, भगवदिति देवता। तपःस्था चार्य-देवर्षि-बहुविचाः सयोषितः॥४॥ • मान्यो नामान्तर राजा, लिङ्गिनाऽय विदूषकः ।
वयस्योऽप्यधर्मभट्टी, मोकदेवेति भूपतिः ॥४९॥ मित्राल्याभिर्विदू राजा, . कुमारोमदारकः । मुनि-शाक्यो भवन्तेति, स्वप्रसिपारो प्रती ॥५०॥ सूत्री भावोऽनुगेनासो, तेन मार्षः समः समा। शिष्यात्मजानुजाः पुत्र-वरसो तातो परपि ।। ५१ ॥ सोम्यो मद्रमुखश्चेति, नीचो हण्टे तु पामरैः। येन कर्मादिना यस्तु, स्यात: स तदुपाधिकः ॥ ५२ ॥ शूरे विक्रमसंसूषि, हस्प्यं नामाष पाणिणे। दत्तान्तं प्रायशो वित्रे, गोत्र-कर्मानुसंप्यतः ॥ ५३॥ नुपस्त्रियां शुभ बता-सेनाऽतं पणयोषिति ।
पुष्पाविवाचक पेटघा, बेटे मङ्गलकीर्तनम् ॥ ४॥ इति श्री रामचन्द्रगुणचन्द्रनिर्मिते नाटपदर्पणसूत्रे सर्वपकसाधारणलणनिर्णयो नाम
सतुषों विवेकः समाप्तः ॥४॥
२०७ पचात्मकं समाप्त मावणमर॥
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________________
परिशिष्टम् [२]
२८४
नाटपर्पणविवरणनिर्दिष्ट-अन्यनामसूची।
[पर्षकमेव अन्यकुनाम मभिनवगुप्ता (नाटभशास्त्रस्य अभिनवमारतीवृत्तिकार:)
२३ इन्दुराजभट्टः (क्षीरस्वामिगुरु) कोहलः (सट्टकाविलक्ष्मप्रणेता)
१४,२४१. क्षीरस्वामी: (भट्टन्दुराजशिष्योऽभिनवराषवनाटककार:)
२८४ भरतमुनिः (नाटपणास्त्र-निर्माता)
२७,२१२ भवनुतचूडा भट्टः (कोशलिकानाटिकाकारः) भवभूतिः (मालतीमाषवकर्ता)
२१२ भास (स्वप्नवासवदतकर्ता)
१४८ भीमट: (मनोरमा-वत्सराजकर्ता)
२५२ भीमदेवः .(वसुनाग-बनक:) मेज्वनः (राषाविप्रलम्भरचयिता) मम्मटा (काव्यप्रकाशकारा) मुनिः (भरतमुनिः) (नाट्यशास्त्रका)
२७, २१२ बसुनाया (भीमवेवसूनुः, प्रतिमाऽनिरुतप्रणेता) विशाखदेवः (देवीचन्द्रगुप्तरचयिता)
२०० वीरनाम: (कुन्दमामाकर्ता) (ममात्यः, चित्रोत्पमावलम्बितकप्रकरणकार:)
२४१,१५२, शुख्विासकुमारः (मनसेना-हरिनन्धिप्रकरणकार:)
१९५ (मुच्छकटिकाकार)
८१ हेमचनः (सन्द-प्रमाण-साहित्य-अन्यो-ममविधाता, नाटपदणकर-गुरु:) ४.६
३३२
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________________
२८.
१.
