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काय १२५, सू० १७६ ] तृतीयो विवेकः
[ ३२३ तथा एकाश्रययोरपि तुल्यबलयोर्विरोधो, न तु हीनाधिकबलयोः। यथा पुरुरवाः प्राह
"क्वाकार्य शशलक्ष्मणः क्व च कुलं भूयोऽपि दृश्येत सा, दोषाणां प्रशमाय नः श्रुतमहो कोपेऽपि कान्तं मुखम् । किं वक्ष्यंत्यपकल्मषाः कृतधियः स्वप्नेऽपि सा दुर्लभा,
चेतः ! स्वास्थ्यमुपैहि कः खलु युवा धन्योऽधरं धास्यति॥" अत्र शृङ्गार-शांतयोर्न परस्परमङ्गाङ्गिभावो अपोष्य-पोषकत्वात् । तृतीयस्याभावात् अङ्गभावोऽपि नास्ति, किन्तु स्वतन्त्रौ । तथापि न विरोधः, शांतस्यागन्तुकत्वेन अल्पबलत्वात् । अत एवात्र पर्यन्ते शृङ्गारे विश्रान्तिः । एवमन्यत्रायुदाहार्यम्।
तथा एकाश्रययोः स्वैरिणोस्तुल्यशक्त्योर्विरुद्धयोर्योगे नैरन्तर्ये विरोधो न त्वतिशयके अंग हैं। इसलिए परस्पर विरोधी होनेपर भी दूसरे [प्रधानभूत शिवके प्रतापातिशय] का मुख देखने वाले होनेसे परतन्त्रताके दुःखसे प्राक्रांत होकर स्वयं अपने परिपोषणको न प्राप्त कर सकने वाले करुण मौर शृंगारमें, राजाके समीपमें स्थित दो प्राततायियोंके समान एक दूसरेके लिए धारय-घातक भाव नहीं हो सकता है । [इसलिए यहां इन दोनों रसों का परस्पर विरोध नहीं है।
इसी प्रकार एक ही [नायक प्रावि रूप] प्राधयमें रहने पर भी दोनोंके तुल्य बल होनेपर ही विरोष होता है। दुर्बल और प्रबल होनेपर नहीं। जैसे [विक्रमोर्वशीयमें] पुरूरवा कहता है
(१) कहां यह अनुचित कार्य और कहां [हमारा उज्ज्वल बनवंश [तक] । (२) क्या वह फिर कभी देखनेको मिलेगो [ौत्सुक्य] । (३) [मरे] मैंने तो दोषोंपर विजय प्राप्तके लिए ही शास्त्रोंका अध्ययन किया है
[फिर इस कुमार्गपर क्यों जा रहा हूँ] [मति । (४) [मोहो] कोषमें [नाराज होनेपर भी उसका [लाल-लाल] मुख कितना सुन्दर
लगता है। [स्मरण]। (५) [मरे मेरे इस व्यवहारको बेलकर] विद्वान एवं धर्मात्मा लोग मुझको क्या
कहेंगे शंका। (६) वह तो। अब स्वप्न में भी दुर्लभ हो गई। बन्य] (७) अरे मन तनिक पीरज रखो। [] (८) न जाने कौन सौभाग्यशाली युवक उसके प्रधरामृतका पान करेगा [चिन्ता] ।
इसमें शांत और श्रृंगार रसोका पोष्य-पोषकभाव न होनेसे अंगांगिभाव [मर्यात गुणप्रधानभाव नहीं है । और किसी तीसरे रिस] के न होनेसे [दोनोंका तीसरेके प्रति] अंगभाव भी नहीं है। किन्तु बोनों स्वतन्त्र रस हैं। फिर भी यहाँ शान्त रसके आगन्तुक होनेसे दुर्बल [तथा भंगारके प्रकृत होने के कारण प्रबल होनेसे [उन दोनों का विरोध नहीं है। इसलिए यहाँ पन्त भंगार रस में ही विधान्ति होती है। इसी प्रकार सम्य बाहरण भी समझ सेने पाहिए।
पौर एकामयमें रहने वाले दो स्वतन्य तवा सुंस्य पसरतोंका भी मेरन्त पार
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