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( ५ ) नाट्यदर्पणकार का योगदान
___ रामचन्द्र उन कतिपय प्राचार्यों में परिगणित होने योग्य है जिनमें कारयित्री एवं भावयित्री दोनों प्रकार की प्रतिमा विद्यमान है। नाट्यदर्पण के अतिरिक्त उन्होंने मल्लिका-. मकरन्दम, यादवाभ्युदयम्, रघुविलासम, राघवाभ्युदयम्, रोहिणीमुगाङ्कम्, वनमाला-नाटिका मादि नाटक एवं सुधाकलश नामक काव्य की रचना की। अपने नाटपग्रन्थ के लिए उनके मन में नाटकरचना की प्रेरणा उठी प्रपवा नाटक-रचना के उपरान्त प्राचीन नाटय-सक्षणों में संशोधन की मावश्यकता प्रतीत हुई. अथवा दोनों प्रेरणाएँ साथ साथ उत्पन्न हुई, यह निश्चय करपा कठिन है।
___ यद्यपि नाटयार्पणमें विद्वान् व्याकरण की अनेक प्रशुद्धियां निकाल सकते हैं, मोर प्राचार्य की नवीन मान्यतामों का खण्डन भी कर सकते है, पर इतना तो अवश्य ही स्वीकार करना पड़ेगा कि (१) उन दोनों ग्रन्थकारों ने अनेक प्रकाशित नाटय-ग्रन्थों का अध्ययन करके उनके आधार पर एक नये नाट्यशास्त्र का निर्माण किया । (२) अनेक प्रकाशित ग्रन्थों का विषय प्रकाश में लाकर नाट्य-साहित्य की समृद्धि की (३) नाट्य-साहित्य मोर नाट्यशास्त्र का नये ढंग से चिन्तन किया। (४) अनेक गम्भीर विषयों का अपने मतानुसार स्पष्टीकरण किया। (५) विरक्ति प्रधान जैन समाज में शृंगार-प्रधान नाट्यसाहित्य को भी समाहत किया। (६) पूर्वाचार्यों द्वारा निति नाट्य-लक्षणों में संशोधन उपस्थित करने का साहस करके नवीन शैली पर सोचने का मार्ग प्रशस्त किया। (७) रस-विवेचन में इन प्राचार्यों ने एक नया सिद्धान्त उपस्थित किया। ये प्राचार्य रसों को प्रभिनवगुप्त के समान न तो सुख-दुःख रूप ही मानते हैं, न इनका मत धनंजय-धनिक एवं विश्वनाथ के समान सुखात्मकवादी ही है। इनका मत विभज्यवादी मत कहलाता है जिसके विषय में हम पूर्व विवेचन कर पाए हैं।
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