१६४
परिशिष्टम् [२] नायवर्णविवरसनिविष्ट मालाविन्यनाम सूची।
[संकोल]
नाटपाविग्रन्यनाम. (१) प्रमापती नाटिका (२) 'मनसेना-हरिनन्दिप्रकरणम् (शुक्तिवासकुमाररचितम्) (३) मममेरापवम् (मुरारिरचितं नाटकम्)
३६५ (6) अभिमानशाकुन्तलम् (महाकविकामिदासकृतं नाटकम)
१२४, २८२ (५) मभिनवराघवम् (भट्टन्दुराजशिष्यनीरस्वामिरचितं नाटकम)
२८४ (६) मधुनचरितम् (मानन्दवर्धनरचितं महाकाव्यम्)
३२. पाचाराम (महेंद-गणपरथितं सूत्रम) (८) इन्दुलेखानाटिका (९) इन्दुलेखावीयी
२५७ (१०) · उत्तरचरितम् उत्तररामचरितम् (भवभूतिरचितं नाटकम) १७३,२४,२६२ (११) उदयनचरितम्
२८९ (१२) उदात्तराघवम् (मायुराजविरचितं नाटकम्)
११९ (१३) कादम्बरी (बाणभट्टप्रणीता कपा)
३०८ (१४) कुन्दमाला (वीरनागनिबढा) नाटकम् (१५) कुमारसम्भवम् (महाकविकालिदासकृतं महाकाव्यम्]
३२५, ३२८ (१६) कृत्यारावरणम् (नाटकम) १४२,१४३,१४७,१५०,१५४,११७.१६८,१९९.१७३,१४४,
१९३,१९५,२४७,२६७ (१७) कौमुदी-मित्राणन्दं प्रकरणम् (स्वोपशम)
१२५ (१८) कोषिकानाटिका (भट्टश्रीभवनुतगविरचिता) (१९) चित्रोत्पलावलम्बितकं प्रकरणम् (पमात्यकार कविरचितम्)
१५२ (९०) मितरामम् (नाटकम्)
१६६१७६,२६८,२६६,२८२ (२१) जामदग्न्यजयः (ब्यायोगः)
२२० (२२) तरङ्गादत्तम (प्रकरणम्)
२०६, २१२ (२३) वापसवत्सराजम् [मरेलपर्षनसुतानहर्षापरमानमीमापरावरचितं नाटकम्] ४२,६७,
७६.१०४.१०२,१५३ (२४) दरिद्रवाहात पकम् (भासरचितम्) (२५) दृष्टिबायः (पहंद-गणपर-पषितः सिद्वान्तः) (२१) देवीचनगुप्तम् (विसापरेवान) नाटकर
१२८,१४८.१५१.२०७,२५५
१.
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________________
नाट्यादिनन्वनाम
[ १७ (२७) द्रौपदीस्वयंवरम् (२८) नलविलासं नाटकम् (स्वोपनम्) ४२,७२,८५,८७,८८,१२५,२३४,१४१,१८२,२४६,
..२६४,२६५,२८५ (२९) नागानन्दम् (श्रीहर्षनिमितं नाटकम्)
१२२,१७७,२८०,२८८ (३०) निर्भयभीमव्यायोगः (स्थोपशः)
१२१ (३१) पयोधिमथनम्
२२४ (३२) पाण्डवानन्दम्
२६७ (३३) पार्थविजयम् (त्रिलोचनकृतं नाटकम्)
२२७,१३६,१३७,१४४ पुष्पदूषितकं प्रकरणम्
१६४,१७७,१८१ प्रतिमाऽनिरुद्धम् (भीमदेवसुनुवसुनागकृतं नाटकम्) ।
१९७ (३६) प्रयोगाभ्युदयम्
२५३ (३७) बालिकावञ्चितकम् (नाटकम्)
२५०,२६३ (३८) बृहत्कथा (गुरगढघरचिता)
२११,२२॥ (३९) भारतम् (व्यासप्रथितं काध्यम्) (४०) मनोरमा-वत्सराजम (भीमटविरचितं नाटकम्)
२५९ (४१). मल्लिका-मकरन्दं प्रकरणम् (स्वोपशम्) (४२) मायापुष्पकम् (नाटकम्)
६६,८२ (४३) मालतीमाषवम् (भवभूतिनिर्मितं प्रकरणम्)
.. १५६,२८८ (४) मालति (वि) काऽग्निमित्रम् [कविकालिदासनिमितं नाटकम्
