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________________ ( ६५ ) प्र इति रूढिशब्दो भावश्च रसंश्च रोहयत्यर्थान् । नानाविधानयुक्तो यस्मात्तस्माद्भवेदङ्कः ॥ इस लक्षण से प्रङ्क का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता । धनञ्जय ने भी अङ्क का लक्षण स्पष्ट नहीं किया । नाट्यदर्पणकार ने अह्न का लक्षण अन्य प्राचार्यों की अपेक्षा अधिक विस्तार के साथ इस प्रकार लिखा है [कार्य की प्रारम्भ प्रादिरूप] अवस्था की समाप्ति अथवा कार्यवश [ असमाप्त अवस्था का भी] विच्छेद [ जो भगले प्रङ्क की कथा के बीज अथवा ] बिन्दु से युक्त और दो घड़ीं से लेकर चारप्रहर तक के दर्शनीय अर्थ से युक्त हो वह 'अ' कहलाता है । पाँच अवस्थाओं में से किसी भी एक अवस्था का प्रारम्भ और पूर्णता द्वारा समाप्ति [प्रत की नियामिका होती है । उसको मङ्क में दिखलाना चाहिए] प्रथवा मसमाप्त अवस्था का भी कार्यवश जो बीच में विच्छेद कर दिया जाय वह भी अङ्क का नियामक है । 'कार्य' पद से यहाँ एक दिन में न हो सकने वाले दूरदेशगमन प्रादि अथवा बहुत लम्बा होने के कारण एक दिन में जिसका अभिनय किया जाना सम्भव न हो [उसका ग्रहण होता है ] । उसके कारण जो अवस्था का बीच में हो विच्छेद कर दिया जाता है वह भी 'मङ्क' का नियामक है । [कारिका १९ ] रामचन्द्रगुणचन्द्र का यह लक्षण पूर्ववर्ती प्राचार्यों के लक्षणों से अधिक स्पष्ट है । किन्तु प्राश्चर्य यह है कि परिवर्ती आचार्यों ने इसका कोई उपयोग नहीं किया, और विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में भरत के ही लक्षण का आधार लेते हुए कहा है " जिसके अन्त में सम्पूर्ण पात्र रंगमंच से निष्क्रमण कर जाएँ।" भरत ने कहा है : निष्क्रामः सर्वेषां यस्मिन्नङ्कः स विज्ञेयः श्रोर विश्वनाथ ने भरत के निम्नलिखित श्लोकों की सर्वथा उपेक्षा की तथा उनका कोई अंश अपने में सम्मिलित नहीं किया लक्षण लिखा है यत्रार्थस्य समाप्तिर्यत्र च बीजस्य भवति संहारः । किञ्चिदवलग्न बिन्दु) सोऽङ्क इति सवावगन्तव्यः ॥ अङ्क का यह लक्षण अधिक स्पष्ट हैं । अभिनवगुप्त ने इसी लक्षण का आधार लेकर इत्य लक्षणे ः शब्दः । अन्यतो व्यवच्छेवकं लक्षलम् श्रभिनेये रसभावsafarius रोहयति । हृवयसंवादसाधारणता करणेन प्रत्यक्षीभावनया रसाकारोदयप्ररोहो भवति । प्रारम्भाद्यत्रस्थालक्षरणो यत्र समाप्यते सोऽङ्कः । मुखादिषु यथाक्रमं बीजस्य दशाविशेषाः संहारसान्ववाच्या अनेक रसाङ्कितत्वाव इति नाम । - अभिनवभारती अभिनवगुप्त ने भरतमत की व्याख्या विस्तार के साथ की है । सागरनन्दी ने 'नाटकलक्षणरत्नकोश' में भङ्क में वर्जित घटनाओं का ही उल्लेख किया है । घटनाकाल के विषय में इतना अवश्य लिखा है "बहुकालप्रपेयं कार्यं नाङ्क विधेयम् ।" अर्थात् दीर्घकाल में घटित होने १. प्रत्यक्षचित्रचरितैर्युक्तो भावरसोद्भवैः । प्रन्तनिष्क्रान्तनिखिलपात्रोऽङ्क इति कीर्तितः ॥ सा० द० ६-१६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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