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________________ ३२४ ] नाट्यदर्पणम विरुद्धेन रसान्तरेण व्यवधाने । यथा नागानन्दे "रागस्यास्पदमित्यवैमि न हि मे ध्वंसीति न प्रत्ययः ।" इत्यादिनोपक्षेपात् प्रभृति शांतो रसस्तस्य विरुद्धो मलयवतीविषयः शृङ्गारः'अहो गीतमहो वादित्रम्' इत्यादिना श्रद्भुतमन्तरे कृत्वा निबद्धः । एवमन्येप्युदाहार्यमिति । [ का० १२५, सू० १८० विभाव-व्यभिचारिणां तु रसानुरोधेन विरोधः परिहारश्च द्रष्टव्यः । अथ रसदोषानाह - M [ सूत्र १८० ] - दोषोऽनौचित्यमङ्गौग्रच श्रपोषोऽत्युक्तिरङ्क्षिभित् (अ) सहृदयानां विचिकित्साहेतु कर्मानौचित्यं तच्चानेकधा । ( क १) तत्र क्वचित् प्रतिकूलविभाव- मात्रनिबन्धो यथा " त्यजत मानमलं बत विग्रहैर्न पुनरेति गतं चतुरं वयः । परभृताभिरितीव निवेदिते स्मरमते रमते स्म वधूजनः || ” ।। [२३] १२५ ।। श्रव्यवधानसे वर्णन] होनेपर ही विशेष होता है । [दोनोंके] अविरोधी अन्य रसके व्यवधान होनेपर विरोध नहीं होता है । जैसे नागानन्दमें [हे मित्र आत्रेय ! यह यौवन] विषय-वासनाका घर है यह बात मैं जानता हूँ और यहं सदा रहने वाला नहीं है यह बात भी मुझे मालूम है [ प्रथमांक श्लोक संख्या ४] । इत्यादि [मुखसन्धिके] उपक्षेप [नामक अंग] से लेकर शांत रस [प्रारम्भ हो गया ] है । उसका विरोधी मालती विषयक अनुराग [ प्रथमांकके १४ वें श्लोकके पूर्व कहे गए ] 'श्रहो गीतं श्रहो वादितम्' इत्यादि [वाक्य ] से बीचमें प्रद्द्भुत रसका समावेश करके [ व्यवधानसे] वर्णन किया गया है। [इसलिए यहाँ शांत तथा श्रृंगार रसोंका विरोध नहीं रहता है ]। इसी प्रकार अन्य रसोंमें भी समझ लेना चाहिए । [विरोधी रसों] के विभावों तथा व्यभिचारिभावों में रसके [ विरोध-प्रविरोधको व्यवस्थाके ] अनुसार ही विरोध तथा उसका परिहार समझ लेना चाहिए । अब रसके दोषोंका वर्णन प्रारम्भ करते हैं [ सूत्र १८० ] - ( क ) [ रसोंका ] अनौचित्य, (ख) अंगोंकी उग्रता [अर्थात् प्रप्रधानभूत रसका प्रधानरसको अपेक्षा विस्तारपूर्वक वर्णन ] ( ग ) [ मुख्य रसकी] पुष्टिका प्रभाव, (घ) [मुख्य रसका भी प्रावश्यकतासे] अधिक विस्तार (ङ) [ अंगिभित् प्रर्थात् ] प्रधान रसको भुला देना [ये पाँच प्रकारके रसके] दोष होते हैं । [३३] १२५ । (क) सहृदयोंके [मनमें] शङ्का या संदेह [उत्पन्न] करने वाला कर्म अनौचित्य कहलाता है । और वह अनेक प्रकारका हो सकता है । [ रसका अनौचित्य ] कहीं ( क१) प्रतिकूल विभावादिके वन रूप होता है। जैसे— Jain Education International इस मानको छोड़ दो, [अधिक काल तक ] प्ररणय-कलह करना उचित नहीं है। यह [ यौवनकी] सुन्दर अवस्था [ एक बार समाप्त हो जानेपर ] फिर लौटकर नहीं प्राती है । कोकिलोंके [लहू शब्द द्वारा] मानो इस प्रकारकी सूचना देनेपर वधूजन कामोत्सुक पतियोंके For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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