१२० (४५) मुद्राराक्षसम् (विशाखदेवनिर्मितं नाटकम्)
६७,७५,१५८,१८४,१९२ (४६) मृच्छकटिका प्रकरणम् (शूद्रकविरचितम्) (४७) यादवाभ्युदयं नाटकम् (स्वोपलम्) ६५,११४,१४९,१६३,१५१, ६९२,१९४,१६६ (४८) रघुविलासं नाटकम् (स्वोपशम्) १००,१४२,१४४,१४६,१५०,१५९,१६०,१६५,१६८
१८३,१८८,२४७,२६०, २८४ (ve) रत्नावली [श्रीहर्षरचिता नाटिका] ५६,६०,६३,८७,९५,१०८,१२१,१३१,१३५,१३६, १४५, १४८, १५१, १५२, १५३,१५६,१५७,१६५,१७०,१७२,१७८,१७६,१४,१८६,
१९१,२४४,२५२,२६२ (५०) राघवाभ्युदयं नाटकम् (स्वोपज्ञम्)
३,९०,६२,१०६,११३,१८२ (५१) राधाविप्रलम्भ रासकाई रूपकम् (भेज्जलविरचितम्)
१९७ (५२) रामाभ्युदयम् [यशोवर्मविरचितं नाटकम्] ७३,१००,१३०,१६०,१६६,१७६,१०८,
२५८ (५३) रोहिणी-मगा प्रकरणम् (स्वोपशम्)
११०, १२३ (५४) वनमाला नाटिका (स्वोपज्ञा)
३१० (५५) विक्रमोवंशी नाटकम् [कविकालिदाससृष्टम्]
१६७, २५७ (५६) विषिविलसितम् (नाटकम्) (१७) विलक्षदुर्योधनम् (नाटकम)
१३८
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________________
१८]
नाट्यग्रन्थनाम (५८) वीरचरित नाटकम् (भवभूति रचितम्) (५९) वेणीसंहारम् [भट्टनारायणनिर्मितं नाटकम्] ८५,८८,८६,९२,६७,१०१,१०६,११०,
१९१,११२,११४,११५.११७,११,१२७,१३७,१४०,१४१,१४८,१५२,१५३,१५१,१५७.१६२,१५३,१६६,१७०,१७१,१७२,१७१,१७६,१७८,१०,१८३,१८५,२६३,२६५;
२६६,२८१ (६०) सत्यहरिश्चन्द्र नाटकम् (स्वोपशम्) १५,१५,१२९,१३९,२५१,२८१,२८७ (६१) सुधाकलशः (स्वोपशः)
२६५,२६६ (१२) स्वप्नवासवदत्तम् (कविभासकृतं नाटकम्)
१४८ (६३) हयग्रीववषम् [भत मेण्ठविरचितं महाकाव्यम्]
१२७
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________________
परिशिष्टम् [४]
वर्षकमेण]
माधारस्थलम् [नाट्यशास्त्र प्र० १६,११०]
४०५
[काव्यप्रकाशे ४,३३ उद्धृतम्) निर्भयभीमव्यायोगे
वेणीसंहारे
४०८
पार्थविषये [महाभारते स्त्रीपर्वे प० २४,१६]
रघुविलासे
३२२ २६. २४८
५९ २८४ २४८
पचप्रारम्मः मान्तरेव चाको मन्ते वीररसाय मन्यत्र बजतीति अन्यायकपुषः भन्योन्यास्फासमिन्न मयमुखतोऽय ललितो प्रयं सः कालः शूराणां मयं स रशनोत्कर्षी भरण्ये मां त्यक्त्वा अविदितपयःप्रेम्णां भस्तापास्तसमस्त पस्त्येव राषवमहीन मस्या प्रेम ममेव मस्या मृगीहशि महंयुनिकरामणी माक्षिप्तिकाभ्यवर्णो माखेटो मुनिकन्यका माताम्रतामपनयामि प्रादी मानपरिग्रहेण मानन्दाश्रुजलं मालम्ब्य प्रियशिष्यतां प्रासावितप्रकटनिर्मल प्रास्यं हास्यकरं इयं गेहे लक्ष्मी उत्तमाषणमामिः उत्तमोत्तमकं चैव उदयाभिमुख्यभाजा उद्दामोत्कलिका उदयो पिया पलं (प्रा.)
