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________________ वाले कार्य को अङ्क में स्थान नहीं देना चाहिए, किन्तु भर की विशेषताओं का कहीं उल्लेख नहीं किया। उपर्युक्त लक्षणों की तुलना करते हुए यह स्वीकार करना पड़ेगा कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने पूर्ववर्ती प्राचार्यों के अङ्क-सम्बन्धी पक्षणों को स्वतन्त्र रीति से सोचने और व्यापक बनाने का प्रयत्न किया है । इसी प्रकार अर्थप्रकृति के लक्षण का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने से भी इम उक्त निष्कर्ष पर ही पहुंचते है। अर्थ-प्रकृति भरतमुनि ने बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य नामक पांच पर्वप्रकृतियों का विवेचन किया है। परवर्ती सभी प्राचार्यों ने भरतमुनि का ही मनुसरण किया और उन्हीं के निर्मित लक्षणों को पाधार बनाया। सभी ने प्रयोजन-सिद्धि के पांच हेतुमों का उपयुक्त सम रखा। किन्तु रामचन्द्रगुणचन्द्र ने इनमें परिवर्तन कर दिया। उन्होंने प्रर्यप्रकृति को 'उपाव भाम से अभिहित किया और उनका क्रम रखा- . बीजं पताका प्रकरी बिन्दुः कार्य ययाचि। फलस्य हेतवः पन्ध चेतनाचेतनात्मकाः ।। सूत्र १।२८ उन्होंने कारिका की वृत्ति में यह सष्ट किया है कि रुचि के अनुरूप इनके क्रम में परिसन किया जा सकता है । अन्य भाचार्य इस मत से सहमत नहीं। दूसरा भन्तर यह है कि रामचनापूर्णमा इन उपायों का विभाजन चेतन एवं प्रचेतन की दृष्टि से एक विलक्षण रीति से करना चाहते है। अचेतन हेतु भी मुख्य भौर पमुख्य भेद से दो प्रकार का होता है। 'बीज' मुख्य भवेतन हेतु है और 'कार्य' अमुख्य। इसी प्रकार चेतन हेतु भी मुख्य मौर उपकरणभूत दृष्टि से दो प्रकार के होते हैं । 'बिन्दु' मुख्य चेतन हेतु है । उपकरणभूत चेतन हेतु दो प्रकार के होते है-(१) स्वार्थसिद्धि युक्त होने के साथ परार्थ-सिद्धिपर (२) पराध-सिस्तित्सर । प्रथम का नाम 'पताका' है, मोर द्वितीय का नाम प्रकरी। इस प्रकार का वर्गीकरण भोर कम हमें अन्य किसी प्राचार्य की रचना में नहीं दिखाई पड़ता । पंच उपायों के लक्षण भी अन्य भाचार्यों से कहीं-कहीं भिन्न रूप में दिखाई पड़ते है। रामचन्द्र की विशेषता यह है कि ये लक्षण के उपरान्त स्वरचित नाटकों से उदाहरण देकर लक्षणों की पुष्टि करते है। बीज मोर बिन्दु के लक्षण और उदाहरण का मापायों को अपेक्षा अधिक पष्ट और बोधगम्य है। मावश्यकतानुसार एकही. 'उपाद के पार पार उदाहरण देकर उन्होंने कठिन विषय को सरल बना देने का प्रयास किया है। उदाहरणार्थ, बीज केक्षण के उपरान्त रत्नावली, सत्यहरिश्चन्द्र, स्वरचित यादवाभ्युदय एवं मुद्राराक्षस के उन स्थलों का विश्लेषण किया है जहाँ से 'बीज' प्रारम्भ होकर शाखा मावि रूप में विस्तार पाता है। उपयुक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि राम चन्द्र ने नादच-सम्बन्धी (द स्थलों का मौलिक रीति से चिन्तन करने का प्रयास किया है। इतना अवश्य है कि मौलिकता उत्साह में वे कहीं कहीं इतने बहक गए है कि मुबलक पनते पागले. रह पाते हैं। जैसे स-वर्णन कतिपय प्रसंगों में । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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