रलावल्याम पभिनवराघवे
रघुविलासे यादवाभ्युदये म०६
रघुविलासे
२४८
१०४ १५७ ४२
२०७
१६७ २८२
सत्यहरिश्चन्द्र प्र.६
रत्नावल्याम् 'तापसवत्सराजे देवीचन्द्रगुप्ते वेणीसंहारे
छलिसरामे मल्लिका-मकरन्थे
उत्तर राम] परिते कोहलस्य [म. भा० १८,६३] [नाटयशास्त्र प०१८,१७९]
यादवाम्मुदये रत्नावल्याम् प०२ गाथासप्तशत्वाम् प० २,११
२४१
२४५
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________________
२० . ]
उन्मत्तप्रेम संरम्भाद् एकस्मिन् शयने
एकं त्रीणि नवाष्ट एतत् ते हृदयं स्पृशामि एतेनापि सुरा जिताः
एती तो प्रति दृश्येते एषा वघूर्भरतराज
एसोसियकर विस्थर (प्रा० )
कंसांसभित्तिमदमर्दन
कण्ठे किन्नरकण्ठि
कथमपि न निषिद्धो
कपोले पत्राली कर्णी-दुःशासनवधात् कर्ता यूतच्छलानां
कलत्रमपि रक्षितु
कल्याणं भूर्भुवः स्वः कविः काव्ये रामः
कस्स व न होइ रोसो (प्रा० ) का भूषा बलिनां
कामं प्रिया न सुलभा कामिनीभिर्भुवो भत्तु :
काव्य रचापि
किमपि किमपि मन्यं
किं तु कलहंसनादो
कि नो व्याप्त दिशां
किं पद्मस्य रुचं
कि लोभेन विलङ्घितः
कुरवक ! कुचाषात
कुसुमसुकुमारमूर्तिकृष्टा केशेषु कृष्णा
कृष्टा येन शिरोरुहेषु कृष्टा येनासि राज्ञां
कैकेयी क्व पतिव्रता कोऽपि सिंहासनस्याधः कोऽयं द्वारि, हरिः
चतुर्थ परिशिष्ट
११०
३०७
२६०
१३६
२५१
१८१
१३७
३६६
१६४
१४६
१४२
३१८
१६३
८६
७८
१६६
२८५
२५८
२६७
१२४
४०७
३६४
३०७
२५७
१४०
१५६
११६
३२१
१२१
१५७
६८
EX
६६
२६५
२६१
रोहिणी - मृगाई प्र० १ अमरुशतके २३
[दशरूपकावलोके प्र० ३ उद्धृतम्]
विलक्षदुर्योधने
कृत्यारावणे
पुष्पदूषितके
पार्थविजये
देवी चन्द्रगुप्ते
यादवाभ्युदये प्र० ७
देवीचन्द्रगुप्ते प्र० ४
वेणीसंहारे
[श्रमरुशतके ८१] वेणीसंहारे
""
राघवाभ्युदये प्र० ५
यादवाभ्युदये refere
[ अभिनवभा० १८६१ उ] [ध्वन्यालोके उ० १ उद्धृतम्]
पाण्डवानन्दे अभिज्ञानशकुन्तले
[ नाट्यशास्त्रे प्र० ५ ] उत्तररामचरिते
इन्दुलेखायाम्
वेणीसंहारे
रत्नावल्याम्
उदात्तराघवे
[काव्यमीमांसायां पृ० ७३ उ० ]
रत्नावल्याम्
वेणीसंहारे प्र० ५
प्र० ३
22
"
मायापुष्पके छलितरामे
[शृंगारप्रकाशे १२ उ ]
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________________
कौशाम्बी मम हस्त एव क्वाकार्य शशलक्ष्मणः
क्षिप्तो हस्तावलग्नः क्षुद्राग्मेरमुतोऽपि खण्डय न्यायतेजोभिः
गिरिरयममरेन्द्र गाव
गुप्तः साक्षात् महानल्पः
गेयपदं स्थित पाठ्यम्
गोष्ठे यत् तु विहरतः चञ्चभुजभ्रमित
चूरिताशेषकौरव्यः
चौर्यरत प्रतिभेदं
जो मन्नो पो ( प्रा० ) तपनीयोज्ज्वलकरकं
तल्लावण्यमनन्यवृत्ति तवास्मि गीतिरागेण
तवैव रुधिराम्बुभिः तस्मिन् कौरव पार्थयोः तारण नमो निग्रंग- ( प्रा० )
तितादुद्विजते मृदो तीरण भीष्ममहोदधौ
त्यजत मानमलं
त्यजन् हेम्नो लभं
त्यजामि देवीं
त्रातो घोषyat
स्वदुः स्थापनेतु सा
त्वयानं यः
स्वय्युपारोपित प्रेम्णा
त्वं जीवितं त्वमसि मे
दत्वा द्रोणेन
दन्तक्षतानि करजैवच
दाराणां व्रतिनां च
दियर किरतुक्केरी (प्रा० )
दिष्ट्या भो !
दुर्ग भूमिरमात्य
चतुर्थ परिशिष्ट
२५९
३२३
३२२
७९
१६५
१४७
२६५
२२६
४०६.
११०
१७१
४०१
२५०
२६३
३१९.
२८२
१३०
१६६
२६६
१५८
१०२
३२४
१२६
२५५
१९४
१२५
१९०
२५६
२६२
१५५
३२१
१३०
३६५
{sས
८२
[ २१
मनोरमावत्सराजे [विक्रमोर्वश्याम् ] [अमरुशतके २] तापसवत्सराजे प्र० २
घुविलासे प्र० ७ कृत्यारावणे
वेणीसंहारे
[नि०सा० नाट्यशास्त्रे प्र०१८, १८३;
१६,११९]
[है०का० प्र० ८ उ ] वेणीसंहारे
प्र० ५
"
बालिकावतके
20
रावाभ्युदये भिज्ञानशकुन्तले
रामाभ्युदये श्र० २
वेणीसंहारे प्र० ६
सुधाकलशे
मुद्राराक्षसे
वेणीसंहारे ० ६
[ रघुवंशे ९,४७ ] सत्य हरिश्चन्द्र
देवी चन्द्रगुप्ते भ्र० २
यादवाभ्युदये
देवीचन्द्रगुप्ते
मृच्छकट्याम्
देवीचन्द्र गुप्ते ० २
उत्तर [राम ] चरिते
वेणीसंहारे
[ध्वन्यालोके उ० ३ उद्धृतम्] रामाभ्युदये भ० २
अनर्घ्यराघवे
मृच्छकट्याम् मायापुष्पके
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________________
चतुर्व परिशिष्ट
१३१. १९८ ३२५ १२१ ३१९ २५६
१७२ ६४,१०८
१८९) २६१.
२२ ] दुल्लहपणासुरामो (प्रा.) एतो लेखस्तथा स्वप्नः दूरादुत्सुकमागते दृष्टि प्रेमभरासस दृष्टिक जरठदेवीवियोगदुःखाताद्रक्यन्ति न चिरात् द्वीपादन्यस्मादपि धिग् मा भ्रूणविघातिनं धूमवातं वितानीनदीना मेषविगमे म माम स्युः स्वर्णन प्रेम निहितं चित्त नमोऽस्तु सर्वदेवेभ्यो नाकीर्णा दशकन्धरी नागाना रक्षिता भाति निरीतयः प्रजाः सन्तु निर्वाणवरदहनाः निहत्य दशकन्धरं नूनं तेनाव वीरेण पञ्चाना मन्यसेऽस्माकं पत्या च विप्रलब्धा
चन्द्रकलामनेन परानुष्ठाने जयति परिग्रहोरुग्राहोषाद् परिषदियषीणामेष परिहरति रति मतिं सुनीते पादाक्रान्तानि पुष्पाणि पिण्डनाव तु भवेत् पिण्डी पुण्यप्रागल्भ्यलम्याय पूर्यन्ता सलिलेन प्रणयविशा दृष्टि प्रत्यग्रयौवनविभूषणप्रत्याश्यानरुषः कृतं प्रथमानुराग-- प्रवृत्तपणाकान्तः
[नाट्याने
हवनस्त के...]
वापसवत्सराजे
वनमालायाम देवीचन्द्रगुप्ते स. २
वेणीसंहारे रत्नावल्याम् । सत्यहरिश्चन्द्र
रामाभ्युदये [पभिनवभा० म. १८. उ]]
सत्यहरिश्चन्द्र
. नलविलासे [नाट्यशास्त्र प्र० ५,१०५] रघुविलासे प्र०६
नागानन्दे
कृत्यारावणे [विणीसंहारे म० १] राषवाभ्युदये म०६
वेणीसंहारे
१८२
२८१
१७२.१७८
४०४ २८७
[कुमारसम्भवे ७,१९]
मुद्राराक्षसे
कृत्यारावणे
वीरपरिते म.३ (काव्यप्रकाये ७,३२६ उ०]
स्वप्नवासवदत्त
१३२
१४६
४०७
२८७ १७५ १४८ २५५
सत्यहरिश्चन्द्र
वेणीसंहारे
रत्नावल्याम देवीचन्द्रगुप्ते प्र०२ रामाभ्युदये प्र० ५
४०१
.
[कौटलीयेचास्ने मधि. ७, ० ३]
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________________
चतुर्थ परिशिष्ट
१०६
१५३
वेणीसंहारे
रघुविलासे वेणीसंहारे भ० ५
४०८ १४७
रघुविलासे रामाभ्युदये म. २ देवीचन्द्रगुप्ते-म० ५
३२७ ३६४
१७७
[नाटयशास्त्रे प्र० ५,१०६]
पुष्पदूषितके वेणीसंहारे म०६
९२
"
११८ १८८ १५१
रघुविलासे रत्नावल्याम्
४.५
२४३ १६७
प्रवृद्ध यद् वैरं प्राणान् यद्विरहेऽप्यहं प्राप्तावेकरथारूढी प्रायोहरिचरितयुतः प्रेमावनबहृदयः बहुनाऽत्र किमुक्त न? बहुविहकज्जविसेसं (प्रा.) बीभत्सा विषया ब्रह्मोत्तरं तथैदास्तु भर्ता तवाहमिति भूमौ क्षिप्त्वा शरीरं भूयः परिभवक्षान्ति. मध्नामि कौरवशतं मध्येऽम्भोधि बभूव मनः प्रकृत्यैव चलं मन्त्रयति च तद्विषयं मन्दोऽप्यमन्दतां याति मा गास्तिष्ठ पुनवंज मार्गा:कण्टकिनः . मित्रं दर्शनमात्रतोऽपि यच्च पदार्थाभिनयं यत् सत्यव्रतमभीरुमनसा यथातथा घृतप्रारणं यथाऽयं मम सम्पूर्णः यदि चेष शुद्धवाचा यद् दुष्करममिनेयं यद् भग्नं विपिन यद् विस्मयस्तिमित यन्मण्डलेन नृत यस्तातेन निगृह्य बालक इव यते द्वारवतीं तदा यायावरेण किमनेन युक्त्यैव क्षत्रबन्धोः युद्धवादमयं येनावृत्य मुखानि रक्षोवीरा दृढोर:
मालविकाग्निमित्रे
कृत्यारावरणे
१६८
"
राघवाभ्युदये
४०६
१८२
वेणीसंहारे तापसवत्सराजे कृत्यारावणे
४०० ४० १५० १२० ४०६ २८९ ३०७
रघुविलासे
मालतीमाधवे भिभिनवभा० उ. प्र. ४, पृ० १८१)
कृत्यारावणे [वक्रोक्तिजीविते २,५६ २०]]
रघुविलासे रामाभ्युदये म.२
रघुविलासे
बलितरामे रामाभ्यदये प्र.४
२५९ १४२
१६.
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२४]
चतुर्थ परिशिष्ट
२५३
[कपूरमञर्याम्]
सुधाकलथे
४०६ १५१ ३२४
३६४ २५० १५६ २६५
३४८ १२५
रंडा चंडा दिक्खिदा (प्रा.) रत्थाइ संचरन्तं (प्रा.) रथ्या-समाज-चत्वर. रम्यां चारतिकारिणी रागस्यास्पदमित्यवैमि राज्ञो मानधनस्य रामेण प्रलयेनेव राष्ट्र प्रवर्धतां चैव रिष्टस्तावदुदनलकेश्वरे त्रिदशदर्पहरे लच्छी गिहीण भूसा (प्रा०) लोकत्रयक्षयोवृत्तलोकोत्तराणि चरितानि वक्त्रं शीदरुचिर्वचांसि वस्त्राणि हे ! हसत वक्वेन्दुः स्मितमातनोदवाप्रपञ्चकसारेण वार्ताऽपि नैव यदिहास्ति विक्रमेण मया लोका: बिना वाहन-पोताभ्यां विन्यस्याभिनवोदये विरोषो विश्रान्तः विष्कम्भक-प्रवेशक वृद्धोक्षस्य नुपस्य वैदेही हृतवांस्तदेष शशिन इव कला शीतांशुमुखमुत्पले शूरास्तु वीर-रौद्रेषु शोक स्त्रीवन्नयनसलिल: श्रीरिव दानवशत्रोः श्रीरेषा पाणिरप्यस्याः श्माध्या पीर्घिषणस्य षोडश द्वादशाष्टो वा सकलरिपुजयाशा स कीचकनिषूदनो सरपक्षा मधुरगिरा
२६४ २६८ १०१ १४२ १९३
देवीचन्द्रगुप्ते प्र.६
नागानन्दे
वेणीसंहारे कृत्यारावरणे म०७ [नाटयशास्त्रे अ० ५,१०७]]
बालिकावञ्चितके रघुविलासे प्र० ४
सुधाकलशे · रामाभ्युदये प०२ [बामनगुप्तस्य म. भा० ६,४५] कौमुदीमित्राणन्दे म०३ रघुविलासे म० ४
नलविलासे
कृत्यारावणे विधिविलसिते म०५ कृत्यारावणे प० २
मुद्राराक्षसे
नसविलासे उत्तर [राम] चरिते [है. काव्या० उ०प्र०८] यादवाभ्युदये प्र०७
राघवाभ्युदये कृत्यारावणे प्र०७
रत्नावल्याम् [हमकाम्या विवेके प० ८,३२६ उ०]
बेणीसंहारे
१७३
६२,१८२
१५६ २२८
४०४ १३२ १८४
रत्नावल्याम् तापसवत्सराजे
४०७
वेणीसंहारे प्र. ५
१७१ १६२ २६९
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चतुर्थ परिशिष्ट
६५,२८१
सत्वकतानवृत्तीनां सन्तः सच्चरितोदय सन्धिसन्ध्यङ्गघटनं समुत्थिते धनुध्वंनो सर्वक्षितिभृतां नाय ! 'सर्वथा कथय ब्रह्मन् ! सर्वदायोक्षविजयी सर्वेषामपि सन्ति सव्याजः शपथः साम भेदस्तथा दण्डो सा स्वर्गलोकललनासाहसं च भयं चैव सीतां काननतो जहार सीताया वदनं स्निग्धं वीक्षितमन्यतोस्वप्नोऽयं नहि विभ्रमः स्वर्गस्त्री यदि तत् स्वसुर्मम परामवहतः पुषी हतो भ्राता हरि-हर-भानु-भवानी.. हस्ताकृष्टविलोलहूं शक्रः स जितो ह्रिया सर्वस्यासो
२५७ १६६ २६० २६५ १७३ १६८ १२३ १९८ २०४
[ २५
सत्यहरिषचन्द्र [दशरूपकाव० प्र० ३ ३०] [ध्वन्यालोके उ० ३,१२]
अर्जुनचरिते विक्रमोर्वश्याम् वेणीसंहारे प्र०६ मनोरमावत्सराजे
नलविलासे
रत्नावल्याम् [नाट्यशास्त्रे अ० १९,१०१]
रोहिणी-मृगाके म०५ [नाट्यशास्त्र म० १९.१०२]
___ रघुविलासे राघवाभ्युदये ५००
मभिज्ञानशकुन्तले पुष्यदूषितके म०५
. नागानन्दे . , उदात्तराघवे पुष्पदूषितके म०५
१२५ १८९ १२२ ३६७
४०८
१६८ १५२
वेणीसंहारे २ रघुविसासे प.
रत्नावल्याम्
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